लोभ व्यक्ति के दुःख का कारण है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि लोभ एक ऐसा भाव है जिसके रहते व्यक्ति कभी भी शाश्वत सुख की प्राप्ति की ओर नहीं बढ़ सकता है। वह सारा समय दुःखी होकर ही व्यतीत करता है। आज के युग में समस्त जगत लोभ में लीन होने के कारण ही दुःखी है। इसीलिए आचार्य योगीन्दु योगीजनों को लोभ के त्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। वे कहते हैं- देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
113. जोइय लोहु परिच्चयहि लोहु ण भल्लउ होइ।
लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।।
अर्थ - हे योगी! (तू) लोभ को पूरी तरह छोड दे, लोभ अच्छा नहीं होता है। लोभ में लीन समस्त जगत (प्राणी) को (तू) दुःख सहता हुआ देख।
शब्दार्थ - जोइय-हे योगी! लोहु-लोभ को, परिच्चयहि -पूरी तरह से छोड़, लोहु-लोभ, ण -नहीं,भल्लउ -अच्छा, होइ-होता है, लोहासत्तउ -लोभ में लीन,सयलु-समस्त, जगु -संसार को, दुक्खु -दुःख, सहंतउ - सहता हुआ, जोइ-देख।
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