जैसी चाह वैसी राह क्यों नहीं ?
आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी मुनिराज को समझाते हैं कि हे योग का निरोध करनेवाले जीव, जब तूने संसार के भय से घबराकर शान्ति हेतु मोक्ष मार्ग अपनाया है तो फिर तू पुनः संसार भ्रमण के कर्मों को क्यों करता है ? देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
120. जिय अणु-मित्तु वि दुक्खडा सहण ण सक्कहि जोइ।
चउ-गइ-दुक्खहँ कारणइँ कम्मइँ कुणहि किं तोइ।।
अर्थ - 120. हे योग का निरोध करनेवाले जीव! तू अणुमात्र भी दुःख सहन करने के लिए समर्थ नहीं होता है, तो फिर तू चारों गतियों के दुःखों के हेतु कर्मों को क्यों करता है ?
शब्दार्थ - जिय-हे जीव, अणु-मित्तु - अणु मात्र, ,वि-भी, दुक्खडा-दुःख, सहण-सहन करने के लिए, ण-नहीं, सक्कहि-समर्थ होता है, जोइ-हे योग का निरोध करनेवाले, चउ-गइ-दुक्खहँ-चारों गतियों के दुःखों के, कारणइँ-हेतु, कम्मइँ-कर्मों को, कुणहि-करता है, किं -क्यों, तो -फिर, इ-पादपूर्ति हेतु प्रयुक्त अव्यय।
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