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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. अरिहंत सिद्धाचार्य पाठक साधू त्रिभुवन वन्द्य हैं | जिनधर्म जिनागम जिनेश्वरा मूर्ति जिनग्रह वन्द्य हैं || नवदेवता ये मान्य जग में, हम सदा अर्चा करें | आहवन कर थापें यहाँ , मन में अतुल श्रद्धा धरें || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालये-समूह अत्र अवतर अवतर-सम्वोषत आव्हानं अत्र-तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः स्थापनं अत्र मम-संहितों-भव-भव-वषट सन्निधिकरणं गंगानदी का नीर निर्मल बाह्य मल धोवे सदा | अंतर मलो के क्षालने को नीर से पूजूं मुदा || नवदेवताओं की सदा जो भक्ति से अर्चा करें | सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल पाए शिवकान्ता वरें || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो जन्म-जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामिति स्वाहा | कपूर मिश्रित गंध चन्दन, देह ताप निवारता | तुम पाद पंकज पूजते, मन ताप तुरन्त ही वारता || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो संसार-ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा | क्षीरोदधि के फेन सम, सित तन्दुलो को ले के | उत्तम अखंडित सौख्य हेतु, पुंज नव सुचढाय के || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा | चंपा चमेली केवडा, नाना सुगन्धित ले लिए | भव के विजेता आपको, पूजत सुमन अर्पण किये || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो काम-बाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा | पायस मधुर पकवान मोदक, आदि को भर थाल में | निज आत्म अमृत सौख्य हेतु, पूजहु नत भाल मैं || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो क्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेध्यम निर्वपामिति स्वाहा | कपूर ज्योति जगमगे दीपक, लिया निज हाथ में | तुअ आरती तम वारती, पाऊं सुज्ञान प्रकाश मैं || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो मोह-अन्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा | दश गंध धुप अनूप सुरभित, अग्नि में खेऊ सदा | नीज आत्मगुण सौरभ उठे, हो कर्म सब मुझसे विदा || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो अष्ट-कर्म-दहनाय धूपं निर्वपामिति स्वाहा | अंगूर अमरख आम अमृत,फल भराऊ थाल में | उत्तम अनुपम मोक्ष फल के, हेतु पुजू आज मैं || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो महा-मोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामिति स्वाहा | जल गंध अक्षत पुष्प चारू, दीप सुधूप फलार्घ ले | दर रत्नत्रय निधि लाभ यह बस अर्घ से पूजत मिले || नव. || ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा | दोहा- जलधारा से नित्य में, जग में शांति हेत | नव देवों को पूजहु, श्रद्धा भक्ति समेत || (शान्तये शांतिधारा) नानाविधि के सुमन ले,मन में बहु हर्षाय | मैं पुजू नव देवता पुष्पांजलि चढ़ाय || (दिव्य पुष्पांजलि) जाव्य- ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो नमः | (९,२७ या १०८ बार ) जयमाला चिच्चिन्तामणी रत्न, तीन लोक में श्रेष्ठ हो | गाऊं गुण मणिमाल, जयवन्ते, वंदो सदा || जय जय श्री अरिहंत देव देव हमारे | जय घातिया को घात सकल जंतु उबारे ||१|| जय जय प्रसिद्द सिद्ध की मैं वंदना करू | जय अष्ट कर्म मुक्ति की मैं अर्चना करू ||२|| आचार्य देव गुण छत्तीस धार रहे हैं | दिक्षादी दे असंख्य भव्य तार रहे हैं || जैवन्त उपाध्याय गुरु ज्ञान के धनी | सन्मार्ग के उपदेश की वर्षा करे धनी ||३|| जय साधू अठाईस गुणों धरें सदा | निज आत्मा की साधना से च्युत न हो कदा || ये पञ्च परम देव सदा वन्द्द्य हमारे | संसार विषय सिन्धु से हमें भी उबारें ||४|| जिन धर्म चक्र सदा चलता ही रहेगा | जो इसकी शरण ले वो सदा सुलझता ही रहेगा || इसकी ध्वनि पियूष का जो पान करेंगे | भव रोग दूर कर वो मुक्ति कान्त बनेंगे ||५|| जिन चैत्य की जो वंदन त्रिकाल करे हैं | वे चित्स्वरूप नित्य आत्म लाभ करे हैं || कृतिम अक्रतिम जिनालयो को जो भजे | वे कर्म शत्रु जीत शिवालय में जा बसे ||६|| नवदेवताओ की जो नित आराधना करे | वे म्रत्युराज की भी तो विराधना करे || मैं कर्म शत्रु जीतने के हेतु ही जजू | सम्पूर्ण ज्ञानमती सिद्धि हेतु ही भजु ||७|| दोहा- नव देवों की भक्तिवश,कोटि कोटि प्रणाम | भक्ति का फल मैं चहुँ, निज पद में विश्राम ||८|| ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधू-जिनधर्म-जिनागम-जिनचेत्य-चेत्यालयेभ्यो जयमाला पूर्णार्धं निर्वपामिति स्वाहा | जो भव्य श्रद्धा भक्ति से नव देवताओं की भक्ति करे | वे सब अमंगल दोष हर, सुख शांति में झुला करें || नवनिधि अतुल भण्डार ले, फिर मोक्ष सुख भी पावते | सुख सिन्धु में हो मग्न फिर, यहाँ पर कभी न आवते ||९|| इत्याशिर्वादः || पुष्पांजलि क्षिपेत ||
  2. कविश्री राजमल पवैया अर्हन्त सिद्ध आचार्य नमन! हे उपाध्याय! हे साधु! नमन | जय पंच परम परमेष्ठी जय, भवसागर तारणहार नमन || मन-वच-काया-पूर्वक करता हूँ, शुद्ध-हृदय से आह्वानन | मम-हृदय विराजो! तिष्ठ! तिष्ठ! सन्निकट होहु मेरे भगवन || निज-आत्मतत्त्व की प्राप्ति-हेतु, ले अष्ट-द्रव्य करता पूजन | तव चरणों के पूजन से प्रभु, निज-सिद्धरूप का हो दर्शन || ओं ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननं) ओं ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्) मैं तो अनादि से रोगी हूँ, उपचार कराने आया हूँ | तुम सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ || मैं जन्म जरा मृतु नाश करूँ, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१। संसार-ताप में जल-जल कर, मैंने अगणित दु:ख पाए हैं | निज शांत-स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाए हैं || शीतल चंदन है भेंट तुम्हें, संसार-ताप नाशो स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२। दु:खमय अथाह भवसागर में, मेरी यह नौका भटक रही | शुभ-अशुभ भाव की भँवरों में, चैतन्य शक्ति निज अटक रही || तंदुल हैं धवल तुम्हें अर्पित, अक्षयपद प्राप्त करूँ स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३। मै काम-व्यथा से घायल हूँ, सुख की न मिली किंचित् छाया | चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ, तुमको पाकर मन हरषाया || मैं कामभाव विध्वंस करूँ, ऐसा दो शील हृदय स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४। मैं क्षुधा-रोग से व्याकुल हूँ, चारों गति में भरमाया हूँ | जग के सारे पदार्थ पाकर भी, तृप्त नहीं हो पाया हूँ || नैवेद्य समर्पित करता हूँ, यह क्षुधा-रोग मेटो स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। मोहांध महाअज्ञानी मैं, निज को पर का कर्त्ता माना | मिथ्यातम के कारण मैंने, निज आत्म-स्वरूप न पहचाना || मैं दीप समर्पण करता हूँ, मोहांधकार क्षय हो स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६। कर्मों की ज्वाला धधक रही, संसार बढ़ रहा है प्रतिपल | संवर से आस्रव को रोकूँ, निर्जरा सुरभि महके पल-पल || मैं धूप चढ़ाकर अब आठों- कर्मों का हनन करूँ स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७। निज-आत्मतत्त्व का मनन करूँ, चिंतवन करूँ निज चेतन का | दो श्रद्धा ज्ञान चारित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का || उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी | हे! पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८। जल चंदन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ | अब तक के संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ || यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्यपद दो स्वामी | हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दु:ख मेटो अंतर्यामी || ओं ह्रीं श्री पञ्चपरमेष्ठिभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९। जयमाला (ज्ञानोदय छन्द) जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, निज-ध्यान लीन गुणमय अपार | अष्टादश दोष रहित जिनवर, अरिहन्त देव को नमस्कार ||१|| अविकल अविकारी अविनाशी, निजरूप निरंजन निराकार | जय अजर अमर हे! मुक्तिकंत, भगवंत सिद्ध को नमस्कार ||२|| छत्तीस सुगुण से तुम मंडित, निश्चय रत्नत्रय हृदय धार | हे! मुक्तिवधू के अनुरागी, आचार्य सुगुरु को नमस्कार ||३|| एकादश-अंग पूर्व-चौदह के, पाठी गुण पच्चीस धार | बाह्यांतर मुनि-मुद्रा महान्, श्री उपाध्याय को नमस्कार ||४|| व्रत समिति गुप्ति चारित्र प्रबल, वैराग्य भावना हृदय धार | हे! द्रव्य-भाव संयममय मुनिवर, सर्व साधु को नमस्कार ||५|| बहु पुण्य संयोग मिला नरतन, जिनश्रुत जिनदेव चरण दर्शन | हो सम्यक् दर्शन प्राप्त मुझे, तो सफल बने मानव जीवन ||६|| निज पर का भेद जानकर मैं, निज को ही निज में लीन करूँ | अब भेदज्ञान के द्वारा मैं, निज आत्म स्वयं स्वाधीन करूँ ||७|| निज में रत्नत्रय धारण कर, निज-परिणति को ही पहचानूँ | पर-परिणति से हो विमुख सदा, निजज्ञान तत्त्व को ही जानूँ ||८|| जब ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता विकल्प तज, शुक्ल ध्यान मैं ध्याऊँगा | तब चार घातिया क्षय करके, अरिहन्त महापद पाऊँगा ||९|| है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा, हे प्रभु! कब इसको पाऊँगा | सम्यक् पूजा-फल पाने को, अब निज स्वभाव में आऊँगा ||१०|| अपने स्वरूप की प्राप्ति-हेतु, हे प्रभु! मैंने की है पूजन | तब तक चरणों में ध्यान रहे, जब तक न प्राप्त हो मुक्ति सदन ||११|| ओं ह्रीं श्री अरिहंतसिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु पञ्चपरमेष्ठिभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। हे! मंगलरूप अमंगल-हर, मंगलमय मंगलगान करूँ | मंगलों में प्रथम श्रेष्ठ मंगल, णमोकार मंत्र का ध्यान करूँ || ।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
  3. ऊर्ध्वाधो रयुतं सविन्दु सपरं ब्रह्म-स्वरावेष्टितं, वर्गापूरित-दिग्गताम्बुज-दलं तत्संधि-तत्वान्वितं | अंतः पत्र-तटेष्वनाहत-युतं ह्रींकार-संवेष्टितं | देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभ-कण्ठी-रवः || ॐ ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं सिद्धचक्राधिपते ! सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | निरस्तकर्म-सम्बन्धं सूक्ष्मं नित्यं निरामयम् | वन्देऽहं परमात्मानममूर्त्तमनुपद्रवम् || (सिद्धयन्त्र की स्थापना कर वन्दन करें | ) सिद्धौ निवासमनुगं परमात्म-गम्यं, हान्यादिभावरहितं भव-वीत-कायम् | रेवापगा-वर-सरो-यमुनोद्भवानां, नीरैर्यजे कलशगैर्-वरसिद्ध-चक्रम् || ॐ ह्रीं सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |1| आनन्द-कन्द-जनकं घन-कर्म-मुक्तं, सम्यक्त्व-शर्म-गरिमं जननार्तिवीतम् | सौरभ्य-वासित-भुवं हरि-चन्दनानां, गन्धैर्यजे परिमलैर्वर-सिद्ध-चक्रम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा |2| सर्वावगाहन-गुणं सुसमाधि-निष्ठं, सिद्धं स्वरुप-निपुणं कमलं विशालम् | सौगन्ध्य-शालि-वनशालि वराक्षतानां, पुंजैर्यजे शशिनिभैर्वरसिद्धचक्रम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा |3| नित्यं स्वदेह- परिमाणमनादिसंज्ञं, द्रव्यानपेक्षममृतं मरणाद्यतीतम् | मन्दार कुन्द कमलादि वनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमै र्वरसिद्धचक्रम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा |4| ऊर्ध्व-स्वभाव-गमनं सुमनो-व्यपेतं, ब्रह्मादि-बीज-सहितं गगनावभासम् | क्षीरान्न-साज्य-वटकै रसपूर्णगर्भै - र्नित्यं यजे चरुवरैर्वसिद्धचक्रम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा |5| आंतक-शोक-भयरोग-मद प्रशान्तं, निर्द्वन्द्व-भाव-धरणं महिमा-निवेशम् | कर्पूर-वर्ति-बहुभिः कनकावदातै - र्दीपैर्यजे रुचिवरैर्वरसिद्धचक्रम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा |6| पश्यन्समस्त भुवनं युगपन्नितान्तं, त्रैकाल्य-वस्तु-विषये निविड़ प्रदीपम् | सद्द्रव्यगन्ध घनसार विमिश्रितानां, धूपैर्यजे परिमलैर्वर सिद्धचक्रम || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा |7| सिद्धासुरादिपति यक्ष नरेन्द्रचक्रै - र्ध्येयं शिवं सकल भव्य जनैः सुवन्द्यम् | नारड़ि्ग पूग कदली फलनारिकेलैः, सोऽहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा |8| गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं, पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम् | धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये, सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |9| ज्ञानो पयो गविमलं विशदात्मरुपं, सूक्ष्म-स्वभाव-परमं यदनन्तवीर्यम् | कर्मौघ-कक्ष-दहनं सुख-शस्यबीजं, वन्दे सदा निरुपमं वर-सिद्धचक्रम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | त्रैलोक्येश्वर-वन्दनीय-चरणाः प्रापुः श्रियं शाश्वतीं, यानाराध्य निरुद्ध-चण्ड-मनसः सन्तोऽपि तीर्थंकरा | सत्सम्यक्त्व-विबोध-वीर्य्य-विशदाऽव्याबाधताद्यैर्गुणै- र्युक्तांस्तानिह तोष्टवीमि सततं सिद्धान् विशुद्धोदयान् || जयमाला विराग सनातन शांत निरंश, निरामय निर्भय निर्मल हंस | सुधाम विबोध-निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह || विदुरित-संसृति-भाव निरंग, समामृत-पूरित देव विसंग | अबंध कषाय-विहीन विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || निवारित-दुष्कृतकर्म-विपाश, सदामल-केवल-केलि-निवास | भवोदधि-पारग शांत विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || अनंत-सुखामृत-सागर-धीर, कंलक-रजो-मल-भूरि-समीर | विखण्डित-काम विराम-विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || विकार विवर्जित तर्जितशोक, विबोध-सुनेत्र-विलोकित-लोक | विहार विराव विरंग विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || रजोमल-खेद-विमुक्त विगात्र, निरंतर नित्य सुखामृत-पात्र | सुदर्शन राजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || नरामर-वंदित निर्मल-भाव, अनंत मुनीश्वर पूज्य विहाव | सदोदय विश्व महेश विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || विदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परापरशंकर सार वितंद्र | विकोप विरुप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || जरा-मरणोज्झित-वीत-विहार, विचिंतित निर्मल निरहंकार | अचिन्त्य-चरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || विवर्ण विगंध विमान विलोभ, विमाय विकाय विशब्द विशोभ | अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह || घत्ता असम-समयसारं चारु-चैतन्य चिह्नं, पर-परणति-मुक्तं पद्मनंदीन्द्र-वन्द्यम् | निखिल-गुण-निकेतं सिद्धचक्रं विशुद्धं, स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिम् || ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | अडिल्ल छंद अविनाशी अविकार परम-रस-धाम हो, समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो | शुद्धबुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हो, जगत-शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो || ध्यान अग्निकर कर्म कलंक सबै दहे, नित्य निरंजन देव स्वरुपी ह्वै रहे | ज्ञायक ज्ञेयाकार ममत्व निवार के | सो परमातम सिद्ध नमूँ सिर नाय के || अविचल ज्ञान प्रकाशते, गुण अनन्त की खान | ध्यान धरे सो पाइए, परम सिद्ध भगवान || अविनाशी आनन्द मय, गुण पूरण भगवान | शक्ति हिये परमात्मा, सकल पदारथ जान || इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत् |
  4. कविश्री हीराचंद (अडिल्ल छन्द) अष्ट-करम करि नष्ट अष्ट-गुण पाय के, अष्टम-वसुधा माँहिं विराजे जाय के | ऐसे सिद्ध अनंत महंत मनाय के, संवौषट् आह्वान करूँ हरषाय के || ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्) ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्) ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्) (छन्द त्रिभंगी) हिमवन-गत गंगा आदि अभंगा, तीर्थ उतंगा सरवंगा | आनिय सुरसंगा सलिल सुरंगा, करि मन चंगा भरि भृंगा || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१। हरिचंदन लायो कपूर मिलायो, बहु महकायो मन भायो | जल संग घिसायो रंग सुहायो, चरन चढ़ायो हरषायो || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२। तंदुल उजियारे शशि-दुति टारे, कोमल प्यारे अनियारे | तुष-खंड निकारे जल सु-पखारे, पुंज तुम्हारे ढिंग धारे || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३। सुरतरु की बारी प्रीति-विहारी, किरिया प्यारी गुलजारी | भरि कंचनथारी माल संवारी, तुम पद धारी अतिसारी || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४। पकवान निवाजे स्वाद विराजे, अमृत लाजे क्षुध भाजे | बहु मोदक छाजे घेवर खाजे, पूजन काजे करि ताजे || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। आपा-पर भासे ज्ञान प्रकाशे, चित्त विकासे तम नासे | ऐसे विध खासे दीप उजासे, धरि तुम पासे उल्लासे || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६। चुंबत अलिमाला गंधविशाला, चंदन काला गरुवाला | तस चूर्ण रसाला करि तत्काला, अग्नि-ज्वाला में डाला || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्ट-कर्म-विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७। श्रीफल अतिभारा, पिस्ता प्यारा, दाख छुहारा सहकारा | रितु-रितु का न्यारा सत्फल सारा, अपरंपारा ले धारा || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८। जल-फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा | मेटो भवफंदा सब दु:खदंदा, ‘हीराचंदा’ तुम वंदा || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी | शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।