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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. कविश्री जिनेश्वरदास (कुसुमलता छंद) नाभिराय-मरुदेवि के नंदन, आदिनाथ स्वामी महाराज | सर्वार्थसिद्धि तें आय पधारे, मध्य-लोक माँहिं जिनराज || इन्द्रदेव सब मिलकर आये, जन्म-महोत्सव करने काज | आह्वानन सब विधि मिलकर के, अपने कर पूजें प्रभु आज || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्) ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्) क्षीरोदधि को उज्ज्वल-जल ले, श्री जिनवर-पद पूजन जाय | जन्म-जरा-दु:ख मेटन कारन, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभुजी के पाँय || श्रीआदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१। मलयागिरि-चंदन दाह-निकंदन, कंचन-झारी में भर ल्याय | श्रीजी के चरण चढ़ावो भविजन, भव-आताप तुरत मिट जाय || श्रीआदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२। शुभशालि अखंडित सौरभमंडित, प्रासुक जल सों धोकर ल्याय | श्रीजी के चरण-चढ़ावो भविजन, अक्षय पद को तुरत उपाय || श्रीआदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३। कमल केतकी बेल चमेली, श्रीगुलाब के पुष्प मँगाय | श्रीजी के चरण-चढ़ावो भविजन, कामबाण तुरत नसि जाय || श्रीआदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४। नेवज लीना षट्-रस भीना, श्री जिनवर आगे धरवाय | थाल भराऊँ क्षुधा नसाऊँ, जिन गुण गावत मन हरषाय || श्री आदिनाथजी के चरणकमल पर, बलि बलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। जगमग जगमग होत दसौं दिश, ज्योति रही मंदिर में छाय | श्रीजी के सन्मुख करत आरती मोह-तिमिर नासें दु:खदाय || श्री आदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६। अगर कपूर सुगंध मनोहर चंदन कूट सुगंध मिलाय | श्रीजी के सन्मुख खेयं धुपायन, कर्म जरें चहुँगति मिटि जाय || श्री आदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७। श्रीफल और बादाम सुपारी, केला आदि छुहारा ल्याय | मोक्ष महा-फल पावन कारन, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभु जी के पाँय || श्री आदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये-फलं निर्वपामीति स्वाहा।८। शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हरषाय | दीप धूप फल अर्घ सु लेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय || श्री आदिनाथजी के चरणकमल पर, बलिबलि जाऊँ मन-वच-काय | हो करुणानिधि भव-दु:ख मेटो, या तें मैं पूजूं प्रभु-पाँय || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९। पंचकल्याणक-अर्घ्यावली (दोहा) सर्वारथ-सिद्धि तें चये, मरुदेवी उर आय | दोज असित आषाढ़ की, जजूँ तिहारे पाँय || ओं ह्रीं श्री आषाढ़-कृष्ण-द्वितीयायां गर्भ-कल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथ- जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।१। चैत वदी नौमी दिना, जन्म्या श्री भगवान | सुरपति उत्सव अति कर्यो, मैं पूजूं धरि ध्यान || ओं ह्रीं श्री चैत्र-कृष्ण-नवम्यां जन्म-कल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२। तृणवत् ऋद्धि सब छांड़ि के तप धार्यो वन जाय | नौमी-चैत्र-असेत की जजूँ तिंहारे पाँय || ओं ह्रीं श्री चैत्र-कृष्ण-नवम्यां तप-कल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।3। फाल्गुन-वदि-एकादशी, उपज्यो केवलज्ञान | इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजूं यह थान || ओं ह्रीं श्री फाल्गुन-कृष्ण-एकादश्यां ज्ञान-कल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४। माघ-चतुर्दशि-कृष्ण की, मोक्ष गये भगवान | भवि जीवों को बोध के, पहुँचे शिवपुर थान || ओं ह्रीं श्री माघ-कृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्ष-कल्याणक-प्राप्ताय श्रीआदिनाथ- जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। जयमाला (सोंरठा छन्द) आदीश्वर महाराज, मैं विनती तुम से करूँ | चारों गति के माहिं, मैं दु:ख पायो सो सुनो || (लावनी छन्द) ये अष्ट-कर्म मैं हूँ एकलो ये दुष्ट महादु:ख देत हो | कबहूँ इतर-निगोद में मोकूँ पटकत करत अचेत हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१|| प्रभु! कबहुँक पटक्यो नरक में, जठे जीव महादु:ख पाय हो | निष्ठुर निरदर्इ नारकी, जठै करत परस्पर घात हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||२|| कोइयक बांधे खंभ सों पापी दे मुग्दर की मार हो | कोइयक काटे करौत सों पापी अंगतणी देय फाड़ हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||३|| प्रभु! इहविधि दु:ख भुगत्या घणां, फिर गति पार्इ तिरियंच हो | हिरणा बकरा बाछला पशु दीन गरीब अनाथ हो | पकड़ कसार्इ जाल में पापी काट-काट तन खांय हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||४|| प्रभु! मैं ऊँट बलद भैंसा भयो, जा पे लाद्यो भार अपार हो | नहीं चाल्यो जब गिर पड़्यो, पापी दें सोंटन की मार हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||५|| प्रभु! कोइयक पुण्य-संयोग सूं, मैं तो पायो स्वर्ग-निवास हो | देवांगना संग रमि रह्यो, जठै भोगनि को परिवास हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||६|| प्रभु! संग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर अति-अनुराग हो | कबहुँक नंदन-वन विषै, प्रभु कबहुँक वनगृह-माँहिं हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||७|| प्रभु! यहि विधिकाल गमायके, फिर माला गर्इ मुरझाय हो | देव-थिति सब घट गर्इ, फिर उपज्यो सोच अपार हो | सोच करत तन खिर पड्यो,फिर उपज्यो गरभ में जाय हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||८|| प्रभु! गर्भतणा दु:ख अब कहूँ, जठै सकुड़ार्इ की ठौर हो | हलन चलन नहिं कर सक्यो, जठै सघन-कीच घनघोर हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||९|| प्रभु! माता खावे चरपरो, फिर लागे तन संताप हो | प्रभु! जो जननी तातो भखे, फिर उपजे तन संताप हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१०|| प्रभु! औंधे-मुख झूल्यो रह्यो, फेर निकसन कौन उपाय हो | कठिन कठिन कर नीसर्यो, जैसे निसरे जंत्री में तार हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||११|| प्रभु! निकसत ही धरत्यां पड्यो, फिर लागी भूख अपार हो | रोय-रोय बिलख्यो घनो, दु:ख-वेदन को नहिं पार हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१२|| प्रभु! दु:ख-मेटन समरथ धनी, या तें लागूँ तिहारे पांय हो | सेवक अर्ज करे प्रभु मोकूँ, भवदधि-पार उतार हो || म्हारी दीनतणी सुन वीनती ||१३|| (दोहा) श्री जी की महिमा अगम है, कोर्इ न पावे पार | मैं मति-अल्प अज्ञान हूँ, कौन करे विस्तार || ओं ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। विनती ऋषभ जिनेश की, जो पढ़सी मन ल्याय | सुरगों में संशय नहीं, निश्चय शिवपुर जाय || ।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
  2. (1) श्री अष्टापद (कैलाश) सिद्ध क्षेत्र (हिमालय पर्वत) जल आदिक आठों द्रव्य लेय, भरि स्वर्णथार अर्घहि करेय | जिन आदि मोक्ष कैलाश थान, मुन्यादि पाद जजूँ जोरि पान || ऊँ ह्रीं श्रीकैलाश पर्वत सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (2) सम्मेद शिखर सिद्ध क्षेत्र (झारखण्ड) जल गंधाक्षत पुष्प सु नेवज लीजिये | दीप धूप फल लेकर अर्घ सु दीजिये || पूजौं शिखर सम्मेद सु-मन-वच-काय जी | नरकादिक दुख टरें अचल पद पायजी || ऊँ ह्रीं श्रीसम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (3) गिरनार सिद्ध क्षेत्र (गुजरात) अष्ट द्रव्य को अर्घ्य संजोयो, घण्टा नाद बजाई | गीत नृत्य कर जजौं 'जवाहर' आनन्द हर्ष बधाई || जम्बु द्वीप भरत आरज में, सोरठ देश सुहाई | शेषावन के निकट अचल तहं, नेमिनाथ शिव पाई || ऊँ ह्रीं श्रीगिरनार सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (4) श्री चम्पापुर सिद्ध क्षेत्र (बिहार) जल फल वसु द्रव्य मिलाय, लै भर हिम थारी | वसु अंग धरा पर ल्याय, प्रमुदित चित्तधारी || श्री वासु पूज्य जिनराय, निर्वृतिथान प्रिया | चंपापुर थल सुख दाय, पूजौं हर्ष हिया || ऊँ ह्रीं श्रीचम्पापुर सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (5) श्री पावापुरी सिद्ध क्षेत्र (बिहार) जल गंध आदि मिलाय वसुविध थार स्वर्ण भरायके | मन प्रमुद भाव उपाय करले आय अर्घ्य बनायके || वर पद्मवन भर पद्मसरवर बहिर पावा ग्राम ही | शिव धाम सन्मति स्वामी पायो, जजौं सो सुखदा मही || ऊँ ह्रीं श्रीपावापुरी सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (6) श्री सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र (मध्यप्रदेश) वसु द्रव्य ले भर थाल कंचन अर्घ दे सब अरि हनूं | 'छोटे' चरण जिन राज लय हो शुद्ध निज आत्म बनूं | नंगाऽनंगादि मुनीन्द्र जहं ते मुक्ति लक्ष्मी पति भये | सो परम गिरवर जजूं बस विधि होत मंगल नित नये || ऊँ ह्रीं श्रीसोनागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (7) श्री नयनागिरि (रेशन्दीगिरि) सिद्ध क्षेत्र (मध्यप्रदेश) शुचि अमृत आदि समग्र, सजि वसु द्रव्य प्रिया | धारौं त्रिजगत पति अग्र, धर वर भक्त हिया || ऊँ ह्रीं श्रीनयनागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (8) श्री द्रोणगिरि सिद्ध क्षेत्र (मध्यप्रदेश) जल सु चन्दन अक्षत लीजिये, पुष्प धर नैवेद्य गनीजिये | दीप धूप सुफल बहु साजहीं, जिन चढा़य सुपातक भाजहीं || ऊँ ह्रीं श्रीद्रोणगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (9) सिद्धवर कूट सिद्ध क्षेत्र (मध्यप्रदेश) जल चन्दन अक्षत लेय, सुमन महा प्यारी | चरु दीप धूप फल सोय, अरघ करौं भारी || द्वय चक्री दस काम कुमार, भवतर मोक्ष गये | तातें पूजौं पद सार, मन में हरष ठये || ऊँ ह्रीं श्रीसिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (10) श्री शत्रुञ्जय सिद्ध क्षेत्र (गुजरात) वसु द्रव्य मिलाई, थार भराई, सन्मुख आई नजर करो | तुम शिव सुखदाई धर्म बढ़ाई, हर दुखदाई, अर्घ करो || पांडव शुभ तीनं सिद्ध लहीनं, आठ कोड़ि मुनि मुक्ति गये | श्री शत्रुञ्जय पूजौं सन्मुख हूजो, शान्तिनाथ शुभ मूल नये || ऊँ ह्रीं श्रीशत्रुंजय सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (11) श्री तुंगीगिरि सिद्ध क्षेत्र (महाराष्ट्र) जल फलादि वसु दरव सजाके, हेम पात्र भर लाऊँ | मन वच काय नमूं तुम चरना, बार बार शिर नाऊँ || राम हनू सुग्रीव आदि जे, तुंगीगिर थिरथाई | कोड़ी निन्यानवे मुक्ति गये मुनि, पूजूं मन वच काई || ऊँ ह्रीं श्रीतुंगीगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (12) श्रीकुन्थलगिरि सिद्ध क्षेत्र (महाराष्ट्र) जल फलादि वसु दरव लेय थुति ठान के | अर्घ जजौं तुम पाप हरो हिय आनके || पूजौं सिद्ध सु क्षेत्र हिये हरषाय के | कर मन वच तन शुद्ध, करमवश टारके || ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (13) चूलगिरि (बावन गजा) सिद्ध क्षेत्र (मध्यप्रदेश) सजि सौंज आठों होय ठाड़ा, हरष बाढ़ा कथन विन | हे नाथ भक्तिवश मिले जो, पुर न छुटे एक दिन || दशग्रीव अंगज अनुज आदि, ऋषीश जहंते शिव लहो | सो शैल बड़वानी निकट गिरिचूल की पूजा ठहो || ऊँ ह्रीं श्रीचूलगिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (14) श्रीगजपंथ सिद्ध क्षेत्र (महाराष्ट्र) जल फल आदि वसु दरव अति अत्तम, मणिमय थाल भराई | नाच नाच गुण गाय गायके, श्री जिन चरण चढ़ाई || बलभद्र सात वसु कोड़ि मुनीश्वर, यहां पर करम खपाई | केवल लहि शिव धाम पधारे, जजूँ तन्हें शिर नाई || ऊँ ह्रीं श्रीगजपंथ सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (15) श्रीमुक्तागिरि सिद्ध क्षेत्र (मध्यप्रदेश) जल गंध आदिक द्रव्य लेके, अर्घ कर ले आवने | लाय चरन चढ़ाय भविजन, मोक्षफल को पावने || तीर्थ मुक्तागिरि मनोहर, परम पावन शुभ कहो | कोटि साढ़े तीन मुनिवर, जहाँ ते शिवपुर लहो || ऊँ ह्रीं श्रीमुक्तागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (16) पावागढ़ सिद्ध क्षेत्र (गुजरात) वसु द्रव्य मिलाई भविजन भाई, धर्म सुहाई अर्घ करुँ | पूजा को गाऊँ हर्ष बढ़ाऊं, खूब नचाऊँ प्रेम भरुं || पावा गिरि वन्दौं मन आनन्दौं, भव दुख खंदौं चितधारी | मुनि पाँच जुकोड़ं भवदुख छोड़ं, शिवमुख जोड़ं सुखभारी || ऊँ ह्रीं श्रीपावागढ़ सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (17) रेवातट (नेमावर, म.प्र.) स्थित सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र रेवानदी के तीर पर सिद्धोदय है क्षेत्र, इसके दर्शन मात्र से खुलता सम्यक् नेत्र | रावण-सुत अरु सिद्ध मुनि साढ़े पांच करोड़, ऐसे अनुपम क्षेत्र को पूजूं सदा कर जोड़ || ऊँ ह्रीं श्रीरेवातट स्थित सिद्धोदय सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य- नि0 स्वाहा | (18) ऊन (पावागिरि, म.प्र.) सिद्ध क्षेत्र जल फल वसु द्रव्य पुनित, लेकर अर्घ करुं | नाचूं गाऊं इह भांति, भवतर मोक्ष वरुं || श्री पावा गिरि से मुक्ति, मुनिवर चारि लही | तिन इक क्रम से गिन, चैत्य पूजत सौख्य लही || ऊँ ह्रीं श्रीपावागिरि(ऊन) सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (19) कोटिशिला सिद्ध क्षेत्र (उड़ीसा) जल फल वसु दरव पुनीत, लेकर अर्घ करुं | नाचूं गाऊं इह भांति, भवतर मोक्ष वरुं || श्री कोटिशिला के मांहि, जशरथ तनय कहै | मुनि पंच शतक शिवलीन, देश कलिंग दहै || ऊँ ह्रीं श्रीकोटिशिला सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (20) तारंगागिरि सिद्ध क्षेत्र (गुजरात) शुचि आठों द्रव्य मिलाय तिनको अर्घ करौं, मन वच तन देहु चढ़ाय भवतर मोक्ष वरौं | श्री तारंगागिरि से जान, वरदत्तादि मुनी, त्रय अर्ध कोटि परमान ध्याऊँ मोक्षधनी || ऊँ ह्रीं श्रीतारंगागिरि सिद्धक्षेत्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि0 स्वाहा | (21) श्री गौतम गणधर निर्वाण-स्थली (गुणावा, बिहार) जल फल आदिक द्रव्य इकट्ठे लीजिये, कंचन थारी मांहि अरघ शुभ कीजिये | ग्राम गुणावा जाय सु मन हर्षाय के, गौतम स्वामी चरण जजौं मन लायके || ऊँ ह्रीं श्रीगौतम गणधर निर्वाण स्थली गुणावा सिद्धक्षेत्राय अर्घ्य- नि0 स्वाहा | (22) जम्बु स्वामी निर्वाण-स्थली (चौरासी, मथुरा सिद्ध क्षेत्र, उ.प्र.) जल फल आदिक द्रव्य आठहू लीजिये, कर इकठी भरि थाल अर्घ शुभ कीजिये | मथुरा जम्बू स्वामी मुक्ति थल जायके, पूजित भवि धरि ध्यान सुयोग लगायके || ऊँ ह्रीं श्री जम्बुस्वामी निर्वाणस्थली चौरासी मथुरा सिद्धक्षेत्राय अर्घ्य- नि0 स्वाहा |
  3. विध्यमान बीस तीर्थंकर अर्घ जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है, गणधर इन्द्रनहू तैं, थुति पूरी न करी है । द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार, सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार । श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज ।। ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।1। कृतिम-अकृतिम चैत्यालय अर्घ कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकी-गतान्, वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान् स्वर्गामरावासगान् । सद्गंधाक्षत-पुष्प-दाम-चरुकैः सद्दीपधूपैः फलैर, नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये ।। ॐ ह्रीं त्रिलोक सम्बन्धि कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।2। सिद्ध परमेष्ठी अर्घ गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं, पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् । धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये, सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम् ।। ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।3। तीस चौबीसी का अर्घ द्रव्य आठो, जू लीना हैं, अर्घ कर में नवीना हैं । पुजतां पाप छीना हैं, भानुमल जोड़ किना हैं ॥ दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दस ताँ विषै छाजै । सातशत बीस जिनराजे, पुजतां पाप सब भाजै ॥ ॐ ह्रीं पञ्चभरत-पंचैरावत-सम्बन्धी-दशक्षेत्रान्तर्गत-भुत-भविष्यत्-वर्तमान-सम्बन्धी-तीस-चौबीसी के सात सौ बीस जिनेंद्रेभ्यो-अर्घय्म निर्वपामिति स्वाहा ।4। श्री आदिनाथ जी अर्घ शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरु ले मन हर्षाय, दीप धुप फल अर्घ सुलेकर, नाचत ताल मृदंग बजाय । श्री आदिनाथ के चरण कमल पर बलि बलि जाऊ मन वच काय, हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातै मैं पूजों प्रभु पाय ॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्ताये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।5। श्री अजितनाथ जी अर्घ जलफल सब सज्जे, बाजत बज्जै, गुनगनरज्जे मनमज्जे । तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै, ते भवभज्जै निजकज्जै ।। श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं । मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ।। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।6। श्री सम्भवनाथ जी अर्घ जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया । तुमको अरपौं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया ।। संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे । निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे ।। ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।7। श्री अभिनन्दन नाथ जी अर्घ अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही । नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही ।। कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं । पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।8। श्री सुमतिनाथ जी अर्घ जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय । नाचि राचि शिरनाय समरचौं, जय जय जय 2 जिनराय ।। हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय । तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय ।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।9। श्री पद्मप्रभु जी अर्घ जल फल आदि मिलाय गाय गुन, भगति भाव उमगाय । जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय । मन वचन तन त्रयधार देत ही, जनम-जरा-मृतु जाय । पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजौं भाव सों ।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।10। श्री सुपार्श्वनाथ जी अर्घ आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय । दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।। तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय । दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।11। श्री चंद्रप्रभु जी अर्घ सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं । पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं ।। श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै । मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे । ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।