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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१४   ?

           "वैयावृत्त धर्म और आचार्यश्री"

            किन्ही मुनिराज के अस्वस्थ होने पर वैयावृत्त की बात तो सबको महत्व की दिखेगी, किन्तु श्रावक की प्रकृति भी बिगड़ने पर पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ध्यान प्रवचन-वत्सलता के कारण विशेष रूप से जाता था। आचार्यश्री श्रेष्ट पुरुष होते हुए भी अपने को साधुओं में सबसे छोटा मानते थे।
           एक बार १९४६ में  कवलाना में ब्रम्हचारी फतेचंदजी परवार भूषण नागपुर वाले बहुत बीमार हो गए थे। उस समय आचार्य महराज उनके पास आकर बोले, "ब्रम्हचारी ! घबराना मत, अगर यहाँ श्रावक लोग तुम्हारी वैयावृत्त में प्रमाद करेंगे, तो हम तुम्हारी सम्हाल करेंगे।"
                  जब लेखक की ब्रम्हचारीजी से कवलाना में भेट हुई, तब उन्होंने आचार्यश्री की सांत्वना और वात्सल्य की बात कही थी। उससे ज्ञात हुआ कि महराज वात्सल्य गुण के भी भंडार थे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण १०?
  2. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२८   ?

                        "अनुकम्पा"

            पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।
              जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।
              बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में थे, अतः महराज उस धर में ही आहार लेते थे, जो मिथ्यात्व का त्याग करता था। 
             उनकी इस प्रतिज्ञा के भीतर आगम के साथ सुसंगति थी। मिथ्यात्व की आराधना करने वाला मिथ्यात्वी होगा। मिथ्यात्वी के यहाँ का आहार साधु को ग्रहण करना योग्य नहीं है। उसके श्रद्धादि गुणों का सद्भाव भी नहीं होगा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
         आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१   ?

              "महत्वपूर्ण शंका समाधान"

            अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?"
            महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह सात धातु-उपधातु रूप बनता है। पेट में दूध का कोठा तथा मल-मूत्र का कोठा जुदा-२ है। दूध में रक्त, मांस का भी संबंध नहीं है। इससे दुग्धपान करने में मल मूत्र का संबंध नहीं है।"
             इसके पश्चात महराज ने पूंछा,"यह बताओ की तालाब, नदी आदि में मगर, मछली आदि जलचर जीव रहते हैं या नहीं?"
           प्रोफेसर,"हाँ ! महराज वे रहते हैं, वह तो उनका घर ही है।"
         महराज, "अब विचारो जिस जल में मछली आदि, आदि मल मूत्र मिश्रित रहता है, उसे आप पवित्र मानते हुए पीते हो, और जिसका कोठा अलग रहता है, उस दूध को अपवित्र कहते हो, यह न्यायोचित बात नहीं है।
           इसके पश्चात महराज ने कहा, "हम लोग तो पानी छानते हैं, किन्तु जो बिना छना पानी पीते हैं, उनके पीने में मलादि का उपयोग हो जाता है।"
            यह सुनते ही वे विद्वान चुप हो गए। संदेह का शल्य निकल जाने से मन को बड़ा संतोष होता है। 
            पुनः महराज ने यह भी कहा, "जो यह सोचते हैं कि गाय का दूध उसके बछड़े के लिए ही होता है, वह भी दोषपूर्ण कथन है। गाय के अंदर बच्चे की आवश्यकता से अधिक दूध होता है।" आचार्यश्री की इस अनुभव उक्ति से उन पठित पुरुषों की भ्रांति दूर हो जाती है, जिन्होंने दूध ग्रहण को सर्वथा क्रूरता पूर्ण समझ रखा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख शुक्ल ३?
  4. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
           आज का प्रसंग हर एक मनुष्य के मष्तिस्क में उठ सकने वाले प्रश्न का समाधान है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा दिया गया समाधान बहुत ही आनंद प्रद है।
              अपने जीवन के प्रति गंभीर दृष्टिकोण रखने वाले पाठक श्रावक अवश्य ही इस समाधान को जानकर आनंद का अनुभव करेंगे।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१८   ?

            "एक अंग्रेज का शंका समाधान"

