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Abhishek Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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Blog Entries posted by Abhishek Jain

  1. Abhishek Jain
    ?          कल अष्टमी पर्व              ?

    जय जिनेन्द्र बंधुओ,

                  कल १४ मई, दिन शनिवार को अष्टमी पर्व है।

    ??
    कल जिनमंदिर जाकर देवदर्शन करें।
    ??
    जो श्रावक प्रतिदिन देवदर्शन करते है उनको अष्टमी/चतुर्दशी के दिन भगवान का अभिषेक और पूजन करना चाहिए।
    ??
    इस दिन रात्रि भोजन व् आलू-प्याज आदि जमीकंद का त्याग करना चाहिए।
    ??
    जो श्रावक अष्टमी/चतुर्दशी का व्रत करते है कल उनके व्रत का दिन है।
    ??
    इस दिन राग आदि भावो को कम करके ब्रम्हचर्य के साथ रहना चाहिए।


    इस दिन धर्म करने से विशेषरूप से अशुभ कर्मो का नाश होता है।

    अपकी संतान को लौकिक शिक्षा के समान ही धर्म की शिक्षा जरुरी है।अपने बच्चों को पाठशाला भेजें।क्योकि धार्मिक शिक्षा वर्तमान में उनको तनाव मुक्त जीवन व् शांति प्रदान करेगी ही साथ ही भविष्य में नरक,तिर्यन्च आदि अधोगतियों से बचायगी।

    ?तिथी - वैशाख शुक्ल अष्टमी।

    ?? आचार्यश्री विद्यासागर सेवासंघ ??

    इस तरह की सूचनाओं को आप भी अन्य श्रावकों को प्रेषित कर पुण्य के भागीदारी बन सकते हैं।
  2. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७६   ?

    "अगणित ग्रामीणों का व्रतदान द्वारा उद्धार"

                       छत्तीसगढ़ प्रांत के भयंकर जंगल के मध्य से संघ का प्रस्थान हुआ। दूर-२ के ग्रामीण लोग इन महान मुनिराज के दर्शनार्थ आते थे। महराज ने हजारों को मांस, मद्य आदि का त्याग कराकर उन जीवों का सच्चा उद्धार किया था। पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है। पाप प्रवृत्तियों के परित्याग से आत्मा का उद्धार होता है।
                    कुछ लोग सुंदर वेशभूषा सहभोजनादि को आत्मा के उत्कर्ष का अंग सोचते हैं, यह योग्य बात नहीं है। आत्मा के उत्कर्ष के लिए अंतःकरण वृत्ति का परिमार्जन किया जाना आवश्यक है।
                     पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का कथन यही है कि गरीबों का सच्चा उद्धार तब होगा, जब उनकी रोटी की व्यवस्था करते हुए उनकी आत्मा को मांसाहारादि पापों से उन्मुक्त करोगे।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  3. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २७८   ?

        "अंग्रेज अधिकारी का भ्रम निवारण"

                संघ १८ जनवरी सन १९२८ को रायपुर पहुँचा। यहाँ सुंदर जुलूस निकालकर धर्म की प्रभावना की गई। यहाँ अनंतकीर्ति मुनि महराज का केशलोंच भी हुआ था।
                  यहाँ के एक अंग्रेज अधिकारी की मेम ने दिगम्बर संघ को देखा, तो उसकी यूरोपियन पध्दति को धक्का सा लगा। उसने तुरंत अपने पति अंग्रेज साहब के समक्ष कुछ जाल फैलाया, जिससे संघ के बिहार में बाधा आए।
                  अंग्रेज अधिकारी अनर्थ पर उतर उतारू हो गया था, किन्तु कुछ जैन बंधुओं ने अफसर के पास जाकर मुनिराज के महान जीवन पर प्रकाश डाला और इनकी नग्नता का क्या अंतस्तत्व है यह समझाया तब उसकी दृष्टि बदली और उसने कोई विध्न नहीं किया।
                 महराज के पुण्य प्रसाद से विध्न का पहाड़ सतप्रयत्न की फूंक मारने से उड़ गया। कुशलता से कार्य करने पर जो वस्तु प्रारम्भ में अंगुली से टूट जाती है, वही चीज आरोग्य और अकुशल व्यक्तियों का आश्रय पाकर कुठार से भी अछेद्य हो जाती है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  4. Abhishek Jain
    ? अमृत माँ जिनवाणी से - २४१   ?

                    "अद्भुत समाधान"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी से एक दिन किसी ने पूंछा- "महराज ! कोई व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण करके उसके गौरव को भूलकर कोई कार्य करता है, तो उसको आहार देना चाहिए कि नहीं?
              उन्होंने कहा- "आगम का वाक्य है, कि भुक्ति मात्र प्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम। अरे दो ग्रास भोजन देते समय साधु की क्या परीक्षा करना? उसको आहार देना चाहिए। बेचारा कर्मोदयवश प्रमत्त बनकर विपरीत प्रवृत्ति कर रहा है। उसका न तिरस्कार न पुरुस्कार ही करें। भक्तिपूर्वक ऐसे व्यक्ति की सेवा नहीं करना चाहिए।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  5. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२८   ?