12। श्री पुष्पदंत जी अर्घ जल फल सकल मिलाय मनोहर, मनवचतन हुलसाय । तुम पद पूजौं प्रीति लाय के, जय जय त्रिभुवनराय ।। मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सनीजे ।। ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।13। श्री शीतलनाथ जी अर्घ शुभ श्री-फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे । नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे ।। रागादिदोष मल मर्द्दन हेतु येवा । चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।14। श्री श्रेयांसनाथ जी अर्घ जलमलय तंदुल सुमनचरु अरु दीप धूप फलावली । करि अरघ चरचौं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ।। श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं । दुखदंद फंद निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं ।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।15। श्री वासुपूज्य जी अर्घ जल फल दरव मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई । शिवपदराज हेत हे श्रीपति! निकट धरौं यह लाई । । वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई । बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई ।। ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।16। श्री विमलनाथ जी अर्घ आठों दरब संवार, मनसुखदायक पावने । जजौं अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमण ।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।17। श्री अनन्तनाथ जी अर्घ शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरौं । अरु धूप फल जुत अरघ करि, करजोरजुग विनति करौं ।। जगपूज परम पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनो । शिव कंत वंत मंहत ध्यावौं, भ्रंत वन्त नशावनो ।। ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।18। श्री धर्मनाथ जी अर्घ आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगाई । बाजत दृमदृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई ।। परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी । पूजौं पाय गाय गुन सुन्दर नाचौं दे दे तारी ।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।19। श्री शांतिनाथ जी अर्घ वसु द्रव्य सँवारी, तुम ढिग धारी, आनन्दकारी, दृग-प्यारी । तुम हो भव तारी, करुनाधारी, या तें थारी शरनारी ।। श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं । हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं ।। ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।20। श्री कुन्थुनाथ जी अर्घ जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी । फलजुत जनन करौं मन सुख धरि, हरो जगत फेरी ।। कुंथु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दासकेरी । भवसिन्धु पर्यो हौं नाथ, निकारो बांह पकर मेरी ।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।21। श्री अरहनाथ जी अर्घ सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं, तंदुलशीरं, पुष्प-चरुं । वर दीपं धूपं, आनंदरुपं, ले फल भूपं, अर्घ करुं ।। प्रभु दीन दयालं, अरिकुल कालं, विरद विशालं सुकुमालं । हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन मालं, वरभालं ।। ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।22। श्री मल्लिनाथ जी अर्घ जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई । शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गहो मैं आई ।। राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा । यातें शरन गही जगपतिजी, वेगि हरो भवपीरा ।। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।23। श्री मुनिसुव्रतनाथ जी अर्घ जलगंध आदि मिलाय आठों दरब अरघ सजौं वरौं । पूजौं चरन रज भगतिजुत, जातें जगत सागर तरौं ।। शिवसाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनिगुन माल हैं । तसु चरन आनन्दभरन तारन तरन, विरद विशाल हैं ।। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।24। श्री नमिनाथ जी अर्घ जल फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भवभय हरं । जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के ।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।25। श्री नेमिनाथ जी अर्घ जल फल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय । अष्टम छिति के राज कारन को, जजौं अंग वसु नाय ।। दाता मोक्ष के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता0 । ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।26। श्री पार्श्वनाथ जी अर्घ नीर गंध अक्षतान, पुष्प चारु लीजिये । दीप धूप श्रीफलादि, अर्घ तैं जजीजिये ।। पार्श्वनाथ देव सेव, आपकी करुं सदा । दीजिए निवास मोक्ष, भूलिये नहीं कदा ।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।27। श्री महावीर स्वामी जी अर्घ जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरौं । गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरौं ।। श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो । जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो ।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।28। श्री बाहुबली स्वामी जी अर्घ हूँ शुद्ध निराकुल सिद्धो सम, भवलोक हमारा वासा ना । रिपु रागरु द्वेष लगे पीछे, यातें शिवपद को पाया ना ॥ निज के गुण निज में पाने को, प्रभु अर्घ संजोकर लाया हूँ । हे बाहुबली तुम चरणों में, सुख सम्पति पाने आया हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री-बाहुबली-जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।29। पञ्च बालयति जी अर्घ सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ अरघ बनावत हैं । वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नशावत हैं ॥ श्री वासु-पूज्य-मल्ली-नेम, पारस वीर अती । नमूं मन-वच-तन धरी प्रेम, पांचो बालयति ॥ ॐ ह्रीं श्री-पंचबालयति-तीर्थंकरेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।30। सोलहकारण भावना अर्घ जल फल आठों दरव चढ़ाय द्यानत वरत करौं मन लाय। परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो।। दरशविशुद्धि भावना भाय सोलह तीर्थंकर-पद-दाय। परम गुरु हो जय जय नाथ परम गुरु हो ।। ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति ।31। पंचमेरु जी अर्घ आठ दरबमय अरघ बनाय, द्यानत पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। पांचो मेरू असी जिन धाम, सब प्रतिमा जी को करौं प्रणाम । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ।। ॐ ह्रीं पंचमेरूसम्बन्धि-जिन चैत्यालयस्थ-जिनबिम्बेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।32। नन्दीश्वर द्वीप अर्घ यह अरघ कियो निजहेत, तुमको अरपत हों । धानत किज्यो शिवखेत, भूमि समरपतु हों ॥ नन्दीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों । वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरों ॥ (नन्दीश्वर दीप महान चारों दिशि सोहें । बावन जिन मन्दिर जान सुर-नर-मन-मोहें ॥) ॐ ह्रीं श्री-नन्दीश्वर-द्वीपें पूर्व-पश्चिमोत्तर-दक्षिण-दिशु द्व-पंचास-जिनालय-स्थित जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।33। दशलक्षण धर्म अर्घ आठो दरब संवार, धानत अधिक उछाह सों । भाव-आताप निवार,दस लच्छन पूजो सदा ॥ ॐ ह्रीं श्री-उत्तम-क्षमादि-दशलक्षण-धर्माय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।34। रत्नत्रय अर्घ आठ दरब निराधार, उत्तम सों उत्तम किये । जनम-रोग निरवार, सम्यक रत्नत्रय भजुं ॥ ॐ ह्रीं श्री-सम्यग्-रत्नत्रयाय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।35। सप्तर्षि अर्घ जल गंध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धुप सु लावना । फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्घ कीजे पावना ॥ मन्वादि चारित्रऋद्धि धारक, मुनिन की पूजा करू । ता करे पातक हरे सारे, सकल आनंद विस्तरुं ॥ ॐ ह्रीं श्री-मन्वादिसप्तर्षिभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।36। निर्वाण क्षेत्र जी अर्घ जल गंध अक्षत पुष्प चरु फल, दीप धुपायन धरौ। धानत करो निरभय जगत सो, जोर कर विनती करौ ॥ सम्मेद्गिरि गिरनार चंपा पावापुर कैलाश को । पूजो सदा चौबीस जिन, निर्वाण भूमि निवास को ॥ ॐ ह्रीं श्री-चतुर्विंश-तीर्थंकर-निर्वाण-क्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वापमिति स्वाहा ।37। श्री सम्मेद शिखर जी अर्घ जल गंधाक्षत फुल सु नेवज लीजिये । दीप धुप फल अर्घ सु लेकर चढ़ाइए ॥ पूजो शिखर सम्मेद सु मन वच काय जू । नरकादि दुःख टरै अचल पद पाय जू ॥ ॐ ह्रीं श्री-सम्मेद-शिखर-सिद्धक्षेत्र-पर्वते बीस-तीर्थंकर-आदि-असंख्यात-मुनि-मुक्ति-प्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।38। सरस्वती (जिनवाणी) जी अर्घ जलचन्दन अक्षत, फूल चरु, चत, दीप धूप अति फल लावै। पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुखपावै।। तीर्थंकर की ध्वनि, गनधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई। सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्य भई।। ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।39। श्री ऋषिमंडल अर्घ जल फलादिक द्रव्य लेकर अर्घ सुन्दर कर लिया । संसार रोग निवार भगवन वारि तुम पद में दिया ॥ जहा सुभग ऋषिमंडल विराजै पूजी मन वाच तन सदा । तिस मनोवांछित मिळत सब सुख स्वप्न में दुःख नहि कदा ॥ ॐ ह्रीं श्री-सर्वोपद्रव-विनाशन-समथार्य ऋषिमंडलाय अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।40। श्री भरतेश्वर स्वामी जी अर्घ भरतेश्वर महाराज थारा गुण गाऊ, था घर में ही वैराग चरणों में धयाऊ । मैं अष्ट द्रव्य ले आय पूजा के लिए, मैं पूजा भाव रचाय भव भव दुःख हरे ॥ ॐ ह्रीं श्री भरतेश्वराय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।41। श्री गौतम स्वामी जी अर्घ गौतमादिक सर्वे एकदश गणधराऊ, वीर जिन के मुनि सहस चौदह वरा । नीर गंधाक्षतं पुष्प चरु दीपकंए, धूप फल अर्घ्य ले हम जजें महर्षिकं ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीर-जिनस्य गौतमाद्येकादश-गणधर-चतुर्दशसहस्र मुनिवरेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ।42। श्री जम्बू स्वामी जी अर्घ मथुरा चौरासी धाम से निर्वाण गये । मैं पूजूं जम्बूस्वामी अंतिम मोक्ष गए ॥ ॐ ह्रीं श्री जम्बू-स्वामी-मुक्ति-प्राप्ताय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।43। अंतरायनाशय अर्घ लाभ की अंतराय के वश जीव सुख ना लहै। जो करै कष्ट उत्पात सगरे कर्मवस विरथा रहै।। नहीं जोर वाको चले इक छिन दीन सौ जग में फिरै। अरहंत सिद्धसु अधर धरिकै लाभ यौ कर्म कौ हरै।। ऊँ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा ।44। श्री मानस्तंभ जी अर्घ जल गन्धादि द्रव्य मिलाकर निज निज पूजो चाव में । मान स्तम्भ पे बैठे भगवन, उनको पुजू भाव से ॥ ॐ ह्रीं श्री मान-स्तम्भोपरि-विराजमान-चतुर्मुख-जिनबिम्बेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्म निर्वापमिति स्वाहा ।45।
  4. दीप अढ़ाई मेरु पन, अरु तीर्थंकर बीस | तिन सबकी पूजा करुं, मन-वच-तन धरि शीस || ॐ ह्रीं विद्यमान विंशति-तीर्थकराः! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं विद्यमान विंशति-तीर्थकराः! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं विद्यमान विंशति-तीर्थकराः! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र वंद्य, पद निर्मल धारी, शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी | क्षीरोदधि सम नीर सों (हो), पूजौं तृषा निवार, सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मंझार | श्री जिनराज हो, भव तारण जहाज श्री महाराज हो | ॐ ह्रीं विद्यमान विंशति-तीर्थंकरेभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |1| तीन लोक के जीव, पाप आताप सताये, तिनको साता दाता, शीतल वचन सुहाये | बावन चंदन सों जजूं, (हो) भ्रमन-तपन निरवार, सीमंधर0 ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः भवतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा |2| यह संसार अपार महासागर जिनस्वामी, तातैं तारे बड़ी, भक्ति-नौका जग नामी | तन्दुल अमल सुगंध सों (हो) पूजौं तुम गुणसार, सीमंधर0 ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा |3| बविक-सरोज-विकास, निंद्य-तम-हर रवि से हो, जाति-श्रावक-अचार कथन को तुम ही बड़े हो | फूल सुवास अनेक सों (हो) पूजौं मदन प्रहार, सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार | श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज || ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा |4| काम नाग विषधाम, नाशको गरुड़ कहे हो, क्षुधा महादव-ज्वाल, तासको मेघ लहे हो | नेवज बहुघृत मिष्ट सों (हो), पूजौं भूख विडार, सीमंधर0 ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा |5| उद्यम होन न देत, सर्व जग मांहिं भर्यो है, मोह महातम घोर, नाश परकाश कर्यो है | पूजौं दीप प्रकाश सों (हो) ज्ञान ज्योति करतार, सीमंधर0 ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा |6| कर्म आठ सब काट, भार विस्तार निहारा, ध्यान अग्नि कर प्रकट सरब कीनो निरवारा | धूप अनूपम खेवतें (हो) दुःख जलै निरधार, सीमंधर0 ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अष्टकर्म विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा |7| मिथ्यावादी दुष्ट लोभऽहंकारी भरे हैं | सब को छिन में जीत, जैन के मेरु खरे हैं | फल अति उत्तम सों जजौं (हो) वांछित फलदार, सीमंधर0 ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा |8| जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है, गणधर इन्द्रनहू तैं थुति पूरी न करी है | द्यानत सेवक जानके (हो) जगतैं लेहु निकार, सीमंधर0 ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |9| जयमाला सोरठा - ज्ञान सुधाकर चंद, भविक खेतहित मेघ हो | भ्रम-तम-भान अमंद, तीर्थंकर बीसों नमौं || चौपाई सीमंधर सीमंधर स्वामी, जुगमंधर जुगमंदिर नामी | बाहु बाहु जिन जग जन तारे, करम सुबाहु बाहुबल धारे |1| जातु संजातं केवलज्ञानं, स्वयंप्रभ प्रभु स्वयं प्रधानं | ऋषभानन ऋषि भानन तोषं, अनंतवीरज वीरजकोषं |2| सौरीप्रभ सौरीगुणमालं, सुगुण विशाल विशाल दयालं | व्रजधार भवगिरि वज्जर हैं, चंद्रानन चंद्रानन-वर हैं |3| भद्रबाहु भद्रनि के करता, श्रीभुजंग भुजंगम हरता | ईश्वर सब के ईश्वर छाजैं, नेमिप्रभ जस नेमि विराजैं |4| वीर सेन वीरं जग जाने, महाभद्र महा भद्र बखाने | नमौं जसोधर जसधरकारी, नमौं अजितवीरज बलधारी |5| धनुष पांचसौ काय विराजै, आयु कोडि पूरब सब छाजै | समवशरण शोभित जिनराजा, भव-जल-तारनतरन जिहाजा |6| सम्यकरत्नत्रय निधिदानी, लोकालोकप्रकाशक ज्ञानी | शतइन्द्रनिकर वंदित सोहैं, सुन नर पशु सबके मन मोहैं |7| दोहा - तुमको पूजैं, वंदना, करैं, धन्य नर सोय | द्यानत सरघा मन धरै, सो भी धरमी होय || ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
  5. वृषभ अजित संभव अभिनंदन सुमति पदम सुपार्स जिनराय, चन्द पुहुप शीतल श्रेयांस नमि वासु पूज पूजित सुर राय. विमल अनंत धरम जस उज्जवल शांति कुंथु अर मल्लि मनाय, मुनि सुव्रत नमि नेमि पार्श्व प्रभु वर्धमान पद पुष्प चढ़ाय. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरांत चतु-र्विशति जिन समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट; ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरांत चतु-र्विशति जिन समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:; ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरांत चतु-र्विशति जिन समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट. मुनिमन सम उज्जवल नीर प्रासुक गंध भरा, भरि कनक कटोरी धीर दीनी धार धरा. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाश-नाय जलं निर्वपामिति स्वाहा. गोशीर कपूर मिलाय केसर रंग भरी, जिन चरनन देत चढ़ाय भव आताप हरी. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो भव ताप विनाश-नाय चन्दन निर्वपामिति स्वाहा. तंदुल सित सोम समान सुन्दर अनियारे, मुकता फल की उनमान पुन्ज धरौं प्यारे. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो अक्षय पद प्राप-ताय अक्षतान निर्वपामिति स्वाहा. वरकंज कदंब कुरंड सुमन सुगंध भरे, जिन अग्र धरौं गुण मंद काम कलंक हरे. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो काम बाण विध्वं-सनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा. मन मोदन मोदक आदि सुन्दर सध्य बने, रस पूरित प्रासुक स्वाद जजत क्षुधादि हने. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो क्षुधा रोग विनाश नाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा. तम खंडन दीप जगाय धारों तुम आगे, सब तिमिर मोह क्षय जाय ज्ञान कला जागे. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो मोहान्धकार विनाश-नाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा. दश गंध हुताशन मांहि हे प्रभु खेवत हों, मिस धूम करम जरि जांहि तुम पद सेवत हों. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो अष्ट कर्म दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा. शुचि पक्व सरस फल सार सब ऋतु के ल्यायो, देखत दृग मन को प्यार पूजत सुख पायो. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरां-तेभ्यो मोक्ष फल प्रापताय निर्वपामिति स्वाहा. जल फल आठों शुचि सार ताको अर्घ करों, तुमको अरपों भव तार भव तरि मोक्ष वरों. चौबीसौं श्री जिन चन्द आनन्द कन्द सही, पद जजत हरत भव फन्द पावत मोक्ष मही. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरांत चतुर्विशति तीर्थं-करेभ्यो अनर्घ पद प्राप-ताय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा. जयमाला श्री मत तीरथ नाथ पद माथ नाय हितहेत, गाऊं गुण माला अबै अजर अमर पद देत. जय भव तम भंजन जन मन कंजन रंजन दिन मनि स्वच्छ करा, शिव मग परकाशक अरि-गण नाशक चौबीसौं जिन राज वरा . जय रिषभ देव ऋषि गन नमंत, जय अजित जीत वसु अरि तुरंत. जय संभव भव भय करत चूर, जय अभिनंदन आनंद पूर. जय सुमति सुमति दायक दयाल, जय पदम पदम दुति तन रसाल. जय जय सुपास भव-पास नाश, जय चंद चंद तन-दुति प्रकाश. जय पुष्प-दंत दुति-दंत सेत, जय शीतल शीतल गुन निकेत. जय श्रेय नाथ नुत सहस भुज्ज, जय वासव पूजित वासु पुज्ज. जय विमल विमल पद देन हार, जय जय अनंत गुन गन अपार. जय धर्म धर्म शिव शर्म देत, जय शांति शांति पुष्टी करेत. जय कुंथु कुंथु वादिक रखेय, जय अर जिन वसु अरि छय करेय. जय मल्लि मल्ल हत मोह मल्ल, जय मुनि सुव्रत व्रत शल्ल दल्ल. जय नमि नित वासव-नुत सपेम, जय नेमी नाथ व्रष-चक्र-नेम. जय पारस नाथ अनाथ नाथ, जय वर्धमान शिव नगर साथ. चौबीस जिनंदा आनंद कंदा, पाप निकंदा सुख कारी; तिन-पद जुग-चंदा उदय अमंदा, वासव वंदा हित धारी. ॐ ह्रीं श्री वृष-भादि वीरांत चतु-र्विशति जिने-भ्यो महार्घ्य निर्वपामिति स्वाहा. सोरठा भुक्ति मुक्ति दातार, चौबीसौं जिन-राज-वर; तिन-पद मन-वच-धार, जो पूजै सो शिव लहै.
