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Sneh Jain

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  1. Sneh Jain
    प्रायः यह कहा जाता है, पढ़ने में आता है, या देखा भी जाता है कि मनुष्य के वातावरण का उस पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। यह भी कहा जाता है कि 50 प्रतिशत गुण-दोष व्यक्ति में वंशानुगत होते हैं तथा प्रारम्भ में जो संस्कार उसको मिले वे आखिरी तक उस पर अपना प्रभाव बनाये रखते हैं। ये सब कथन काफी हद तक सही भी हैं। लेकिन जब हम रामकाव्य के पात्रों के जीवन को देखते हैं तो एक बात साफ उभरकर आती है कि कितना ही उपरोक्त कथन सही हो लेकिन जब व्यक्ति का स्वबोध जाग्रत होता है तो उपरोक्त सब बाते पीछे धरी रह जाती है और स्वबोध प्राप्त व्यक्ति अपनी नयी राह बनाकर आगे चल पडता है। इसके विपरीत स्वबोध के अभाव में व्यक्ति अपने विकास को अवरुद्ध कर पतन की ओर मुड़ जाता है। रामकथा के पात्रों के माध्यम से इस तथ्य को बहुत स्पष्टरूप से समझा जा सकता है। इक्ष्वाकुवंश में बाहुबलि व राम, वानरवंश में बालि, तथा राक्षसवंश में विभीषण, ये ऐसे ही स्वबोध को प्राप्त विशिष्ट चरित्र हैं जो स्वबोध के कारण अपने वातावरण से दूर विशिष्ट मार्ग पर चल पडे़ हैं। इसके विपरीत जिनको स्वबोध नहीं हो पाता वे किस तरह पतन की ओर मुड़ जाते हैं यह हम रावण की बहन चन्द्रनखा के माध्यम से उसके जीवन की एक घटना के आधार से देखने का प्रयास करते हैं।
    एक दिन चन्द्रनखा का पुत्र शम्बूक चन्द्रहास खड्ग को सिद्ध करने की साधना करने हेतु गया। शम्बूक की साधना पूर्ण होने ही वाली थी कि उसके पूर्व ही वन भ्रमण करते हुए लक्ष्मण ने खेल ही खेल में शम्बूक का वंशस्थल आहत कर उसके खड्ग को प्राप्त कर लिया। उसके कुछ ही समय बाद चन्द्रनखा अपने पुत्र शम्बूक  लिए खड्ग की प्राप्ति हो जाने का विचार कर प्रसन्न होती हुई उसके पास पहुँची। वहाँ पहुँचकर उसने पुत्र का मुकुट, कुण्डलों से सुशोभित सिर व छिन्न-भिन्न वंशस्थल देखा और धाड़ मारकर रोने लगी। तब उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जिसने मेरे पुत्र को मारा है यदि मैंने उसके जीवन का अपहरण नहीं किया तो मैं अग्नि में प्रवेश कर लूंगी। फिर जैसे ही उसने पीछे मुड़कर देखा वैसे ही उसे पीछे राम व लक्ष्मण दिखाई दिये। लक्ष्मण के हाथ में तलवार देखने पर उसने यह जान लिया कि इस ही ने मेरे पुत्र की हत्या की है परन्तु उनको देखते ही उसका पुत्र शोक चला गया और वह काम से पीड़ित हो उठी। तब शीघ्र ही अपना सुन्दर कन्या रूप बनाकर उनके पास पहुँची और एक क्षण में धाड़़ मारकर रोने लगी।
    उस ही वन में भ्रमण कर रहे राम ने चन्द्रनखा से उसके रोने का कारण पूछा। तब चन्द्रनखा ने कहा- हे राजन! मैं वन में दिशा भूल गयी हूँ। मेरे पुण्य से तुम मुझे मिल गये। यदि हमारे ऊपर तुम्हारा मन है तो दोनों में से एक मुझसे विवाह कर लें। राम व लक्ष्मण ने चन्द्रनखा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर पर उसने किलकारियाँ भरकर सैकड़ों ज्वालाएँ छोड़ीं। यह  देखकर राम ने लक्ष्मण से कहा- हे लक्ष्मण! इस के चरित को देखो। उसके बाद चन्द्रनखा अपनी आँखें लाल कर, अपने ही नखों से अपने ही शरीर को विदारित कर घाड़़ मारती हुई अपने घर खरदूषण के पास पहुँची। वहाँ पहुँचकर रोती हुई उसने कहा- हे राजन! मेेरा जनप्रिय पुत्र शम्बुकुमार राम व लक्ष्मण के द्वारा मृत्यु को प्राप्त हो गया। राम व लक्ष्मण ने मुझे नखों से विदीर्ण किया है। फिर भी मैं किसी तरह उनसे बच गयी।

