मुनि की आहार में आसक्ति स्व और पर दोनों के लिए घातक है
आचार्य योगीन्दु मुनिराजों की आहार के प्रति आसक्ति को एक दम अनुचित मानते हैं। वेे कहते हैं कि जिस परम तत्त्व को स्वयं समझने और श्रावकों को समझाने हेतु उन्होंने मुनि पद धारण किया है वही मुनि पद उनकी आहार में आसक्ति होने के कारण निष्फल हो जाता है। आहार में आसक्ति उन्हें गिद्धपक्षी के समान बना देती है। मन में भोजन के प्रति गिद्धता उत्पन्न होने से परम तत्त्व को समझ पाना बहुत मुश्किल है, और जो उस परम तत्त्व को स्वयं नहीं समझ सकता वह दूसरों को कैसे समझा सकता है। अतः मुनि के लिए आहार में आसक्ति का त्याग अति आवश्यक है, ऐसा मुनिराजों के प्रति करुणा एवं हित की भावना भानेवाले आचार्य योगीन्दु कहते हैं। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
111.4 जे सरसिं संतुट्ठ-मण विरसि कसाउ वहंति।
ते मुणि भोयण-धार गणि णवि परमत्थु मुणंति।।
अर्थ -जो (मुनि) रसीले (आहार) से सन्तुष्ट मन हैं, (तथा) नीरस (आहार) में कषाय धारण करते हैं उन मुनि को भोजन में गिद्ध पक्षी की कोटि में रखो। (वे) परम तत्व को नहीं समझते हैं।
शब्दार्थ - जे - जो, सरसिं-रसीले से, संतुट्ठ-मण-सन्तुष्ट मन, विरसि-नीरस में, कसाउ-कषाय, वहंति-धारण करते हैं, ते -उन, मुणि-मुनि को, भोयण-धार-भोजन में गिद्ध पक्षी की गणि-काटि में रखो। णवि-नहीं, परमत्थु-परम तत्त्व को, मुणंति-समझते हैं।
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