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Jinvani
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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव
शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)
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जो जो देखी वीतराग ने, सो सो होसी वीरा रे अनहोनी होसी नहि क्यों जग में, काहे होत अधीरा रे ॥ समय एक बढै नहिं घटसी, जो सुख दुख की पीरा रे तू क्यों सोच करै मन मूरख, होय वज्र ज्यों हीरा रे ॥ लगै न तीर कमान बान कहूं, मार सकै नहिं मीरा रे तू सम्हारि पौरुष बल अपनो, सुख अनंत तो तीरा रे ॥ निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभु को, जो टारे भव भीरा रे ’भैया’ चेत धरम निज अपनो, जो तारैं भव नीरा रे ॥
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श्रीजिनवाणीमाताकीआरती ॐ जयजिनवाणी माता, ॐ जय जिनवाणी माता, तुमको निशदिन ध्यावे, सुरनर मुनि ज्ञानी ॥ टेक श्री जिनगिरिथी निकसी, गुरु गौतम वाणी, जीवन भ्रम तम नाशन, दिपक दरशाणी ॥ॐजय॥ कुमत कुलाचल चूरन, वज्र सम सरधानी। नव नियोग निक्षेपन, देखत दरपानी ॥ॐजय॥ पातक पंक पखालन, पुन्य परम वाणी। मोह महार्णव डूबता, तारन नौकाणी ॥ॐजय॥ लोका लोक निहारन, दिव्य नयन स्थानी। निज पर भेद दिखावन, सुरज किरणानी ॥ॐजय॥ श्रावक मुनिगण जननी, तुम ही गुणखानी। सेवक लख सुखदायक, पावन परमाणी ॥ॐजय॥ ॐ जय जिनवाणी माता, ॐ जय जिनवाणी माता, तुमको निश दिन ध्यावे, सुरनर मुनि ज्ञानी॥
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ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पद्म सुपार्श्व की जय | महाराज की श्रीजिनराज की, दीनदयाल की आरती की जय | चंद्र पुष्प शीतल श्रेयांस, वासुपूज्य महाराज की जय | महाराज की श्री जिनराज की, दीनदयाल की आरती की जय | विमल अनंत धर्म जस उज्ज्वल, शांतिनाथ महाराज की जय | महाराज की श्री जिनराज की, दीनदयाल की आरती की जय | कुंथ अरह और मल्लि मुनिसुव्रत, नमिनाथ महाराज की जय | महाराज की श्री जिनराज की, दीनदयाल की आरती की जय | नेमिनाथ प्रभु पार्श्व जिनेश्वर, वर्द्धमान महाराज की जय | महाराज की श्री जिनराज की, दीनदयाल की आरती की जय | इन चौबीसों की आरती करके, आवागमन-निवार की जय | महाराज की श्री जिनराज की, दीनदयाल की आरती की जय |
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जब चले आत्माराम, छोड धन-धाम, जगत से भाई। जग में न कोई सहायी॥ तू क्यों करता तेरा मेरा, नहीं दुनिया में कोई तेरा। जब काल आयतब सबसे होय जुदाई,जगमें न कोई सहायी॥ तू मोहजाल में फ़ंसा हुआ, पापों के रंग में रंगा हुआ। जिन्दगानी तूने वृथा यों जी गवाई,जग में न कोई सहायी॥ सम्यक्त्व सुधा का पान करो, निज आतम ही का ज्ञान करो। यूं टले जीव से लगी कर्म की काई,जग में न कोई सहायी ॥ चेतो चेतो अब बढे चलो, सतपथ सुमार्ग पर बढे चलो यूं बाज रही यमराजा की शहनाई, जग में न कोई सहायी ॥
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करलो आतम ज्ञान परमातम बन जइयो करलो भेदविज्ञान ज्ञानी बन जइयो ॥ जग झूठा और रिश्ते झूठे, रिश्ते झूठे नाते झूठे सांचो है आतम राम, परमातम बन जइयो ॥ कुन्दकुन्द आचार्य देव ने, आतम तत्व बताया है शुद्धातम को जान, परमातम बन जइयो ॥ देह भिन्न है आतम भिन्न है, ज्ञान भिन्न है राग भिन्न है ज्ञायक को पहिचान, परमातम बन जइयो ॥ कुन्दकुन्द के ही प्रताप से, ध्रुव की धूम मची है रे धर लो ध्रुव का ध्यान, परमातम बन जइयो ॥