     
    खरदूषण अपनी पत्नी चन्द्रनखा के मुख से राम व लक्ष्मण द्वारा पुत्र शम्बूक को आहत किया जाना तथा  चन्द्रनखा के शील को कलंकित किया जानकर क्रोधित हुआ शीघ्र जाकर लक्ष्मण से युद्ध में भिड़ गया। उस यद्ध में खरदूषण मारा गया। उस युद्ध में ही खरदूषण का साथ देने आये रावण ने सीता का हरण किया। सीता के हरण के परिणाम स्वरूप लंकानगरी तहस नहस हुई और अन्त में रावण भी मारा गया।
    चन्द्रनखा के जीवन से सम्बन्धित यह एक छोटा सा कथानक स्वबोध के अभाव में चन्द्रनखा के जीवन में घटित बहुत ही दर्द भरे परिणाम को बताता है। इसमें हमने देखा कि चन्द्रनखा यदि अपने पुत्र के शोक में ही स्थिर रहती और उस का पुत्र प्रेम कामासक्ति में परिवर्तन नहीं हुआ होता तो वह अपने पति को नहीं खोती। जितना और जिस तरह का  क्रोध खरदूषण को चन्द्रनखा के शील को नष्ट हुआ जानकर उत्पन्न हुआ उस तरह का क्रोध पुत्र के मृत्यु को प्राप्त हुआ सुनकर नहीं होता। दुःख तो पुत्र की मृत्यु का भी कम नहीं था लेकिन उसमें खरदूषण की प्रतिक्रिया कुछ दूसरे की प्रकार की होती। वह पुत्र के शोक से अभिभूत हुआ लक्ष्मण-राम से मिलता और हो सकता है राम और लक्ष्मण उसके दुःख में शामिल होकर उससे क्षमायाचना कर उसके दुःख को हल्का करने का प्रयास करते।  फिर खरदूषण का लक्ष्मण से युद्ध नहीं होता तो रावण वहाँ आता ही क्यों ? ना फिर सीता का हरण हो पाता और ना हीं चन्द्रनखा के स्वजनों का नाश। चन्द्रनखा इस प्रकार दीन-हीन दशा को प्राप्त नहीं होती। स्वबोध के अभाव में दुराचरण अंगीकार करने के फलस्वरूप ही चन्द्रनखा इस दशा को प्राप्त हुई। अतः चन्द्रनखा के जीवन से यह सिद्ध होता है कि चरित्र का सम्बन्ध स्वबोध पर आधारित है।  
  2. Sneh Jain
    आगम के अनुसार पुण्य से सुख की प्राप्ति तथा पाप से दुःख की प्राप्ति निश्चित है। इसका सीधा सा मतलब है जो क्रिया स्वयं को तथा दूसरे को सुख दे वह क्रिया पुण्य देने वाली है किन्तु इसके विपरीत जो क्रिया स्वयं के साथ दूसरे के लिए भी दुखदायी हो वह क्रिया पाप देनेवाली है। आगम में पाँच पाप (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह) तथा चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को जो मानव का अहित करनेवाली है उनको अशुभ क्रिया के अन्तर्गत रखा गया है और क्षमा, विनय, सहजता, सत्य, निर्मल, संयम, तप, त्याग, सीमित परिग्रह, शीलव्रत का पालन को शुभ क्रिया में स्थान दिया गया है। रावण ने राम की पत्नी का अपहरण कर स्वयं के शीलव्रत को दूषित किया, राम के गृहस्थधर्म के आधार को उनसे अलग कर उनके लिए दुःख उत्पन्न किया। वानरवंशी राजा सुग्रीव व हनुमान आदि नेे जब रावण द्वारा सीता का हरण किया जाना सुना तो उनके मन में एक विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी। अब तक जो वानरवंशी राजा, राक्षसवंशी रावण आदि के पक्ष में रहकर विद्याधरों से युद्ध करते आये थे तथा विद्याधरों से डरे हुए वानरवंशियों की रावण आदि राक्षसवंशी राजाओं ने सदैव सहायता कर रक्षा की थी, अब उन वानरवंशियों के लिए राम के लिए रावण से लडना कितना कठिन काम था। लेकिन हनुमान आदि वानरवंशियों ने सद्चरित्र के आधार पर निर्णय कर रावण के विरुद्ध नल, नील, अंग, अंगद आदि की सेना सहित राम का सहयोग करना उचित समझा। यही है चारित्र की महत्ता। चारित्रवान ही चारित्र की रक्षा कर सकता है तथा चारित्रवानों के संगठन से ही बुराई का विनाश सम्भव है। आगे हम देखते हैं, किस प्रकार नल, नील, अंग व अंगद ने राम को सहयोग प्रदान किया। 
    नल व नील वानरवंशी ऋक्षुरज के तथा अंग व अंगद सुग्रीव के पुत्र थे। सुग्रीव के आदेश पर नल, नील, अंग व अंगद ने अपने अपने सैन्य सहित सीता की तलाश करने हेतु पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। सीता के विषय में जानकारी प्राप्त करने के पश्चात् जब राम रावण से युद्ध करने निकले तब भी ये सब अपने अपने सैन्य सहित उनके साथ गये। मार्ग में वेलन्धरनगर पहुँचने पर वहाँ के सेतु और समुद्र नामक दो विद्याधर राम की सेना से युद्ध करने के लिए स्थित हो गये। तब नल ने समुद्र को और नील ने सेतु को युद्ध में पराजित कर राम के चरणों में लाकर रख दिया। राम व रावण की सेना के मध्य हुए युद्ध में नल हस्त से और नील प्रहस्त से भिड़ गया। नल ने  हस्त को घायल कर दिया तथा नील ने प्रहस्त को मार गिराया। राम जब लंका से सीता को प्राप्त कर अयोध्या लौटकर आये तब भामण्डल, किष्किन्धाराज, विभीषण आदि के साथ नल व नील ने भी राम का राज्याभिषेक किया।
    राम के द्वारा अंग व अंगद को दूत का कार्यभार सौंपने पर दोनों ने दूत के कत्र्तव्य का सफलतापूर्वक निर्वाह किया तथा रावण के साथ हुए युद्ध में भी दोनों ने राम का पूरा साथ दिया। अंगद ने हनुमान को कुम्भकर्ण से मुक्त करवाया। लक्ष्मण की औेषधि रूप में विशल्या का गन्धजल लाने के लिए अंगद हनुमान का सहायक बनकर अयोध्या गया। रावण द्वारा बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने हेतु साधना किया जाने पर राम की सेना में   सर्वनाश का भय उत्पन्न हुआ। तभी अंग और अंगद ने रावण के पास पहुँचकर उसमें क्षोभ उत्पन्न करने का प्रयास किया। तब उसके हाथ से अक्षमाला छीनकर उसको झूठे तप व ध्यान से लोगों को भ्रमित करनेे के लिए फटकारा तथा दूसरों की स्त्री का अपहरण करने से शान्ति मिलना असम्भव बताया। राम जब लंका से सीता को प्राप्त कर अयोध्या लौटकर आये तब भामण्डल, किष्किन्धाराज, विभीषण आदि के साथ अंग व अंगद ने भी राम का राज्याभिषेक किया। इस प्रकार सब के सहयोग से ही राम सीता को प्राप्त कर सके।
  3. Sneh Jain
    यह संसार एक इन्द्रिय प्राणी से लेकर पाँच इन्द्रिय प्राणियों से खचाखच भरा हुआ है। इन सब प्राणियों में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। मनुष्य की भी दो जातिया हैं - एक स्त्री और दूसरा पुरुष। सारा संसार मात्र इस स्त्री व पुरुष की क्रिया से नियन्त्रित है।संसार का अच्छा या बुरा स्वरूप इन दो जातियों पर ही टिका हुआ है। संसार में जब-जब भी दुःख व अशान्ति ने जन्म लिया तब- तब ही इन दोनों जातियों में उत्पन्न हुए करुणावान प्राणियों में ज्ञान का उद्भव हुआ और उन्होंने उस करुणा से उत्पन्न ज्ञान के सहारे सुख व शान्ति का मार्ग खोजने का प्रयास किया। इस प्रयास में उनको बहुत साधना, तपस्या ध्यान, चिंतन मनन करना पड़ा। इन करुणावान ज्ञानी प्राणियों को हम साधु-साध्वी व विद्वान- विदूषी के रूप में विभक्त कर सकते हैं। इन सभी ने अपनी साधना के आधार पर संसार के दुःखों का मूल कारण मनुष्य के अज्ञान में पाया। उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य अपनी अज्ञानता से जनित राग व भय के वश होकर अपनी क्रिया को सही दिशा नहीं दे पाने के कारण ही दुःखी और अशान्त बना रहता है। भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत विद्यमान सभी धर्म सम्प्रदाय के साधु-साघ्वी, विद्वान-विदूषियों ने दुःख के कारणों का अनुसंधान कर उनका निराकरण करने हेतु सूत्र खोजें हैं।
    भारतीय संस्कृति की जैनधारा की दिगम्बर आम्नाय के आध्यात्मिक संत आचार्य रविषेण ने पùपुराण में संसार के दुःखों का मूल कारण अज्ञान जनित राग-द्वेष अवस्था में देखा है। पùपुराण को आधार बनाकर ही दिगम्बर सम्प्रदाय के ही प्रमुख विद्वान, अपभ्रंश भाषा के प्रथम काव्यकार स्वयंभू ने अपभ्रंश भाषा में पउमचरिउ काव्य की रचना की है।स्वयंभू ने भी संसार के दुःखों का मूल कारण अज्ञानता में ही स्वीकार किया है। मनुष्य अज्ञानता के कारण ही हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील एवं आवश्यक्ता से अधिक परिग्रह जैसे पापों में लगा रहता है, परिणामस्वरूप दुःख भोगता रहता है। यहाँ पउमचरिउ (रामकथा) के प्रतिनायक लंका सम्राट रावण की पत्नी के जीवन में व्याप्त दुखों के माध्यम से संसार के दुःखों का कारण मनुष्य की पाप वृत्ति पर प्रकाश डाला जा रहा है। इसके माध्यम से हम देखेंगे कि एक मनुष्य अज्ञानतावश पाप के परिणाम को नहीं समझपाने के कारण अपने विद्यमान सुखों को नहीं भोग पाता और अपनी जिन्दगी को अशान्त बना लेता है।
    पउमचरिउ में प्राप्त मन्दोदरी के संक्षिप्त जीवन कथन के आधार पर हम देख सकेंगे कि लंका सम्राट रावण की पत्नी सर्वसुविधा सम्पन्न होते हुए भी अज्ञानता से जनित राग व भय के कारण ही दुःखी व अशान्त हुई है। रावण के प्रति राग होने के कारण मन्दोदरी रावण के द्वारा किये गये अति घिनौने पाप का भी दृढ़ता से विरोध नहीं कर सकी। रावण के डराने पर भयभीत हुई मन्दोदरी भी भय के वश रावण का सीता से दूतकर्म कर पाप कर्म की भागीदार बनी, तथा उसने निर्भीक सीता को भी डराने का काम किया। राग में आसक्ति होने से उसने हनुमान जैसे गुणवान की भी निंदा की तथा अंग व अंगद जो रावण के पाप के विरोधी थे उनका भी विरोध किया। मन्दोदरी ने रावण को समझाने में भले ही कोई कसर नहीं छोड़ी किन्तु राग व भयवश उसने बीच-बीच में रावण का पक्ष भी लिया, जिससे रावण का मनोबल भी बढ़ता गया। यदि मन्दोदरी पाप के प्रति रावण का कट्टरता से विरोध करती और मात्र पाप के प्रसंग में वह रावण के राग और भय से आक्रान्त नहीं होती तो उसे सीता का भी सहयोग मिल जाता। दोनों का साथ रावण को पाप से विमुख करने में निश्चित रूप से समर्थ होता।
    लंका सम्राट रावण की पत्नी मन्दोदरी को जन्मजात सौन्दर्यवती होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह श्रेष्ठ हथिनी की तरह लीला के साथ चलनेवाली, कोयल की तरह मधुर बोलनेवाली, हरिणी की तरह बड़ी-बड़ी आँखों वाली और चन्द्रमा के समान मुखवाली, कलहंसिनी की तरह स्थिर और मन्द गमन करनेवाली, स्त्री रूप से लक्ष्मी को उत्पीड़ित करनेवाली तथा अभिमानिनी, ज्ञानवाली व जिनशासन में लगी हुई थी। रावण के राग में आसक्त हुई उसने रावण की व्याकुलता का कारण सीता के प्रति आसक्ति को नहीं समझकर खरदूषण व शम्बूककुमार की मृत्यु को समझ लिया। उसे इस बात का पता तब लगा जब रावण ने स्वयं उसे कहा कि उसे खरदूषण का दुःख नहीं है उसे तो केवल इस बात का दाह है कि सीता उसे नहीं चाहती।
    मन्दोदरी को रावण की सीता के प्रति आसक्ति का पता लगते ही उसने रावण को हिंसा असत्य, चोरी, कुशील व परिग्रह रूप पापों से प्राप्त कुफल को समझाने की कोशिश की तथा अपने यश को यथावत बनाये रखने का परामर्श भी दिया। उसने कहा कि स्त्री का सुख वैसा ही है जैसा सुख असिपंजर में तथा सिंह की दाढ़ के भीतर है, यदि फिर भी तुम परस्त्री की इच्छा करते हो तो मुझसे क्यों पूछते हो। उसने व्यंग्योक्ति के आधार पर भी समझाने का प्रयास किया कि बलवान राजा के द्वारा किया गया कोई भी कार्य असुंदर नहीं कहलाता। उसने रावण को समझाने में तनिक भी कमी नहीं रखी। पुनः उसने कहा, सीता को आज ही वापस कर दो और अपने वंश को राम के दावानल में मत फँूको। तुमने इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण और मेघवाहन को बंधन में डलवा दिया। तुम स्वजनों से विहीन राज्य का क्या करोगे। अभी भी सीता को सौंप देने पर तुम्हारा राज्य भी बच जायेगा तथा भाई-बंधु भी तुम्हारे सामने रहेंगे।
    मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाया जाने पर रावण ने उसकी परवाह नहीं करते हुए उसको धन व जीवन का लोभ देकर डराया तथा उसे जानकी से अपना दूतकर्म करने के लिए प्रेरित किया। तब अपने ऐश्वर्य व जीवन को समाप्त हुआ जान भयभीत हुई मन्दोदरी रावण का आदेश मानकर रावण की दूती बनकर सीता के पास गयी और सीता से कहा - तुम्हारा ही एक जीवन सफल है, रावण जहाँ तुम्हारी आज्ञा की इच्छा रखता है वहाँ तुम्हारे पास क्या नहीं है? तुम लंकेश्वर की महादेवी बन जाओ और समस्त धरती का भोग करो। यह सुनकर सीता ने मन्दोदरी की भत्र्सना की तो मन्दोदरी का मन काँप गया। सीता की भत्र्सना से भयभीत हुई मन्दोदरी ने सीता को भीयह कहकर भयभीत किया कि यदि तुम लंकाराज को किसी भी तरह नहीं चाहती तो तुम करपत्रों से तिल-तिल काटी जाओगी और निशाचरों को सौंप दी जाओगी। पुनः मन्दोदरी ने सीता को चूड़ा, कंठी, कटिसूत्र आदि आभूषण देते हुए कहा कि तुम रावण को चाहो और महादेवी पट्ठ तथा इन प्रसाधनों को स्वीकार करो, मैं इतनी अभ्यर्थना करती हूँ।
    मन्दोदरी रावण के प्रति राग होने के कारण लंका में आये हनुमान को राम के पक्ष में मिला देखकर उस पर क्रुद्ध हो उठी और बोली, तुमको हमारा एक भी उपकार याद नहीं रहा जो इस प्रकार रावण को छोड़कर राम से मिल गये। जिस रावण से तुम सदैव सम्मानित होते आये हो आज यहीं तुम चोरों की तरह बाँंध लिए जाओेगे। जब हनुमान ने राम की प्रशंसा व रावण की निंदा की तो रावण की निंदा से कुपित हुई मन्दोदरी ने हनुमान को बँधवाने की प्रतिज्ञा की। तब वहाँ से जाकर मन्दोदरी ने रावण से जाकर कहा, हनुमान ने आपके द्वारा किये गये उपकारों में से एक को भी नहीं माना, और वह हमारे शत्रुओं का अनुचर बन गया है।
    अंग व अंगद ने रावण को ध्यान से डिगाने हेतु मन्दोदरी को खींचकर बाहर निकाल लिया। तब भी मन्दोदरी ने अंग व अंगद को ललकारा कि तुम्हारा यह पाप कल अवश्य फल लायेगा। दशानन कल तुम्हारी समूची सेना को नष्ट कर देगा।
  4. Sneh Jain
    अब तक हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश एवं वानरवंश के पात्रों के माध्यम से रामकथा के संदेश को समझने की कोशिश की। अब राक्षसवंश के प्रमुख पात्र रावण के माध्यम से शीलाचार के महत्व को भी समझने का प्रयास करते हैं। जिस प्रकार रामकाव्य के नायक श्री राम का चरित्र मात्र सीता के परिप्रेक्ष में उनके राजगद्दी पर बैठने से पूर्व तथा राजगद्दी पर बैठने के बाद भिन्नता लिए हुए है वैसे ही रावण का चरित्र भी सीता हरण से पूर्व तथा सीता हरण के बाद का भिन्नता लिए हुए हैं। शीलपूर्वक आचरण को भलीभाँति सरलतापूर्वक समझने हेतु रावण के समस्त जीवन को दो भागों में विभक्त करते हैं। 1. सीताहरण से पूर्व 2. सीताहरण के बाद। इसके माध्यम से हम यह आकलन कर पायेंगे कि शीलाचरण का पालन करते हुए जो रावण एक पराक्रमी सम्राट, करुणावान, धर्मानुरागी, संयमी लोकप्रिय तथा अपनी गलती पर पश्चाताप करनेवाला था वही रावण परस्त्री में आसक्त होकर अपने शीलाचार का उल्लंघन कर विपरीतबुद्धि से दयनीय अवस्था एवं लोकभय से आक्रान्त होकर लोक में निन्दा को प्राप्त हुआ। आशा है यह लेख सभी को अपने व्यक्तित्व के परिष्कार में मार्गदर्शन देगा।
    1. सीताहरण से पूर्व रावण 
    जन्म से ही विशाल वक्षस्थल वाला वह रावण ऐसा लगता था जैसे स्वर्ग से कोई देव उतरकर आया हो। कभी गजों के दाँतों को उखाड़ता हुआ, कभी साँंप के मुखों को करतल से छूता हुआ वह बालक बाल्यकाल में अनेक क्रीड़ाएँ किया करता था। बाल्यावस्था में ही रावण ने खेलते हुए भंडार में प्रवेश कर राक्षसवंश के स्थापक तोयदवाहन के हार को लेकर अपने गले में पहन लिया। उसमें उसके दस मुख दिखाई दिये। तभी लोगों ने उसका नाम दसानन रखा। इस कारण यह दसानन के नाम से जाना जाने लगा। रावण ने एक हजार विद्याएँ सिद्ध की हुई जिससे रावण को विद्याधर भी कहा गया। रावण ने स्वयंप्रभ नामक नगर एवं सहस्रकूट चैत्यगृह बनाया तथा चन्द्रहास खड्ग सिद्ध की। रावण ने करुणापूर्वक 6000 गन्धर्व कुमारियों को सुरसुन्दर से मुक्त करवाया तथा यम द्वारा सुभटों को बन्दी बनाकर नरक के समान यातना दिये जाने पर रावण ने उनको मुक्त करवाया। विद्याधर वैश्रवण का मद दूर कर उसे मारकर उसके पुष्पक विमान को प्राप्त किया। भद्र्रहस्ति को सिद्ध कर उसका नाम त्रिजगभूषण रखा। अपने आपको देव कहे जानेवाले विद्याधरवंशी सहस्रार के पुत्र इन्द्र को जो अपने आपको पृथ्वी का इन्द्र कहता था, पराक्रमी रावण ने युद्ध में विरथ कर पकड़ लिया।
    धर्मानुरागी रावण प्रतिदिन पूजा अर्चना तथा भक्ति किया करता था। विद्याधर इन्द्र से युद्ध करने हेतु प्रस्थान करते समय मार्ग में नर्मदा नदी के पास बालू की सुन्दर वेदी बनाकर, जिनवर की प्रतिमा स्थापित कर रावण ने उनका घी, दूध व दही से अभिषेक किया। मुनियों के प्रति उसके मन में सम्मान का भाव था। रावण ने राजा सहस्रकिरण को युद्ध में पराजित कर पकड़ लिया था। जंघाचरण मुनि द्वारा उसको मुक्त करने के लिए कहा जाने पर उसने ससम्मान उनको मुक्त कर दिया। बालि के समक्ष अपनी निन्दा करने के पश्चात् रावण ने जिनालय में जाकर पूजा एवं भावों से परिपूर्ण संगीतमय भक्ति की, जिसको सुनकर धरणेन्द्र ने उसको अमोघविजय विद्या प्रदान की। 
    दुर्लंघ्यनगर के राजा नलकूबर ने रावण का युद्ध करने आया जानकर अपने नगर को आशाली विद्या से सुरक्षित करवा दिया। रावण के उस नगर में प्रवेश करने पर रावण के यश को सुनकर नलकूबर की पत्नी उपरम्भा उस पर आसक्त हुई। उसने अपनी सखी के साथ रावण के पास उपरम्भा को चाहने एवं बदले में आशालीविद्या, सुदर्शन चक्र व इन्द्रायुध को लेने का प्रस्ताव भेजा। सखी के प्रस्ताव को सुनकर रावण ने आश्चर्यपूर्वक कहा- अहो दुर्महिला का साहस, जो महिला कर सकती है वह मनुष्य नहीं कर सकता।  तभी विभीषण ने उसको समझाया कि अभी यहाँ भेद का दूसरा अवसर नहीं है। किसी प्रकार विद्या मिल जाये फिर उपरम्भा को मत छूना। तब रावण ने दूती से आशाली विद्या माँंग ली। युद्ध में विभीषण के द्वारा नलकूबर के पकडे़ जाने पर संयमी दशानन ने उपरम्भा को नहीं चाहा तथा नलकूबर से अपनी आज्ञा मनवाकर उपरम्भा के साथ उसको राज्य भोगने दिया।
    विद्याधरवंशी इन्द्र के गुप्तचर ने रावण के गुणों का कथन इस प्रकार किया है -  रावण युद्ध में अचिन्त्य है। वह मंत्र और प्रभुशक्ति से युक्त चारों विद्याओं में कुशल है। 6 प्रकार के बल व 7 प्रकार के व्यसनों से मुक्त है। प्रचुरबुद्धि, शक्ति, सामथ्र्य और समय से गम्भीर है।  6 प्रकार के महाशत्रुओं का विनाश करनेवाला, 18 प्रकार के तीर्थों का पालन करनेवाला है। उसके शासनकाल में सभी स्वामी से सम्मानित हैं। उनमें कोई क्रुद्ध, भीरु व अपमानित नहीं है। नीति के बिना वह एक भी कदम नहीं चलता। दिन और रात को 16 भागों में विभक्त कर अपनी क्रियाएँ करता है।
    अपने एकाधिकार के आकांक्षी रावण ने बालि को अपना अहंकार दूर कर अधीनता स्वीकार कर राज्य का भोग करने हेतु कहा किन्तु बाली का अपने प्रति उपेक्षा भाव जानकर उससे युद्ध किया, जिसमें रावण पराजित हुआ।तदनन्तर बालि ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। एक दिन आकाश मार्ग से जाते हुए रावण का पुष्पक विमान मुनि बाली की तप शक्ति से रुक गया। तब क्राेिधत हुए रावण अपनी विद्याओं के चिन्तन से कैलाश पर्वत को उखाड़ लिया। पहाड़ के हिलते ही चारों समुद्रों में भयंकर उथलपुथल मची। तभी धरणेन्द्र अवधिज्ञान से यह सब होना जानकर वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जैसे ही बालिमुनि को प्रणाम किया वैसे ही कैलाशापर्वत नीचा हुआ। रावण के पर्वत के नीचे दबने से उसके मँुह से रक्त की धारा बह निकली। रावण के क्रन्दन करने पर समस्त अन्तःपुर सहित मन्दोदरी ने आकर धरणेन्द्र से अपने पति के प्राणों की भीख माँंगी। मन्दोदरी के करुण वचन सुनकर धरणेन्द्र ने धरती को ऊपर उठा दिया जिससे रावण बच गया। तब रावण ने तपश्चरण में लीन बालि के पास जाकर क्षमा याचना की।
    मुनि अनन्तवीर ने रावण को मोहान्धकार से छूटने हेतु कोई एक व्रत ग्रहण करने के लिए कहा तो रावण ने व्रत ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ बताया। तब मुनि के बहुत कहने पर रावण ने बहुत सोचने के बाद एक व्रत ग्रहण किया कि ‘जो सुन्दरी मुझे नहीं चाहेगी उस परस्त्री को बलपूर्वक ग्रहण नहीं करूँगा।’  उसके बाद रावण अपने भानजे शम्बुकुमार का वध होना सुन अपने बहनोई खरदूषण का युद्ध में साथ देने गया। जैसे ही रावण दण्डकारण्य में पहुँचा, वहाँ उसे सीता दिखाई दी। उसके सौन्दर्य पर आसक्त हो रावण ने यह मान लिया कि जब तक मैं इसे नहीं पा लेता तब तक मेरे इस शरीर को सुख कहाँ। काम के तीरों से आहत वह काम की दसों अवस्थाओं को प्राप्त हुआ। तदनन्तर रावण ने अवलोकिनी विद्या से सीता का अपहरण करने का उपाय पूछा। विद्या ने उसे सीता की प्राप्ति होना बहुत कठिन बताया तथा उसके दुष्परिणामों से भी अवगत कराया। किन्तु रावण के दृढ़ संकल्प को देखकर अवलोकिनी विद्या ने उसे सीता को हरण करने का उपाय बताया। उस उपाय से रावण ने सीता का हरण कर लंका की ओर प्रस्थान किया।
    2. सीताहरण के बाद रावण -
    रावण लंका की ओर जाते हुए मार्ग में सीता के सामने एक दयनीय रूप में गिड़गिड़ाया - हे पगली, तुम मुझे क्यों नहीं चाहती, क्या मैं असुन्दर हूँ और उसका आलिंगन करना चाहा, किन्तु सीता के कठोर वचनों से दुःखी होकर रावण ने सोचा, यदि मैं इसे मार डालता हूँ तो मैं इसे देख नहीं सकूँंगा, अवश्य ही किसी दिन यह मुझे चाहेगी। रावण ने सीताहरण से पूर्व अपने पराक्रम से इन्द्र जैसे पराक्रमी राजा को भी अपने वश में किया था, तथा वानरवंशी राजाओं
  5. Sneh Jain
    रावण का दूसरा पुत्र अक्षयकुमार भी बहुत पराक्रमी एवं विद्याधारी था। अक्षय कुमार व हनुमान के मध्य हुए युद्ध में प्रारम्भ में हनुमान भी उसे नहीं जीत सका। हनुमान ने भी प्रारंभ में उसकी स्फूर्ति की प्रशंसा करते हुए कहा कि देवता भी जिसकी गति का पार नहीं पा सकते उसके साथ मैं कैसे युद्ध करूँ। अक्षयकुमार ने अपनी अक्षयविद्या से अनन्त सेना उत्पन्न कर दी, किन्तु अन्त में वह हनुमान के शस्त्रों से मारा गया। अक्षयकुमार की एक छोटी सी घटना के माध्यम से हम यह देखेंगे कि अक्षयकुमार के समान इस संसार में कितने लोग होंगे जो पाप कर्म में लिप्त होकर भी किस प्रकार गुणीजनों का उपहास उड़ाते हैं और अन्त में धाराशायी होते हैं।
    लंका में प्रवेश कर हनुमान ने नन्दनवन के उद्यानों एवं रावण की सेना को तहस- नहस कर दिया। तब रावण के पुत्र अक्षयकुमार ने आकर हनुमान को ललकारा- अरे हनुमान! जिनवर के वचन को तुमने कुछ भी नहीं समझा और जिससे श्रावक का नाम विख्यात होता है उन अणुव्रत, गुणव्रत और परधनव्रत में से तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। जिसने इतने जीवों का संहार किया है कि पता नहीं वह कहाँ जाकर विश्राम पायेगा। मैंने इस समय छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं को मारने से निवृत्ति ग्रहण कर ली है। केवल एक तुम्हारे जैसे लोगों के साथ युद्ध करना नहीं छोड़ा। इस प्रकार अपने पिता रावण के पाप कर्म का साथ देकर भी अपने तर्क से अपने आपको महान सिद्ध करने के रूप में इसका पाखण्डी रूप उभरकर आया है।
  6. Sneh Jain
    हम सब भली भाँति समझते है कि मनुष्य जीवन में संगति और आस-पास के वातावरण का बहुत महत्व है। यह भी सच है कि मनुष्य की संगति और उसके वातावरण का सम्बन्ध उसके जन्म लेने से है, जिस पर कि उसका प्रत्यक्ष रूप से कोई अधिकार नहीं। जहाँ मनुष्य जन्म लेगा प्रारम्भ में वही स्थान उसका वातावरण होगा और वहाँ पर निवास करने वालों के साथ उसकी संगति होगी। यही कारण है कि बच्चे पर अधिकांश प्रभाव उसके माता-पिता, भाई- बहिन और यदि संयुक्त परिवार हो तो दादा-दादी और चाचा- चाची का होता है। कईं बार तो बच्चा जिसके सम्पर्क में ज्यादा आता है वह बिल्कुल उसकी अनुकृति ही प्रतीत होता है। क्रिया-कलाप व भावनाओं के स्तर पर वह उनसे बहुत मेल खाता है। आगे चलकर जैसे ही उसका मानसिक विकास होने लगता है, उसका ज्ञान विकसित होने से अपनी निजी क्षमता पल्लवित होने लगती है वैसे वैसे ही वह वह अपने वातावरण से पृथक रूप लने लगता है। यही कारण है कि प्रारम्भिक स्तर पर समान होते हुए भी सभी बचपन के सम्बन्ध आगे चलकर भिन्न-भिन्न रूपों में निजि वैशिष्टता को प्राप्त करते हैं।
    यहाँ हम देखते है कि एक और राक्षसवंशी लंका सम्राट रावण का भाई विभीषण और दूसरी और रावण का पुत्र इन्द्रजीत। एक ही वातावरण में साथ साथ रहने पर भी अपने निजि ज्ञान के वैशिष्टय के कारण दोनों की मानसिकता में बहुत भेद है। यही कारण है कि विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने का आग्रह करता है जबकि इन्द्रजीत रावण सीता राम को लौटा दे इसके पक्ष में नहीं है। यह सही है कि व्यक्ति किसी दूसरे के सहयोग से ही आगे बढता है। जिस समय विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने हेतु अपनी विभिन्न युक्तियों से समझा रहा था उस समय यदि बीच में इन्द्रजीत का प्रवेश नहीं हुआ होता तो शायद रावण सीता को राम के लिए सौपने का निर्णय ले लेता और युद्ध नहीं होने से वह मृत्यु को भी प्राप्त नहीं होता और लोक में अपयश का पात्र भी नहीं बनता। मात्र इन्द्रजीत के प्रोत्साहन से रावण ने सीता का राम के लिए नहीं सौपकर युद्ध किया, युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा लोक में अपयश पाया। अब हम पउमचरिउ ग्रंथ के आधार पर हम यह देखते है कि रावण को राम के लिए सीता को नहीं लौटाने देने में इन्द्रजीत की क्या भूमिका थी ?
     रावण पुत्र इन्द्रजीत बहुत ही पराक्रमी था। सीता हरण से पूर्व राक्षसवंश व विद्याधरवंश के मध्य हुए युद्ध में विद्याधरवंशी जयन्त ने राक्षसवंशी श्रीमालि को मार गिराया, तब अकेले इन्द्रजीत ने भीषण युद्ध कर जयवन्त पर विजय प्राप्त कर ली। सीता हरण के बाद विभीषण ने रावण को उसके वैभव व मान सम्मान को यथावत बना रहने देने तथा परस्त्री रमण के कुफल से बचाने हेतु सीता को राम के लिए सौंप देने का उचित अवसर बताया। तभी इन्द्रजीत ने विभीषण के कथन को अनुचित ठहराकर और अपने द्वारा पूर्व में किये गये साहसी कार्यों का स्मरण दिलाकर अपने आपको हनुमान से युद्ध करने में समर्थ बताया और हनुमान से युद्ध कर उसे नागपाश से बाँध लिया। इस प्रकार उसने रावण को अपने पक्ष में कर लिया।
    पुनः हंसद्वीप में राम की सेना को आया जानकर विभीषण रावण को आगामी आपदाओं से अवगत करवाकर उसे समझाने का पूरा प्रयास कर रहा था। तभी इन्द्रजीत अपने मन में भड़क उठा और कहा- तुम्हारा कहा हुआ रावण के लिए किसी भी तरह प्रिय नहीं हो सकता। यदि सीता उसे सांैप दी गई तो मैं अपना इन्द्रजीत नाम छोड़ दूंगा। इस तरह उसने विभीषण द्वारा रावण को समझाने के प्रयास को विफल कर दिया। आगे जब राम, सुग्रीव, हनुमान आदि ने अंगद के साथ रावण के पास संधि करने का संदेश भिजवाया तो उस संदेश को सुनकर इन्द्रजीत ने कहा, यदि राम सीता में आसक्ति छोड़ दे तो ही संधि हो सकती है अन्यथा नहीं। इस प्रकार इन्द्रजीत रावण को राम के लिए सीता को नहीं सांैपने देने में रावण का पक्षधर रह रावण के लिए अहितकारी सिद्ध हुआ। अन्त में इन्द्रजीत ने रावण की मृत्यु होने पर संसार की अनित्यता को जानकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
    अतः संगति सदा विेवेकी की ही हितकारी है और अविवेकी की अनर्थकारी। आशा है इस इस से विवेकपूर्ण व्यक्तियों की संगति के महत्व को समझ सकेंगे।

