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?अपूर्व तीर्थ भक्ति - अमृत माँ जिनवाणी से - २०५


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

        प्रस्तुत प्रसंग में अंतिम पैराग्राफ को अवश्य पढ़ें। उसको पढ़कर आपको दिगम्बर मुनि महराज की चर्या में सूक्ष्मता का अवलोकन होगा तथा ज्ञात होगा कि मुनि महराज के लिए शरीर महत्वपूर्ण नहीं होता, उनके लिए महत्वपूर्ण होता है तो केवल अहिंसा व्रतों का भली भाँति पालन। 

        अहिंसा व्रतों के भली-भांती पालन हेतु अपने शरीर का भी त्याग कर देते हैं। यह बात पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को देखकर अवश्य ही सभी को स्पष्ट हो जायेगी।

?    अमृत माँ जिनवाणी से - २०५    ?


               "अपूर्व तीर्थ भक्ति"


           पूज्य शान्तिसागरजी महराज की तीर्थ भक्ति अपूर्व थी। तीर्थस्थान के दर्शन करना तथा वहाँ निर्वाणप्राप्त आत्माओं का स्तवन करना तो प्रत्येक भक्त की कृति में दृष्टिगोचर होता है, किन्तु तीर्थ स्थान जाकर अपार विशुद्धि प्राप्त कर आत्मा को समुन्नत बनाने के लिए संयम भाव की शरण कितने व्यक्ति लिया करते हैं?

गृहस्थ जीवन में पूज्य शान्तिसागरजी महराज के तीर्थ वंदना के त्याग को जानने के लिए प्रसंग क्रमांक ५ पढ़ें।


   ?निर्वाण स्थल की ओर आकर्षण?


            ग्रंथ में १९४५ का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आज भी निर्वाण स्थल की ओर उनकी आत्मा विशेष आकर्षित हो रही है। उन्होंने १९४५ में फलटण के चातुर्मास के समय हमसे पूंछा था कि समाधि के योग्य कौन सा स्थान अच्छा होगा?

       मैंने कहा, "महराज मेरे ध्यान से श्रवणवेलगोला का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहाँ भगवान बाहुबलि की त्रिभुवन मोहनी मूर्ति विराजमान है।"

        महराज ने कहा, "हमारा ध्यान निर्वाण भूमि का है।"

        मैंने कहा, "इस दृष्टि से वीर भगवान का निर्वाण स्थान पावापुरी अधिक अनुकूल रहेगा।"

        महराज ने कहा, "वह स्थान बहुत दूर है, अब हमारा वहाँ पहुँचना संभव नहीं दिखता। इसका विशेष कारण यह है कि हमारे नेत्रों में कांच बिंदु (Glocoma) नाम का रोग हो गया है, जो अधिक चलने से बढ़ता है। उससे नेत्रो की ज्योति मंद होती जा रही है। यदि दृष्टि की शक्ति अत्यंत क्षीण हो गई, तो हमें समाधि मरण लेना होगा।"

        इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा, "देखने की शक्ति नष्ट होने पर ईर्या समिति नहीं बनेगी, भोजन की शुद्धता का पालन नहीं हो सकेगा, पूर्ण अहिंसा धर्म का रक्षण असंभव हो जायेगा। इससे चतुर्विध आहार का त्याग करना आवश्यक होगा।"


?  स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का  ?

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