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?आदेश - अमृत माँ जिनवाणी से - १६६


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

           आप सभी प्रसंग के शीर्षक को पढ़कर सोचगे कि इस प्रसंग में क्या आदेश होगा?

           यह प्रसंग उस समय का है जब इस जीवनचरित्र के यशस्वी लेखक श्री दिवाकर जी इस भाव से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के पास गए की उनके जीवनगाथा का ज्ञान प्राप्त हो और वह सभी लोगों तक पहुँचे, ताकि इन महान आत्मा के जीवन चरित्र को जानकर आगे की पीढ़ी अपना कल्याण कर सके।

        प्रस्तुत प्रसंग में आप एक इतने श्रेष्ट साधक के अपने प्रति    निर्ममत्व को जानकर दंग रह जाएँगे। उनके जीवन में मार्दव आर्जव आदि गुणों की उचाईयों को देखकर ऐसा लगेगा कि यह ही पराकाष्ठा है गुणों की इससे अधिक ऊँचाई क्या होगी? 

?    अमृत माँ जिनवाणी से - १६६    ?


                      "आदेश"


          सन् १९५१ में बारामती उद्यान में लेखक दिवाकरजी अपने अनुज प्रोफेसर सुशील कुमार दिवाकर के साथ बड़ी विनय के साथ, उनसे कुछ जीवन गाथा जानने की प्रार्थना की, तब उत्तर मिला कि हम संसार के साधुओं में सबसे छोटे हैं, हमारा लास्ट नंबर है, उससे तुम क्या लाभ ले सकोगे? हमारे जीवन में कुछ भी महत्व की बात नहीं है।

       बीच का ह्रदयस्पर्शी प्रसंग पढ़ने के लिए प्रसंग क्रमांक २१ पढ़ें। उसके आगे...

      कुछ क्षण पश्चात् वे बोल उठे कि तुम्हारे लिए हमारे आदेश है कि तुम हमारा चरित्र मत लिखना।

      मै बोला कि महराज ! यह तो आपकी बड़ी कड़ी आज्ञा है। मै अपने गुरु के गौरव से जगत को परिचित कराकर गुरु की सेवा तथा लोकहित करना चाहता हूँ। उस विषय में आप क्यों प्रतिबन्ध उपस्थित करते हैं? 

       आपकी अस्सी वर्ष की अवस्था पूर्ण होने को है। धार्मिक समाज उत्सव मनाकर धर्म प्रभावना करना चाहती है। उसकी इच्छानुसार एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित करने की आयोजन होने को है और वह भर मेरे ऊपर रखा गया है।

      महराज बोले कि हमे अभिनन्दन ग्रन्थ वगैरह कुछ भी नहीं चाहिए। उत्सव भी नहीं चाहिए। अब हमारी जीवन घडी में बारह घंटा पूर्ण होने में थोडा समय शेष है। सूरज डूबने को थोडा समय बाकी है, अब हमे चुपचाप आत्मा का ध्यान करना है। हमें और कोई चीज नहीं चाहिए।

        मैंने कहा- महराज आप अपने समय पूर्ण होने की बात कहते हैं, तो क्या आपको इस विषय में भान सा हो गया है।

         महराज बोले अब हम अस्सी साल के हो गए हैं, अब और कितने दिन जीवित रहेंगे? इसलिए हमें कीर्ति आदि की झंझट नहीं चाहिए। सम्मान नहीं चाहिए। तुम हमारी स्तुती प्रशंसा में ग्रन्थ मत लिखना।

        मै बोला महराज ! यदि ग्रन्थ लिख लिया, तो इस दोष का प्रायश्चित आपके चरणों में आकर ले लूँगा। आपके जीवन का परिचय पाकर, जो जगत को सुख, शांति तथा प्रकाश मिलेगा, वह आपके दृष्टिपथ में नहीं है। आपकी महत्वता दूसरे अनुभव करते हैं।

     महराज बोले कि हम कह चुके, हमें कोई कीर्ति, मान, यश नहीं चाहिए।

     मेरे पास उस महान आत्मा के आगे और प्रार्थना करते को शब्द नहीं थे। मै असमंजस्य में पड़ गया। सुशील कुमार ने भी अनुज्ञा के लिए अभ्यर्थनाएं की, किन्तु इन निष्प्रह वीतराग मूर्ति को यह राग की बात ना जँची।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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