  6. केवल-रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर, उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुंदरतम दर्शन । सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण, उन देव परम आगम गुरु को, शत शत वंदन शत शत वंदन ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुसमूह अत्र अवतर २ सम्वौषट आव्हानं ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुसमूह अत्र तिष्ठ २ ठः २ स्थापनं ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुसमूह अत्र मम संहितो भव २ वषट इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यामयी कंचन काया । यह सब कुछ जड़ की क्रीडा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ॥ मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ । अब निर्मल सम्यक नीर लिये, मिथ्या मल धोने आया हूँ ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो मिथ्यात्व मल विनाशनाय जलं निर्वापामिति स्वाहा ॥ जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु, अपने अपने में होती है । अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है ॥ प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है । संतप्त हृदय प्रभु चंदन सम, शीतलता पाने आया है ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो क्रोध कषाय मल विनाशनाय चन्दनं निर्वापामिति स्वाहा ॥ उज्ज्वल हूँ कुंद धवल हूँ प्रभु, पर से न लगा हूँ किंचित भी । फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरंतर ही ॥ जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, नश्वर वैभव को अपनाया । निज शाश्वत अक्षत निधि पाने, अब दास चरण रज में आया ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो मान कषाय मल विनाशनाय अक्षतं निर्वापामिति स्वाहा ॥ यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नही । निज अंतर का प्रभु भेद कहूं, उसमे में ऋजुता का लेश नही ॥ चिन्तन कुछ फिर संभाषण कुछ, क्रिया कुछ की कुछ होती है । स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जो, अंतर का कालुष धोती है ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो माया कषाय मल विनाशनाय पुष्पम निर्वापामिति स्वाहा ॥ अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु भूख न मेरी शांत हुई । तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ॥ युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूँ । पंचेन्द्रिय मन के षटरस तज, अनुपम रस पीने आया हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो लोभ कषाय मल विनाशनाय नैवेद्यम निर्वापामिति स्वाहा ॥ जग के जड़ दीपक को अब तक मैंने समझा था उजियारा । झंझा कि एक झकोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा ॥ अतएव प्रभो! यह नश्वर दीप, समर्पित करने आया हूँ । तेरी अंतर लौ से निज अंतर, दीप जलाने आया हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो अज्ञान विनाशनाय दीपं निर्वापामिति स्वाहा ॥ जड़ कर्म घुमाता है तुझको, यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी । में राग द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी ॥ यों भाव करम या भाव मरण, युग युग से करता आया हूँ । निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर गंध जलाने आया हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो विभाव परिणति विनाशनाय धूपं निर्वापामिति स्वाहा ॥ जग में जिसको निज कहता में, वह छोड मुझे चल देता है । में आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥ में शांत निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचर मेरी । यह मोह तड़क कर टूट पड़े, प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलं निर्वापामिति स्वाहा ॥ क्षण भर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है । कशायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है ॥ अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है । दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, यह है अर्हन्त अवस्था है ॥ यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, निज गुण का अर्घ्य बनाऊंगा । और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, अर्हन्त अवस्था पाउंगा ॥ ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम निर्वापामिति स्वाहा ॥ जयमाला भव वन में जी भर घूम चुका, कण कण को जी भर भर देखा। मृग सम मृग तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सच की रखा। झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएं । तन जीवन यौवन अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझाएं । सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या। अशरण मृत काया में हरषित, निज जीवन दल सकेगा क्या। संसार महा दुख सागर के, प्रभु दुखमय सच आभसोन में। मुझको न मिला सच क्षणभर भी, कंचन कामिनी प्रासदोन में। में एकाकी एकत्वा लिये, एकत्वा लिये सब है आते। तन धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड चले जाते। मेरे न हुए ये में इनसे, अति भिन्ना अखंड निराला हूँ। निज में पर से अन्यत्वा लिये, निज समरस पीने वाला हूँ। जिसके श्रिन्गारोन में मेरा, यह महंगा जीवन घुल जाता। अत्यन्ता अशुचि जड़ काया से, ईस चेतन का कैसा नाता। दिन रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता। मानस वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता। शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्तल। शीतल समकित किरण फूटें, सँवर से जाग अन्तर्बल। फिर तप की शोधक वन्हि जगे, कर्मों की कड़ियाँ फूट पड़ें । सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें हम छोड चलें यह लोक तभी, लोकान्त विराजें क्षण में जा। निज लोक हमारा वासा हो, शोकान्त बनें फिर हमको क्या। जागे मम दुर्लभ बोधी प्रभो, दुर्नैतम सत्वर तल जावे। बस ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, मद मत्सर मोह विनश जावे। चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी। चरणों में आया हूँ प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे। मुरझाई ज्ञानलता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे। सोचा करता हूँ भोगों से, बूझ जावेगी इच्छा ज्वाला। परिणाम निकलता है लेकिन, मानो पावक में घी डाला। तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख को ही अभिलाषा। अब तक न समझ है पाया प्रभु, सच्चे सुख की भी परिभाषा। तुम तो अविकारी हो प्रभुवर, जग में रहते जग से न्यारे। अतएव झुक तव चरणों में, जग के माणिक मोती सारे। स्याद्वाद मयी तेरी वाणी, शुभ नय के झरने झरते हैं । और उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भाव वारिधि तिरते हैं। हे गुरुवर शाश्वत सुख दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है। जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है। जब जग विषयों में रच पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष्कन्तक बोटा हो। हो अर्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों। तब शांत निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिन्तन करते हो। करते तप शैल नदी तट पर, तरुतल वर्षा की झाड़ियों में। समता रस पान किया करते, सुख दुख दोनों की घडियों में। अन्तर्ज्वाला हरती वाणी, मानों झरती हों फुल्झदियाँ । भाव बंधन तड तड टूट पड़ें , खिल जावें अंतर की कलियां। तुम सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दी जग की निधियां। दिन रात लुटाया करते हो, सम शम की अविनश्वर मणियाँ। हे निर्मल देव तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञानदीप आगम प्रणाम। हे शांति त्याग के मूर्तिमान, शिव पथ पंथी गुरुवर प्रणाम। ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो पूर्णार्घम निर्वापामिति स्वाहा ॥
  7. (दोहा) देव-शास्त्र-गुरु नमन करि, बीस तीर्थंकर ध्याय | सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूँ चित्त हुलसाय || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्) ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्) अनादिकाल से जग में स्वामिन्, जल से शुचिता को माना | शुद्ध-निजातम सम्यक्-रत्नत्रय-निधि को नहिं पहिचाना || अब निर्मल-रत्नत्रय-जल ले, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्य: श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१। भव-आताप मिटावन की, निज में ही क्षमता समता है | अनजाने अब तक मैंने, पर में की झूठी ममता है || चंदन-सम शीतलता पाने, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।२। अक्षय-पद बिन फिरा जगत की, लख चौरासी योनी में | अष्ट-कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं || अक्षय-निधि निज की पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३। पुष्प-सुगन्धी से आतम ने, शील-स्वभाव नशाया है | मन्मथ-बाणों से बिंध करके, चहुँ-गति दु:ख उपजाया है || स्थिरता निज में पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४। षट् रस-मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शांत हुर्इ | आतमरस अनुपम चखने से, इन्द्रिय-मन-इच्छा शमन हुर्इ || सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। जड़ दीप विनश्वर को अब तक, समझा था मैंने उजियारा | निज-गुण दरशायक ज्ञान-दीप से, मिटा मोह का अंधियारा || ये दीप समर्पित करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६। ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी | निज में निज की शक्ति-ज्वाला, जो राग-द्वेष नशायेगी || उस शक्ति-दहन प्रगटाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७। पिस्ता बदाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया | आतमरस-भीने निजगुण-फल, मम मन अब उनमें ललचाया || अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८। अष्टम-वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये | सहज-शुद्ध स्वाभाविकता से, निज में निज-गुण प्रगट किये || ये अर्घ समर्पण करके मैं, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: अनर्घ्य पद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९। जयमाला देव-शास्त्र-गुरु, बीस-जिन, सिद्ध-अनंतानंत | गाऊँ गुण-जयमालिका, भव-दु:ख नशें अनंत || (छन्द भुजंगप्रयात) नसे घातिया-कर्म अरिहंत देवा, करें सुर-असुर नर मुनि नित्य सेवा | दरश-ज्ञान-सुख-बल अनंत के स्वामी, छियालीस गुणयुत महार्इश नामी | तेरी दिव्य-वाणी सदा भव्य-मानी, महामोह-विध्वंसिनी मोक्षदानी | अनेकांतमय द्वादशांगी बखानी, नमौं लोकमाता श्री जैनवाणी | विरागी अचारज उवज्झाय साधू, दरश ज्ञान भंडार समता अराधू | नगन वेशधारी सु एकाविहारी, निजानंद मंडित मुकतिपथ प्रचारी | विदेहक्षेत्र में तीर्थंकर बीस राजें, विहरमान वंदूँ सभी पाप भाजें | नमूँ सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी | (चौबोला छन्द) देव-शास्त्र-गुरु बीस-तीर्थंकर, सिद्ध हृदय-बिच धर ले रे | पूजन ध्यान गान-गुण करके, भवसागर जिय तर ले रे || ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (जोगीरासा छन्द) भूत-भविष्यत्-वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ | चैत्य-चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन-लोक के मन लाऊँ || ओं ह्रीं त्रिकालसम्बन्धी तीस चौबीसी, त्रिलोकसम्बन्धी कृत्रिमाकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। चैत्यभक्ति आलोचन चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत | कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक में, राजत हैं जिनबिम्ब अनेक || चतुर निकाय के देव जजैं, ले अष्टद्रव्य निज-भक्ति समेत | निज-शक्ति अनुसार जजूँ मैं, कर समाधि पाऊँ शिव-खेत || ओं ह्रीं त्रिलोकसम्बन्धी समस्त-कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालय-सम्बन्धी जिनबिम्बेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पूर्व-मध्य-अपराह्न की बेला, पूर्वाचार्यों के अनुसार | देव-वंदना करूँ भाव से, सकल-कर्म की नाशनहार || पंच महागुरु सुमिरन करके, कायोत्सर्ग करूँ सुखकार | सहज स्वभाव शुद्ध लख अपना, जाऊँगा अब मैं भवपार || अथ पौर्वाह्निक/माध्याह्निक/अपराह्निक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल-कर्मक्षयार्थं कायोत्सर्गं करोम्यहम्। (पुष्पांजलिं क्षेपण कर नौ बार णमोकार मंत्र जपें)
  8. प्रथम देव अरहंत, सुश्रुत सिद्धांत जू | गुरु निर्ग्रन्थ महन्त, मुकतिपुर पन्थ जू || तीन रतन जग मांहि सो ये भवि ध्याइये | तिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाइये || दोहा - पूजौं पद अरहंत के, पूजौं गुरुपद सार | पूजौं देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार || ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् (आह्वाननं) | ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (स्थापनं) | ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (सन्निधि करणं)| सुरपति उरग नरनाथ तिनकर, वन्दनीक सुपद-प्रभा | अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा || वर नीर क्षीरसमुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धांत, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभाव मल छीन | जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्व0 स्वाहा |1| जे त्रिजग उदर मंझार प्राणी तपत अति दुद्धर खरे | तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे || तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घिसि सचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - चंदन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन | जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्व0 स्वाहा |2| यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई | अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही || उज्ज्वल अखंडित शालि तंदुल पुंज धरि त्रय गुण जचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - तंदुल शालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन | जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व0 स्वाहा |3| जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज प्रकाशन भान हैं | जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं || लहि कुंद कमलादिक पुहुप, भव भव कुवेदनसों बचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - विविध भांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन | जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्व0 स्वाहा |4| अति सबल मद-कंदर्प जाको क्षुधा-उरग अमान है | दुस्सह भयानक तासु नाशन को सु गरुड़ समान है || उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन | जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्व0 स्वाहा |5| जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, मोहतिमिर महाबली | तिंहि कर्मघाती ज्ञानदीप प्रकाश ज्योति प्रभावली || इह भांति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजन में खचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन | जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्व0 स्वाहा |6| जे कर्म-ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै | वर धूप तासु सुगन्धता करि, सकल परिमलता हंसै || इह भांति धूप चढ़ाय नित भव ज्वलनमाहिं नहीं पचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - अग्निमांहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन | जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्व0 स्वाहा |7| लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं | मोपै ब उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं || सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - जे प्रधान फल फलविषैं, पंचकरण-रस लीन | जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व0 स्वाहा |8| जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरुं | वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनम के पातक हरुं || इहि भांति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूं | अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं || दोहा - वसुविधि अर्घ संजोय के, अति उछाह मन कीन | जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन || ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्व0 स्वाहा |9| जयमाला देव शास्त्र गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार | भिन्न भिन्न कहुं आरती, अल्प सुगुण विस्तार |1| कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि | जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर |2| शुभ समवशरण शोभा अपार, शत इंद्र नमत कर सीस धार | देवाधिदेव अरहंत देव, वंदौं मन-वच-तन करि सुसेव |3| जिनकी ध्वनि ह्वै ओंकाररुप, निर-अक्षर मय महिमा अनूप | दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत |4| सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअंग | रवि शशि न हरें सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय |5| गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रय-निधि अगाध | संसारदेह वैराग्य धार, निरवांछि तपैं शिवपद निहार |6| गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भवतारन तरन जिहाज ईस | गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरु-नाम जपौं मन-वचन-काय |7| सोरठा - कीजै शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरे | द्यानत सरधावान, अजर अमरपद भोगवे |8| ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | दोहा - श्रीजिन के परसाद तें, सुखी रहें सब जीव | या तें तन मन वचन तें, सेवो भव्य सदीव || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षेपत्) | तीस चौबीसी का अर्घ्य द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ्य कर में नवीना है | पूजतां पाप छीना है, भानुमल जोड़ि कीना है || दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दश ता विषै छाजै | सात शत बीस जिनराजै, पूजतां पाप सब भाजै || ॐ ह्रीं पंचभरत, पंच ऐरावत, दशक्षेत्रविषयेषु त्रिंशति चतुर्विशत्यस्य सप्तशत विंशति जिनेंद्रेभ्यः नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य उदक-चंदन-तंदुलपुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूपफलार्घ्य कैः | धवल मंगल-गानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे |1| ॐ ह्रीं सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन- अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग- ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति विद्यमानतीर्थंकरेभ्य नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
  9. नित्याप्रकंपाद्भुत-केवलौघाः, स्फुरन्मनः पर्यय-शुद्धबोधाः | दिव्यावधिज्ञान-बलप्रबोधाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || अविनाशी, अचल, अद्भुत केवल ज्ञान, दैदीप्यमान मनःपर्यय ज्ञान, और दिव्य अवधि ज्ञान ऋद्धियों के धारी परम ऋषि हमारा मंगल करें |1| कोष्ठस्थ-धान्योपममेकबीजं, संभिन्न-संश्रोतृ-पदानुसारि | चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || कोष्ठस्थ धान्योपम, एक बीज, संभिन्न-संश्रोतृत्व और पदानुसारिणी इन चार प्रकार की बुद्धि ऋद्धियों के धारी परमेष्ठीगण हमारा मंगल करें |2| संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादन-घ्राण-विलोकनानि | दिव्यान् मतिज्ञान-बलाद्वहंतः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || दिव्य मति ज्ञान के बल से दूर से ही स्पर्शन श्रवण, आस्वादन, घ्राण और अवलोकन रुप पाँचों इन्द्रयों के विषयों को जान सकने की ऋद्धियों के धारण करने वाले परम ऋषिगण हमारा मंगल करें |3| प्रज्ञा-प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः, प्रत्येकबुद्धाः दशसर्वपूर्वैं: | प्रवादिनोऽष्टांग-निमित्त-विज्ञाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || प्रज्ञा-श्रमण, प्रत्येकबुद्ध, अभिन्न दशपूर्वी, चतुर्दशपूर्वी, प्रवादी, अष्टांग महानिमित्त ज्ञाता परम ऋषि गण हमारा कल्याण करें |4| नौ चारण ऋद्धियाँ जंघा-वह्रि-श्रेणि-फलांबु-तंतु-प्रसून-बीजांकुर-चारणाह्वाः | नभोऽगंण-स्वैर-विहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || जंघा, वह्रि (अग्नि शिखा), श्रेणी, फल, जल, तन्तु, पुष्प, बीज-अंकुर तथा आकाश में जीव हिंसा-विमुक्त विहार करने वाले परम ऋषिगण हमारा मंगल करें |5| तीन बल ऋद्धियाँ एवं ग्यारह विक्रिया ऋद्धियाँ अणिम्नि दक्षाः कुशलाः महिम्नि,लघिम्नि शक्ताः कृतिनो गरिम्णि | मनो-वपुर्वाग्बलिनश्च नित्यं, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, मनबल, वचनबल, कायबल ऋद्धियों के अखण्ड धारक परम ऋषिगण हमारा मंगल करें |6| सकामरुपित्व-वशित्वमैश्यं, प्राकाम्यमन्तर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः | तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || कामरुपित्वः, वशित्व, ईशित्व, प्राकाम्य, अन्तर्धान, आप्ति तथा अप्रतिघात ऋद्धियों से सम्पन्न परम ऋषिगण हमारा मंगल करें |7| सात तप ऋद्धियाँ दीप्तं च तप्तं च तथा महोग्रं, घोरं तपो घोर पराक्रमस्थाः | ब्रह्मापरं घोर गुणाश्चरन्तः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || दीप्त, तप्त, महाउग्र, घोर, घोर पराक्रमस्थ, परमघोर एवं घोर ब्रह्मचर्य इस सात तप ऋद्धियों के धारी मुनिराज हमारा मंगल करें |8| दस औषधि ऋद्धियाँ आमर्ष-सर्वौषधयस्तथाशीर्विषाविषा दृष्टिविषाविषाश्च | स-खिल्ल-विड्ज्जल-मलौषधीशाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || आमर्षौषधि, सर्वौषधि, आशीर्विषौषधि, आशीअर्विषौषधि, दृष्टिविषौ-षधि, दृष्टिअविषौषधि, (खिल्ल) क्ष्वलौषधि, विडौषधि, जलौषधि और मलौषधि ऋद्धियों के धारी परम ऋषि हमारा मंगल करें |9| चार रस ऋद्धियाँ एवं दो अक्षीण ऋद्धियाँ क्षीरं स्रवंतोऽत्र घृतं स्रवंतः, मधु स्रवंतोऽप्यमृतं स्रवंतः | अक्षीणसंवास-महानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः || क्षीरस्रावी, घृतस्रावी, अमृतस्रावी, तथा अक्षीण-संवास और अक्षीण-महानस ऋद्धि धारी परम ऋषिगण हमारा मंगल करें |10|
  10. श्रीवृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअजितः | श्रीसंभवः स्वस्ति,स्वस्ति श्रीअभिनंदनः | श्रीसुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः | श्रीसुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीचन्द्रप्रभः | श्रीपुष्पदंतः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशीतलः | श्री श्रेयान्सः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः | श्रीविमल स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअनंतः | श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशान्तिः | श्रीकुंथुः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअरहनाथः | श्रीमल्लिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमुनिसुव्रतः | श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः | श्रीपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः | इति श्रीचतुर्विंशति तीर्थंकर-स्वस्ति मंगल विधानं पुष्पांजलिं क्षिपामि |
  11. श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशम् | स्याद्वाद-नायक-मनंत-चतुष्टयार्हम् || श्रीमूलसंघ-सुदृशां सुकृतैकहेतुर | जैनेन्द्र-यज्ञ-विधिरेष मयाऽभ्यधायि |1| स्वस्ति त्रिलोक-गुरवे जिन-पुंगवाय | स्वस्ति स्वभाव-महिमोदय-सुस्थिताय || स्वस्ति प्रकाश-सहजोर्ज्जितं दृगंमयाय | स्वस्ति प्रसन्न-ललिताद् भुत-वैभवाय |2| स्वस्त्युच्छलद्विमल-बोध-सुधा-प्लवाय | स्वस्ति स्वभाव-परभाव-विभासकाय || स्वस्ति त्रिलोक-विततैक-चिदुद्गमाय | स्वस्ति त्रिकाल-सकलायत-विस्तृताय |3| द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरुपम् | भावस्य शुद्धिमधिकामधिगंतुकामः || आलंबनानि विविधान्यवलम्बय वल्गन् | भूतार्थ यज्ञ-पुरुषस्य करोमि यज्ञम् |4| अर्हत्पुराण पुरुषोत्तम पावनानि | वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव || अस्मिन् ज्वलद्विमल-केवल-बोधवह्रौ | पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि |5| ॐ ह्रीं विधियज्ञ प्रतिज्ञायै जिनप्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि |
  12. ॐ जय! जय!! जय!!! नमोऽस्तु! नमोऽस्तु!! नमोऽस्तु!!! णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं | णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं || ॐ ह्रीं अनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः | (पुष्पांजलि क्षेपण करें) चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलपण्णत्तो धम्मो मंगलं | चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा | चत्तरि सरणं पव्वज्जामि, अरिहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि || ॐ नमोऽर्हते स्वाहा | (पुष्पांजलि क्षेपण करें) अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा | ध्यायेत्पंच-नमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते |1| अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा | यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचिः |2| अपराजित-मंत्रोऽयं, सर्व-विघ्न-विनाशनः | मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंलमं मतः |3| एसो पंच-णमोयारो, सव्व-पावप्पणासणो | मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलम् |4| अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः | सिद्धचक्रस्य सद् बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् |5| कर्माष्टक-विनिर्मुक्तं मोक्ष-लक्ष्मी-निकेतनम् | सम्यक्त्वादि-गुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् |6| विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, शाकिनी भूत पन्नगाः | विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे |7| (पुष्पांजलि क्षेपण करें) पंच कल्याणक अर्घ्य उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः | धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे कल्याणकमहं यजे || ॐ ह्रीं श्रीभगवतो गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंचकल्याणकेभ्योऽर्घ्यं नि0 |1| पंचपरमेष्ठी का अर्घ्य उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः | धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे || ॐ ह्रीं श्रीअर्हंत-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्योऽर्घ्यंनिर्वपामीति स्वाहा |2| श्री जिनसहस्रनाम अर्घ्य उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः | धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाममहं यजे || ॐ ह्रीं श्रीभगवज्जिन अष्टाधिक सहस्रनामेभ्योऽर्घ्यं निर्व पामीति स्वाहा |3|
  13. १. इह विधि ठाडो होय के, प्रथम पढ़ै जो पाठ; धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जु आठ. २. अनंत चतुष्टय के धनी, तुम ही हो सिरताज; मुक्ति-वधू के कन्त तुम, तीन भुवन के राज. ३. तिंहु जग की पीड़ा हरन, भवदधि-शोषणहार; ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिव सुख के करतार. ४. हरता अघ अंधियार के, करता धर्म प्रकाश; थिरता पद दातार हो, धरता निजगुण रास. ५. धर्मामृत उर जल धिसों, ज्ञान भानु तुम रूप; तुमरे चरण सरोज को, नावत तिंहु जग भूप. ६. मैं बंदौ जिन देव को, कर अति निर्मल भाव; कर्म बंध के छेदने, और न कछू उपाव. ७. भविजन कों भव कूपतैं, तुम ही काढ़न-हार; दीन दयाल अनाथ पति, आतम गुण भंडार. ८. चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्म रज मैल; सरल करी या जगत में, भविजन को शिव गैल. ९. तुम पद पंकज पूजतैं, विघ्न रोग टर जाय; शत्रु मित्रता को धरै, विष निर-विषता थाय. १०. चक्री खगधर इन्द्र पद, मिलैं आपतैं आप; अनुक्रम कर शिव पद लहैं, नेम सकल हनि पाप. ११. तुम बिन में व्याकुल भयो, जैसे जल बिन मीन; जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन. १२. पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव; अंजन से तारे प्रभु, जय जय जय जिन देव. १३. थकी नाव भवदधि विषै, तुम प्रभु पार करेय; खेवटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिन देव. १४. राग सहित जग में रुल्यो, मिले सरागी देव; वीतराग भेटयो अबै, मेटो राग कुटेव. १५. कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच अज्ञान; आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर थान. १६. तुमको पूजैं सुरपति, अहिपति नरपति देव; धन्य भाग्य मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव. १७. अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार; मैं डूबत भव सिंधु में, खेओ लगाओ पार. १८. इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान; अपनो विरद निहारिकैं, कीजै आप समान. १९. तुमरी नेक सुदृष्टि-तैं, जग उतरत है पार; हा हा डूबो जात हों, नेक निहार निकार. २०. जो मैं कहहूँ और-सों, तो न मिटै उर भार; मेरी तो तोसों बनी, तातैं करौं पुकार. २१. बंदों पांचों परम गुरु, सुर गुरु बंदत जास; विघन हरन मंगल करन, पूरन परम प्रकाश. २२. चौबीसों जिनपद नमों, नमों शारदा माय; शिव-मग साधक साधु नमि, रच्यो पाठ सुखदाय. मंगल मूर्ति परम पद, पंच धरौं नित ध्यान | हरो अमंगल विश्व का, मंगलमय भगवान |१| मंगल जिनवर पद नमौं, मंगल अरिहन्त देव | मंगलकारी सिद्ध पद, सो वन्दौं स्वयमेव |२| मंगल आचारज मुनि, मंगल गुरु उवझाय | सर्व साधु मंगल करो, वन्दौं मन वच काय |३| मंगल सरस्वती मातका, मंगल जिनवर धर्म | मंगल मय मंगल करो, हरो असाता कर्म |४| या विधि मंगल से सदा, जग में मंगल होत | मंगल नाथूराम यह, भव सागर दृढ़ पोत |५|
