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?आचार्यश्री व समाजोत्थान - अमृत माँ जिनवाणी से - १७७

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,            प्रस्तुत प्रसंग में लेखक ने सामाजिक सुधार हेतु पूज्य शांतिसागरजी महराज द्वारा प्रेरणा देने के सम्बन्ध में पूज्यजी की विशिष्ट सोच को व्यक्त किया है।        प्रस्तुत प्रसंग वर्तमान परिपेक्ष्य में भी अति महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान में अनेको साधु भगवंतों द्वारा समाज में बड़ रही विकृतियों से बचने तथा सामाजिक कुप्रथाओं को बंद करने की प्रेरणा दी जाती है, उस सम्बन्ध में भी कुछ लोग गलत सोच सकते हैं। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७७    ?            "

Abhishek Jain

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?सर्वप्रियता - अमृत माँ जिनवाणी से - १७६

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,            आज का प्रसंग एक रोचक प्रसंग है। सामान्यतः पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र की जिज्ञासा रखने वाले श्रावकों के मन में उनके विवाह के सम्बन्ध में जिज्ञासा रहती है।          पहले के समय में बालविवाह की कुप्रथा प्रचलित थी। बाल विवाह की प्रथा के अनुरूप ही नौ वर्ष के बालक सातगौड़ा का विवाह भी कम उम्र में ही कर दिया।           पूर्व प्रसंग से हम सभी को ज्ञात है कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज की प्रेरणा से ही कोल्हापुर राज्य में देश में प्रथम बार बाल विवा

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सीता के मन में स्थित आसक्ति का स्वरूप

यहाँ हम देखेंगे कि राग की परम्परा किस प्रकार आगे तक चलती रहती है। राम की पत्नी सीता ने संन्यास अंगीकार कर मरण कर इन्द्रपद पाया। इन्द्रपद के भव मेें राम का समागम होना जानकर पुनः राग भाव उत्पन्न हुआ। यह राग ऐसा ही है जो भव-भव तक पीछा नहीं छोड़ता और यही मनुष्य की अशान्ति का कारण है।  सीता के जीव इन्द्र के माध्यम से हम राग के स्वरूप को देखेंगे। राम ने सुव्रतनामक चारण मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहणकर महाव्रत अंगीकार किये। बारह प्रकार का कठोर तप अंगीकार कर परीषह सहन का युक्तियों का पालन किया। छठे उपवास के

Sneh Jain

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?वीर निर्वाण भूमि पावापुरी पहुँचना - अमृत माँ जिनवाणी से - १७५

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,       आज आपको पूज्य शान्तिसागरजी महराज के उस समय के प्रसंग का वर्णन करते हैं जब पूज्य शान्तिसागरजी महराज तीर्थराज शिखरजी की वंदना की श्रृंखला में वीर निर्वाण भूमि पावापुरीजी पहुँचे थे।    लेखक के निर्वाण भूमि के वर्णन के पठन के उपरांत आप भी इस प्रकार अनुभव करेंगे कि आपने भी अभी-२ पावापुरीजी की वंदना की हो। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७५    ?       "वीर निर्वाण भूमि पावापुरी पहुँचना"           राजगिरी की वंदना के पश्चात् संघ ने महावीर भगवान के

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राम की लक्ष्मण के प्रति आसक्ति का कथन

अज्ञान जनित राग ही मनुष्य के दुःख व अशान्ति का कारण है। रामकथा के माध्यम से जैन कवियों ने इसको बहुत ही सुंदर ढंग से समझाने का प्रयास किया है। बडे़- बड़े महापुरुष भी इस राग (आसक्ति) से चिपके रहते हैं। जब यह राग समाप्त हो जाता है तो वे सुख व शान्ति प्राप्त कर लेते हैं। आसक्ति का त्याग ही सुख व शान्ति का मार्ग है। इससे पूर्व हमने लक्ष्मण के मन की आसक्ति का एक रूवरूप देखा। यहाँ रामकथा के नायक ‘राम’ के मन की आसक्ति का संक्षेप में कथन किया जा रहा है। अन्त में आसक्तिका त्याग कर राम ने निर्वाण पद को प्रा

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?बाल ब्रम्हचारी का जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १७४