९। जयमाला (दोहा) ध्यान-दहन विधि-दारु दहि, पायो पद-निरवान | पंचभाव-जुत थिर थये, नमूं सिद्ध भगवान् ||१|| (त्रोटक छन्द) सुख सम्यक्-दर्शन-ज्ञान लहा, अगुरु-लघु सूक्षम वीर्य महा | अवगाह अबाध अघायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२|| असुरेन्द्र सुरेन्द्र नरेन्द्र जजें, भुवनेन्द्र खगेन्द्र गणेन्द्र भजें | जर-जामन-मर्ण मिटायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||३|| अमलं अचलं अकलं अकुलं, अछलं असलं अरलं अतुलं | अबलं सरलं शिवनायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||४|| अजरं अमरं अघरं सुधरं, अडरं अहरं अमरं अधरं | अपरं असरं सब लायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||५|| वृषवृंद अमंद न निंद लहें, निरदंद अफंद सुछंद रहें | नित आनंदवृंद बधायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||६|| भगवंत सुसंत अनंत गुणी, जयवंत महंत नमंत मुनी | जगजंतु तणे अघ घायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||७|| अकलंक अटंक शुभंकर हो, निरडंक निशंक शिवंकर हो | अभयंकर शंकर क्षायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||८|| अतरंग अरंग असंग सदा, भवभंग अभंग उतंग सदा | सरवंग अनंग नसायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||९|| ब्रह्मंड जु मंडल मंडन हो, तिहुँ-दंड प्रचंड विहंडन हो | चिद्पिंड अखंड अकायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१०|| निरभोग सुभोग वियोग हरे, निरजोग अरोग अशोक धरे | भ्रमभंजन तीक्षण सायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||११|| जय लक्ष अलक्ष सुलक्षक हो, जय दक्षक पक्षक रक्षक हो | पण अक्ष प्रतक्ष खपायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१२|| अप्रमाद अनाद सुस्वाद-रता, उनमाद विवाद विषाद-हता | समता रमता अकषायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१३|| निरभेद अखेद अछेद सही, निरवेद अवेदन वेद नहीं | सब लोक-अलोक के ज्ञायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१४|| अमलीन अदीन अरीन हने, निजलीन अधीन अछीन बने | जम को घनघात बचायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१५|| न अहार निहार विहार कबै, अविकार अपार उदार सबै | जगजीवन के मनभायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१६|| असमंध अधंद अरंध भये, निरबंध अखंद अगंध ठये | अमनं अतनं निरवायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१७|| निरवर्ण अकर्ण उधर्ण बली, दु:ख हर्ण अशर्ण सुशर्ण भली | बलिमोह की फौज भगायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१८|| अविरुद्ध अक्रुद्ध अजुद्ध प्रभू, अति-शुद्ध प्रबुद्ध समृद्ध विभू | परमातम पूरन पायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||१९|| विरूप चिद्रूप स्वरूप द्युती, जसकूप अनूपम भूप भुती | कृतकृत्य जगत्त्रय-नायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२०|| सब इष्ट अभीष्ट विशिष्ट हितू, उत्कृष्ट वरिष्ट गरिष्ट मितू | शिव तिष्ठत सर्व-सहायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२१|| जय श्रीधर श्रीकर श्रीवर हो, जय श्रीकर श्रीभर श्रीझर हो | जय रिद्धि सुसिद्धि-बढ़ायक हो, सब सिद्ध नमूं सुखदायक हो ||२२|| (दोहा) सिद्ध-सुगुण को कहि सके, ज्यों विलसत नभमान | ‘हीराचंद’ ता ते जजे, करहु सकल कल्यान ||२३|| ओं ह्रीं श्री अनाहतपराक्रमाय सकलकर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरिमेष्ठिने जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (अडिल्ल छन्द) सिद्ध जजैं तिनको नहिं आवे आपदा | पुत्र – पौत्र धन – धान्य लहे सुख – संपदा || इंद्र चंद्र धरणेद्र नरेन्द्र जु होय के | जावें मुकति मँझार करम सब खोय के ||२४||
  5. श्री वीर सन्मति गाँव ‘चाँदन’, में प्रगट भये आयकर | जिनको वचन-मन-काय से, मैं पूजहूँ सिर नायकर || ये दयामय नार-नर, लखि शांतिरूपी भेष को | तुम ज्ञानरूपी भानु से, कीना सुशोभित देश को || सुर इन्द्र विद्याधर मुनी, नरपति नवावें शीस को | हम नमत हैं नित चाव सों, महावीर प्रभु जगदीश को || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन्! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वानम्) ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन्! अत्रा तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन्! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सत्रिधिकरणम्) अष्टक क्षीरोदधि से भरि नीर, कंचन के कलशा | तुम चरणनि देत चढ़ाय, आवागमन नशा || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१। मलयागिर चन्दन कर्पूर, केशर ले हरषौं | प्रभु भव-आताप मिटाय, तुम चरननि परसौं || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२। तंदुल उज्ज्वल-अति धोय, थारी में लाऊँ | तुम सन्मुख पुंज चढ़ाय, अक्षय-पद पाऊँ || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३। बेला केतकी गुलाब, चंपा कमल लऊँ | जे कामबाण करि नाश, तुम्हरे चरण दऊँ || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४। फैनी गुंजा अरु स्वाद, मोदक ले लीजे | करि क्षुधा-रोग निरवार, तुम सन्मुख कीजे || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। घृत में कर्पूर मिलाय, दीपक में जारो | करि मोहतिमिर को दूर, तुम सन्मुख बारो || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६। दशविधि ले धूप बनाय, ता में गंध मिला | तुम सन्मुख खेऊँ आय, आठों कर्म जला || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७। पिस्ता किसमिस बादाम, श्रीफल लौंग सजा | श्री वर्द्धमान पद राख, पाऊँ मोक्ष पदा || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८। जल गंध सु अक्षत पुष्प, चरुवर जोर करौं | ले दीप धूप फल मेलि, आगे अर्घ करौं || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९। (टोंक के चरणों का अर्घ्य) जहाँ कामधेनु नित आय, दुग्ध जु बरसावे | तुम चरननि दरशन होत, आकुलता जावे || जहाँ छतरी बनी विशाल, तहाँ अतिशय भारी | हम पूजत मन-वच-काय, तजि संशय सारी || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं टोंकस्थित श्रीमहावीरचरणाभ्याम् अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (टीले के अंदर विराजमान अवस्था का अर्घ्य) टीले के अंदर आप, सोहे पद्मासन | जहाँ चतुरनिकार्इ देव, आवें जिनशासन || नित पूजन करत तुम्हार, कर में ले झारी | हम हूँ वसु-द्रव्य बनाय, पूजें भरि थारी || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं श्रीमहावीरजिनेंद्राय टीले के अंदर विराजमान-अवस्थायाम् अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा। (पंचकल्याणक अर्घ्यावली) कुंडलपुर नगर मँझार, त्रिशला-उर आयो | सुदि-छठि-आषाढ़, सुर रतन जु बरसायो || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं आषाढ़शुक्ल-षष्ठ्याम् गर्भमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१। जन्मत अनहद भर्इ घोर, आये चतुर्निकार्इ | तेरस शुक्ला की चैत्र, गिरिवर ले जार्इ || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं चैत्रशुक्ल-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२। कृष्णा-मंगसिर-दश जान, लोकांतिक आये | करि केशलौंच तत्काल, झट वन को धाये || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं मार्गशीर्षकृष्ण-दशम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।३। बैसाख-सुदी-दश माँहि, घाती क्षय करना | पायो तुम केवलज्ञान, इन्द्रनि की रचना || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं बैसाखशुक्ल-दशम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४। कार्तिक जु अमावस-कृष्ण, पावापुर ठाहीं | भयो तीनलोक में हर्ष, पहुँचे शिवमाहीं || चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी | प्रभु भव-आताप निवार, तुम पद बलिहारी || ओं ह्रीं कार्तिककृष्ण-अमावस्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। जयमाला (दोहा) मंगलमय तुम हो सदा, श्रीसन्मति सुखदाय | चाँदनपुर महावीर की, कहूँ आरती गाय || (पद्धरि छन्द) जय जय चाँदनपुर महावीर, तुम भक्तजनों की हरत पीर | जड़ चेतन जग को लखत आप, दर्इ द्वादशांग वानी अलाप ||१|| अब पंचमकाल मँझार आय, चाँदनपुर अतिशय दर्इ दिखाय | टीले के अंदर बैठि वीर, नित झरा गाय का स्वयं क्षीर ||२|| ग्वाले को फिर आगाह कीन, जब दरसन अपना तुमने दीन | मूरति देखी अति ही अनूप, है नग्न दिगंबर शांति रूप ||३|| तहाँ श्रावकजन बहु गये आय, किये दर्शन मन वचन काय | है चिह्न शेर का ठीक जान, निश्चय है ये श्रीवर्द्धमान ||४|| सब देशन के श्रावक जु आय, जिनभवन अनूपम दियो बनाय | फिर शुद्ध दर्इ वेदी कराय, तुरतहिं रथ फिर लियो सजाय ||५|| ये देख ग्वाल मन में अधीर, मम गृह को त्यागो नाहिं वीर | तेरे दर्शन बिन तजूँ प्राण, सुन टेर मेरी किरपा निधान ||६|| कीने रथ में प्रभु विराजमान, रथ हुआ अचल गिरि के समान | तब तरह तरह के किये जोर, बहुतक रथ गाड़ी दिये तोड़ ||७|| निशिमाँहि स्वप्न सचिवहिं दिखात, रथ चलै ग्वाल का लगत हाथ | भोरहिं झट चरण दियो बनाय, संतोष दियो ग्वालहिं कराय ||८|| करि जय! जय! प्रभु से करी टेर, रथ चल्यो फेर लागी न देर | बहु निरत करत बाजे बजार्इ, स्थापन कीने तहँ भवन जाइ ||९|| इक दिन मंत्री को लगा दोष, धरि तोप कही नृप खाय रोष | तुमको जब ध्याया वहाँ वीर, गोला से झट बच गया वजीर ||१०|| मंत्री नृप चाँदनगाँव आय, दर्शन करि पूजा विधि बनाय | करि तीन शिखर मंदिर रचाय,कंचन कलशा दीने धराय ||११|| यह हुक्म कियो जयपुर नरेश, सालाना मेला हो हमेश | अब जुड़न लगे बहु नर उ नार, तिथि चैत सुदी पूनों मँझार ||१२|| मीना गूजर आवें विचित्र, सब वरण जुड़े करि मन पवित्र | बहु निरत करत गावें सुहाय, कोर्इ घृत दीपक रह्यो चढ़ाय ||१३|| कोर्इ जय जय शब्द करें गंभीर, जय जय जय हे! श्री महावीर | जैनी जन पूजा रचत आन, कोर्इ छत्र चँवर के करत दान ||१४|| जिसकी जो मन इच्छा करंत, मनवाँछित फल पावे तुरंत | जो करे वंदना एक बार, सुख पुत्र संपदा हो अपार ||१५|| जो तुम चरणों में रखे प्रीत, ताको जग में को सके जीत | है शुद्ध यहाँ का पवन नीर, जहाँ अतिविचित्र सरिता गंभीर ||१६|| ‘पूरनमल’ पूजा रची सार, हो भूल लेउ सज्जन सुधार | मेरा है शमशाबाद ग्राम, त्रयकाल करूँ प्रभु को प्रणाम ||१७|| (धत्ता) श्री वर्द्धमान तुम गुणनिधान, उपमा न बनी तुम चरनन की | है चाह यही नित बनी रहे, अभिलाषा तुम्हारे दर्शन की | ओं ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) अष्टकर्म के दहन को, पूजा रची विशाल | पढ़े सुनें जो भाव से, छूटें जग-जंजाल ||१|| संवत् जिन चौबीस सौ, है बांसठ को साल | एकादश कार्तिक वदी, पूजा रची सम्हाल ||२|| ।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
  6. श्रीमत वीर हरें भवपीर, भरें सुखसागर अनाकुलताई | केहरि अंक अरीकरदंक, नये हरि पंकति मौलि सुआई || मैं तुमको इत थापत हौं प्रभु, भक्ति समेत हिये हरषाई | हे करुणा-धन-धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई || ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | क्षीरोदधिसम शुचि नीर, कंचन भृंग भरौं | प्रभु वेगि हरो भवपीर, यातें धार करौं || श्री वीर महा-अतिवीर, सन्मति नायक हो | जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो || ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| मलयागिर चन्दनसार, केसर संग घसौं | प्रभु भवआताप निवार, पूजत हिय हुलसौं ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| तंदुल सित-शशिसम शुद्ध, लीनो थार भरी | तसु पुंज धरौं अविरुद्ध, पावौं शिवनगरी ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे | सो मनमथ भंजन हेत, पूजौं पद थारे ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| रसरज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी | पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| तमखंडित मंडित नेह, दीपक नेह, दीपक जोवत हौं | तुम पदतर हे सुखगेह, भ्रमतम खोवत हौं ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| हरिचंदन अगर कपूर, चूर सुगंध करा | तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| रितु फल कल-वर्जित लाय, कंचन भरौं | शिव फलहित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरौं ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल फल वसु सजि हिम थार, तन मन मोद धरौं | गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरौं ||श्रीवीर0 ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी मोहि राखो0 | गरभ साढ़ सित छट्ट लियो थित, त्रिशला उर अघ हरना | सुर सुरपति तित सेव करी नित, मैं पूजूं भवतरना || मोहि राखो हो शरणा, श्री वर्द्धमान जिनरायजी, मोहि राखो हो शरणा | ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाषष्ठ्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमहा0अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| जनम चैत सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना | सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजौं भवहरना |मोहि0 ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लात्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीमहा0अर्घ्यं नि0स्वाहा |2| मंगसिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना | नृपति कूल घर पारन कीनों, मैं पूजौं तुम चरना |मोहि0 ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णादशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीमहा0अर्घ्यं नि0स्वाहा |3| शुक्ल दशैं वैशाख दिवस अरि, घात चतुक क्षय करना | केवल लहि भवि भवसर तारे, जजौं चरन सुख भरना |मोहि0 ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीमहा0अर्घ्यं नि0स्वाहा |4| कार्तिक श्याम अमावस शिव तिय, पावापुर तैं वरना | गणफनिवृन्द जजें तित बहुविध, मैं पूजौं भयहरना |मोहि0 ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाअमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमहा0अर्घ्यं नि0स्वाहा |5| जयमाला गणधर, अशनिधर, चक्रधर, हलधर, गदाधर, वरवदा | अरु चापधर, विद्यासुधर तिरशूलधर सेवहिं सदा || दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरन रसाल हैं | सुकुमाल गुण मनिमाल उन्नत भालकी जयमला हैं || जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगदानंदन चंदवरं | भवतापनिकंदन, तनकनमंदन, रहित सपंदन नयन धरं || जय केवलभानु-कला-सदनं, भवि-कोक-विकाशन कंदवनं | जगजीत महारिपु मोहहरं, रजज्ञान-दृगावर चूर करं |1| गर्भादिक मंगल मंडित हो, दुखदारिद को नित खंडित हो | जग माहिं तुम्हीं सतपंडित हो, तुम ही भवभाव-विहंडित हो |2| हरिवंश सरोजन को रवि हो, बलवंत महंत तुम्हीं कवि हो | लहि केवलधर्म प्रकाश कियो, अबलों सोई मारग राजतियो |3| पुनि आप तने गुण माहिं सही, सुरमग्न रहैं जितने सबही | तिनकी वनिता गुनगावत हैं, लय-ताननिसों मनभावत हैं |4| पुनि नाचत रंग उमंग-भरी, तुअ भक्ति विषै पग एम धरी | झननं झननं झननं झननं, सुर लेत तहां तननं तननं |5| घननं घननं घनघंट बजै, दृमदं दृमदं दृमदं मिरदंग सजै | गगनांगन-गर्भगता सुगता, ततता ततता ततता अतता वितता |6| धृगतां धृगतां गति बाजत है, सुरताल रसालजु छाजत है | सननं सननं सननं नभ में, इकरुप अनेक जु धारि भ्रमें |7| किन्नर सुर बीन बजावत हैं, तुमरो जस उज्जवल गावत हैं | करताल विषै करताल धरैं, सुरताल विशाल जु नाद करैं |8| इन आदि अनेक उछाह भरी, सुरभक्ति करें प्रभुजी तुमरी | तुमही जग जीवन के पितु हो, तुमही बिनकारनतें हितु हो |9| तुमही सब विघ्न विनाशन हो, तुमही निज आनंदभासन हो | तुमही चितचिंतितदायक हो, जगमाहिं तुम्हीं सब लायक हो |10| तुमरे पन मंगल माहिं सही, जिय उत्तम पुन्य लियो सबही | हमतो तुमरी शरणागत हैं, तुमरे गुन में मन पागत है |11| प्रभु मो हिय आप सदा बसिये, जबलों वसु कर्म नहीं नसिये | तबलों तुम ध्यान हिये वरतों, तबलों श्रुतचिंतन चित्त रतो |12| तबलों व्रत चारित चाहतु हों, तबलों शुभभाव सुगाहतु हों | तबलों सतसंगति नित्त रहो, तबलों मम संजम चित्त गहो |13| जबलों नहिं नाश करौं अरिको, शिव नारि वरौं समता धरिको | यह द्यो तबलों हमको जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी |14| घत्ताः- श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा, नाग नरेशा भगति भरा | वृन्दावन ध्यावै विघन नशावै, वाँछित पावै शर्म वरा || ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमान जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | दोहाः- श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजैं धरि प्रीत | वृन्दावन सो चतुर नर, लहैं मुक्ति नवनीत || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  7. वर स्वर्ग प्राणत को विहाय, सुमात वामा सुत भये | अश्वसेन के पारस जिनेश्वर, चरन जिनके सुर नये || नव हाथ उन्नत तन विराजै, उरग लच्छन पद लसैं | थापूं तुम्हें जिन आय तिष्ठो करम मेरे सब नसैं || ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | क्षीरसोम के समान अम्बुसार लाइये | हेमपात्र धारि के सु आपको चढ़ाइये || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करुं सदा | दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा || ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| चंदनादि केशरादि स्वच्छ गंध लीजिये | आप चरण चर्च मोह-ताप को हनीजिये || पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करुं सदा | दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा || ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय भवताप विनाशनाय चंदनं निर्व0स्वाहा |2| फेन, चंद्र के समान अक्षतान् लाइके | चर्न के समीप सार पुंज को रचाइके || पार्श्व0 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्व0स्वाहा |3| केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइके | धार चर्न के समीप काम को नशाइके || पार्श्व0 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| घेवरादि बावरादि मिष्ट सद्य में सने | आप चर्न चर्चतें क्षुधादि रोग को हने ||पार्श्व0 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्यं नि0स्वाहा |5| लाय रत्न दीप को सनेह पूर के भरुं | वातिका कपूर बारि मोह ध्वांत को हरुं ||पार्श्व0 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| धूप गंध लेय के सुअग्निसंग जारिये | तास धूप के सुसंग अष्टकर्म बारिये ||पार्श्व0 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| खारिकादि चिरभटादि रत्न थाल में भरुं | हर्ष धारिके जजूं सुमोक्ष सौख्य को वरुं ||पार्श्व0 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| नीर गंध अक्षतान पुष्प चारु लीजिये | दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तैं जजीजिये ||पार्श्व0 ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंचकल्याणक अर्घ्यावली शुभप्राणत स्वर्ग विहाये, वामा माता उर आये | वैशाख तनी दुतकारी, हम