  14. सामग्री १. प्रासुक जल (कुंए या बोरिंग का जल आवश्यक मात्रा में एक बड़े बर्तन में, दोहरे छन्ने से छान कर, जिवाणि वापिस कुएं में डालें, छने पानी को गर्म करके पुनः ठंडा होने छोड़ दें| (पानी गर्म करने की सुविधा न होने पर लौंग डाल कर भी जल को प्रासुक किया जाता है )| २. द्रव्य-बर्तन: प्रासुक जल से धुली एक थाली, दो कलश, दो छोटी चम्मचें, चन्दन कटोरी, एक सूखा छन्ना| ३. पूजा-बर्तन: प्रासुक जल से धुली दूसरी थाली, एक ठोना (आसिका), एक कटोरा, धूपदान (धुपाडा)| ४. चन्दन लेप (सिल पर अथवा खरड में केशर के कुछ रेशे भिगोएँ और चन्दन की लकड़ी से घिसने से बना लेप चन्दन-कटोरी में समेट लें)| ५. अक्षत (छान-बीन कर भली-भांति साफ़ किये हुए जीव-जंतु रहित अखंड चावल प्रासुक जल से धो लें)| ६. पुष्प ( तीन चौथाई अक्षत खरड/सिल पर डाल कर केसरिया रंग का बना लें)| ७. नैवेद्य (छोटी छोटी चिटकें प्रसुक जल से धो लें)| ८. दीप (उपरोक्त कुछ चिटकें खरड में डाल कर केशरिया रंग की कर लें)| ९. धूप (नारियल के सूखे गोले की छीलन का बारीक चूर्ण)| १०. फल (छिलके वाले सूखे बादाम, लौंग, छोटी इलायची, कमल गट्टा, पूजा की सुपारी आदि प्रासुक जल से धो लें)| ११. अर्घ्य ( ऊपरोक्त आठों द्रव्यों के कुछ अंशों का मिश्रण)| १२. जाप्य-माला | १३.एक छन्ना शुद्धता बनाये रखने के लिए | १४.पूजा पुस्तक, स्वाध्याय ग्रन्थ आदि: जैन पूजा-साहित्य-ग्रन्थ भण्डार के दर्शन कर, कायोत्सर्ग–पूर्वक याचना कर इन्हें उठाएं व विनय पूर्वक पूजा-स्थल पर निर्जन्तु व सूखा स्थान देख कर रखें | द्रव्य-थाल सजाने की विधि दोनों कलशों में प्रासुक जल भरें, उन पर चन्दन-लेप से स्वास्तिक मांड कर चम्मच डाल कर द्रव्य-थाली में रखें | दाहिनी ओर रखे कलश में चन्दन लेप की कुछ बूँदें घोल दें, इनके दाहिनी ओर क्रमशः अक्षत पुंज, पुष्प पुंज, नैवेद्य, दीप, धूप एवं फल रखें और बीच में अर्घ्य-पुंज सजाएं| पूजा-थाल सजाने की विधि शुद्ध कपड़े से पोंछकर साफ की हुई थाली में बीचोंबीच चन्दन लेप से अनामिका उँगली से या लौंग से सिद्ध-शिला समेत स्वास्तिक (चित्रानुसार) मांडें| पोंछे हुए ठोने (आसन/ आसिका) में आठ पंखुड़ी वाला कमल पुष्प मांड कर स्वास्तिक के ऊपर वाले खाली स्थान में रखें, उसी के बराबर जल व चन्दन चढाने के लिए मंगल-चिह्न-रूप पुष्प मांड कर कटोरा रखें| (कहीं कहीं ठोने व कटोरे में भी स्वास्तिक अथवा ॐ/ओं/श्री मांडने का चलन है)| (जिनेन्द्र-प्रभु की पूजन ‘कमलासन’ पर विराजमान कर होती है (सिंहासन पर नहीं), ठोने पर कमल इसी भाव से मांडते हैं, तथा स्वास्तिक भगवान के निर्वाण-स्थान पर इंद्र द्वारा बनाया गया शाश्वत चिह्न है| हमारी द्रव्य व भाव पूजाओं की समस्त सामग्री इसी चिह्न पर चढाने के भाव करें)| जहाँ धूप खेने की परंपरा है, धूपायन (धुपाड़ा, वह पात्र जिसमें लकड़ी के अंगारे हों) भी रखते हैं| आज के समय में अग्नि के खतरों व प्रदूषण के विचार से, अग्नि में खेने के विकल्प के रूप में धूप को पूजन-थाली में या अलग पात्र में चढ़ाया जा रहा है| अग्निकायिक जीवों की रक्षा तो है ही, धूप की शुद्धता में संदेह के समाधान रूप में नारियल की छीलन, सफेदा के सूखे वृक्ष की छीलन, अथवा लौंग के चूरे का प्रयोग होता देखा जा रहा है| बाज़ार में मिलने वाली धूप का प्रयोग न करें| पूजा विधि १. पूजन-प्रतिज्ञा व स्वस्ति (मंगल) याचना: खड़े रह कर कायोत्सर्ग करें व विनय पाठ पढें। आगे पुस्तक में दिए क्रम से अनादि-मूल-मंत्र, चत्तारि दंडक,. अपवित्र: पवित्रो वा…. के मंद मधुर स्वर में गायन कर पुष्प चढ़ायें।क्रमश: पंचकल्याणक अर्घ्य, पंच-परमेष्ठी अर्घ्य, श्रीजिनसहस्रनाम अर्घ्य और जिनवाणी के अर्घ्य चढ़ायें । पूजन-प्रतिज्ञा पाठ पढ़ पुष्पांजलि करें। चौबीस तीर्थंकर स्वस्ति विधान (श्री वृषभो नः…),पुनः परम-ऋषि स्वस्ति विधान (नित्याप्रकम्पाद्….)पूरे पूरे पढ़ते जाएँ व स्वस्ति शब्द उच्चारण करते ही पुष्प चढाते जाएँ। २. पूजा प्रारंभ : जिस पूजनीय (मूल नायक, चौबीस तीर्थंकर आदि ) की पूजा करनी हो, कम से कम नौ अखंड पुष्प (केशरिया चावल अथवा लौंग) दोनों हथेलियों के बीच, बंद कमल के आकार में रख कर, आह्वानन-मन्त्र बोलते हुए आकाश से उन का आह्वान किया जाता है (पुकारा जाता है) ठोने में उन पुष्पों को स्थापन–मंत्र बोलते हुए चढाना उन के स्थापन (विराजने) का भाव देता है, और सन्निधिकरण-मंत्र बोलना उन्हें ह्रदय में बसाने का भाव देता है। तब ही अष्ट-द्रव्यों से पूजा आरम्भ होती है| (ये तीन मंत्र अष्टम विभक्ति में होते हैं, शेष द्रव्यों के अर्पण-मंत्र चतुर्थी विभक्ति में होते हैं | बोलते समय यहाँ विशेष सावधानी आवश्यक है)| नित्य-पूजन के नियम की पूर्ति के लिए सर्व प्रथम श्री जिनेन्द्र देव की, शास्त्रजी की, व गुरुवर (गणधर देव अथवा आचार्य-उपाध्याय-साधू ) की भक्ति पूर्वक पूजन अलग-अलग अथवा एक साथ समुच्चय-पूजा के रूप में की जाती है| समुच्चय पूजा हेतु अनेकों वैकल्पिक रचनाएं प्रचलन में हैं जैसे, प्रथम देव…..(द्यानत राय जी ), देव-शास्त्र-गुरु नमन करि….(सच्चिदानंदजी), केवल रवि …..(युगलजी), नव-देवता पूजा (आ. ज्ञानमती जी)| ३. अष्ट-द्रव्यों से पूजन: इस में क्रमशः जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप एवं फल आदि द्रव्यों के पद एक एक कर गाते हैं, व उसी द्रव्य का मंत्र बोल कर वह द्रव्य चढ़ाते हैं| इसी विधि से अर्घ्य भी चढाते हैं और पूजित पात्र की गुणमाल (जयमाला) गा कर पूर्णार्घ्य भी। तीर्थंकरों की पूजाओं में उन के पाँचों कल्याणकों के स्मरण-भाव से प्रत्येक के अर्घ्य भी चढ़ाये जाते हैं| प्रत्येक पूजा के अंत में आशीर्वाद-मंत्र पढ़ कर पूजित प्रभु के आशीर्वाद स्वरूप स्वयं पर पुष्प-क्षेपण किया जाता है| विभिन्न पूजाओं का क्रम हर स्थान एवं समय अनुसार भिन्न हो सकता है। अष्ट-द्रव्य चढाते हुए क्या भावना करें: प्रत्येक द्रव्य भगवान के समक्ष अर्पित करते हुए मन-रूपी सागर में निम्न प्रकार भक्ति की लहरें उठनी चाहिए अर्थात् भावना भानी चाहिए – जल चढ़ाते समय : - हे प्रभु! आपने जन्म, जरा एवं मरण समाप्त कर दिया है और संसार के सभी कष्टों से मुक्ति पायी है। अत: आप शीतल सागर हो एवं निर्मल ज्योति हो। मुझे भी संसार में बार-बार न आना पड़े अत: जन्म-जरा-मृत्यु के विनाश हेतु मैं आपको जल चढ़ाता हूँ। चन्दन चढ़ाते समय : - हे प्रभु! संसार के सभी प्राणी तरह-तरह के कष्टों से दु:खी हैं। आपने इन सबको समूल नष्ट कर दिया है। मेरा भी चिन्ताओं का ताप और इच्छा रूपी दाह समाप्त हो जाय। इसी भावना को लेकर आप के समक्ष आया हूँ और दाह विनाशक चन्दन लाया हूँ कि चन्दन चढ़ाने से मेरा भी संसार का दाह और ताप समाप्त हो जाए। अक्षत चढ़ाते समय : - हे प्रभु! आपने संसार की सब व्याकुलताएँ एवं मोह को नष्ट कर अक्षय पद प्राप्त किया है। मुझे भी अक्षय पद प्राप्त हो अत: मैं आपको समर्पण करने ‘अक्षत’ लाया हूँ। मैं निवेदन करता हूँ जिस तरह रागरूपी छिलका चावल से अलग हो गया है और यह दुबारा अंकुरित नहीं हो सकता है, अर्थात् इसकी आत्मा को अक्षय पद की प्राप्ति हो गर्इ है। उसी प्रकार मेरी आत्मा से कर्मों का भार क्षय हो जाए और मुझे भी अक्षय पद प्राप्त हो जाए। इसी भावना से मैं अक्षत समर्पित कर रहा हूँ। पुष्प चढ़ाते समय : - हे काम विजयी प्रभु! आपने संसारी आकर्षणों पर विजय प्राप्त कर ली है, अर्थात् कामादिक सांसारिकता को जीत लिया है। जिस तरह पुष्प पर आकर्षण होता है और आकर्षण से तितली और भोंरे उस पर बैठकर अपनी जान गँवाते हैं। उसी प्रकार मैं काम-वासना की ओर आकर्षित होकर दु:खी हूँ। अत: काम-बाणों के विनाशन हेतु मैं आपको पुष्प अर्पित करता हूँ कि मैं भी आपकी तरह इसको जीत सकूँ और मोक्षमार्ग पर बढ़ सकूँ। नैवेद्य चढ़ाते समय : – हे क्षुधा विजयी! आपने भूख के रोग को समाप्त कर दिया है, भूख को शांत कर लिया है| मैं भी इस क्षुधा रोग से पीड़ित हूँ। अनादिकाल से लगे इस क्षुधारोग को नष्ट करने की इच्छा से यह क्षुधा निवारक सुन्दर नैवेद्य आपको समर्पित करता हूँ, मेरा क्षुधा रोग सदा के लिए शांत हो जाये। दीप चढ़ाते समय : - हे प्रभु! आपने अपने आंतरिक अज्ञान मोह अंधकार का नाश कर दिया है। अत: आप अतुल तेजयुक्त हो गए हैं। यह प्रकाश मुझे भी प्राप्त हो, ताकि मैं अपने आपको जान सकूँ, मोह अंधकार का नाश कर सकूँ। अत: मैं लौकिक उजाला करने का प्रतीक यह दीपक आपके समक्ष समर्पित कर रहा हूँ कि मुझे भी मुक्ति पथ मिले एवं मोह अंधकार का नाश हो। धूप चढ़ाते समय : - हे प्रभु! आपने कर्म शत्रुओं को अपने तप के द्वारा नष्ट कर दिया है। मैं आपकी शरण आया हूँ कि मेरे कर्म कलंक जल जायें। अत: धूप चढ़ाने आया हूँ कि मेरे भी आठों कर्म भक्ति-धूप की ज्वाला से नष्ट हो जायें। फल चढ़ाते समय : - हे प्रभु! आपने अपने लक्ष्य परम शांति को प्राप्त कर लिया है। अविनाशी मुक्तिरूपी फल को प्राप्त कर आप तो अपने स्वाद में मग्न हो चुके हैं। आपने जिस फल को अपने पुरुषार्थ के बल से प्राप्त कर लिया है। उसी फल की प्राप्ति के लिए यह लौकिक फल आपके चरणों में चढ़ाने आया हूँ। मुझे मुक्ति फल प्राप्त हो जाय यही आपसे विनती है। अन्त में, अर्घ्य चढ़ाते समय : - हे प्रभु! आप अनर्घ्य-पद विभूषित, वीतराग विज्ञानी केवली भगवान हैं। आप जैसा अनर्घ्य पद मुझे मेरे पुरुषार्थ से पैदा हो जाए, इसी भावना से यह पुनीत अर्घ्य आपके चरणों में समर्पित कर रहा हूँ। प्रत्येक द्रव्य चढ़ाते समय जो भाव बताए हैं, उन ही भावों से पूजन करें तो निश्चित ही भक्त से भगवान बन जाएंगे, संसारी से मुक्त बन जाऐंगे। पूजा वीतराग देव के लिए नहीं बल्कि अपनी निराकुलता प्राप्ति के लिए होती है। भगवान कर्ता या दाता नहीं है, उनके गुणों में अनुराग-भक्ति से ही सब कार्य सिद्ध होते हैं, परन्तु भक्ति के प्रवाह में भी मांगना उचित नहीं है। देव शास्त्र गुरु पूजते, सब कुछ पूरण होय। मनवाँछित सब कुछ मिले, श्रावक जानो सोय।। ४. पूजन-क्रिया समाप्ति – यह, समुच्चय महार्घ्य चढ़ा कर, शान्तिपाठ, कायोत्सर्ग और विसर्जन-पाठ गायन से होती है। पूजा-विसर्जन क्रिया ठोने पर अखंड पुष्प क्षेपण से होती है। इसके उपरान्त ठोने में पूजित जिनवर के चरण-चिह्न-प्रतीक पुष्पों के अभिषेक-भाव से किंचित जलधारा करते हैं जिस से ठोने का मांडना विलीन हो जाता है और यह जल गंधोदक के रूप में ग्रहण किया जाता है। वेदी की तीन प्रदक्षिणा देने के उपरांत पञ्च –परमेष्ठी आरती की जाती है| समय की उपलब्धता ध्यान में रख मूल नायक आदि की आरती भी की जाती है| ५. पूजा-पुस्तक वापसी - विनय सहित पूरी पुस्तक में फंसे चावल आदि को अच्छी तरह से झाड़ लें, पुस्तक नम हो गई हो तो कुछ देर धूप/हवा में रख दें, फट गई हो तो मरम्मत कर दें; फिर ग्रन्थ भंडार में उस के निश्चित क्रम-स्थान पर विनय सहित वापस रखें और कायोत्सर्ग कर भंडार के पट बंद करें| चावल आदि के दाने पड़े रह जाने से पूजा पुस्तकों/भंडार में जीवाणु व चूहों की संभावना होती है| अतः भली भांति देख भाल कर सावधानी से शुद्ध पूजा पुस्तकें उठाएं एवं रखें| असावधानी वश, उन में कभी कभी अशुद्ध पुस्तकादि अन्य साहित्य भी रखे देखने में आते हैं| भंडार की नियमित जांच व झाड-पोंछ भी पूजन का अंग है| घर से पूजन के लिए आते समय पूजा सामग्री के साथ एक पेन और डायरी अवश्य लाएं, अभिषेक-पूजन क्रिया के दौरान उपजे प्रश्न/शंका व सुझाव नोट कर, समाधान का उद्यम करना परिणाम-विशुद्धि वर्धक होता है|
  15. ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वंवं मंमं हंहं संसं तंतं पंपं झंझं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय-द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ओं ह्रीं क्रों अस्माकं पापं खण्डय खण्डय जहि-जहि दह-दह पच-पच पाचय पाचय ओं नमो अर्हन् झं झ्वीं क्ष्वीं हं सं झं वं ह्व: प: ह: क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्ष: क्ष्वीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रैं ह्रों ह्रौं ह्रं ह्र: द्रां द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठ: ठ: अस्माकं ----------- श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शान्तिरस्तु कान्तिरस्तु कल्याणमस्तु स्वाहा। एवं अस्माकं ------------ कार्यसिद्ध्यर्थं सर्वविघ्न-निवारणार्थं श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञपरमेष्ठि-परमपवित्राय नमो नम:। अस्माकं ----------------- श्री तीर्थंकरभक्ति- प्रसादात् सद्धर्म-श्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु, स्वशिष्य-परशिष्यवर्गा: प्रसीदन्तु न: | ओं वृषभादय: श्रीवर्द्धमानपर्यन्ताश्चतुर्विंशत्यर्हन्तो भगवन्त: सर्वज्ञा: परममंगल (धारागत तीर्थंकर का नाम) नामधेया: अस्माकं इहामुत्र च सिद्धिं तन्वन्तु, सद्धर्म कार्येषु च इहामुत्र च सिद्धिं प्रयच्छन्तु न: | ओं नमोऽर्हते भगवते श्रीमते श्रीमत्पार्श्वतीर्थंकराय श्रीमद्रत्नत्रयरूपाय दिव्यतेजोमूर्त्तये प्रभामण्डलमण्डिताय द्वादशगणसहिताय अनन्तचतुष्टयसहिताय समवसरण- केवलज्ञान-लक्ष्मीशोभिताय अष्टादश-दोषरहिताय षट्-चत्वारिंशद्-गुणसंयुक्ताय परम-पवित्राय सम्यग्ज्ञानाय स्वयंभुवे सिद्धाय बुद्धाय परमात्मने परमसुखाय त्रैलोक्यमहिताय अनंत-संसार-चक्रप्रमर्दनाय अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखास्पदाय त्रैलोक्य वशं कराय सत्यज्ञानाय सत्यब्रह्मणे उपसर्ग-विनाशनाय घातिकर्म क्षयं कराय अजराय अभवाय ----------------- नामधेयानां व्याधिं घ्नन्तु। श्री-जिनाभिषेकपूजन-प्रसादात् ----------------- सेवकानां सर्वदोष-रोग-शोक-भय-पीड़ा-विनाशनं भवतु | ओं नमोऽर्हते भगवते प्रक्षीणाशेष-दोष-कल्मषाय दिव्य-तेजोमूर्तये श्रीशान्तिनाथाय शान्तिकराय सर्व-विघ्न-प्रणाशनाय सर्वरोगापमृत्यु-विनाशनाय सर्वपरकृत क्षुद्रोपद्रव-विनाशनाय सर्वारिष्ट-शान्ति-कराय ओं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा नम: मम सर्वविघ्न-शान्तिं कुरु कुरु तुष्टिं-पुष्टिं कुरु-कुरु स्वाहा। मम कामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! रतिकामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! बलिकामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! क्रोधं पापं बैरं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! अग्नि-वायुभयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वशत्रु-विघ्नं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वोपसर्गं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व- विघ्नं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व राज्य-भयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वचौर-दुष्टभयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व-सर्प-वृश्चिक-सिंहादिभयंछिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व ग्रह -भयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वदोषं व्याधिं डामरं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वपरमंत्रं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वात्मघातं परघातं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व शूलरोगं कुक्षिरोगं अक्षिरोगं शिरोरोगं ज्वररोगं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वनरमारिं छिन्धि छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वगजाश्व-गो-महिष-अज-मारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व शस्य-धान्य-वृक्ष-लता-गुल्म-पत्र-पुष्प-फलमारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वराष्ट्रमारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वक्रूर-वेताल-शाकिनी-डाकिनी-भयानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व वेदनीयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वमोहनीयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वापस्मारिं छिन्धि -छिन्धि भिन्धि भिन्धि! अस्माकम् अशुभकर्म-जनित-दु:खानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! दुष्टजन-कृतान् मंत्र-तंत्र-दृष्टि-मुष्टि-छल-छिद्रदोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वदुष्ट-देव-दानव-वीर-नर-नाहर-सिंह-योगिनी-कृत-दोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्व अष्टकुली-नागजनित-विषभयानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वस्थावर-जंगम-वृश्चिक-सर्पादिकृत-दोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! सर्वसिंह-अष्टापदादि कृतदोषान् छिन्धि छिन्धिभिन्धि भिन्धि! परशत्रुकृत-मारणोच्चाटन-विद्वेषण -मोहन-वशीकरणादि दोषान् छिन्धि–छिन्धि भिन्धि-भिन्धि! ओं ह्रीं अस्मभ्यं चक्र-विक्रम-सत्त्व-तेजो-बल -शौर्य-शान्ती: पूरय पूरय! सर्वजीवानंदनं जनानंदनं भव्यानंदनंगोकुलानंदनं च कुरु कुरु! सर्व राजानंदनं कुरु कुरु! सर्वग्राम-नगर खेडा-कर्वट-मटंब-द्रोणमुख-संवाहनानंदनं कुरु-कुरु! सर्वानंदनं कुरु-कुरु स्वाहा! यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधि-व्यसन-वर्जितम् | अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधीयते || श्रीशान्तिरस्तु ! <तथास्तु!> शिवमस्तु ! <तथास्तु!> जयोस्तु! <तथास्तु!> नित्यमारोग्यमस्तु! <तथास्तु!> अस्माकं पुष्टिरस्तु ! <तथास्तु!> समृद्धिरस्तु ! < तथास्तु!>कल्याणमस्तु ! <तथास्तु!> सुखमस्तु ! <तथास्तु!> अभिवृद्धिरस्तु ! <तथास्तु!> दीर्घायुरस्तु ! <तथास्तु!> कुलगोत्र धनानि सदा सन्तु ! <तथास्तु!> सद्धर्म-श्री-बल-आयु:- आरोग्य-ऐश्वर्य-अभिवृद्धिरस्तु | ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अ सि आ उ सा अनाहतविद्यायै णमो अरिहंताणं ह्रौं सर्व शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा | आयुर्वल्ली विलासं सकलसुखफलैर्द्राघयित्वाऽऽश्वनल्पम् | धीरं वीरं शरीरं निरुपमुप-नयत्वातनोत्वच्छकीर्तिम्।। सिद्धिं वृद्धिं समृद्धिं प्रथयतु तरणि: स्फूर्यदुच्चै: प्रतापं। कान्तिं शान्तिं समाधिं वितरतु भवतामुत्तमा शान्तिधारा।। सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र-सामान्य-तपोधनानाम्। देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र!! || इति वृहत्-शांतिधारा ||