  7. Sneh Jain
    व्यक्ति और समाज का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, तथा व्यक्तियों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है। इस तरह व्यक्ति समाज की एक इकाई है। इस प्रत्येक इकाई का अपना निजी महत्व है। मनुष्य के अकेले जन्म लेने और अकेले मरण को प्राप्त होने से व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्ता का आकलन किया जा सकता है। संसार में भाँति भाँति के मनुष्य हैं, उन सबकी भिन्न- भिन्न विशेषताएँ हैं। अपने आसपास के वातावरण, संगति तथा अपनी बदलती शारीरिक अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निरन्तर परिवर्तनशील है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख शान्ति चाहता है, किन्तु उसका अज्ञान व अज्ञानजनित भय उसके विकास में अवरोध बन जाता है। इस अज्ञान व भय के कारण वह गलत कार्य का विरोध नहीं कर पाता। फलतः उसका जीवन सुख-शान्ति से परे दुःखमय हो जाता है।  प्रत्येक व्यक्ति अपने सद्ज्ञान से ही सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है और सद्ज्ञान से ही व्यक्ति की सद्गुणों पर शृद्धा होती है तथा सद्गुण से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास संभव है।
    यहाँ हम रामकथा के प्रतिनायक रावण के छोटे भाई विभीषण के जीवन चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि जब तक रावण गुणवान था तब तक विभीषण का रावण के प्रति पूर्ण सम्मानभाव ही नहीं बहुत प्रेम भाव था और उसके प्रति अत्यन्त गौरवान्वित था। यहाँ तक की रावण का जरा सा भी अहित हुआ जान विभीषण हर संभव उनकी रक्षा करने में तत्पर रहता था। उस ही विभीषण ने रावण के चरित्रहीन होने पर रावण को बहुत समझाया। बहुत समझाने पर भी नहीं समझने पर अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण चरित्रहीन रावण का साथ छोड़ गुणवान राम के पक्ष में हो गया। अपने सभी सम्बन्धियों का विरोध सहकर विपक्षी से मिलना आसान नहीं होता, किन्तु यह उसकी गुणानुराग रूप एक अद्भुत आत्मशक्ति ही थी जिससे साहस पाकर वह ऐसा कर पाने में सफल हो सका। इस ही साहस के कारण उसने अन्त समय संन्यास धारण कर अपना जीवन कृतार्थ किया। आगे विभीषण के जीवन की घटनाओं के माध्यम से उसकी गुणानुरागता को निम्न रूप में दिखाया जा रहा है, जो सभी के लिए उपादेय है।      
    विभीषण ने सागरबुद्धि भट्टारक से दशरथ के पुत्र राम व लक्ष्मण द्वारा राजा जनक की कन्या सीता के कारण रावण का युद्ध में मारा जाना सुना, तो वह क्रोधित हो उठा और यह कहते हुए कि जब तक रावण तक मृत्यु नहीं पहुँचती तब तक मैं जनक और दशरथ का सिर तोड़ देता हूँ, उनको मारने के लिए चल पड़ा। दशरथ व जनक को भी यह सूचना मिल चुकी थी, इससे उन्होंने अपनी लेपमयी मूर्तियाँ स्थापित करवा दी। विभीषण ने दशरथ व जनक द्वारा निर्मित लेपमयी मूर्तियों का सिर उड़ाकर अपना काम पूरा होना जान लिया।
    विभीषण अपने बडे़ भाई रावण का बहुत सम्मान करते थे और उनके प्रति गौरवान्वित थे। एक दिन माँ केकशी के द्वारा रावण सेे यह पूछा जाने पर कि तुम्हारे मौैसेरे भाई वैश्रवण ने अपने शत्रुओं से मिलकर अपनी लंकानगरी का अपहरण कर लिया है, हम पुनः कब इस लंकानगरी को प्राप्त कर सकेंगे? तभी रावण के प्रति आश्वस्त विभीषण ने कहा कि रावण के आगे वैश्रवण का क्या ? थोड़े ही दिनों में तुम यम,            स्कन्ध, कुबेर पुरन्दर, रवि, वरुण, पवन और चन्द्रमा आदि विद्याधरों को प्रतिदिन रावण के घर में सेवा करते हुए देखोगी।
    विभीषण ने रावण द्वारा लंका में हरणकर लायी सीता के मुख से राम व लक्ष्मण का जीवित होना जाना तो उसे सागरबुद्धि भट्टारक के कथनानुसार राम, लक्ष्मण के हाथों रावण की मृत्यु होने का समय आने पर विश्वास होने लगा। थोड़ी देर बाद ही उसने हनुमान से भी रावण द्वारा किये सीताहरण के विषय में जाना। तब विभीषण ने रावण को समझाने का भरपूर प्रयास किया। उसने कहा, उत्तम पुरुषों के लिए यह अच्छी बात नहीं, इससे तुम्हारा विनाश तो होगा ही और लोक द्वारा धिक्कारा जाकर लज्जित भी होओगे। रावण के नहीं मानने पर भी रावण की रक्षा के लिए चारों दिशाओं और नगर में आशाली विद्या घुमवाकर नगर को सुरक्षित करवा दिया। पुनः विभीषण ने रावण के चरित्र से डिगने पर उसकी तीव्र भत्र्सना की। उन्होंने कहा, कभी तुम तेजस्वी सूर्य थे परन्तु इस समय तुम एक टिमटिमाते जुगनू से अधिक महत्व नहीं रखते। जिसने पहाड़ के समान अपना चरित्र खण्डित कर लिया वह जीकर क्या करेगा।
    विभीषण के द्वारा बार-बार समझाया जाने पर भी रावण के नहीं समझने पर उसने हनुमान को कहा - आपके ही समान मैंने भी उसे सौ बार समझाया तो भी महा आसक्त वह नहीं समझता। मैं जो कुछ भी कहता हूँ उसे वह विपरीत लेता है। यदि अब वह अपने आपको इस कर्म से विरत नहीं करेगा तो युद्ध प्रारम्भ होते ही मैं राम का सहायक बन जाऊँगा। इस प्रकार गुणानुरागी  विभीषण ने पापकर्म में आसक्त अपने ही भाई रावण को छोड़ने का निर्णय लिया और कुछ समय बाद ही राम की सेना में जाकर मिल गया। गुणानुरागी विभीषण ने राम के पास आकर कहा- आदरणीय राम! आप सुभटों में सिंह हैं, आपने बड़े-बडे़ युद्धों का निर्वाह किया है। जिस प्रकार परलोक में अरहन्तनाथ मेरे स्वामी हैं उसी तरह इस लोक के मेरे स्वामी आप हैं।
    लंका में विभीषण के व्यवहार से आस्वस्त हुई सीता भी विभीषण के विषय में यही कहती है कि ‘दुर्जनों के बीच में यह सज्जन, नीम के बीच में यह चन्दन और संकट आ पड़ने पर साधर्मीजन वत्सल यह कौन है?
    रावण की मृत्यु होने पर भी करुण विलाप करते हुए विभीषण राम को यही कहता है कि रावण ने अपयश से दुनियाँ को भर दिया, इसने तप नहीं किया, मोक्ष नहीं साधा, भगवान की चर्चा नहीं की, मद का निवारण नहीं किया और तिनके के समान अपने को तुच्छ बना लिया।
    इतना ही नहीं विभीषण ने अयोध्या में भी सीता के सतीत्व की पुष्टि करने हेतु सीता के साथ लंका में रही त्रिजटा को बुलवाया। त्रिजटा ने वहाँ आकर सीता के सतीत्व की दृढ़ पुष्टि की। इसके बाद राम से स्वीकृति प्राप्त कर सुग्रीव आदि प्रमुखजनों के साथ विभीषण सीता को अयोध्या ले आये। इस प्रकार गुणानुरागी विभीषण ने सीता के प्रति भी अपना कत्र्तव्य पूरा किया।  अन्त में विभीषण ने अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण ही राम के दीक्षा ग्रहण करने पर त्रिजटा के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
  8. Sneh Jain
    सीता पउमचरिउ काव्य के नायक राम की पत्नी के रूप में पउमचरिउकाव्य की प्रमुख नायिका हैं। यह नायिका भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। सीता के जीवन चरित्र के माध्यम से स्त्री के मन के विभिन्न आयाम प्रकट होंगे जिससे स्त्री की मूल प्रकृति को समझने में आसानी होगी। ब्लाग 5 में राम के जीवन चरित्र के माध्यम से हम पुरुष के मूल स्वभाव से परिचित हुए थे। देखा जाय तो अच्छा जीवन जीने के लिए सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष दोनों के मूल स्वभाव की जानकारी आवश्यक है। रामकाव्यकारों का रामकथा को लिखने का सर्वप्रमुख उद्देश्य भी यही प्रतीत होता है। जैन रामकथाकारों ने राग तथा क्रोध, मान आदि कषायों को मनुष्य के दुःखों का कारण माना है और इनके अभाव में ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता बतायी है। सीता पुरुष के स्वभाव से एकदम अनभिज्ञ थी, बस पति को परमेश्वर मानकर उनके पीछे-पीछे चलती रही, पति में अति राग के कारण उनमें पति की अनुचित बात का विरोध करने का विवके व सामथ्र्य ही उत्पन्न नहीं हुआ। फलस्वरूप राम का राजतिलक होने से पूर्व ही सीता का राम के साथ वनवास जीवन प्रारम्भ हो गया, वनवास काल में सीता का हरण हुआ, राम ने राजगद्दी पर बैठते ही प्रजा के भय से  सीता को गर्भकाल में ही निर्वासन दे दिया और अन्त में राम के कहने पर अग्निपरीक्षा भी स्वीकार कर ली।  अग्निपरीक्षा में सफल होने पर राम ने जब सीता से अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना की तो सीता ने उनको क्षमा भी नहीं किया तथा संसार के दुःखों से भयभीत हो शाश्वत सुख हेतु दीक्षा ग्रहण कर ली।
     यहाँ हम सीता के जीवन-काल को तीन भागों 1. वनवासकाल  2. हरणकाल 3. निर्वासनकाल में घटी घटनाओं को देखेंगे जिससे हमें स्त्री के मूल स्वभाव पर प्रकाश पड सकेगा। 
    1. वनवासकाल
    वनवास काल में सीता ने मुनिवर के आगमन पर भक्तिपूर्वक स्तुति की तथा राम के सुघोष वीणा बजाने पर चैसठ भुजाओं का प्रदर्शन कर भक्तिभावपूर्वक नृत्य किया। राम के साथ मुनिराज की आहार चर्या पूरी की।  सीतादेवी ने दुःखी खगेश्वर जटायु कोे अपने वात्सल्य भाव से आशीर्वचन दिया।
    वंशस्थल को आहत कर लौटे हुए लक्ष्मण को देखकर सीता ने भय से काँपते हुए कहा- लता मंडप में बैठे हुए और वन में प्रवेश करने के बाद भी सुख नहीं है। लक्ष्मण जहाँ भी जाते हैं वहाँ कुछ न कुछ विनाश करते रहते हैं। रावण की बहन चन्द्रनखा ने राम और लक्ष्मण पर आसक्त होकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने के लिये रोना शुरू किया। तब सीता उसके माया भाव को नहीं समझती हुई सहजता से बोली, राम ! देखो यह कन्या क्यों रोती है ? समय से छिपा हुआ दःुख ही इसे उद्वेलित कर रहा है।

