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Jinvani
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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव
शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)
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पर्वराज पर्यूषण आया दस धर्मो की ले माला मिथ्यातम में दबी आत्मनिधि अब तो चेत परख लाला ॥ तू अखंड अविनाशी चेतन ज्ञाता दृष्टा सिद्ध समान, रागद्वेष परपरणति कारण स्वस्वरूप को करयो न भान, मोहजाल की भूल भुलैया समझ नरक सी है ज्वाला ।१। परम अहिंसक क्षमा भाव भर, तज दे मिथ्या मान गुमान, कपट कटारी दूर फैंक दे जो चाहे अपनो कल्याण, सत्य शौच संयम तप अनुपम है अमृत भर पी प्याला ।२। परिग्रह त्याग ब्रह्म में रमजा वीतराग दर्शन गायो, चिंतामणी सू काग उड़ा मत नरकुल उत्तम तू पायो, शिवरमणी `सौभाग्य' दिखा रही तुझ अनश्वर सुखशाला ।३।
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चन्द्रोज्वल अविकार स्वामी जी ,तुम गुण अपरंपार जबै प्रभू गरभ माहिं आये, सकल सुर नर मुनि हर्षाये रतन नगरी में बरसाये... ओ॓.... अमित अमोघ सुथार स्वामी जी...तुम गुण अपरंपार ॥ जन्म प्रभू तुमने जब लीना, न्हवन मन्दिर पर हरि कीना भक्ति सुर शचि सहित बीना... ओ... बोले जयजयकार स्वामी जी...तुम गुण अपरंपार ॥ अथिर जग तुमने जब जाना, आस्तवन लोकांतिक थाना भये प्रभू जति नगन बाना.... ओ....त्यागराज को भार स्वामी जी...तुम गुण अपरंपार ॥ घातिया प्रकृति जबह नासी, लोक तरु आलोक परकासी करी प्रभू धर्म वृष्टि खासी... ओ... केवल ज्ञान भंडार स्वामी जी...तुम गुण अपरंपार ॥ अघातिया प्रकृति जो विघटाई, मुक्ति कांता तब ही पाई निराकुल आनंद सुखदाई... ओ ...तीन लोक सिरताज स्वामी जी...तुम गुण अपरंपार ॥ चरण मुनि जब तुमरे ध्यावे, पार गणधर हूं नहिं पावै कह लग भागचन्द गावे... ओ...भवसागर से पार स्वामी जी...तुम गुण अपरंपार ॥
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मधुबन के मंदिरों में, भगवान बस रहा है, पारस प्रभु के दर से, सोना बरस रहा है ॥ अध्यात्म का ये सोना, पारस ने खुद दिया है, ऋषियों ने इस धरा से निर्वाण पद लिया है, सदियों से इस शिखर का, स्वर्णिम सुयश रहा है ॥ पारस...॥ तीर्थंकरों के तप से, पर्वत हुआ है पावन, कैवल्य रश्मियों का, बरसा यहां पे सावन, उस ज्ञान अमृत जल से, पर्वत सरस रहा है ॥ पारस...॥ पर्वत के गर्भ में है, रत्नों का वो खजाना, जब तक है चाँद सूरज, होगा नहीं पुराना, जन्मा है जैन कुल में, तू क्यों तरस रहा है ॥ पारस...॥ नागों को भी ये पारस, राजेन्द्र सम बनाये, उपसर्ग के समय जो, धरणेन्द्र बन के आये, पारस के सिर पे देवी पद्मावती यहां है ॥ पारस...॥
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बाजै छै बधाई, राजा नाभि के दरबार जी नाभि के दरबार राजा नाभि के दरबार जी ॥ मोरा देवी बेटो जायो, जायो रिषभ कुमार जी अयोध्या में उत्सव कीनो ,घर घर मंगलाचार जी ॥ घन घन घन घन घंटा बाजे, देव करे जयकार जी नोपत के टंकारो लाग्यो ,झां झां की झनकार जी ॥ हाथी दीना घोडा दीना, दीना गज असवार जी नगर सरीसा पट्टन दीना, दीना रतन भंडार जी ॥ हीरा दीना पन्ना दीना, लां लां को नहिं पार जी नाभि राजा दान दीनो, भर भर मोतियन थाल जी ॥ गुणीजन गावै ऐसे, दे दे ताल जी चिरंजी हो बालक तेरो, जन हितकार जी ॥