  16. शांतिधारा ॐ नमः सिद्धेभ्यः। श्री वीतरागाय नमः। ॐ नमोअर्हते भगवते श्रीमते पार्श्वतीर्थंकराय द्वादशगणपरिवेष्टिताय, शुक्लध्यानपवित्राय, सर्वज्ञाय, स्वयंभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने,परमसुखाय, त्रैलोक्यमहीव्याप्ताय, अनन्तसंसारचक्रपरिमर्दनाय, अनन्तदर्शनाय, अनन्तज्ञानाय, अनन्तवीर्याय, अनन्तसुखाय, सिद्धाय, बुद्धाय, त्रैलोक्यवशघड्ढराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्रह्मणे,ध्रणेन्द्रफणामण्डलमण्डिताय, ट्टष्यार्यिका-श्रावक-श्राविकाप्रमुख-चतुस्संघोपसर्गविनाशनाय, घातिकर्मविनाशकाय, अघातिकर्मविनाशनाय, अपवायं छिंद छिंद, भिंद भिंद। मृत्युं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। अतिकामं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। रतिकामं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। क्रोध्ं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। अग्निं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वशत्रु छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वोपसर्ग छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वविघ्नं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वभयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वराजभयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वचौरभयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वदुष्टभयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वमृगभयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वमात्मचक्रभयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वपरमंत्रां छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वशूलरोगं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वक्षयरोगं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वकुष्ठरोगं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वक्रूररोगं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वनरमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वगजमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वाश्वमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वगोमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वमहिषमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वधन्यमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्ववृक्षमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वगलमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वपत्रमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वपुष्पमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वफलमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वराष्ट्रमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वदेशमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वविषमारीं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्ववेतालशाकिनीभयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्ववेदनीयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वमोहनीयं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। सर्वकर्माष्टकं छिन्द छिन्द भिन्द भिन्द। ॐ सुदर्शन-महाराज-चक्रविक्रमतेजोबलशौर्यवीर्यशांतिं कुरू कुरू। सर्वजनानन्दनं कुरू कुरू। सर्व भव्यानन्दनं कुरू कुरू। सर्वगोकुलानन्दनं कुरू कुरू। सर्वग्रामनगरखेटकर्वटमटंबपत्तनद्रोणमुखसंवाहानंदनं कुरू कुरू। सर्वलोकानन्दनं कुरू कुरू। सर्व देशानन्दनं कुरू कुरू। सर्व यजमानानन्दनं कुरू कुरू। सर्व दुःखं, हन हन, दह दह, पच पच, कुट कुट, शीघ्रं शीघ्रं। यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याध्व्र्यिसनवर्जितं। अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधीयते।। शिवमस्तु। कुलगोत्राध्नधन्यं सदास्तु। चन्द्रप्रभ-वासुपूज्यमल्लिवद्र्धमान पुष्पदन्त शीतल-मुनिसुव्रत-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ इत्येभ्यो नमः। (इत्यनेन मन्त्रोण नवग्रहशान्त्यर्थं गन्धेदकधरावर्षणम्।।) (गन्धोदकवन्दनमंत्र:) निर्मलं निर्मलीकारं, पवित्रां पापनाशनम्। जिनगन्धोदकं वन्दे कर्माष्टकनिवारणम्।। ॐ नमोअर्हते भगवते श्रीमते प्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये नमः श्री शांतिनाथाय शांतिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्नविनाशनाय सर्वरोगोपसर्गापमृत्युविनाशनाय सर्वपरकृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वक्षामरडामरविनाशनाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्रः असिआउसा अर्हं नमः सर्वशांति कुरू कुरू वषट् स्वाहा। ।इति महाशांतिमंत्र।
  17. दुरावनम्र-सुरनाथ-किरीट-कोटि- संलग्न-रत्न-किरण-च्छवि-धुसराध्रिम । प्रस्वेद-ताप-मल-मुक्तमपि-प्रकृष्टै- र्भक्तया जलै-र्जिनपर्ति बहुधाभिषेच्चे ।। मंत्र-१: ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं झं झं इवीं इवीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय ॐ नमो अर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनाभिषेचयामीस्वाहा । मंत्र-२: ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं क्रपालसंतम वृषभादि वर्धमानांत-चतुर्विंशति तीर्थंकर-परमदेवं आध्यानाम आध्ये जम्बुदीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे देशे.... नाम नगरे एतद .... जिन चैत्यालये वीर निर्वाणसंवत ...... मासोत्तम-मासे ...... मासे . पक्षे........ तिथौ ......... वासरे प्रशस्त ग्रहलग्न होरायं मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्रविकानाम सकलकर्म-क्षयार्थ जलेनाभिषेकं करोमि स्वाहा । इति जलस्नपनम्
  18. मंगल मूर्ति परम पद, पंच धरौं नित ध्यान | हरो अमंगल विश्व का, मंगलमय भगवान |१| मंगल जिनवर पद नमौं, मंगल अरिहन्त देव | मंगलकारी सिद्ध पद, सो वन्दौं स्वयमेव |२| मंगल आचारज मुनि, मंगल गुरु उवझाय | सर्व साधु मंगल करो, वन्दौं मन वच काय |३| मंगल सरस्वती मातका, मंगल जिनवर धर्म | मंगल मय मंगल करो, हरो असाता कर्म |४| या विधि मंगल से सदा, जग में मंगल होत | मंगल नाथूराम यह, भव सागर दृढ़ पोत |५| Article actions Edit Report Article Revisions
  19. पणविवि पंच परमगुरु, गुरुजिन शासनो | सकल-सिद्धि-दातार सु विघन-विनाशनो || सारद अरु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनो | मंगल कर चउ संघहि पाप-पणासनो || पापहिं पणासन, गुणहिं गरुवा, दोष अष्टादश-रहिउ | धरि ध्यान कर्म विनाश केवलज्ञान अविचल जिन लहिउ || प्रभु पञ्चकल्याणक विराजित, सकल सुर नर ध्यावहीं | त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं |1| (1) गर्भ कल्याणक जाके गर्भ कल्याणक धनपति आइयो | अवधिज्ञान-परवान सु इंद्र पठाइयो || रचि नव बारह योजन, नयरि सुहावनी | कनक-रयण-मणि-मंडित, मन्दिर अति बानी || अति बनी पौरि पगारि परिखा, भुवन उपवन सोहये | नरनारि सुन्दर चतुर भेख सु, देख जनमन मोहये || तहं जनकगृह छहमास प्रथमहिं, रतन-धारा बरसियो | पुनि रुचिकवासिनि जननि-सेवा करहिं सबविधि हरसियो |2| सुरकुंजर-सम कुंजर, धवल धुरंधरो | केहरि-केशर-शोभित, नख-शिख सुन्दरो || कमला-कलश-न्हवन, दुइ दाम सुहावनी | रवि-शशि-मंडल मधुर, मीन जुग पावनी || पावनि कनक-घट-जुगम पूरण, कमल-कलित सरोवरो | कल्लोल माला कुलित सागर, सिंहपीठ मनोहरो || रमणिक अमरविमान फणिपति-भवन भुवि छवि छाजई | रुचि रतनराशि दिपंत-दहन सु तेजपुंज विराजई |3| ये सखि सोलह सुपने सूती सयनही | देखे माय मनोहर, पश्चिम रयनही || उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधि प्रकाशियो | त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहँ भासियो || भासियो फल तिहिं चिंत दम्पति परम आनन्दित भये | छहमास, परि नवमास पुनि तहं, रयन दिन सुखसों गये || गर्भावतार महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं | भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |4| (2) जन्म कल्याणक मति-श्रुत-अवधि-विराजित, जिन जब जनमियो | तिहुंलोक भयो छोभित, सुरगन भरमियो || कल्पवासि घर घंट अनाहद वज्जियो | ज्योतिष-घर हरिनाद सहज गलगज्जियो || गज्जियो सहजहिं संख भावन, भुवन शब्द सुहावने | व्यंतर-निलय पटु पटहिं बज्जिय, कहत महिमा क्यों बने || कंपित सुरासन अवधिबल जिन-जनम निहचै जानियो | धनराज तब गजराज मायामयी निरमय आनियो |5| योजन लाख गयंद, वदन सौ निरमये | वदन वदन वसुदंत, दंत सर संठये || सर-सर सौ-पनवीस, कमलिनी छाजहीं | कमलिनि कमलिनि कमल पचीस विराजहीं || राजहीं कमलिनि कमलऽठोतर सौ मनोहर दल बने | दल दलहिं अपछर नटहिं नवरस, हाव भाव सुहावने || मणि कनक-किंकणि वर विचित्र सु अमर-मण्डप सोहये | घन घंट चँवर ध्वजा पताका, देखि त्रिभुवन मोहये |6| तिहिं करि हरि चढ़ि आयउ सुर-परिवारियो | पुरहिं प्रदच्छन दे त्रय, जिन जयकारियो || गुप्त जाय जिन-जननिहिं, सुखनिद्रा रची | मायामई शिशु राखि तौ, जिन आन्यो शची || आन्यो शची जिनरुप निरखत, नयन तृपति न हूजिये | तब परम हरषित ह्रदय हरिने सहस-लोचन पूजिये || पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इन्द्र, उछंग धरि प्रभु लीनऊ | ईशान इन्द्र सुचंद्र छवि सिर, छत्र प्रभु के दीनऊ |7| सनतकुमार महेन्द्र चमर दुइ ढारहीं | शेष शक्र जयकार शबद उच्चारहीं || उच्छव-सहित चतुरविधि हरषित भये | योजन सहस निन्यानवै गगन उलंघि गये || लंघि गये सुरगिरि जहां पांडुक वन विचित्र विराजहीं | पांडुक-शिला तहँ अर्द्धचन्द्र समान, मणि छवि छाजहीं || जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु ऊंची घना | वर अष्ट-मंगल कनक कलशनि सिंहपीठ सुहावनी |8| रचि मणिमंडप शोभित, मध्य सिंहासनो | थाप्यो पूरब मुख तहँ प्रभु कमलासनो || बाजहिं ताल मृदंग, वेणु वीणा घने | दुंदुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जु बाजने || बाजने बाजहिं शची सब मिलि, धवल मंगल गावहीं | पुनि करहिं नृत्य सुरांगना, सब देव कौतुक ध्यावहीं || भरि क्षीरसागर जल जु हाथहिं हाथ सुरगन ल्यावहीं | सौधर्म अरु ईशान इन्द्र सुकलश ले प्रभु न्हावहीं |9| वदन उदर अवगाह, कलशगत जानिये | एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये || सहस-अठोतर कलसा, प्रभु के सिर ढरे | पुनि सिंगार प्रमुख, आचार सबै करे || करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव, आनि पुनि मातहिं दयो | धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गयो || जन्माभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं | भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |10| (3) तप कल्याणक श्रम-जल-रहित शरीर, सदा सब मल-रहिउ | छीर वरन वर रुधिर, प्रथम आकृति लहिउ || प्रथम सार संहनन, सरुप विराजहिं | सहज सुगंध सुलच्छन, मंडित छाजहीं || छाजहीं अतुल बल परम प्रिय हित, मधुर वचन सुहावने | दस सहज अतिशय सुभग मूरति, बाललील कहावने || आबाल काल त्रिलोकपति मन-रुचिर उचित जु नित नये | अमरोपनीत पुनीत अनुपम सकल भोग विभोगये |11| भव-तन-भोग-विरत्त, कदाचित चिंतए | धन-यौवन पिय पुत्त, कलित्त अनित्तए || कोउ न सरन मरन दिन, दुख चहुंगति भरयो | सुखदुख एकहि भोगत, जिय विधि-वसि परयो || परयो विधि-वस आन चेतन, आन जड़ जु कलेवरो | तन असुचि परतैं होय आस्रव परिहरे तैं संवरो || निरजरा तपबल होय समकित बिन सदा त्रिभुवन भ्रम्यो | दुर्लभ विवेक बिना न कबहू, परम धरम विषैं रम्यो |12| ये प्रभु बारह पावन भावन भाइया | लौकांकित वर देव नियोगी आइया || कुसुमांजलि दे चरन कमल सिर नाइया | स्वयंबुद्ध प्रभु थुतिकर तिन समुझाइया || समुझाय प्रभु को गये निजपुर, पुनि महोच्छव हरि कियो | रुचि रुचिर चित्र विचित्र सिविका कर सुनन्दन वन लियो || तहँ पंचमुट्ठी लोंच कीनो, प्रथम सिद्धनि नुति करी | मंडिय महाव्रत पंच दुद्धर सकल परिग्रह परिहरी |13| मणि-मय-भाजन केश परिट्ठिय सुरपती | छीर-समुद्र-जल खिप करि गयो अमरावती || तप-संयम-बल प्रभु को मनपरजय भयो | मौन सहित तप करत काल कछु तहं गयो || गयो कुछ तहँ काल तपबल, रिद्धि वसुविधि सिद्धिया | जसु धर्म ध्यान-बलेन खयगय, सप्त प्रकृति प्रसिद्धिया || खिपि सातवें गुण जतन बिन तहँ, तीन प्रकृति जु बुधिबढ़िउ | करि करण तीन प्रथम सुकल-बल, खिपक-सेनी प्रभु चढ़िउ |14| प्रकृति छतीस नवें गुण-थान विनासिया | दसवें सूक्षम लोभ प्रकृति तहँ नासिया || सुकल ध्यानपद दुजो पुनि प्रभु पूरियो | बारहवें-गुण सोरह प्रकृति जु चूरियो || चूरियो त्रेसठ प्रकृति इह विधि, घातिया-करमनि तणी | तप कियो ध्यान-पर्यन्त बारह-विधि त्रिलोक-सिरोमणी || निःक्रमण-कल्याणक सु महिमा, सुनत सब सुख पावहीं | भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं |15| (4) ज्ञान कल्याणक तेरहवें गुणथान सयोगि जिनेसुरो | अनंत-चतुष्टय-मंडित, भयो परमेसुरो || समवसरन तब धनपति बहु-विधि निरमयो | आगम-जुगति प्रमान, गगन-तल परि ठयो || परि ठयो चित्र विचित्र मणिमय, सभा-मण्डप सोहये | तिहि मध्य बारह बने कोठे, कनक सुरनर मोहये || मुनि कलप-वासिनि अरजिका, पुन ज्योति-भौमि-व्यन्तर-तिया | पुनि भवन-व्यंतर नभग सुर नर पशुनि कोठे बैठिया |16| मध्य प्रदेशहिं तीन मणिपीठ तहां बने | गंधकुटी सिंहासन कमल सुहावने || तीन छत्र सिर सोहत त्रिभुवन मोहए | अन्तरीच्छ कमलासन प्रभुतन सोहए || सोहये चौंसठ चमर ढुरत, अशोक-तरु-तल छाजए | पुनि दिव्यधुनि प्रति-सबद-जुत तहँ, देव दुंदुभि बाजए || सुर-पुहुपवृष्टि सुप्रभा-मण्डल, कोटि रवि छवि छाजए | इमि अष्ट अनुपम प्रातिहारज, वर विभुति विराजये |17| दुइसौ जोजनमान सुभिच्छ चहूँ दिसी | गगन-गमन अरु प्राणी-वध नहिं अह-निसी | निरुपसर्ग निराहार, सदा जगदीश ए | आनन चार चहुंदिसि सोभित दीसए || दीसय असेस विसेस विद्या, विभव वर ईसुरपना | छाया-विवर्जित शुद्ध स्फटिक समान तन प्रभु का बना || नहिं नयन-पलक-पतन कदाचित् केश नख सम छाजहीं | ये घातिया छय-जनित अतिशय, दस विचित्र विराजहीं |18| सकल अरथमय मागधि-भाषा जानिए | सकल जीवगत मैत्री-भाव बखानिए || सकल रितुज फलफूल वनस्पति मन हरे | दरपन-सम मनि अवनि पवन-गति अनुसरे || अनुसरे, परमानंद सबको, नारि नर जे सेवता | जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं, जहां मारुत देवता || पुन करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी | पद-कमल-तर सुर खिपहिं कमलसु धरणि ससि-सोभा बनी |19| अमल-गगन-तल अरु दिसि तहँ अनुहारहीं | चतुर-निकाय देवगण जय जयकारहीं || धर्मचक्र चलै आगैं रवि जहँ लाजहीं | पुनि भृंगारप्रमुख, वसु मंगल राजहीं || राजहीं चौदह चारु अतिशय, देव रचित सुहावने | जिनराज केवलज्ञान महिमा, अवर कहत कहा बने | तब इन्द्र आय कियो महोच्छव, सभा सोभा अति बनी || धर्मोपदेश दियो तहां, उच्चरिय वानी जिनतनी |20| क्षुधा तृषा अरु राग रोष असुहावने | जन्म जरा अरु मरण त्रिदोष भयावने || रोग सोग भय विस्मय अरु निन्द्रा घनी | खेद स्वेद मद मोह अरति चिंता गनी || गनिए अठारह दोष तिनकारि रहित देव निरंजनो | नव परम केवललब्धि मंडिय सिव-रमनि-मनरंजनो || श्री ज्ञानकल्याणक सुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं | भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |21| (5) निर्वाण कल्याणक केवल दृष्टि चराचर, देख्यो जारिसो | (जारिसो जैसा) भव्यनि प्रति उपदेश्यो, जिनवर तारिसो || (तारिसो तैसा) भव-भय-भीत भविकजन, सरणै आइया | रत्नत्रय-लच्छन सिवपंथ लगाइया || लगाइया पंथ जु भव्य पुनि प्रभु तृतिय सुकल जु पूरियो | तजि तेरवों गुणथान जोग अजोगपथ पग धारियो || पुनि चौदहें चौथे सुकल बल बहत्तर तेरह हती | इमि घाति वसुविध कर्म पहुंच्यो, समय में पंचम गती |22| लोकशिखर तनुवात, वलयमहं संठियो | धर्मद्रव्य बिन गमन न, जिहिं आगे कियो || मयन-रहित मूषोदर, अंबर जारिसो | किमपि हीन निज तनुतैं, भयो प्रभु तारिसो || तारिसो पर्जय नित्य अविचल, अर्थपर्जय छनछयी | निश्चयनयेन अनंतगुण, विवहार नय वसु-गुणमयी || वस्तुस्वभाव विभावविरहित, सुद्ध परिणति परिणयो | चिद् रुप परमानंद मंदिर, सिद्ध परमातम भयो |23| तनु-परमाणु दामिनि-वत, सब खिर गए | रहे शेष नखकेश-रुप, जे परिणए || तब हरिप्रमुख चतुरविधि, सुरगण शुभ सच्यो | मायामयि नखकेश-रहित, जिनतनु रच्यो || रचि अगर चंदन प्रमुख परिमल, द्रव्य जिन जयकारियो | पदपतित अगनिकुमार मुकुटानल, सुविध संस्कारियो || निर्वाण कल्याणक सु महिमा, सुनत सब सुख पावहीं | भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |24| मैं मतिहीन भगतिवस, भावन भाइया | मंगल गीतप्रबंध, सु जिनगुण गाइया || जो नर सुनहिं बखानहिं सुर धरि गावहीं | मनवांछित फल सो नर, निहचै पावहीं || पावहीं आठों सिद्धि नवनिध, मन प्रतीत जो लावहीं | भ्रम भाव छूटैं सकल मनके निज स्वरुप लखावहीं || पुनि हरहिं पातक टरहिं विघन सु होंहिं मंगल नित नये | भणि रुपचन्द त्रिलोकपति, जिनदेव चउ-संघहिं जये |25|
