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?अपूर्व केशलोंच - अमृत माँ जिनवाणी से - २४२


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २४२   ?


                  "अपूर्व केशलोंच"


             ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के भाई, उस समय के मुनिश्री वर्धमान सागरजी के केशलोंच के समय का वर्णन किया -

           ता. १८ फरवरी सन १९५७ को वर्धमानसागर जी ने केशलोंच किया। उस समय उनकी उम्र ९० वर्ष से अधिक थी। दूर-दूर से आये हजारों स्त्री-पुरुष केशलोंच देख रहे थे। 

           मैंने देखा कि आधा घंटे के भीतर ही उन्होंने केशलोंच कर लिया। किसी की सहायता नहीं ली। चेहरे पर किसी प्रकार की विकृति नहीं थी। धीरता और गंभीरता की वे मूर्ति थे। जैसे कोई तिनका तोड़ना है, उस तरह झटका देते हुए सिर तथा दाढ़ी के बालों को उखाड़ते जाते थे।

          लो ! केशलोंच हो गए। उन्होंने पिच्छी हाथ में लेकर जिनेन्द्र को प्रणाम किया, तीर्थंकरों की वंदना की।

          अब उनका मौन नहीं है, ऐसा सोचकर धीरे से मैंने पूंछा- "महराज अभी आप केशलोंच कर रहे थे, उस समय आपको पीढ़ा होती थी कि नहीं?"

          उत्तर - "अरे बाबा, रंच मात्र भी कष्ट नहीं होता था। लेशमात्र भी वेदना नहीं थी। हमें ऐसा नहीं मालूम पड़ता था कि हमने अपने केशों का लोंच किया है। हमें तो ऐसा लगा की मस्तक पर केशों का समूह पड़ा था, उसे हमने अलग कर दिया। बताओ हमने क्या किया?

         देखो, एक मर्म की बात बताते हैं। शरीर पर हमारा लक्ष्य नहीं रहता है। केशलोंच शुरू करने के पहले हमने जिन भगवान का स्मरण किया और शरीर से कहा, अरे शरीर ! हमारी आत्मा जुदी है, तू जुदा । 'कां रड़तोस' (अरे क्यों रोता है)? हमारा तेरा क्या सम्बन्ध? बस, केशलोंच करने लगे। हमें ऐसा मालूम नहीं पड़ा कि हमने अपना केशलोंच किया है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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