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लिया रिषभ देव अवतार निरत सुरपति ने किया आके, निरत किया आके हर्षा के प्रभूजी के नव भव कूं दरशाके, सरर सरर कर सारंगी तंबूरा बाजे पोरी पोरी मटका के, लिया. प्रथम प्रकासी वाने इंद्र जाल विद्या ऐसी, आजलों जगत मैं सुनी ना कहूं देखी ऐसी, आयो है छ्बीलो छटकीलो है मुकुट बंध, छ्म्भ देसी कूदो मानु आ कूदो पूनम को चांद, मन को हरत गत भरत प्रभू को..पूजै धरनी को शिर नाके ॥ भूजों पै चढाये हैं हज़ारों देव देवी ताने हाथों की हथेली में जमाये हैं अखाडे तानै ताधिन्ना ताधिन्ना तबला किट किट उनकी प्यारी लागे धुम कि्ट धुम किट बाजा बाजे नाचत प्रभूजी के आगे सैना मै रिझावै तिरछी ऐड लगावे..उड जावे भजन गाके ॥ छिन मैं जाब दे वो तो नंदीश्वर द्वीप जाय, पांचो मेर वंद आ मृदंग पै लगावे थाप, वंदे ढाई द्वीप तेरा द्वीप के शकल चैत्य, तीन लोक मांहि बिम्ब पूज आवे नित्य नित्य, आबै वो झपट समही पै दोडा लेने दम..मनमोहन मुसका के॥ अमृत की लगी झड बरषै रतन धारा, सीरी सीरी चाले पोन बोलै देव जय जय कारा , भर भर झोरी बर्षावै फ़ूल दे दे ताल, महके सुगंध चहक मुचंग षट्ताल, जन्मे ये जिनेन्द्र यों नाभि के आनंद भयो.. गये भक्ति को बतलाके ॥लिया॥
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रे मन भज ले प्रभु का नाम उमरिया रह गई थोडी, उमरिया रह गई थोडी, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ कैलाशगिरि को जाइयो, और आदिनाथ जी से कहियो। हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम पावापुरी को जाइयो, और वर्द्धमान जी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम चम्पापुरी को जाइयो, और वासुपूज्य जी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम हस्तिनापुर को जाइयो, और शांतिनाथ जी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम सम्मेदशिखर जी को जाइयो,और पार्श्वनाथजी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम तिजाराजी को जाइयो और, चन्दाप्रभुजी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम पदमपुराजी को जाइयो और, पद्मप्रभु जी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम गोम्मटेश्वर जाइयो और, बाहुबलीजी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥ तुम महावीर जी को जाइयो और, वीर प्रभुजी से कहियो, हो बुलालो अपने पास, उमरिया रह गई थोडी ॥ रे मन...॥
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गगन मंडल में उड जाऊं, तीन लोक के तीर्थ क्षेत्र सब वंदन कर आऊं ॥ प्रथम श्री सम्मेदशिखर पर्वत पर मैं जाऊं, बीस टोंक पर बीस जिनेश्वर चरण पूज ध्याऊं ॥ अजित आदि श्री पार्श्वनाथ प्रभु की महिमा गाऊं, शाश्वत तीर्थराज के दर्शन करके हर्षाऊं ॥ फ़िर मंदारगिरि पावापुर वासुपूज्य ध्याऊं, हुए पंचकल्याणक प्रभु के पूजन कर आऊं ॥ ऊर्जयंत गिरनार शिखर पर्वत पर फ़िर जाऊं, नेमिनाथ निर्वाण क्षेत्र को वंदूं सुख पाऊं ॥ फ़िर पावापुर महावीर निर्वाणपुरी जाऊं, जलमंदिर में चरण पूजकर नाचूं हर्षाऊं ॥ फ़िर कैलाश शिखर अष्टापद आदिनाथ ध्याऊं, ऋषभदेव निर्वाण धरा पर शुद्ध भाव लाऊं ॥ पंच महातीर्थों की यात्रा करके हर्षाऊं, सिद्धक्षेत्र अतिशय क्षेत्रों पर भी मैं हो आऊं ॥ तीन लोक की तीर्थ वंदना कर निज घर आऊं, शुद्धातम से कर प्रतीति मैं समकित उपजाऊं ॥ फ़िर रत्नत्रय धारण करके जिन मुनि बन जाऊं, निज स्वभाव साधन से स्वामी शिवपद प्रगटाऊं ॥
