?अद्भुत समाधान - अमृत माँ जिनवाणी से - २४१
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४१ ?
"अद्भुत समाधान"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी से एक दिन किसी ने पूंछा- "महराज ! कोई व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण करके उसके गौरव को भूलकर कोई कार्य करता है, तो उसको आहार देना चाहिए कि नहीं?
उन्होंने कहा- "आगम का वाक्य है, कि भुक्ति मात्र प्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम। अरे दो ग्रास भोजन देते समय साधु की क्या परीक्षा करना? उसको आहार देना चाहिए। बेचारा कर्मोदयवश प्रमत्त बनकर विपरीत प्रवृत्ति कर रहा है। उसका न तिरस्कार न पुरुस्कार ही करें। भक्तिपूर्वक ऐसे व्यक्ति की सेवा नहीं करना चाहिए।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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