पूजें विघ्न निनारी || ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वितीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |1| जनमे त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता | श्यामा तन अद्भुत राजै, रवि कोटिक तेज सु लाजै || ॐ ह्रीं पौषकृष्णा एकादश्यांजन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्व0अ0नि0स्वाहा |2| कलि पौष एकादशि आई, तब बारह भावन भाई | अपने कर लौंच सु कीना, हम पूजैं चरन जजीना || ॐ ह्रीं पौषकृष्णा एकादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्व0अ0नि0स्वाहा |3| कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवल ज्ञान उपाई | तब प्रभु उपदेश जु कीना, भवि जीवन को सुख दीना || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुर्थ्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपार्श्व0अ0नि0स्वाहा |4| सित सातैं सावन आई, शिवनारि वरी जिनराई | सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजैं मोक्ष कल्याना || ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्व0अ0नि0स्वाहा |5| जयमाला पारसनाथ जिनेंद्रतने वच, पौन भखी जरते सुन पाये | कर्यो सरधान लह्यो पद आन भये पद्मावति शेष कहाये | नाम प्रताप टरैं संताप, सुभव्यन को शिवशर्म दिखाये | हे अश्वसेन के नंद भले, गुण गावत हैं तुमरे हर्षाये || दोहाः- केकी-कंठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ | लक्षण उरग निहार पग, वंदौं पारसनाथ |1| रची नगरी छह मास अगार, बने चहुं गोपुर शोभ अपार | सु कोट तनी रचना छबि देत, कंगूरन पें लहकें बहुकेत |2| बनारस की रचना जु अपार, करी बहु भांति धनेश तैयार | तहां अश्वसेन नरेन्द्र उदार, करैं सुख वाम सु दे पटनार |3| तज्यो तुम प्रानत नाम विमान, भये तिनके वर नंदन आन | तबै सुर इंद्र नियोगनि आय, गिरिंद करी विधि न्हौन सुजाय |4| पिता-घर सौंपि गये निजधाम, कुबेर करै वसु जाम सुकाम | बढ़े जिन दोज-मयंक समान, रमैं बहु बालक निर्जर आन |5| भए जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुव्रत महा सुखकार | पिता जब आन करी अरदास, करो तुम ब्याह वरो ममआस |6| करी तब नाहिं रहे जग चंद, किये तुम काम कषाय जुमंद | चढ़े गजराज कुमारन संग, सुदेखत गंगतनी सुतरंग |7| लख्यो इक रंक कहै तप घोर, चहूंदिशि अगनि बलै अति जोर | कहै जिननाथ अरे सुन भ्रात, करै बहु जीवन की मत घात |8| भयो तब कोप कहै कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव | लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव ब्रह्मरिषीसुर आय |9| तबहिं सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निज कंध मनोग | कियो वन माहिं निवास जिनंद, धरे व्रत चारित आनन्दकंद |10| गहे तहँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास | दियो पयदान महासुखकार, भई पन वृष्टि तहां तिहिं बार |11| गये तब कानन माहिं दयाल, धर्यो तुम योग सबहिं अघ टाल | तबै वह धूम सुकेतु अयान, भयो कमठाचर को सुर आन |12| करै नभ गौन लखे तुम धीर, जु पूरब बैर विचार गहीर | कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहु तीक्षण पवन झकोर |13| रह्यो दशहूं दिश में तम छाय, लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय | सुरुण्डन के बिन मुण्ड दिखाय, पड़ै जल मूसलधार अथाय |14| तबै पद्मावति-कंत धनिंद, नये जुग आय जहां जिनचंद | भग्यो तब रंक सुदेखत हाल, लह्यो तब केवलज्ञान विशाल |15| दियो उपदेश महा हितकार, सुभव्यन बोध समेद पधार | सुवर्णभद्र जहाँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसुरिद्ध |16| जजूं तुम चरन दोउ कर जोर, प्रभू लखिये अबही मम ओर | कहै बखतावर रत्न बनाय, जिनेश हमें भव पार लगाय |17| घत्ताः- जय पारस देवं, सुरकृत सेवं, वंदत चर्न सुनागपती | करुणा के धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती || ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | अडिल्लः- जो पूजै मन लाय भव्य पारस प्रभु नितही | ताके दुख सब जाय भीति व्यापै नहि कित ही || सुख संपति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे | अनुक्रमसों शिव लहै, रत्न इमि कहै पुकारे || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्) |
  8. श्रीअहिच्छत्र पार्श्वनाथ पूजन (स्थापना) हे पार्श्वनाथ करुणानिधान महिमा महान मंगलकारी। शिव भर्तारी, सुख भंडारी सर्वज्ञ सुखारी त्रिपुरारी।। तुम धर्मसेत, करुणानिकेत आनन्द हेत अतिशय धारी। तुम चिदानन्द आनन्द कन्द दुख-द्वन्द फन्द संकटहारी।। आवाहन करके आज तुम्हें अपने मन में पधराऊँगा। अपने उर के सिंघासन पर गद-गद हो तुम्हें बिठाऊँगा।। मेरा निर्मल मन टेर रहा हे नाथ हृदय में आ जाओ। मेरे सूने मन मंदिर में पारस भगवान समा जाओ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। भव वन में भटक रहा हूँ मैं, भर सकी न तृष्णा की खाई। भव सागर के अथाह दुख में सुख की जल बिन्दु नहीं पाई।। जिस भांति आपने तृष्णा पर, जय पाकर तृषा बुझाई है। अपनी अतृप्ति पर, अब तुमसे जय पाने की सुधि आई है।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा। क्रोधित हो क्रूर कमठ ने जब नभ से ज्वाला बरसाई थी। उस आत्मध्यान की मुद्रा में आकुलता तनिक न आई थी।। विघ्नों पर बैर-विरोधों पर मैं साम्यभाव धर जय पाऊँ। मन की आकुलता मिट जाये ऐसी शीतलता पा जाऊँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा। तुमने कर्मो पर जय पाकर मोती सा जीवन पाया है। यह निर्मलता मैं भी पाऊँ मेरे मन यही समाया है।। यह मेरा अस्तव्यस्त जीवन इसमें सुख कहीं न पाता हूँ। मैं भी अक्षय पद पाने को शुभ अक्षत तुम्हें चढ़ाता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान नि. स्वाहा। अध्यात्मवाद के पुष्पों से जीवन फुलवारी महकाई। जितना जितना उपसर्ग सहा उतनी उतनी द्रढ़ता आई।। मैं इन पुष्पों से वञ्चित हूँ अब इनको पाने आया हूँ। चरणों पर अर्पित करने को कुछ पुष्प संजोकर लाया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा। जय पाकर चपल इन्द्रियों पर अन्तर की क्षुधा मिटा डाली। अपरिग्रह की आलोक शक्ति अपने अन्दर ही प्रगटा ली।। भटकाती फिरती क्षुधा मुझे मैं तृप्त नहीं हो पाया हूँ। इच्छाओं पर जय पाने को मैं शरण तुम्हारी आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। अपने अज्ञान अंधेरे में वह, कमठ फिरा मारा मारा। व्यन्तर विमानधारी था पर, तप के उजियारे से हारा।। मैं अंधकार में भटक रहा, उजियारा पाने आया हूँ। जो ज्योति आप में दर्शित है, वह ज्योति जगाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। तुमने तपके दाबानाल में, कर्मों की धूप जलाई है। जो सिद्ध शिला तक आ पहुंची, वह निर्मल गंध उड़ाई है।। मई कर्म बन्धनों में जकड़ा, भाव बन्धन घबराया हूँ। वसु-कर्म दहन के लिए, तुम्हें मैं धूप चढ़ाने आया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा। तुम महा तपस्वी शांति मूर्ति उपसर्ग तुम्हें न डिगा पाये। तप के फल ने पध्मावति के इन्द्रों के आसन कम्पाये। ऐसे उत्तम फल की आशा मैं, मन में उमड़ी पाता हूँ। ऐसा शिव सुख फल पाने को, फल की शुभ भेंट चढ़ाता हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा। संघर्षों में उपसर्गों में, तुमने समता का भाव धरा। आदर्श तुम्हारा अमृत-बन, भक्तों के जीवन में बिखरा।। मैं अष्ट द्रव्य से पूजा का, शुभ थाल सजा कर लाया हूँ। जो पदवी तुमने पाई है, मैं भी उस पर ललचाया हूँ।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अर्घं नि. स्वाहा। पंचकल्याणक वैशाख कृष्ण दुतिया के दिन तुम वामा के उर में आये। श्री अश्वसेन नृप के घर में, आनन्द भरे मंगल छाये।। ॐ ह्रीं वैशाखाकृष्णद्वितीत्यायां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनथजिनेन्द्राय अर्घं नि. स्वाहा। जब पौष कृष्ण एकादशि को, धरती पर नया प्रसून खिला। भूले भटके भ्रमते जगको, आत्मोन्नति का आलोक मिला।। ॐ ह्रीं पौष कृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्रायअर्घं नि. स्वाहा। एकादशि पौषकृष्ण, तुमने संसार अथिर पाया। दीक्षा लेकर आध्यात्मिक पथ, तुमने तप द्वारा अपनाया।। ॐ ह्रीं पौष कृष्णैकादशी दिने तपोमंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्रायअर्घं नि. स्वाहा। अहिच्छत्र धरा पर जी भर कर, की क्रूर कमठ ने मनमानी। तब कृष्णा चैत्र चतुर्थी को, पद प्राप्त किया केवलज्ञानी।। यह वन्दनीय हो गई धरा, देश भव का बैरी पछताया। देवों ने जय जयकारों से, सारा भूमण्डल गुंजाया।। ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णचतुर्थीदिवसे श्रीअहिच्छत्रतीर्थे ज्ञानसाम्राज्यप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घं नि. स्वाहा। श्रावण शुक्ला सप्तमी केदिन, सम्मेद शिखर ने यशपाया। 'सुवरणगिरी' भद्रकूट से जब, शिव मुक्तिरामा को परिणाया।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां सम्मेदशिखरस्य सुवरणभद्रकूटाद् मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथजिनेन्द्रायअर्घं नि. स्वाहा। जयमाला सुरनर किन्नर गणधर फणधर, योगीजन ध्यान लगाते हैं। भगवान तुम्हारी महिमा का, यशगान मुनीवर गाते हैं।। जो ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, दुख उनकै पास न आते हैं। जो शरण तुम्हारी रहते हैं, उनके संकट काट जाते हैं।। तुम कर्मदली, तुम महाबली, इन्द्रियसुख पर जय पाई है। मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ, मन में यह आज समयी है।। तुमने शरीर औ आत्मा के, अंतर स्वाभाव को जाना है। नश्वर शरीर का मोह तजा, निश्चय स्वरुप पहिचाना है।। तुम द्रव्य मोह, औ भाव मोह, इन दोनों से न्यारे न्यारे। जो पुद्गल के निमित्त कारण, वे रागद्वेष तुमसे हारे।। तुम पर निर्जन वन में बरसे, ओले-शोले पत्थर पानी। आलोक तपस्या के आगे, चल सकी न शठ की मनमनी।। यह सहन शक्तियों का बल है, जो तप के द्वारा आया था। जिसने स्वार्गों में देवों के, सिंघासन को कम्पाया था।। 'अहि' का स्वरूप धरकर तत्क्षण, धरणेन्द्र स्वर्ग से आया था। ध्यानस्थ आप के ऊपर प्रभु फण-मण्डप बनकर छाया था।। उपसर्ग कमठ का नष्ट किया मस्तक पर फणमण्डप रचकर। पद्मादेवी ने उठा लिया, तुमको सिर के सिंघासन पर।। तप के प्रभाव से देवों ने, व्यंतर की माया विनशाई। पर प्रभो आपकी मुद्रा में, तिलमात्र न आकुलता आई।। उपसर्गों का आतंक तुम्हें, हे प्रभु तिलभर न डिगा पाया। अपनी विडम्बना पर बैरी, असफल हो मन में पछताया।। शठ कमठ, बैर के वशीभूत, भौतिक बल पर बौराया था। अध्यात्म आत्मबल का गौरव, यह मूरख समझ न पाया था।। दश भव तक जिसने बैर किया, पीड़ायें देकर मनमानी। फिर हार मानकर चरणों में, झुक गया स्वयं वह अभिमानी।। यह बैर महा दुखदायी है, यह बैर न बैर मिटाता है। यह बैर निरंतर प्राणी को, भवसागर में भटकाता है।। जिनको भव सुख की चाह नहीं, दुख से न जरा भय खाते हैं । वे सर्व-सिद्धियों को पाकर, भव सागर से तिर जाते हैं।। जिसने भी शुद्ध मनोबल से, ये कठिन परीषह झेली हैं। सब ऋद्धि-सिद्धियां नत होकर, उनके चरणों पर खेली हैं।। जो निर्विकल्प चैतन्य रूप, शिव का स्वरुप तुमने पाया। ऐसा पवित्र पद पाने को, मेरा अन्तर मन ललचाया।। कार्माण वर्गणायें मिलकर, भाव वन में भ्रमण कराती हैं। जो शरण तुम्हारी आते हैं, ये उनके पास न आती हैं।। तुमने सब बैर विरोधों पर, समदर्शी बन जय पाई है। मैं भी ऐसी समता पाऊँ, यह मेरे हृदय समाई है।। अपने समान ही तुम सबका, जीवन विशाल कर देते हो। तुम हो तिखाल वाले बाबा, जग को निहाल कर देते हो।। तुम हो त्रिकालदर्शी तुमने, तीर्थंकर का पद पाया है। तुम हो महान अतिशयधारी, तुम में आनन्द समाया है।। चिन्मूरति आप अनन्तगुणी, रागादि न तुमको छू पाये। इस पर भी हर शरणागत पर, मनमाने सुख साधन आये।। तुम रागद्वेष से दूर दूर, इनसे न तुम्हारा नाता है। स्वयमेव वृक्ष के नीचे जग, शीतल छाया पा जाता है।। अपनी सुगन्ध क्या फूल कहीं, घर घर आकर बिखराते हैं। सूरज की किरणों को छूकर, सुमन स्वयं खिल जाते हैं।। भौतिक पारसमणि तो केवल, लोहे को स्वर्ण बनाती है। हे पार्श्व प्रभो तुमको छूकर, आत्मा कुन्दन बन जाती है।। तुम सर्व शक्ति धारी हो प्रभु, ऐसा बल मैं भी पाऊँगा। यदि यह बल मुझको भी दे दो, फिर कुछ न मांगने आऊँगा।। कह रहा भक्ति के वशीभूत, हे दया सिन्धु स्वीकारो तुम। जैसे तुम जग से पार हुये, मुझको भी पार उतारो तुम।। जिसने भी शरण तुम्हारी ली, वह खाली हाथ न आया है। अपनी अपनी आशाओं का, सबने वांछित फल पाया है।। बहुमूल्य सम्पदायें सारी, ध्याने वालों ने पाई हैं। पारस के भक्तों पर निधियाँ, स्वयमेव सिमट कर आई हैं।। जो मन से पूजा करते हैं, पूजा उनको फल देती है। प्रभु-पूजा भक्त पुजारी के, सारे संकट हर लेती है।। जो पथ तुमने अपनाया है, वह सीधा शिव को जाता है। जो इस पथ का अनुयायी है, वह परम मोक्ष पद पाता है।। ॐ ह्रीं श्रीअहिच्छत्रपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय महार्घं नि. स्वाहा। पार्श्वनाथ भगवान को, जो पूजे धर ध्यान। उसे लोक परलोक के, मिलें सकल वरदान।। ।। पुष्पांजलि क्षिपेत् ।।
  9. जैतिजै जैतिजै जैतिजै नेमकी, धर्म औतार दातार श्यौचैनकी | श्री शिवानंद भौफंद निकन्द, ध्यावें जिन्हें इन्द्र नागेन्द्र ओ मैनकी || परमकल्यान के देनहारे तुम्हीं, देव हो एव तातें करौं एनकी | थापि हौं वार त्रै शुद्ध उच्चार के, शुद्धताधार भवपार कूं लेन की || ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | दाता मोक्ष के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता0 ||टेक || गंग नदी कुश प्राशुक लीनो, कंचन भृंग भराय | मन वच तन तें धार देत ही, सकल कलंक नशाय || दाता मोक्ष के, श्रीनेमिनाथ जिनराय || दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| हरिचन्दनजुत कदलीनन्दन, कुंकुम संग घिसाय | विघन ताप नाशन के कारन, जजौं तिहांरे पाय ||दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| पुण्यराशि तुमजस सम उज्ज्वल, तंदुल शुद्ध मंगाय | अखय सौख्य भोगन के कारन, पुंज धरौं गुन गाय ||दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| पुण्डरीक सुरद्रुम करनादिक, सुगम सुगंधित लाय | दर्प्पक मनमथ भंजनकारन, जजहुं चरन लवलाय || दाता मोक्ष के, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता0 || ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| घेवर बावर खाजे साजे, ताजे तुरत मँगाय | क्षुधा-वेदनी नाश करन को, जजहुँ चरन उमगाय ||दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| कनक दीप नवनीत पूरकर, उज्ज्वल जोति जगाय | तिमिर मोह नाशक तुम को लखि, जजहुँ चरन हुलसाय ||दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| दशविध गंध मँगाय मनोहर, गुंजत अलिगन आय | दशों बंध जारन के कारन, खेवौं तुम ढिंग लाय ||दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| सुरस वरन रसना मन भावन, पावन फल सु मंगाय | मोक्ष महाफल कारन पूजौं, हे जिनवर तुम पाय ||दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल फल आदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय | अष्टम छिति के राज कारन को, जजौं अंग वसु नाय ||दाता0 ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली सित कातिक छट्ठ अमंदा, गरभागम आनन्दकन्दा | शचि सेय शिवापद आई, हम पूजत मनवचकाई || ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठ्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीनेमि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| सित सावन छट्ठ अमन्दा, जनमे त्रिभुवन के चन्दा | पितु समुन्द्र महासुख पायो, हम पूजत विघन नशायो || ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीनेमि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |2| तजि राजमती व्रत लीनो, सित सावन छट्ठ प्रवीनो | शिवनारि तबै हरषाई, हम पूजैं पद शिर नाई || ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीनेमि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |3| सित आश्विन एकम चूरे, चारों घाती अति कूरे | लहि केवल महिमा सारा, हम पूजैं अष्ट प्रकारा || ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनेमि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |4| सितषाढ़ सप्तमी चूरे, चारों अघातिया कूरे | शिव ऊर्जयन्त तें पाई, हम पूजैं ध्यान लगाई || ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीनेमि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |5| जयमाला दोहाः- श्याम छवी तनु चाप दश, उन्नत गुननिधिधाम | शंख चिह्न पद में निखरि, पुनि-पुनि करौं प्रनाम |1| जै जै जै नेमि जिनिंद चन्द, पितु समुद देन आनन्दकन्द | शिवमात कुमुदमन मोददाय, भविवृन्द चकोर सुखी कराय |2| जयदेव अपूरव मारतंड, तुम कीन ब्रह्मसुत सहस खंड | शिवतिय मुखजलज विकाशनेश, नहिं रह्यो सृष्टि में तम अशेष |3| भवभीत कोक कीनों अशोक, शिवमग दरशायो शर्म थोक | जै जै जै जै तुम गुनगँभीर, तुम आगम निपुन पुनीत धीर |4| तुम केवल जोति विराजमान, जै जै जै जै करुना निधान | तुम समवसरन में तत्वभेद, दरशायो जा तें नशत खेद |5| तित तुमको हरि आनंदधार, पूजत भगतीजुत बहु प्रकार | पुनि गद्यपद्यमय सुजस गाय, जै बल अनंत गुनवंतराय |6| जय शिवशंकर ब्रह्मा महेश, जय बुद्ध विधाता विष्णुवेष | जय कुमतिमतंगन को मृगेंद, जय मदनध्वांत को रवि जिनेंद्र |7| जय कृपासिंधु अविरुद्ध बुद्ध, जय रिद्धिसिद्धि दाता प्रबुद्ध | जय जगजन मनरंजन महान, जय भवसागर महं सुष्टुयान |8| तुव भगति करें ते धन्य जीव, ते पावैं दिव शिवपद सदीव | तुमरो गुनदेव विविध प्रकार, गावत नित किन्नर की जु नार |9| वर भगति माहिं लवलीन होय, नाचें ताथेई थेई थेई बहोय | तुम करुणासागर सृष्टिपाल, अब मों को वेगि करो निहाल |10| मैं दुख अनंत वसुकरमजोग, भोगे सदीव नहिं और रोग | तुम को जग में जान्यो दयाल, हो वीतराग गुन रतन माल |11| ता तें शरना अब गही आय, प्रभु करो वेगि मेरी सहाय | यह विघनकरम मम खंड खंड, मनवांछित कारज मंडमंड |12| संसार कष्ट चकचूर चूर, सहजानन्द मम उर पूर पूर | निजपर प्रकाशबुधि देई, तजि के विलंब सुधि लेइ लेई |13| हम याचतु हैं बार बार, भवसागर तें मो तार तार | नहिं सह्यो जात यह जगत दुःख, तातैं विनवौं हे सुगुनमुक्ख |14| घत्तानंदः- श्रीनेमिकुमारं जितमदमारं, शीलागारं सुखकारं | भवभयहरतारं, शिवकरतारं, दातारं धर्माधारं |15| ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | सुख धन जस सिद्धि पुत्र पौत्रादि वृद्धी | सकल मनसि सिद्धि होतु है ताहि रिद्धि || जजत हरषधारी