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७४    ?            "बाल ब्रह्मचारी का जीवन"             जब सातगौड़ा (भविष्य के शान्तिसागरजी महराज) अठारह वर्ष के हुए तब माता पिता ने फिर इनसे विवाह की चर्चा चलाई। इन्होंने अपनी अनिच्छा प्रगट की। इस पर पुनः आग्रह होने लगा, तब इन्होंने कहा, "यदि आपने पुनः हमें गृहजाल में फसने को दबाया, तो हम मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेंगे।"          इस भय से पुनः विवाह के लिए आग्रह नहीं किया गया। इस प्रकार पूज्यश्री बाल्य जीवन से ही निर्दोष ब्रम्हचर्य-व्रत का पालन करते च

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DasLakshan Parv day 7- Uttam Tap Dharma -- उत्तम तप धर्म (Penance or Austerities)

DasLakshan Parv day 7- Uttam Tap Dharma -- उत्तम तप धर्म (Penance or Austerities) - To practice austerities putting a check on all worldly allurements.   Shloka: तप चाहें सुरराय, करम-शिखर को वज्र है । द्वादशविधि सुखदाय, क्यों न करै निज सकति सम ॥ उत्तम तप सबमाहिं बखाना, करम शैल को वज्र-समाना । बस्यो अनादि-निगोद मन्झारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा । धारा मनुज तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता । श्रीजैनवानी तत्वग्यानी, भई विषय-पयोगता ।। अति महादुर्लभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरैं । नर-भव अनूपम कनक घर पर

Saurabh Jain

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?प्रज्ञापुंज - अमृत माँ जिनवाणी से - १७३

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७३    ?                       "प्रज्ञापुँज"          पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के बारे में लोगों से ज्ञात हुआ कि इनकी प्रवृत्ति असाधारण थी। वे विवेक के पुँज थे। बाल्यकाल में बाल-सूर्य सदृश प्रकाशक और सबके नेत्रों को प्यारे लगते थे। ये जिस कार्य में भी हाथ डालते थे, उसमें प्रथम श्रेणी की सफलता प्राप्त करते थे।             इनका प्रत्येक पवित्र कलात्मक कार्य में प्रथम श्रेणी भी प्रथम स्थान रहा है। अध्यन के अल्पतम साधन उपलब्ध

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लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति

जैनधर्म एवं दर्शन में समस्त दोषों का आधार आसक्ति के मूल में देखा गया है। आसक्ति अज्ञान जनित है। आसक्ति से उत्पन्न दुष्परिणामों को भुगतने पर ही सही ज्ञान का होना प्रारम्भ होता है। राम-लक्ष्मण व सीता के दुःखों के मूल में भी यही आसक्ति विद्यमान थी। पउमचरिउ के अन्त में भी इन पात्रों में विद्यमान  आसक्ति के चरमरूप का कथन किया गया है जो प्रत्येक व्यक्ति की आसक्तियों को भी भली भाँति उदघाटित करती है। यहाँ सर्वप्रथम लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति का कथन किया जा रहा है। लक्ष्मण की राम के प्रति आसक्ति - एक

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?गुणराशी - अमृत माँ जिनवाणी से - १७२

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७२    ?                       "गुणराशि"         ग्राम के कुछ वृद्धों से पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के बाल्य जीवन आदि के विषय में परिचय प्राप्त किया, ज्ञात हुआ कि ये पुण्यात्मा महापुरुष प्रारम्भ से ही असाधारण गुणों के भंडार थे। इनका परिवार बड़ा सुखी, समृद्ध, वैभवपूर्ण तथा जिनेन्द्र का अप्रतिम भक्त था।     इनकी स्मरण शक्ति जन साधारण में प्रख्यात थी। इन्होंने माता सत्यवती से सत्य के प्रति अनन्य निष्ठा और सत्यधर्म के प्रति प्राणाधिक श्रद्धा का

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?बालयोगी का जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १७१

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७१    ?               "बालयोगी का जीवन"           पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज को चारित्र का चक्रवर्ती बनना था, इसलिए इनके बाल्य जीवन में विकृतियों पर विजय की तैयारी दिखती थी। वे बालयोगी सरीखे दिखते थे।        भोज ग्राम में जो शिक्षण उपलब्ध हो सकता था, वह इन्होंने प्राप्त किया था। इनकी मुख्य शिक्षा वीतराग महर्षियों द्वारा रचे गये, रत्नत्रय का वैभव बताने वाले शास्त्रों का स्वाध्याय के रूप में की थी।       अनुभवजन्य शिक्षा का इनके जीवन म

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Dasakshan Parv Day 4- Uttam Shauch Dharma -- उत्तम शौच धर्म (Contentment or Purity)

