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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. धन धन जैनी साधु अबाधित, तत्त्वज्ञानविलासी हो ।।टेक ।। दर्शन-बोधमयी निजमूरति, जिनकों अपनी भासी हो । त्यागी अन्य समस्त वस्तुमें, अहंबुद्धि दुखदा-सी हो ।१। जिन अशुभोपयोग की परनति, सत्तासहित विनाशी हो । होय कदाच शुभोपयोग तो, तहँ भी रहत उदासी हो ।२। छेदत जे अनादि दुखदायक, दुविधि बंधकी फाँसी हो । मोह क्षोभ रहित जिन परनति, विमल मयंककला-सी हो ।३। विषय-चाह-दव-दाह खुजावन, साम्य सुधारस-रासी हो । भागचन्द ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ।४।
  2. आजा अपने धर्म की तू राह में, वो ही करे भव पार रे... ढेरों जनम तूने भोगों में खोये..तूने भोगों में खोये फ़िर भी हवस तेरी पूरी न होये..तेरी पूरी न होये तज दे तू इनकी याद हो sss आजा अपने धरम... तेरा जग में साथी यही ये एक धरम है आशा जिसकी तू करता वो एक भरम है झूठा है जग संसार हो sss आजा अपने धरम... सुख होता जग में ना तजते फ़िर तीर्थंकर तज धन मालिक ना रचते भेष दिगम्बर जग में नहीं कुछ सार हो sss आजा अपने धरम...
  3. ऐसे मुनिवर देखें वन में, जाके राग दोष नहिं मन में ॥टेक॥ ग्रीष्म ऋतुशिखर के ऊपर, [वो तो] मगन रहे ध्यानन में ।१। चातुर्मास तरू तल ठाड़े, [वो तो] बून्द सहे छिन-२ में ।२। शीत मास दरिया के किनारे, [वो तो] धीरज धारे तन में ।३। ऐसे गुरू को नितप्रति सेऊं, [हम तो] देत ढोक चरणन में ।४।
  4. जैन धर्म के हीरे मोती, मैं बिखराऊं गली गली ले लो रे कोइ प्रभु का प्यारा, शोर मचाऊं गली गली दौलत की दीवानों सुन लो, एक दिन ऐसा आयेगा, धन दौलत और माल खजाना, पडा यहीं रह जायेगा, सुन्दर काया मिट्टी होगी, चर्चा होगी गली गली ॥ ले लो रे... क्यों करता तू तेरी मेरी, तज दे उस अभिमान को। झूंठे झगडे छोड के प्राणी, भज ले तू भगवान को। जग का मेला दो दिन का, अंत में होगी चला चली॥ ले लो रे. जिन जिन ने ये मोती लूटे, वे ही माला माल हुए। दौलत के जो बने पुजारी, आखिर में कंगाल हुए । सोने चांदी वालों सुन लो, बात कहूं मैं भली भली ॥ ले लो रे. जीवन में दुख है तब तक ही, जब तक सम्यकज्ञान नहीं। ईश्वर को जो भूल गया, वह सच्चा इंसान नहीं। दो दिन को ये चमन खिला है, फ़िर मुर्झाये कली कली ॥ले...