     

     
    2. हरण-काल 
    लंकानगरी में हनुमान से राम की वार्ता जानकर सीता पहले तो सहज भाव से प्रसन्न हुई किन्तु बाद में सतर्क होकर सोचने लगी - यह राम का ही दूत है या कोई दूसरा ही आया है, यहाँ तो बहुत से विद्याधर हैं, मैं तो सभी में सद्भाव देख लेती हूँ। जैसे पहले चन्द्रनखा विवाह का प्रस्ताव लेकर आयी और बाद में किलकारी मारकर हमारे ऊपर ही दौड़ी। तब विद्याधर ने सिंहनाद कर मेरा अपहरण करके मुझे राम से अलग कर दिया। लगता है यह भी किसी छल से मेरा मन थाहना चाहता है।
    लक्ष्मण के शक्ति से आहत होने तथा इससे राम के दुःखी होने का समाचार सुनकर सीता ने दहाड़ मारकर रोते हुए अपने कठोर भाग्य को कोसा - अपने भाई और स्वजनों से दूर, दुःखों की पात्र, सब प्रकार की शोभा से शून्य मुझ जैसी दुःखों की भाजन इस संसार में कोई भी स्त्री न हो।
    सीता को हरणकर ले जाते हुए रावण ने समुद्र के मध्य सीता से कहा- हे पगली! तुम मुझे क्यों नहीं चाहती? महादेवी के पट्ट की इच्छा क्यों नहीं करती? और उसका आलिंगन करना चाहा। तब सीता ने उसके इस आचरण की तीव्र भत्र्सना की। इस भत्र्सना रूपी अस्त्र ने ही रावण को स्वयं के द्वारा गृहीत व्रत का स्मरण दिलाया। उस व्रत को स्मरण कर रावण ने कहा- मुझे भी अपने व्रत का पालन करना चाहिए, बलपूर्वक दूसरे की स्त्री को ग्रहण नहीं करना चाहिए। तब सीता ने पति के समाचार नहीं मिलने तक नन्दन वन में ही रहने के लिये कहा तो रावण ने उसकी बात मान ली।
    पुनः रावण सीता के समक्ष याचक बनकर गिड़गिड़ाया- हे देवी! हे सुर सुन्दरी! मैं किससे हीन हूँ, क्या मैं कुरूप हूँ या अर्थ रहित हूँ ? बताओ, किस कारण से तुम मुझे नहीं चाहती ? तब सीता ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, हे रावण! तुम हट जाओ। तुम मेरे पिता के समान हो। परस्त्री को ग्रहण करने में कौन सी शुद्धि होती है। तुम्हारे अपयश का डंका बजे और जब तक लंकानगरी नाश को प्राप्त नहीं हो उससे पहलेही हे नराधिप, तुम राघव चन्द्र के पैर पकड़ लो।
    रावण ने यह सोचकर कि शायद यह भय के वश मुझे चाहने लगे उसको भयभीत करने के लिये भयंकर उपसर्ग करने शुरु किये। उस भयानक उपसर्ग को देखने से उत्पन्न हुए रौेद्र भाव को दूर कर तथा अपने मन को धर्म ध्यान से आपूरित कर सीता ने प्रतिज्ञा ले ली कि जब तक मैं गम्भीर उपसर्ग से मुक्त नहीं होती तब तक मेरे चार प्रकार के आहार से निवृत्ति है। इस तरह धर्मपूर्वक सीता ने भयानक उपसर्ग को भी सहन कर लिया।
    पुनः रावण ने सीता को वश में करने के लिये अपनी ऋद्धि के प्रभाव से उसे पुष्पक विमान पर चढ़ाकर बाजार की शोभा दिखायी। चूड़ा, कण्ठा, करघनी आदि महादेवी का प्रसाधन स्वीकार करने के लिये कहा। तब सीता ने उन सभी ऋद्धियों का तिरस्कार कर कहा- तुम अपनी यह ऋद्धि मुझे क्यों दिखाते हो? यह सब अपने लोगों के मध्य दिखाओ। उस स्वर्ग से भी क्या, जहाँ चाऱित्र का खंडन है। मेरे लिये तो शील का मंडन ही पर्याप्त है। सीतादेवी की इस अलोभ प्रवृत्ति ने ही रावण को अपनी निन्दा करने को विवश कर दिया और उसने कहा - मैं किस कर्म के द्वारा क्षुब्ध हूँ जो सब जानता हुआ भी इतना मोहित हूँ। मुझे धिक्कार है कि मैंने इसकी अभिलाषा की। तभी स्वयं को धिक्कारते हुए वह सीता को छोड़कर वहाँ से चला गया।
    पुनः रावण अपने आपको चन्दन से अलंकृत कर, अमूल्य वस्त्र धारण कर तथा त्रिजगभूषण हाथी पर बैठकर सीता के पास पहुँचा। वहाँ अपने पराक्रम का बखान करता हुआ राम व उनके प्रमुखजनों को मारने की            धमकी देने लगा। उसने कहा- तुम जो अभी तक बची हुई हो वह मात्र मेरे संकल्प के कारण। तब रावण ने अपनी विद्या से राम आदि कोे मरते हुए  दिखाकर तथा नाना रूपों का प्रदर्शन कर सीता को भयभीत करना प्रारम्भ किया। तब शीलरूप चारित्र का निर्वाह करते हुए सीतादेवी ने कहा- हे दशमुख! राम के मरने के बाद मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती । जहाँ दीपक होगा वहीं उसकी शिखा होगी, जहाँ चाँद होगा वहीं चाँंदनी होगी और जहाँ राम हांेगे सीता भी वहीं होगी । यह कहते-कहते सीता मूच्र्छित हो गयी। सीता के इस दृढ़ शीलव्रत ने ही रावण को दूर हटने व अपनी निन्दा करने को विवश किया। उसने कहा- कल मैं युद्ध में राम व लक्ष्मण को बन्दी बनाऊंगा और उन्हें सीतादेवी को सौंप दूँगा।
    मन्दोदरी रावण की दूती बनकर सीता के पास गयी। वहाँ जाकर मन्दोदरी ने रावण के वैभव का तरह-तरह से बखान करने के बाद कहा -तुम लंकेश्वर दशानन की महादेवी बन जाओ। इस पर क्रुद्ध होकर सीता ने निष्ठुर वचन में  कहा -‘‘उत्तम स्त्रियों के लिये यह उपयुक्त नहीं है,
  9. Sneh Jain
    इस अनादिनिधन संसार में सभी जीव दो स्तर पर जीवन यापन करते हैं- प्राकृतिक और अर्जित। प्रथम  प्राकृतिक स्तर पर सभी जीव प्रायः समान स्थिति लिए होते हैं, जैसे - सभी जीवों का जन्म लेकर मरना, सभी के लिए बाल्य, युवा, वृद्धावस्था का समानरूप से होना, सभी स्त्री जाति व पुरुष जाति के जीवों की अपनी जाति के अनुसार शारीरिक संरचना समान होना, सूर्य, चन्द्रमा, नदी, तालाब वृक्ष आदि की सुविधाएँ सभी को समान रूप से मिलना। दूसरे अर्जित स्तर पर अर्जन करना प्रत्येक व्यक्ति की निजि सम्पदा है, जो सभी व्यक्तियों को एक दूसरे से पृथकता प्रदान करता है। यह अर्जित स्तर ही व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का आधार है। जितना जितना व्यक्ति जिस-जिस क्षेत्र में अपने विवेक और पुरुषार्थ से जो कुछ अर्जित कर पाता है वही उसका विकास है। 
    व्यक्ति के उपरोक्त दो स्तरों के समान प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का संबन्ध भी उसके भाव व क्रिया से जुड़ा होता है। यहाँ भी भावों के स्तर पर प्रायः सब समान और सीमित होते हैं किन्तु क्रिया विभिन्नता और व्यापकता लिए होती है। जैसे - किसी समान प्रसंग को लेकर हँसना, समान प्रसंग उपस्थित होने पर क्रोधित होना, दीन-हीन व्यक्ति को देखकर समान करुणा का भाव उत्पन्न होना, किसी अद्भुत वस्तु को देखकर समानरूप से आश्चर्य का भाव उत्पन्न होना,  किसी घृणित वस्तु को देखकर समानरूप से जुगुप्सा का भाव उत्पन्न होना, समान संबन्धों के मिलने-बिछुड़ने पर समानरूप से प्रेम व वियोग भाव उत्पन्न होना आदि आदि। हम देखते है कि भाव एक होता है किन्तु उसको अभिव्यक्त करने की क्रिया विभिन्नरूपों में होती है। अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्तियों के भाव समान होते हैं तभी उनकी क्रिया समान हो पाती है। समभाव का जीवन में बहुत महत्व है। दो व्यक्ति परष्पर समान रूप से प्रेम करे तब ही वह सफल प्रेम के रूप में परिणत होता है। स्वयं में समभाव तथा पारष्परिक समभाव ही सुख-शान्ति प्राप्त होने का मूल मन्त्र है। हम यहाँ हनुमान व लंकासुंदरी के जीवन की घटना के माध्यम से सौहार्द की भावना को अनुभव करने का प्रयास करते हैं।   
    लंकासुंदरी लंकासम्राट रावण के अनुचर वज्रायुध की पुत्री है। पउमचरिउ काव्य में हनुमान व लंकासुंदरी का प्रसंग बहुत कम होने पर भी सहृदय लोगों को सौहार्द की अनुभूति कराने में सक्षम है। सौहार्द उत्पन्न होनें में अमीरी-गरीबी, ऊँचा-नीचा, छोटे-बडे़ का कोई स्थान नहीं है, उसमें तो मात्र भावों की समानता ही कारण है। समभाव से उत्पन्न सौहार्द के कारण ही लंकासुन्दरी ने रावण के अनुचर की पुत्री होते हुए भी रावण के विरोधी, हनुमान का साथ दिया और दोनों विवाहसूत्र में बँध गये। उसके बाद अयोध्या पहुँचकर राम के विरुद्ध सीता के सतीत्व का समर्थन किया। लंकासुंदरी से सम्बन्धित यह सुन्दर प्रसंग निम्न प्रकार है। 
    राम के लिए सीता की खोज में निकले हनुमान ने लंकानगरी में प्रवेश कर आशाली विद्या को युद्ध में परास्त कर रावण के अनुचर वज्रायुध को मार गिराया। तब लंकासुंदरी अपने पिता वज्रायुघ का बदला लेने हेतु हनुमान से युद्ध करने के लिए तत्पर हुई और युद्ध में हनुमान के विरुद्ध बराबर की भागीदारी की। उसके छोड़े गये तीरों के जाल से आकाश आच्छादित हो गया। लंकासुंदरी ने थर्राता हुआ अपना खुरपा फंैका जिससे हनुमान के धनुष की डोरी कट गई। तब हनुमान ने दूसरा धनुष लेकर उससे लंकासुंदरी को ढक दिया। लंकासुंदरी ने भी हनुमान के तीर समूह को काट दिया और उसका कवच भेद दिया। पुनः उस लंकासुंदरी ने हनुमान पर उल्का अस्त्र तथा गदा मारी जिसे हनुमान ने खंडित कर दिया।
    हनुमान ने लंकासुंदरी को कन्या के निर्बल होने की संज्ञा दी तथा उसके साथ युद्ध करने के लिए मना कर वहाँ से हट जाने के लिए कहा। यह सुनकर लंकासुंदरी ने अपने तर्क से कन्या के पराक्रम को प्रतिष्ठित कर हनुमान को इस प्रकार की बात करने के लिए मूर्ख बताया। उसने कहा- क्या आग की चिनगारी पेड़ को नहीं जला देती? क्या विषद्रुम लता से आदमी नहीं मरता? क्या नर्वदा नदी के द्वारा विंध्याचल खंडित नहीं होता? क्या सिंहनी गज को नहीं मार देती? यदि तुम्हारे मन में इतना अभिमान है तो तुमने आशाली विद्या के साथ युद्ध क्यों किया?
    हनुमान के युद्ध में अजेय होने पर लंकासुंदरी ने  अपने मन में हनुमान के गुणों की सराहना की। उसने कहा- वीर हनुमान! साधु साधु। तुम्हारा शरीर और वक्ष विजयलक्ष्मी से अंकित है। हे अस्खलित मान! युद्ध में मैं तुमसे पराजित हुई, अच्छा हो यदि आप मुझसे पाणिग्रहण कर लें। तब उसने तीर पर अपना नाम अंकित कर हनुमान की तरफ छोड़ा। हनुमान ने भी उन अक्षरों को पढ़कर प्रत्युत्तर में अपना स्नेह प्रकट करने हेतु अपना नाम लिखकर बाण छोड़ा। तदनन्तर दोनों का विवाह हो गया। लंका में रह रही सीता के लिए गुणानुरागी लंकासुंदरी ने अपने घर से रुचिकर भोजन भेजा। अयोध्या जाकर लंकासुंदरी ने गर्वीले स्वर में सीता के सतीत्व की पुष्टि की।
    इस प्रकार हनुमान व लंकासुंदरी में परष्पर सौहार्द उत्पन्न होने का कारण दोनों में बराबर का साहस, दोनों का बराबर का गुणानुरागी होना, दोनों में बराबर का प्रेम होना रहा है। यदि हम अपने जीवन में सौहार्द चाहते हैं तो हमें अपनी संगति का चयन समभाव को देख-परखकर ही करना चाहिए।   
  10. Sneh Jain
    4. दशरथ -
    जैन दर्शन के अनुसार कारण और कार्य का अपूर्व सम्बन्ध है। हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम्। अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? इस ही आधार पर हम यहाँ भी देखेंगे कि किसी भी घटना का घटित होता कार्य और कारण के सम्बन्ध पर ही आश्रित है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होने से रामकथा के सभी पात्रों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार संभव हो सकेगा तथा रामकथा को भी भलीर्भांति समझ सकेंगे। आगे हम पउमचरिउ के अनुसार रामकथा के सभी प्रमुख पात्रों की सम्पूर्ण जीवन यात्रा को देखने का प्रयास करते हैं।     
    1. अनुरागी - नारद ने विभीषण द्वारा दशरथ व जनक को मारने के लिए बनाई गई योेजना दशरथ को बतायी। यह सुनकर दशरथ जनक के साथ अयोध्या से निकलकर कौतुक नगर पहुँचे। वहाँँ शुुभमति राजा की कन्या कैकेयी का स्वयंवर रचाया जा रहा था।दशरथ भी उस स्वयंवर में पहुँचे। कैकेयी द्वारा दशरथ के गले में वरमाला डाल दी गई। इससे हरिवाहन राजा ने क्रुद्ध होकर दशरथ से युद्ध किया।दशरथ ने कैकेयी को धुरी पर सारथी बनाकर युद्ध में हरिवाहन को जीत लिया और कैकेयी से विवाह कर लिया। कैकेयी का इस प्रकार युद्ध में साथ देने के कार्य से प्रसन्न होकर दशरथ ने अनुरागपूर्वक बिना विचार किये कैकेयी से कुछ भी मांगने को कहा। प्रत्युत्तर में कैकेयी ने कहा- हे देव, आपने दे दिया, जब मैं मांगू तब आप अपने सत्य का पालन करना।
    2. वैरागी चित्त - दशरथ कंचुकी के मुख से स्वयं अपनी वृद्धावस्था के विषय में सुनकर विचार करने लगे,सचमुच जीवन चंचल है, क्या किया जाये जिससे मोक्ष सिद्ध हो। किसी दिन कंचुकी के समान हमारी भी अवस्था होगी। सिंहासन और छत्र सब अस्थिर हैं। इन सबको राम के लिए समर्पित कर मैं तप करूंगा। इस प्रकार वे वैराग्य धारण कर स्थित हो गये।
    3. भय  - वैराग्य होने पर अगले दिन जैसे ही दशरथ ने राम को राज्य देने की घोषणा की वैसे ही कैकेयी ने दशरथ के पास जाकर अपनी धरोहर के रूप में रखा हुआ वर मांग लिया। दशरथ ने भी  राज्य में झूठा सिद्ध होने के बचने के भय से राम को बुलाया। उसके बाद दशरथ ने लक्ष्मण के उग्र स्वभाव से भयभीत हो राम से यह कहते हुए कि लक्ष्मण, भरत को राज्य दिया जानकर लाखों का काम तमाम कर देगा, इससे मैं, भरत, कैकेयी, शत्रुघ्न और सुप्रभा भी नहीं बच पायेंगे, भरत के लिए राज्य देने का आदेश  दिया। तब राम ने पिता को भय से मुक्त कर अपने लिए वनवास अंगीकार कर लिया। इस पर भरत ने पिता को धिक्कारा। भरत के कठोर वचन सुनकर अपयश से बचने के लिए दशरथ ने कहा- कैकेयी को जो सत्य वचन मैंने दिया है तुम मुझे उससे उऋण करो। भरत के लिए राज्य, राम के लिए प्रवास, मेरे लिए प्रव्रज्या अब यही ठीक है।
    राम के प्रस्थान करने पर दशरथ ने अपने आपको धिक्कारते हुए कहा, मैंने राम को वनवास क्यों दे दिया? मैंने महान कुलक्रम का उल्लंघन किया। पुनः यशलोभ व भय से ग्रसित दशरथ द्वन्द्व विचार करने लगे कि यदि मैं सत्य का पालन नहीं करता, तो मैं अपने नाम औेर गोत्र को कलंकित करता, अच्छा हुआ राम गये पर सत्य का नाश नहीं हुआ। यह विचार कर भरत को राजपट्ट बाँंधकर दशरथ प्रव्रज्या के लिए कूच कर गये।