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अपनी सुधि पाय आप, आप यों लखायो॥टेक॥ मिथ्यानिशि भई नाश, सम्यक रवि को प्रकाश। निर्मल चैतन्य भाव, सहजहिं दर्शायो ॥ ज्ञानावर्णादि कर्म, रागादि मेटे भर्म ज्ञानबुद्धि तें अखंड, आप रूप थायो॥ सम्यकदृग ज्ञान चरण, कर्त्ता कर्मादि करण भेदभाव त्याग के, अभेद रूप पायो ॥ शुक्लध्यान खड्ग धार, वसु अरि कीने संहार लोक अग्र सुथिर वास, शाश्वत सुख पायो॥
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निजपुर में आज मची रे होरी ॥ टेक ॥ उमगी चिदानंद जी इत आये, इत आई सुमति गोरी ॥ लोकलाज कुलकानि गमाई, ज्ञान गुलाल भरी झोरी। समकित केसर रंग बनायो, चारित की पिचुकी छोरी ॥ गावत अजपा गान मनोहर, अनहद झरसौं वरस्यो री। देखन आये बुधजन भीगे, निरख्यौ ख्याल अनोखो री ॥
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म्हारा चन्द्र प्रभु जी की सुन्दर मूरत, म्हारे मन भाई जी ॥ टेक सावन सुदि दशमी तिथि आई, प्रगटे त्रिभुवन राईजी ॥ अलवर प्रांत में नगर तिजारा, दरशे देहरे मांही जी ॥ सीता सती ने तुमको ध्याया, अग्नि में कमल रचायाजी ॥ मैना सती ने तुमको ध्याया, पति का कुष्ट मिटाया जी ॥ जिनमें भूत प्रेत नित आते, उनका साथ छुड़ाया जी ॥ सोमा सती ने तुमको ध्याया, नाग का हार बनाया जी ॥ मानतुंग मुनि तुमको ध्याया, तालों को तोड भगाया जी ॥ जो भी दुखिया दर पर आया उसका कष्ट मिटाया जी ॥ अंजन चोर ने तुमको ध्याया, शस्त्रों से अधर उठाया जी ॥ सेठ सुदर्शन तुमको ध्याया, सूली का सिंहासन बनाया जी ॥ समवशरण में जो कोई आया, उसको पार लगाया जी ॥ रत्न जड़ित सिंहासन सोहे, ता में अधर विराजे जी ॥ तीन छत्र शीष पर सोहें, चौंसठ चंवर ढुरावें जी ॥ ठाड़ो सेवक अर्ज करै छै, जनम मरण मिटाओ जी ॥ भक्त तुम्हारे तुमको ध्यावैं बेड़ा पार लगाओ जी ॥
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मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूं, मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूं ॥ मैं हूं अपने में स्वयं पूर्ण, पर की मुझमें कुछ गंध नहीं मैं अरस, अरूपी, अस्पर्शी, पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं ॥ मैं रंग राग से भिन्न भेद से, भी मैं भिन्न निराला हूं मैं हूं अखंड चैतन्य पिण्ड, निज रस में रमने वाला हूं ॥ मैं ही मेरा कर्ता धर्ता, मुझमें पर का कुछ का काम नहीं मैं मुझमें रमने वाला हूं, पर में मेरा विश्राम नहीं ॥ मैं शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध एक, पर परिणति से अप्रभावी हूं आत्मानुभूति से प्राप्त तत्व, मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूं ॥
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शास्त्रों की बातों को मन से ना जुदा करना, संकट जो कोई आये स्वाध्याय सदा करना॥ जीवन के अंधेरों में दुखों का बीडा है, पहचान जरा कर ले फ़िर जड से मिटा देना॥ हम राह भटकते हैं, मंजिल का नहीं पाना, चहुं ओर अंधेरा है बुझा दीप हमारा है। हमें राह दिखा जिनवर भव पार हमें करना, शास्त्रों की.... धन दौलत की दुनिया अपना ही पराया है, तू सार करे किसकी माटी की काया है, पहचान जरा करले फ़िर जग से विदा लेना, शास्त्रों की...