  5. हे शारदे माँ, हे शारदे माँ, अज्ञानता से हमें तार दे माँ ॥ मुनियों ने समझी, गुणियों ने जानी, शास्त्रों की भाषा, आगम की वाणी, हम भी तो जानें, हम भी तो समझें, विद्या का फ़ल तो हमें माँ तू देना ॥ तू ज्ञानदायी हमें ज्ञान दे दे, रत्नत्रयों का हमें दान दे दे, मन से हमारे मिटा दे अंधेरा, हमको उजालों का शिवद्वार दे माँ ॥ तू मोक्ष दायी ये संगीत तुझपे, हर शब्द तेरा है हर भाव तुझमें, हम हैं अकेले हम हैं अधूरे, तेरी शरण माँ हमें तार देना ॥
  6. करता हूं मैं अभिनन्दन, स्वीकार करो माँ, शरणागत अपने बालक का, उद्धार करो माँ । हे माँ जिनवाणी, हे माँ जिनवाणी॥ मिथ्यात्व वश रुल रहा हूं माँ, अशरण संसार में, पुण्योदय से आ गया हूं माँ, तेरे दरबार में । सम्यक हो मेरी बुद्धि, उपकार करो माँ ॥ शरणागत...॥ इस पंचम काल में तीर्थंकर, दर्शन हैं नहीं, सच्चे ज्ञानी गुरु दुर्लभ, मिलते कभी नहीं । अतएव मुझ निराधार की, आधार तुम्हीं माँ ॥ शरणागत...॥ जीवादि सात तत्वों का माँ, मर्म बताया, स्याद्वाद अनेकांत ले, निजरूप जताया । निजरूप को लखकर माँ निज में लीन रहूं माँ ॥ शरणागत..॥ भोगों से उदासीन निज पर की धारूं करुणा, सम्यक श्रद्धा पूर्वक कषाय परिहरना । रत्नत्रय पथ पर चलकर शिवनारी वरूं माँ ॥ शरणागत...॥
  7. जहाँ रागद्वेष से रहित निराकुल, आतम सुख का डेरा वो विश्व धर्म है मेरा, वो जैन धर्म है मेरा जहाँ पद-पद पर है परम अहिंसा करती क्षमा बसेरा वो विश्व धर्म है मेरा, वो जैनधर्म है मेरा ॥टेर॥ जहाँ गूंजा करते, सत संयम के गीत सुहाने पावन जहाँ ज्ञान सुधा की बहती निशिदिन धारा पाप नशावन जहाँ काम क्रोध, ममता, माया का कहीं नहीं है घेरा ॥१॥ जहाँ समता समदृष्टि प्यारी, सद्भाव शांति के भारी जहाँ सकल परिग्रह भार शून्य है, मन अदोष अविकारी जहाँ ज्ञानानंत दरश सुख बल का, रहता सदा सवेरा ॥२॥ जहाँ वीतराग विज्ञान कला, निज पर का बोध कराये जो जन्म मरण से रहित, निरापद मोक्ष महल पधराये वह जगतपूज्य “सौभाग्य'' परमपद, हो आलोकित मेरा ॥३॥
  8. भावों में सरलता रहती है, जहाँ प्रेम की सरिता बहती है हम उस धर्म के पालक हैं, जहाँ सत्य अहिंसा रहती है ॥ जो राग में मूँछे तनते हैं, जड़ भोगों में रीझ मचलते हैं वे भूलते हैं निज को भाई, जो पाप के सांचे ढलते हैं पुचकार उन्हें माँ जिनवाणी, जहाँ ज्ञान कथायें कहती हैं ॥ हम उस. ॥१॥ जो पर के प्राण दुखाते हैं, वह आप सताये जाते हैं । अधिकारी वे हैं शिव सुख के,जो आतम ध्यान लगाते हैं।। `सौभाग्य' सफल कर नर जीवन, यह आयु ढलती रहती है ।। हम उस. ॥१॥