नेमि को जो अगारी | अनुक्रम अरिजारी सो वरे मोक्षनारी || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  10. श्री नमिनाथ जिनेन्द्र नमौं विजयारथ नन्दन | विख्यादेवी मातु सहज सब पाप निकन्दन || अपराजित तजि जये मिथिलापुर वर आनन्दन | तिन्हें सु थापौं यहाँ त्रिधा करि के पदवन्दन || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | सुरनदी जल उज्ज्वल पावनं, कनक भृंग भरौं मन भावनं | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदांबुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| हरिमलय मिलि केशर सों घसौं, जगतनाथ भवातप को नसौं | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| गुलक के सम सुन्दर तंदुलं, धरत पुञ्जसु भुंजत संकुलं | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| कमल केतुकी बेलि सुहावनी, समरसूल समस्त नशावनी | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| शशि सुधासम मोदक मोदनं, प्रबल दुष्ट छुधामद खोदनं | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| शुचि घृताश्रित दीपक जोइया, असम मोह महातम खोइया | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अमरजिह्व विषें दशगंध को, दहत दाहत कर्म के बंधको | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| फलसुपक्व मनोहर पावने, सकल विघ्न समुह नशावने | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भवभय हरं | जजतु हौं नमि के गुण गाय के, जुगपदाम्बुज प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली गरभागम मंगलचारा, जुग आश्विन श्याम उदारा | हरि हर्षि जजे पितुमाता, हम पूजें त्रिभुवन-त्राता || ॐ ह्रीं आश्विनकृष्णा द्वितीयां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीनमि0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| जनमोत्सव श्याम असाढ़ा, दशमी दिन आनन्द बाढ़ा | हरि मन्दर पूजे जाई, हम पूजें मन वच काई || ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णा दशम्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीनमि0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |2| तप दुद्धर श्रीधर धारा, दशमी कलि षाढ़ उदारा | निज आतम रस झर लायो, हम पूजत आनन्द पायो || ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णा दशम्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीनमि0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |3| सित मंगसिर ग्यारस चूरे, चव घाति भये गुण पूरे | समवस्रत केवलधारी, तुमको नित नौति हमारी || ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनमि0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |4| वैसाख चतुर्दशि श्यामा, हनि शेष वरी शिव वामा | सम्मेद थकी भगवन्ता, हम पूजें सुगुन अनन्ता || ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा चतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीनमि0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |5| जयमाला दोहाः- आयु सहस दश वर्ष की, हेम वरन तनसार | धनुष पंचदश तुंग तनु, महिमा अपरम्पार |1| जय जय जय नमिनाथ कृपाला, अरिकुल गहन दहन दवज्वाला | जय जय धरम पयोधर धीरा, जय भव भंजन गुन गम्भीरा |2| जय जय परमानन्द गुनधारी, विश्व विलोकन जनहितकारी | अशरन शरन उदार जिनेशा, जय जय समवशरन आवेशा |3| जय जय केवल ज्ञान प्रकाशी, जय चतुरानन हनि भवफांसी | जय त्रिभुवनहित उद्यम वंता, जय जय जय जय नमि भगवंता |4| जै तुम सप्त तत्व दरशायो, तास सुनत भवि निज रस पायो | एक शुद्ध अनुभव निज भाखे, दो विधि राग दोष छै आखे |5| दो श्रेणी दो नय दो धर्मं, दो प्रमाण आगमगुन शर्मं | तीनलोक त्रयजोग तिकालं, सल्ल पल्ल त्रय वात वलायं |6| चार बन्ध संज्ञागति ध्यानं, आराधन निछेप चउ दानं | पंचलब्धि पंचभाव शिव भौनें, छहों दरब सम्यक अनुकौने | हानिवृद्धि तप समय समेता, सप्तभंग वानी के नेता |8| संयम समुद् घात भय सारा, आथ करम मद सिध गुन धारा | नवों लबधि नवतत्व प्रकाशे, नोकषाय हरि तूप हुलाशे |9| दशों बन्ध के मूल नशाये, यों इन आदि सकल दरशाये | फेर विहरि जगजन उद्धारे, जय जय ज्ञान दरश अविकारे |10| जय वीरज जय सूक्षमवन्ता, जय अवगाहन गुण वरनंता | जय जय अगुरुलघू निरबाधा, इन गुनजुत तुम शिवसुख साधा |11| ता कों कहत थके गनधारी, तौ को समरथ कहे प्रचारी | ता तैं मैं अब शरने आया, भवदुख मेटि देहु शिवराया |12| बार बार यह अरज हमारी, हे त्रिपुरारी हे शिवकारी || पर-परणति को वेगि मिटावो , सहजानन्द स्वरुप भिटावो |13| वृन्दावन जांचत शिरनाई, तुम मम उर निवसो जिनराई | जब लों शिव नहिं पावौं सारा, तब लों यही मनोरथ म्हारा |14| जय जय नमिनाथं हो शिवसाथं, औ अनाथ के नाथ सदम | ता तें शिर नायौ, भगति बढ़ायो, चीह्न चिह्न शत पत्र पदम |15| ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | दोहाः- श्री नमिनाथ तने जुगल, चरन जजें जो जीव | सो सुर नर सुख भोगकर, होवें शिवतिय पीव || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  11. प्रानत स्वर्ग विहाय लियो जिन, जन्म सु राजगृहीमहँ आई | श्री सुहमित्त पिता जिनके, गुनवान महापदमा जसु माई || बीस धनू तनु श्याम छवी, कछु अंक हरी वर वंश बताई | सो मुनिसुव्रतनाथ प्रभू कहँ थापतु हौं इत प्रीत लगाई || ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | गीतिकाः- उज्ज्वल सुजल जिमि जस तिहांरो, कनक झारीमें भरौं | जरमरन जामन हरन कारन, धार तुम पदतर करौं || शिवनाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनिगुन माल हैं | तसु चरन आनन्दभरन तारन, तरन, विरद विशाल हैं || ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| भवतापघायक शान्तिदायक, मलय हरि घसि ढिग धरौं | गुनगाय शीस नमाय पूजत, विघनताप सबैं हरौं || शिवनाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनिगन माल हैं | तसु चरन आनन्दभरन तारन तरन, विरद विशाल हैं || ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| तंदुल अखण्डित दमक शशिसम, गमक जुत थारी भरौं | पद अखयदायक मुकति नायक, जानि पद पूजा करौं ||शिव0 ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| बेला चमेली रायबेली, केतकी करना सरौं | जगजीत मनमथहरन लखि प्रभु, तुम निकट ढेरी करौं ||शिव0 ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| पकवान विविध मनोज्ञ पावन, सरस मृदुगुन विस्तरौं | सो लेय तुम पदतर धरत ही छुधा डाइन को हरौं ||शिव0 ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| दीपक अमोलिक रतन मणिमय, तथा पावन घृत भरौं | सो तिमिर मोहविनाश आतम भास कारण ज्वै धरौं ||शिव0 ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| करपूर चन्दन चूर भूर, सुगन्ध पावक में धरौं | तसु जरत जरत समस्त पातक, सार निज सुख को भरौं ||शिव0 ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| श्रीफल अनार सु आम आदिक पक्वफल अति विस्तरौं | सो मोक्ष फल के हेत लेकर, तुम चरण आगे धरौं ||शिव0 ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जलगंध आदि मिलाय आठों दरब अरघ सजौं वरौं | पूजौं चरन रज भगतिजुत, जातें जगत सागर तरौं || शिवसाथ करत सनाथ सुव्रतनाथ, मुनिगुन माल हैं | तसु चरन आनन्दभरन तारन तरन, विरद विशाल हैं || ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली तिथि दोयज सावन श्याम भयो, गरभागम मंगल मोद थयो | हरिवृन्द सची पितु मातु जजें, हम पूजत ज्यौं अघ ओघ भजें || ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णा द्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमुनि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| बैसाख बदी दशमी वरनी, जनमे तिहिं द्योस त्रिलोकधनी | सुरमन्दिर ध्याय पुरन्दर ने, मुनिसुव्रतनाथ हमैं सरनै || ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा दशम्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीमुनि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |2| तप दुद्धर श्रीधर ने गहियो, वैशाख बदी दशमी कहियो | निरुपाधि समाधि सुध्यावत हैं, हम पूजत भक्ति बढ़ावत हैं || ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णा दशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीमुनि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |3| वर केवलज्ञान उद्योत किया, नवमी वैसाख वदी सुखिया | धनि मोहनिशाभनि मोखमगा, हम पूजि चहैं भवसिन्धु थगा || ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णानवम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीमुनि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |4| वदि बारसि फागुन मोच्छ गये, तिहुं लोक शिरोमणी सिद्ध भये | सु अनन्त गुनाकर विघ्न हरी, हम पूजत हैं मनमोद भरी || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा द्वादश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमुनि0अर्घ्यं नि0स्वाहा |5| जयमाला दोहाः- मुनिगण नायक मुक्तिपति, सूक्त व्रताकर युक्त | भुक्ति मुक्ति दातार लखि, वन्दौं तन-मन युक्त |1| जय केवल भान अमान धरं, मुनि स्वच्छ सरोज विकास करं | भव संकट भंजन लायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |2| घनघात वनं दवदीप्त भनं, भविबोध त्रषातुर मेघघनं | नित मंगलवृन्द वधायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं | गरभादिक मंगलसार धरे, जगजीवन के दुखदंद हरे | सब तत्व प्रकाशन नायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |4| शिवमारग मण्डन तत्व कह्यो, गुनसार जगत्रय शर्म लह्यो | रुज रागरू दोष मिटायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |5| समवस्रत में सुरनार सही, गुनगावत नावत भाल मही | अरु नाचत भक्ति बढ़ायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |6| पग नूपुर की धुनि होत भनं, झननं झननं झननं झननं | सुरलेत अनेक रमायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |7| घननं घननं घन घंट बजें, तननं तननं तनतान सजें | दृमदृम मिरदंग बजायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |8| छिन में लघु औ छिन थूल बनें, जुत हावविभाव विलासपने | मुखतें पुनि यों गुनगायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |9| धृगतां धृगतां पग पावत हैं, सननं सननं सु नचावत हैं | अति आनन्द को पुनि पायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |10| अपने भव को फल लेत सही, शुभ भावनि तें सब पाप दही | तित तैं सुख को सब पायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |11| इन आदि समाज अनेक तहां, कहि कौन सके जु विभेद यहाँ | धनि श्री जिनचन्द सुधायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |12| पुनि देश विहार कियो जिन ने, वृष अमृतवृष्टि कियो तुमने | हमको तुमरी शरनायक है, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |13| हम पै करुनाकरि देव अबै, शिवराज समाज सु देहु सबै | जिमि होहुं सुखाश्रम नायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |14| भवि वृन्दतनी विनती जु यही, मुझ देहु अभयपद राज सही | हम आनि गही शरनायक हैं, मुनिसुव्रत सुव्रत दायक हैं |15| घत्ताः- जय गुनगनधारी, शिवहितकारी, शुद्धबुद्ध चिद्रुप पती | परमानंददायक, दास सहायक, मुनिसुव्रत जयवंत जती |16| ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | दोहाः- श्रीमुनिसुव्रत के चरन, जो पूजें अभिनन्द | सो सुरनर सुख भोगि के, पावें सहजानन्द || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  12. अपराजित तें आय नाथ मिथलापुर जाये | कुंभराय के नन्द, प्रभावति मात बताये || कनक वरन तन तुंग, धनुष पच्चीस विराजे | सो प्रभु तिष्ठहु आय निकट मम ज्यों भ्रम भाजे || ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | सुर-सरिता-जल उज्ज्वल ले कर, मनिभृंगार भराई | जनम जरामृतु नाशन कारन, जजहूं चरन जिनराई || राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा | यातें शरन गही जगपतिजी, वेगि हरो भवपीरा || ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| बावनचंदन कदली नंदन, कुंकुमसंग घिसायो | लेकर पूजौं चरनकमल प्रभु, भवआताप नसायो || राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा | यातें शरन गही जगपतिजी, वेगि हरो भवपीरा || ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| तंदुल शशिसम उज्ज्वल लीने, दीने पुंज सुहाई | नाचत गावत भगति करत ही, तुरित अखैपद पाई ||राग0 ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| पारिजात मंदार सुमन, संतान जनित महकाई | मार सुभट मद भंजनकारन, जजहुं तुम्हें शिरनाई ||राग0 ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| फेनी गोझा मोदन मोदक, आदिक सद्य उपाई | सो लै छुधा निवारन कारन जजहुं चरन लवलाई ||राग0 ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| तिमिरमोह उरमंदिर मेरे, छाय रह्यो दुखदाई | तासु नाश कारन को दीपक, अद्भुत जोति जगाई ||राग0 ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अगर तगर कृष्णागर चंदन चूरि सुगंध बनाई | अष्टकरम जारन को तुम ढिग, खेवत हौं जिनराई ||राग0 ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला केला लाई | मोक्ष महाफल दाय जानिके, पूजैं मन हरखाई ||राग0 ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल फल अरघ मिलाय गाय गुन, पूजौं भगति बढ़ाई | शिवपदराज हेत हे श्रीधर, शरन गहो मैं आई || राग-दोष-मद-मोह हरन को, तुम ही हो वरवीरा | यातें शरन गही जगपतिजी, वेगि हरो भवपीरा || ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली चैत की शुद्ध एकैं भली राजई, गर्भकल्यान कल्यान को छाजई | कुंभराजा प्रभावति माता तने, देवदेवी जजे शीश नाये घने || ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लाप्रतिपदायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीमल्लि0अर्घ्यं नि0 |1| मार्गशीर्षे सुदी ग्यारसी राजई, जन्मकल्यान को द्यौस सो छाजई | इन्द्र नागेंद्र पूजें गिरिंद जिन्हें, मैं जजौं ध्याय के शीश नावौं तिन्हें || ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष-शुक्लैकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीमल्लि0अर्घ्यं नि0 |2| मार्गशीर्षे सुदीग्यारसीके दिना, राजको त्याग दीच्छा धरी है जिना | दान गोछीरको नन्दसेने दयो, मैं जजौं जासु के पंच अचरज भयो || ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष-शुक्लैकादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीमल्लि0अर्घ्यं नि0 |3| पौष की श्याम दूजी हने घातिया, केवलज्ञानसाम्राज्यलक्ष्मी लिया | धर्मचक्री भये सेव शक्री करें, मैं जजौं चर्न ज्यों कर्म वक्री टरें || ॐ ह्रीं पौषकृष्णाद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीमल्लि0अर्घ्यं नि0 |4| फाल्गुनी सेत पांचैं अघाती हते, सिद्ध आलै बसै जाय सम्मेदतें | इन्द्रनागेंन्द्र कीन्ही क्रिया आयके, मैं जजौं शिव मही ध्यायके गायके || ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लापंचम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीमल्लि0अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला तुअ नमित सुरेशा, नर नागेशा, रजत नगेशा भगति भरा | भवभयहरनेशा, सुखभरनेशा, जै जै जै शिव-रमनिवरा |1| जय शुद्ध चिदातम देव एव, निरदोष सुगुन यह सहज टेव | जय भ्रमतम भंजन मारतंड, भवि भवदधि तारन को तरंड |2| जय गरभ जनम मंडित जिनेश, जय छायक समकित बुद्धभेस | चौथे किय सातों प्रकृतिछीन, चौ अनंतानु मिथ्यात तीन |3| सातंय किय तीनों आयु नास, फिर नवें अंश नवमें विलास | तिन माहिं प्रकृति छत्तीस चूर, या भाँति कियो तुम ज्ञानपूर |4| पहिले महं सोलह कहँ प्रजाल, निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचाल | हनि थानगृद्धि को सकल कुब्ब, नर तिर्यग्गति गत्यानुपुब्ब |5| इक बे ते चौ इन्द्रीय जात, थावर आतप उद्योत घात | सूच्छम साधारन एक चूर, पुनि दुतिय अंश वसु कर्यो दूर |6| चौ प्रत्याप्रत्याख्यान चार, तीजे सु नपुंसक वेद टार | चौथे तियवेद विनाशकीन, पांचें हास्यादिक छहों छीन |7| नर वेद छठें छय नियत धीर, सातयें संज्ज्वलन क्रोध चीर | आठवें संज्ज्वलन मान भान, नवमें माया संज्ज्वलन हान |8| इमि घात नवें दशमें पधार, संज्ज्वलन लोभ तित हू विदार | पुनि द्वादशके द्वय अंश माहिं, सोलह चकचूर कियो जिनाहिं |9| निद्रा प्रचला इक भाग माहिं, दुति अंश चतुर्दश नाश जाहिं | ज्ञानावरनी पन दरश चार, अरि अंतराय पांचो प्रहार |10| इमि छय त्रेशठ केवल उपाय, धरमोपदेश दीन्हों जिनाय | नव केवललब्धि विराजमान, जय तेरमगुन तिथि गुनअमान |11| गत चौदहमें द्वै भाग तत्र, क्षय कीन बहत्तर तेरहत्र | वेदनी असाता को विनाश, औदारि विक्रियाहार नाश |12| तैजस्य कारमानों मिलाय, तन पंच पंच बंधन विलाय | संघात पंच घाते महंत, त्रय अंगोपांग सहित भनंत |13| संठान संहनन छह छहेव, रसवरन पंच वसु फरस भेव | जुग गंध देवगति सहित पुव्व, पुनि अगुरुलघु उस्वास दुव्व |14| परउपघातक सुविहाय नाम, जुत असुभगमन प्रत्येक खाम | अपरज थिर अथिर अशुभ सुभेव, दुरभाग सुसुर दुस्सुर अभेव |15| अन आदर और अजस्य कित्त, निरमान नीचे गोतौ विचित्त | ये प्रथम बहत्तर दिय खपाय, तब दूजे में तेरह नशाय |16| पहले सातावेदनी जाय, नर आयु मनुषगति को नशाय | मानुष गत्यानु सु पूरवीय, पंचेंद्रिय जात प्रकृति विधिय |17| त्रसवादर पर्जापति सुभाग, आदरजुत उत्तम गोत पाग | जसकीरती तीरथप्रकृति जुक्त, ए तेरह छयकरि भये मुक्त |18| जय गुनअनंत अविकार धार, वरनत गनधर नहिं लहत पार | ताकों मैं वंदौं बार बार, मेरी आपत उद्धार धार |19| सम्मेदशैल सुरपति नमंत, तब मुकतथान अनुपम लसंत | वृन्दावन वंदत प्रीति-लाय, मम उर में तिष्ठहु हे जिनाय |20| जय जय जिनस्वामी, त्रिभुवननामी, मल्लि विमल कल्यानकरा | भवदंदविदारन आनंद कारन, भविकुमोद निशिईश वरा |21| ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | जजें हैं जो प्रानी दरब अरु भावादि विधि सों, करैं नाना भाँति भगति थुति औ नौति सुधि सों | लहै शक्री चक्री सकल सुख सौभाग्य तिनको, तथा मोक्ष जावे जजत जन जो मल्लिजिन को || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  13. तप तुरंग असवार धार, तारन विवेक कर | ध्यान शुकल असिधार शुद्ध सुविचार सुबखतर || भावन सेना, धर्म दशों सेनापति थापे | रतन तीन धरि सकति, मंत्रि अनुभो निरमापे || सत्तातल सोहं सुभटि धुनि, त्याग केतु शत अग्र धरि | इहविध समाज सज राज को, अर जिन जीते कर्म अरि || ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | कनमनिमय झारी, दृग सुखकारी, सुर सरितारी नीर भरी | मुनिमन सम उज्ज्वल, जनम जरादल, सो ले पदतल धार करी || प्रभु दीन दयालं, अरिकुल कालं, विरद विशालं सुकुमालं | हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन मालं, वरभालं || ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| भवताप नशावन, विरद सुपावन, सुनि मन भावन, मोद भयो | तातैं घसि बावन, चंदनपावन, तुमहिं चढ़ावन, उमगि अयो ||प्रभु0 ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| तंदुल अनियारे, श्वेत सँवारे, शशिदुति टारे, थार भरे | पद अखय सुदाता, जगविख्याता, लखि भवत्राता पुंजधरे ||प्रभु0 ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| सुरतरु के शोभित, सुरन मनोभित, सुमन अछोभित ले आयो | मनमथ के छेदन, आप अवेदन, लखि निरवेदन गुन गायो ||प्रभु0 ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| नेवज सज भक्षक प्रासुक अक्षक, पक्षक रक्षक स्वक्ष धरी | तुम करम निकक्षक, भस्म कलक्षक, दक्षक पक्षक रक्ष करी || प्रभु दीन दयालं, अरिकुल कालं, विरद विशालं सुकुमालं | हरि मम जंजालं, हे जगपालं, अरगुन मालं, वरभालं || ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| तुम भ्रमतम भंजन मुनिमन कंजन, रंजन गंजन मोह निशा रवि केवलस्वामी दीप जगामी, तुम ढिग आमी पुण्य दृशा ||प्रभु0 ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| दशधूप सुरंगी गंध अभंगी वह्वि वरंगी माहिं हवें | वसुकर्म जरावें धूम उड़ावें, ताँडव भावें नृत्य पवें ||प्रभु0 ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| रितुफल अतिपावन, नयन सुहावन, रसना भावन, कर लीने | तुम विघन विदारक, शिवफलकारक, भवदधि तारक चरचीने ||प्रभु0 ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| सुचि स्वच्छ पटीरं, गंधगहीरं, तंदुलशीरं, पुष्प-चरुं | वर दीपं धूपं, आनंदरुपं, ले फल भूपं, अर्घ करुं ||प्रभु0 ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली फागुन सुदी तीज सुखदाई, गरभ सुमंगल ता दिन पाई | मित्रादेवी उदर सु आये, जजे इन्द्र हम पूजन आये || ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला तृतीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |1| मँगसिर शुक्ल चतुर्दशि सोहे, गजपुर जनम भयो जग मोहे | सुर गुरु जजे मेरु पर जाई, हम इत पूजें मनवचकाई || ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला चतुर्दश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |2| मंगसिर सित दसमी दिन राजे, ता दिन संजम धरे विराजै | अपराजित घर भोजन पाई, हम पूजें इत चित हरषाई || ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला दशम्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |3| कार्तिक सित द्वादशि अरि चूरे, केवलज्ञान भयो गुन पूरे | समवसरन तिथि धरम बखाने, जजत चरन हम पातक भाने || ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वादश्यां ज्ञानमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |4| चैत कृष्ण अमावसी सब कर्म, नाशि वास किय शिव-थल पर्म | निहचल गुन अनंत भंडारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअर0अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहा :-बाहर भीतर के जिते, जाहर अर दुखदाय | ता हर कर अर जिन भये, साहर शिवपुर राय |1| राय सुदरशन जासु पितु, मित्रादेवी माय | हेमवरन तन वरष वर, नव्वै सहस सुआय |2| जय श्रीधर श्रीकर श्रीपति जी, जय श्रीवर श्रीभर श्रीमति जी | भवभीम भवोदधि तारन हैं, अरनाथ नमों सुखकारन हैं |3| गरभादिक मंगल सार धरे, जग जीवनि के दुखदंद हरे | कुरुवंश शिखामनि तारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |4| करि राज छखंड विभूति मई, तप धारत केवलबोध ठई | गण तीस जहाँ भ्रमवारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |5| भविजीवन को उपदेश दियो, शिवहेत सबै जन धारि लियो | जग के सब संकट टारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |6| कहि बीस प्ररुपन सार तहाँ, निजशर्म सुधारस धार जहाँ | गति चार ह्रषीपन धारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |7| षट काय तिजोग तिवेद मथा, पनवीस कषा वसु ज्ञान तथा | सुर संजम भेद पसारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |8| रस दर्शन लेश्या भव्य जुगं, षट सम्यक् सैनिय भेद युगं | जुग हारा तथा सु अहारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |9| गुनथान चतुर्दस मारगना, उपयोग दुवादश भेद भना | इमि बीस विभेद उचारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |10| इन आदि समस्त बखान कियो, भवि जीवनि ने उर धार लियो | कितने शिववादिन धारन हैं, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |11| फिर आप अघाति विनाश सबै, शिवधाम विषैं थित कीन तबै | कृतकृत्य प्रभू जगतारन हैं अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |12| अब दीनदयाल दया धरिये, मम कर्म कलंक सबै हरिये | तुमरे गुन को कछु पार न है, अरनाथ नमौं सुखकारन हैं |13| जय श्रीअरदेवं, सुरकृतसेवं समताभेवं, दातारं | अरिकर्म विदारन, शिवसुखकारन, जयजिनवर जग त्रातारं || ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | अर जिन के पदसारं, जो पूजै द्रव्य भाव सों प्राणी | सो पावै भवपारं, अजरामर मोक्षथान सुखखानी || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  14. अज अंक अजै पद राजै निशंक, हरे भवशंक निशंकित दाता | मदमत्त मतंग के माथे गँथे, मतवाले तिन्हें हने ज्यों अरिहाता || गजनागपुरै लियो जन्म जिन्हौं, रवि के प्रभु नंदन श्रीमति-माता | सो कुंथु सुकंथुनि के प्रतिपालक, थापौं तिन्हें जुतभक्ति विख्याता | ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | कुंथु सुन अरज दास केरी, नाथ सुन अरज दासकेरी | भवसिन्धु पर्यो हौं नाथ, निकारो बांह पकर मेरी || प्रभु सुन अरज दासकेरी, नाथ सुन अरज दासकेरी | जगजाल पर्यो हौं वेगि निकारो बांह पकर मेरी |टेक| सुरसरिता को उज्ज्वल जल भरि, कनकभृंग भेरी | मिथ्यातृषा निवारन कारन, धरौं धार नेरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| बावन चंदन कदलीनंदन, घसिकर गुन टेरी | तपत मोह नाशन के कारन, धरौं चरन नेरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| मुक्ताफलसम उज्ज्वल अक्षत, सहित मलय लेरी | पुंज धरौं तुम चरनन आगे अखय सुपद देरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| कमल केतकी बेला दौना, सुमन सुमनसेरी | समरशूल निरमूल हेत प्रभु, भेंट करौं तेरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| घेवर बावर मोदन मोदक, मृदु उत्तम पेरी | ता सों चरन जजौं करुनानिधि, हरो छुधा मेरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| कंचन दीपमई वर दीपक, ललित जोति घेरी | सो ले चरन जजौं भ्रम तम रवि, निज सुबोध देरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| देवदारु हरि अगर तगर करि चूर अगनि खेरी | अष्ट करम ततकाल जरे ज्यों, धूम धनंजेरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| लोंग लायची पिस्ता केला, कमरख शुचि लेरी | मोक्ष महाफल चाखन कारन, जजौं सुकरि ढेरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी | फलजुत जनन करौं मन सुख धरि, हरो जगत फेरी ||कुंथु0 ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली सुसावन की दशमी कलि जान, तज्यो सरवारथसिद्ध विमान | भयो गरभागम मंगल सार, जजें हम श्री पद अष्ट प्रकार || ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |1| महा बैशाख सु एकम शुद्ध, भयो तब जनम तिज्ञान समृद्ध | कियो हरि मंगल मंदिर शीस, जजें हम अत्र तुम्हें नुतशीश || ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |2| तज्यो षटखंड विभौ जिनचंद, विमोहित चित्त चितार सुछद | धरे तप एकम शुद्ध विशाख, सुमग्न भये निज आनंद चाख || ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |3| सुदी तिय चैत सु चेतन शक्त, चहूं अरि छयकरि तादिन व्यक्त | भई समवसृत भाखि सुधर्म, जजौं पद ज्यों पद पाइय पर्म || ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |4| सुदी वैशाख सु एकम नाम, लियो तिहि द्यौस अभय शिवधाम | जजे हरि हर्षित मंगल गाय, समर्चतु हौं तुहि मन-वच-काय || ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला षट खंडन के शत्रु राजपद में हने | धरि दीक्षा षटखंडन पाप तिन्हें दने || त्यागि सुदरशन चक्र धरम चक्री भये | करमचक्र चकचूर सिद्ध दिढ़ गढ़ लये |1| ऐसे कुंथु जिनेश तने पद पद्म को | गुन अनंत भंडार महा सुख सद्म को || पूजौं अरघ चढ़ाय पुरणानंद हो | चिदानंद अभिनंद इन्द्र-गन-वंद हो |2| जय जय जय जय श्रीकुंथुदेव, तुम ही ब्रह्मा हरि त्रिंबुकेव | जय बुद्धि विदाँवर विष्णु ईश, जय रमाकांत शिवलोक शीश |3| जय दया धुरंधर सृष्टिपाल, जय जय जगबंधु सुगनमाल | सरवारथसिद्धि विमान छार, उपजे गजपुर में गुन अपार |4| सुरराज कियो गिर न्हौन जाय, आंनद-सहित जुत-भगति भाय | पुनि पिता सौंपि करमुदितअंग, हरितांडव-निरत कियो अभंग |5| पुनि स्वर्ग गयो तुम इत दयाल, वय पाय मनोहर प्रजापाल | षटखंड विभौ भोग्यो समस्त, फिर त्याग जोग धार्यो निरस्त |6| तब घाति केवल उपाय, उपदेश दियो सब हित जिनाय | जा के जानत भ्रम-तम विलाय, सम्यक् दर्शन निर्मल लहाय |7| तुम धन्य देव किरपा-निधान, अज्ञान-क्षमा-तमहरन भान | जय स्वच्छ गुनाकर शुक्त सुक्त, जयस्वच्छ सुखामृत भुक्तिमुक्त |8| जय भौभयभंजन कृत्यकृत्य, मैं तुमरो हौं निज भृत्य भृत्य | प्रभु असरन शरन अधार धार, मम विघ्न-तूलगिरि जारजार |9| जय कुनय यामिनी सूर सूर, जय मन वाँछित सुख पूर पूर | मम करमबंध दिढ़ चूर चूर, निजसम आनंद दे भूर भूर |10| अथवा जब लों शिव लहौं नाहिं, तब लों ये तो नित ही लहाहिं | भव भव श्रावक-कुल जनमसार, भवभव सतमति सतसंग धार |11| भव भव निजआम-तत्व ज्ञान, भव-भव तपसंयमशील दान | भव-भव अनुभव नित चिदानंद, भव-भव तुमआगम हे जिनंद |12| भव-भव समाधिजुत मरन सार, भव-भव व्रत चाहौं अनागार | यह मो कों हे करुणा निधान, सब जोग मिले आगम प्रमान |13| जब लों शिव सम्पति लहौं नाहिं, तबलों मैं इनको लहाँहि | यह अरज हिये अवधारि नाथ, भवसंकट हरि कीजे सनाथ |14| जय दीनदयाला, वरगुनमाला, विरदविशाला सुख आला | मैं पूजौं ध्यावौं शीश नमावौं, देहु अचल पद की चाला |15| ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | कुंथु जिनेसुर पाद पदम जो प्रानी ध्यावें | अलिसम कर अनुराग, सहज सो निज निधि पावें || जो बांचे सरधहें, करें अनुमोदन पूजा | वृन्दावन तिंह पुरुष सदृश, सुखिया नहिं दूजा || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  15. या भव कानन में चतुरानन, पाप पनानन घेरी हमेरी | आतम जानन मानन ठानन, बान न होन दई सठ मेरी || तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आनन टेरी | आन गही शरनागत को, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी || ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | हिमगिरि गतगंगा, धार अभंगा, प्रासुक संगा, भरि भृंगा | जर-जनम-मृतंगा, नाशि अघंगा, पूजि पदंगा मृदु हिंगा || श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं | हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं || ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| वर बावन चन्दन, कदली नन्दन, घन आनन्दन सहित घसौं | भवताप निकन्दन, ऐरानन्दन, वंदि अमंदन, चरन बसौं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत अच्छत जज्जत, भरि थारी | दुखदारिद गज्जत, सदपद सज्जत, भवभय भज्जत, अतिभारी ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| मंदार, सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं | भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| पकवान नवीने, पावन कीने षटरस भीने, सुखदाई | मनमोदन हारे, छुधा विदारे, आगे धारे गुनगाई ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रमतम नाशे, ज्ञेय विकासे सुखरासे | दीपक उजियारा, यातें धारा, मोह निवारा, निज भासे ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| चन्दन करपूरं करि वर चूरं, पावक भूरं माहि जुरं | तसु धूम उड़ावे, नाचत जावे, अलि गुंजावे मधुर सुरं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| बादाम खजूरं, दाड़िम पूरं, निंबुक भूरं ले आयो | ता सों पद जज्जौं,शिवफल सज्जौं, निजरस रज्जौं उमगायो || श्री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं | हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं || ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| वसु द्रव्य सँवारी, तुम ढिग धारी, आनन्दकारी, दृग-प्यारी | तुम हो भव तारी, करुनाधारी, या तें थारी शरनारी ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली छन्दः- असित सातँय भादव जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये | सचि कियो जननी पद चर्चनं, हम करें इत ये पद अर्चनं || ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्णा सप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है, सकल इन्द्र सु आगत धाम है | गजपुरै गज-साजि सबै तबै, गिरि जजे इत मैं जजिहों अबै || ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |2| भव शरीर सुभोग असार हैं, इमि विचार तबै तप धार हैं | भ्रमर चौदशि जेठ सुहावनी, धरम हेत जजौं गुन पावनी || ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |3| शुकलपौष दशैं सुखरास है, परम-केवल-ज्ञान प्रकाश है | भवसमुद्र उधारन देव की, हम करें नित मंगल सेवकी || ॐ ह्रीं पौषशुक्लादशम्यां केवलज्ञानमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |4| असित चौदशि जेठ हने अरी, गिरि समेदथकी शिव-तिय वरी | सकल इन्द्र जजैं तित आय के, हम जजैं इत मस्तक नाय के || ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशान्ति0अर्घ्यं नि0स्वाहा |5| जयमाला शान्ति शान्तिगुन मंडिते सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा | मैं तिन्हें भगत मंडिते सदा, पूजिहौं कलषु हंडिते सदा || मोच्छ हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन रत्न माल हो | मैं अबै सुगुन-दाम ही धरौं, ध्यावते तुरत मुक्ति-तिय वरौं || जय शान्तिनाथ चिद्रुपराज, भवसागर में अद्भुत जहाज | तुम तजि सरवारथसिद्धि थान, सरवारथजुत गजपुर महान |1| तित जनम लियो आनन्द धार, हरि ततछिन आयो राजद्वार | इन्द्रानी जाय प्रसूति थान, तुम को कर में ले हरष मान |2| हरि गोद देय सो मोदधार, सिर चमर अमर ढारत अपार | गिरिराज जाय तित शिला पांडु, ता पे थाप्यो अभिषेक माँड |3| तेत पंचम उदधि तनों सु वारि, सुर कर कर करि ल्याये उदार | तब इन्द्र सहसकर करि अनन्द, तुम सिर धारा ढारयो समुन्द |4| अघ घघ धुनि होत घोर, भभभभ भभ धध धध कलश शोर | दृमदृम दृमदृम बाजत मृदंग, झन नन नन नन नन नूपुरंग |5| तन नन नन नन नन तनन तान, घन नन नन घंटा करत ध्वान | ताथेई थेई थेई थेई सुचाल, जुत नाचत नावत तुमहिं भाल |6| चट चट चट अटपट नटत नाट, झट झट झट हट नट थट विराट | इमि नाचत राचत भगति रंग, सुर लेत जहाँ आनन्द संग |7| इत्यादि अतुल मंगल सु ठाठ, तित बन्यो जहाँ सुर गिरि विराट | पुनि करि नियोग पितुसदन आय, हरि सौप्यो तुम तित वृद्ध थाय |8| पुनि राजमाहिं लहि चक्ररत्न, भोग्यो छहखण्ड करि धरम जत्न | पुनि तप धरि केवल रिद्धि पाय, भवि जीवनि को शिवमग बताय |9| शिवपुर पहुंचे तुम हे जिनेश, गुण-मंडित अतुल अनन्त भेष | मैं ध्यावतु हौं नित शीश नाय, हमरी भवबाधा हर जिनाय |10| सेवक अपनो निज जान जान, करुणा करि भौभय भान भान | यह विघन मूल तरु खंड खंड, चितचिन्तित आनन्द मंड मंड |11| छन्दः- श्रीशान्ति महंता, शिवतियकंता, सुगुन अनंता, भगवंता | भव भ्रमन हनन्ता, सौख्य अनन्ता, दातारं, तारनवन्ता || ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | शान्तिनाथ जिन के पदपंकज, जो भवि पूजें मन वच काय | जनम जनम के पातक ता के, ततछिन तजि के जायं पलाय || मनवांछित सुख पावे सो नर, बांचे भगतिभाव अति लाय | ता तें वृन्दावन नित वंदे, जा तें शिवपुरराज कराय || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  16. तजि के सरवारथसिद्धि विमान, सुभान के आनि आनन्द बढ़ाये | जगमात सुव्रति के नन्दन होय, भवोदधि डूबत जंतु कढ़ाये || जिनके गुन नामहिं प्रकाश है, दासनि को शिवस्वर्ग मँढ़ाये | तिनके पद पूजन हेत त्रिबार, सुथापतु हौं इहं फूल चढ़ाये || ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | मुनि मन सम शुचि शीर नीर अति, मलय मेलि भरि झारी | जनमजरामृत ताप हरन को, चरचौं चरन तुम्हारी || परमधरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी | पूजौं पाय गाय गुन सुन्दर नाचौं दे दे तारी || ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| केशर चन्दन कसली नन्दन, दाहनिकन्दन लीनि | जलसंग घस लसि शसिसम शमकर, भव आताप हरीनो |परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| जलज जीर सुखदास हीर हिम, नीर किरनसम लायो | पुंज धरत आनन्द भरत भव, दंद हरत हरषायो ||परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| सुमन सुमन सम सुमणि थाल भर, सुमनवृन्द विहंसाई | सुमन्मथ-मद-मंथन के कारन, अरचौं चरन चढ़ाई ||परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| घेवर बावर अर्द्ध चन्द्र सम, छिद्र सहज विराजे | सुरस मधुर ता सों पद पूजत, रोग असाता भाजै ||परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| सुन्दर नेह सहित वर दीपक, तिमिर हरन धरि आगे | नेह सहित गाऊँ गुन श्रीधर, ज्यों सुबोध उर जागे ||परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अगर तगर कृष्णागर तव दिव हरिचन्दन करपूरं | चूर खेय ज्वलन मांहि जिमि, करम जरें वसु कूरं ||परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| आम्र काम्रक अनार सारफल, भार मिष्ट सुखदाई | सो ले तुम ढिग धरहुँ कृपानिधि, देहु मोच्छ ठकुराई ||परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगाई | बाजत दृमदृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई ||परम0 ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली पूजौं हो अबार, धरम जिनेसुर पूजौं ||टेक आठैं सित बैशाख की हो, गरभ दिवस अधिकार | जगजन वांछित पूर को, पूजौं हो अबार ||धरम0 ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला अष्टम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |1| शुकल