                        "अनुकम्पा"

            पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।
              जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।
              बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में थे, अतः महराज उस धर में ही आहार लेते थे, जो मिथ्यात्व का त्याग करता था। 
             उनकी इस प्रतिज्ञा के भीतर आगम के साथ सुसंगति थी। मिथ्यात्व की आराधना करने वाला मिथ्यात्वी होगा। मिथ्यात्वी के यहाँ का आहार साधु को ग्रहण करना योग्य नहीं है। उसके श्रद्धादि गुणों का सद्भाव भी नहीं होगा।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  6. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९६    ?

                       "अपार तेजपुंज"

              भट्टारक जिनसेन स्वामी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के बारे में अपना अनुभव इस सुनाया-
            सन् १९१९ की बात है, आचार्य शान्तिसागरजी महराज हमारे नांदणी मठ में पधारे थे। वे यहाँ की गुफा में ठहरे थे। उस समय वे ऐलक थे। उनके मुख पर अपार तेज था। पूर्ण शांति भी थी।
            वे धर्म कथा के सिवाय अन्य पापाचार की बातों में तनिक भी नहीं पड़ते थे। मैं उनके चरणों के समीप पहुँचा, बड़े ध्यान से उनकी शांत मुद्रा का दर्शन किया। उन्होंने मेरे अंतःकरण को बलवान चुम्बक की भाँति आपनी ओर आकर्षित किया था।
              नांदणी में हजारों जैन अजैन नर-नारियों ने आ-आकर उन महापुरुष के दर्शन किये थे। सभी लोग उनके साधारण व्यक्तित्व, अखंड शांति, तेजोमय मुद्रा से अत्यंत प्रभावित हुए थे। 
             उनका तत्व प्रतिपादन अनुभव की कसौटी पर कसा, अत्यंत मार्मिक तथा अन्तःस्थल को स्पर्श करने वाला होता था। लोग गंभीर प्रश्न करते थे, किन्तु उनके तर्क संगत समाधान से प्रत्येक शंकाशील मन को शांति का लाभ हो जाता था।
            उनकी वाणी मे उग्रता या कठोरता अथवा चिढ़चिढ़ापन रंचमात्र भी नहीं था। वे बड़े प्रेम से प्रसन्नता पूर्वक संयुक्तिक उत्तर देते थे। उस समय मेरे मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि इन समागत साधु चुडामणि को ही अपने जीवन का आराध्य गुरु बताएँ और इनके चरणों की निरंतर समाराधना करूँ।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  7. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९७    ?

                    "अपार तेज पुंज-१"

              पिछले प्रसंग में  भट्टारक जिनसेन स्वामी द्वारा पूज्य शांतिसागरजी महराज के बारे में वर्णन को हम जान रहे थे। उन्होंने आगे बताया-
            पूज्य शान्तिसागरजी महराज की अलौकिक मुद्रा के दर्शन से मुझे कितना आनंद हुआ, कितनी शांति मिली और कितना आत्म प्रकाश मिला उसका में वर्णन करने में असमर्थ हूँ।
              इन मनस्वी नर रत्न के आज दर्शन की जब भी मधुर स्मृति जग जाती है, तब मैं आनंद विभोर हो जाता हूँ। उनका तपस्वी जीवन चित्त को चकित करता था। उस समय वे एक दिन के अंतराल से एक बार केवल दूध चावल लिया करते थे।
             वे सदा आत्म-चिंतन, शास्त्र-स्वाध्याय तथा तत्वोपदेश में संलग्न पाये जाते थे। लोककथा, भोजनकथा, राष्ट्रकथा, आदि से वे अलिप्त रहते थे। उनके उपदेश से आत्मा का पोषण होता था।
                उनका विषय प्रतिपादन इतना सरस और स्पष्ट होता था कि छोटे-बड़े, सभी के ह्रदय में उनकी बात जम जाती थी। उनके दिव्य जीवन को देखकर मैंने उनको अपना आराध्य गुरु मान लिया था। मैं उनके अनुशासन तथा आदेश में रहना अपना परम सौभाग्य मानता हूँ। मेरे ऊपर उनकी बड़ी दयादृष्टि थी।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  8. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९८    ?