  9. श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त ...... तीन लोक तिहुँ कालनिमाहीं,जाको नाहीं आदि न अन्त ॥श्री.॥ सुगुन छियालिस दोष निवारैं, तारन तरन देव अरहंत, गुरु निरग्रंथ धरम करुनामय,उपजैं त्रेसठ पुरुष महंत ।श्री.। रतनत्रय दशलच्छन सोलह-कारन साध श्रावक सन्त, छहौं दरब नव तत्त्व सरधकै, सुरग मुकति के सुख विलसन्त नरक निगोद भ्रम्यो बहु प्रानी, जान्यो नाहिं धरम-विरतंत, ’द्यानत’ भेदज्ञान सरधातैं, पायो दरव अनादि अनन्त ।श्री.।
  10. माता तू दया करके, कर्मों से छुडा देना, इतनी सी विनय तुमसे, चरणों में जगह देना ॥ माता मैं भटका हूं, माया के अंधेरे में कोई नहीं मेरा है, इस कर्मों के रेले में कोई नहीं मेरा है तुम धीर बंधा देना ॥ माता...॥ जीवन के चौराहे पर मैं सोच रहा कब से जाऊं तो किधर जाऊं, यह पूछ रहा मन से पथ भूल गया हूं मैं, तुम राह दिखा देना ॥ माता...॥ लाखों को उबारा है, मुझको भी उबारो तुम मंझधार में नैया है, उसको भी तिरा दो तुम मंझधार में अटका हूं, उस पार लगा देना ॥ माता...॥
  11. लहर लहर लहराये, केसरिया झंडा जिनमत का...हो जी सबका मन हरषाये, केसरिया झंडा जिनमत का...हो जी फ़र फ़र फ़र फ़र करता झंडा, गगन शिखा पे डोले, स्वास्तिक का यह चिन्ह अनूठा, भेद हृदय के खोले, यह ज्ञान की ज्योति जगाये, केसरिया झंडा जिनमत का… हो जी ॥ इसकी शीतल छाया में सब, पढे रतन जिनवाणी, सत्य अहिंसा प्रेम युक्त सब, बने तत्व श्रद्धानी, यह सत पथ पर पहुंचाये, केसरिया झंडा जिनमत का...हो जी ॥
  12. म्हारी माँ जिनवाणी थारी हो जयजयकार ॥ चरणां में राखी लीजो, भव से अब तारी लीजो कर दीज्यो इतनो उपकार ॥ म्हारी माँ॥ कुंदकुंद सा थारा बेटा, दुखडा सब जग का मेटा कर दीज्यो इतनो उपकार ॥ म्हारी माँ॥ जिनवाणी सुन हरषाये, निश्‍चित ही भव्य कहावे हो जावे भव से पार ॥ म्हारी माँ॥ तत्त्वों का सार बतावे, ज्ञायक से भेंट करावे कियो अनंत उपकार ॥ म्हारी माँ॥
  13. जय बावन जिन देवा, जय बावन जिन देवा | आरती करूँ तुम चरणे-२ भवजल नदि न्हावा || जयदेव-२ प्रथमो जंबु द्वीप, घातकी वर बीजो-२ | पुष्कर पूरव शोभित, पुष्कर वर त्रीजो || जयदेव-२ || चोथो वारूण द्वीप, पंचम क्षीरवर-२ | छठ्ठो घृतवर शोभित, सप्तम इक्षुवर || जयदेव-२ || अष्टम शोभे द्वीप नन्दीश्वर नामा-२ | प्रति दश तेरह अकृतिम जिन धामा || जयदेव-२ || अन्जम भूधर एक, दधिमुख नग्र चार-२ | गज मति रविकर पर्वत, तेरह गिरि सार || जयदेव-२ || एवं चौदिशी बावन, पृथ्वी धर लम्बा-२ | गिरिपति ज्येष्ठ जिनालय, मणिमय जिनबिम्बा || जयदेव-२ || शुभ अषाढे कारतक, फाल्गुन, सुदी पक्षा-२ | इन्द्रादिक करे पूजा, अष्टानिक दक्षा || जयदेव-२ || अष्टम दिन थी मंडित, पूनम परियंता-२ | जिनगुणसागर गावे, पावे सुव कांता || जयदेव-२ ||