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लिया आज प्रभु जी ने जनम सखी, चलो अवधपुरी गुण गावन कों ॥ लिया..॥ तुम सुन री सुहागन भाग भरी, चलो मोतियन चौक पुरावन कों ॥ लिया..।१। सुवरण कलश धरों शिर ऊपर, जल लावें प्रभु न्हवावन कों ॥ लिया...।२। भर भर थाल दरब के लेकर , चालो जी अर्घ चढावन कों ॥ लिया...।३। नयनानंद कहे सुनि सजनी, फ़ेर न अवसर आवन कों॥ लिया....।४।
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ऊंचे ऊंचे शिखरों वाला है रे, तीरथ हमारा, तीरथ हमारा हमें लागे है प्यारा। श्री जिनवर से भेंट करावे, जग को मुक्ति मार्ग दिखावे, मोह का नाश करावे रे, ये तीरथ हमारा ॥ शुद्धातम से प्रीति लगावे, जड चेतन को भिन्न बतावे, भेद विज्ञान करावे रे, यह तीरथ हमारा ॥ भाव सहित वंदे जो कोई, ताहि नरक पशुगति नहिं होई, भेद विज्ञान करावे रे, ये तीरथ हमारा ॥ रंग राग से भिन्न बतावे, शुद्धातम का रूप बतावे, मुक्ति का मारग दिखावे रे, ये तीरथ हमारा ॥ भाव सहित वंदे जो कोई, ताहि नरक पशु गति ना होई, उनके लिये खुल जाये रे, सीधा स्वर्ग का द्वारा ॥ जहां तीर्थंकर ने वचन उचारे, कोटि कोटि मुनि मोक्ष पधारे, पूज्य परम पद पाये रे, जन्मे ना दोबारा ॥ हरे-हरे वृक्षों की झूमे डाली, समवसरण की रचना निराली, पर्वतराज पे शीतल जरना, बहता सुप्यारा ॥
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गर्भ कल्याणक आ गया, देखो देखो जी आनंद छा गया॥ स्वर्गपुरी से देवगति को तजकर प्रभु ने नरगति पाई, धन्य धन्य है त्रिशला माता तीर्थंकर की माँ कहलाई, कुण्डलपुर में आनंद छा गया ॥ सोलह सपने माँ ने देखे मन में अचरज भारी है, सिद्धार्थ नृप से फ़ल पूछा उपजा आनंद भारी है, तीन भुवन का नाथ आ गया ॥ अंतिम गर्भ हुआ प्रभुजी का अब दूजी माता नहीं होगी, शुद्धातम के अवलम्बन से आत्मसाधना पूरी होगी, ज्ञान स्वभाव हमें भा गया ॥
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पंचकल्याण मनाओ मेरे साथी, जीवन सफ़ल बनाओ मेरे साथी, आओ रे आओ आओ मेरे साथी, पंचकल्याण.... स्वर्गपुरी से प्रभुजी पधारे, मति श्रुत ज्ञान अवधि को धारे, अंतिम गर्भ हुआ प्रभु जी का, जन्म मरण के कष्ट निवारे, गर्भकल्याण मनाओ मेरे साथी॥ पंचकल्याण... प्रथम स्वर्ग से इन्द्र पधारे, ऐरावत हाथी ले आये, पांडु शिला पर न्हवन रचाया,सकल पाप मल क्षयकर डारे, जन्मकल्याण कराओ मेरे साथी॥ पंचकल्याण... प्रभु ने आतम ध्यान लगाया, निर्ग्रंथों का पथ अपनाया, नग्न दिगम्बर दीक्षा धर कर, राग द्वेष को दूर भगाया, तपकल्याण मनाओ मेरे साथी॥ पंचकल्याण... शुक्ल ध्यान की अग्नि जलाकर, चार घातिया कर्म नशाया, केवलज्ञान प्रकट कर प्रभु ने, जग को मुक्ति मार्ग बताया, ज्ञानकल्याण मनाओ मेरे साथी॥ पंचकल्याण... चरमशरीर छोडकर प्रभुजी, सिद्ध शिला पर जाय विराजे, सादि अनंत काल तक शाश्वत, सुख निज परिणति में प्रगटाये मोक्ष कल्याण मनाओ मेरे साथी॥ पंचकल्याण...
