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?प्रज्ञापुंज - अमृत माँ जिनवाणी से - १७३


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७३    ?


                      "प्रज्ञापुँज"


         पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के बारे में लोगों से ज्ञात हुआ कि इनकी प्रवृत्ति असाधारण थी। वे विवेक के पुँज थे। बाल्यकाल में बाल-सूर्य सदृश प्रकाशक और सबके नेत्रों को प्यारे लगते थे। ये जिस कार्य में भी हाथ डालते थे, उसमें प्रथम श्रेणी की सफलता प्राप्त करते थे।

            इनका प्रत्येक पवित्र कलात्मक कार्य में प्रथम श्रेणी भी प्रथम स्थान रहा है। अध्यन के अल्पतम साधन उपलब्ध होते हुए भी, इनका असाधारण क्षयोपशम और लोकोत्तर प्रतिभा बड़े-बड़े विद्वानों और भिन्न-भिन्न धर्मों के प्रमुख पुरुषों को चकित करती थी। यद्यपि ये विद्या के उपाधिधारी विद्वान् नहीं थे, फिर भी बड़े-बड़े उपाधिधारी ज्ञानी लोग इनके चरणों के पास आत्मप्रकाश प्राप्त करते थे।

         सदाचार समन्वित और प्रतिभा अलंकृत इनका जीवन यथार्थ में सौरभ संपन्न सरोज के समान था और उनके समान ही ये जलतुल्य वैभव से अपने अंतःकरण को पूर्णतया अलिप्त रखते थे।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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