  14. लहरायेगा-लहरायेगा झंडा श्री महावीर का फहरायेगा-फहरायेगा झंडा श्री महावीर का ॥ अखिल विश्व का जो है प्यारा, जैन जाति का चमकित तारा, हम युवकों का पूर्ण सहारा, झंडा श्री महावीर का ॥ सत्य अहिंसा का है नायक, शांति सुधारस का है दायक, दीनजनों का सदा सहायक, झंडा श्री महावीर का ॥ साम्यभाव दर्शाने वाला, प्रेमक्षीर बरसाने वाला, जीवमात्र हर्षाने वाला, झंडा श्री महावीर का ॥ भारत का ’सौभाग्य’ बढ़ाता, स्वावलंब का पाठ पढ़ाता, वन्दे वीरम् नाद गुंजाता, झंडा श्री महावीर का ॥
  15. सीमंधर मुख से फ़ुलवा खिरे, जाकी कुन्दकुन्द गूंथें माल रे, जिनजी की वाणी भली रे ॥ वाणी प्रभू मन लागे भली, जिसमें सार समय शिरताज रे, जिनजी की वाणी भली रे ।१। गूंथा पाहुड अरु गूंथा पंचास्ति, गूंथा जो प्रवचनसार रे, जिनजी की वाणी भली रे ।२। गूंथा नियमसार, गूंथा रयणसार, गूंथा समय का सार रे, जिनजी की वाणी भली रे ।३। स्याद्वादरूपी सुगन्धी भरा जो, जिनजी का ओंकारनाद रे, जिनजी की वाणी भली रे ।४। वन्दू जिनेश्‍वर, वन्दू मैं कुन्दकुन्द, वन्दू यह ओंकार नाद रे, जिनजी की वाणी भली रे ।५। हृदय रहो, मेरे भावे रहो, मेरे ध्यान रहो जिनबैन रे, जिनजी की वाणी भली रे ।६। जिनेश्‍वर देव की वाणी की गूंज, मेरे गूंजती रहो दिन रात रे, जिनजी की वाणी भली रे ।७।
  16. मुझे है काम भगवन से, जगत रूठे तो रुठन दे ॥ बैठ संगत में संतन की, करू कल्याण मैं आपना लोग दुनिया के भोगों में, मौज माने तो लूटन दे ।मुझे..। कुटुंब परिवार सुत दारा, लाज लोकन की छूटन दे प्रभु का भजन करने में, अगर छूटे तो छूटन दे ।मुझे..। धरी सिर पाप की मटकी, मेरे गुरुदेव ने झटकी वो श्री विद्यासागर ने पटकी, अगर फूटे तो फूटन दे ।मुझे..। स्वयं का ध्यान करने की, लगी दिल में लगन मेरे प्रीत संसार विषयों से, अगर छूटे तो छूटन दे ।मुझे..।
  17. शांतिनाथ भगवान की हम आरती उतारेंगे। आरती उतारेंगे हम आरती उतारेंगे आरती उतारेंगे हम आरती उतारेंगे शांतिनाथ भगवान हस्तिनापुर में जनम लिये हे प्रभु देव करे जयकारा हो । जन्म महोत्सव करें कल्याणक, नाचे झूमे गाये हो ॥ ऐसे अवतारी की अब हम आरती उतारेंगे । शांतिनाथ भगवान धन्य है माता ऐरा देवी तुम्हें जो गोद उठाईं है । विश्वसेन के कुलदीपक ने ज्ञान की ज्योति जगाई है । ऐसे अवतारी की अब हम आरती उतारेंगे । शांतिनाथ भगवान पंचम चक्रवर्ती पद पाये, जग सुख बढा अपार था । द्वादस कामदेव अति सुन्दर जग में बढा ही नाम था । ऐसे अवतारी की अब हम आरती उतारेंगे । शांतिनाथ भगवान शांति नाथ प्रभु शांति प्रदाता शुचिता सुख अपार दो । जनम मरण दुःख मेटो प्रभुजी लेना शरण में आप हो । ऐसे अवतारी की अब हम आरती उतारेंगे । शांतिनाथ भगवान की हम आरती उतारेंगे।