           एक दिन एक विचारवान भद्र स्वभाव वाला अंग्रेज आया।
          उसने पूज्य शान्तिसागरजी महराज से पूंछा, "महराज ! आपने संसार क्यों छोड़ा, क्या संसार में रहकर आप शांति प्राप्त नहीं कर सकते थे?"
             महराज ने समझाया, "परिग्रह के द्वारा मन में चंचलता, राग, द्वेष आदि विकार होते हैं। पवन के बहते रहने से दीपशिखा कम्पन रहित नहीं हो सकती है। पवन के आघात से समुद्र में लहरों की परम्परा उठती जाती है। पवन के शांत होते ही दीपक की लौ स्थिर हो जाती है, समुद्र प्रशांत हो जाता है, इसी प्रकार राग- द्वेष के कारण रूप धन वैभव कुटुम्ब आदि को छोड़ देने पर मन में चंचलता नहीं रहता है। 
            मन के शांत रहने पर आत्मा भी शांत हो जाती है। निर्मल जीवन द्वारा मानसिक शांति आती है।
             विषय भोग की आसक्ति द्वारा इस जीव की मनोवृत्ति मलिन होती है। मलिन मन पाप का संचय करता हुआ दुर्गति में जाता है। परिग्रह को रखते हुए पूर्णतः अहिंसा धर्म का पालन नहीं हो सकता है, अतएव आत्मा की साधना निर्विघ्न रुप से करने के लिए विषय भोगों का त्याग आवश्यक है। 
              विषय भोगों से शांति भी तो नहीं होती है। आज तक इतना खाया, पिया, सुख भोगा, फिर भी क्या तृष्णा शांत हुई? विषयों की लालसा का रोग कम हुआ? वह तो बढ़ता ही जाता है।
            इससे भोग के बदले त्याग का मार्ग अंगीकार करना कल्याणकारी है। संसार का जाल ऐसा है कि उसमें जाने वाला मोहवश कैदी बन जाता है। वह फिर आत्मा का चिंत्वन नहीं कर पाता है।
           दूसरी बात यह है कि जब जीव मरता है, तब सब पदार्थ यही रह जाते हैं, साथ में अपने कर्म के सिवाय कोई भी चीज नहीं जाती है, इससे बाह्य पदार्थों में मग्न रहना, उनसे मोह करना अविचारित कार्य है।"
           इस विषय में आचार्यश्री की मार्मिक, अनुभवपूर्ण बातें सुनकर हर्षित हो वह अंग्रेज नतमस्तक हो गया।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आजकी तिथी-वैशाख कृ०अमावस?
  5. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१६   ?

    "सरसेठ हुकुमचंद और उनका ब्रम्हचर्य प्रेम"

                लेखक दिवाकरजी ने लिखा है कि सर सेठ हुकुमचंद जी के विषय में बताया कि आचार्य महराज ने उनके बारे ये शब्द कहे थे, "हमारी अस्सी वर्ष की उम्र हो गई, हिन्दुस्तान के जैन समाज में हुकुमचंद सरीखा वजनदार आदमी देखने में नहीं आया। 
            राज रजवाड़ों में हुकुमचंद सेठ के वचनों की मान्यता रही है। उनके निमित्त से जैनों का संकट बहुत बार टला है। उनको हमारा आशीर्वाद है, वैसे तो जिन भगवान की आज्ञा से चलने वाले सभी जीवों को हमारा आशीर्वाद है।'
                 हुकुमचंद के विषय में एक समय आचार्य महराज ने कहा था, "एक बार संघपति गेंदनमल और दाडिमचंद ने हमारे पास से जीवन भर के लिए ब्रम्हचर्य व्रत लिया, तब हुकुमचंद सेठ ने इसकी बहुत प्रसंशा की। उस समय आचार्यश्री ने हुकुमचंद सेठ से कहा 'तुमको भी ब्रम्हचर्य व्रत लेना चाहिए।'
             हुकुमचंद ने तुरंत ब्रम्हचर्य व्रत लिया और कहा था, 'महराज ! आगामी भव में भी ब्रम्हचर्य का पालन करूँ।' हुकुमचंद का ब्रम्हचर्य व्रत पर इतना प्रेम है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण १२?
  6. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            आज चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन पर्यन्त के एक महत्वपूर्ण विवरण को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पोस्ट आप संरक्षित रखकर बहुत सारे रोचक प्रसंगों के वास्तविक समय का अनुमान लगा पाएँगे तथा उनके तपश्चरण की भूमि का समय के सापेक्ष में भी अवलोकन कर पाएँगे। विवरण ग्रंथ में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही है।

    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१५   ?
                  "चातुर्मास सूची"
    पूज्य शान्तिसागर जी महराज की दीक्षा संबंधी जानकारी का विवरण निम्न है-

    क्षुल्लक दीक्षा         -  १९१५
    ऐलक    दीक्षा        -  १९१९
    मुनि      दीक्षा        -   १९२०
    आचार्य    पद        -   १९२४
    चारित्र चक्रवर्ती पद -   १९३७
    आचार्य पद त्याग   -   १९५५
    समाधि                -   १९५५ 

                   ?चातुर्मास विवरण?

    क्र.       सन          स्थान
    १.       १९१५       कोगनोली
    २.       १९१६       कुम्भोज
    ३.       १९१७       कोगनोली
    ४.       १९१८       जैनवाड़ी
    ५.       १९१९       नसलापुर
    ६.       १९२०       ऐनापुर
    ७.       १९२१    नसलापुर
    ८.       १९२२       ऐनापुर
    ९.       १९२३       कोंनुर
    १०.    १९२४       समडोली
    ११.    १९२५       कुम्भोज
    १२.    १९२६       नांदनी
    १३.    १९२७       बाहुबली
    १४.    १९२८       कटनी
    १५.   १९२९       ललितपुर
    १६.   १९३०       मथुरा
    १७.   १९३१       दिल्ली
    १८.   १९३२       जयपुर
    १९.   १९३३       ब्यावर
    २०.   १९३४       उदयपुर
    २१.   १९३५       गोरल
    २२.   १९३६       प्रतापगढ़
    २३.   १९३७       गजपंथा
    २४.   १९३८       बारामती
    २५.   १९३९       पावागढ़
    २६.   १९४०       गोरल
    २७.   १९४१       अकलुज
    २८.   १९४२       कोरोची
    २९.   १९४३       डिगरज
    ३०.   १९४४       कुंथलगिरी
    ३१.   १९४५       फलटन
    ३२.   १९४६       कवलाना
    ३३.   १९४७       सोलापुर
    ३४.   १९४८       फलटण
    ३५.   १९४९       कवलाना
    ३६.   १९५०       गजपंथा
    ३७.   १९५१       बारामती
    ३८.   १९५२       लोनंद
    ३९.   १९५३       कुंथलगिरी
    ४०.   १९५४       फलटन
    ४१.   १९५५       कुंथलगिरी

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आज की तिथी - वैशाख कृष्ण ११?
  7. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ८६     ?
            