                    "अपार तेजपुंज-२"

              भट्टारक जिनसेन स्वामी ने बताया कि एक धार्मिक संस्था के मुख्य पीठाधीश होने के कारण मेरे समक्ष अनेक बार भीषण जटिल समस्याएँ उपस्थित हो जाया करती थीं। उन समस्याओं में गुरुराज शान्तिसागरजी महराज स्वप्न में दर्शन दे मुझे प्रकाश प्रदान करते थे। उनके मार्गदर्शन से मेरा कंटकाकीर्ण पथ सर्वथा सुगम बना है।
            अनेक बार स्वप्न में दर्शन देकर उन्होंने मुझे श्रेष्ठ संयम पथ पर प्रवृत्त होने को प्रेरणा पूर्ण उपदेश दिया। मेरे जीवन का ऐसा दिन अब तक नहीं बीता है, जिस दिन उन साधुराज का मंगल स्मरण नहीं आया हो। उनकी पावन स्मृति मेरे जीवन की पवित्र निधि हो गई है।
           उस पावन स्मृति से बड़ी शांति व अवर्णनीय आह्लाद प्राप्त होता है। उस समय मठ की संपत्ति तथा उसकी आय के उपयोग के विषय में उनसे प्रश्न किया, तब महराज ने कहा कि धार्मिक संपत्ति का लौकिक कार्यों में व्यय करना दुर्गति तथा पाप का कारण है।
          मेरे मार्ग में विघ्नों की राशि सदा आई, किन्तु गुरुदेव के आदेशानुसार प्रवृत्ति करने से मेरा काम शांतिपूर्ण होता रहा। शास्त्र संरक्षण में उनका विश्वास था कि इस कलिकाल में भगवान की वाणी के संरक्षण द्वारा ही जीव का हित होगा, इसीलिए वे शास्त्र संरक्षण के विषय में विशेष ध्यान देते थे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  9. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र भाइयों,
               परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागरजी महराज  का सन् १९२७ में शिखरजी के लिए विहार का वर्णन किया जा रहा है। यदि आप इन प्रसंगों को रुचि पूर्वक पूर्ण रूप से पढ़ते है तो पूज्यश्री के प्रति श्रद्धा भाव के कारण आपको उनके संघ के साथ शिखरजी यात्रा में चलने का सुखद अनुभव होगा।
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २५३   ?

       "अपूर्व आनंद तथा शुभोपयोग प्रवृत्ति"

                  संघ में रहने वाले कहते थे, ऐसा आनंद, ऐसी सात्विक शांति, ऐसी भावों की विशुध्दता जीवन में कभी नहीं मिली, जैसे आचार्यश्री के संघ में सम्मलित होकर जाने में प्राप्त हुई।
           आर्तध्यान और रौद्रध्यान की सामग्री का दर्शन भी नहीं होता था। निरंतर धर्मध्यान ही होता था। शुभोपयोग की इससे बढ़िया सामग्री आज के युग में कहा मिल सकती है? वह रत्नत्रयधारियों तथा उपासकों का संघ रत्नत्रय की ज्योति को फैलता हुआ आगे बढता जाता था। संघ में सर्व प्रकार की प्रभावक उज्ज्वल सामग्री थी।
             मनोज्ञ जिनबिम्ब, बहुमूल्य नयानभिराम रजत निर्मित तथा स्वर्णशिल्प सज्जित देदिप्तमान समवशरण आदि के दर्शनार्थ सर्वत्र ग्रामीण तथा इतर लोगों की बहुत भीड़ हो जाती थी।
            हजारों व्यक्ति महराज को देखकर ही मस्तक को भूतल पर लगा प्रणाम करते थे। वे जानते थे- "ये नागाबाबा साधु परमहंस हैं। पूर्व जन्म की बड़ी कमाई के बिना इनका दर्शन नहीं होता है।" उन हजारों लाखों लोगों ने महराज के दर्शन द्वारा असीम पुण्य का बंध किया। बंध का कारण जीव का परिणाम होता है। पुण्य परिणामों से पुण्य का संचय होना जहाँ स्वाभाविक है, वहाँ पाप का संवर होता है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  10. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४२   ?

                      "अपूर्व केशलोंच"

                 ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के भाई, उस समय के मुनिश्री वर्धमान सागरजी के केशलोंच के समय का वर्णन किया -
               ता. १८ फरवरी सन १९५७ को वर्धमानसागर जी ने केशलोंच किया। उस समय उनकी उम्र ९० वर्ष से अधिक थी। दूर-दूर से आये हजारों स्त्री-पुरुष केशलोंच देख रहे थे। 
               मैंने देखा कि आधा घंटे के भीतर ही उन्होंने केशलोंच कर लिया। किसी की सहायता नहीं ली। चेहरे पर किसी प्रकार की विकृति नहीं थी। धीरता और गंभीरता की वे मूर्ति थे। जैसे कोई तिनका तोड़ना है, उस तरह झटका देते हुए सिर तथा दाढ़ी के बालों को उखाड़ते जाते थे।
              लो ! केशलोंच हो गए। उन्होंने पिच्छी हाथ में लेकर जिनेन्द्र को प्रणाम किया, तीर्थंकरों की वंदना की।
              अब उनका मौन नहीं है, ऐसा सोचकर धीरे से मैंने पूंछा- "महराज अभी आप केशलोंच कर रहे थे, उस समय आपको पीढ़ा होती थी कि नहीं?"
              उत्तर - "अरे बाबा, रंच मात्र भी कष्ट नहीं होता था। लेशमात्र भी वेदना नहीं थी। हमें ऐसा नहीं मालूम पड़ता था कि हमने अपने केशों का लोंच किया है। हमें तो ऐसा लगा की मस्तक पर केशों का समूह पड़ा था, उसे हमने अलग कर दिया। बताओ हमने क्या किया?
             देखो, एक मर्म की बात बताते हैं। शरीर पर हमारा लक्ष्य नहीं रहता है। केशलोंच शुरू करने के पहले हमने जिन भगवान का स्मरण किया और शरीर से कहा, अरे शरीर ! हमारी आत्मा जुदी है, तू जुदा । 'कां रड़तोस' (अरे क्यों रोता है)? हमारा तेरा क्या सम्बन्ध? बस, केशलोंच करने लगे। हमें ऐसा मालूम नहीं पड़ा कि हमने अपना केशलोंच किया है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  11. Abhishek Jain