  18. जिनवाणी के सुनै सो मिथ्यात मिटै मिथ्यात मिटै, समकित प्रगटै जैसे प्रात होत रवि ऊगत, रैन तिमिर सब तुरत फ़टै॥ अनादिकाल की भूल मिटावै, अपनी निधि घट घट मैं उघटै त्याग विभाव सुभाव सुधारै, अनुभव करतां करम कटै॥ और काम तजि सेवो वाकौं, या बिन नाहिं अज्ञान घटै बुधजन या भव परभव मांहि, बाकी हुंडी तुरत पटैं॥
  19. पारसनाथ प्रभु, पारसनाथ प्रभु हम सब उतारें थारी आरती पारसनाथ पारसनाथ हम सब उतारे थारी आरती हो धन्य धन्य माता वामा देवी हो देख देख लाल को हरषायें खेले जब गोद में, खुशी तीनो लोक में खुशियों से भरी ये है आरती पारसनाथ हम सब उतारे थारी आरती अश्वसेन के लाल भले हो दर्शन से पाप नशते हो अनुपम छवि सोहे, आनन्द अति देवे श्रद्धा से आरती के बोल बोल बोल बोल पारसनाथ प्रभु, पारसनाथ प्रभु आज उतारे हम। तुम पारस हो प्रभु जी मैं हूँ लोहा छू लो मुझे बन जाऊँ सोना भक्ति से भरी मेरी आरती पारसनाथ प्रभु, पारसनाथ प्रभु आज उतारे हम।
  20. ओं जय पारस देवा, स्वामी जय पारस देवा | आरति हम सब करते, मिले मुक्ति मेवा || टेक || बड़ागांव टीले से, स्वप्न दिया तुमने | चमत्कार कर प्रगटे, शरण लही हमने || ओं .. लक्ष्मण बचे तोप से, महिमा जग छायी | तन निरोग कितनों ने, नेत्र ज्योति पायी || ओं .. स्याद्वाद गुरुकुल में, इन्द्र शीश राजे | शतक आठ फण छाया, सौम्य मूर्ति साजे || ओं .. जो भी शरण में आते, वांछित फल पाते | भूत-प्रेत, करमों-कृत, संकट कट जाते || ओं .. स्याद्वाद ध्वज धरती पर, आपहि फहराया | किया समर्पण सन्मति, अनुभव लहराया || ओं ..
  21. जिनवाणी जग मैया, जनम दुख मेट दो। जनम दुख मेट दो, मरण दुख मेट दो॥ बहुत दिनों से भटक रहा हूं, ज्ञान बिना हे मैया । निर्मल ज्ञान प्रदान सु कर दो, तू ही सच्ची मैया ॥ गुणस्थानों का अनुभव हमको, हो जावे जगमैय्या । चढैं उन्हीं पर क्रम से फ़िर, हम होवें कर्म खिपैया ॥ मेट हमारा जन्म मरण दुख, इतनी विनती मैया । तुमको शीश त्रिलोकी नमावे, तू ही सच्ची मैया ॥ वस्तु एक अनेक रूप है, अनुभव सबका न्यारा । हर विवाद का हल हो सकता, स्यादवाद के द्वारा ॥
  22. जो अपना नहीं उसके अपनेपन में जीवन चला गया। पर में अपनापन करके हा मैं अपने से छला गया॥ जग में ऐसा हुआ कौन जो अपने से ही हारा, जिसकी परिणति को अनादि से मोह शत्रु ने मारा, जिसने जिसको अपना माना, उसे छोड वह चला गया, पर में अपनापन करके हा मैं अपने से छला गया ॥ अपने को विस्मृत करके हाँ जिसको अपना माना, क्या वह अपना हुआ कभी, यह सत्य अरे ना जाना, जो अनादि से अपना है वह विस्मृति में क्यों चला गया, पर में अपनापन करके हा मैं अपने से छला गया ॥ अपने में पर के शासन का अंत कहो कब होगा, निज में पर के अवभासन का अंत कहो कब होगा, प्रगट ज्ञान का अंश अरे पर परिणति में क्यों चला गया, पर में अपनापन करके हा मैं अपने से छला गया ॥ जिसने वीतराग मुद्रा लख निज स्वरूप को जाना, रंग राग से भिन्न अरे निज आत्म तत्व पहिचाना, प्रगट ज्ञान का पुंज तभी निज ज्ञान पुंज में चला गया, अपने में अपनापन करके मैं अपने में चला गया ॥
  23. ऊँ जय पारस देवा स्वामी जय पारस देवा । सुर नर मुनिजन तुम चरणन की करते नित सेवा । ऊँ जय० पौष वदी ग्यारस काशी में आनन्द अति भारी, स्वामी आनन्द० अश्वसेन पिता वामा माता उर लीनों अवतारी ।। ऊँ जय० श्याम वरण नवहस्त काय पग उरग लखन सोहैं, स्वामी उरग० सुरकृत अति अनुपम पा भूषण सबका मन मोहैं ।। ऊँ जय० जलते देख नाग नागिन को मंत्र नवकार दिया, स्वामी मंत्र० हरा कमठ का मान ज्ञान का भानु प्रकाश किया । ऊँ जय० मात पिता तुम स्वामी मेरे, आस करुं किसकी, स्वामी आस० तुम बिन दाता और न कोई शरण गहूं जिसकी ।। ऊँ जय० तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अन्तर्यामी, स्वामी तुम० स्वर्ग मोक्ष के दाता तुम हो त्रिभुवन के स्वामी ।। ऊँ जय० दीनबन्धु दुःख हरण जिनेश्वर, तुमही हो मेरे, स्वामी तुम० दो शिवधाम को वास दास, हम द्वार खड़े तेरे ।। ऊँ जय० विपद विकार मिटाओ मन का, अर्ज सुनो दाता, स्वामी अर्ज सुनो दाता । सेवक द्वै कर जोड प्रभु के चरणो चित लाता ।। ऊँ जय०
  24. भूल के अपना घर, जाने कितनों के घर, तुझको जाना पडा॥ इस जहां में कई घर बनाये तूने, रिश्‍तेदारी सभी से निभाई तूने, जिनके थे तुम पिता, फ़िर उन्हीं को पिता, तुझे बनाना पडा ॥ जो थी माता तेरी वो ही पत्नी बनी, पत्नी से फ़िर तेरी भगिनी बनी, रिश्‍ते करते रहे, हम बिछुडते रहे, ना ठिकाना मिला ॥ बनके थलचर तू सबलों से खाया गया, बन के नभचर तू जालों फ़ंसाया गया। नर्क पशुओं के गम, देख कर ये सितम तुझको रोना पडा॥ इस जहां की तो वधुऐं अनेकों वरीं, मुक्ता रानी न अब तक तेरे मन बसी। जिसने उसको वरा, इस जहां की धरा, पर ना आना पडा॥
  25. जिनवाणी माँ जिनवाणी माँ, जयवन्तो मेरी जिनवाणी माँ ॥ शुद्धातम का ज्ञान कराती, चिदानन्द रस पान कराती, कुन्दकुन्द से भेंट कराती, आत्मख्याति का बोध कराती ॥ नित्यबोधनी माँ जिनवाणी, स्व पर विवेक जगाती वाणी, मिथ्याभ्रान्ति नशाती वाणी, ज्ञायक प्रभु दरशाती वाणी ॥ असताचरण नसाती वाणी, सत्य धर्म प्रगटाती वाणी, भव दुख हरण पियूष समानी,भव दधि तारक नौका जानी ॥ जो हित चाहो भविजन प्राणी, पढो सुनो ध्याओ जिनवाणी, स्वानुभूति से करो प्रमानी, शिवपथ को है यही निशानी ॥
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