              "आचार्यश्री का श्रेष्ट विवेक"

                       देशभूषणजी महाराज ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी के बारे में कहा- "आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने जीवन की एक विशेष घटना हमें बताई थी-
                   एक ग्राम में एक गरीब श्रावक था। उसकी आहार देने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु बहुत अधिक दरिद्र होने से उसका साहस आहार देने का नहीं होता था।
                   एक दिन वह गरीब पडगाहन के लिए खड़ा हो गया। उसके यहाँ आचार्यश्री की विधि का योग मिल गया। उसके घर में चार ज्वार की रोटी थी। उन्होंने सोचा कि यदि उसकी चारों रोटी हम ग्रहण कर लेते हैं, तो गरीब क्या खाएगा? इससे उन्होंने छोटी सी भाकरी, थोडा दाल, चावल मात्र लिया। आहार दान देकर गरीब श्रावक का ह्रदय अत्यंत प्रसन्न हो रहा था।
                  उसके भक्ति से परिपूर्ण आहार को लेकर वे आए सामायिक को बैठे। उस दिन सामायिक में बहुत लगा। बहुत देर तक सामायिक होती रही। शुध्द तथा पवित्र मन से दिए गए आहार का परिणामों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। वे लोकोत्तर थे।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  8. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से -१०     ?

              "वैभवशाली दया पात्र हैं"

         दीन और दुखी जीवो पर तो सबको दया आती है । सुखी प्राणी को देखकर किसके अंतःकरण में करुणा का भाव जागेगा ?
           आचार्य शान्तिसागर महाराज की दिव्य दृष्टि में धनी और वैभव वाले भी उसी प्रकार करुणा व् दया के पात्र हैं, जिस प्रकार दीन, दुखी तथा विपत्तिग्रस्त दया के पात्र हैं। एक दिन महाराज कहने लगे, "हमको संपन्न और सुखी लोगों को देखकर बड़ी दया आती है।"
          मैंने पुछा, "महाराज ! सुखी जीवो पर दया भाव का क्या कारण है?" महाराज ने कहा था- "ये लोग पुण्योदय से आज सुखी हैं, आज संपन्न हैं किन्तु विषयभोग में उन्मत्त बनकर आगामी कल्याण की बात जरा भी नहीं सोचते, जिससे आगामी जीवन भी सुखी हो।" 
           जब तक जीव संयम और त्याग की शरण नहीं लेगा, तब तक उसका भविष्य आनंदमय नहीं हो सकता । इसीलिए हम भक्तो को आग्रह पूर्वक असंयम की ज्वाला से निकालकर संयम के मार्ग पर लगाते हैं।
        शान्तिसागर महाराज ने यह महत्त्व की बात कही थी, "हमने अपने बड़े भाई देवगोंडा को कुटुम्ब के जाल से निकालकर दिगम्बर मुनि बनाया। उसे वर्धमानसागर कहते हैं। छोटे भाई कमगौड़ा को ब्रम्हचर्य प्रतिमा दी उसे मुनि दीक्षा देते, किन्तु शीघ्र उसका मरण हो गया।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  9. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ५६    ?

        "दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार"

                एक दिन शान्तिसागरजी महाराज से ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नही पलता था।
              प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेटकर जाते थे और आहार के समय दिगम्बर होते थे।
               आहार के लिए पहले से ही उपाध्याय ( जैन पुजारी ) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे।
            ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों की थी, तब क्षुल्लको की कथा निराली है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  10. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३१३   ?

           "ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर"
     
                एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज कहने लगे-" हमारी भक्ति करने वाले को जैसे हम आशीर्वाद देते हैं, वैसे ही हम प्राण लेने वालों को भी आशीर्वाद देते हैं।उनका कल्याण चाहते हैं।"
                इन बातों की साक्षात परीक्षा राजाखेड़ा के समय हो गई। ऐसे विकट समय पर आचार्य महराज का तीव्र पुण्य ही संकट से बचा सका, अन्यथा कौन शक्ति थी जो ऐसे योजनाबद्ध षड्यंत से जीवन की रक्षा कर सकती?
                कदाचित आचार्य महराज का विहार ह्रदय की प्रेरणा के अनुसार हो गया होता, तो राजाखेड़ा कांड नहीं होता, किन्तु भवितव्य अमित है। और भी जगह देखा गया है कि भक्त लोग महराज से अनुरोध करते थे और करुणा भाव से वे लोगों का मन रखते थे, तब प्रायः गड़बड़ी हुई है। जब भी महराज ने आत्मा की आवाज के अनुसार काम किया तब कुछ भी बाधा नहीं आयी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
    ?आज की तिथी - चैत्र शुक्ल नवमीं?
  11. Abhishek Jain
    ?      अमृत माँ जिनवाणी से - १४     ?