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ऊंचे शिखरों वाला, सबसे निराला सांवरिया पारसनाथ शिखर पर भला विराज्या जी । भला विराज्या जी ओ बाबा थे तो भला विराज्या जी ॥ वैभव काशी का ठुकराया,राज पाट तोहे बाँध ना पाया । तू सम्मेद शिखर पे मुक्ति पाने आया -२ । वो पर्वत तेरे मन भाया जहाँ भीलों का वासा जी ॥ टोंक टोंक पर ध्वजा विराजे,झालर बाजे घंटा बाजे । चरण कमल जिनवर के कूट-कूट पर साजे । दूर-दूर से यात्री आए आनंद मंगल खासा जी॥ झर-झर बहता शीतल नाला,शांत करे भव-भव की ज्वाला। गीत नही जग में इतने जिनवर वाला । वंदन करके पूरण होती भक्त जनों की आसा जी॥ हमको अपनी भक्ति का वर दो,समताभाव से अन्तर भर दो । हे पारसमणि भगवन हमको कंचन कर दो । दो आशीष मिट जाए हमारा जनम मरण का रासा जी॥
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ये महामहोत्सव पंच कल्याणक आया मंगलकारी... ये महामहोत्सव... जब काललब्धिवश कोई जीव निज दर्शन शुद्धि रचाते हैं उसके संग में शुभ भावों की धारा उत्कृष्ट बहाते हैं उन भावों के द्वारा तीर्थंकर कर्म प्रकृति रज आते हैं उनके पकने पर भव्य जीव वे तीर्थंकर बन जाते हैं ।१। इस भूतल पर पंद्रह महीने धनराज रतन बरसाते हैं सुरपति की आज्ञा से नगरी दुल्हन की तरह सजाते हैं खुशियां छाईं हैं दश दिश में यूं लगे कहीं शहनाई बजे हर आतम में परमातम की भक्तिके स्वर हैं आज सजे ।२। माता ने अजब निराले अद्भुत देखे हैं सोलह सपने यह सुना तभी रोमांच हुआ तीर्थंकर होंगे सुत अपने अवतार हुआ तीर्थंकर का क्या मुक्ति गर्भ में आई है क्षय होगा भ्रमण चतुर्गति का मंगल संदेशा लाई है ।३। जब जन्म हुआ तीर्थंकर का सुरपति ऐरावत लाते हैं दर्शन से तृप्त नहीं होते तब नेत्र हजार बनाते हैं जा पांडुशिला क्षीरोदधि जल से बालक को नहलाते हैं सुत माता-पिता को सांप इंद्र, तब तांडवनृत्य रचाते हैं ।४। वैराग्य समय जब आता है प्रभु बारह भावना भाते हैं तब ब्रह्मलोक से लौकांतिक आ धन्य धन्य यश गाते हैं विषयों का रस फ़ीका पडता, चेतनरस में ललचाते हैं तब भेष दिगंबर धार प्रभु संयम में चित्त लगाते हैं ।५। नवधा भक्ति से पडगाहें, हे मुनिवर यहां पधारो तुम हे गुरुवर अत्र अत्र तिष्ठो, निर्दोष अशन कर धारो तुम हे मन-वच-तन आहार शुद्ध अति भाव विशुद्ध हमारे हैं जन्मांतर का यह पुण्य फ़ला, श्री मुनिवर आज पधारे हैं ।६। सब दोष और अंतराय रहित, गुरुवर ने जब आहार किया देवों ने पंचाश्चर्य किये, मुनिवर का जय-जयकार किया है धन्य धन्य शुभ घडी आज, आंगन में सुरतरु आया है अब चिदानंद रसपान हेतु, मुनिवर ने चरण बढाया है ।७। प्रभु लीन हुए शुद्धातम में निज ध्यान अग्नि प्रगटाते हैं क्षायिक श्रेणी आरूढ हुए, तब घाति चतुष्क नशाते हैं प्रगटाते दर्शन-ज्ञान-वीर्य, सुख लोकालोक लखाते हैं ॐकारमयी दिव्य ध्वनि से प्रभु मुक्ति मार्ग बतलाते हैं ।८। प्रभु तीजे शुक्लध्यान में चढ योगों पर रोक लगाते हैं चौथे पाये में चढ प्रभुवर गुणस्थान चौदवां पाते हैं अगले ही क्षण अशरीरी होकर सिद्धालय में फ़िर जाते हैं थिर रहें अनंतानंत काल कृत्कृत्य दशा पा जाते हैं ।९। है धन्य धन्य वे महान गुरु जिनवर महिमा बतलाते हैं वे रंग राग से भिन्न चिदानंद का संगीत सुनाते हैं हे भव्य जीव आओ सब जन, अब मोहभाव का त्याग करो यह पंचकल्याणक उत्सव कर अब आतम का कल्याण करो