    राजा दशरथ के कथानक के माध्यम से हम यहाँ देख सकते है कि दशरथ के राग और अपयश भय के कारण ही रामकथा का प्रादुर्भाव हुआ है। जैसे भाव, वैसी मति और वैसी ही गति । दशरथ की इन प्रवृत्तियों ने अपने सारे परिवार को संकट में डाल दिया। आज भी हम हमारे पास किसी भी रूप में घटी घटना को देखेंगे तो मूल में मानव की इन ही प्रवृत्तियों को पायेंगे।
    आगे हम रामकथा के नायक  राम का चरित्र चित्रण करेंगे। यदि इन चरित्रों को पढने से किसी के भी मन को ठेस पहुँचे तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। मेरा उद्देश्य अपनी प्रवृत्तियों के परिमार्जन से सब को सुख पहुँचाना है, दुःख नहीं
     
    जयजिनेन्द्र।
  11. Sneh Jain
    योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    53.   बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।
          सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।।
    अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है।
    शब्दार्थ - बंधहँ - बंध, मोक्खहँ-मोक्ष के, हेउ-कारण को, णिउ-अपने, जो-जो, णवि-नहीं, जाणइ-जानता है, कोइ-कोई, सो-वह, पर-तल्लीन, मोहे-मोह में, करइ-करता है, जिय-जीव, पुण्णु -पुण्य, वि-और, पाउ -पाप, वि -ही, लोइ-लोक में।
  12. Sneh Jain
    योगी की क्रियाओं को समझाने के बाद आगे आचार्य योगीन्दु मोही संसारी जीवों की क्रियाओं का कथन करते हैं। वे कहते हैं कि मोह में तल्लीन जीव बंध और मोक्ष के कारण को नहीं समझता इसलिए वह पुण्य और पाप करता रहता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    53.   बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।
          सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।।
    अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है।
    शब्दार्थ - बंधहँ - बंध, मोक्खहँ-मोक्ष के, हेउ-कारण को, णिउ-अपने, जो-जो, णवि-नहीं, जाणइ-जानता है, कोइ-कोई, सो-वह, पर-तल्लीन, मोहे-मोह में, करइ-करता है, जिय-जीव, पुण्णु -पुण्य, वि-और, पाउ -पाप, वि -ही, लोइ-लोक में।
  13. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि अज्ञानी जीव समभाव में स्थित नहीं होने के कारण मोह से दुःख सहता हुआ संसार में भ्रमण करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    55     जो णवि मण्णइ जीउ समु पुण्णु वि पावु वि दोइ।
            सो चिरु दुक्खु सहंतु जिय मोहिं हिंडइ लोइ।।   
    अर्थ - जो जीव पाप और पुण्य दोनों को ही समान नहीं मानता है, वह जीव बहुत काल तक दुःख  सहता हुआ मोह से संसार में भ्रमण करता है।
    शब्दार्थ - जो-जो, णवि-नहीं, मण्णइ-मानता है, जीउ-जीव, समु-समान, पुण्णु-पुण्य, वि-और, पावु-पाप, वि-ही, दोइ-दोनों को, सो-वह, चिरु-चिर काल तक, दुक्खु-दुःख को, सहंतु-सहता हुआ, जिय-जीव, मोहिं-मोह से, हिंडइ-भ्रमण करता है, लोइ-लोक में।
  14. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो प्राणी जीव का लक्षण दर्शन, ज्ञान और चारित्र को नहीं समझता वह ही अज्ञानी है। ऐसा अज्ञानी ही देह के  भेद के आधार पर जीवों का अनेक प्रकार का भेद करता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    102.    देह-विभेयइँ जो कुणइ जीवहँ भेउ विचित्तु।
            सो णवि लक्खणु मुणइ तहँ दंसणु णाणु चरित्तु।।
    अर्थ -  जो देह के भेद से जीवों का अनेक प्रकार भेद करता है, वह उन (जीवों) का लक्षण दर्शन, ज्ञान और चारित्र को नहीं समझता है।
    शब्दार्थ - देह-विभेयइँ - देह के भेद से, जो - जो, कुणइ-करता है, जीवहँ - जीवों का, भेउ-भेद,  विचित्तु - अनेक प्रकार, सो - वह, णवि-नहीं, लक्खणु -लक्षण, मुणइ -समझता है, तहँ - उनका, दंसणु -दर्शन, ,णाणु-ज्ञान, चरित्तु- चारित्र को।
  15. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि यदि व्यक्ति ज्ञानी होना चाहता है, अपनी परम आत्मा को पहचानना चाहता है तो उसके लिए उसे सबसे पहले अपने मन में उठने वाले व्यर्थ विकल्पों को नष्ट करना होगा, अन्यथा वह कितने ही ग्रंथों का अध्ययन कर लें सब व्यर्थ है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    83.  सत्थु पढंतु वि होइ जडु जो ण हणेइ वियप्पु।
         देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमप्पु ।।
    अर्थ -जो शास्त्र को पढ़ता हुआ भी (अपनी) विविध तरह की कल्पना (सन्देह) को नष्ट नहीं करता,, वह मूर्ख (विवेक शून्य) होता है, (तथा) (वह) देह में रहती हुई निर्मल परमआत्मा का भी विचार (विश्वास) नहीं करता।
    शब्दार्थ - सत्थु-शास्त्र को, पढंतु-पढता हुआ, वि-भी, होइ-होता है, जडु-मूर्ख, जो-जो, ण-नहीं, हणेइ-नष्ट करता है, वियप्पु-विविध तरह की कल्पनाओं को, देहि-देह में, वसंतु -बसती हुई,,वि-भी, णिम्मलउ-निर्मल, णवि-नहीं, मण्णइ-विचार करता है, परमप्पु-परम आत्मा का।
  16. Sneh Jain
    किसी भी भाषा को सीखने व समझने के लिए उस भाषा के मूल तथ्यों की जानकारी होना आवश्यक है। अपभ्रंश भाषा को सीखने व समझने के लिए भी इस भाषा के मूल तथ्यों को समझना होगा जो निम्न रूप में हैं -
     
    1. ध्वनि - फेफड़ों से श्वासनली में होकर मुख तथा नासिका के मार्ग से बाहर निकलने वाली प्रश्वास वायु ही ध्वनियों को उत्पन्न करती है। प्रत्येक ध्वनि के लिए एक भिन्न वर्ण का प्रयोग होता है। प्रश्वास को मुख में जीभ द्वारा नहीं रोकने तथा रोकने के आधार पर ध्वनियाँ दो प्रकार की मानी गई हैं - (1) स्वर ध्वनि और (2) व्यंजन ध्वनि
    (1) स्वर ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में जीभ प्रश्वास को मुख में किसी भी तरह नहीं रोकती तथा प्रश्वास बिना किसी रुकावट के बाहर निकलता है, वे स्वर ध्वनियाँ कहलाती हैं। इनका उच्चारण बिना किसी वर्ण की सहायता के स्वतन्त्र रूप में किया जाता है। अपभ्रंश में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ स्वर होते हैं। हिन्दी के ऋ, ऐ, औ स्वर यहाँ नहीं होते।
    (2) व्यंजन ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में प्रश्वास मुख में जीभ द्वारा रोका जाता है और यह इधर उधर रगड़ खाता हुआ बाहर निकलता है, वे व्यंजन ध्वनियाँ कहलाती हैं -
    क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण....
    अपभ्रंश में असंयुक्त अवस्था में ङ और अ का प्रयोग नहीं पाया जाता है। ङ और अ के स्थान पर संयुक्त अवस्था में अनुस्वार का प्रयोग बहुलता से मिलता है।
     
    2. चिन्ह - अपभ्रंश में निम्न चिन्हों का प्रयोग होता है -
    (१) अनुस्वार - स्वर के ऊपर जो बिन्दी लगाई जाती है, उसे अनुस्वार कहते हैं। अनुस्वार का स्वरों के बिना प्रयोग नहीं होता अर्थात् स्वरों की सहायता से ही इनका उच्चारण हो सकता है। जैसे -
    क ख ग घ ह से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘’ङ" की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंक - पक, अंग - अङ्ग आदि ।
    च छ ज झ य से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ञ् ' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंच - पञ्च , संयम - सञ्यम आदि।
    ट ठ ड ढ से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ‘ण’ की तरह होता है। उदाहरणार्थ - टंटा–टण्टा, अंडा–अण्डा आदि।
    त थ द ध न र से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘न्' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - अंत-अन्त।
    प फ ब भ म व से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘म्' के समान होता है। उदाहरणार्थ - संमाण–सम्मान् आदि।
    (२) अनुनासिक - अनुस्वार का कोमल रूप अनुनासिक कहलाता है | उदाहरणार्थ - आँखें, अँगूठी, हँसना आदि।
    (३) अर्धचन्द्र - हिन्दी व अंग्रेजी की तरह अपभ्रंश में भी कुछ स्वरों पर ऐसा चिन्ह स्वरों को ह्रस्व दिखाने हेतु लगाया जाता है - रणे, ताणन्तरे, खग्गएँ, पअहिराएँ आदि।
     
    3. वचन - संज्ञा सर्वनाम तथा विशेषण के जिस रूप से यह पता चले कि वह एक को बता रहा है या अनेक को, उसे वचन कहते हैं। अपभ्रंश में दो ही वचन होते हैं - एकवचन और बहुवचन।
    (१) एकवचन - संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक का बोध हो, उसे एकवचन कहते हैं। जैसे - देवो, माउलो, णरो आदि।
    (२) बहुवचन - संज्ञा सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक से अधिक का बोध हो, उसे बहुवचन कहते हैं। जैसे - देवा, माउला, णरा आदि। कई बार सम्मानार्थ व अभिमानार्थ भी एक के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है।
     
    4. शब्द - प्रयोग की दृष्टि से शब्द पाँच प्रकार के हैं -
    (क) संज्ञा (ख) सर्वनाम (ग) विशेषण (घ) क्रिया (ङ) अव्यय
    (क) संज्ञा - किसी व्यक्ति, जाति, स्थान, वस्तु, विचार भाव आदि के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे - रहुणन्दण, कमल, सीया, धेणु, वारि आदि।
    संज्ञा शब्द लिंगभेद के आधार पर तीन प्रकार के तथा शब्द संरचना के आधार पर चार प्रकार के होते हैं।
    लिंग भेद - (1) पुल्लिंग (2) स्त्रीलिंग (3) नपुंसकलिंग
    शब्द संरचना - (1) अकारान्त (2) आकारान्त (3) इकारान्त/ ईकारान्त (4) उकारान्त/ ऊकारान्त।।
    सामान्यत: अकारान्त शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग होते हैं तथा आकारान्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। इकारान्त, उकारान्त शब्द पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग होते हैं; किन्तु अपभ्रंश में कई स्थानों पर एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त अलग–अलग शब्द अलग–अलग लिंग से युक्त भी देखे जाते हैं।
    जैसे - स्त्री शब्द हेतु अपभ्रंश में दार, भज्जा और कलत्त शब्द हैं। इनमें दार पुल्लिंग, भज्जा स्त्रीलिंग और कलत्त नपुंसकलिंग हैं। शरीर के लिए तणु स्त्रीलिंग, देह पुल्लिंग और सरीर नपुंसक लिंग अर्थ में प्रयुक्त होता है। जल के लिए प्रयुक्त सलिल शब्द पुल्लिंग तथा उदग शब्द नपुंसकलिंग है। इसीप्रकार अनेक अकारान्त संज्ञा शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग दोनों ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। अत: अपभ्रंश में लिंग का ज्ञान कोश के आधार से ही किया जाना चाहिए।
    ( ख ) सर्वनाम - संज्ञा की पुनरुक्ति के निवारण के लिए जिन शब्दों का प्रयोग होता है, वे सर्वनाम शब्द कहलाते हैं।
    सर्वनाम छ: प्रकार के हैं -
    1. पुरुषवाचक सर्वनाम - बोलनेवाले, सुननेवाले तथा अन्यपुरुष की संज्ञा के स्थान पर जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है, वे पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन भेद हैं -
    (1) उत्तमपुरुष - बोलनेवाला या लिखने वाला जिन सर्वनामों का अपने लिए प्रयोग करता है, वे उत्तमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - हउं-मैं, अम्हे/अम्हइं–हम सब
    (2) मध्यमपुरुष - बोलनेवाला या लिखनेवाला जिस व्यक्ति को बोलता है या लिखता है, वे मध्यमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - तुहुं—तुम/तुम्हे, तुम्हइं–तुम सब
    (3) अन्यपुरुष - बोलनेवाला तथा सुननेवाला जिस अन्य व्यक्ति के विषय में कुछ कहता है, वे सब अन्यपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - सो—वह (पुल्लिंग), ते–वे सब (पुल्लिंग), सा-वह (स्त्रीलिंग), ता–वे सब (स्त्रीलिंग)।
    नोट - सभी संज्ञा शब्द भी अन्यपुरुष के अन्तर्गत ही आते हैं।
    2. निश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए निश्चित संकेत करे, वह निश्चयवाचक सर्वनाम है। जैसे - यह, ये, वह, वे आदि।
    3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी निश्चित वस्तु या व्यक्ति के लिए संकेत न करे, वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं। जैसे - कोई, कुछ आदि।
    4. सम्बन्धवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम अन्य उपवाक्य में प्रयुक्त होकर संज्ञा या सर्वनाम का सम्बन्ध प्रकट करे, वह सम्बन्धवाचक सर्वनाम है। जैसे - जो करेगा सो भरेगा, जिसे देखो वही खुश है। यह सम्बन्धवाचक सर्वनाम उसी संज्ञा की ओर संकेत करता है, जो उसके पहले आ चुकी है।
    5. प्रश्नवाचक सर्वनाम - किसी व्यक्ति या वस्तु के विषय में कुछ प्रश्न पूछने के लिए जिस सर्वनाम का प्रयोग होता है, वह प्रश्नवाचक सर्वनाम है। जैसे - कौन, क्या आदि।।
    6. निजवाचक सर्वनाम - जो उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष तथा अन्यपुरुष का अपने आप बोध करावे, वह निजवाचक सर्वनाम है। जैसे - आप स्वयं करके देखें। तुम स्वयं अपना काम सुधारो।
    (ग) विशेषण - जो शब्द संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता को प्रकट करते हैं, वे विशेषण कहलाते हैं। इनके विभक्ति, लिंग और वचन विशेष्य के अनुसार ही होते हैं।
    विशेषण के तीन भेद है -
    1. सार्वनामिक विशेषण 2. गुणवाचक विशेषण 3. संख्यावाचक विशेषण
    (घ) क्रिया - जिन शब्दों से किसी काम का होना या करना प्रकट हो, उसे क्रिया कहते है। जैसे जाता है, गया, जायेगा, पढाता है आदि।
    क्रिया दो प्रकार की होती है - अकर्मक, सकर्मक ।
    (1) अकर्मक क्रिया - अकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कोई कर्म नहीं होता और जिसका प्रभाव कर्ता पर ही पड़ता है। । (२) सकर्मक क्रिया - सकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कर्म होता है तथा जिसमें कर्ता की क्रिया का प्रभाव भी कर्म पर ही पड़ता है।
    क्रियाओं का प्रेरणार्थक रूप - कर्ता स्वयं जब किसी भी क्रिया (अकर्मक, सकर्मक) को करने हेतु किसी को प्रेरित करता है या अन्य किसी को क्रिया करने हेतु प्रेरित करवाता है, तब वहाँ प्रेरित करने तथा प्रेरित करवाने के अर्थ में प्रेरणार्थक क्रिया होती है। अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में ही प्रेरणार्थक प्रत्यय लगाकर उनको प्रेरणार्थ क्रिया बनाया जाता है। अकर्मक क्रिया जैसे ही प्रेरणार्थक क्रिया बनती है. उसमें कर्म का समावेश हो जाता है और वही सकर्मक क्रिया का रूप लेकर प्रेरणार्थक क्रिया बन जाती है।
    (ङ) अव्यय - ऐसे शब्द जिनके रूप में कोई विकार/परिवर्तन उत्पन्न न हो और जो सदा सभी विभक्ति, सभी वचन और सभी लिंगों में एक समान रहे तथा लिंग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में घटती-बढ़ती न हो, वे अव्यय शब्द कहलाते हैं। इनको अविकारी शब्द भी कहा जाता है। अपभ्रंश में सम्बन्धक भूत कृदन्त (पूर्वकालिक क्रिया) तथा हेत्वर्थक कृदन्त भी अव्यय का ही काम करते हैं।
    5. लिंग -  जिस चिन्ह से यह पता चले कि संज्ञा पुरुष जाति की है या स्त्री जाती की, उसे लिंग कहते हैं।
    अपभ्रंश भाषा में ३ लिंग होते हैं -
    1.पुल्लिंग 2. स्त्रीलिंग 3. नपुंसकलिंग
     