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आरती करो रे, आरती करो रे । आरती करो रे, आरती करो रे ॥ तेरहवे जिनवर विमलनाथ की आरती करो रे, आरती करो रे । कृतवर्मा पितु राजदुलारे, जयश्यामा के प्यारे । कम्पिल पूरी में जनम लिया हैं, सुर नर वन्दे सारें २ ॥ आरती करो रे० निर्मल त्रय ज्ञान सहित, स्वामी की आरती करो रे आरती करो रे० शुभ ज्येष्ठ वदि दशमी प्रभु की गर्भागम तिथि मानी जाती है जन्म और दीक्षा कल्याणक, माघ चतुर्थी सुदी आती २ आरती करो रे० मनः पर्याय ज्ञानी तीर्थंकर की, आरती करो रे । आरती करो रे० सित माघ छट को ज्ञान हुआ, धनपति शुभ समवशरण रचता । दिव्य ध्वनि प्रभु की खिरी और, भव्यो का नाम कुमुद खिलता 2 । आरती करो रे० केवल ज्ञानी अर्हन्त प्रभु की आरती करो रे० आषाढ़ वदि दशमी तिथि थी, पंचम गति प्रभुवर ने पायी । शुभ लोक शिखर पर राजे जा, परमातम ज्योति प्रगटाई २। आरती करो रे० उन सिद्धप्रिया के अधिनायक की आरती करो रे० हे विमल प्रभु तव चरणों में बस एक आशा हे यह मेरी । मन विमल मति हो जावे प्रभु, मिल जाए मुझे भी सिद्ध गति २ ॥ आरती करो रे० चन्दन स्वातमसुख पाने हेतु आरती करो रे०
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धन्य धन्य जिनवाणी माता धन्य धन्य जिनवाणी माता, शरण तुम्हारी आये, परमागम का मंथन करके, शिवपुर पथ पर धाये, माता दर्शन तेरा रे, भविक को आनंद देता है, हमारी नैया खेता है ॥ धन्य धन्य.. ॥ वस्तुकथंचित नित्य अनित्य, अनेकांतमय शोभे, परद्रव्यों से भिन्न सर्वथा, स्वचतुष्टयमय शोभे, ऐसी वस्तुसमझने से, चतुर्गति फ़ेरा कटता है, जगत का फ़ेरा मिटता है ॥ धन्य धन्य.. ॥ नयनिश्चय व्यवहार निरूपण, मोक्ष मार्ग का करती, वीतरागता ही मुक्ति पथ, शुभ व्यवहार उचरती, माता तेरी सेवा से, मुक्ति का मार्ग खुलता है, महा मिथ्यातम धुलता है ॥ धन्य धन्य.. ॥ तेरे अंचल में चेतन की, दिव्य चेतना पाते, तेरी अनुपम लोरी क्या है, अनुभव की बरसाते, माता तेरी वर्षा मे, निजानंद झरना झरता है, अनुपमानंद उछलता है ॥ धन्य धन्य.. ॥ नव तत्वॊ मे छुपी हुई जो, ज्योति उसे बतलाती, चिदानंद चैतन्य राज का, दर्शन सदा कराती, माता तेरे दर्शन से, निजातम दर्शन होता है, सम्यकदर्शन होता है ॥ धन्य धन्य.. ॥
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अब गतियों में नाहीं रुलेंगे, निजानंद पान करेंगे। अब भव भव का नाश करेंगें, निजानंद पान करेंगे। खुद की खुद में ही खोज करेंगें, निजानंद पान करेंगे ॥ अब.. मैं मुझ में पर पर में रहता, निज रस के आनंद में रहता, अब केवल ज्ञान करेंगें, निजानंद पान करेंगे ॥ अब.. मैं ज्ञायक ज्ञायक ही न जाना, मैं तो हूं बस सिद्ध के समाना, अब सिद्धों के बीच रहेंगें, निजानंद पान करेंगे ॥ अब..
