Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World

admin

Administrators
  • Posts

    2,455
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    327

 Content Type 

Profiles

Forums

Events

Jinvani

Articles

दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

Downloads

Gallery

Blogs

Musicbox

Everything posted by admin

  1. (दोहावली) श्रीधर-नंदन पद्मप्रभ, वीतराग जिननाथ | विघ्नहरण मंगलकरन, नमौं जोरि जुग-हाथ || जन्म-महोत्सव के लिए, मिलकर सब सुरराज | आये कौशाम्बी नगर, पद-पूजा के काज || पद्मपुरी में पद्मप्रभ, प्रकटे प्रतिमा-रूप | परम दिगम्बर शांतिमय, छवि साकार अनूप || हम सब मिल करके यहाँ, प्रभु-पूजा के काज | आह्वानन करते सुखद, कृपा करो महाराज || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट (आहवानानम्)। ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्) ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणं)। (अष्टक) क्षीरोदधि उज्ज्वल नीर, प्रासुक-गंध भरा | कंचन-झारी में लेय, दीनी धार धरा || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१। चंदन केशर कर्पूर, मिश्रित गंध धरौं | शीतलता के हित देव, भव-आताप हरौं | बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२। ले तंदुल अमल अखंड, थाली पूर्ण भरौं | अक्षय-पद पावन-हेतु, हे प्रभु! पाप हरौं || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३। ले कमल केतकी बेल, पुष्प धरूँ आगे | प्रभु सुनिये हमरी टेर, काम-व्यथा भागे || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४। नैवेद्य तुरत बनवाय, सुन्दर थाल सजा | मम क्षुधारोग नश जाय, गाऊँ वाद्य बजा || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५। हो जगमग-जगमग ज्योति, सुन्दर अनियारी | ले दीपक श्री जिनचन्द्र, मोह नशे भारी || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६। ले अगर कपूर सुगन्ध, चंदन गंध महा | खेवत हौं प्रभु-ढिंग आज, आठों कर्म दहा || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७। श्रीफल बादाम सुलेय, केला आदि हरे | फल पाऊँ शिवपद नाथ, अरपूँ मोद भरे || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८। जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज आदि मिला | मैं अष्ट – द्रव्य से पूज, पाऊँ सिद्धशिला || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९। चरणों का अर्घ्य (दोहा) चरण-कमल श्री पद्म के, वंदौं मन-वच-काय | अर्घ्य चढ़ाऊँ भाव से, कर्म नष्ट हो जाय || ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्रस्य चरणाभ्यां अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (प्रतिमाजी की अप्रकट-अवस्था का अर्घ्य) पृथ्वी में श्री पद्म की, पद्मासन आकार, परम दिगम्बर शांतिमय, प्रतिमा भव्य अपार | सौम्य शांत अति कांतिमय, निर्विकार साकार, अष्ट-द्रव्य का अर्घ्य ले, पूजूँ विविध प्रकार || बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही | काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही || ओं ह्रीं भूमि-स्थित-अप्रकट श्रीपद्मप्रभ-जिनबिम्बाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक-अर्घ्यावली (राग टप्पा) श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना। माघ-कृष्ण-छठ में प्रभो, आये गर्भ-मँझार। मात सुसीमा का जनम, किया सफल करतार।। मोहे राखो हो शरना। श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना।I ओं ह्रीं श्रीं माघ कृष्ण-षष्ठ्यां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१। कार्तिक-वदी-तेरह तिथी, प्रभू लियो अवतार | देवों ने पूजा करी, हुआ मंगलाचार | मोहे राखो हो शरना।I श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना | ओं ह्रीं श्रीं कार्तिक कृष्ण-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२। कार्तिक-कृष्ण-त्रयोदशी, तृणवत् बन्धन तोड़ | तप धार्यो भगवान ने, मोहकर्म को मोड़ || मोहे राखो हो शरना | श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना || ओं ह्रीं श्रीं कार्तिककृष्ण-त्रयोदश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३। चैत्र-शुक्ल की पूर्णिमा उपज्यो केवलज्ञान | भवसागर से पार हो, दियो भव्यजन ज्ञान || मोहे राखो हो शरना | श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरनाII ओं ह्रीं श्रीं चैत्रशुक्ल-पूर्णिमायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४। फागुन-वदी-चतुर्थी को, मोक्ष गये भगवान् | इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजौं धर ध्यानII मोहे राखो हो शरना | श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना | ओं ह्रीं श्रीं फाल्गुनकृष्ण-चतुर्थ्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५। जयमाला (दोहा) चौतीसों अतिशय-सहित, बाड़ा के भगवान् | जयमाला श्री-पद्म की, गाऊँ सुखद महान |१| (पद्धरि छन्द) जय पद्मनाथ परमात्मदेव, सुर जिनकी करते चरन-सेव | जय पद्म पद्मप्रभु तन रसाल, जय-जय करते मुनि-मन-विशाल |२| कौशाम्बी में तुम जन्म लीन, बाड़ा में बहु-अतिशय करीन | इक जाट-पुत्र ने जमीं खोद, पाया तुमको होकर समोद |३| सुनकर हर्षित हो भविक-वृंद, पूजा आकर की दु:ख-निकंद | करते दु:खियों का दु:ख दूर, हो नष्ट प्रेतबाधा जरूर |४| डाकिन शाकिन सब होय चूर्ण, अंधे हो जाते नेत्र-पूर्ण | श्रीपाल सेठ अंजन सुचोर, तारे तुमने उनको विभोर |५| अरु नकुल सर्प सीता समेत, तारे तुमने निजभक्त-हेत | हे संकटमोचन भक्तपाल, हमको भी तारो गुणविशाल |६| विनती करता हूँ बार-बार, होवे मेरा दु:ख क्षार-क्षार | सब मीणा गूजर जाट जैन, आकर पूजें कर तृप्त नैन |७| मन-वच-तन से पूजें जो कोय, पावें वे नर शिवसुख जु सोय | ऐसी महिमा तेरी दयाल, अब हम पर भी होओ कृपाल ||८|| ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। मेढ़ी में श्रीपद्म की, पूजा रची विशाल | हुआ रोग तब नष्ट सब, बिनवे ‘छोटेलाल’ || पूजा-विधि जानूँ नहीं, नहिं जानूँ आह्वान | भूल-चूक सब माफ कर, दया करो भगवान || |। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।
  2. पदम-राग-मनि-वरन-धरन, तनतुंग अढ़ाई | शतक दंड अघखंड, सकल सुर सेवत आई || धरनि तात विख्यात सु सीमाजू के नंदन | पदम चरन धरि राग सुथापौं इत करि वंदन || ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्रावतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथपद सार, पूजौं भाव सों | टेक | गंगाजल अति प्रासुक लीनों, सौरभ सकल मिलाय | मन वचन तन त्रयधार देत ही, जनम-जरा-मृतु जाय | पूजौं भाव सों, श्री पदमनाथ पद-सार, पूजौं भाव सों || ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| मलयागिर कपूर चंदन घसि, केशर रंग मिलाय | भवतपहरन चरन पर वारौं, मिथ्याताप मिटाय |पूजौं0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| तंदुल उज्ज्वल गंध अनी जुत, कनक थार भर लाय | पुंज धरौं तुव चरनन आगे, मोहि अखयपद दाय |पूजौं0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| पारिजात मदार कल्पतरु-जनित, सुमन शुचि लाय | समरशूल निरमूल-करनकों, तुम पद पद्म चढ़ाय | पूजौ0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| घेवर बावर आदि मनोहर, सद्य सजे शुचि लाय | क्षुधा रोग निर्वारन कारन, जजौं हरष उर लाय |पूजौं0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| दीपक ज्योति जगाय ललित वर, धूम रहित अभिराम | तिमिर मोह नाशन के कारन, जजौं चरन गुनधाम |पूजौं0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| कृष्णागर मलयगिर चंदन, चूर सुगंध बनाय | अगनि माहिं जारौं तुम आगे, अष्टकर्म जरि जाय |पूजौं0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| सुरस-वरन रसना मन भावन, पावन फल अधिकार | ता सों पूजौं जुगम चरन यह, विघम करम निरवार |पूजौं0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल फल आदि मिलाय गाय गुन, भगति भाव उमगाय | जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर, आवागमन मिटाय |पूजौं0 ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली असित माघ सु छट्ट बखानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये | ऊरध ग्रीवक सों चये राज जी, जजत इन्द्र जजैं हम आज भी || ॐ ह्रीं माघकृष्णा षष्ठीदिने गर्भ मंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेनद्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| आसित कार्तिक तेरस को जये, त्रिजग जीव सुआनंद को लये | नगर स्वर्ग समान कुसंबिका, जजतु हैं हरिसंजुत अंबिका || ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |2| असित तेरस कार्तिक भावनी, तप धर्यो वन षष्टम पावनी | करत आतमध्यान धुरंधरो, जजत हैं हम पाप सबै हरो || ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णा त्रयोदश्यां तपो मंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |3| शुकल-पूनम चैत सुहावनी, परम केवल सो दिन पावनी | सुर-सुरेश नरेश जजें तहां, हम जजें पद पंकज को इहां || ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला पूर्णिमायां केवलज्ञान प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |4| असित फागुन चौथ सुजानियो, सकलकर्म महारिपु हानियो | गिरसमेद थकी शिव को गये, हम जजें पद ध्यानविषै लये || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा चतुर्थीदिने मोक्षमंगल प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिने0 अर्घ्यं |5| जयमाला जय पद्मजिनेशा शिवसद्मेशा, पाद पद्म जजि पद्मेशा | जय भव तम भंजन, मुनिमम कंजन, रंजन को दिव साधेसा |1| चौपाई जय-जय जिन भविजन हितकारी, जय जय जिन भव सागर तारी | जय जय समवसरन धन धारी, जय जय वीतराग हितकारी |2| जय तुम सात तत्त्व विधि भाख्यौ, जय जय नवपदार्थ लखिआख्यो | जय षट्द्रव्य पंचजुतकाय, जय सब भेद सहित दरशाया |3| जय गुनथान जीव परमानो, पहिले महिं अनंत-जिव जानो | जय दूजे सासादन माहीं, तेरह कोड़ि जीव थित आहीं |4| जय तीजे मिश्रित गुणथाने, जीव सु बावन कोड़ि प्रमाने | जय चौथे अविरतिगुन जीवा, चार अधिक शत कोड़ि सदीवा |5| जय जिय देशावरत में शेषा, कोड़ि सात सा है थित वेशा | जय प्रमत्त षट्शून्य दोय वसु, नव तीन नव पांच जीवलसु |6| जय जय अपरमत्त दुइ कोरं, लक्ष छानवै सहस बहोरं | निन्यानवे एकशत तीना, ऐते मुनि तित रहहिं प्रवीना |7| जय जय अष्टम में दुइ धारा, आठ शतक सत्तानों सारा | उपशम में दुइ सौ निन्यानों, छपक माहिं तसु दूने जानों |8| जय इतने इतने हितकारी, नवें दशें जुगश्रेणी धारी | जय ग्यारें उपशम मगगामी, दुइ सौ निन्यानौं अधगामी |9| जयजय छीनमोह गुनथानो, मुनि शत पांच अधिक अट्ठानों | जय जय तेरह में अरिहंता, जुग नभपन वसु नव वसु तंता |10| एते राजतु हैं चतुरानन, हम वंदें पद थुतिकरि