    जय जिनेन्द्र बंधुओं,
            प्रस्तुत प्रसंग में अंतिम पैराग्राफ को अवश्य पढ़ें। उसको पढ़कर आपको दिगम्बर मुनि महराज की चर्या में सूक्ष्मता का अवलोकन होगा तथा ज्ञात होगा कि मुनि महराज के लिए शरीर महत्वपूर्ण नहीं होता, उनके लिए महत्वपूर्ण होता है तो केवल अहिंसा व्रतों का भली भाँति पालन। 
            अहिंसा व्रतों के भली-भांती पालन हेतु अपने शरीर का भी त्याग कर देते हैं। यह बात पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को देखकर अवश्य ही सभी को स्पष्ट हो जायेगी।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०५    ?

                   "अपूर्व तीर्थ भक्ति"

               पूज्य शान्तिसागरजी महराज की तीर्थ भक्ति अपूर्व थी। तीर्थस्थान के दर्शन करना तथा वहाँ निर्वाणप्राप्त आत्माओं का स्तवन करना तो प्रत्येक भक्त की कृति में दृष्टिगोचर होता है, किन्तु तीर्थ स्थान जाकर अपार विशुद्धि प्राप्त कर आत्मा को समुन्नत बनाने के लिए संयम भाव की शरण कितने व्यक्ति लिया करते हैं?
    गृहस्थ जीवन में पूज्य शान्तिसागरजी महराज के तीर्थ वंदना के त्याग को जानने के लिए प्रसंग क्रमांक ५ पढ़ें।

       ?निर्वाण स्थल की ओर आकर्षण?

                ग्रंथ में १९४५ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आज भी निर्वाण स्थल की ओर उनकी आत्मा विशेष आकर्षित हो रही है। उन्होंने १९४५ में फलटण के चातुर्मास के समय हमसे पूंछा था कि समाधि के योग्य कौन सा स्थान अच्छा होगा?
           मैंने कहा, "महराज मेरे ध्यान से श्रवणवेलगोला का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहाँ भगवान बाहुबलि की त्रिभुवन मोहनी मूर्ति विराजमान है।"
            महराज ने कहा, "हमारा ध्यान निर्वाण भूमि का है।"
            मैंने कहा, "इस दृष्टि से वीर भगवान का निर्वाण स्थान पावापुरी अधिक अनुकूल रहेगा।"
            महराज ने कहा, "वह स्थान बहुत दूर है, अब हमारा वहाँ पहुँचना संभव नहीं दिखता। इसका विशेष कारण यह है कि हमारे नेत्रों में कांच बिंदु (Glocoma) नाम का रोग हो गया है, जो अधिक चलने से बढ़ता है। उससे नेत्रो की ज्योति मंद होती जा रही है। यदि दृष्टि की शक्ति अत्यंत क्षीण हो गई, तो हमें समाधि मरण लेना होगा।"
            इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा, "देखने की शक्ति नष्ट होने पर ईर्या समिति नहीं बनेगी, भोजन की शुद्धता का पालन नहीं हो सकेगा, पूर्ण अहिंसा धर्म का रक्षण असंभव हो जायेगा। इससे चतुर्विध आहार का त्याग करना आवश्यक होगा।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  12. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२५   ?

              "किन ग्रंथों का प्रभाव पढ़ा"

               एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूछा, "महराज ! प्रारम्भ में कौन से शास्त्र आपको विशेष प्रिय लगते थे और किन ग्रंथो  ने आपके जीवन को विशेष प्रभावित किया?
             महराज ने कहा, "जब हम पंद्रह-सोलह वर्ष के थे तब हिन्दी में समयसार तथा आत्मानुशासन बांचा करते थे। हिन्दी रत्नकरंडश्रावकाचार की टीका भी पढ़ते थे। इससे मन को बड़ी शांति मिलती थी।
             आत्मानुशासन पढ़ने से मन में वैराग्य भाव बढ़ता था। इसमें वैराग्य तथा स्त्रीसुख से विरक्ति का अच्छा वर्णन है। इससे हमारा मन त्याग की ओर बढ़ता था। इरादा १७-१८ वर्ष की अवस्था से ही मुनि बनने का था।"
          महराज ने यह भी बताया कि आत्मानुशासन की चर्चा अपने श्रेष्ट सत्यव्रती मित्र रुद्रप्पा नामक लिंगायत बंधु से किया करते थे। इन दोनो महापुरुषों का परस्पर में तत्व विचार चला करता था। महराज ने कहा था कि "आत्मानुशासन की कथा रुद्रप्पा को बड़ी प्रिय लगती थी।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आजकी तिथी - आषाढ़ शुक्ल ४?
  13. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२६   ?