    6. काल - क्रिया के जिस रूप से क्रिया के होने के समय का पता चलता है, उसे काल कहते हैं।
    अपभ्रंश भाषा में ४ प्रकार के काल होते हैं -
    1.वर्तमानकाल 2.विधि एवं आज्ञा 3.भविष्यत्काल 4.भूतकाल - अपभ्रंश भाषा में भूतकाल को व्यक्त करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है।
     
    7. कारक - संज्ञा व सर्वनाम के जिस रूप से उसका क्रिया अथवा दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है, उसे कारक कहते हैं। संज्ञा व सर्वनाम के रूप रचना विधान से ही इनका क्रिया व दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है।
    अपभ्रंश भाषा में कारक ८ होते हैं -
    1.कर्ता 2.कर्म 3.करण 4.सम्प्रदान 5.अपादान 6.सम्बन्ध 7.अधिकरण ८.सम्बोधन
    रूप रचना विधान (संज्ञा)
    कारक
    एकवचन बहुवचन कर्ता
    राजा, राजा ने राजा, राजाओं ने कर्म
    राजा को राजाओं को करण
    राजा से, द्वारा राजाओं से सम्प्रदान
    राजा के लिए, को राजाओं के लिए, को अपादान
    राजा से राजाओं से सम्बन्ध
    राजा का, के, की राजाओं का, के, की अधिकरण
    राजा में/पर राजाओं में, पर सम्बोधन
    हे राजा ! हे राजाओं !  
    रूप रचना विधान (सर्वनाम)
    उत्तम पुरुष 'मैं' के सब कारकों में रूप
     कारक
    एकवचन बहुवचन कर्ता
    मैं, मैंने हम, हमने कर्म
    मुझको, मुझे हमको, हमें करण
    मुझसे, मेरे द्वारा हमसे, हमारे द्वारा सम्प्रदान
    मुझको, मुझे, मेरे लिए हमको, हमें, हमारे लिए अपादान
    मुझसे हमसे सम्बन्ध
    मेरा, मेरे, मेरी हमारा, हमारे, हमारी अधिकरण
    मुझमें, पर हममें, पर शब्द रूपावली से स्पष्ट है कि अपभ्रंश में चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति के लिए एक समान ही प्रत्यय हैं। सर्वनाम में सम्बोधन नहीं होता।
     
    8. वाच्य - वाक्य रचना का मुख्य आधार वाच्य होता है। क्रिया के जिस रूप से पता चले कि उसके वर्णन का मुख्य विषय कर्ता है, कर्म है या धातु का भाव है, उसे वाच्य कहते हैं। वाच्य तीन प्रकार के होते हैं -
    (1) कर्तृवाच्य (2) भाववाच्य (3) कर्मवाच्य 
    (1) कर्तृवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्ता' हो, वहाँ कर्तृवाच्य होता है। कर्तृवाच्य का प्रयोग अकर्मक व सकर्मक दोनों क्रियाओं के साथ होता है। अकर्मक क्रिया से कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता सदैव प्रथमा विभक्ति में होता है तथा कर्ता के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार क्रियाओं के लिंग, वचन व पुरुष होते हैं। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता में प्रथमा तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और क्रिया के पुरुष और वचन कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होते हैं। अकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग चारों कालों - वर्तमान, विधि-आज्ञा, भविष्यत्काल तथा भूतकाल में होता है; जबकि सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग प्रायः भूतकाल में नहीं होता, बाकी तीनों कालों में होता है।
    (2) भाववाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय न कर्ता हो और न कर्म; बल्कि क्रिया का अर्थ (भाव) ही विधान का विषय बने, वहाँ भाववाच्य होता है। इसमें क्रिया के लिंग, वचन, पुरुष न तो कर्ता के अनुसार होते हैं, और न कर्म के अनुसार होते हैं। इसमें क्रिया सदैव अन्य पुरुष एकवचन में तथा कृदन्त सदैव नपुंसक लिंग प्रथमा एकवचन में रहते हैं। भाववाच्य में सदैव अकर्मक क्रियाएँ ही प्रयुक्त होती हैं।
    (3) कर्मवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय ‘कर्म' हो, वहाँ कर्मवाच्य होता है। कर्मवाच्य में सकर्मक क्रियाएँ व प्रेरणार्थक क्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं। इसमें क्रिया के लिंग, वचन व पुरुष - कर्म के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार होते हैं। कर्मवाच्य क्रिया व कृदन्त दोनों से बनाये जाते हैं।
  17. Sneh Jain
    यंभू अविवाद्य रूप से अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवि तथा प्रबन्धकाव्य के क्षेत्र में अपभ्रंश के आदि कवि हैं। इनकी महानता को स्वीकार करते हुए अपभ्रंश के दूसरे महाकवि पुष्पदन्त ने उनको व्यास, भास, कालिदास, भारवि, बाण, चतुर्मुख आदि की श्रेणी में विराजमान किया है। स्वयंभू ‘महाकवि’, ‘कविराज’, ‘कविराज चक्रवर्ती’ जैसी उपाधियों से सम्मानित थे। जिस प्रकार सूर- सूर तुलसी-शशी जैसी उक्ति हिन्दी साहित्य की दो महान विभूतियों का यशोगान करती है उसी प्रकार अपभ्रंश साहित्य में ’सयम्भू-भाणु, पुफ्फयन्त-णिसिकन्त तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी।
    स्वयंभू, अपने पउमचरिउ(रामकाव्य) तथा रिट्टणेमिचरिउ(कृष्णकाव्य) के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक परम्परा पर विचार करके सम्पूर्ण समाज को उसके वास्तविक रूप के दर्शन कराने तथा सही मार्ग दिखलाने के दायित्व का निर्वाह करने में पूर्ण सफल रहे हैं। यही कारण है कि ‘राहुलसांकृत्यायन ने अपभ्रंशभाषा के काव्यों को आदिकालीन हिन्दीकाव्य के अन्तर्गत स्थान देते हुए कहा है- ‘‘हमारे इसी युग में नही, हिन्दी कविता के पाँचों युगों के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि उनमें स्वयंभू सबसे बडे कवि थे। वस्तुतः वे भारत के एक दर्जन अमर कवियो में से एक थे’’।  
    इनका समय ई. सन् 783 है। इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था। स्वयंभू का पारिवारिक जीवन सुख-सम्पन्न था। इनकी दोनों पत्नियाँ अमृताम्बा और आदित्याम्बा सुविज्ञ एवं काव्यकुशल थीं। उन्होंने पउमचरिउ काव्य के लेखन हेतु स्वयंभू को प्रोत्साहित कर सहयोग दिया।इनके पुत्र त्रिभुवन भी प्रतिभाशाली कवि थे।स्वयंभू पर सरस्वती व लक्ष्मी दोनों की ही असीम कृपा थी। गृहस्थ होने के कारण स्वयंभू धर्म, अर्थ, काम की यथोचित अभिलाषा रखते थे। उनका यह यथोचित संतुलित दृष्टिकोण धर्मशील गृहस्थ जीवन में उनके तृप्ति को प्राप्त होनेे के कारण ही विकसित हुआ होगा।     
    वस्तुतः कवि की कृति ही उसके व्यक्तित्व की परिचायिका होती है। स्वयंभूू की कृतियों में भी इनका यह सन्तुलित व्यक्तित्व पूर्ण रूप से उभरकर आया है, जिसे हम इनके काव्य में देखेंगे। ख्यातिपराङमुखता, कृतज्ञता, विनम्रता, निर्भीकता, धर्मनिष्ठा, धार्मिक उदारता इनकी चारित्रिक विशेषताएँ हैं।   
    आगे पउमचरिउ रामकाव्य पर प्रकाश डाला जायेगा।
     
  18. Sneh Jain
    अपभ्रंष भाषा के कवि स्वयंभू अपनी पउमचरिउ काव्य रचना प्रारम्भ करने से पूर्व आदि देव ऋषभदेव को नमस्कार कर अपने काव्य की सफलता की कामना करते हैं। उसके बाद आचार्यों की वंदना करते हैं -
    णमह णव-कमल-कोमल-मणहर-वर-वहल-कन्ति-सोहिल्लं।
    उसहस्स पाय-कमलं स-सुरासर-वन्दियं सिरसा।।
    दीहर-समास-णालं सद्द-दलं अत्थ-केसरुग्घवियं।
    बुह-महुयर-पीय रसं सयम्भु-कव्वुप्पलं जयउ।।
    पहिलउ जयकारेवि परम-मुणि। मुणि-वयणे जाहँ सिद्धन्त-झुणिं।
    झुणि जाहँ अणिट्ठिय रत्तिदिणु। जिणु हियए ण फिट्टइ एक्कु खणु।।
    खणु खणु वि जाहँ ण विचलइ मणु। मणु मग्गइ जाहँ मोक्ख-गमणु
    गमणु वि जहिं णउ जम्मणु मरणु।
    मरणु वि कह होइ मुणिवरहँ। मुणिवर जे लग्गा जिणवरहँ।।
    जिणवर जें लीय माण परहो। परु केव ढुक्कु जें परियणहो।।
    परियणु मणे मण्णिउ जेहिं तिणु। तिण-समउ णाहिं लहु णरय-रिणु।।
    रिणु केम होइ भव-भय-रहिय। भव-रहिय धम्म-संजम-सहिय।।
    जे काय-वाय-मणे णिच्छिरिय जे काम-कोह-दुण्णय-तरिय।
    ते एक्क-मणेण हउं वंदउं गुरु परमायरिय।।                       
    अर्थ -  जो नवकमलों की कोमल सुंदर और अत्यन्त सघन कान्ति की तरह षोभित हैं और जो सुर तथा असुरों के द्वारा वन्दित हैं, ऐसे ऋषभ भगवान् के चरणकमलों को षिर से नमन करो। जिसमें लम्बे-लम्बे समासों के मृणाल हैं, जिसमें षब्द रूपी दल हैं, जो अर्थरूपी पराग से परिपूर्ण है, और जिसका बुधजन रूपी भ्रमर रसपान करते हैं, स्वयंभू का ऐसा काव्य रूपी कमल जयषील हो।

     
    पहले परममुनि का जय करता हूँ, जिन परममुनि की सिद्धान्त-वाणीमुनियों के मुख में रहती है, और जिनकी ध्वनि रात-दिन निस्सीम रहती है (कभी समाप्त नहीं होती), जिनके हृदय से जिनेन्द्र भगवान एक क्षण के लिए भी अलग नहीं होते। एक क्षण के लिए भी जिनका मन विचलित नहीं होता, मन भी ऐसा कि जो मोक्ष गमन की याचना करता है, गमन भी ऐसा कि जिसमें जन्म और मरण नहीं है। मृत्यु भी मुनिवरों की कहाँ होती है, उन मुनिवरों की जो जिनवर की सेवा में लगे हुए हैं। जिनवर भी वे, जो दूसरो का मान ले लेते हैं (अर्थात् जिनके सम्मुख किसी का मान नहीं ठहरता), जो परिजनों के पास भी पर के समान जाते हैं (अतः उनके लिए न तो कोई पर है, और न स्व), जो स्वजनों को अपने में तृण के समान समझते हैं, जिनके पास नरक का ऋण तिनके के बराबर भी नहीं है। जो संसार के भय से रहित हैं, उन्हें भय हो भी कैसे सकता है? वे भय से रहित और धर्म एवं संयम से सहित हैं।
    जो मन-वचन और काय से कपट रहित हैं, जो काम और क्रोध के पाप से तर चुके हैं, ऐसे परमाचार्य गुरुओं को मैं एकमन से वंदना करता हूँ।


     

