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मुनिराज का आहार चर्या के योग्य होना चाहिए


Sneh Jain

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देखा जाय तो हम सभी का भोजन अपनी चर्या के अनुसार ही होना चाहिए। तन के स्वस्थ नहीं होने का मूल कारण यही है कि हम अपनी चर्या के अनुसार भोजन ग्रहण नहीं करते हैं। यहाँ योगीन्दु आचार्य अपने साधर्मी बन्धु मुनिराज को, जो अपनी चर्या के अनुसार आहार ग्रहण नहीं करते उनको लक्ष्य कर कहते हैं कि  तू नग्न वेश धारण करके भी अपने लक्ष्यकी प्राप्ति में साधक आहार क्यों नहीं ग्रहण करता है, क्यो स्वादिष्ट आहार की इच्छा करता है ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -

111.2  काऊण णग्गरूवं बीभस्सं दड्ढ-मडय-सारिच्छं।

       अहिलससि किं लज्जसि भिक्खाए भोयणं मिट्ठं।।111.2।।

अर्थ - जले हुए मुरदे के समान वीभत्स नग्नरूप करके भिक्षा में स्वादिष्ट आहार क्यों चाहता है? (ऐसा करके) (तू) क्यों नहीं शरमाता है ?

शब्दार्थ-  काऊण-करके,  णग्गरूवं-नग्नरूप, बीभस्सं-वीभत्स, दड्ढ-मडय-सारिच्छं-जले हुए मुरदे के समान, अहिलससि-चाहता है, किं-क्यों, -नहीं, लज्जसि-शरमाता है, भिक्खाए-भिक्षा में, भोयणं-आहार, मिट्ठं-स्वादिष्ट।

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