श्री मुनि राजत समता संग, कायोत्सर्ग समाहित अंग ॥टेक॥
करतैं नहिं कछु कारज तातैं, आलम्बित भुज कीन अभंग
गमन काज कछुहै नहिं तातैं,गति तजि छाके निजरसरंग ॥
लोचन तैं लखिवो कछु नाहीं, तातैं नाशादृग अचलंग
सुनिये जोग रह्यो कछु नाहीं, तातैं प्राप्त इकन्त-सुचंग ॥
तह मध्याह्न माहिं निज ऊपर, आयो उग्र प्रताप पतंग
कैधौं ज्ञानपवन बल प्रज्वलित,ध्यानानलसौं उछलिफुलिंग ॥
चित्त निराकुल अतुल उठत जहँ, परमानन्द पियूष तरंग
` भागचन्द' ऐसे श्री गुरु-पद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ॥