  20. (दोहा) परिणामों की स्वच्छता, के निमित्त जिनबिम्ब | इसीलिए मैं निरखता, इनमें निज-प्रतिबिम्ब || पंच-प्रभू के चरण में, वंदन करूँ त्रिकाल | निर्मल-जल से कर रहा, प्रतिमा का प्रक्षाल || अथ पौर्वाह्रिक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा- स्तवन वंदनासमेतं श्री पंचमहागुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गं करोम्यहम् । (नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ें) (छप्पय) तीन लोक के कृत्रिम औ अकृत्रिम सारे | जिनबिम्बों को नित प्रति अगणित नमन हमारे || श्रीजिनवर की अन्तर्मुख छवि उर में धारूँ | जिन में निज का, निज में जिन-प्रतिबिम्ब निहारूँ || मैं करूँ आज संकल्प शुभ, जिन-प्रतिमा प्रक्षाल का | यह भाव-सुमन अर्पण करूँ, फल चाहूँ गुणमाल का || ओं ह्रीं प्रक्षाल-प्रतिज्ञायै पुष्पांजलिं क्षिपामि। (प्रक्षाल की प्रतिज्ञा हेतु पुष्प क्षेपण करें) (रोला) अंतरंग बहिरंग सुलक्ष्मी से जो शोभित | जिनकी मंगलवाणी पर है त्रिभुवन मोहित || श्रीजिनवर सेवा से क्षय मोहादि-विपत्ति | हे जिन! ‘श्री’ लिख, पाऊँगा निज-गुण सम्पत्ति || (अभिषेक-थाल की चौकी पर केशर से ‘श्री’ लिखें) (दोहा) अंतर्मुख मुद्रा सहित, शोभित श्री जिनराज | प्रतिमा प्रक्षालन करूँ, धरूँ पीठ यह आज || ओं ह्रीं श्री स्नपन-पीठ स्थापनं करोमि। (प्रक्षाल हेतु थाल स्थापित करें) (रोला) भक्ति-रत्न से जड़ित आज मंगल सिंहासन | भेद-ज्ञान जल से क्षालित भावों का आसन || स्वागत है जिनराज तुम्हारा सिंहासन पर | हे जिनदेव! पधारो श्रद्धा के आसन पर || ओं ह्रीं श्री धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन्निह सिंहासने तिष्ठ! तिष्ठ! (प्रदक्षिणा देकर अभिषेक-थाल में जिनबिम्ब विराजमान करें) क्षीरोदधि के जल से भरे कलश ले आया | दृग-सुख वीरज ज्ञान स्वरूपी आतम पाया || मंगल-कलश विराजित करता हूँ जिनराजा | परिणामों के प्रक्षालन से सुधरें काजा || ओं ह्रीं अर्हं कलश-स्थापनं करोमि। (चारों कोनों में निर्मल जल से भरे कलश स्थापित करें, व स्नपन-पीठ स्थित जिन-प्रतिमा को अर्घ्य चढ़ायें) जल-फल आठों द्रव्य मिलाकर अर्घ्य बनाया | अष्ट-अंग-युत मानो सम्यग्दर्शन पाया || श्रीजिनवर के चरणों में यह अर्घ्य समर्पित | करूँ आज रागादि विकारी-भाव विसर्जित || ओं ह्रीं श्री स्नपनपीठस्थिताय जिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । (चारों कोनों के इंद्र विनय सहित दोनों हाथों में जल कलश ले प्रतिमाजी के शिर पर धारा करते हुए गावें) मैं रागादि विभावों से कलुषित हे जिनवर | और आप परिपूर्ण वीतरागी हो प्रभुवर || कैसे हो प्रक्षाल जगत के अघ-क्षालक का | क्या दरिद्र होगा पालक! त्रिभुवन-पालक का || भक्ति-भाव के निर्मल जल से अघ-मल धोता | है किसका अभिषेक! भ्रान्त-चित खाता गोता || नाथ! भक्तिवश जिन-बिम्बों का करूँ न्हवन मैं | आज करूँ साक्षात् जिनेश्वर का पृच्छन मैं || (दोहा) क्षीरोदधि-सम नीर से करूँ बिम्ब प्रक्षाल | श्री जिनवर की भक्ति से जानूँ निज-पर चाल || तीर्थंकर का न्हवन शुभ सुरपति करें महान् | पंचमेरु भी हो गए महातीर्थ सुखदान || करता हूँ शुभ-भाव से प्रतिमा का अभिषेक | बचूँ शुभाशुभ भाव से यही कामना एक || ओं ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं कृपालसन्तं वृषभादिमहावीरपर्यन्तं चतुर्विंशति-तीर्थंकर-परमदेवम् आद्यानामाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे <….शुभे....> नाम्निनगरे मासानामुत्तमे <….शुभे....> मासे <….शुभे....> पक्षे <….शुभे....> दिने मुन्यार्यिकाश्रावकश्राविकाणां सकलकर्म – क्षयार्थं पवित्रतर-जलेन जिनमभिषेचयामि । (मास, पक्ष, दिन की जानकारी ना होने पर “शुभे” का प्रयोग करें) (चारों कलशों से अभिषेक करें, वादित्र-नाद करावें एवं जय-जय शब्दोच्चारण करें) (दोहा) जिन-संस्पर्शित नीर यह, गन्धोदक गुणखान | मस्तक पर धारूँ सदा, बनूँ स्वयं भगवान् || (गंधोदक केवल मस्तक पर लगायें, अन्य किसी अंग में लगाना आस्रव का कारण होने से वर्जित है) जल-फलादि वसु द्रव्य ले, मैं पूजूँ जिनराज | हुआ बिम्ब-अभिषेक अब, पाऊँ निज-पद-राज || ओं ह्रीं श्री अभिषेकांन्ते वृषभादिवीरान्तेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। श्री जिनवर का धवल-यश, त्रिभुवन में है व्याप्त | शांति करें मम चित्त में, हे! परमेश्वर आप्त || (पुष्पांजलि क्षेपण करें) (रोला) जिन-प्रतिमा पर अमृत सम जल-कण अतिशोभित | आत्म-गगन में गुण अनंत तारे भवि मोहित || हो अभेद का लक्ष्य भेद का करता वर्जन | शुद्ध वस्त्र से जल कण का करता परिमार्जन || (प्रतिमा को शुद्ध-वस्त्र से पोंछें) (दोहा) श्रीजिनवर की भक्ति से, दूर होय भव-भार | उर-सिंहासन थापिये, प्रिय चैतन्य-कुमार || (वेदिका-स्थित सिंहासन पर नया स्वस्तिक बना प्रतिमाजी को विराजित करें व निम्न पद गाकर अर्घ्य चढ़ायें) जल गन्धादिक द्रव्य से, पूजूँ श्री जिनराज | पूर्ण अर्घ्य अर्पित करूँ, पाऊँ चेतनराज || ओं ह्रीं श्री वेदिका-पीठस्थितजिनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
  21. माघनंदि मुनि कृत श्रीमन्नता-मर-शिरस्तट-रत्न-दीप्ति, तोयाव-भासि-चरणाम्बुज-युग्ममीशम् | अर्हन्त-मुन्नत-पद-प्रदमाभिनम्य, त्वन्मूर्तिषूद्य-दभिषेक-विधिं करिष्ये ||१|| अथ पौर्वाह्णिक/मध्याह्निक/अपराह्णिक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल-कर्म-क्षयार्थं भाव-पूजा-वन्दना-स्तव-समेतं श्रीपंचमहागुरुभक्तिपुरस्सरं कायोत्सर्गं करोम्यहम्। ( २७ श्वासोच्छवास पूर्वक नौ बार णमोकार मंत्र का ध्यान करें) या: कृत्रिमास्तदितरा: प्रतिमा जिनस्य, संस्नापयन्ति पुरुहूत-मुखादयस्ता:| सद्भाव-लब्धि-समयादि-निमित्त-योगात्, तत्रैव-मुज्ज्वल-धियां कुसुमं क्षिपामि ||२|| जन्मोत्सवादि-समयेषु यदीयकीर्ति, सेन्द्रा: सुराप्तमदवारणगा: स्तुवन्ति | तस्याग्रतो जिनपते: परया विशुद्ध्या, पुष्पांजलिं मलयजात-मुपाक्षिपेऽहम् ||३|| यह पढ़कर अभिषेक-थाल में पुष्पांजलि क्षेपण कर अभिषेक की प्रतिज्ञा करें।) ओं ह्रीं अभिषेक-प्रतिज्ञायां पुष्पांजलिं क्षिपामि। श्रीपीठ-क्लृप्ते विशदाक्षतौघै:, श्रीप्रस्तरे पूर्ण-शशांक-कल्पे | श्रीवर्तके चन्द्रमसीति-वर्तां, सत्यापयन्तीं श्रियमालिखामि ||४|| ओं ह्रीं अर्हं श्री-लेखनं करोमि। कनकादि-निभं कम्रं पावनं पुण्य-कारणम् | स्थापयामि परं पीठं जिनस्नापनाय भक्तित: ||५|| ओं ह्रीं श्री स्नपन-पीठ स्थापनं करोमि। भृंगार-चामर-सुदर्पण-पीठ-कुम्भ-, ताल-ध्वजा-तप-निवारक भूषिताग्रे | वर्धस्व-नन्द जय-पाठ-पदावलीभि:, कमलासने जिन भवंत-महं श्रयामि || वृषभादि-सुवीरांतान् जन्माप्तौ जिष्णुचर्चितान् | स्थापयाम्यभिषेकाय भक्त्या पीठे महोत्सवम् ||६|| ओं ह्रीं श्री धर्मातीर्थाधिनाथ भगवन्निह (पाण्डुक-शिला) स्नपन-पीठे तिष्ठ! तिष्ठ! श्रीतीर्थकृत्स्नपन-वर्य-विधौ सुरेंद्र:, क्षीराब्धि-वारिभि-रपूरयदर्थ-कुम्भान् | तांस्तादृशानिव विभाव्य यथार्हणीयान्, संस्थापये कुसुम-चन्दन-भूषिताग्रान् || शातकुम्भीय कुम्भौघान् क्षीराब्धेस्तोय-पूरितान् | स्थापयामि जिनस्नान-चन्दनादि-सुचर्चितान् ||७|| ओं ह्रीं चतु:कोणेषु स्वस्तये चतु:कलशस्थापनं करोमि। आनन्द-निर्झर-सुर-प्रमदादि-गानै, र्वादित्र-पूर जय-शब्द-कलप्रशस्तै: | उद्गीयमान जगती-पति-कीर्तिमेनं, पीठस्थलीं वसु-विधार्चन-योल्लसामि ||८|| ओं ह्रीं स्नपनपीठस्थित-जिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। कर्म-प्रबन्ध-निगडै-रपि हीनताप्तं, ज्ञात्वापि भक्ति-वशत: परमादि-देवम् | त्वां स्वीय-कल्मष गणोन्मथनाय देव, शुद्धोदकै-रभिनयामि नयार्थतत्त्वम् ||९|| ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते पवित्रतर-जलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा। तीर्थोत्तम-भवै-नीरै: क्षीर-वारिधि-रूपकै: | स्नापयामि प्रतिमायां जिनान् सर्वार्थसिद्धिदान् ||१०|| ओं ह्रीं श्री वृषभादिवीरान्तान् जलेन स्नापयाम:। (यह पढ़ते हुए कलश से 108 बार धारा प्रतिमाजी पर करें) सकल-भुवन-नाथं तं जिनेन्द्रं सुरेन्द्रै- रभिषव-विधि-माप्तं स्नातकं स्नापयाम: | यदभिषवन-वारां बिन्दु-रेकोऽपि नृणां, प्रभवति विदधातुं भुक्तिसन्मुक्तिलक्ष्मीम् ||११|| ओं ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं कृपावन्तं श्रीवृषभादिमहावीरान्त-चतुर्विंशति तीर्थंकर-परम-देवं आद्यानां आद्ये मध्यलोके भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे भारतदेशे …प्रदेशे … नाम्निनगरे … मन्दिरे (मण्डपे) …… वीरनिर्वाण-संवत्सरे मासानामुत्तमे मासे …. पक्षे … तिथौ …. वासरे मुन्यार्यिका-श्रावक-श्राविकाणां सकलकर्मक्षयार्थं जलेनाभिषिंचयाम:।। (यह पढ़कर चारों कोनों में रखे हुए चार कलशों से अभिषेक करें) पानीय-चंदन-सदक्षत-पुष्पपुंज- नैवेद्य-दीपक-सुधूप-फल-व्रजेन | कर्माष्टक-क्रथन-वीर-मनन्त-शक्तिं संपूजयामि महसां महसां निधानम् ||१२|| ओं ह्रीं अभिषेकान्ते वृषभादिवीरान्तेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। हे तीर्थपा निजयशो-धवली-कृताशा सिद्धौषधाश्च भवदु:ख-महागदानाम् | सद्भव्य-हृज्जनित-पंक-कबन्ध-कल्पा, यूयं जिना: सतत-शान्तिकरा: भवन्तु ||१३|| ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं हं सं क्ष्वीं क्ष्वीं हं स: झं वं ह्र य: स: क्षां क्षीं क्षं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्ष: क्ष्वीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रैं ह्रों ह्रौं ह्रं ह्रः ह्रीं द्रां द्रीं नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठ: ठ: इति शान्तिमन्त्रेणाभिषेकं करोमि। ।। पुष्पांजलिं क्षिपामि।। नत्वा मुहु-र्निज-करै-रमृतोपमेयै:, स्वच्छै-र्जिनेन्द्र तव चन्द्र-करावदातै: | शुद्धांशुकेन विमलेन नितान्त-रम्ये, देहे स्थितान् जल कणान् परिमार्जयामि ||१४|| ओं ह्रीं अमलांशुकेन जिनबिम्ब-मार्जनं करोमि। स्नानं विधाय भवतोष्ट-सहस्र-नाम्ना-मुच्चारणेन मनसो वचसो विशुद्धिम् | जिघृक्षु-रिष्टिमिनतेष्ट-तयीं विधातुं, सिंहासने विधि-वदत्र निवेशयामि ||१५|| ओं ह्रीं वेदिकायां सिंहासने जिनबिम्बं स्थापयामि। जल-गन्धक्षतै:पुष्पैश्चरू-दीप-सुधूपकै | फलै-रर्घै-जिनमर्चेज्जन्मदुखापहानये ||१६|| ओं ह्रीं सिंहासनस्थित जिनायऽर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा। (नीचे लिखा श्लोक पढ़कर गन्धोदक ग्रहण करें) मुक्ति-श्रीवनिता-करोदक-मिदं पुण्याड़्कुरोत्पादकम्, नागेंद्र-त्रिदशेंद्र-चक्र पदवी राज्याभिषेकोदकम् | सम्यग्ज्ञान-चरित्र-दर्शन-लता संवृद्धि-संपादकं, कीर्ति-श्री-जय-साधकं जिन- वर स्नानस्य गन्धोदकम् ||१७|| नत्वा परीत्य निज-नेत्र ललाटयोश्च, व्यात्युक्षणेन हरतादघ-संचयं मे | शुद्धोदकं जिनपते तव पाद-योगाद्, भूयाद्-भवातपहरं धृत-मादरेण ||१८|| (नीचे लिखा श्लोक पढ़कर पुष्पांजलि करें) इमे नेत्रे जाते सुकृत-जलसिक्ते-सफलिते, ममेदं मानुष्यं कृति जनगणादेयमभवत् | मदीयाद्-भल्लाटादशुभतर-कर्माटन-मभूत, सदेदृक-पुण्यार्हन् मम भवतु ते पूजन-विधौ ||१९|| ।। पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि।।
  22. जलाभिषेक पाठ कवि श्री हरजसराय जय-जय भगवंते सदा, मंगल-मूल महान | वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नमौं जोरि जुग-पान || (ढाल मंगल की, छन्द अडिल्ल और गीता) श्री जिन! जग में ऐसो को बुधवंत जू | जो तुम गुण-वरननि करि पावे अंत जू || इंद्रादिक सुर चार ज्ञानधारी मुनी | कहि न सकें तुम गुणगण हे! त्रिभुवन-धनी || अनुपम अमित तुम गुणनि-वारिधि ज्यों अलोकाकाश है | किमि धरें हम उर कोष में सो अकथ गुण-मणिराश है || पै निज-प्रयोजन सिद्धि की तुम नाम में ही शक्ति है | यो चित्त में सरधान यातें नाम ही में भक्ति है ||१|| ज्ञानावरणी दर्शन-आवरणी भने | कर्म मोहनी अंतराय चारों हने || लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञान में | इंद्रादिक के मुकुट नये सुरथान में || तब इन्द्र जान्यो अवधितें उठि सुरन-युत वंदत भयो | तुम पुन्य को प्रेर्यौ हरी ह्वै मुदित धनपतिसों कह्यो || अब वेगि जाय रचो समवसृति सफल सुरपद को करो | साक्षात श्रीअरिहंत के दर्शन करो कल्मष हरो ||२|| ऐसे वचन सुने सुरपति के धनपति | चलि आयो तत्काल मोद धारे अती || वीतराग-छवि देख शब्द जय जय चयो | दे प्रदच्छिना बार-बार वंदत भयो || अति भक्ति-भीनो नम्रचित ह्वे समवसरण रच्यो सही | ताकी अनूपम शुभ-गती को कहन समरथ कोउ नहीं || प्राकार तोरण सभामंडप कनक मणिमय छाजहीं | नग-जड़ित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विराजहीं ||३|| सिंहासन ता-मध्य बन्यो अद्भुत दिपै | ता पर वारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिपै || तीन छत्र सिर शोभित चौंसठ चमरजी | महा भक्तियुत ढोरत हैं तहाँ अमरजी || प्रभु तरन-तारन कमल ऊपर अंतरीक्ष विराजिया | यह वीतराग दशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया || मुनि आदि द्वादश सभा के भवि जीव मस्तक नाय के | बहुभाँति बारंबार पूजें नमें गुण-गण गाय के ||४|| परमौदारिक दिव्य देह पावन सही | क्षुधा तृषा चिंता भय गद दूषण नहीं || जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे | राग रोष निद्रा मद मोह सबै खसे || श्रम बिना श्रम-जल रहित पावन अमल ज्योति-स्वरूपजी | शरणागतनि की अशुचिता हरि करत विमल अनूपजी || ऐसे प्रभु की शांति-मुद्रा को न्हवन जलतें करें | ‘जस’ भक्तिवश मन उक्ति तें, हम भानु ढिग दीपक धरें ||५|| तुम तो सहज पवित्र यही निश्चय भयो | तुम पवित्रता-हेत नहीं मज्जन ठयो || मैं मलीन रागादिक मलतें ह्वे रह्यो | महा मलिन तन में वसु-विधि-वश दु:ख सह्यो || बीत्यो अनंतो काल यह मेरी अशुचिता ना गर्इ | तिस अशुचिता-हर एक तुम ही भरहु वाँछा चित ठर्इ || अब अष्टकर्म विनाश सब मल रोष-रागादिक हरो | तनरूप कारा-गेह तें उद्धार शिव-वासा करो ||६|| मैं जानत तुम अष्टकर्म हनि शिव गये | आवागमन-विमुक्त राग-वर्जित भये || पर तथापि मेरो मनोरथ पूरत सही | नय-प्रमान तें जानि महा साता लही || पापाचरण-तजि न्हवन करता चित्त मैं ऐसे धरूँ | साक्षात श्रीअरिहंत का मानो न्हवन परसन करूँ || ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंध तें | विधि अशुभ-नसि शुभबंध तें ह्वे शर्म सब विधि तास तें ||७|| पावन मेरे नयन भये तुम दरस तें | पावन पाणि भये तुम चरननि परस तें || पावन मन ह्वै गयो तिहारे ध्यान तें | पावन रसना मानी तुम गुण-गान तें || पावन भर्इ परजाय मेरी भयो मैं पूरण धनी | मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी, पूर्ण-भक्ति नहीं बनी || धनि धन्य ते बड़भागि भवि तिन नींव शिव-घर की धरी | वर क्षीरसागर आदि जल मणिकुंभ भर भक्ती करी ||८|| विघन-सघन-वन-दाहन दहन प्रचंड हो | मोह-महा-तम-दलन प्रबल मारतंड हो || ब्रह्मा विष्णु महेश आदि संज्ञा धरो | जग-विजयी जमराज नाश ताको करो || आनंद-कारण दु:ख-निवारण परम-मंगल-मय सही | मोसो पतित नहिं और तुम-सो पतित-तार सुन्यो नहीं || चिंतामणी पारस कल्पतरु एकभव-सुखकार ही | तुम भक्ति-नवका जे चढ़े ते भये भवदधि-पार ही ||९|| (दोहा) तुम भवदधि तें तरि गये, भये निकल अविकार | तारतम्य इस भक्ति को, हमें उतारो पार ||१०|| ।।इति अभिषेक पाठ।।