आनन | हैं अजोग गुन में जे देवा, मन सों ठानों करों सुसेवा |11| तित तिथि अ इ उ ऋ लृ भाषत, करिथित फिर शिव आनंद चाखत | ऐ उतकृष्ट सकल गुनथानी, तथा जघन मध्यम जे प्रानी |12| तीनों लोक सदन के वासी, निजगुन परज भेदमय राशी | तथा और द्रव्यन के जेते, गुन परजाय भेद हैं तेते |13| तीनों कालतने जु अनंता, सो तुम जानत जुगपत संता | सोई दिव्य वचन के द्वारे, दे उपदेश भविक उद्धारे |14| फेरी अचल थल बासा कीनो, गुन अनंत निजआनंद भीनो | चरम देह तें किंचित ऊनो, नर आकृति तित ह्वै नित गूनो |15| जय जय सिद्धदेव हितकारी, बार बार यह अरज हमारी | मोकों दुखसागर तें काढ़ो, वृन्दावन जांचतु है ठाड़ो |16| जय जय जिनचंदा पद्मानंदा, परम सुमति पद्माधारी | जय जनहितकारी दयाविचारी, जय जय जिनवर अविकारी || ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | जजत पद्म पद पद्म सद्म ताके सुपद्म अत | होत वृद्धि सुत मित्र सकल आनंदकंद शत || लहत स्वर्गपदराज, तहाँ तें चय इत आई | चक्री को सुख भोगि, अंत शिवराज कराई || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  3. संजम रतन विभूषन भूषित, दूषन वर्जित श्री जिनचन्द | सुमति रमा रंजन भवभंजन, संजययंत तजि मेरु नरिंद || मातु मंगला सकल मंगला, नगर विनीता जये अमंद | सो प्रभु दया सुधा रस गर्भित आय तिष्ठ इत हरो दुःख दंद |1| ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | पंचम उदधितनों सम उजज्वल, जल लीनों वरगंध मिलाय | कनक कटोरी माहिं धारि करि, धार देहु सुचि मन वच काय || हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय | तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय || ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| मलयागर घनसार घसौं वर, केशर अर करपूर मिलाय | भवतपहरन चरन पर वारौं, जनम जरा मृतु ताप पलाय ||हरि0 ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| शशिसम उज्ज्वल सहित गंधतल, दोनों अनी शुद्ध सुखदास | सौ लै अखय संपदा कारन, पुञ्ज धरौं तुम चरनन पास | हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय | तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय || ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| कमल केतकी बेल चमेली, करना अरु गुलाब महकाय | सो ले समरशूल छयकारन, जजौं चरन अति प्रीति लगाय ||हरि0 ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| नव्य गव्य पकवान बनाऊँ, सुरस देखि दृग मन ललचाय | सौ लै छुधारोग, धरौं चरण ढिग मन हरषाय ||हरि0 ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| रतन जड़ित अथवा घृतपूरित, वा कपूरमय जोति जगाय | दीप धरौं तुम चरनन आगे जातें केवलज्ञान लहाय ||हरि0 ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अगर तगर कृष्णागरु चंदन, चूरि अगनि में देत जराय | अष्टकरम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम धूम यह तासु उड़ाय ||हरि0 ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| श्रीफल मातुलिंग वर दाड़िम, आम निंबु फल प्रासुक लाय | मोक्ष महाफल चाखन कारन, पूजत हौं तुमरे जुग पाय ||हरि0 ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलाय | नाचि राचि शिरनाय समरचौं, जय जय जय 2 जिनराय ||हरि0 ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली संजयंत तजि गरभ पधारे, सावनसेत दुतिय सुखकारे | रहे अलिप्त मुकुर जिमि छाया, जजौं चरन जय 2 जिनराया || ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला द्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| चैत सुकल ग्यारस कहँ जानो, जनमे