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?अनुकंपा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२८


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२८   ?


                    "अनुकम्पा"


        पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।

          जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।

          बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में थे, अतः महराज उस धर में ही आहार लेते थे, जो मिथ्यात्व का त्याग करता था। 

         उनकी इस प्रतिज्ञा के भीतर आगम के साथ सुसंगति थी। मिथ्यात्व की आराधना करने वाला मिथ्यात्वी होगा। मिथ्यात्वी के यहाँ का आहार साधु को ग्रहण करना योग्य नहीं है। उसके श्रद्धादि गुणों का सद्भाव भी नहीं होगा।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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