धर्ममाता श्री चिरोज़ा बाई जी -१९
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
जो मनुष्य अपनी कमियों को ईमानदारी से अनुभव करता है वह निश्चत ही उन कमियों को दूर करने में सक्षम होता हैं, संयम के संबंध में वर्णीजी के जीवन में यह बात आपको यहाँ और अनेकों जगह देखने मिलेगी।
आजकी प्रस्तुती में हम देखेंगे बाई जी का गणेशप्रसाद को धर्म के संबंध में उदभोदन, यह हम सभी के लिए भी बहुत लाभकारी है।
तीसरी बात ज्ञानार्जन के प्रति वर्णीजी की तीव्र लालसा देखने को मिलेगी जो उनकी विशेष होनहार का परिचायक है।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*
क्रमांक - १९
भाद्रमास था, संयम से दिन बिताने लगा, पर संयम क्या वस्तु है, यह नहीं जानता था। संयम जानकर भाद्रमास भरके लिये छहों रस छोड़ दिए थे।
रस छोड़ने का अभ्यास तो था नहीं, इससे महान कष्ट का सामना करना पड़ा। अन्न की खुराक कम हो गई और शरीर शक्तिहीन हो गया।
व्रतों में बाईजी के यहाँ आने पर उन्होंने व्रत का पालन सम्यक प्रकार से कराया। और अंत में यह उपदेश दिया- 'तुम पहले ज्ञानार्जन करो, पश्चात व्रतों को पालना, शीघ्रता मत करो, जैन धर्म संसार से पार करने की नौका है, इसे पाकर प्रमादी ना होना, कोई भी काम करो समता से करो। जिस कार्य में आकुलता हो, उसे मत करो।'
मैंने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और भाद्रमास के बीतने पर निवेदन किया कि 'मुझे जयपुर भेज दो।'
बाईजी ने कहा- 'अभी जल्दी मत करो, भेज देंगे।'
मैंने पुनः कहा- 'मैं तो जयपुर जानकर विद्याभ्यास करूँगा।' बाईजी बोलीं- 'अच्छा बेटा, जो तुम्हारी इच्छा हो सो करो।'
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल१०?
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