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?बालयोगी का जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - १७१


Abhishek Jain

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?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७१    ?


              "बालयोगी का जीवन"


          पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज को चारित्र का चक्रवर्ती बनना था, इसलिए इनके बाल्य जीवन में विकृतियों पर विजय की तैयारी दिखती थी। वे बालयोगी सरीखे दिखते थे।

       भोज ग्राम में जो शिक्षण उपलब्ध हो सकता था, वह इन्होंने प्राप्त किया था। इनकी मुख्य शिक्षा वीतराग महर्षियों द्वारा रचे गये, रत्नत्रय का वैभव बताने वाले शास्त्रों का स्वाध्याय के रूप में की थी।

      अनुभवजन्य शिक्षा का इनके जीवन में मुख्य स्थान था।


            ?अनुभवजन्य ज्ञान?


             अनुभव के आधार पर प्राप्त ज्ञान बड़ा खरा, सच्चा और मार्मिक होता है। अनेक प्रतापी नरेशों के विषय में कहा जाता है कि उनका ज्ञान और अनुभव सत्संगति के निमित्त से विकसित हुआ था। विश्व के विद्वानों द्वारा अपूर्व उक्ति और सूझ के लिए पूजित कबिरा-कबीरदास ने किसी को अपना गुरु बनाने का कष्ट नहीं दिया था। इस प्रकार प्रायः महापुरुष अनुभव की शाला में शिक्षण लाभ करते हुए देखे जाते हैं।

         आचार्यश्री की धारणा-शक्ति अद्भुत रही है। ऐसे क्षयोपशम के कारण सत्संग और शास्त्र चिंतन से उन्हें अपार लाभ पहुँचा है। 

        आचार्य सोमदेव कहते हैं, "नरेश, अध्ययन के अभाव में भी, विशिष्ट व्यक्तियों के संपर्क द्वारा उत्कृष्ट प्रवीणता को प्राप्त करते हैं"।


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?

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