     
    पंचमहव्वयतुंगा, तक्कालिय-सपरसमय-सुदधारा।
    णाणागुणगणभरिया, आइरिया मम पसीदंतु।।
  19. Sneh Jain
    अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण के पद्मपुराण के आधार को लेकर भी इसका अवनी बुद्धि से अवगाहन करने की बात करते हैं तो इसका आशय एकदम स्पष्ट होता है कि स्वयंभू रविषेणाचार्य की तरह पउमचरिउ को धर्म ग्रंथ न बनाकर एक विशुद्ध साहित्यिक कोटि का काव्य बनाना चाहते थे। तदर्थ उन्होंने पद्मपुराण के आधार को यथावत ग्रहण कर भी अपनी अनुभूति को अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। इसके लिए उन्होंने  पद्मपुराण के कितने ही प्रसंगों को अपने काव्य में नहीं लिया तथा कितने ही प्रसंगों को नया आयाम दिया तथा उन प्रसंगों को भी अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। पउमचरिउ में स्वयं द्वारा रचित 83 संधियों में उन्होंने पद्मपुराण के सीता के दीक्षा ग्रहण करने तक के कथानक को ही अपने काव्य में ग्रहण किया है।
    सीता के दीक्षा के साथ अपने काव्य को विराम देने में ही स्वयंभू का सन्तुलित व्यक्तित्व  उभरकर आया है। राम का क्षमा भाव धारण करना तथा सीता का राग भाव से निवृत्त होना ही स्वयंभू को पर्याप्त लगा था। शायद वे पूर्वभव व भविष्यत से अधिक वर्तमान भव के पक्षकार थे। उन्होंने वर्तमान जगत में सीता को राम से पहले वैराग्य भाव धारण करते देखा तो अपने सन्तुलित व्यक्तित्व के कारण सीता के सम्मान में अपने काव्य को वहीं विराम दे दिया। वैसे देखा जाय तो आगे का कथानक भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।  काव्य की आगे की संधियों में राम अपनी मानवीय कमजोरियों को जीतकर शक्तिवान बने हैं तथा इन्द्र पद प्राप्त कर कमजोर बनी सीता को भी शक्ति प्रदान की है। इस आगे के कथानक को स्वयंभू पुत्र त्रिभुवन ने 7 संधियों में लिखकर पूरा किया।   
    पउमचरिउ में पाँच काण्ड़ हैं - 1.विद्याद्यर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड  3. सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड । विद्याधर काण्ड़ में विभिन्न वंशों का उद्भव तथा इन सभी वंशों में परस्पर रहे सम्बन्धों का कथन हुआ है।  अयोध्या काण्ड़ में राम के जन्मस्थान अयोघ्या से लेकर वनवास के समय उनके किष्किन्धानगर पहँुचने तक का उल्लेख हुआ है। राम का विवाह एवं वनवास, राम-लक्ष्मण के पराक्रम, राम-लक्ष्मण के द्वारा दुःखियों की रक्षा से सम्बन्धित अवान्तर कथाएँ एवं सीता हरण इस काण्ड के मुख्य विषय रहे हैं।
    सुन्दर काण्ड़ हनुमान की विजयों का काण्ड़ है। इसमें हनुमान सीता का वृत्तान्त राम तक ले जाने में सफल हुए हैं। युद्धकाण्ड सीता की प्राप्ति को लेकर राम-रावण के बीच हुए युद्ध से सम्बन्धित है। युद्धकाण्ड़ का पूरा वातावरण वीरता का दृश्य उपस्थित करता है। अन्तिम उत्तरकाण्ड़ सम्पूर्ण पउमचरिउ का उपसंहार है। इसमें रावण की मृत्यु, राम का अयोध्यागमन, राम का राज्याभिषेक, सीता का निर्वासन, सीता की अग्निपरीक्षा, सीता की जिनदीक्षा का उल्लेख हुआ है। पउमचरिउ की अंतिम 7 संधियाँ जो स्वयंभूपुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित है उसमें शान्ति, वैराग्य एवं निर्वेद का कथन हुआ है।
    उपरोक्त पाँचों काण्ड़ों में प्रथम विद्याधरकाण्ड सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस काण्ड की विषयवस्तु को संक्षिप्त में समझे बिना जैनराम कथा के स्वरूप को सही रूप में नहीं समझा जा सकता है। अतः आगे विद्याधरकाण्ड के विषय में संक्षिप्त में बताया जायेगा। इसके बाद जैन रामकथा के मुख्य-मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डालकर अपभ्रंश के अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों की महत्वपूर्ण विषयवस्तु को भी बताने का प्रयास रहेगा। 
  20. Sneh Jain
    अभी हमने राम कथा से सम्बन्धित इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार के प्रमुख-प्रमुख पुरुषों का जीवन देखा। उनके जीवन चरित्र के आधार पर उनके जीवन में आये सुख-दःुख के कारणों पर कुछ प्रकाश पड़ा। इनके चरित्र से तादात्म स्थापित कर यदि हम देखें तो हम पायेंगे कि हमारे सुख-दुःख के भी यही कारण हैं। अब हम आगे प्रकाश डालते हैं, इक्ष्वाकुवंश के राजा दशरथ के परिवार की प्रमुख महिलाओं के जीवन पर। सबसे पहले देखते हैं राजा दशरथ की सबसे बडी रानी कौशल्या जिनका जैन रामकथा में अपराजिता नाम मिलता है।  
    अपराजिता रामकथा का एक एैसा पात्र है, जो अधिकांश भारतीय महिलाओं के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। उसका सारा जीवन मात्र अपने पति और पुत्र के लिए समर्पित है, उनका सुख-दुख ही उसका अपना सुख दुःख है। अपने पति की अनुचित बात का विरोध करने का भी उसमें साहस नहीं है, जो होना चाहिए। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वह अपने अनुभवों के आधार पर पुरुषों के विरोध करने के परिणाम से परिचित हो। खैर जो भी हो उनके सहज स्वभाव के कारण उनकी जिन्दगी भी एक सामान्य ही रहती है, जिसे हम उनके जीवन चरित्र के माध्यम से देखते हैं -
    वनवास अंगीकार कर राम जब अपनी माँ अपराजिता के पास आ रहे होते हैं तो दूर से ही उनके उद्विग्न चित्त को देखकर एक सहज माँ के रूप में अपराजिता ने कहा - तुम प्रतिदिन घोड़ांे और हाथियों पर चढ़ते थे, लोगों के द्वारा तुम्हारी स्तुति की जाती थी, दिन-रात तुम पर हजारों चमर ढोेरे जाते थे, आज तुम बिना जूतों के पैरों से चलकर कैसे आ रहे हो? आज तुम्हारी स्तुति भी नहीं की जा रही है। उसके बाद जैसे ही उसने राम के मुख से भरत के लिए राज्य व स्वयं का वनवास अंगीकार करना सुना तो वह अपराजिता रोती हुई धरती पर मूच्र्छित होकर गिर पड़़ीं। राम के द्वारा समझाने पर कठिनाई से धर्य को प्राप्त र्हुइं। ना उसने केकैयी पर क्रोध प्रकट किया न ही दशरथ पर।
    राम के वनवास गमन के पश्चात् 14 वर्ष के अन्तराल में अपराजिता राम के वियोग में क्षीण हो चुकी थीं। वे रात-दिन राम के आने का रास्ता देखा करती थीं। राम के विषय में पथिकों से पूछती रहती थीं। कभी घर आंगन में कौआ काँव-काँव कर उठता तो लगता कि राम मिलने वाले हैं। लंका से लौटकर सीता सहित राम व लक्ष्मण अयोध्या में प्रवेश कर माँ से मिले तब माँ ने उनको सुन्दर आशीर्वाद दिया कि जब तक महासमुद्र और पहाड़ हैं, जब तक यह धरती सचराचर जीवों को धारण करती है, जब तक सुमेरु पर्वत है जब तक आकाश में सूर्य और चन्द्रमा है, नदियां प्रवाहशील हैं तब तक हे पुत्र! तुम राज्यश्री का भोग करो और सीतादेवी को पटरानी बनाओ।
    बस इतना ही है एक सामान्य महिला का जीवन। यदि अपराजिता में केकैयी एवं दशरथ की अनुचित बात का सही तरीके से विरोध करने का साहस होता तो शायद रामकथा का रूप कुछ अन्य ही होता। आगे हम प्रकाश डालेंगे  राजा दशरथ के परिवार की प्रमुख महिला केकैयी पर।
  21. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु की स्पष्ट उद्घोषणा है कि परमात्मा की खोज करने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यक्ता नहीं है।अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दर्शन हो सकते है, लेकिन इसके लिए मन की निर्मलता आवश्यक है। मलिन मन में परमात्मा का दर्शन नहीं हो सकता। मन की मलिनता का कारण मात्र मन की आसक्ति है। जिसके मन आसक्ति से अपवित्र है उसमें परमात्मा का निवास नामुमकिन है। परमात्मा व आसक्ति का दूर दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। परमात्मा वे ही बने हैं जिन्होंने अपनी आसक्तिरूपी मलिनता का त्याग किया है। एक मन में आसक्ति व परमात्मा दोनों का एक साथ बसना संभव नहीं है। किसको प्राथमिकता दी जाये ये अपने मन की ही सोच है। आचार्य योगीन्दु इसे स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि जिसके हृदय में सुन्दर स्त्री है, उसके हृदय में परम आत्मा नहीं है। हे वत्स! एक तलवार की म्यान में दो तलवारें किस प्रकार ठहर सकती हैं। आसक्ति से रहित ज्ञानियों के निर्मल मन में ही परमात्मा निवास करता है।
    यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आचार्य का सुंदर स्त्री से विरोध नहीं है स्त्री में आसक्ति के वे विरोधी हैं। क्योंकि आसक्ति व्यक्ति के विकास में बाधक है। वे पुरुष की स्त्री में ही नहीं बल्कि स्त्री की पुरुष में आसक्ति के भी विरोधी हैं। उनकी समभाव से सम्बन्धित गाथा इन सब बातों का खुलासा करती हैं। बिना आसक्ति के जीवन जीने की कला उन्होंने समभाव के आधार पर परमात्मप्रकाश में बतायी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे के दो दोहे -
    121     जसु हरिणच्छी हियवडए तसु णवि बंभु वियारि।
            एक्कहि ँ केम समंति वढ बे खंडा पडियारि।।
    अर्थ -  जिसके हृदय में मृग के समान नेत्रवाली (सुन्दर स्त्री) है, उसके (हृदय में) परम आत्मा नहीं है, (ऐसा तू) विचार कर। हे वत्स! एक तलवार की म्यान में दो तलवारें किस प्रकार ठहर सकती हैं।
    शब्दार्थ - जसु -जिसके, हरिणच्छी-मृग के समान नेत्रवाली, हियवडए-हृदय में, तसु-उसके, णवि-नहीं, बंभु-परमात्मा, वियारि- विचार कर, एक्कहि ँ -एक, केम-किस प्रकार, समंति-ठहरती हैं, वढ-हे वत्स!, बे-दो, खंडा-तलवारें, पडियारि-तलवार की म्यान में।
    122.    णिय-मणि णिम्मलि  णाणियहँ णिवसइ देउ अणाइ।
            हंसा सरवरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ।।
    अर्थ -जिस प्रकार मानसरोवर में हंस लीन (रहता है) (उसी प्रकार) ज्ञानियों के निज निर्मल मन में अनादि परमात्मा निवास करता है। मेरे (मन में) ऐसा झलकता (मालूम पडता) है।
    शब्दार्थ - णिय-मणि-निज मन में, णिम्मलि -निर्मल, णाणियहँ - ज्ञानियों के, णिवसइ -बसता है, देउ -परमात्मा, अणाइ-अनादि, हंसा-हंस, सरवरि-मानसरोवर में, लीणु-लीन, जिम-जिस प्रकार, महु-मेरे, एहउ-ऐसा, पडिहाइ-झलकता है।