                      "पथ प्रदर्शक"

           कल के प्रसंग के माध्यम से हमने जाना कि पूज्य चारित्र चक्रवर्ती शान्तिसागरजी महराज के प्रारंभिक जीवन में किन ग्रंथो का महत्वपूर्ण प्रभाव रहा था।
           दिवाकर जी जिज्ञासा पर पूज्य शान्तिसागर जी महराज ने कहा, "शास्त्रों में स्वयं कल्याण नहीं है। वे तो कल्याण के पथ प्रदर्शक हैं। देखो ! सड़क पर कहीं खम्भा गड़ा रहता है, वह मार्गदर्शन कराता है। इष्ट स्थान पर जाने को तुम्हें पैर बढ़ाना होगा। वासनाओं की दासता का त्याग ही कल्याणजनक है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
     ?आज की तिथी - आषाढ़ शुक्ल ५?
  14. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - ३२४   ?

                     "बालकों पर प्रेम"

            वीतराग की सजीव मूर्ति होते हुए आचार्यश्री में अपार वात्सल्य पाया जाता था। लगभग १९३८ के भाद्रपद की बात है। उस समय महराज ने बारामती में सेठ रामचंद्र के उद्यान में चातुर्मास किया था।
            एक दिन अपरान्ह में महराज का केशलोंच हो रहा था। उनके समीप एक छोटा तीन वर्ष की अवस्था वाला स्वस्थ सुरूप तथा नग्न मुद्रा वाला बालक महराज को केशलोंच करते देखकर नकल करने वाले बंदर के समान अपने बालों को पकड़कर धीरे-२ खीचता था।
          उस बालक को देखकर महराज का मुख सस्मित हो गया और उन्होंने सहज आशीर्वाद दे उसके सिर पर अपनी पिच्छी से स्पर्श कर दिया। 
          लौंच के उपरांत जब महराज का मौन खुला, तब मैंने महराज से पूंछा- "महराज इस बालक के मस्तक पर आपने पिच्छी का स्पर्श क्यों करा दिया?"
            जब वे कुछ न बोले, तब मैंने कहा - "महराज ! मुनिपद को बालकवत निर्विकार कहा गया है। अपने पक्षवालों को देखकर किसे प्रेम उत्पन्न नहीं होता है। प्रतीत होता है, इसी कारण उस बालक पर आपका वात्सल्य जागृत हो गया?"
        महराज के सस्मित मुख से प्रतीत होता है कि मौन द्वारा मेरा समर्थन किया।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
      ?आज की तिथी- आषाढ़ शुक्ल ३?
  15. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८३  ?

             "अश्व परीक्षा आदि में पारंगत"

           वे अश्व परीक्षा में प्रथम कोटि के थे। वे अपनी निपुणता किसी को बताते नहीं थे, केवल गुणदोष का ज्ञान रखते थे।
           वे घर के गाय बैल आदि को खूब खिलाते थे और लोगों को कहते थे कि इनको खिलाने में कभी भी कमी नहीं करना चाहिए। आज उनके सुविकसित जीवन में जो गुण दिखते हैं, वे बाल्यकाल में बट के बीज के समान विद्यमान थे। बचपन में वे माता के साथ प्रतिदिन मंदिर जाया करते थे।

                ?आत्मध्यान की रुचि?

           बच्चों के समान बारबार खाने की आदत उनकी नहीं थी। वे अपनी निपुणता को सदा शास्त्र पढ़ते हुए पाए जाते थे। ध्यान करने में उनकी पहले से रुचि थी। वेदांती लोग उनके पास आकर चर्चा करते थे।
             वेदांत प्रेमी रुद्रप्पा से उनकी बड़ी घनिष्टता थी। इनके उपदेश के प्रभाव से वह छानकर पानी पिता था, रात्रि को भोजन नहीं करता था।
             रात्रि को भोजन करते समय महराज ने उसे प्रत्यक्ष में पतंगे आदि जीवों को भोजन में गिरते बताया था। इससे रात्रि भोजन से उसके मन में विरक्ति उत्पन्न हो गई।
             उसको महराज के उपदेश से यह प्रतीत होने लगा था कि जैन धर्म ही यथार्थ है। उनके प्रभाव से वह उपवास करने लगा था। जब वह प्लेग से बीमार हुआ, तब महराज ने उसकी आत्मा के लिए कल्याणकारी जिन धर्म का उपदेश दिया था।
    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  
  16. Abhishek Jain

    आज कार्तिक शुक्ला द्वादशी की शुभ तिथी को १८ वे तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ अरहनाथ भगवान का ज्ञान कल्याणक पर्व है।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १८६    ?