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धन्य धन्य है घड़ी आजकी धन्य धन्य है घड़ी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी । तत्त्वप्रतीत भई अब मेरे, मिथ्यादृष्टि टरी ।।टेक ।। जड़तैं भिन्न लखी चिन्मूरति, चेतन स्वरस भरी । अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, परमें सब परिहरी ।१। पापपुण्य विधिबंध अवस्था, भासी अतिदुखभरी । वीतराग विज्ञानभावमय, परिनत अति विस्तरी ।२। चाह-दाह विनसी वरसी पुनि, समतामेघझरी । बाढ़ी प्रीति निराकुल पदसों, `भागचन्द' हमरी ।३।
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ॐ जय वासुपूज्य स्वामी, प्रभु जय वासुपूज्य स्वामी । पंचकल्याणक अधिपति २, तुम अन्तरयामी ॥ ॐ जय वासुपूज्य स्वामी० चंपापुर नगरी भी धन्य हुई तुमसे स्वामी धन्य० जयराम वासुपूज्य २, मात पिता हर्षे ॐ जय वासुपूज्य स्वामी० बाल ब्रह्मचारी बन, महाव्रत को धारा २ । प्रथम बालयति जग ने २, तुमको स्वीकारा ॥ ॐ जय वासुपूज्य स्वामी० गर्भ जन्म तप एवं केवल ज्ञान लिया स्वामी केवल०। चंपापुर में तुमने २, पद निर्वाण लिया ॥ ॐ जय वासुपूज्य स्वामी० वासवगण से पूजित, वासुपूज्य जिनवर स्वामी वासु० । बारहवें तीर्थंकर २, है तुम नाम अमर ॥ ॐ जय वासुपूज्य स्वामी० जो कोई तुमको सुमिरे सुख सम्पति पावे स्वामी सुख० । पूजन वंदन करके २, वंदित हो जावे ॥ ॐ जय वासुपूज्य स्वामी० घृत आरती ले हम सब तुम आरती करते स्वामी तुम० । उसका फल मिले चंदना २, मति शुद्ध करदे ॥ ॐ जय वासुपूज्य स्वामी० पंचकल्याणक अधिपति २, तुम अन्तरयामी ॥ ॐ जय वासुपूज्य स्वामी०
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आज मैं परम पदारथ पायौ आज मैं परम पदारथ पायौ, प्रभुचरनन चित लायौ ।।टेक।। अशुभ गये शुभ प्रगट भये हैं, सहज कल्पतरु छायौ ।१। ज्ञानशक्ति तप ऐसी जाकी, चेतनपद दरसायो ।२। अष्टकर्म रिपु जोधा जीते, शिव अंकूर जमायौ ।३। दौलत राम निरख निज प्रभो को उरु आनन्द न समायो ।४।
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पाना नहीं जीवन को, बद्लना है साधना, तू ऐसा जीवन पावत है, जलना है साधना॥ मूंड मुंडाना बहुत सरल है, मन मुंडन आसान नहीं, व्यर्थ भभूत रमाना तन पर, यदि भीतर का ज्ञान नहीं, पर की पीडा में, मोम सा पिघलना है साधना॥ पाना नहीं.. मंदिर में हम बहुत गये पर, मन यह मंदिर नहीं बना, व्यर्थ शिवालय में जाना जो, मन शिवसुन्दर नहीं बना पल पल समता में इस मन का ढलना है साधना॥ पाना नहीं.. सच्चा पाठ तभी होगा जब, जीवन में पारायण हो, श्वास श्वास धडकन धडकन से जुडी हुई रामायण हो, तब सत पथ पर जन जन मन का चलना है साधना॥ पाना ..