माघ तेरसि लयो हो, धरम धरम अवतार | सुरपति सुरगिर पूजियो, पूजौं हो अबार ||धरम0 ॐ ह्रीं माघशुक्ला त्रयोदश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |2| माघशुक्ल तेरस लयो हो, दुर्द्धर तप अविष्कार | सुरऋषि सुमनन तें पूजें, पूजौं हो अबार ||धरम0 ॐ ह्रीं माघशुक्ला त्रयोदश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |3| पौषशुक्ल पूनम हने अरि, केवल लहि भवितार | गण-सुर-नरपति पूजिया, पूजौं हो अबार ||धरम0 ॐ ह्रीं पौषशुक्ला पूर्णिमायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |4| जेठशुकल तिथि चौथ की हो, शिव समेद तें पाय | जगतपूज्यपद पूजहूँ, पूजौं हो अबार ||धरम0 ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्ला चतुर्थ्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |5| जयमाला दोहाः- घनाकार करि लोक पट, सकल उदधि मसि तंत | लिखै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन अंत |1| जय धरमनाथ जिन गुनमहान, तुम पद को मैं नित धरौं ध्यान | जय गरभ जनम तप ज्ञानयुक्त, वर मोच्छ सुमंगल शर्म-भुक्त |2| जय चिदानन्द आनन्दकंद, गुनवृन्द सु ध्यावत मुनि अमन्द | तुम जीवनि के बिनु हेतु मित्त, तुम ही हो जग में जिन पवित्त |3| तुम समवसरण में तत्वसार, उपदेश दियो है अति उदार | ता को जे भवि निजहेत चित्त, धारें ते पावें मोच्छवित्त |4| मैं तुम मुख देखत आज पर्म, पायो निज आतमरुप धर्म | मो कों अब भवदधि तें निकार, निरभयपद दीजे परमसार |5| तुम सम मेरो जग में न कोय, तुमही ते सब विधि काज होय | तुम दया धुरन्धर धीर वीर, मेटो जगजन की सकल पीर |6| तुम नीतिनिपुन विन रागरोष, शिवमग दरसावतु हो अदोष | तुम्हरे ही नामतने प्रभाव, जगजीव लहें शिव-दिव-सुराव |7| ता तें मैं तुमरी शरण आय, यह अरज करतु हौं शीश नाय | भवबाधा मेरी मेट मेट, शिवराधा सों करौं भेंट भेंट |8| जंजाल जगत को चूर चूर, आनन्द अनूपम पूर पूर | मति देर करो सुनि अरज एव, हे दीनदयाल जिनेश देव |9| मो कों शरना नहिं और ठौर, यह निहचै जानो सुगुन मौर | वृन्दावन वंदत प्रीति लाय, सब विघन मेट हे धरम-राय |10| जय श्रीजिनधर्मं, शिवहितपर्मं, श्रीजिनधर्मं उपदेशा | तुम दयाधुरंधर विनतपुरन्दर, कर उरमन्दर परवेशा |11| ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | जो श्रीपतिपद जुगल, उगल मिथ्यात जजे भव | ता के दुख सब मिटहिं, लहे आनन्द समाज सब || सुर-नर-पति-पद भोग, अनुक्रम तें शिव जावे | ता तें वृन्दावन यह जानि, धरम-जिन के गुन ध्यावे || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  17. पुष्पोत्तर तजि नगर अजुध्या जनम लियो सूर्या उर आय, सिंघसेन नृप के नन्दन, आनन्द अशेष भरे जगराय | गुन अंनत भगवंत धरे, भवदंद हरे तुम हे जिनराय, थापतु हौं त्रय बार उचरि के, कृपासिन्धु तिष्ठहु इत आय || ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | शुचि नीर निरमल गंग को ले, कनक भृंग भराइया | मल करम धोवन हेत, मन वच काय धार ढराइया || जगपूज परम पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनो | शिव कंत वंत मंहत ध्यावौं, भ्रंत वन्त नशावनो || ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| हरिचन्द कदलीनंद कंकुम, दंद ताप निकंद है | सब पापरुजसंताप भंजन, आपको लखि चंद है ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| कनशाल दुति उजियाल हीर, हिमाल गुलकनि तें घनी | तसु पुंज तुम पदतर धरत, पद लहत स्वछ सुहावनी ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| पुष्कर अमरत जनित वर, अथवा अवर कर लाइया | तुम चरन-पुष्करतर धरत, सरशूर सकल नशाइया ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| पकवान नैना घ्रान रसना, को प्रमोद सुदाय हैं | सो ल्यान चरन चढ़ाय रोग, छुधाय नाश कराय हैं ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| तममोह भानन जानि आनन्द, आनि सरन गही अबै | वर दीप धारौं वारि तुम ढिग, स्व-पर-ज्ञान जु द्यो सबै ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| यह गंध चूरि दशांग सुन्दर, धूम्रध्वज में खेय हौं | वसुकर्म भर्म जराय तुम ढिग, निज सुधातम वेय हौं ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| रसथक्व पक्व सुभक्व चक्व, सुहावने मृदु पावने | फलासार वृन्द अमंद ऐसो, ल्याय पूज रचावने ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरौं | अरु धूप फल जुत अरघ करि, करजोरजुग विनति करौं ||ज0 ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली असित कार्तिक एकम भावनो, गरभ को दिन सो गिन पावनो | किय सची तित चर्चन चाव सों , हम जजें इत आनंद भाव सों || ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाप्रतिपदायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |1| जनम जेठवदी तिथि द्वादशी, सकल मंगल लोकविषै लशी | हरि जजे गिरिराज समाज तें, हम जजैं इत आतम काज तें || ॐ ह्रीं जेष्ठकृष्णाद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीअनंत0 अर्घ्यं नि0 |2| भव शरीर विनस्वर भाइयो, असित जेठ दुवादशि गाइयो | सकल इंद्र जजें तित आइके, हम जजैं इत मंगल गाइके || ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीअनंत0 अर्घ्यं नि0 |3| असित चैत अमावस को सही, परम केवलज्ञान जग्यो कही | लही समोसृत धर्म धुरंधरो, हम समर्चत विघ्न सबै हरो || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां ज्ञानमंगलमंडिताय श्रीअनंत0 अर्घ्यं नि0 |4| असित चैत अमावस गाइयो, अघत घाति हने शिव पाइयो | गिरि समेद जजें हरि आय के, हम जजें पद प्रीति लगाय के || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाअमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीअनंत0 अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहाः- तुम गुण वरनन येम जिम, खंविहाय करमान | था मेदिनी पदनिकरि, कीनो चहत प्रमान ||1 जय अनन्त रवि भव्यमन, जलज वृन्द विहँसाय | सुमति कोकतिय थोक सुख, वृद्ध कियो जिनराय ||2 जै अनन्त गुनवंत नमस्ते, शुद्ध ध्येय नित सन्त नमस्ते | लोकालोक विलोक नमस्ते, चिन्मूरत गुनथोक नमस्ते |3| रत्नत्रयधर धीर नमस्ते, करमशत्रुकरि कीर नमस्ते | चार अनंत महन्त नमस्ते, जय जय शिवतियकंत नमस्ते |4| पंचाचार विचार नमस्ते, पंच करण मदहार नमस्ते | पंच पराव्रत-चूर नमस्ते, पंचमगति सुखपूर नमस्ते |5| पंचलब्धि-धरनेश नमस्ते, पंच-भाव-सिद्धेश नमस्ते | छहों दरब गुनजान नमस्ते, छहों कालपहिचान नमस्ते |6| छहों काय रच्छेश नमस्ते, छह सम्यक उपदेश नमस्ते | सप्तव्यसनवनवह्वि नमस्ते, जय केवल अपरह्वि नमस्ते |7| सप्ततत्त्व गुनभनन नमस्ते, सप्त श्वभ्रगति हनन नमस्ते | सप्तभंग के ईश नमस्ते, सातों नय कथनीश नमस्ते |8| अष्टकरम मलदल्ल नमस्ते, अष्टजोग निरशल्ल नमस्ते | अष्टम धराधिराज नमस्ते, अष्ट गुननि सिरताज नमस्ते |9| जय नवकेवल प्राप्त-नमस्ते, नव पदार्थथिति आप्त नमस्ते | दशों धरम धरतार नमस्ते, दशों बंधपरिहार नमस्ते |10| विघ्न महीधर विज्जु नमस्ते, जय ऊरधगति रिज्जु नमस्ते | तन कनकंदुति पूर नमस्ते, इक्ष्वाकु वंश कज सूर नमस्ते |11| धनु पचासतन उच्च नमस्ते, कृपासिंधु मृग शुच्च नमस्ते | सेही अंक निशंक नमस्ते, चितचकोर मृग अंक नमस्ते |12| राग दोषमदटार नमस्ते, निजविचार दुखहार नमस्ते | सुर-सुरेश-गन-वृन्द नमस्ते, वृन्द करो सुखकंद नमस्ते |13| जय जय जिनदेवं सुरकृतसेवं, नित कृतचित्त हुल्लासधरं | आपद उद्धारं समतागारं, वीरराग विज्ञान भरं |14| ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | जो जन मन वच काय लाय, जिन जजे नेह धर, वा अनुमोदन करे करावे पढ़े पाठ वर | ताके नित नव होय सुमंगल आनन्द दाई, अनुक्रम तें निरवान लहे सामग्री पाई || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  18. सहस्रार दिवि त्यागि, नगर कम्पिला जनम लिय | कृतधर्मानृपनन्द, मातु जयसेना धर्मप्रिय || तीन लोक वर नन्द, विमल जिन विमल विमलकर | थापौं चरन सरोज, जजन के हेतु भाव धर || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | सोरठाः- कंचन झारी धारि, पदमद्रह को नीर ले | तृषा रोग निरवारि, विमल विमलगुन पूजिये || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| मलयागर करपूर देववल्लभा संग घसि | हरि मिथ्यातमभूर, विमल विमलगुन जजतु हौं || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| वासमती सुखदास, स्वेत निशपति को हँसै | पूरे वाँछित आस, विमल विमलगुन जजत ही || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| पारिजात मंदार, संतानक सुरतरु जनित | जजौं सुमन भरि थार, विमल विमलगुन मदनहर || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| नव्य गव्य रसपूर, सुवरण थाल भरायके | छुधावेदनी चूर, जजौं विमल विमलगुन || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| माणिक दीप अखण्ड, गो छाई वर गो दशों | हरो मोहतम चंड, विमल विमलमति के धनी || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अगरु तगर घनसार, देवदारु कर चूर वर | खेवौं वसु अरि जार, विमल विमल पद पद्म ढिग || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| श्रीफल सेव अनार, मधुर रसीले पावने | जजौं विमलपद सार, विघ्न हरें शिवफल करें || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| आठों दरब संवार, मनसुखदायक पावने | जजौं अरघ भर थार, विमल विमल शिवतिय रमण || ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली गरभ जेठ बदी दशमी भनो, परम पावन सो दिन शोभनो | करत सेव सची जननीतणी, हम जजें पदपद्म शिरौमणी || ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णादशम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं0 |1| शुकलमाघ तुरी तिथि जानिये, जनम मंगल तादिन मानिये | हरि तबै गिरिराज विषै जजे, हम समर्चत आनन्द को सजे || ॐ ह्रीं माघशुक्लाचतुर्थ्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीविमल0 अर्घ्यं नि0 |2| तप धरे सित माघ तुरी भली, निज सुधातम ध्यावत हैं रली | हरि फनेश नरेश जजें तहां, हम जजें नित आनन्द सों इहां || ॐ ह्रीं माघशुक्लाचतुर्थ्यां तपोमंगल प्राप्ताय श्रीविमल0 अर्घ्यं नि0 |3| विमल माघरसी हनि घातिया, विमलबोध लयो सब भासिया | विमल अर्घ चढ़ाय जजौं अबै, विमल आनन्द देहु हमें सबै || ॐ ह्रीं माघशुक्लाषष्ठयां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीविमल0 अर्घ्यं नि0 |4| भ्रमरसाढ़ छटी अति पावनो विमल सिद्ध भये मन भावनो | गिरसमेद हरी तित पूजिया, हम जजैं इत हर्ष धरैं हिया || ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठयां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीविमल0 अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहाः- गहन चहत उड़गन गगन, छिति तिथि के छहँ जेम | तुम गुन-वरनन वरननि, माँहि होय तब केम |1| साठ धुनष तन तुंग है, हेम वरन अभिराम | वर वराह पद अंक लखि, पुनि पुनि करौं प्रनाम |2| जय केवलब्रह्म अनन्तगुनी, तुम ध्यावत शेष महेश मुनी | परमातम पूरन पाप हनी, चितचिंततदायक इष्ट धनी |3| भव आतपध्वंसन इन्दुकरं, वर सार रसायन शर्मभरं | सब जन्म जरा मृतु दाहहरं, शरनागत पालन नाथ वरं |4| नित सन्त तुम्हें इन नामनि तें, चित चिन्तन हैं गुनगाम नितैं | अमलं अचलं अटलं अतुलं, अरलं अछलं अथलं अकुलं |5| अजरं अमरं अहरं अडरं, अपरं अभरं अशरं अनरं | अमलीन अछीन अरीन हने, अमतं अगतं अरतं अघने |6| अछुधा अतृषा अभयातम हो, अमदा अगदा अवदातम हो | अविरुद्ध अक्रुद्ध अमानधुना, अतलं असलं अनअन्त गुना |7| अरसं सरसं अकलं सकलं, अवचं सवचं अमचं सबलं | इन आदि अनेक प्रकार सही, तुमको जिन सन्त जपें नित ही |8| अब मैं तुमरी शरना पकरी, दुख दूर करो प्रभुजी हमरी | हम कष्ट सहे भवकानन में, कुनिगोद तथा थल आनन में |9| तित जानम मर्न सहे जितने, कहि केम सकें तुम सों तितने | सुमुहूरत अन्तरमाहिं धरे, छह त्रै त्रय छः छहकाय खरे |10| छिति वहि वयारिक साधरनं, लघु थूल विभेदनि सों भरनं | परतेक वनस्पति ग्यार भये, छ हजार दुवादश भेद लये |11| सब द्वै त्रय भू षट छः सु भया, इक इन्द्रिय की परजाय लया | जुग इन्द्रिय काय असी गहियो, तिय इन्द्रिय साठनि में रहियो |12| चतुरिंद्रिय चालिस देह धरा, पनइन्द्रिय के चवबीस वरा | सब ये तन धार तहाँ सहियो, दुखघोर चितारित जात हियो |13| अब मो अरदास हिये धरिये, दुखदंद सबै अब ही हरिये | मनवांछित कारज सिद्ध करो, सुखसार सबै घर रिद्ध भरो |14| घत्ताः- जय विमलजिनेशा नुतनाकेशा, नागेशा नरईश सदा | भवताप अशेषा, हरन निशेशा, दाता चिन्तित शर्म सदा |15| ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | दोहाः- श्रीमत विमल जिनेशपद, जो पूजें मनलाय | पूरें वांछित आश तसु, मैं पूजौं गुनगाय || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  19. श्रीमत् वासुपूज्य जिनवर पद, पूजन हेत हिये उमगाय | थापौं मन वच तन शुचि करके, जिनकी पाटलदेव्या माय || महिष चिह्न पद लसे मनोहर, लाल वरन तन समतादाय | सो करुनानिधि कृपादृष्टि करि, तिष्ठहु सुपरितिष्ठ इहं आय || ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | गंगाजल भरि कनक कुंभ में, प्रासुक गंध मिलाई | करम कलंक विनाशन कारन, धार देत हरषाई || वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई | बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई || ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| कृष्णागरु मलयागिर चंदन, केशरसंग घिसाई | भवआताप विनाशन-कारन, पूजौं पद चित लाई ||वासु0 ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| देवजीर सुखदास शुद्ध वर सुवरन थार भराई | पुंज धरत तुम चरनन आगे, तुरित अखय पद पाई ||वासु0 ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| पारिजात संतान कल्पतरु-जनित सुमन बहु लाई | मीन केतु मद भंजनकारन, तुम पदमद्म चढ़ाई || वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई | बाल ब्रह्मचारी लखि जिन को, शिव तिय सनमुख धाई || ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| नव्य-गव्य आदिक रसपूरित, नेवज तुरत उपाई | छुधारोग निरवारन कारन, तुम्हें जजौं शिरनाई ||वासु0 ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| दीपक जोत उदोत होत वर, दश-दिश में छवि छाई | मोह तिमिर नाशक तुमको लखि, जजौं चरन हरषाई ||वासु0 ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| दशविध गंध मनोहर लेकर, वात होत्र में डाई | अष्ट करम ये दुष्ट जरतु हैं, धूप सु धूम उड़ाई ||वासु0 ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| सुरस सुपक्क सुपावन फल ले कंचन थार भराई | मोक्ष महाफलदायक लखि प्रभु, भेंट धरौं गुन गाई ||वासु0 ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल फल दरव मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई | शिवपदराज हेत हे श्रीपति ! निकट धरौं यह लाई ||वासु0 ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली कलि छट्ट आसाढ़ सुहायो, गरभागम मंगल पायो | दशमें दिवि तें इत आये, शतइन्द्र जजें सिर नाये|| ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीवासु0 अर्घ्यं निर्व0 |1| कलि चौदस फगुन जानो, जनमो जगदीश महानो | हरि मेरु जजे तब जाई, हम पूजत हैं चित लाई || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीवासु0 अर्घ्यं निर्व0 |2| तिथि चौदस फागुन श्यामा, धरियो तप श्री अभिरामा | नृप सुन्दर के पय पायो, हम पूजत अति सुख थायो || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्या तपोमंगल प्राप्ताय श्रीवासु0 अर्घ्यं निर्व0 |3| सुदि माघ दोइज सोहे, लहि केवल आतम जोहे | अनअंत गुनाकर स्वामी, नित वंदौ त्रिभुवन नामी || ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वितीयायां केवलज्ञान मंडिताय श्रीवासु0 अर्घ्यं निर्व0 |4| सित भादव चौदस लीनो, निरवान सुथान प्रवीनी | पुर चंपा थानक सेती, हम पूजत निज हित हेती || ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीवासु0 अर्घ्यं निर्व0 |5| जयमाला दोहाः- चंपापुर में पंच वर-कल्याणक तुम पाय | सत्तर धनु तन शोभनो, जै जै जै जिनराय |1| महासुखसागर आगर ज्ञान, अनंत सुखामृत मुक्त महान | महाबलमंडित खंडितकाम, रमाशिवसंग सदा विसराम |2| सुरिंद फनिंद खगिंद नरिंद, मुनिंद जजें नित पादारविंद | प्रभू तुम अंतरभाव विराग, सु बालहि तें व्रतशील सों राग |3| कियो नहिं राज उदास सरुप, सु भावन भावत आतम रुप | अनित्य शरीर प्रपंच समस्त, चिदातम नित्य सुखाश्रित वस्त |4| अशर्न नहीं कोउ शर्न सहाय, जहां जिय भोगत कर्म विपाय | निजातम को परमेसुर शर्न, नहीं इनके बिन आपद हर्न |5| जगत्त जथा जल बुदबुद येव, सदा जिय एक लहै फलमेव | अनेक प्रकार धरी यह देह, भ्रमे भवकानन आन न गेह |6| अपावन सात कुधात भरीय, चिदातम शुद्ध सुभाव धरीय | धरे तन सों जब नेह तबेव, सु आवत कर्म तबै वसुभेव |7| जबै तन-भोग-जगत्त-उदास, धरे तब संवर निर्जर आस | करे जब कर्मकलंक विनाश, लहे तब मोक्ष महासुखराश |8| तथा यह लोक नराकृत नित्त, विलोकियते षट्द्रव्य विचित्त | सु आतमजानन बोध विहिन, धरे किन तत्व प्रतीत प्रवीन |9| जिनागम ज्ञानरु संजम भाव, सबै निजज्ञान विना विरसाव | सुदुर्लभ द्रव्य सुक्षेत्र सुकाल, सुभाव सबै जिस तें शिव हाल |10| लयो सब जोग सु पुन्य वशाय, कहो किमि दीजिय ताहि गँवाय | विचारत यों लौकान्तिक आय, नमे पदपंकज पुष्प चढ़ाय |11| कह्यो प्रभु धन्य कियो सुविचार, प्रबोधि सुयेम कियो जु विहार | तबै सौधर्मतनों हरि आय, रच्यो शिविका चढ़िआय जिनाय |12| धरे तप पाय सु केवलबोध, दियो उपदेश सुभव्य संबोध | लियो फिर मोक्ष महासुखराश, नमें नित भक्त सोई सुख आश |13| नित वासव वंदत, पापनिकंदत, वासुपूज्य व्रत ब्रह्मपती | भवसंकलखंडित, आनंदमंडित, जै जै जै जैवंत जती |14| ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | सोरठाः- वासुपूजद सार, जजौं दरबविधि भाव सों | सो पावै सुखसार, भुक्ति मुक्ति को जो परम || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  20. विमल नृप विमला सुअन, श्रेयांसनाथ जिनन्द | सिंहपुर जन्मे सकल हरि, पूजि धरि आनन्द || भव बंध ध्वंसनिहेत लखि मैं शरन आयो येव | थापौं चरन जुग उरकमल में, जजनकारन देव |1| ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | कलधौत वरन उतंग हिमगिरि पदम द्रह तें आवई | सुरसरित प्रासुक उदक सों भरि भृंग धार चढ़ावई || श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं | दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं || ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| गोशीर