                    " लोकोत्तर वैराग्य "

           आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के ह्रदय मे अपूर्व वैराग्य था।
          एक समय मुनि वर्धमान स्वामी ने महाराज के पास अपनी प्रार्थना भिजवायी- "महाराज ! मैं तो बानबे वर्ष से अधिक का हो गया। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा है। क्या करूँ ? "
         इस पर महाराज ने कहा- "हमारा वर्धमान सागर का क्या संबंध ? ग्रहस्थावस्था मे हमारा बड़ा भाई रहा है सो इसमें क्या ? हम तो सब कुछ त्याग कर चुके हैं। 
          पंच प्रवर्तन रूप संसार मे हम अनादिकाल से घूमे हैं। इसमें सभी जीव हमारे भाई बंधु रह चुके हैं। ऐसी स्थिति मे किस-२ को भाई,  बहिन, माता , पिता मानना। 
     
           हमको तो सभी जीव समान हैं। हम किसी मे भी भेद नहीं देखते हैं। ऐसी स्थिति मे वर्धमान सागर बार-बार हमे क्यो दर्शन के लिए कहते हैं।"
     
          उस व्यक्ति ने बुद्धिमत्ता पूर्वक कहा- "महाराज ! वे आपके दर्शन अपने भाई के रूप मे नहीं करना चाहते हैं। आपने उन्हें दीक्षा दी है, अतः वे अपने गुरु का दर्शन करना चाहते हैं।"
        महाराज बोले- "यदि ऐसी बात है, तो वहाँ से ही स्मरण कर लिया करें। यहाँ आने की जरूरत क्या है?"
          कितनी मोहरहित, वीतरागपूर्वक परणति आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की थी। विचारवान व्यक्ति आश्चर्य मे पड़े बिना न रहेगा। 
            जहाँ अन्य त्यागी लौकिक संबंधो और पूर्व सम्पर्को का विचार कर मोही बन जाते हैं। वहाँ आचार्यश्री अपने सगे ज्येष्ठ भाई के प्रति भी आदर्श वीतरागता का रक्षण करते रहे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  12. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २८२   ?

      "निर्वाण भूमि सम्मेद शिखरजी की वंदना"

                     मंगल प्रभात का आगमन हुआ। प्रभाकर निकला। सामयिक आदि पूर्ण होने के पश्चात आचार्य महराज वंदना के लिए रवाना हो गए। ये धर्म के सूर्य तभी विहार करते हैं जब गगन मंडल में पौदगलिक प्रभाकर प्रकाश प्रदान कर इर्या समीति के रक्षण में सहकारी होता है। महराज भूमि पर दृष्टि डालते हुए जीवों की रक्षा करते पहाड़ पर चढ़ रहे थे।

           ?गंधर्व,सीतानाला स्याद्वाद 
                             दृष्टि के प्रतीक?

                  विशेष अभ्यास तथा महान शारीरिक शक्ति के कारण वे शीघ्र ही गन्दर्भ नाले के पास पहुँच गए। कुछ काल के अनंतर सीता नाला मिला। वह जल प्रवाह कहता था - "जिस तरह मेरा प्रवाह बहता हुआ लौटकर नहीं आता इसी प्रकार जगत के जीवों का जीवन प्रवाह भी है।" ये दोनो निर्झर स्याद्वाद शैली से बहती हुई द्रव्य पर्याय रुप दृष्टि युगल के प्रतीक लगते थे। मार्ग में कंकर पत्थर की परवाह ना करते हुए महराज शैलराज के शिखर तक पहुँचते जा रहे थे।
    क्रमशः.......

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  13. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७    ?

            "सर्पराज का शरीर पर लिपटना"

            आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज की तपस्चर्या अद्भुत थी। कोगनोली में लगभग आठ फुट लंबा स्थूलकाय सर्पराज उनके शरीर से दो घंटे पर्यन्त लिपटा रहा । वह सर्प भीषण होने के साथ ही वजनदार भी था । महाराज का शरीर अधिक बलशाली था, इससे वे उसके भारी भोज का धारण कर सके। 
                दो घंटे बाद में उनके पास पहुँचा । उस समय वे अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में थे । किसी प्रकार की खेद, चिंता या मलिनता उनके मुख मंडल पर नहीं थी। उनकी स्थिरता सबको चकित करती थी।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  14. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १६     ?
                  "असाधारण शक्ति"
         
           आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का शरीर बाल्य-काल मे असाधारण शक्ति सम्पन्न रहा है। चावल के लगभग चार मन के बोरों को सहज ही वे उठा लेते थे। उनके समान कुश्ती खेलने वाला कोई नही था। उनका शरीर पत्थर की तरह कड़ा था।
          वे बैल को अलग कर स्वयं उसके स्थान में लगकर, अपने हांथो से कुँए से मोट द्वारा पानी खेच लेते थे। वे दोनो पैर को जोड़कर १२ हाथ लंबी जगह को लांघ जाते थे। उनके अपार बल के कारण जनता उन्हें बहुत चाहती थी। 
              वे बच्चों के साथ बाल क्रीड़ा नही करते थे। व्यर्थ की बात नही करते थे। किसी बात के पूंछने पर संक्षेप में उत्तर देते थे। वे लड़ाई झगड़े में नही पड़ते थे। बच्चों के समान गंदे खेलो में उनका तनिक भी अनुराग नही था। 
            वे लौकिक आमोद-प्रमोद से दूर रहते थे। धार्मिक उत्सवो में जाते थे।

    ? स्वाध्याय चरित्रचक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  15. Abhishek Jain
    ?       अमृत जिनवाणी से -१५       ?