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जिनवैन सुनत, मोरी जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी ।। टेक ।। कर्मस्वभाव भाव चेतनको, भिन्न पिछानन सुमति जगी ।। निज अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुष तुष मैल-पगी । स्यादवाद-धुनि-निर्मल-जलतैं, विमल भई समभाव लगी ।१। संशयमोहभरमता विघटी, प्रगटी आतमसोंज सगी । `दौल' अपूरब मंगल पायो, शिवसुख लेन होंस उमगी ।२।
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ओंकारमयी वाणी तेरी ओंकारमयी वाणी तेरी, जिनधर्म की शान है, समवशरण देखके, शांत छवि देखके,गणधर भी हैरान हैं ॥ स्वर्ण कमल पर, आसन है तेरा, सौ इंद्र कर रहे गुणगान है, दृष्टि है तेरी, नासा के ऊपर, सर्वज्ञता ही तेरी शान है, चाँद सितारों में,लाख हजारों में, तेरी यहां कोई मिसाल नहीं है, चार मुख दिखते, समोशरण मे, स्वर्ग में भी ऐसा कमाल नही है, हमको भी मुक्ति मिले हम सब का अरमान है ॥समवशरण ॥ सारे जहां में, फ़ैली ये वाणी, गणधर ने गूंथी इसे शास्त्र में, सच्ची विनय से,श्रद्धा करे तो, ले जाती है मुक्ति के मार्ग में, कषाय मिटाय, राग को भगाये, इसके श्रवण से ये शांति मिलि है, सुख का ये सागर, आत्म में रमणकर, आतम की बगिया में मुक्ति खिलि है, हमसब भी तुमसा बने-ऐसा ये वरदान है ॥ समवशरण॥ मैं हूं त्रिकाली, ज्ञान स्वभावी, दिव्य ध्वनि का यही सार है., शक्ति अनंत का, पिण्ड अखंड, पर्याय का भी ये आधार है, ज्ञेय झलकते हैं, ज्ञान की कला में, ऐसा ये अद्भुत कलाकार है, सृष्टि को पीता, फ़िर भी अछूता, तुझमें ये ऐसा चमत्कार है, जग में है महिमा तेरी गूंज रहा नाम है ॥ समवशरण ॥
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माया में फ़ंसे इंसान, विषयों में ना बह जाना। चिन्मय चैतन्य निधि को भूल ना पछताना ॥ तन धन वैभव परिजन, तेरे काम ना आयेंगे, संयोग सभी नश्वर, तेरे साथ ना जायेंगे, तू अजर अमर ध्रुव है, यह भाव सदा लाना ।१। पर द्रव्यों में रमकर, अपने को भूल रहा, माया अरु ममता में तू प्रतिक्षण फ़ूल रहा, अनमोल तेरा जीवन, गफ़लत में ना खो जाना ।२। चैतन्य सदन भासी, तू ज्ञान दिवाकर है, है सहज शुद्ध भगवन, तू सुख का सागर है, अपने को जरा पहिचान, विषयों में ना खो जाना ।३। लख चौरासी भ्रमते, दुर्लभ नरतन पाया, जिनश्रुत जिनदेव शरण, पुण्योदय से पाया, आतम अनुभूति बिना रह जाये ना पछताना ।४।
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प्रभु श्रेयांस की आरती कीजे, भव भव के पातक हर लीजे प्रभु श्रेयांस की आरती कीजे, भव भव के पातक हर लीजे २ स्वर्ण वर्णमय प्रभा निराली, मूर्ति तुम्हारी हैं मनहारी २ सिंहपूरी में जब तुम जन्मे, सुरगण जन्म कल्याणक करते 2 प्रभु श्रेयांस की आरती कीजे, भव भव के पातक हर लीजे विष्णु मित्र पितु, मात नन्दा, नगरी में भी आनन्द छाता २ फागुन वदि ग्यारस शुभ तिथि थी, जब प्रभु वर ने दीक्षा ली थी २ प्रभु श्रेयांस की आरती कीजे, भव भव के पातक हर लीजे माघ कृष्ण मावस को स्वामी,कहलाये थे केवलज्ञानी २ श्रावण सुदी पुरिम आई, यम जीता शिव पदवी पाई श्रेय मार्ग के दाता तुम हो, जजे चन्दनामति शिवगति दो 2 प्रभु श्रेयांस की आरती कीजे, भव भव के पातक हर लीजे प्रभु श्रेयांस की आरती कीजे, भव भव के पातक हर लीजे प्रभु श्रेयांस की आरती कीजे, भव भव के पातक हर लीजे २