                    "असाधारण धैर्य"

              सातगौड़ा को दुख तथा सुख में समान वृत्ति वाला देखा है। माता पिता की मृत्यु होने पर, हमने उनमें साधारण लोगों की भाँति शोकाकुलता नहीं देखी। उस समय उनके भावों में वैराग्य की वृद्धि दिखाई पड़ती थी।
           उनका धैर्य असाधारण था। माता-पिता का समाधिमरण होने से उन्हें संतोष हुआ था। उनके पास आर्तध्यान, रौद्रध्यान को स्थान न था। वे धर्मघ्यान की मूर्ति थे। वे दया, शांति, वैराग्य, नीति तथा सत्य जीवन के सिंधु थे।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  17. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १३५    ?

                 "असाधारण व्यक्तित्व"

                 पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज का व्यक्तित्व असाधारण रहा है। सारा विश्व खोजने पर भी वे अलौकिक ही लगेंगे। ऐसी महान विभूति के अनुभवों के अनुसार प्रवृत्ति करने वालों को कभी भी कष्ट नहीं हो सकता।
            एक दिन महाराज ने कहा था- हम इंद्रियों का तो निग्रह कर चुके हैं। हमारा ४० वर्ष का अनुभव है। सभी इंद्रियाँ हमारे मन के आधीन हो गई हैं। वे हम पर हुक्म नहीं चलाती हैं।"
             उन्होंने कहा था- "अब प्राणी संयम अर्थात पूर्णरूप से जीवों की रक्षा पालन करना हमारे लिए कठिन हो गया है। कारण नेत्रों की ज्योति मंद हो रही है। अतः सल्लेखना की शरण लेनी पड़ेगी। हमें समाधी के लिए किसी को णमोकार तक सुनाने की जरुरत नहीं पड़ेगी।
    ?  स्वाध्याय चरित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
  18. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १९९    ?

                       "आगम के भक्त"

                एक बार लेखक ने आचार्य महराज को लिखा कि भगवान भूतबली द्वारा रचित महाधवल ग्रंथ के चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गए हैं, उस समय पूज्य शान्तिसागरजी महराज को शास्त्र संरक्षण अकी गहरी चिंता हो गई थी।
             उस समय मैं सांगली में और वर्षाकाल में ही मैं उनकी सेवा में कुंथलगिरी पहुँचा। बम्बई से सेठ गेंदनमलजी, बारामती से चंदूलालजी सराफ तथा नातेपूते से रामचंद्र धनजी दावड़ा वहाँ आये थे।
              उनके समक्ष आचार्य महराज ने अपनी अंतर्वेदना व्यक्त करते हुए कहा - "धवल महाधवल महावीर भगवान की वाणी है। उसके चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गए हैं, ऐसा पत्र सुमेरचंद शास्त्री का मिला, इसलिए आगामी उपाय ऐसा करना चाहिए जिससे कि ग्रंथों को बहुत समय तक कोई क्षति प्राप्त ना हो। इसलिए इनको ताम्रपत्र में लिखवाने की योजना करना चाहिए, जिससे हजारों वर्ष पर्यन्त सुरक्षित रहें। इस कार्य में लाख रुपये से भी अधिक लग जाये, तो भी परवाह नहीं करना चाहिए।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ? 
  19. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९०   ?

                       "आगम भक्त"

                      कुछ शास्त्रज्ञों ने सूक्ष्मता से आचार्यश्री के जीवन को आगम की कसौटी पर कसते हुए समझने का प्रयत्न किया। उन्हें विश्वास था कि इस कलीकाल के प्रसाद से महराज का आचरण भी अवश्य प्रभावित होगा, किन्तु अंत में उनको ज्ञात हुआ कि आचार्य महराज में सबसे बड़ी बात यही कही जा सकती है कि वे आगम के बंधन में बद्ध प्रवृत्ति करते हैं और अपने मन के अनुसार स्वछन्द प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
                  स्थानीय कुछ लोगों की प्रारम्भ में कुछ ऐसी इच्छा थी कि चातुर्मास का महान भार कटनी वालों पर न पड़े, किन्तु चातुर्मास समीप आ जाने से दूसरा योग्य स्थान पास में न होने से कटनी को ही चातुर्मास के योग्य स्थान चुनने को बाध्य होना पड़ा।
                संघपति ने ऐसे लोगों को कह दिया था- "आप लोग चिंता न करें, यदि आपकी इच्छा न हो, तो आप लोग सहयोग न देना, सर्व प्रबंध हम करेंगे, अब चातुर्मास तो कटनी में ही होगा।" 
                  इस निश्चय के ज्ञात होने पर सहज सौजन्यवश प्रारम्भ में उन शंकाशील भाइयों ने महराज के पास जाना प्रारम्भ किया। उन्हें ऐसा लगने लगा, जैसे हम काँच सरीखा सोचते थे, वह स्फटिक नहीं, वह तो असली हीरा है।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  20. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २९२   ?