  23. जिन-प्रतिमा अभिषेक व पूजन की पात्र होती है क्योंकि जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन, अभिषेक, पूजन आदि से उन के गुणों का स्मरण हो जाता है। जिनबिम्ब अभिषेक: यह पाँचों कल्याणक-सम्पन्न जिन-प्रतिमा की पुरुषों द्वारा प्रतिदिन की जाने वाली न्हवन की क्रिया है। इस में प्रतिमाजी के आपाद-मस्तक सभी अंगों का प्रासुक जल से न्हवन किया जाता है। चरणाभिषेक: किन्हीं विशाल प्रतिमाओं के अभिषेक शीश की ऊंचाई तक मचान आदि के बिना संभव नहीं होते, उन के चरणों का न्हवन चरणाभिषेक कहलाता है| मस्तकाभिषेक: ऊपरोक्त प्रतिमाओं का मस्तकाभिषेक पर्वादि विशेष अवसरों पर किया जाता है; तथा प्रतिमाजी, मंदिरजी व क्षेत्र के अनुरक्षण व विकास के भावों से प्रायः बारह वर्षों के अंतराल से महामस्तकाभिषेक महोत्सव के विशाल आयोजन होते हैं| पंचामृत-अभिषेक: कहीं कहीं दूध, दही, घी, इक्षुरस आदि से प्रतिमा के न्हवन की परंपरा देखने में आती है| प्रक्षालन: अचल प्रतिमाओं के पूर्ण अभिषेक में जल की मात्रा अधिक लगने व गंधोदक वेदी जी में फैलने से जीव-उत्पत्ति व हिंसा बचाने के भाव से, उनका केवल गीले छन्नों से प्रक्षालन होता है, तथा प्रतिमाओं की संख्या अधिक होने पर मात्र कुछ प्रतिमाओं का पूर्णाभिषेक व शेष का प्रक्षालन होता है| शांतिधारा: यह अत्यंत अनूठा पवित्र मंत्राभिषेक है जो स्वयं व पर के पापों के प्रक्षालन कर आत्म-कल्याण व समस्त चराचर की शान्ति के भाव से जिन-प्रतिमाजी पर अखंड जल धारा करने की क्रिया है| जन्माभिषेक: यह नित्य जिनाभिषेक से भिन्न क्रिया है जो तीर्थंकर के ‘जन्म कल्याणक’ अवसर पर इन्द्रादि द्वारा सम्पन्न की जाती है। जिस मूर्त्ति के पाँचों कल्याणक संस्कार सम्पन्न हो चुके हैं अर्थात् पूर्ण वीतरागी बन गई है, वही जिनेन्द्र-प्रतिमा कहलाती है| उस का पुनः जन्माभिषेक नहीं होता| जन्माभिषेक तो सराग अवस्था की क्रिया है। अत: जिनबिम्ब अभिषेक जन्माभिषेक नहीं है। वेश-भूषा जिनेन्द्र प्रभु की अभिषेक-पूजन समस्त आरम्भ-परिग्रहों का त्याग कर, सौधर्म-इंद्र के समान अत्यंत उत्तम भावों से की जाती है, अतः इन्द्र के समान केशरिया अथवा श्वेत, अहिंसात्मक (बिना सिले) धोती-दुपट्टे पहिन कर मुकुट, माला व तिलक-अलंकरणों आदि से सुशोभित होने पर सहज ही वैसे भाव बन जाते हैं| अभिषेक-कर्ता स्नान करके शुद्ध धोती-दुपट्टे पहिनें व सिर ढकें। पेंट, शर्ट, पाजामा आदि तथा दूसरों के उतरे हुए पूजा-वस्त्रों से अथवा अकेली धोती पहिने अभिषेक नहीं करना चाहिए। अभिषेक-क्रिया-विधि प्रतिमाजी के समक्ष अभिषेक के संकल्प-रूप अर्घ्य चढ़ा कर, कायोत्सर्ग कर, विनयपूर्वक एक हाथ प्रतिमाजी के नीचे और दूसरा हाथ उन की पीठ पर लगाकर उठावें, ढंके सिर पर प्रतिमाजी को रख, अभिषेक-स्थल की तीन प्रदक्षिणा दे, श्रीकार लिखे थाल पर स्थापित सिंहासन पर पूर्व-मुखी अथवा उत्तर-मुखी कर विराजित करें। यदि प्रतिमाजी का मुख पूर्व की ओर है तो प्रमुख अभिषेक-कर्ता को उत्तर की ओर मुख कर खड़े होना चाहिए, और यदि उत्तर की ओर मुख है तो अभिषेक-कर्ता का मुख पूर्व दिशा की ओर रहना चाहिए। सिंहासन-तल की ऊंचाई पूजक की नाभि से नीचे नहीं, अपितु ऊपर होना चाहिए। जीवाणि किये गए शुद्ध पानी को प्रासुक करके (गर्म करके अथवा लौंग आदि डाल कर) ही अभिषेक करना चाहिए| प्रतिमाजी से स्पर्श होते ही यह पवित्र गंधोदक बन जाता है जिसे न्हवन-जल भी कहते हैं| अभिषेक उपरांत सावधानी से स्वच्छ सूखे छन्ने से प्रतिमाजी के समस्त अंगों से से समस्त जल कण पौंछें, व दूसरा अर्घ्य चढ़ा कर वेदी में मूल सिंहासन पर स्वस्तिक बना कर पुनः विराजमान करें और तीसरा अर्घ्य भी चढ़ावें| फिर छन्नों को खंगाल कर सूखने डाल दें| फिर विनय पूर्वक इस परम सौभाग्य प्रदायक गंधोदक की कुछ बूँदें बांयी हथेली पर ले, दांये हाथ की मध्यमा व अनामिका उँगलियों से ललाट पर व ऊपरी नेत्र-पटों पर धारण करें| अन्य दर्शनार्थियों के लिए एक कटोरे में कुछ गंधोदक रख शुद्ध जल युक्त थाली में रखें व शेष अतिरिक्त गंधोदक उत्तम-पुष्पों के पौधों के गमलों में विसर्जित कर दें| वर्जनाएं: 1. आँखों में, मुख में, अथवा अन्य अंगों में गंधोदक लगाना अविनय है और पापास्रव का कारण है| 2. अभिषेक-पूजन पूर्ण होने तक नाक, कान, मुँह में उँगली न डालें एवं नाभि से नीचे का भाग स्पर्श न करें। खून, पीव आदि निकलने पर, सर्दी- जुकाम, बुखार, चर्मरोग, सफेद दाग, दाद, खुजली एवं चोट-ग्रस्त होने पर अभिषेकादि न करें। 3. पूजन की पुस्तकों में पूजा के स्थापना-मंत्र, द्रव्याष्टक-मंत्र एवं पंच कल्याणकों के मंत्र संक्षेप में दिये होते हैं। कृपया उन मंत्रों को पूरा एवं शुद्ध पढ़ना चाहिए। ‘इत्याशीर्वाद’ के बाद पुष्पांजलि क्षेपण अवश्य करें, यह प्रभु के आशीर्वाद की महान क्रिया है । 4. जहाँ नौ बार णमोकार मंत्र जपना है, वहाँ प्रत्येक णमोकार मंत्र तीन श्वास में पढ़ना चाहिए। 5. पूजन चाहे जितनी की जाएं, पर जल्दी-जल्दी नहीं गानी चाहिए। जो पूजन, विनती, पाठ, स्तोत्र आदि पढ़ें जावें उनके भावों को जीवन में उतारने पर मनुष्य पर्याय की सार्थकता है | 6. पूजन क्रिया समाप्त होने पर पूजन पुस्तकों के अन्दर फंसे चांवल आदि के कणों को अच्छी तरह झाड़ कर ही पुस्तकों को यथा स्थान सहेज कर रखना चाहिए|
  24. अर्हन्तो भगवत इन्द्रमहिताः, सिद्धाश्च सिद्धीश्वरा, आचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः, पूज्या उपाध्यायकाः| श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः, मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः, पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु नः मंगलम्|| श्रीमन्नम्र - सुरासुरेन्द्र - मुकुट - प्रद्योत - रत्नप्रभा- भास्वत्पादनखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः| ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगीजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु नः मंगलम्|| सम्यग्दर्शन-बोध-व्रत्तममलं, रत्नत्रयं पावनं, मुक्ति श्रीनगराधिनाथ - जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रदः| धर्म सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं, चैत्यालयं श्रयालयं, प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी, कुर्वन्तु नः मंगलम्|| नाभेयादिजिनाः प्रशस्त-वदनाः ख्याताश्चतुर्विंशतिः, श्रीमन्तो भरतेश्वर-प्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश| ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लांगलधराः सप्तोत्तराविंशतिः, त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टि-पुरुषाः कुर्वन्तु नः मंगलम्|| ये सर्वौषध-ऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगताः पञ्च ये, ये चाष्टाँग-महानिमित्तकुशलाः येऽष्टाविधाश्चारणाः| पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि बलिनो ये बुद्धिऋद्धिश्वराः, सप्तैते सकलार्चिता मुनिवराः कुर्वन्तु नः मंगलम्|| ज्योतिर्व्यन्तर-भावनामरग्रहे मेरौ कुलाद्रौ स्थिताः, जम्बूशाल्मलि-चैत्य-शखिषु तथा वक्षार-रुप्याद्रिषु| इक्ष्वाकार-गिरौ च कुण्डलादि द्वीपे च नन्दीश्वरे, शैले ये मनुजोत्तरे जिन-ग्रहाः कुर्वन्तु नः मंगलम्|| कैलाशे वृषभस्य निर्व्रतिमही वीरस्य पावापुरे| चम्पायां वसुपूज्यसुज्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम्| शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्यार्हतः, निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्तु नः मंगलम्|| यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो, यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक्| यः कैवल्यपुर-प्रवेश-महिमा सम्पदितः स्वर्गिभिः कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु नः मंगलम्|| सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते, सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः| देवाः यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु ब्रूमहे, धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगैः कुर्वन्तु नः मंगलम्|| इत्थं श्रीजिन-मंगलाष्टकमिदं सौभाग्य-सम्पत्करम्, कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुषः| ये श्र्रण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैः धर्मार्थ-कामाविन्ताः, लक्ष्मीराश्रयते व्यपाय-रहिता निर्वाण-लक्ष्मीरपि||
  25. प्रतिदिन सूर्योदय से पहले जाग जाना चाहिए। जागते ही कम से कम नौ बार णमोकार-मंत्र जपना चाहिए। घर के बड़ों को प्रणाम कर, फिर स्नानादि करके स्वच्छ-वस्त्र पहिनकर अक्षत (चावल), बादाम आदि द्रव्य लेकर जिनमन्दिर जाना चाहिए। मंदिरजी जाते समय स्तुति, पाठ आदि बोलते रहने से किसी तरह के दुनियादारी के संकल्प-विकल्प मन में नहीं आते और मन स्वच्छ रहता है। मंदिरजी पहुँचकर छने जल से मुँह, हाथ व पैर धोना चाहिए और ‘नि:सहि-नि:सहि-नि:सहि’ कहते हुये भक्तिभाव से जिनालय में प्रवेश कर, घंटा बजाना चाहिए। मंदिर जी का घंटा हमारी विशुद्ध भावनाओं को प्रसारित करने का साधन है; क्योंकि पंचकल्याणक के समय घंटे को भी मंत्रों से संस्कारित किया जाता है; इस की आवाज से सांसारिक विचारों का तारतम्य टूट जाता है और एकाग्रता आती है। इसे ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-प्राप्ताय नम:’ बोलते हुए प्राय: तीन बार ही बजाना चाहिए। घंटे की ध्वनि से पर्यावरण भी परिशुद्ध होता है; और यदि किसी को ‘नि:सहि’ की ध्वनि सुनार्इ नहीं दी है तो घंटे की आवाज से वह सचेत हो जायेगा। वेदी के सम्मुख जिनेन्द्रप्रभु के दर्शन, खड़े होकर दोनों हथेलियों में द्रव्य ले, बन्द-कमल के आकार में जोड़कर, दोनों कोहनियों को पेट से लगाकर, णमोकार मंत्र, दर्शन स्तुति आदि बोलते हुए करने चाहिए। दर्शन करते समय अपनी दृष्टि प्रतिमा जी पर ही रहे तथा विनती-स्तोत्र में ऐसी तल्लीनता रहनी चाहिए कि वचन और काया के साथ मन भी एकरूप हो जाये। इससे राग-द्वेष से छुटकारा होकर कर्मों की निर्जरा होती है। ‘नि:काचित कर्म’ जिनमें किसी दशा में परिवर्तन नहीं होता और जिनका अशुभ-फल सनत्कुमार चक्रवर्ती, श्रीपाल जैसे बड़े-बड़े पुण्यात्माओं को भी भोगना पड़ा, ऐसे कर्म वीतराग-भगवान् की सुदृढ़-भक्ति से ही कट पाते हैं। अत: भक्ति में तल्लीनता बहुत आवश्यक और कल्याणकारिणी है। स्तोत्र पूरा होने पर अर्घ्य-पद व मन्त्र बोलते हुए हथेलियों का द्रव्य वेदी पर विनय सहित चढ़ा देवें। (द्रव्य न हो, तो गोलक में कुछ रुपये-पैसे डाले जा सकते हैं)। फिर धोक देकर पुनः पुण्यवर्द्धक स्तुति पढ़ते हुये तीन प्रदक्षिणाएँ देना चाहिए। (प्रदक्षिणा का अर्थ है- घड़ी के काँटों की दिशा में, भगवान के दाहिनी बाजू से पीछे जाना और बाईं बाजू से वापस सामने आना |) धोक – नमस्कार सामान्यता तीन प्रकार से किया जाता है 1. अष्टांग नमस्कार: इस मुद्रा में जमीन पर लेटने में शरीर आठ अंगों से धरती छूता है: दो पैर, दो जंघाएँ, छाती, दो हाथ एवं मस्तक। 2. पंचांग नमस्कार: इस मुद्रा में जमीन पर बैठकर धोक देने में शरीर पाँच अंगों से धरती छूता है: दो पैर, दो हाथ, मस्तक। 3. गवासन नमस्कार: केवल जैन आचार में ही गवासन नाम की एक विशेष मुद्रा है| जिस तरह गाय एक ही ओर पैर कर के बैठती है, शील गुण के उत्कृष्ट पालक हमारे आचार्य उपाध्याय व साधु गण उसी तरह दोनों पैर एक ओर कर के बैठ कर पांचों अंगों से ढोक देते हैं| समस्त नारी वर्ग के लिए इसी मुद्रा में ढोक देने की शिक्षा देते हैं| इसे पुरुष वर्ग भी अपना सकता है| किसी अन्य की दर्शन-क्रिया में किसी भी प्रकार से बाधक नहीं बनना चाहिए। प्रदक्षिणा देते समय, यदि कोर्इ नमस्कार कर रहा हो, तो उसके सामने से न निकलें, रुक जावें या उसके पीछे से निकलें। पाठ, विनती या स्तोत्र धीरे-धीरे, धीमे स्वर में पढ़ना चाहिए और पढ़ते समय इस बात का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए कि दूसरों को बाधा न हो। भगवान के दर्शन के समय यह विचार रहना चाहिए कि यह जिनमन्दिर समवसरण है और उसमें साक्षात् जिनेन्द्रदेव के समान जिनप्रतिमा विराजमान हैं। समवसरण में भी भगवान् के बाह्यरूप के ही दर्शन होते हैं। वही रूप जिनबिम्ब (प्रतिमा) का है। किन्तु, साक्षात् जिनेन्द्रदेव के मुख से निकली दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य जिनबिम्ब से संभव नहीं है, इसीलिए वेदिकाजी में जिनबिम्ब के साथ जिनवाणी भी विराजमान रहती है। जिनबिम्ब और जिनवाणी दोनों मिलकर ही समवसरण का रूप बनाती हैं। अत: देवदर्शन के पश्चात् शास्त्र-स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से साक्षात् जिनेन्द्रदेव के दर्शन और उनके उपदेश-श्रवण जैसा लाभ प्राप्त होता है। प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ और यंत्र ही पूज्य होते हैं और उन्हीं को नमस्कार करना चाहिए। मन्दिर में बने हुए चित्र तथा टंगी हुर्इ तस्वीरें मन्त्रों द्वारा प्रतिष्ठित नहीं होते, अत: वे नमस्कार के योग्य नहीं होते। मंदिर में हँसी-मज़ाक, खोटी-कथा जैसे – स्त्रीकथा, भोजनकथा, चोर आदि की कथा, श्रृंगार, कलह, निद्रा, खान-पान तथा थूकना आदि कार्य नहीं करने चाहिए। मुख स्वच्छ होना चाहिए। पान-इलायची वगैरह खाया हो, तो कुल्ला करके ही मंदिर में जाना चाहिए। मंदिर आत्म-साधना का पवित्र-स्थान है। वहाँ आरम्भ-परिग्रह (घरेलू काम-काज तथा धन-सम्पत्ति) के विचारों को त्यागकर अत्यन्त शांतिपूर्वक धार्मिक भावनाएँ ही मन में लानी चाहिए। धर्म-चर्चा के अलावा कोई बाहरी विषयों की चर्चा मंदिर में नहीं करनी चाहिए। यह पाप का कारण है। धार्मिक मर्यादाओं के पालन से पुण्यबंध होने के साथ-साथ जीवन भी सफल होता है। जिनवाणी की पुस्तक, ग्रन्थ या जिस शास्त्र का स्वाध्याय कर रहे हों, उन में फंसे चावल आदि अच्छी तरह झाड कर, उन्हें ठीक प्रकार वेष्टन में बाँधकर उचित-स्थान पर अलमारी में रखें, ताकि कीड़ों-चूहों आदि से बचाया जा सके। वर्ष में एक दो बार सभी पुस्तकों को धूप में रखकर फिर यथास्थान रखें। उनके वेष्टन भी धुलवा लें। निशान के लिए पुस्तकों के पृष्ठों को मोड़ना नहीं चाहिए, कोर्इ पतला कागज रखें। किसी भी पुस्तक, ग्रंथ, शास्त्र आदि को जिनवाणी को लेट कर, अधलेटे अथवा घुटनों पर रखकर पढ़ना, अशौच अवस्था में वाचन आदि भारी अविनय और पाप-बंध के कारण हैं। महिलाओं के लिए विशेष - मंदिर की शुद्धता व पवित्रता बनाये रखने हेतु, नारी वर्ग को मासिक अशौच की अवस्था में मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहिए, और घर में रखे शास्त्र, माला आदि धार्मिक उपकरणों को नहीं छूना चाहिए| णमोकार मंत्र एवं स्तोत्र आदि का पाठ भी मन में ही करना चाहिए, बोल कर नहीं |
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