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शरण कोई नहीं जग में शरण कोई नहीं जग में, शरण बस है जिनागम का जो चाहो काज आतम का,तो शरणा लो जिनागम का ॥ जहाँ निज सत्व की चर्चा, जहाँ सब तत्त्व की बातें जहाँ शिवलोक की कथनी, तहाँ डर है नहीं यम का ।१। इसी से कर्म नसते हैं, इसी से भरम भजते हैं इसी से ध्यान धरते हैं, विरागी वन में आतम का ।२। भला यह दाव पाया है, जिनागम हाथ आया है अभागे दूर क्यों भागो, भला अवसर समागम का ।३। जो करना है सो अब करलो, बुरे कामों से अब डरलो कहे `मुलतान' सुन भाई, भरोसा है न इक पल का ।४।
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देखा जब अपने अंतर को कुछ और नहीं भगवान हूं मैं पर्याय भले ही पामर हो अंदर से वैभववान हूं मैं, देखा जब अपने अंतर को... चैतन्य प्राणों से जीवित हैं, इंद्रिय बल श्वासोच्छवास नहीं, हूं आयुरहित नित अजरअमर, सच्चिदानंद गुणखान हूं मैं ॥ आधीन नहीं संयोगों के, पर्यायों से अप्रभावी हूं, स्वाधीन अखंड प्रतापी हूं, निज से ही प्रभुतावान हूं मैं ॥ सामान्य विशेषों सहित विशुद्ध, प्रत्यक्ष झलक जावे क्षण में, सर्वज्ञ सर्वोदय श्रीआदिक,सम्यक निधियों की खान हूं मैं॥ सौ धर्मों में व्याप्ति विभु हूं, अरु धर्म अनंतामयी धर्मी, नित निज स्वरूप की रचना से,अंतर में धीरजवान हूं मैं॥ मेरा वैभव शाश्वत अक्षुण्ण, पर से आदान प्रदान नहीं, त्यागोपादान शून्य निष्क्रिय,अरु अगुरुलघु से उधामहूं मैं॥ तृप्ति आनंदमयी प्रगटी, जब देखा अंतर नाथ को मैं, नहीं रही कामना अब कोई, बस निर्विकार निष्काम हूं मैं॥
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माँ जिनवाणी बसो हृदय में माँ जिनवाणी बसो हृदय में, दुख का हो निस्तारा नित्यबोधनी जिनवर वाणी, वन्दन हो शतवारा ।।टेक ।। वीतरागता गर्भित जिसमें, ऐसी प्रभु की वाणी जीवन में इसको अपनाएँ, बन जाए सम्यक्ज्ञानी जनम-जनम तक ना भूलूँगा, यह उपकार तुम्हारा ।१। युग युग से ही महादुखी है, जग के सारे प्राणी मोहरूप मदिरा को पीकर, बने हुए अज्ञानी ऐसी राह बता दो माता, मिटे मोह अंधियारा ।२। द्रव्य और गुणपर्यायों का, ज्ञान आपसे होता चिदानन्द चैतन्यशक्ति का, भान आपसे होता मैं अपने में ही रम जाऊँ, यही हो लक्ष्य हमारा ।३। भटक भटक कर हार गए अब, तेरी शरण में आए अनेकांत वाणी को सुनकर, निज स्वरूप को ध्याएँ जय जय जय माँ सरस्वती, शत शत नमन हमारा ।४।
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अपने में अपना परमातम, अपने से ही पाना रे। अपने को पाने अपने से, दूर कहीं नहीं जाना रे॥ अपनी निधि अपने में होगी, अपने को अपनेपन दे, अपनी निधि की विधि अपने में, अपना साधन आतम रे, अपना अपना रहा सदा ही, परिचय ही को पाना रे, अपने को पाने अपने से... अपने जैसे जीव अनन्ते, अपने बल से सेते हुए, अपनी प्रभुता की प्रभुता ही, पहचानी प्रसेते हुए, अपनी प्रभुता नहीं बनाना, अपने से है पाना रे, अपने को पाने अपने से...