            "आचार्य चरणों का प्रथम परिचय"

                      इस चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ के यशस्वी लेखक दिवाकरजी कटनी के चातुर्मास के समय का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि मैंने भी पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के जीवन का निकट निरीक्षण नहीं किया था। अतः साधु विरोधी कुछ साथियों के प्रभाववश मैं पूर्णतः श्रद्धा शून्य था। 
                 कार्तिक की अष्टान्हिका के समय काशी अध्यन निमित्त जाते हुए एक दिन के लिए यह सोचकर कटनी ठहरा कि देखें इन साधुओं का अंतरंग जीवन कैसा है?
              लेकिन उनके पास पहुँचकर देखा, तो मन को ऐसा लगा कि कोई बलशाली चुम्बक चित्त को खेंच रहा है। मैंने दोष को देखने की दुष्ट बुद्धि से ही प्रेरित हो संघ को देखने का प्रयत्न किया था, किन्तु रंचमात्र भी सफलता नहीं मिली। संघ गुणों का रत्नाकर लगा।
    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  21. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३६   ?

              "आचार्य महराज की विशेषता"

               मुनिश्री पायसागरजी महराज ने कहा- "आचार्य महराज की मुझ पर अनंत कृपा रही। उनके आत्मप्रेम ने हमारा उद्धार कर दिया। महराज की विशेषता थी कि वे दूसरे ज्ञानी तथा तपस्वी के योग्य सम्मान का ध्यान रखते थे।
                एक बार मैं महराज के दर्शनार्थ दहीगाव के निकट पहुँचा। मैंने भक्ति तथा विनय पूर्वक उनको प्रणाम किया। महराज ने प्रतिवंदना की।" मैंने कहा- "महराज मैं प्रतिवंदना के योग्य नहीं हूँ।"
              महराज बोले- "पायसागर चुप रहो। तुम्हे अयोग्य कौन कहता है? मै तुम्हारे ह्रदय को जनता हूँ।" महराज के अपार प्रेम के कारण मेरा ह्रदय शल्य रहित हो गया। मेरे गुरु का मुझ पर अपार विश्वास था।

                   ?अपार प्रायश्चित्त?
              मैंने कहा- "बहुत वर्षों से गुरुदेव आपका दर्शन नहीं मिला। मै आपके चरणों में आत्मशुद्धि के लिए आया हूँ। मैं अपने को दोषी मानता हूँ। मैं अज्ञानी हूँ। गुरुदेव आपसे प्रायश्चित की प्रार्थना करता हूँ।
              महराज ने कहा- "पायसागर ! चुप रहो। हमें सब मालूम है। तुमको प्रायश्चित्त देने की जरूरत नहीं है। आज का समाज विपरीत है। तू अज्ञानी नहीं है। तुझे अयोग्य कहता है। मैं तेरे को कोई प्रायश्चित नहीं देता हूँ। प्रायश्चित को नहीं भूलना, यही प्रायश्चित है।"

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  22. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०२    ?

         "आचार्यश्री के दीक्षा गुरु देवेन्द्रकीर्ति         
                        मुनि का वर्णन"

              एक बार मैंने पूज्य शान्तिसागरजी महराज से उनके गुरु के बारें में पूंछा था तब उन्होंने बतलाया था कि "देवेन्द्रकीर्ति स्वामी से हमने जेठ सुदी १३ शक संवत १८३७ में क्षुल्लक दीक्षा ली थी तथा फाल्गुन सुदी एकादशी शक संवत १८७१ में मुनि दीक्षा ली थी। वे बाल ब्रम्हचारी थे, सोलह वर्ष की अवस्था में सेनगण की गद्दी पर भट्टारक बने थे।
          उस समय उन्होंने सोचा था कि गद्दी पर बैठे रहने से मेरी आत्मा का क्या हित सिद्ध होगा, मुझे तो झंझटों से मुक्त होना है, इसीलिए दो वर्ष बाद उन्होंने निर्ग्रन्थ वृत्ति धारण की थी। उन्होंने जीवन भर आहार के बाद उपवास और उपवास के बाद आहार रूप पारणा-धारणा का व्रत पालन किया था।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  23. Abhishek Jain
    ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३७   ?

                 "आचार्यश्री के बारे में उदगार"

                   पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य पायसागरजी पावन जीवन वृतांत को हम सभी कुछ दिनों से जान रहे हैं। आचार्यश्री में उनकी अपार भक्ति थी। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के स्वर्गारोहण के उपरांत मुनि श्री पायसागर महराज के उदगार इस प्रकार थे-
                वे कहते थे- "मेरे गुरु चले गए। मेरे प्रकाशदाता चले गए। मेरी आत्मा की सुध लेने वाले चले गए। मेरे दोषों का शोधन करके उपगूहन पूर्वक विशुद्ध बनाने वाली वंदनीय विभूति चली गई। मेरे धर्म पिता चले गए। मुझे भी उनके मार्ग पर जाना है।"
                उनकी समाधि की स्मृति में उन्होंने गेहूँ का त्याग उसी दिन से कर दिया था। उसके पश्चात उन्होंने जंगल में ही निवास प्रारम्भ कर दिया था। वे नगर में पाँच दिन से अधिक नहीं रहते थे। उनकी दृष्टि में बहुत विशुद्धता उत्पन्न हो गई थी।
                  ?आत्मप्रभावना?
                  वे कहते थे- "अब तक मेरी बाहरी प्रभावना खूब हो चुकी। मैं इसे देख चुका। इसमें कोई आनंद नहीं है। मुझे अपनी आत्मा की सच्ची प्रभावना करनी है। आत्मा की प्रभावना रत्नत्रय की ज्योति के द्वारा होती है। इस कारण में इस पहाड़ी पर आया हूँ। मै अब एकांत चाहता हूँ।