Dasakshan Parv Day 4- Uttam Shauch Dharma -- उत्तम शौच धर्म (Contentment or Purity) - To keep the body, mind and speech pure by discarding greed. Accoding greed and abstaining from possessive longing is called Shauch or purity of thought. The longings that should be got rid off are of 4 different kinds. They are:  1. Jivana Lobha – longing to sustain one’s living.  2. Aroygaya Lobha – longing to sustain one’s health.  3.Upabhoga Lobha longing to enjoy things, which will be useful to contribute

Saurabh Jain

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?ग्राम के वृद्धो से महराज की जीवन सामग्री - १७०

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७०    ? "ग्राम के वृद्धों से महराज की जीवन सामग्री"             भोज के वृद्धजनों से तर्क-वितर्क द्वारा जो सामग्री मिली उससे पता चला, सत्पुरुषों की जननी और जनक जिस प्रकार अपूर्व गुण संपन्न होते हैं, वही विशेषता सातगौड़ा को जन्म देने वाली माता सत्यवती और भव्य शिरोमणी श्री भीमगौड़ा पाटिल के जीवन में थी।         उनका गृह सदा बड़े-२ महात्माओं, सत्पुरुषों और उज्जवल त्यागियों की चरण रज से पवित्र हुआ करता था। जब भी कोई निर्ग्रन्थ दिगंबर मुनिराज या अन्य महात्

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DasLaskhan Parava - Day 3 - Uttam Aarjava Dharma --- उत्तम आर्जव धर्म (Straight-forwardness or Honesty)

DasLaskhan Parava - Day 3 - Uttam Aarjava Dharma --- उत्तम आर्जव धर्म (Straight-forwardness or Honesty) - To practice a deceit-free conduct in life by vanquishing the passion of deception. Aarjava means straightforwardness in conduct. One’s own conduct may be crooked. His bodily action, speech and mind may be lacking in straightforwardness. Avoiding this crookedness in thought, word and deed, is called Aarjavam or uprightness in conduct Happy Uttam Aarjava Dharma !!!

Saurabh Jain

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रामकथा के मुख्य पात्रों के पूर्वभव व भविष्य कथन

पउमचरिउ में वर्णित मुख्य पात्रों का पूर्वभव व भविष्य कथन जैनधर्म के कर्मसिद्धान्त पर प्रकाश डालता है। हम इस पर थोड़ा ध्यान से विचार करें तो हम समझ सकेंगे कि राम,रावण, सीता व लक्ष्मण का सम्बन्ध एक जन्म का नहीं है। उनका यह सम्बन्ध पूर्व भवों से उनके कर्मों के आधार पर चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त को इससे भलीभाँति समझा जा सकता है। i पूर्वभव कथन राम - वणिकपुत्र धनदत्त, स्वर्ग में देव, पंकजरुचि नामक वणिकपुत्र, ईशान स्वर्ग में देव, कनकप्रभनामक राजपुत्र, महेन्द्रस्वर्ग म

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?कर्नाटक पूर्वज भूमि - अमृत माँ जिनवाणी से - १६९

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १६९    ?              "कर्नाटक पूर्वज भूमि"            एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज से उनके धार्मिक परिवार के विषय में चर्चा चलाई। सौभाग्य की बात है कि उस समय उनके पूर्वजों के बारे में भी कुछ बातें विदित हुई।           महराज ने बताया था कि उनके आजा का नाम गिरिगौड़ा था। उनके यहाँ सात पीढ़ी से पाटील का अधिकार चला आता है। पाटिल गाँव का मालिक/रक्षक होता है। उसे एक माह पर्यन्त अपराधी को दण्ड देने तक का अधिकार रहता है।       महराज ने यह भी बताया था

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DasLakshan Parv day 2 Uttam Mardava Dharma -- उत्तम मार्दव धर्म (Tenderness or Humility)

DasLakshan Parv day 2 Uttam Mardava Dharma -- उत्तम मार्दव धर्म (Tenderness or Humility) - To observe the virtue of humility subduing vanity and passions. Mardava: This refers to the complete absence of self-conceit. Such self-conceit or pride may be due to one’s own superior caste, one’s family prestige, one’s own bodily beauty, learining, wealth, courage and bodily strength. Due to these various reasons, a person may entertain the feeling of self-importance and pride. Whenever a man with such