                    "येलगुल मे जन्म"

             जैन संस्कृति के विकास तथा उन्नति के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह ज्ञात होता है कि विश्व को मोह अंधकार से दूर करने वाले तीर्थंकरो ने अपने जन्म द्वारा उत्तर भारत को पवित्र किया तथा निर्वाण द्वारा उसे ही तीर्थस्थल बनाया, किन्तु उनकी धर्ममयी देशना रूप अमृत को पीकर, वीतरागता के रस से भरे शास्त्रो का निर्माण करने वाले धुरंधर आचार्यो ने अपने जन्म से दक्षिण भारत की भूमि को श्रुत तीर्थ बनाया।
          उसी ज्ञानधारा से पुनीत दक्षिण भारत के बेलगाँव जिले को नररत्न आचार्य शान्तिसागर महाराज की जन्मभूमि बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
        भोजग्राम के समीप लगभग चार मील की दूरी पर विद्यमान ग्राम येलगुल में आषाढ़ कृष्णा ६ , विक्रम संवत १९२९, सन् १८७२ मे बुधवार की रात्रि को उनका जन्म हुआ था। 
               वह ग्राम भोजग्राम के अंतर्गत तथा समीप में था, इससे भोजभूमि ही जन्म स्थान है, ऐसी सर्वत प्रसिद्धि हुई।

    ? स्वाध्याय चारित्रचक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  16. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १२    ?
    "बाहुबलीस्वामी के विषय मे आलौकिक दृष्टी"
         जब हमने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पुछा- "महाराज गोमटेश्वर की मूर्ति का आपने दर्शन किया है उस सम्बन्ध मे आपके अंतरंग मे उत्पन्न उज्ज्वल भावो को जानने की बड़ी इच्छा है।"
        उस समय महाराज ने उत्तर दिया था उसे सुनकर हम चकित हो गये। 
     
               उन्होंने कहा था- "बाहुबली स्वामी की मूर्ति बड़ी है। यह जिनबिम्ब हमे अन्य मूर्तियो के समान ही लगी। हम तो जिनेन्द्र के गुणों का चिंतवन करते हैं, इसीलिए बड़ी मूर्ति और छोटी मूर्ति मे क्या भेद है?" 
          इससे आचार्य महाराज की मार्मिक दृष्टि का स्पष्ट बोध होता है। प्रत्येक बात मे आचार्य महाराज की लोकोत्तरता मिलती है।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  17. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ११     ?

                        "आत्मबल"

                    आत्मबल जागृत होने पर बड़े-२ उपवास आदि तप सरल दिखते हैं।
         बारहवे उपवास के दिन लगभग आधा मील चलकर मंदिर से आते हुए आचार्य शान्तिसागर महाराज के शिष्य पूज्य नेमिसागर मुनिराज ने कहा था- "पंडितजी ! आत्मा में अनंत शक्ति है।अभी हम दस मील पैदल चल सकते हैं।"
         मैंने कहा था- "महाराज, आज आपके बारह उपवास हो गए हैं।" वे बोले, "जो हो गए, उनको हम नहीं देखते हैं।इस समय हमें ऐंसा लगता है, कि अब केवल पाँच उपवास करना हैं।"
        मैंने उपवास के सत्रहवें दिन पूंछा कि- "महाराज ! अब आपके पुण्योदय से सत्रहवाँ उपवास का दिन है तथा आप में पूर्ण स्थिरता है। प्रमाद नहीं है, देखने में ऐंसा लगता है मानो तीन चार उपवास किए हों।"
           वे बोले- "इसमे क्या बड़ी बात है, हमे ऐंसा लगता है कि अब हमे केवल एक ही उपवास करना है।" उन्होंने यह भी कहा था- "भोजन करना आत्मा का स्वाभाव नहीं है।नरक में अन्य पानी कुछ भी नहीं मिलता है।सागरो पर्यन्त जीव अन्न-जल नहीं पाता है,तब हमारे इस थोड़े से उपवास की क्या बड़ी चिंता है?"
          उस समय उनके समीप बैठने में ऐंसा लगता था, मानो हम चतुर्थकालीन ऋषिराज के पाद पद्मो में पास बैठे हों।
       अठारहवें दिन संघपति गेंदनमलजी, दादिमचंदजी, मोतीलालजी जवेरी बम्बई वालों के यहाँ वे खड़ें-खड़ें करपात्र में यथाविधि आहार ले रहे थे। उस दिन पेय वस्तु का विशेष भोजन हुआ था।गले की नली शुष्क हो गई थी, अतः एक-एक घूँट को बहुत धीरे-धीरे वे निगल रहे थे।
          उस समय प्रत्येक दर्शक के अंतःकरण में यही बात आ रही थी कि इस पंचमकाल में हीन सहनन होते हुए भी वे मुनिराज चतुर्थकालीन पक्षाधिक उपवास करने वाले महान तपस्वीओ के समान नयन गोचर हो रहे हैं।
          गुरु-भक्त नेमिसागर महाराज ने कहा- "उपवास शांति से हो गये, इसमें शान्तिसागर महाराज का पवित्र आशीर्वाद ही था"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  18. Abhishek Jain
    ?      अमृत माँ जिनवाणी से - ९      ?

