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?आचार्यश्री के बारे में उदगार - अमृत माँ जिनवाणी से - २३७


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३७   ?


             "आचार्यश्री के बारे में उदगार"


               पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य पायसागरजी पावन जीवन वृतांत को हम सभी कुछ दिनों से जान रहे हैं। आचार्यश्री में उनकी अपार भक्ति थी। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के स्वर्गारोहण के उपरांत मुनि श्री पायसागर महराज के उदगार इस प्रकार थे-

            वे कहते थे- "मेरे गुरु चले गए। मेरे प्रकाशदाता चले गए। मेरी आत्मा की सुध लेने वाले चले गए। मेरे दोषों का शोधन करके उपगूहन पूर्वक विशुद्ध बनाने वाली वंदनीय विभूति चली गई। मेरे धर्म पिता चले गए। मुझे भी उनके मार्ग पर जाना है।"

            उनकी समाधि की स्मृति में उन्होंने गेहूँ का त्याग उसी दिन से कर दिया था। उसके पश्चात उन्होंने जंगल में ही निवास प्रारम्भ कर दिया था। वे नगर में पाँच दिन से अधिक नहीं रहते थे। उनकी दृष्टि में बहुत विशुद्धता उत्पन्न हो गई थी।

              ?आत्मप्रभावना?

              वे कहते थे- "अब तक मेरी बाहरी प्रभावना खूब हो चुकी। मैं इसे देख चुका। इसमें कोई आनंद नहीं है। मुझे अपनी आत्मा की सच्ची प्रभावना करनी है। आत्मा की प्रभावना रत्नत्रय की ज्योति के द्वारा होती है। इस कारण में इस पहाड़ी पर आया हूँ। मै अब एकांत चाहता हूँ।


                ?आत्मपरिवार?

            अपने आत्म परिवार के साथ मैं एकांत में रहना चाहता हूँ। शील, संयम, दया, दर्शन, ज्ञान, चारित्र, वीर्यादि मेरी आत्मपरिवार की विभूतियाँ हैं। मैं उनके साथ खेल खेलना चाहता हूँ। इससे में असली आनंद का अमृत पान करूँगा। मैं कर्मो का बंधन नहीं करना चाहता।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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