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?विपत्ति में दृढ़वृत्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - ८०


Abhishek Jain

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?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८०     ?

               "विपत्ति में दृढ़वत्ति"

            
        एक बार गजपंथा में पंचकल्याणक महोत्सव के समय मैंने महाराज से पूंछा था, "महाराज सर्पकृत भयंकर उपद्रव के होते हुए, आपकी आत्मा में घबराहट क्यों नहीं होती है, जबकि सर्प तो साक्षात् मृत्युराज ही है?"

                   महाराज बोले, विपत्ति के समय हमें कभी भी भय या घबराहट नहीं हुई। सर्प आया और शरीर पर लिपटकर चला गया, इसमे महत्व की बात क्या है?"

                     मैंने कहा, "उस मृत्यु के प्रतिनिधि की बात तो दूसरी, जब अन्य साधारण तुच्छ जीवकृत बाधा सहन करते समय सर्वसाधारण मे भयंकर अशांति उत्पन्न हो जाती है, तब आपको भय ना लगा, वह आश्चर्य की बात है।"

                      महाराज, "हमें कभी भी भय नहीं लगता। यहाँ तो भीती की कोई बात भी नहीं थी। यदि सर्प का व् हमारा पूर्व भव का बैर होगा, तो वह बाधा करेगा, अन्यथा नहीं। उस सर्प ने हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं किया।"

                      मैंने कहा, "महाराज, उस समय आप क्या करते थे, जब सर्प आपके शरीर पर लिपट गया था?"

                    महाराज बोले, "उस समय हम सिद्ध भगवान का ध्यान करते थे।"

                    मैंने जिज्ञासु के रूप में पूज्य श्री से पूछा, "जब आपके शरीर पर सर्प चढ़ा, तब उससे शरीर का स्पर्श होने पर आपके शरीर को विशेष प्रकार का स्पर्शजन्य अनुभव होता था अथवा नहीं।"

                  महाराज ने कहा, "हम ध्यान में थे। हमें बाहरी बातों का भान नहीं था।"

                  विचारशील व्यक्ति सोच सकता है कि सर्पकृत महाराज के जीवन की अग्नि परीक्षा से कम नहीं हैं। घन्य है उनकी भेद विज्ञानं की ज्योति, जिससे वह अपनी आत्मा को सर्प-बाधा-मुक्त जानते हुए, आत्मा से भिन्न शरीर को सर्प वेष्टित देखते हुए भी परम शांत रहे। यथार्थ में उनका नाम शान्तिसागर अत्यंत उपयुक्त था।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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