?अश्व परीक्षा आदि में पारंगत - अमृत माँ जिनवाणी से - १८३
? अमृत माँ जिनवाणी से - १८३ ?
"अश्व परीक्षा आदि में पारंगत"
वे अश्व परीक्षा में प्रथम कोटि के थे। वे अपनी निपुणता किसी को बताते नहीं थे, केवल गुणदोष का ज्ञान रखते थे।
वे घर के गाय बैल आदि को खूब खिलाते थे और लोगों को कहते थे कि इनको खिलाने में कभी भी कमी नहीं करना चाहिए। आज उनके सुविकसित जीवन में जो गुण दिखते हैं, वे बाल्यकाल में बट के बीज के समान विद्यमान थे। बचपन में वे माता के साथ प्रतिदिन मंदिर जाया करते थे।
?आत्मध्यान की रुचि?
बच्चों के समान बारबार खाने की आदत उनकी नहीं थी। वे अपनी निपुणता को सदा शास्त्र पढ़ते हुए पाए जाते थे। ध्यान करने में उनकी पहले से रुचि थी। वेदांती लोग उनके पास आकर चर्चा करते थे।
वेदांत प्रेमी रुद्रप्पा से उनकी बड़ी घनिष्टता थी। इनके उपदेश के प्रभाव से वह छानकर पानी पिता था, रात्रि को भोजन नहीं करता था।
रात्रि को भोजन करते समय महराज ने उसे प्रत्यक्ष में पतंगे आदि जीवों को भोजन में गिरते बताया था। इससे रात्रि भोजन से उसके मन में विरक्ति उत्पन्न हो गई।
उसको महराज के उपदेश से यह प्रतीत होने लगा था कि जैन धर्म ही यथार्थ है। उनके प्रभाव से वह उपवास करने लगा था। जब वह प्लेग से बीमार हुआ, तब महराज ने उसकी आत्मा के लिए कल्याणकारी जिन धर्म का उपदेश दिया था।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का
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