धर्ममाता श्री चिरोज़ा बाई जी -१७
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
जैन कुल में जन्म लेने वाले श्रावक को धर्ममार्ग में स्थित होने के लिए विशेष पुरुषार्थ करना पढ़ता है जबकि अपने आत्मकल्याण की दृढ़ भावना रखने वाले गणेश प्रसाद का जन्म तो जैनेत्तर परिवार में हुआ था।
आत्मकथा के प्रस्तुत प्रसंग पूज्य वर्णीजी के धर्ममार्ग में आगे बढ़ने के प्रारंभिक समय को चित्रित करते हैं। एक महापुरुष के जीवन का यह चित्रण धर्मानुराग रखने वाले सभी पाठकों को लाभप्रद होगा।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*
क्रमांक - १७
रात्रि को फिर शास्त्रसभा हुई, भायजी साहब ने शास्त्र प्रवचन किया, क्षुल्लक महराज भी प्रवचन में उपस्थित थे। उन्हें देख मेरी उनमें अत्यंत भक्ति हो गई। मैंने रात्रि उन्ही के सहवास में निकाली।
प्रातःकाल नित्यकार्य से निवृत्त होकर श्री जिनमंदिर गया और वहाँ दर्शन, पूजन व स्वाध्याय करने के बाद क्षुल्लक महराज की वन्दना करके बहुत ही प्रसन्न चित्त से यांचा की।
निवेदन किया- 'महराज ! ऐसा उपाय बताओ, जिससे मेरा कल्याण हो सके। मैं अनादिकाल से इस संसार बंधन में पड़ा हूँ। आप धन्य हैं, यह आपकी ही सामर्थ्य हैं जो इस पद को अंगीकार कर आत्महित में लगे हो। क्या कोई ऐसा उपाय है, जिससे मेरा हित हो।'
क्षुल्लक महराज ने कहा- 'हमारे समागम में रहो और शास्त्र लिखकर आजीविका करो। साथ ही व्रत नियमों का पालन करते हुए आनंद से जीवन बिताओ। आत्महित होना दुर्लभ नहीं।'
मैंने कहा- 'आपके साथ रहना इष्ट है, परंतु आपका यह आदेश कि शास्त्रों को लिखकर आजीविका करो मान्य नहीं। आजीविका का साधन तो मेरे लिए कोई कठिन नहीं, क्योंकि मैं अध्यापकी कर सकता हूँ। वर्तमान में यही आजीविका मेरी है भी। मैं आपके साथ रहकर धार्मिक तत्वों का परिचय प्राप्त करना चाहता था।
यदि आप इस कार्य की अनुमति दें, तो मैं आपका शिष्य हो सकता हूँ। किन्तु जो कार्य आपने बताया है वह मुझे इष्ट नहीं। संसार में मनुष्य जन्म मिलना अति दुर्लभ हैं। आप जैसे महान पुरुषों के सहवास से आपकी सेवावृत्ति करते हुए जैसे क्षुद्र पुरुषों का भी कल्याण हो वही हमारी भावना है।'
यह सुन पहले तो महराज अचरज में पड़ गए। बाद में उन्होंने कहा 'यदि तुमको मेरा कहना इष्ट नहीं, तो जो तुम्हारी इच्छा हो, सो करो।'
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ८?
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