                       सामयिक बात

         आचार्य शान्तिसागरजी महाराज सामयिक बात करने में अत्यंत प्रवीण थे।
            एक दिन की बात है, शिरोड के बकील महाराज के पास आकर कहने लगे - 
    "महाराज, हमे आत्मा दिखती है।  अब और क्या करना चाहिए?"
            कोई तार्किक होता, तो बकील साहब के आत्मदर्शन के विषय में विविध प्रश्नो के द्वारा उनके कृत्रिम आत्मबोध की कलई खोलकर उनका उपहास करने का उद्योग करता, किन्तु यहॉ संतराज आचार्य महाराज के मन में उन भले बकील साहब के प्रति दया का भाव उत्पन्न हुआ।
           उन्होंने कहा- " अब तुम्हे माँस,मदिरा आदि छोड़ देना चाहिए: इससे आत्मा का अच्छी तरह दर्शन होगा।" 
            अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था- "पाप का त्याग करने से यह जीव देवगति में तीर्थंकर की अकृतिम मूर्तिदर्शन आदि द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और तब यथार्थ में आत्मा का दर्शन होगा।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  19. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ७    ?

           "शहद भक्षण में क्या दोष है"

          एक दिन मैंने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज, आजकल लोग मधु खाने की ओर उद्यत हो रहे हैं क्योंकि उनका कथन है, क़ि अहिंसात्मक पद्धति से जो तैयार होता है, उसमे दोष नहीं हैं।"
       महाराज ने कहा, "आगम में मधु को अगणित त्रस जीवो का पिंड कहा है, अतः उसके सेवन में महान पाप है।
       मैंने कहा, "महाराज सन् १९३४ को मै बर्धा आश्रम में गाँधी जी से मिला था।उस समय वे करीब पाव भर शहद खाया करते थे।मैंने गाँधी जी से कहा था कि आप अहिंसा के बारे में महावीर भगवान के उपदेश को श्रेय देते हैं, उन्होंने अहिंसा के प्राथमिक आराधकों के लिए मांस, मद्य के साथ मधु को त्याज्य बताया है, अतः आप जैसे लब्धप्रतिष्ठित अहिंसा के भक्त यदि शहद सेवन करेंगे, तो आपके अनुयायी इस विषय में आपके अनुसार प्रव्रत्ति करेंगे।"
       इस पर गांधीजी ने कहा था, "पुराने ज़माने में मधु निकालने की नवीन पद्धति का पता नहीं था, आज की पध्दति से निकाले गए मधु में कोई दोष नहीं दिखता है"|
        इस चर्चा को सुनकर आचार्य महाराज बोले, "मख्खी अनेक पुष्पो के भीतर के छोटे-२ कीड़ो को और उनके रस को खा जाती है।खाने के बाद वह आवश्यकता से अधिक रस को वमन कर देती है।नीच गोत्री विकलत्रय जीव का वमन खाना योग्य नहीं है।वमन में जीव रहते हैं।वमन खाना जैनधर्म के मार्ग के बाहर की बात है।थूक का खाना अनुचित कार्य है।" महाराज ने यह भी कहा था, "जो बात केवली के ज्ञान में झलकती है, वह साइंस में नहीं आती।साइंस में इन्द्रियगोचर स्थूल पदार्थो का वर्णन पाया जाता है।"

    ?स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का?
  20. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ६     ?
                   "अपूर्व दयालुता"          