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गुरु रत्नत्रय के धारी, निज आतम में विहारी, वे कुन्दकुन्द अविकारी, हैं निश्चय शिवमगचारी। गुरुवर को हमारा वंदन है, चरणों में अर्चन है॥ काया की ममता को टारे, सहते परिषह भारी, पंच महाव्रत के हों धारी, तीन रतन भंडारी। आतम निधि अविकारी, संवर भूषण के धारी, वे कुन्दकुन्द शिवचारी, है निर्मल सुक्खकारी ॥ गुरुवर..॥ तुम भेदज्ञान की ज्योति जलाकर, शुद्धातम में रमते, क्षण क्षण में अंतर्मुख होकर, सिद्धों से बातें करते। तेरे पावन चरणों में मस्तक झुका हम देंगें, तेरी महिमा नित गाकर, निज की महिमा पावेंगें ॥गुरुवर सम्यकदर्शन ज्ञान चरण तुम, आचारों के धारी, मन वच तन का तज आलम्बन, निज चैतन्य विहारी। गुरु जब हम तुझको ध्यायें, तेरी शरणा को पायें, तेरा नाम जपेगा जोनित,मनवांछित फ़ल पाजायें ॥गुरुवर
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सम्मेद शिखर पर मैं जाऊंगा डोली रखदो कहारों । मैं टोंकों की वंदन को जाऊंगा डोली रखदो कहारों ॥ परस प्रभु का जो दर्शन पाऊँ, मैं भी तो पत्थर से सोना हो जाऊं, अपने पारस को मैं रिझाऊंगा, डोली.... चौबीस जिनराज बैठे जहाँ पे, ऐसा सुहाना हैं मन्दिर वहाँ पे, बैठ मन्दिर मैं भजन सुनाऊंगा, डोली ... अन्दर के भावों का अर्घ बनाऊं, पूजा की थाली चरणों मे लाऊँ, जा के अष्ट द्रव्य को चढाऊंगा, डोली... ऐसा ललित कूट ह्रदय विहंगम, ललित कलाओं का कैसा ये संगम, ऐसी सुंदर छवि मन मैं लावूँगा, डोली..
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मुनिवर आज मेरी कुटिया में आये हैं, चलते फ़िरते.... चलते फ़िरते सिद्ध प्रभु आये हैं॥ हाथ कमंडल बगलमें पीछी है,मुनिवर पे सारी दुनिया रीझी है, नगन दिगम्बर... नगन दिगम्बर मुनिवर आये हैं ।१। अत्र अत्र तिष्ठो हे मुनिवर ! भूमि शुद्धि हमने कराई है, आहार कराके... आहार कराके नर नारी हर्षाये हैं ।२। प्रासुक जल से चरण पखारे हैं, गंधोदक पा भाग्य संवारे हैं, शुद्ध भोजन के... शुद्ध भोजन के ग्रास बनाये हैं ।३। नगन दिगम्बर मुद्रा धारी हैं, वीतरागी मुद्रा अति प्यारी है, धन्य हुए ये... धन्य हुए ये नयन हमारे हैं ।४। नगन दिगम्बर साधु बडे प्यारे हैं,जैन धरम के ये ही सहारेहैं, ज्ञान के सागर... ज्ञान के सागर ज्ञान बरसाये हैं ।५।
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चलो सब मिल सिधगिरी चलिए,जहाँ आदिनाथ भगवान हैं । तिर जायेगी वहाँ तेरी आत्मा, इस तीर्थ की महिमा महान हैं ॥ लाखों नर नारी यहाँ पर दर्शन करने आते हैं, शुध मन से दर्शन जो करते,पाप कर्म कट जाते हैं, करता प्राणी क्यों अभिमान हैं, दो दिन का यहाँ तू मेहमान है.. तिर ... इस गिरी पर ध्यान लगाकर साधू अनंता सिध गए, नंदन दशरथ श्री राम और पांडव पाँचों मोक्ष गए, चाहता जीवन का अगर कल्याण है, वीतराग प्रभु का कर ध्यान रे.. तिर .... धर्म किए बिन मोक्ष जो चाहो ऐसा कभी नहीं हो सकता, व्रत तप संयम प्रभु भजन से,भव सागर से तिर सकता, कहता सुभाग रस्ता आसान है, विषयन में फंसा क्यों नादान है.. तिर....
