प्रेम दुःख का कारण है
आचार्य योेगिन्दु अपने साधर्मी योगी को प्रेम का त्याग करने के लिए एवं वैराग्य के पथ पर अग्रसर होने के लिए कह रहे हैं। वे समझा रहे हैं कि तू इस जगत को देख कि यह प्रेम की आसक्ति के कारण कितने दुःखों को झेल रहा है। एनके अनुसार प्रेम सुख रूप वैराग्य वृद्धि में बाधक है। बन्धुओं, कबीरदास जी ने ‘ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होइ’ यह दोहा गृहस्थों के लिए कहा है। अतः यह सिद्ध होता है कि गृहस्थ के लिए प्रेम की मुख्यता है तो साधुजन के लिए वैराग्य की प्रमुखता है। देखिये इससे सम्बन्धित दोहा -
115. जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ।
णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ।।
अर्थ - हे योगी! (तू) स्नेह को पूरी तरह छोड दे, स्नेह अच्छा नहीं होता है। स्नेह में लीन समस्त जगत (प्राणी) को (तू) दुःख सहता हुआ देख।
शब्दार्थ - जोइय-हे योगी! णेहु-प्रेम को, परिच्चयहि-पूरी तरह से छोड़, णेहु-प्रेम, ण -नहीं, भल्लउ-अच्छा, होइ-होता है, णेहासत्तउ-प्रेम में लीन, सयलु-समस्त, जगु-संसार को, दुक्खु - दुःख, सहंतउ-सहता हुआ, जोइ-देख।
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