                  भोज ग्राम में गणु जयोति दमाले नामक एक मराठा किसान ८० वर्ष की अवस्था का था।वह एक ब्राम्हण के खेत में मजदूरी करता रहा था।उस बृद्ध मराठा को जब यह समाचार पहुँचा कि महाराज के जीवन के सम्बन्ध में परिचय पाने को कोई व्यक्ति बाहर से आया है, तो वह महाराज का भक्त मध्यान्ह में दो मील की दूरी से भूखा ही समाचार देने को हमारे पास आया| उस कृषक से इस प्रकार की महत्त्व की सामग्री ज्ञात हुई:
               उसने बताया, "हम जिस खेत में काम करते थे उसे लगा हुआ हमारा खेत था।उनकी बोली बड़ी प्यारी लगती थी।मैं गरीब हूँ और वे श्रीमान हैं, इस प्रकार का अहंकार उनमे नहीं था।
          हमारे खेत में अनाज को खाने को सैकड़ो पक्षी आ जाते थे, मैं उनको उडाता था, तो वे उनके खेत में बैठ जाते थे।वे उन पक्षीयो को उड़ाते नहीं थे।पक्षी के झुंड के झुंड उनके खेत में अनाज खाया करते थे।
       एक दिन मैंने कहा कि पाटील हम अपने खेत के सब पक्षीयो को तुम्हारे खेत में भेजेगे।
         वे बोले कि तुम भेजो, वे हमारे खेत का सब अनाज खा लेंगे, तो भी कमी नहीं होगी।
        इसके बाद उन्होंने पक्षीयो के पीने का पानी रखने की व्यवस्था खेत में कर दी।पक्षी मस्त होकर अनाज खाते थे और जी भर कर पानी पीते थे और महाराज चुपचाप यह द्रश्य देखते, मानो वह खेत उनका ना हो।
         मैंने कहा पाटील तुम्हारे मन में इन पक्षीयो के लिए इतनी दया है, तो झाढ़ पर ही पानी क्यों नहीं रख देते हो? 
          उन्होंने कहा कि ऊपर पानी रख देने से पक्षीयो को नहीं दिखेगा, इसीलिए नीचे रखते हैं।
            उनको देखकर कभी-२ मैं कहता था - "तुम ऐसा क्यों करते हो ? क्या बड़े साधु बनोगे ?"तब चुप रहते थे, क्योंकि व्यर्थ की बातें करना उन्होंने पसंद नहीं था।कुछ समय के बाद जब पूरी फसल आई, तब उनके खेत में हमारी अपेक्षा अधिक अनाज उत्पन्न हुआ था।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  21. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - ५      ?

      "शिखरजी की वंदना से त्याग और नियम"

         आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज गृहस्थ जीवन में जब शिखरजी की वंदना को जब बत्तीस वर्ष की अवस्था में पहुंचे थे, तब उन्होंने नित्य निर्वाण भूमि की स्मृति में विशेष प्रतिज्ञा लेने का विचार किया और जीवन भर के लिए घी तथा तेल भक्षण का त्याग किया।घर आते ही इन भावी मुनिनाथ ने एक बार भोजन की प्रतिज्ञा ले ली।
         रोगी व्यक्ति भी अपने शारीर रक्षण हेतु कड़ा संयम पालने में असमर्थ होता है किन्तु इन प्रचंड -बली सतपुरुष का रसना इंद्रिय पर अंकुश लगाने वाला महान त्याग वास्तव में अपूर्व था।
        शास्त्र में रसना इंद्रिय तथा स्पर्शन इंद्रिय को जीतना बड़ा कठिन कहा है।
        उपरोक्त प्रकार के अनेक आहार की लोलुपता त्याग कराने वाले नियमो द्वारा इन्होंने रसना इंद्रिय को अपने आधीन कर लिया तथा आजीवन ब्रम्हचर्य व्रत द्वारा स्पर्शन इंद्रिय पर विजय प्राप्त की।
         शिखरजी की वंदना ने महाराज को गृहस्थ जीवन में संयम के शिखर पर चढ़ने के लिए त्यागी बनने की प्रबल प्रेरणा तथा महान विशुद्ता प्रदान की थी।
    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  22. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ४    ?

                    "वानरो पर प्रभाव"

                  शिखरजी की तीर्थवंदना से लौटते हुए महाराज का संघ सन् १९२८ में विंध्यप्रदेश में आया। विध्याटवी का भीषण वन चारों ओर था। एक ऐसी जगह पर संघ पहुँचा, जहाँ आहार बनाने का समय हो गया था। श्रावक लोग चिंतित थे कि इस जगह वानरों की सेना स्वछन्द शासन तथा संचार है, ऐसी जगह किस प्रकार भोजन तैयार होगा और किस प्रकार इन सधुराज की विधि सम्पन्न होगी? उस स्थान से आगे चौदह मील तक ठहरने योग्य जगह नही थी।
                  संघ के श्रावकों ने कठिनता से रसोई तैयार की, किन्तु डर था कि महाराज के हाथ से ही बंदर ग्रास लेकर ना भागे, तब तो अंतराय आ जायेगा। इस स्थिति में क्या किया जाय? लोग चिंतित थे।
                  चर्या का समय आया। शुद्धि के पश्चात जैसे ही आचार्य महाराज चर्या के लिए निकले कि सैकड़ो बंदर अत्यंत ही शांत हो गए और चुप होकर महाराज की चर्या की सारी विधि देखते रहे। बिना विध्न के महाराज का आहार हो गया। इसके क्षण भर पश्चात ही बंदरों का उपद्रव पूर्ववत प्रारम्भ हो गया। गृहस्थ बंदरों को रोटी खाने को देते जाते थे और स्वयं भी भोजन करते जाते थे।
                ऐसी अपूर्व दशा महाराज के आत्मविकास व आध्यात्मिक प्रभाव को स्पष्ट करती है।

    ?   स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  23. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - ३    ?