                    ?आत्मपरिवार?
                अपने आत्म परिवार के साथ मैं एकांत में रहना चाहता हूँ। शील, संयम, दया, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्यादि मेरी आत्मपरिवार की विभूतियाँ हैं। मैं उनके साथ खेल खेलना चाहता हूँ। इससे में असली आनंद का अमृत पान करूँगा। मैं कर्मो का बंधन नहीं करना चाहता।

    ? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
  24. Abhishek Jain
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०३    ?

          "आचार्यश्री जिनसे प्रभावित थे ऐसे 
                आदिसागर मुनि का वर्णन"

                पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने एक आदिसागर (बोरगावकर) मुनिराज के विषय में बताया था कि वे बड़े तपस्वी थे और सात दिन के बाद आहार लेते थे। शेष दिन उपवास में व्यतीत करते थे। यह क्रम उनका जीवन भर रहा।
           आहार में वे एक वस्तु ग्रहण करते थे। वे प्रायः जंगल में रहा करते थे। जब वे गन्ने का रस लेते थे, तब गन्ने के रस के सिवाय अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं करते थे। उनमें बड़ी शक्ति थी।
           उनकी आध्यात्मिक पदों को गाने की आदत थी। वे कन्नड़ी भाषा में पदों को गाया करते थे। वे भोज में आया करते थे। जब वे भोज में आते थे और हमारे घर में उनका आहार होता था, तब वे उस दिन हमारी दुकान में रहते थे। वहाँ ही वे रात्रि में सोते थे। हम भी उनके पास में सो जाते थे।
              हम निरंतर उनकी वैय्यावृत्ति तथा सेवा करते थे। दूसरे दिन हम उनको दूधगंगा, वेदगंगा नदी के संगम के पास तक पहुंचाते थे। बाद में हम उन्हें अपने कंधे पर रखकर नदी के पार ले जाते थे।
            मैंने पूंछा, "महराज ! एक उन्नत काय वाले मनुष्य को अपने कंधे पर रखकर ले जाने में आपके शरीर को बड़ा कष्ट होता होगा?"
          महराज ने कहा, "हमें रंच मात्र भी पीड़ा नहीं होती थी।"

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?
  25. Abhishek Jain
    ☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
               प्रस्तुत प्रसंग में लेखक ने सामाजिक सुधार हेतु पूज्य शांतिसागरजी महराज द्वारा प्रेरणा देने के सम्बन्ध में पूज्यजी की विशिष्ट सोच को व्यक्त किया है।
           प्रस्तुत प्रसंग वर्तमान परिपेक्ष्य में भी अति महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान में अनेको साधु भगवंतों द्वारा समाज में बड़ रही विकृतियों से बचने तथा सामाजिक कुप्रथाओं को बंद करने की प्रेरणा दी जाती है, उस सम्बन्ध में भी कुछ लोग गलत सोच सकते हैं।
    ?    अमृत माँ जिनवाणी से - १७७    ?

               "आचार्यश्री व् समाजोत्थान"

               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज प्रेरणा से बहुत सारे समाज उत्थान के कार्य भी सम्पादित हुए। कोई व्यक्ति यह कहे इनको तो आत्मा की चर्चा करनी चाहिए थी, इन सामाजिक विषयों में साधुओं को पड़ने की क्या जरुरत है? यह भी कहें कोई-कोई साधु अपने को उच्च स्तर का बताने के उद्देश्य से सामाजिक हीनाचार (जैसे विधवा विवाहादि) का विरोध नहीं करते हैं और जनता की प्रशंसा की अपेक्षा करते पाये जाते हैं।
           पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ऐसी  सोच को समर्थन नहीं था। इस विषय में उनका चिंतन इस प्रकार था-
            जिन समाज हित की बातों का धर्म से सम्बन्ध है, उनके विषय में यदि प्रभावशाली साधु सन्मार्ग का दर्शन ना करें, तो स्वच्छंद आचरण रूपी बाघ धर्मरूपी बछड़े का भक्षण किए बिना न रहेगा।
            इन सन्मार्ग के प्रभावक प्रहरियों के कारण ही समाज का शील और संयमरूपी रत्न कुशिक्षा तथा पाप-प्रचाररूपी डाकुओं से लुटे जाने से बच गया।

    ?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रन्थ का  ?
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