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शान्ति सुधा बरसा गये गुरु तोहि बिरियां. तत्वज्ञान समझा रहे गुरु तोहि बिरियां, अनेकांत और स्याद्वाद पथ दरशाया, सुनकर के सारे जग का मन हरषाया, इन पे निछावर हीरा मोती और मणियां, ज्ञान सुधा बरसा गये गुरु तोहि बिरियां, तत्वज्ञान समझा रहे गुरु तोहि बिरियां ।१। निश्चय और व्यवहार तुम्हीं ने समझाया, बडे बडे विद्वानों के भी मन भाया, स्वाध्याय प्रवचन चिंतन गुरु की किरिया, तत्वज्ञान समझा रहे गुरु तोहि बिरियां, शान्ति सुधा बरसा गये गुरु तोहि बिरियां ।२। समयसार के गणधर बनकर तुम आये, कर दिये अंधेरे दूर हृदय में जो छाये, मैं पडूं हजारों बार गुरु तोरी पैया, शान्ति सुधा बरसा गये गुरु तोहि बिरियां. तत्वज्ञान समझा रहे गुरु तोहि बिरियां ।३।
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जीयरा...जीयरा...जीयरा जीवराज उड के जाओ सम्मेदशिखर में भाव सहित वन्दन करो, पार्श्व चरण में ॥जीवराज...॥ आज सिद्धों से अपनी बात होके रहेगी, शुद्ध आतम से मुलाकात होके रहेगी, रंगरहित रागरहित भेदरहि्त जो, मोहरहित लोभरहित शुद्ध बुद्ध जो ॥जीवराज...॥ ध्रुव अनुपम अचल गति जिनने पाई है, सारी उपमायें जिनसे आज शरमाई है, अनंतज्ञान अनंतसुख अनंतवीर्य मय, अनंतसूक्ष्म नामरहित अव्याबाधी है ॥जीवराज...॥ अहो शाश्वत ये सिद्धधाम तीर्थराज है, यहां आकर प्रसन्न चैतन्यराज है, शुरु करें आज यहां आत्मसाधना, चतुर्गति में हो कभी जन्म मरण ना ॥जीवराज...॥
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शुद्धातम तत्व विलासी रे, मुनि मगन नगन वनवासी रे, क्षण क्षण में अंतर्मुख होते,नित सहज प्रत्याशी रे, मुनि...॥ शांत दिगम्बर मुद्रा जिनकी, मंदर अचल प्रवासी रे, मुनि...॥ ज्यों निःसंग वायु सम निर्मल, त्यों निर्लेप अकासी रे, मुनि.॥ विनय शुभोपयोग की परिणति, दत्ता सहज विनाशी रे, मुनि.॥
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करना मन ध्यान महामंत्र णमोकार॥ पहली बार बोले मन ’णमो अरिहंताणं’ होंगे पाप के नाश महामंत्र णमोकार ॥ दूजी बार बोले मन ’णमो सिद्धाणं’ होगा ज्ञान प्रकाश महामंत्र णमोकार ॥ तीजी बार बोले मन ’णमो आयरियाणं’ होवे ज्ञान ध्यान महामंत्र णमोकार ॥ चौथी बार बोले मन ’णमो उवज्झायाणं’ होवे आतम ज्ञान महामंत्र णमोकार ॥ पांचवी बार बोले मन ’णमो लोए सव्वसाहूणं’ होंगे भव से पार महामंत्र णमोकार ॥
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निर्ग्रंथों का मार्ग... निर्ग्रंथों का मार्ग हमको प्राणों से भी प्यारा है... दिगम्बर वेश न्यारा है... निर्ग्रंथों का मार्ग....॥ शुद्धात्मा में ही, जब लीन होने को,किसी का मन मचलता है तीन कषायों का,तब राग परिणति से,सहज ही टलता है वस्त्र का धागा वस्त्र का धागा नहीं फ़िर उसने तन पर धारा है दिगम्बर वेश न्यारा है... निर्ग्रंथों का मार्ग... ।१। पंच इंद्रिय का, निस्तार नहीं जिसमें, वह देह ही परिग्रह है तनमें नहीं तन्मय,है दृष्टिमें चिन्मय, शुद्धात्मा ही गृह है पर्यायों से पार पर्यायों से पार त्रिकाली ध्रुव का सदा सहारा है दिगम्बर वेश न्यारा है... निर्ग्रंथों का मार्ग.... ।