              "माता की धर्म परायणता"

        आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन में उनके माता-पिता की धार्मिकता का बड़ा प्रभाव था। 
           सन १९४८ के दशलक्षण पर्व में फलटण नगर में उन्होंने बताया था कि, "हमारी माता अत्यंत धार्मिक थी, "वह अष्टमी चतुर्दशी को उपवास करती तथा साधुओ को आहार देती थी। 
               हम भी बचपन से ही साधुओ को आहार देने में योग दिया करते थे, उनके कमण्डलु को हाथ में रखकर उनके साथ जाया करते थे। छोटी अवस्था से ही हमारे मन में मुनि बनने की लालसा जाग गई थी।"
       
        अपने पिताजी के विषय में उन्होंने बताया था कि वे प्रभावशाली, बलवान, रूपवान, प्रतिभाशाली, ऊंचे पूरे क्षत्रिय थे। वे शिवाजी महाराज सरीखे दिखते थे। उन्होंने १६ वर्ष पर्यन्त दिन में एक बार ही भोजन पानी लेने के नियम का निर्वाह किया था, १६ वर्ष पर्यन्त ब्रम्हचर्य व्रत रखा था।
            उन जैसे धर्माधना पूर्वक  सावधानी सहित समाधिमरण मुनियो के लिए भी कठिन है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - २     ?

         "मिथ्या देवों की उपासना का निषेध"
                "जैन मंत्र का अपूर्व प्रभाव"
             
                    जैनवाणी नामक ग्राम में महाराज जैनियो को मिथ्यादेवों की पूजा के त्याग करा रहे थे, तब ग्राम के मुख्य जैनियो ने पूज्यश्री से प्रार्थना की, "महाराज ! आपकी सेवा में एक नम्र विनती है।"महाराज ने बड़े प्रेम से पूछा -  "क्या कहना है कहो?"
                  जैन बन्धु बोले -  "महाराज ! इस ग्राम में सर्प का बहुत उपद्रव है। सर्प का विष उतारने में निपुण एक जैनी भाई हैं। वह मिथ्या देवो की भक्ति करके,उस मंत्र पढ़कर सर्प का विष उतारता है। उसने यदि मिथ्यात्व त्याग की प्रतिज्ञा ले ली,तो हम सब को बड़ी विपत्ति उठानी पड़ेगी।
                     इसीलिए उसे छोड़कर सबको आप नियम देवें,इसमे हमारा विरोध नहीं है। आगे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।"
                      अब तो विकट प्रश्न आ गया जो आज बड़े-२ लोगो को विचलित किए बिना नहीं रहेगा। तार्किक व्यक्ति को लोकोपकार, सार्वजनिक हित,जीवदया,प्राणरक्षा के नाम पर अथवा अन्य भी युक्तिवाद की ओट में उस मांत्रिक जैन को नियम के बंधन से मुक्ति देने के विषय में आपको विशेष विचार करना होगा और सार्वजानिक हित के हेतु केवल एक व्यक्ति को पूजा के लिए छुटटी देनी होगी।
                        पूज्य महाराज ने गंभीरता पूर्वक इस समस्या पर विचार किया और उस जैन बन्धु से कहा-"जैन मंत्रो में अचिन्त्य सामर्थ पाई जाती है।हम तुम्हे एक मंत्र बताते हैं।उसका विधिपूर्वक प्रयोग करो यदि दो माह के भीतर यह मंत्र तुम्हारा कार्य ना करे तो तुम बंधन में नहीं रहोगे।अतः तुम दो माह के लिए मिथ्यात्व का त्याग करो"|
                     महाराज ने उस मांत्रिक बंधु को मित्यात्व का त्याग कराकर मंत्र दिया तथा विधि भी कह दी।इतने में कोई व्यक्ति समाचार लाया और बोला की मेरे बैल को सर्प ने काट लिया है।वह तुरंत पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करता हुआ वह पहुंचा और जैन मंत्रो का प्रयोग किया ,तत्काल विष बाधा दूर हो गई।
                      इसके पश्यात मंत्र का सफल प्रयोग देखकर वह महाराज के पास आया और बोला- "महाराज अब मुझे जीवन भर के लिए मिथ्यात्व के त्याग का नियम दे दीजिये"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
  25. Abhishek Jain
    ?     अमृत माँ जिनवाणी से - १     ?

                         "स्थिर मन"
        
                 एक बार लेखक ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूछा, महाराज आप निरंतर स्वाध्याय आदि कार्य करते रहते है क्या इसका लक्ष्य मन रूपी बन्दर को बाँधकर रखना है जिससे वह चंचलता ना दिखाये।महाराज बोले, "हमारा बन्दर चंचल नहीं है"|
               लेखक ने कहा,  "महाराज मन की स्थिरता कैसे हो सकती है,वह तो चंचलता उत्पन्न करता ही है"
             महाराज ने कहा, "हमारे पास चंचलता के कारण नहीं रहे है|जिसके पास परिग्रह की उपाधि रहती है उसको चिंता होती है,उसके मन में चंचलता होती है,हमारे मन में चंचलता नहीं है।हमारा मन चंचल होकर कहाँ जाएगा,इस बात के स्पष्टीकरण के हेतु आचार्य महाराज ने उदाहरण दिया -
                "एक पोपट तोता जहाज के ध्वज के भाले पर बैठ गया,जहाज मध्य समुद्र में चला गया।उस समय वह पोपट उठकर बाहर जाना चाहे तो कहाँ जाएगा?
      
                   उसके ठहरने का स्थल भी तो होना चाहिए।इसीलिए वह एक ही जगह पर बैठा रहता है।
                    इस प्रकार घर परिवार आदि का त्याग करने के कारण हमारा मन चंचल होकर जाएगा कहाँ,यह बताओ?"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का ?
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