Saurabh Jain

Saurabh Jain

?परिवार व नाम संस्कार - अमृत माँ जिनवाणी से - १६८

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,           आज हम जानते हैं चारित्र चक्रवर्ती पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महराज के गृहस्थ जीवन का नाम तथा उनके भाई बहनों के नाम आदि। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १६८    ?             "परिवार व् नाम संस्कार"         पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन में दो ज्येष्ठ भ्राता थे, जिनके नाम आदिगोंडा और देवगोंडा थे। कुमगौड़ा नाम के अनुज थे। बहिन का नाम कृष्णा बाई था।          इनके शांत भाव के अनुरूप उन्हें "सातगौड़ा" कहते थे। वर्तमान में

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DasLakshan Parv day 1- • Uttam Kshama Dharma -- उत्तम क्षमा धर्मं (Supreme Forgiveness)

DasLakshan Parv day 1- • Uttam Kshama Dharma -- उत्तम क्षमा धर्मं (Supreme Forgiveness) - To observe tolerance whole-heartedly, shunning anger. In the life of an ascetic, he may find himself in circumstances, likely to arouse his wrath. Inspite of such provocation, he must avoid emotional disturbance and maintain peace of mind. This maintaining patience in the midst of provocation is called Kashama or forbearance. Provocation circumstances may occur in this way. Homeless saint must his body fo

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पउमचरिउ काव्य में नारद की अद्भुत् भूमिका

पउमचरिउ नामक काव्य के ये एक महत्वपूर्ण पात्र हैं। देखा जाय तो इनका पउमचरिउ में वर्णित किसी भी वंश से विशेषरूप से सम्बन्ध नहीं है और वैसे सभी के साथ सम्बन्ध है। भ्रमणशील प्रवृत्ति के कारण इनको अपने चारों तरफ की पूर्ण जानकारी भी रहती है। जो इनके साथ खुश है उसका ये पूरा साथ देते हैं और उसका बिगड़ा काम भी बनाने में सहयोग प्रदान करते हैं किन्तु इनकी जिससे इनकी नाराजगी है उससे प्रतिशोध लिए बिना भी नहीं रहते। अपनी विस्तृत जानकारी के कारण ये अपने सभी कार्यों में सफल होते देखे गये है। यहाँ हम पउमचरिउ में

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?वैराग्य का कारण - अमृत माँ जिनवाणी से - १६७

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १६७    ?                "वैराग्य का कारण"           मैंने एक दिन पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूंछा, "महराज वैराग्य का आपको कोई निमित्त तो मिला होगा? साधुत्व के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई।        पुराणों में वर्णन आता है कि आदिनाथ प्रभु को वैराग्य की प्रेरणा देवांगना नीलांजना का अपने समक्ष मरण देखने से  प्राप्त हुई थी।"      महराज ने कहा, "हमारा वैराग्य नैसर्गिक है। ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो।

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?आदेश - अमृत माँ जिनवाणी से - १६६

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,            आप सभी प्रसंग के शीर्षक को पढ़कर सोचगे कि इस प्रसंग में क्या आदेश होगा?            यह प्रसंग उस समय का है जब इस जीवनचरित्र के यशस्वी लेखक श्री दिवाकर जी इस भाव से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के पास गए की उनके जीवनगाथा का ज्ञान प्राप्त हो और वह सभी लोगों तक पहुँचे, ताकि इन महान आत्मा के जीवन चरित्र को जानकर आगे की पीढ़ी अपना कल्याण कर सके।         प्रस्तुत प्रसंग में आप एक इतने श्रेष्ट साधक के अपने प्रति    निर्ममत्व को जानकर दंग रह जाएँगे। उनके जीवन में

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(हनुमान व लंकासुंदरी के सन्दर्भ में): समभाव से ही सौहार्द सम्भव है

इस अनादिनिधन संसार में सभी जीव दो स्तर पर जीवन यापन करते हैं- प्राकृतिक और अर्जित। प्रथम  प्राकृतिक स्तर पर सभी जीव प्रायः समान स्थिति लिए होते हैं, जैसे - सभी जीवों का जन्म लेकर मरना, सभी के लिए बाल्य, युवा, वृद्धावस्था का समानरूप से होना, सभी स्त्री जाति व पुरुष जाति के जीवों की अपनी जाति के अनुसार शारीरिक संरचना समान होना, सूर्य, चन्द्रमा, नदी, तालाब वृक्ष आदि की सुविधाएँ सभी को समान रूप से मिलना। दूसरे अर्जित स्तर पर अर्जन करना प्रत्येक व्यक्ति की निजि सम्पदा है, जो सभी व्यक्तियों को एक दूसर

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