वर करपूर कुंकुम नीर संग घसौं सही | भवताप भंजन हेत भवदधि सेत चरन जजौं सही ||श्रे0 ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| सित शालि शशि दुति शुक्ति सुन्दर मुक्तकी उनहार हैं | भरि थार पुंज धरंत पदतर अखयपद करतार हैं ||श्रे0 ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| सद सुमन सु मन समान पावन, मलय तें मधु झंकरें | पद कमलतर धरतैं तुरित सो मदन को मद खंकरें ||श्रे0 ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| यह परम मोदक आदि सरस सँवारि सुन्दर चरु लियो | तुव वेदनी मदहरन लखि, चरचौं चरन शुचिकर हियो ||श्रे0 ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| संशय विमोह विभरम तम भंजन दिनन्द समान हो | तातैं चरनढिग दीप जोऊँ देहु अविचल ज्ञान हो ||श्रे0 ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| वर अगर तगर कपूर चूर सुगन्ध भूर बनाइया | दहि अमर जिह्नाविषैं चरनढिग करम भरम जराइया || श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं | दुखदंद फंद निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं || ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| सुरलोक अरु नरलोक के फल पक्व मधुर सुहावने | ले भगति सहित जजौं चरन शिव परम पावन पावने ||श्रे0 ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जलमलय तंदुल सुमनचरु अरु दीप धूप फलावली | करि अरघ चरचौं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ||श्रे0 ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली पुष्पोत्तर तजि आये, विमलाउर जेठकृष्ण छट्टम को | सुरनर मंगल गाये, पूजौं मैं नासि कर्म काठनि को || ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांस0अर्घ्यं नि0स्वा0 |1| जनमे फागुनकारी, एकादशि तीन ग्यान दृगधारी | इक्ष्वाकु वशंतारी, मैं पूजौं घोर विघ्न दुख टारी || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीश्रेयांस0अर्घ्यं नि0स्वा0 |2| भव तन भोग असारा, लख त्याग्यो धीर शुद्ध तप धारा | फागुन वदि इग्यारा, मैं पूजौं पाद अष्ट परकारा || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीश्रेयांस0अर्घ्यं नि0स्वा0 |3| केवलज्ञान सुजानन, माघ बदी पूर्णतित्थ को देवा | चतुरानन भवभानन, वंदौं ध्यावौं करौं सुपद सेवा || ॐ ह्रीं माघकृष्णामावस्यायां केवलज्ञानमंडिताय श्रीश्रेयांस0अर्घ्यं नि0स्वा0 |4| गिरि समेद तें पायो, शिवथल तिथि पूर्णमासि सावन को | कुलिशायुध गुनगायो, मैं पूजौं आप निकट आवन को || ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लापूर्णिमायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांस0अर्घ्यं नि0स्वा0 |5| जयमाला शोभित तुंग शरीर सुजानो, चाप असी शुभ लक्षण मानो | कंचन वर्ण अनूपम सोहे, देखत रुप सुरासुर मोहे |1| जय जय श्रेयांस जिन गुणगरिष्ठ, तुम पदजुग दायक इष्टमिष्ट | जय शिष्ट शिरोमणि जगतपाल, जय भव सरोजगन प्रातःकाल |2| जय पंच महाव्रत गज सवार, लै त्याग भाव दलबल सु लार | जय धीरज को दलपति बनाय, सत्ता छितिमहँ रन को मचाय |3| धरि रतन तीन तिहुँशक्ति हाथ, दश धरम कवच तपटोप माथ | जय शुकलध्यान कर खड़ग धार, ललकारे आठों अरि प्रचार |4| ता में सबको पति मोह चण्ड, ता को तत छिन करि सहस खण्ड | फिर ज्ञान दरस प्रत्यूह हान, निजगुन गढ़ लीनों अचल थान |5| शुचि ज्ञान दरस सुख वीर्य सार, हुई समवशरण रचना अपार | तित भाषे तत्व अनेक धार, जा को सुनि भव्य हिये विचार |6| निजरुप लाह्यो आनन्दकार, भ्रम दूर करन को अति उदार | पुनि नयप्रमान निच्छेप सार, दरसायो करि संशय प्रहार |7| ता में प्रमान जुगभेद एव, परतच्छ परोछ रजै स्वमेव | ता में पतच्छ के भेद दोय, पहिलो है संविवहार सोय |8| ता के जुग भेद विराजमान, मति श्रुति सोहें सुन्दर महान | है परमारथ दुतियो प्रतच्छ, हैं भेद जुगम ता माहिं दच्छ |9| इक एकदेश इक सर्वदेश, इकदेश उभैविधि सहित वेश | वर अवधि सु मनपरजय विचार, है सकलदेश केवल अपार |10| चर अचर लखत जुगपत प्रतच्छ, निरद्वन्द रहित परपंच पच्छ | पुनि है परोच्छमहँ पंच भेद, समिरति अरु प्रतिभिज्ञान वेद |11| पुनि तरक और अनुमान मान, आगमजुत पन अब नय बखान | नैगम संग्रह व्यौहार गूढ़, ऋजुसूत्र शब्द अरु अमभिरुढ़ |12| पुनि एवंभूत सु सप्त एम, नय कहे जिनेसुर गुन जु तेम | पुनि दरव क्षेत्र अर काल भाव, निच्छेप चार विधि इमि जनाव |13| इनको समस्त भाष्यौ विशेष, जा समुझत भ्रम नहिं रहत लेश | निज ज्ञानहेत ये मूलमन्त्र, तुम भाषे श्री जिनवर सु तन्त्र |14| इत्यादि तत्त्व उपदेश देय, हनि शेषकरम निरवान लेय | गिरवान जजत वसु दरब ईस, वृन्दावन नितप्रति नमत शीश |15| घत्ताः- श्रेयांस महेशा सुगुन जिनेशा, वज्रधरेशा ध्यावतु हैं | हम निशदिन वन्दें पापनिकंदें, ज्यों सहजानंद पावतु हैं || ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | सोरठाः- जो पूजें मन लाय श्रेयनाथ पद पद्म को | पावें इष्ट अघाय, अनुक्रम सों शिवतिय वरैं || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  21. शीतलनाथ नमौं धरि हाथ, सु माथ जिन्हों भव गाथ मिटाये | अच्युत तें च्युत मात सुनन्द के, नन्द भये पुर बद्दल आये || वंश इक्ष्वाकु कियो जिन भूषित, भव्यन को भव पार लगाये | ऐसे कृपानिधि के पद पंकज, थापतु हौं हिय हर्ष बढ़ाये || ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | देवापगा सु वर वारि विशुद्ध लायो, भृंगार हेम भरि भक्ति हिये बढ़ायो | रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा, चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा || ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| श्रीखंड सार वर कुंकुम गारि लीनों | कं संग स्वच्छ घिसि भक्ति हिये धरीनों ||रागा0 ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| मुक्ता-समान सित तंदुल सार राजे | धारंत पुंज कलिकंज समस्त भाजें |रागा0 ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| श्री केतकी प्रमुख पुष्प अदोष लायो | नौरंग जंग करि भृंग सु रंग पायो ||रागा0 ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| नैवेद्य सार चरु चारु संवारि लायो | जांबूनद-प्रभृति भाजन शीश नायो || रागादिदोष मल मर्द्दन हेतु येवा | चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा || ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| स्नेह प्रपूरित सुदीपक जोति राजे | स्नेह प्रपूरित हिये जजतेऽघ भाजे ||रागा0 ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| कृष्णागरू प्रमुख गंध हुताश माहीं | खेवौं तवाग्र वसुकर्म जरंत जाही ||रागा0 ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| निम्बाम्र कर्कटि सु दाड़िम आदि धारा | सौवर्ण-गंध फल सार सुपक्व प्यारा ||रागा0 ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| शुभ श्री-फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे | नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे ||रागा0 ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली आठैं वदी चैत सुगर्भ मांही, आये प्रभू मंगलरुप थाहीं | सेवै शची मातु अनेक भेवा, चर्चौं सदा शीतलनाथ देवा || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाऽष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशीतल0 अर्घ्यं नि0 |1| श्री माघ की द्वादशि श्याम जायो, भूलोक में मंगल सार आयो | शैलेन्द्र पै इन्द्र फनिन्द्र जज्जे, मैं ध्यान धारौं भवदुःख भज्जे || ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशीतल0 अर्घ्यं नि0 |2| श्री माघ की द्वादशि श्याम जानो, वैराग्य पायो भवभाव हानो | ध्यायो चिदानन्द निवार मोहा, चर्चौं सदा चर्न निवारि कोहा || ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशीतल0 अर्घ्यं नि0 |3| चतुर्दशी पौष वदी सुहायो, ताही दिना केवल लब्धि पायो | शोभै समोसृत्य बखानि धर्मं, चचौं सदा शीतल पर्म शर्मं || ॐ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां केवल ज्ञानमंगलमंडिताय श्रीशीतल0 अर्घ्यं नि0 |4| कुवार की आठैं शुद्ध बुद्धा, भये महा मोक्ष सरुप शुद्धा | सम्मेद तें शीतलनाथ स्वामी, गुनाकरं ता सु पदं नमामी || ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाऽष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशीतल0 अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला आप अनंत गुनाकर राजे, वस्तुविकाशन भानु समाजे | मैं यह जानि गही शरना है, मोह महारिपु को हरना है |1| दोहाः- हेम वरन तन तुंग धनु-नव्वै अति अभिराम | सुर तरु अंक निहारि पद, पुनि पुनि करौं प्रणाम |2| जय शीतलनाथ जिनन्द वरं, भव दाह दवानल मेघझरं | दुख-भुभृत-भंजन वज्र समं, भव सागर नागर-पोत-पमं |3| कुह-मान-मयागद-लोभ हरं, अरि विघ्न गयंद मृगिंद वरं | वृष-वारिधवृष्टन सृष्टिहितू, परदृष्टि विनाशन सुष्टु पितू |4| समवस्रत संजुत राजतु हो, उपमा अभिराम विराजतु हो | वर बारह भेद सभा थित को, तित धर्म बखानि कियो हित को |5| पहले महि श्री गणराज रजैं, दुतिये महि कल्पसुरी जु सजैं | त्रितिये गणनी गुन भूरि धरैं, चवथे तिय जोतिष जोति भरैं |6| तिय-विंतरनी पन में गनिये, छह में भुवनेसुर तिय भनिये | भुवनेश दशों थित सत्तम हैं, वसु-विंतर उत्तम हैं |7| नव में नभजोतिष पंच भरे, दश में दिविदेव समस्त खरे | नरवृन्द इकादश में निवसें, अरु बारह में पशु सर्व लसें |8| तजि वैर, प्रमोद धरें सब ही, समता रस मग्न लसें तब ही | धुनि दिव्य सुनें तजि मोहमलं, गनराज असी धरि ज्ञानबलं |9| सबके हित तत्त्व बखान करें, करुना-मन-रंजित शर्म भरें | वरने षटद्रव्य तनें जितने, वर भेद विराजतु हैं तितने |10| पुनि ध्यान उभै शिवहेत मुना, इक धर्म दुती सुकलं अधुना | तित धर्म सुध्यान तणों गुनियो, दशभेद लखे भ्रम को हनियो |11| पहलोरि नाश अपाय सही, दुतियो जिन बैन उपाया गही | त्रिति जीवविषैं निजध्यावन है, चवथो सु अजीव रमावन है |12| पनमों सु उदै बलटारन है, छहमों अरि-राग-निवारन है | भव त्यागन चिंतन सप्तम है, वसुमों जितलोभ न आतम है |13| नवमों जिन की धुनि सीस धरे, दशमों जिनभाषित हेत करे | इमि धर्म तणों दश भेद भन्यो, पुनि शुक्लतणो चदु येम गन्यो |14| सुपृथक्त-वितर्क-विचार सही, सुइकत्व-वितर्क-विचार गही | पुनि सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपात कही, विपरीत-क्रिया-निरवृत्त लही |15| इन आदिक सर्व प्रकाश कियो, भवि जीवनको शिव स्वर्ग दियो | पुनि मोक्षविहार कियो जिनजी, सुखसागर मग्न चिरं गुनजी |16| अब मैं शरना पकरी तुमरी, सुधि लेहु दयानिधि जी हमरी | भव व्याधि निवार करो अब ही, मति ढील करो सुख द्यो सब ही |17| शीतल जिन ध्याऊं भगति बढ़ाऊं, ज्यों रतनत्रय निधि पाऊं | भवदंद नशाऊं शिवथल जाऊं, फेर न भव वन में आऊं |18| दिढ़रथ सुत श्रीमान् पंचकल्याणक धारी, तिन पद जुगपद्म जो जजै भक्तिधारी | सहजसुख धन धान्य, दीर्घ सौभाग्य पावे, अनुक्रम अरि दाहै, मोक्ष को सो सिधावै || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  22. पुष्पदन्त भगवन्त सन्त सु जपंत तंत गुन | महिमावन्त महन्त कन्त शिवतिय रमन्त मुन || काकन्दीपुर जन्म पिता सुग्रीव रमा सुत | श्वेत वरन मनहरन तुम्हैं थापौं त्रिवार नुत || ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | हिमवन गिरिगत गंगाजल भर, कंचन भृंग भराय | करम कलंक निवारनकारन, जजौं, तुम्हारे पाय || मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सुनीजे || ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| बावन चन्दन कदलीनंदन, कुंकुम संग घसाय | चरचौं चरन हरन मिथ्यातम, वीतराग गुण गाय ||मेरी0 ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| शालि अखंडित सौरभमंडित, शशिसम द्युति दमकाय | ता को पुञ्ज धरौं चरननढिग, देहु अखय पद राय ||मेरी0 ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| सुमन सुमनसम परिमलमंडित, गुंजत अलिगन आय | ब्रह्म-पुत्र मद भंजन कारन, जजौं तुम्हारे पाय ||मेरी0 ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| घेवर बावर फेनी गोंजा, मोदन मोदक लाय | छुधा वेदनि रोग हरन कों, भेंट धरौं गुण गाय ||मेरी0 ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| वाति कपूर दीप कंचनमय, उज्ज्वल ज्योति जगाय | तिमिर मोह नाशक तुमको लखि, धरौं निकट उमगाय ||मेरी0 ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| दशवर गंध धनंजय के संग, खेवत हौं गुन गाय | अष्टकर्म ये दुष्ट जरें सो, धूम सु धूम उड़ाय ||मेरी0 ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| श्रीफल मातुलिंग शुचि चिरभट, दाड़िम आम मंगाय | ता सों तुम पद पद्म जजत हौं, विघन सघन मिट जाय ||मेरी0 ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल फल सकल मिलाय मनोहर, मनवचतन हुलसाय | तुम पद पूजौं प्रीति लाय के, जय जय त्रिभुवनराय || मेरी अरज सुनीजे, पुष्पदन्त जिनराय, मेरी अरज सनीजे || ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली नवमी तिथि कारी फागुन धारी, गरभ मांहिं थिति देवा जी | तजि आरण थानं कृपानिधानं, करत शची तित सेवा जी || रतनन की धारा परम उदारा, परी व्योम तें सारा जी | मैं पूजौं ध्यावौं भगति बढ़ावौं, करो मोहि भव पारा जी || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णानवम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्पदन्त जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0 |1| मंगसिर सितपच्छं परिवा स्वच्छं, जनमे तीरथनाथा जी | तब ही चवभेवा निरजर येवा, आय नये निज माथा जी || सुरगिर नहवाये, मंगल गाये, पूजे प्रीति लगाई जी | मैं पूजौं ध्यावौं भगत बढ़ावौं, निजनिधि हेतु सहाई जी || ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला प्रतिपदायां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपुष्प0 अर्घ्यं नि0 |2| सित मंगसिर मासा तिथि सुखरासा, एकम के दिन धारा जी | तप आतमज्ञानी आकुलहानी, मौन सहित अविकारा जी || सुरमित्र सुदानी के घर आनी, गो-पय पारन कीना जी | तिन को मैं वन्दौं पाप निकंदौं, जो समता रस भीना जी || ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्ला प्रतिपदायां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्प0 अर्घ्यं नि0 |3| सित कार्तिक गाये दोइज घाये, घातिकरम परचंडा जी | केवल परकाशे भ्रम तम नाशे, सकल सार सुख मंडा जी || गनराज अठासी आनंदभासी, समवसरण वृषदाता जी | हरि पूजन आयो शीश नमायो, हम पूजें जगत्राता जी || ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्ला द्वितीयायां ज्ञानमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्प0 अर्घ्यं नि0 |4| भादव सित सारा आठैं धारा, गिरिसमेद निरवाना जी | गुन अष्ट प्रकारा अनुपम धारा, जय जय कृपा निधाना जी || तित इन्द्र सु आयौ, पूज रचायौ,चिह्न तहां करि दीना जी | मैं पूजत हौं गुन ध्यान मणी सों, तुमरे रस में भीना जी || ॐ ह्री भाद्रपद शुक्लाऽष्टम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीपुष्प0 अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहाः- लच्छन मगर सुश्वेत तन तुड्गं धनुष शत एक | सुरनर वंदित मुकतिपति, नमौं तुम्हें शिर टेक |1| पुहुपदन्त गुनवदन है, सागर तोय समान | क्यों करि कर-अंजुलिनि कर, करिये तासु प्रमान |2| पुष्पदन्त जयवन्त नमस्ते, पुण्य तीर्थंकर सन्त नमस्ते | ज्ञान ध्यान अमलान नमस्ते, चिद्विलास सुख ज्ञान नमस्ते |3| भवभयभंजन देव नमस्ते, मुनिगणकृत पद-सेव नमस्ते | मिथ्या-निशि दिन-इन्द्र नमस्ते, ज्ञानपयोदधि चन्द्र नमस्ते |4| भवदुःख तरु निःकन्द नमस्ते, राग दोष मद हनन नमस्ते | विश्वेश्वर गुनभूर नमस्ते, धर्म सुधारस पूर नमस्ते |5| केवल ब्रह्म प्रकाश नमस्ते, सकल चराचरभास नमस्ते | विघ्नमहीधर विज्जु नमस्ते, जय ऊरधगति रिज्जु नमस्ते |6| जय मकराकृत पाद नमस्ते, मकरध्वज-मदवाद नमस्ते | कर्मभर्म परिहार नमस्ते, जय जय अधम-उद्धार नमस्ते |7| दयाधुरंधर धीर नमस्ते, जय जय गुन गम्भीर नमस्ते | मुक्ति रमनि पति वीर नमस्ते, हर्ता भवभय पीर नमस्ते |8| व्यय उत्पति थितिधार नमस्ते, निजअधार अविकार नमस्ते | भव्य भवोदधितार नमस्ते, |वृन्दावन निस्तार नमस्ते |9| घत्ताः- जय जय जिनदेवं हरिकृतसेवं, परम धरमधन धारी जी | मैं पूजौं ध्यावौं गुनगन गावौं, मेटो विथा हमारी जी |10| ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | छन्दः- पुहुपदंत पद सन्त, जजें जो मनवचकाई | नाचें गावें भगति करें, शुभ परनति लाई || सो पावें सुख सर्व, इन्द्र अहिमिंद तनों वर | अनुक्रम तें निरवान, लहें निहचै प्रमोद धर || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  23. ।। स्थापना ।। शुभ पुण्य उदय से ही प्रभुवर, दर्शन तेरा कर पाते हैं। केवल दर्शन से ही प्रभु, सारे पाप मेरे कट जाते हैं।। देहरे के चन्द्रप्रभु स्वामी, आह्वानन करने आया हूँ। मम हृदय कमल में आ तिष्ठो तेरे चरणों में आया हूँ।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननं। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्हिहितो भव भव वषट् सन्हिध्किरणं। ।। अथाष्टक ।। भोगों में फंसकर हे प्रभुवर, जीवन को वृथा गँवाया है। इस जन्म-मरण से मुझे नहीं, छुटकारा मिलने पाया है।। मन में कुछ भाव उठे मेरे, जल झारी में भर लाया हूँ। मन के मिथ्यामल धोने को, चरणों में तेरे आया हूँ।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। निज अन्तर शीतल करने को, चन्दन घिसकर ले आया हूँ। मन शान्त हुआ न इससे भी, तेरे चरणों में आया हूँ।। क्रोधदि कषायों के कारण, संतप्त हृदय प्रभु मेरा है। शीतलता मुझको मिल जाये, हे नाथ सहारा तेरा है।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। पूजा में ध्यान लगाने को, अक्षत धोकर ले आया हूँ। चरणों में पुंज चढ़ाकर के, अक्षय पद पाने आया हूँ।। निर्मल आत्मा होवे मेरी, सार्थक पूजा तब तेरी है। निज शाश्वत अक्षयपद पाऊं, ऐसी प्रभु विनती मेरी है।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। पर-गंध् मिटाने को प्रभुवर, यह पुष्प सुगंधी लाया हूँ। तेरे चरणों में अर्पित कर, तुमसा ही होने आया हूँ।। श्री चंद्रप्रभु यह अरज मेरी, भवसागर पार लगा देना। यह काम अग्नि का रोग बड़ा, छुटकारा नाथ दिला देना।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। दुःख देती है तृष्णा मुझको, कैसे छुटकारा पाऊं मैं। हे नाथ बता दो आज मुझे, चरणों में शीश झुकाऊं मैं।। यह क्षुध मिटाने को प्रभुवर, नैवेद्य बनाकर लाया हूँ। हे नाथ मिटादो क्षुध मेरी, भव भव में फिरता आया हूँ।