     
  22. Sneh Jain
    (क) स्थानवाची अव्यय
    वहाँ, उस तरफ
    तेत्यु, तहिं, तेत्तहे, तउ, तेत्तहि जहाँ, जिस तरफ
    जेत्थु, जहिं, जेत्तहे, जउ यहाँ, इस तरफ
    एत्यु, एत्थ, एत्तहे कहाँ
    केत्थु, केत्तहे, कहिं सब स्थानों पर
    सव्वेत्तहे दूसरे स्थान पर
    अण्णेत्तहे कहाँ से
    कहन्तिउ, कउ, केत्यु, कहिं वहाँ से
    तहिंतिउ, तत्थहो एक ओर/दूसरी ओर
    एत्तहे कहीं पर (किसी जगह)
    कहिं चि, कहिं जि, कहिं वि, कत्थई, कत्थवि, कहिमि पास (समीप)
    पासु, पासे पास से, समीप से
    पासहो पास में
    पासेहिं दूर से, दूरवर्ती स्थान पर
    दूरहो, दूरें पीछे
    पच्छए, पच्छले, अणुपच्छए आगे
    पुरे, अग्गले, अग्गए ऊपर
    उप्परि नीचे
    हेट्टि चारों ओर, चारों ओर से
    चउपासे, चउपासेहिं, चउपासिउ  
    (ख) कालवाची अव्यय
    तब
    तइयहुं, तं, ताम, तामहिं, तावेहिं, तो जब
    जइयहुं, जं, जाम, जामहिं, जावेहिं कब
    कइयतुं अब, अभी, इस समय
    एवहिं इसी बीच
    एत्थन्तरि उस समय
    तावेहिं जिस समय
    जावेहिं जब तक
    जाम, जाउँ, जाम्व, जाव, जावन्न तब तक
    ताम, ताउं, ताव आज
    अज्ज, अज्जु कल
    कल्ले, कल्लए, परए आज तक
    अज्ज वि आज कल में
    अज्जु कल्ले प्रतिदिन
    अणुदिणु, दिवे-दिवे रात-दिन
    रतिन्दिउ, रत्तिदिणु किसी दिन
    के दिवसु, कन्दिवसु आज से
    अज्जहो शीघ्र
    झत्ति, छुडु, अइरेण, लहु, सज्ज तुरन्त
    तुरन्तउ, तुरन्त, अवारें जल्दी से
    तुरन्तएण, तुरन्त पलभर में
    णिविसेण, णिविसें तत्काल
    तक्खणेण, तक्खणे हर क्षण
    खणे खणे क्षण क्षण में
    खणं खणं कुछ देर के बाद ही
    खणन्तरेण कभी नहीं
    ण कयाइ दीर्घकाल तक
    चिरु बाद में
    पच्छए, पच्छइ, पच्छा फिर, वापस
    पडीवउ, पडीवा जेम
    परम्परानुसार  
    (ग) प्रकारवाची अव्यय
    इस प्रकार
    एम, एम्व, इय किस प्रकार, क्यों
    केम, केवं, किह, काई जिस प्रकार, जैसे
    जेम, जिम, जिह, जह, जहा उसी प्रकार, वैसे
    तेम, तिम, ण, तह, तहा जितना अधिक....उतना ही
    जिह जिह .....तिह तिह जैसे जैसे .... वैसे वैसे
    जिह जिह .....तिह तिह की भाँति, जैसे
    जिह किसी प्रकार
    कह वि  
    (घ) विविध अव्यय
    नहीं
    णाहिं, णहि, णउ, ण, णवि, मं, णत्थि मत
    मं क्यों नहीं किण्ण साथ
    सहुं, समउ, समाणु बिना
    विणु, विणा वि 
    भी  नामक, नामधारी, नाम से
    णाम, णामु, णामें, णामेण मानो
    णं, णावई, णाई जउ
    जो की तरह, की भाँति
    णाई, इव, जिह, जेम, ब्व, व सदृश
    सन्निह परन्तु
    णवर केवल
    णवरि, णवर किन्तु
    पर आपस में, एक दूसरे के विरुद्ध
    परोप्परु क्या
    किं क्यों
    काई इसलिए
    तेण, तम्हा चूंकि
    जम्हा कब
    कइयहूं यदि......तो
    जइ.....तो बल्कि
    पच्चेल्लिउ स्वयं
    सई एकाएक, शीघ्र
    अथक्कए अथवा
    अहवा या...या
    जिम..जिम हे
    भो, हा, अहो अरे
    भो, अरे लो
    लई बार-बार
    पुणु-पुणु, मुहु–मुहु, वार–वार एक बार फिर
    एक्कसि, एक्कवार सौ बार
    सयवारउ तीन बार
    तिवार, तिवारउ बहुत बार
    बहुवारउ इसके पश्चात्, इसी बीच, इसी समय
    एत्थन्तरे उसके बाद
    ताणन्तरे थोड़ी देर बाद
    थोवन्तरे अत्यन्त
    सुट्ठ, अइ अत्याधिक
    अहिय अवश्य ही
    अवसें अच्छा
    वरि अधिक अच्छा
    वरु सद्भाव पूर्वक
    सब्भावें अविकार भाव से
    अवियारें स्नेह पूर्वक
    सणेहें लीला पूर्वक
    लीलए पूर्ण आदर पूर्वक
    सव्वायरेण पूर्ण रूप से
    णिरारिउ बड़ी कठिनाई पूर्वक
    दुक्खु दुक्खु एकदम, सहसा
    सहसत्ति दक्षिण की ओर
    दाहिजेण उत्तर की ओर
    उत्तरेण  
    (क) वाक्य रचना - स्थानवाची अव्यय
    तुम वहाँ जाकर बैठो
    तुहं तेत्थु गच्छि अच्छहि मैं वहाँ सोता हूँ
    हउं तेत्थु सयउं मैं जहाँ रहता हूँ, वहीं वह रहता है
    हउँ जेत्थु वसउँ तहिं सो वसइ वह यहाँ आने के लिए कहता है
    सो एत्थु आगच्छेवं भणइ वह यहाँ सोया
    सो एत्थु सयिओ हम सब कहाँ खेलें?
    अम्हे केत्यु खेलमो? तुम कहाँ रहते हो?
    तुहं केत्यु वसहि? हम सब स्थानों पर जाते हैं
    अम्हे सव्वेत्तहे गच्छहूं सब स्थानों पर बादल गरजते हैं
    सव्वेत्तहे मेहा गज्जन्ति तुम दूसरे स्थान पर छिपो
    तुहूं अण्णेत्तहे लुक्कि तुम रत्न कहाँ से प्राप्त करोगे
    तुहं रयणु कहन्तिउ लभेसहि? विमान कहाँ से उडा?
    विमान केत्थु उड्डिउ? तुम फल वहाँ से प्राप्त करो
    तुहुं फलाई तत्थहो लभहि तुम पुस्तकें वहाँ से खरीदो
    तुहुँ गन्था तेत्थहो कीणि बालक ने कहीं पर विमान देखा
    बालएण कत्थइ विमाणु देखिउ तुम उसके पास जावो
    तुहूं तहो पासु गच्छि वह मेरे पास में आता है।
    सो महु पासे आवइ बालक पिता के पीछे भागता है
    बालओ जणेर अणुपच्छए पलाइ मैं आगे जाकर सोऊँगी
    हउँ पुरे गच्छवि सयेसउं बच्चे ऊपर जाकर कूदें
    बालआ उप्परि गच्छेवि कुल्लन्तु हम सबके द्वारा नीचे देखा जाना चाहिए
    अम्हेहिं हेट्टि देखिअव्वु तुम नीचे जावो
    तुहुं हेट्टि गच्छि हम सब समुद्र को दूर से देखें
    अम्हई सायरु दूरहो देखमो चारों ओर बादल गरजते हैं
    चउपासे मेहा गज्जन्ति  
    (ख) वाक्य रचना - कालवाची अव्यय
    जब मैं सोता हूँ, तब तुम जागते हो
    जाम हउँ सयउं ताम तुहूं जग्गहि जिस समय तुम खेलते हो, उस समय मैं भोजन जीमता हूँ
    जावेहिं तुहं खेलहि तावेहिं हउँ भोयणु जेममि इस समय तुम ठहरो
    एवहिं तुहं ठासु तुम कब सोवोगे
    तुहं कइयतुं सयेसहि जब तक मैं सोता हूँ, तब तक तुम खेलो
    जाव हउँ सयउं ताव तुहूं खेलि जब तक तुम कलह करोगे, तब तब मैं भोजन नहीं जीमूंगा
    जाम तुहं कलहेसहि ताम हउँ भोयणु ण जीमेसमि जिस समय उसने कथा कही, उस समय तुम कहाँ थे
    जावेहिं तेण कहा कहिआ तइयतुं तुहु केत्थु आसि आज तुम प्रयास करो, कल मैं प्रयास करेंगी
    अज्ज तुहूं उज्जमहि कल्लए हउँ उज्जमेसमि मैं आज आत्मलाभ प्राप्त करूंगा
    हडं अज्जु अप्पलद्धि लहेसउँ आज तक तुम भागी नहीं
    अज्जवि तुहं णउ पलाआ वे आज कल में रत्न खरीदेंगे
    ते अज्जु कल्ले मणि कीर्णसहिं तुम्हारे द्वारा प्रतिदिन फल खाये जाने चाहिए
    पई अणुदिणु फलाई खाइअव्वाईं तुम प्रतिदिन परमेश्वर की पूजा करो
    तुहुं अणुदिणु परमेसरु अच्चि वह रात दिन कलह करता है
    सो रत्तिदिणु कलहइ किसी दिन मैं विमान उडाऊँगा
    क दिवसु हउँ विमाणु उड्डावेसउँ किसी दिन मैं उनका उपकार करने के लिए जाऊँगी
    क दिवस हवं तं उपकरेवं गच्छेसउँ आज से तुम व्रत पालोगे
    अज्जहो तुहुं वयु पालेसहि उसके द्वारा शीघ्र छिपा गया
    तेण लहु लुक्किउ तुम वहाँ शीघ्र जावो
    तुहु तेत्यु अइरेण गच्छि बालक पलभर में कूद गया
    बालओ णिविसेण कुदिओ वह तत्काल वहाँ आया
    सो तक्खणे तेत्थु आगच्छिओ तुम हर क्षण प्रसन्न रहो
    तुहं खणे खणे हरिसहि राजा के द्वारा कुछ देर बाद ही सेनापति बुलाया गया
    नरिंदेण खणन्तरेण सेणावइ कोकिओ मुनि हिंसा कभी नहीं करते
    मुणि हिंसा ण कयाइ करहिं तुम दीर्घकाल प्रशंसा प्राप्त करो
    तुहं चिरु पसंसा लहहि तुम्हारे द्वारा वहाँ बाद में जाया जाना चाहिए
    पई तेत्थु पच्छए गच्छिएव्वउं तुम वापस गाँव जावो
    तुहं पडीवउ गामु गच्छि  
    (ग) वाक्य रचना - प्रकारवाची अव्यय
    तुम इस प्रकार बोलो, जिससे माँ प्रसन्न होवे
    तुहूं एम चवि जेण माया हरिसउ वह किस प्रकार ध्यान करता है
    सो केवं झायइ तुम उसी प्रकार ध्यान करो, जिस प्रकार मुनि ध्यान करते हैं
    तुहूं तेम झायहि जेम मुणि झायहिं जिस प्रकार तुम गाते हो उसी प्रकार नाचो भी
    जेम तुहुँ गाअहि तेम गच्च वि जैसे-जैसे मैं आगम पढती हूँ, वैसे-वैसे ज्ञान प्राप्त करती हूँ
    जिह–जिह हउँ आगमु पढउँ तिह–तिह णाणु लहउं तुम्हारे द्वारा बालक की तरह नहीं लड़ा जाना चाहिए।
    पईं बालआ जिह ण जुज्झिअव्वा तुम धन प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार प्रयत्न करो
    तुहं धणु लभेवं कहवि उज्जमि  
    (घ) वाक्य रचना - विविध अव्यय
    तुम्हारे द्वारा उसकी निंदा नहीं की जानी चाहिए 
    पई सो णाहिं गरहिअव्वो तुम पानी मत फैंको
    तुहं सलिलु मं खिवसु तुम भोजन क्यों नहीं करते हो?
    तुहं भोयणु किण्ण करहि? राम राक्षसों के साथ युद्ध करते हैं
    रहुणन्दण रक्खसेहिं सहूं जुज्झइ तुम्हारे बिना वस्त्रों को कौन धोएगा?
    पई विणु को वत्थाई धोएसइ? सीता नाम की उसकी कन्या है
    सीया णामु तहो कन्ना अत्थि उसके वचन सुनकर पिता क्रुद्ध हुए मानो राहु चन्द्रमा से क्रुद्ध हुआ हो
    तहो वयण सुणेवि जणेरो कुविओ णं राहु ससिहे कुविओ तुम्हारे द्वारा कुत्ते की तरह नहीं लड़ा जाना चाहिए
    पई कुक्करो इव ण जुज्झिअव्वा। आज तुम यहाँ ठहरोगे; परन्तु वह नहीं ठहरेगा
    अज्जु तुहूं एत्थु ठासहि पर सो णउ ठासइ केवल तुम्हारे द्वारा गाय की खोज की जानी चाहिए
    गवरि पई धेणू गवेसिअव्वा वह रुके, किन्तु तुम जाओ
    सो थंभउ पर तुहुँ गच्छि तुम सब आपस में मत भिडो
    तुम्हई परोप्परु में भिडह क्या बालक सो गया?
    किं बालओ सयिओ तुम वहाँ जाने के लिए क्यों डरते हो
    तुहं तेत्थु गच्छेवं काई डरहि मैं इसलिए गीत गाता हूँ, जिससे तुम प्रसन्न होवो
    हउँ तेण गीउ गाअउं जेण तुहं हरिससु  तुम हाथी कब खरीदोगे ?
    तुहं हत्थि कइयहूं कीणेसहि यदि तुम खेलोगे तो तुमको देखकर पुत्र प्रसन्न होगा
    जइ तुहं खेलेसहि तो पइं देखेवि पुत्तो उल्लसेसइ सिंह को देखकर वह नहीं डरा; बल्कि मैं डरकर भागा
    सीहु पेच्छवि सो ण डरिओ पच्चेल्लिउ हउँ डरिउ पलाओ तुम स्वयं गठरी उठाओ
    तुहं सई पोट्टलु उट्ठावहि एकाएक तुम वहाँ मत जावो
    अत्थक्कए तुहं तेत्थु मं गच्छि तुम राज्य भोगो अथवा वैराग्य धारण करो
    तुहं रज्जु भुजि अहवा वेरग्गु धारि या भिडो या शान्त होवो
    जिम भिडु जिम उवसमहि हे पुत्र ! तुम दूध मत फैलावो
    भो पुत्तो तुहं खीरु मं पासरहि बार बार तुम वस्त्र क्यो धोते हो?
    पुणु पुणु तुहुं वत्थाई केम धोवहि? तुम्हारे द्वारा एक बार फिर विमान उडाया जाना चाहिए।
    पई पुणुवि विमाणु उड्डावेव्वउँ बच्चे खेलने के लिए बार-बार कूदते हैं
    बालआ खेलेवं पुणु पुणु कुल्ब्लहिं शत्रु को जीतने के लिए तुम एक बार फिर प्रयास करो
    रिउ जिणेवं तुहं पुणु वि उज्जमि तुम्हारे द्वारा उसको एकबार अवश्य ही देखा जाना चाहिए
    पई सो एक्कसि अवसे देखिअव्वो तुम मामा को बार बार क्यों याद करते हो?
    तुहं माउलु मुहु मुह केम सुमरसि? मेरे द्वारा उसको सौ बार समझाया गया; किन्तु वह नहीं समझेगा
    ई सो सयवारउ बुज्झाविओ पर सो णउ बुज्झेसइ मौसी प्रतिदिन तीन बार परमेश्वर की स्तुति करती है
    माउसी दिवे-दिवे तिवार परमेसरु थुणइ तुम रात में बहुत बार क्यों जागते हो?
    तुहं रत्तिहिं वहुवारउ काई जग्गसि? इसी बीच मुनिवर के द्वारा कथा कही गई
    एत्थन्तरे मुणिवरें कहा कहिआ। उसके बाद तुम प्रतिदिन क्या करते हो?
    ताणन्तरे तुहं अणुदिणु किं करसि? वह तुम्हारी वाणी थोडी देर बाद सुनेगा
    सो तुज्झ वाया थोवन्तरे सुणेसइ। तुम्हारे द्वारा अत्यन्त वस्त्र कभी नहीं रखे जाने चाहिए
    पई सुठु वत्थाई ण कयाइ रक्खेअव्वाईं तुम मन लगाकर अधिक अच्छा पढो
    तुहूं मणु लग्गाविउ वरु पढसु अच्छा, मैं इसी समय वहाँ जाता हूँ
    वरि, हउँ एवहिं तहिं गच्छउं हमको सद्भाव पूर्वक भोजन जीमना चाहिए
    अम्हेहिं सब्भावें भोयण जेमेव्वउं शत्रु को जीतने के लिए तुम एक बार फिर प्रयास करो
    रिउ जिणेवं तुहं पुणु वि उज्जमि तुम्हारे द्वारा उसको एकबार अवश्य ही देखा जाना चाहिए
    पई सो एक्कसि अवसे देखिअव्वो तुम मामा को बार बार क्यों याद करते हो?
    तुहं माउलु मुहु मुह केम सुमरसि? मेरे द्वारा उसको सौ बार समझाया गया; किन्तु वह नहीं समझेगा
    मई सो सयवारउ बुज्झाविओ पर सो णउ बुज्झेसइ मौसी प्रतिदिन तीन बार परमेश्वर की स्तुति करती है
    माउसी दिवे-दिवे तिवार परमेसरु थुणइ तुम रात में बहुत बार क्यों जागते हो?
    तुहं रत्तिहिं वहुवारउ काई जग्गसि? इसी बीच मुनिवर के द्वारा कथा कही गई
    एत्थन्तरे मुणिवरें कहा कहिआ उसके बाद तुम प्रतिदिन क्या करते हो?
    ताणन्तरे तुहं अणुदिणु किं करसि? वह तुम्हारी वाणी थोडी देर बाद सुनेगा
    सो तुज्झ वाया थोवन्तरे सुणेसइ तुम्हारे द्वारा अत्यन्त वस्त्र कभी नहीं रखे जाने चाहिए
    पई सुठु वत्थाई ण कयाइ रक्खेअव्वाईं तुम मन लगाकर अधिक अच्छा पढो
    तुहूं मणु लग्गाविउ वरु पढसु अच्छा, मैं इसी समय वहाँ जाता हूँ
    वरि, हउँ एवहिं तहिं गच्छउं हमको सद्भाव पूर्वक भोजन जीमना चाहिए
    अम्हेहिं सब्भावें भोयण जेमेव्वउं तुम पुत्र को स्नेह पूर्वक स्पर्श करो
    तुहूं पुत्तु सणेहें छु मुनि अविकार भाव से प्रभु का ध्यान करते हैं
    मुणि अवियारें पहु झायहिं बालक लीलापूर्वक क्रीड़ा करता है
    बालओ लीलाए कीलइ तुम सबके द्वारा मुनि पूर्ण आदरपूर्वक प्रणाम किए जावे
    तुम्हेहिं मुणि सव्वायरेण पणमिअव्वा तुम सब पूर्ण रूप से प्रसन्न होवो
    तुम्हई णिरारिउ हरिसह उसने पिता को मारा था इसलिए वह भी बड़ी कठिनाई पूर्वक मरा
    तेणं जणेरो हणिओ तेण सो वि दुक्ख दुक्खु मुओ सहसा किसके द्वारा ये लकडिया जलाई गई
    सहसत्ति केण एई लक्कुडाई दहिआईं सेनापति ससैन्य उत्तर की ओर गया
    सेणावइ स चमुए उत्तरेण गउ कवि दक्षिण की ओर जाकर ग्रंथ लिखते हैं
    कइ दाहिणेण गच्छि गंथा लिहन्ति  
  23. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि शुभ भाव से व्यक्ति अच्छे कर्म करता है किन्तु उससे कर्म बंध होता है और अशुभ भाव से व्यक्ति बुरे कर्म करता है और उससे भी कर्म बंध होता है। मात्र एक शुद्ध भाव ही वह भाव है जिससे व्यक्ति कर्म बन्ध नहीं करता है। शुद्ध भाव में रत व्यक्ति समस्त कर्म करते हुए भी कर्म बन्धन से परे होता है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    71.   सुह-परिणामे ँ धम्मु पर असुहे ँ होइ अहम्मु।
         दोहि ँ वि एहि ँ विवज्जियउ सुद्धु ण बंधइ कम्मु।।
    अर्थ -शुभ भाव से धर्म और अशुभ से अधर्म होता है, (तथा) इन दोनों से रहित हुआ शुद्ध भाव कर्म को नहीं बांँधता है।
    शब्दार्थ - सुह-परिणामे ँ - शुभ परिणाम से, धम्मु-धर्म, पर -और, असुहे ँ -अशुभ से, होइ-होता है, अहम्मु-अधर्म, दोहि ँ- दोनों से, वि-ही, एहि ँ-इन, विवज्जियउ-रहित हुआ, सुद्धु-शुद्ध, ण-नहीं, बंधइ-बांधता है, कम्मु-कर्म।
  24. Sneh Jain
    इस दोहे में आचार्य योगीन्दु स्पष्टरूप में घोषणा करते हैं कि हे प्राणी! यदि तू बेहोशी में जीकर इतना नहीं सोचेगा कि मेरे क्रियाओं से किसी को कोई पीड़ा तो नहीं पहुँच रही है तो तू निश्चितरूप से नरक के समान दुःख भोगेगा। इसके विपरीत यदि तेरी प्रत्येक क्रिया इतनी जागरूकता के साथ है कि तेरी क्रिया से किसी भी प्राणी को तकलीफ नहीं पहुँचती तो तू निश्चितरूप से स्वर्ग के समान सुख प्राप्त करेगा। यह कहकर आचार्य योगीन्दु बडे़ प्रेम से कहते हैं कि देख भाई मैंने तूझे सुख व दुःख के दो मार्गों को अच्छी तरह से समझा दिया है, अब तुझे जो सही लगे वही कर। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    127.   जीव वहंतहँ णरय-गइ अभय-पदाणे ँ सग्ग।
           बे पह जवला दरिसिया जहि ँ रुच्चइ तहि ँ लग्गु।।
    अर्थ -  जीवों का वध करते हुओं को नरकगति (मिलती है), (तथा) अभय दान से स्वर्ग (मिलता है)।
       (ये) दो मार्ग समुचित रूप से (तुझकोे) बताये गये हैं, जिसमें तुझे अच्छा लगता है उसमें दृढ़ हो।
    शब्दार्थ - जीव-जीवों का, वहंतहँ-वध करते हुओं को,  णरय-गइ-नरक गति, अभय-पदाणे ँ -अभय दान से स्वर्ग, सग्ग-स्वर्ग, बे -दो, पह -मार्ग, जवला-समुचित, दरिसिया-बताये गये हैं, जहि ँ-जिसमें,  रुच्चइ -अच्छा लगता है, तहि ँ-उसमें, लग्गु-दृढ़ हो।

     
  25. Sneh Jain
    जीव, पुद्गल, धर्म व अधर्म द्रव्य के बाद आचार्य योगीन्दु आकाश द्रव्य के विषय में कहते हैं कि समस्त द्रव्य जिसमें भलीभाँति व्यवस्थित हैं वही आकाश द्रव्य है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    20.   दव्वइं सयलइँ वरि ठियइँ णियमे ँ जासु वसंति।                                         
          तं णहु दव्वु वियाणि तुहुँ जिणवर एउ भणंति।।
    अर्थ - समस्त द्रव्य जिसमें अच्छी तरह से व्यवस्थित रहते हैं, उसको तू निश्चयपूर्वक आकाश द्रव्य जान। जिनेन्द्रदेव यह कहते हैं।
    शब्दार्थ - दव्वइं-द्रव्य, सयलइँ -समस्त, वरि-अच्छी तरह से, ठियइँ-व्यवस्थित, णियमे ँ-निश्चयपूर्वक, जासु-जिसमें, वसंति-रहते हैं, तं - उसको, णहु -आकाश, दव्वु-द्रव्य, वियाणि-जान, तुहुँ-तू, जिणवर-जिनेन्द्रदेव, एउ-यह, भणंति-कहते हैं।
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