२। मूलगुण पालन, जिनका सहज जीवन, निरन्तर स्व-संवेदन एक ध्रुव सामान्य में ही सदा रमते, रत्नत्रय आभूषण निर्विकल्प अनुभव . निर्विकल्प अनुभव से ही जिनने निज को श्रंगारा है दिगम्बर वेश न्यारा है... निर्ग्रंथों का मार्ग.... ।३। आनंद के झरने, झरते प्रदेशों से, ध्यान जब धरते हैं, मोह रिपु क्षण में,तब भस्म होजाता, श्रेणी जब चढते हैं, अंतर्मुहूर्त मे.... अंतर्मुहूर्त में ही जिनने अनन्त चतुष्टय धारा है, दिगम्बर वेश न्यारा है... निर्ग्रंथों का मार्ग.... ।४।
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श्री मुनि राजत समता संग, कायोत्सर्ग समाहित अंग ॥टेक॥ करतैं नहिं कछु कारज तातैं, आलम्बित भुज कीन अभंग गमन काज कछुहै नहिं तातैं,गति तजि छाके निजरसरंग ॥ लोचन तैं लखिवो कछु नाहीं, तातैं नाशादृग अचलंग सुनिये जोग रह्यो कछु नाहीं, तातैं प्राप्त इकन्त-सुचंग ॥ तह मध्याह्न माहिं निज ऊपर, आयो उग्र प्रताप पतंग कैधौं ज्ञानपवन बल प्रज्वलित,ध्यानानलसौं उछलिफुलिंग ॥ चित्त निराकुल अतुल उठत जहँ, परमानन्द पियूष तरंग ` भागचन्द' ऐसे श्री गुरु-पद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ॥
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जय जय जय जय कार परमेष्ठी, जय जय जय जय कार जय जय भविजन बोध विधाता,जय जय आतम शुद्ध विधाता जय भव भंजन हार परमेष्ठी...जय जय जय जय कार जय सब संकट चूरण कर्ता, जय सब आशा पूरण कर्ता जय जग मंगलकार परमेष्ठी...जय जय जय जय कार तेरा जाप जिन्होने कीना, परमानन्द उन्होने लीना कर गये खेवा पार परमेष्ठी...जय जय जय जय कार लीना शरणा सेठ सुदर्शन, सूली से बन गया सिंहासन जय जय करें नर नार परमेष्ठी...जय जय जय जय कार द्रौपदी चीर सभा में हरणा, तब तेरा ही लीना शरणा बढ गया चिर अपार परमेष्ठी...जय जय जय जय कार सोमा ने तुम सुमरन कीना, सर्प फ़ूल माला कर दीना वर्ते मंगलाचार परमेष्ठी...जय जय जय जय कार अमर शरण में सम्प्रति आया, कर्मो के दुख से घबराया शीघ्र करो उद्धार परमेष्ठी...जय जय जय जय कार
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ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै ॥ संशय विभ्रम मोह-विवर्जित, स्वपर स्वरूप लखावै लख परमातम चेतनको पुनि, कर्मकलंक मिटावै ।१। भवतनभोगविरक्त होय तन, नग्न सुभेष बनावै मोहविकार निवार निजातम-अनुभव में चित लावै ।२। त्रस-थावर-वध त्याग सदा, परमाद दशा छिटकावै रागादिकवश झूठ न भाखै, तृणहु न अदत गहावै ।३। बाहिर नारि त्यागि अंतर, चिद्ब्रह्म सुलीन रहावै परमाकिंचन धर्मसार सो, द्विविध प्रसंग बहावै ।४। पंच समिति त्रय गुप्ति पाल, व्यवहार-चरनमग धावै निश्चय सकल कषाय रहित ह्वै, शुद्धातम थिर थावै ।५। कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्याल माल सम भावै आरत रौद्र कुध्यान विडारे, धर्मशुकलको ध्यावै ।६। जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै `दौल' तासपद होय दास सो, अविचलऋद्धि लहावै ।७।