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय क्षुधरोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। यह दीपक की ज्योति प्यारी, अंधियारा दूर भगाती है। पर यह भी नश्वर है प्रभुवर, झंझा इसको धमकाती है।। हे चन्द्रप्रभु दे दो ऐसा, दीपक अज्ञान मिटा डाले। मोहान्धकार हो नष्ट मेरा, यह ज्योति नई मन में बाले।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय मोहांध्कार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ धूप दशांग बनाकर के, पावक में खेऊं हे प्रभुवर। क्षय कर्मों का प्रभु हो जावे, जग का झंझट सारा नश्वर।। हे चन्द्रप्रभु अन्तर्यामी, कैसे छुटकारा अब पाऊं। हे नाथ बतादो मार्ग मुझे, चरणों पर बलिहारी जाऊं।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। पिस्ता बादाम लवंगादिक, भर थाली प्रभु मैं लाया हूँ। चरणों में नाथ चढ़ाकरके, अमृतरस पीने आया हूँ।। करूणा के सागर दया करो, मुक्ति का मार्ग अब पाऊं। दे दो वरदान प्रभु ऐसा, शिवपुर को हे प्रभुवर जाऊं।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जल चन्दन अक्षत पुष्प चरू, दीपक घृत से भर लाया हूँ। दस गंध् धूप फल मिला अर्घ ले, स्वामी अति हर्षाया हूँ।। हे नाथ अनर्घ पद पाने को, तेरे चरणों में आया हूँ। भव भव के बंध् कटें प्रभुवर, यह अरज सुनाने आया हूँ।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अनर्घपद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। ।। पंचकल्याणक ।। जब गर्भ में प्रभुजी आये थे, इन्द्रों ने नगर सजाया था। छः मास प्रथम ही आकरके, रत्नों का मेह बरसाया था।। तिथि चैत्र वदी पंचम प्यारी, जब गर्भ में प्रभुजी आये थे। लक्ष्मणामाता को पहले ही, सोलह सपने दिखलाये थे।। ॐ हृीं चैत्र कृष्ण पंचम्यां गर्भ मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ बेला में प्रभु जन्म हुआ, वदि पौष एकादशि थी प्यारी। श्रीमहासेन नृप के घर में, हुई जयजयकार बड़ी भारी।। पांडुकशिल पर अभिषेक कियो, सब देव मिले थे चतुरनिकाय। सो जिन चन्द्र जयो जगमाहिं, विघ्नहरण और मंगलदाय।। ॐ हृीं पौष कृष्ण एकादश्यां जन्म मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। जग के झंझट से मन उफबा, तप की ली श्रीजिनने ठहराय। पौष बदी ग्यारस को इन्द्र ने, तप कल्याण कियो हर्षाय।। सर्वर्तुक वन में जाय विराजे, केशलोंच जिन कियो हर्षाय। देहरे के श्री चन्द्रप्रभु को, अर्घ चढ़ाऊं नित्य बनाय।। ॐ हृीं पौष कृष्ण एकादश्यां तपो मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। फाल्गुन वदी सप्तमी के दिन, चार घातिया घात महान। समवशरण रचना हरि कीनी, ता दिन पायो केवलज्ञान।। साढे़ आठ योजन परमित था, समवशरण श्रीजिन भगवान। ऐसे श्री जिन चन्द्रप्रभु को, अर्घचढ़ाय करूँ नित ध्यान।। ॐ हृीं फाल्गुन कृष्ण सप्तम्यां केवलज्ञान मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। शुक्ला फाल्गुन सप्तमी के दिन, ललितकूट शुभ उत्तम थान। श्रीजिन चन्द्रप्रभु जगनामी, पायो आतम शिव कल्याण।। वसु कर्म जिनचन्द्र ने जीते पहुँचे स्वामी मोक्ष मंझार। निर्वाण महोत्सव कियो इन्द्र ने देव करें सब जयजयकार।। ॐ हृीं फाल्गुन शुक्ला सप्तम्यां मोक्ष मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। श्रावण सुदी दसमी को प्रभु जी प्रकट भये देहरे में आन। संवत तेरह दो सहस्त्र उपर, शुभ बृहस्पतिवार तादिन जान।। जयजयकार हुई देहरे में, प्रकट हुए जब श्री भगवान। चरणों में आ अर्घ चढ़ाऊं प्रभु के दर्शन सुख की खान।। ॐ हृीं श्रावण शुक्ला दशम्यां देहरा स्थान प्रकट रूपाय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा। ।। जयमाला ।। हे चन्द्रप्रभु तुम जगतपिता जगदीश्वर तुम परमात्मा हो। तुमही हो नाथ अनाथों के जग को निज आनन्द दाता हो।।१।। इन्द्रियों को जीत लिया तुमने जितेन्द्रनाथ कहाये हो। तुमही हो परम हितैषी प्रभु गुरू तुम ही नाथ कहाये हो।।२।। इस नगर तिजारा में स्वामी देहरा स्थान निराला है। दुख दुखियों का हरने वाला श्रीचन्द्रनाम अति प्यारा है।।३।। जो भाव सहित पूजा करते मनवांछित फल पा जाते हैं। दर्शन से रोग नसें सारे गुनगान तेरा सब गाते हैं।।४।। मैं भी हूँ नाथ शरण आया कर्मों ने मुझको रोंदा है। यह कर्म बहुत दुख देते हैं प्रभु एक सहारा तेरा है।।५।। कभी जन्म हुआ कभी मरण हुआ हे नाथ बहुत दुख पाया है। कभी नरक गया कभी स्वर्ग गया भ्रमता भ्रमता ही आया है।।६।। तिर्यंच गति के दुःख सहे ये जीवन बहुत अकुलाया है। पशुगति में मार सही भारी बोझा रख खूब भगाया है।।७।। अंजन से चोर अध्म तारे भव सिन्धु से पार लगाया है। सोमा की सुनकर टेर प्रभु नाग को हार बनाया है।।८।। मुनिसमन्तभद्र को हे स्वामी आ चमत्कार दिखलाया है। कर चमत्कार को नमस्कार चरणों में शीश झुकाया है।।९।। इस पंचमकाल में हे स्वामी क्या अद्भुत महिमा दिखलाई। दुख दुखियों का हरने वाली देहरे में प्रतिमा प्रकटाई।।१०।। शुभ पुण्य उदय से हे स्वामी दर्शन तेरा करने आया हूँ। इस मोह जाल से हे स्वामी छुटकारा पाने आया हूँ।।११।। श्रीचन्द्रप्रभु मोरी अर्ज सुनो चरणों में तेरे आया हूँ। भवसागर पार करो स्वामी यह अर्ज सुनाने आया हूँ।।१२।। ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा। दोहा- देहरे के श्री चन्द्र को भाव सहित जो ध्याय। मुंशी पावे सम्पदा मनवांछित फल पाय।। इत्याशीर्वाद पुष्पांजलिम् क्षिपेत्
  24. चारुचरन आचरन, चरन चितहरन चिन्ह चर | चंद-चंद-तनचरित, चंद थल चहत चतुर नर || चतुक चंड चकचूरि, चारि चिद्चक्र गुनाकर | चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र-धनुरर्हर || चर अचर हितू तारन तरन, सुनत चहकि चिर नंद शुचि | जिनचंद चरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रच्चि रुचि |1| दोहाः- धनुष डेढ़ सौ तुंग तन, महासेन नृपनंद | मातु लक्षमना उर जये, थापौं चंद जिनंद |2| ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | गंगाह्रद निरमल नीर, हाटक भृंग भरा | तुम चरन जजौं वरवीर, मेटो जनम जरा || श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै | मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे || ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| श्रीखण्ड कपूर सुचंग, केशर रंग भरी | घसि प्रासुक जल के संग, भवआताप हरी ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| तंदुल सित सोम समान, सम लय अनियारे | दिये पुंज मनोहर आन, तुम पदतर प्यारे ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| सुर द्रुम के सुमन सुरंग, गंधित अलि आवे | ता सों पद पूजत चंग, कामविधा जावे ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| नेवज नाना परकार, इंद्रिय बलकारी | सो ले पद पूजौं सार, आकुलता-हारी || श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै | मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे || ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| तम भंजन दीप संवार, तुम ढिग धारतु हौं | मम तिमिरमोह निरवार, यह गुण याचतु हौं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| दसगंध हुतासन माहिं, हे प्रभु खेवतु हौं | मम करम दुष्ट जरि जाहिं, या तें सेवतु हौं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| अति उत्तम फल सु मंगाय, तुम गुण गावतु हौं | पूजौं तनमन हरषाय, विघन नशावतु हौं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं | पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली कलि पंचम चैत सुहात अली, गरभागम मंगल मोद भली | हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्मसिता || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा पंचम्यांगर्भमंगलंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0 |1| कलि पौष एकादशि जन्म लयो, तब लोकविषै सुख थोक भयो | सुरईश जजैं गिरिशीश तबै, हम पूजत हैं नुत शीश अबै || ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगल मंडिताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |2| तप दुद्धर श्रीधर आप धरा, कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा | निज ध्यान विषै लवलीन भये, धनि सो दिन पूजत विघ्न गये || ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल मंडिताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |3| वर केवल भानु उद्योत कियो, तिहुंलोकतणों भ्रम मेट दियो | कलि फाल्गुन सप्तमि इंद्र जजें, हम पूजहिं सर्व कलंक भजें || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तम्यां केवलज्ञान मंडिताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |4| सित फाल्गुन सप्तमि मुक्ति गये, गुणवंत अनंत अबाध भये | हरि आय जजे तित मोद धरे, हम पूजत ही सब पाप हरे || ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला सप्तम्यां मोक्षमंगल मंडिताय श्रीचन्द्र0जि0अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहाः- हे मृगांद अंकित चरण, तुम गुण अगम अपार | गणधर से नहिं पार लहिं, तौ को वरनत सार |1| पै तुम भगति मम हिये, प्रेरे अति उमगाय | तातैं गाऊं सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय |2| जय चंद्र जिनेंद्र दयानिधान, भवकानन हानन दव प्रमान | जय गरभ जनम मंगल दिनंद, भवि-जीव विकाशन शर्म कन्द |3| दशलक्ष पूर्व की आयु पाय, मनवांछित सुख भोगे जिनाय | लखि कारण ह्वै जगतैं उदास, चिंत्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास |4| तित लोकांतिक बोध्यो नियोग, हरि शिविका सजि धरियो अभोग | तापै तुम चढ़ि जिनचंदराय, ताछिन की शोभा को कहाय |5| जिन अंग सेत सित चमर ढार, सित छत्र शीस गल गुलक हार | सित रतन जड़ित भूषण विचित्र, सित चन्द्र चरण चरचें पवित्र |6| सित तनद्युति नाकाधीश आप, सित शिविका कांधे धरि सुचाप | सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चित्त में चिंतत जात पर्व |7| सित चंद्र नगर तें निकसि नाथ, सित वन में पहुचे सकल साथ | सित शिला शिरोमणि स्वच्छ छाँह, सित तप तित धार्यो तुम जिनाह |8| सित पय को पारण परम सार, सित चंद्रदत्त दीनों उदार | सित कर में सो पय धार देत, मानो बांधत भवसिंधु सेत |9| मानो सुपुण्य धारा प्रतच्छ, तित अचरज पन सुर किय ततच्छ | फिर जाय गहन सित तप करंत, सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त |10| लहि सनवसरन रचना महान, जा के दरसन सब पाप हान | जहँ तरु अशोक शोभै उतंग, सब शोक तनो चूरै प्रसंग |11| सुर सुमन वृष्टि नभ तें सुहात, मनु मन्मथ तजि हथियार जात | बानी जिनमुख सों खिरत सार, मनु तत्व प्रकाशन मुकुर धार |12| जहँ चौंसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजस मेघ झरि लगिय तंत | सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, मनु शिव सरवर को कमल शुक्ल |13| दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करमजीत को है नगार | शिर छत्र फिरै त्रय श्वेत वर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण |14| तन प्रभा तनो मंडल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात | मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सु आय |15| इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान | ता को वरणत नहिं लहत पार, तो अंतरंग को कहै सार |16| अनअंत गुणनिजुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार | फिर जोग निरोध अघातिहान, सम्मेदथकी लिय मुकतिथान |17| वृन्दावन वंदत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय | ता तें का कहौं सु बार बार, मनवांछित कारज सार सार |18| जय चंद जिनंदा, आनंदकंदा, भवभयभंजन राजैं हैं | रागा दिक द्वंदा, हरि सब फंदा, मुकति मांहि थिति साजैं हैं |19| ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेद्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचंद जजें | ता के भव-भव के अघ भाजें, मुक्तिसार सुख ताहि सजें || जम के त्रास मिटें सब ताके, सकल अमंगल दूर भजें | वृन्दावन ऐसो लखि पूजत, जा तें शिवपुरि राज रजें || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  25. जय जय जिनिंद गनिंद इन्द, नरिंद गुन चिंतन करें | तन हरीहर मनसम हरत मन, लखत उर आनन्द भरें || नृप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ठ शिष्ट पृथी प्रिया | तिन नन्दके पद वन्द वृन्द, अमंद थापत जुतक्रिया || ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | उज्ज्वल जल शुचि गंध मिलाय, कंचनझारी भरकर लाय | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो || तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो || ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| मलयागिर चंदन घसि सार, लीनो भवतप भंजनहार | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0 ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| देवजीर सुखदास अखंड, उज्ज्वल जलछालित सित मंड | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0 ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| प्रासुक सुमन सुगंधित सार, गुंजत अलि मकरध्वजहार | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0 ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| छुधाहरण नेवज वर लाय, हरौं वेदनी तुम्हें चढ़ाय | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0 ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| ज्वलित दीप भरकरि नवनीत, तुम ढिग धारतु हौं जगमीत | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0 ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| दशविधि गन्ध हुताशन माहिं, खेवत क्रूर करम जरि जाहिं | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो || तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो || ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| श्रीफल केला आदि अनूप, ले तुम अग्र धरौं शिवभूप | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0 ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय | दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ||तुम0 ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली सुकल भादव छट्ठ सु जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये | करत सेव शची रचि मात की, अरघ लेय जजौं वसु भांत की || ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाषष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |1| सुकल जेठ दुवादशि जन्मये, सकल जीव सु आनन्द तन्मये | त्रिदशराज जजें गिरिराजजी, हम जजें पद मंगल साजजी || ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |2| जनम के तिथि पे श्रीधर ने धरी, तप समस्त प्रमादन को हरी | नृप महेन्द्र दियो पय भाव सौं, हम जजें इत श्रीपद चाव सों || ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |3| भ्रमर फागुन छट्ठ सुहावनो, परम केवलज्ञान लहावनो | समवसर्न विषैं वृष भाखियो, हम जजें पद आनन्द चाखनो || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा षष्ठीदिने केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |4| असित फागुन सातय पावनो, सकल कर्म कियो छय भावनो | गिरि समेदथकी शिव जातु हैं, जजत ही सब विघ्न विलातु हैं || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तमीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व0 अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहाः- तुंग अंग धनु दोय सौ, शोभा सागरचन्द | मिथ्यातपहर सुगुनकर, जय सुपास सुखकंद |1| जयति जिनराज शिवराज हितहेत हो | परम वैराग आनन्द भरि देत हो || गर्भ के पूर्व षट्मास धनदेव ने | नगर निरमापि वाराणसी सेव में |2| गगन सों रतन की धार बहु वरषहीं | कोड़ि त्रैअर्द्ध त्रैवार सब हरषहीं || तात के सदन गुनवदन रचना रची | मातु की सर्वविधि करत सेवा शची |3| भयो जब जनम तब इन्द्र-आसन चल्यो | होय चकित तब तुरित अवधितैं लखि भल्यो || सप्त पग जाय शिर नाय वन्दन करी | चलन उमग्यो तबै मानि धनि धनि घरी |4| सात विधि सैन गज वृषभ रथ बाज ले | गन्धरव नृत्यकारी सबै साज ले || गलित मद गण्ड ऐरावती साजियो | लच्छ जोजन सुतन वदन सत राजियो |5| वदन वसुदन्त प्रतिदन्त सरवर भरे | ता सु मधि शतक पनबीस कमलिनि खरे || कमलिनी मध्य पनवीस फूले कमल | कमल-प्रति-कमल मँह एक सौ आठ दल |6| सर्वदल कोड़ शतबीस परमान जू | ता सु पर अपछरा नचहिं जुतमान जू || तततता तततता विततता ताथई | धृगतता धृगतता धृगतता में लई |7| धरत पग सनन नन सनन नन गगन में | नूपुरे झनन नन झनन नन पगन में || नचत इत्यादि कई भाँति सों मगन में | केई तित बजत बाजे मधुर पगन में |8| केई दृम दृम दुदृम दृम मृदंगनि धुनै | केई झल्लरि झनन झंझनन झंझनै || केई संसाग्रते सारंगि संसाग्र सुर | केई बीना पटह बंसि बाजें मधुर |9| केई तनतन तनन तनन ताने पुरैं | शुद्ध उच्चारि सुर केई पाठैं फुरैं || केइ झुकि झुकि फिरे चक्र सी भामिनी | धृगगतां धृगगतां पर्म शोभा बनी |10| केई छिन निकट छिन दूर छिन थूल-लघु | धरत वैक्रियक परभाव सों तन सुभगु || केई करताल-करताल तल में धुनें | तत वितत घन सुषिरि जात बाजें मुनै |11| इन्द्र आदिक सकल साज संग धारिके | आय पुर तीन फेरी करी प्यार तें || सचिय तब जाय परसूतथल मोद में | मातु करि नींद लीनों तुम्हें गोद में |12| आन-गिरवान नाथहिं दियो हाथ में | छत्र अर चमर वर हरि करत माथ में || चढ़े गजराज जिनराज गुन जापियो | जाय गिरिराज पांडुक शिला थापियो |13| लेय पंचम उदधि-उदक कर कर सुरनि | सुरन कलशनि भरे सहित चर्चित पुरनि || सहस अरु आठ शिर कलश ढारें जबै | अघघ घघ घघघ घघ भभभ भभ भौ तबै |14| धधध धध धधध धध धुनि मधुर होत है | भव्य जन हंस के हरस उद्योत है || भयो इमि न्हौन तब सकल गुन रंग में | पोंछि श्रृंगार कीनों शची अंग में |15| आनि पितुसदन शिशु सौंपि हरि थल गयो | बाल वय तरुन लहि राज सुख भोगियो || भोग तज जोग गहि, चार अरि कों हने | धारि केवल परम धरम दुइ विध भने |16| नाशि अरि शेष शिवथान वासी भये | ज्ञानदृग अरि शेष शिवथान वासी भये | दीन जन की करुण सुन लीजिये | धरम के नन्द को पार अब कीजिये |17| घर्त्ताः- जय करुनाधारी, शिवहितकारी तारन तरन जिहाजा हो | सेवत नित वन्दे मनआंनदे, भवभय मेटनकाजा हो |18| ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | दोहाः- श्री सुपार्श्व पदजुगल जो जजें पढ़े यह पाठ | अनुमोदें सो चतुर नर पावें आनन्द ठाठ || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
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