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?रुद्रप्पा की समाधि -१ - अमृत माँ जिनवाणी से - १६२


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

           प्रस्तुत प्रसंग से ज्ञात होता है कि किस प्रकार पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने गृहस्थ अवस्था में ही उस समय की प्लेग जैसी भयंकर महामारी के संक्रमण की परवाह ना करते हुए अपने मित्र रुद्रप्पा का समाधिमरण कराया। अजैन व्यक्ति की भी समाधि करवाने उनके संस्कार जन्म जन्मान्तर की उत्कृष्ट साधना के परिचायक है।

       हमेशा अपने जीवन में हम सभी को अच्छे लोगो की संगति रखना चाहिए क्योंकि रुद्रप्पा जैसा हम लोगों के लिए सातगौड़ा (शान्तिसागर महराज) जैसे मित्र बुराइयों से बचाते ही साथ समाधिमरण की सफलता में भी पूर्ण सहभागी भी बनते हैं।

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १६२   ?


               "रुद्रप्पा की समाधि-२"


          अपनी अंतिम अवस्था में पूज्य शान्तिसागरजी महराज (गृहस्थ अवस्था में) की वाणी सुनकर रुद्रप्पा को लगा कि जिनधर्म ही खरा (सच्चा) धर्म है। जैनगुरु ही सच्चे गुरु हैं। जैन शास्त्र ही सच्चे शास्त्र हैं। इनकी महिमा को कोई नहीं समझ सकता। उसके मन में श्रद्धा जगी। मिथ्यात्व की अंधियारी दूर हुई।

         उस समय उसका भाग्य जगा, ऐसा मालूम होता है, तभी तो वह जिनेन्द्र के नाम से प्यार करने लगा। अब उसके मुख पर अन्य नाम के लिए भी स्थान नहीं है।

        वह अरिहंता कहता है। वाणी क्षीण हो गई है अतः शब्दों का उच्चारण नहीं कर सकता, ओष्ठों का स्पंदनमात्र होता है।

        महराज कहते हैं- "रुद्रप्पा ध्यान दो। शरीर और आत्मा  जुदे-जुदे हैं। अरिहंत का स्मरण करो।"

       इतने में शरीर चेष्टाहीन हो गया। अब रुद्रप्पा वहाँ नहीं है। समाधिमरण के प्रेमी शान्तिसागरजी महराज ने गृहस्थ जीवन में ही अपने मित्र को सुपथ पर लगा दिया। सचमुच में उसकी सदगति करा दी।

       ऐसी मैत्री आज कौन दिखाता है। आज तो भवसिन्धु में डूबने वाले यार-दोस्त मिलते हैं। मोक्ष के मार्ग पर लगाने वाले सन्मित्र का लाभ दुर्लभ है।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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