सुमति त्रयज्ञानों | मानों धर्यो धरम अवतारा, जजौं चरनजुग अष्ट प्रकासा || ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |2| बैशाख सुकल नौमि भाखा, ता दिन तप धरि निज रस चाखा | पारन पद्म सद्म पय कीनों, जजत चरन हम समता भीनों || ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला नवम्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |3| सुकल चैत एकादश हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने | समवसरनमँह कहि वृष सारं, जजहुं अनंत चतुष्टयधारं || ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञान कल्याणकप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |4| चैत सुकल ग्यारस निरवानं, गिरि समेद तें त्रिभुवन मानं | गुन अनन्त निज निरमल धारी, जजौं देव सुधि लेहु हमारी || ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |5| जयमाला दोहाः- सुमति तीन सौ छत्तीसौं, सुमति भेद दरसाय | सुमति देहु विनती करौं, सु मति विलम्ब कराय |1| दयाबेलि तहँ सुगुननिधि, भविक मोद-गण-चन्द | सुमतिसतीपति सुमति कों, ध्यावौं धरि आनन्द |2| पचं परावरतन हरन, पंच सुमति सिर देन | पंच लब्धि दातार के, गुन गाऊँ दिन रैन |3| पिता मेघराजा सबै सिद्ध काजा, जपें नाम ता को सबै दुःखभाजा | महासुर इक्ष्वाकुवंशी विराजे, गुणग्राम जाकौ सबै ठौर छाजै |4| तिन्हों के महापुण्य सों आप जाये, तिहुँलोक में जीव आनन्द पाये | सुनासीर ताही धरी मेरु धायो, क्रिया जन्म की सर्व कीनी यथा यों |5| बहुरि तातकों सौंपि संगीत कीनों, नमें हाथ जोरी भलीभक्ति भीनों | बिताई दशै लाख ही पूर्व बालै, प्रजा उन्तीस ही पूर्व पालै |6| कछु हेतु तें भावना बारा भाये, तहाँ ब्रह्मलोकान्त देव आये | गये बोधि ताही समै इन्द्र आयो, धरे पालकी में सु उद्यान ल्यायो |7| नमः सिद्ध कहि केशलोंचे सबै ही, धर्यो ध्यान शुद्धं जु घाती हने ही | लह्यो केवलं औ समोसर्न साजं, गणाधीश जु एक सौ सोल राजं |8| खिरै शब्द ता में छहौं द्रव्य धारे, गुनौपर्ज उत्पाद व्यय ध्रौव्य सारे | तथा कर्म आठों तनी थिति गाजं, मिले जासु के नाश तें मोच्छराजं |9| धरें मोहिनी सत्तरं कोड़कोड़ी, सरित्पत्प्रमाणं थिति दीर्घ जोड़ी | अवर्ज्ञान दृग्वेदिनी अन्तरायं, धरें तीस कोड़ाकुड़ि सिन्धुकायं |10| तथा नाम गोतं कुड़ाकोड़ि बीसं, समुद्र प्रमाणं धरें सत्तईसं | सु तैतीस अब्धि धरें आयु अब्धिं, कहें सर्व कर्मों तनी वृद्धलब्धिं |11| जघन्यं प्रकारे धरे भेद ये ही, मुहूर्तं वसू नामं-गोतं गने ही | तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं, सुअन्तर्मुहूर्त्तं धरें थित्ति गायं |12| तथा वेदनी बारहें ही मुहुर्तं, धरैं थित्ति ऐसे भन्यो न्यायजुत्तं | इन्हें आदि तत्वार्थ भाख्यो अशेसा, लह्यो फेरि निर्वाण मांहीं प्रवेसा |13| अनन्तं महन्तं सुरंतं सुतंतं, अमन्दं अफन्दं अनन्तं अभन्तं | अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं, अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्षं |14| अवर्णं सुवर्णं अमर्णं अकर्णं, अभर्णं अतर्णं अशर्णं सुशर्णं | अनेकं सदेकं चिदेकं विवेकं, अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं सदेकं |15| सुपर्मं सुधर्मं सुशर्मं अकर्मं, अनन्तं गुनाराम जयवन्त धर्मं | नमें दास वृन्दावनं शर्न आई, सबै दुःख तें मोहि लीजे छुड़ाई |16| घत्ता- तुम सुगुन अनन्ता घ्यावत सन्ता, भ्रमतम भंजन मार्तंडा | सतमत करचंडा भवि कज मंडा, कुमति-कुबल-भन गन हंडा || ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा || सुमति चरन जो जजैं भविक जन मनवचकाई | तासु सकल दुख दंद फंद ततछिन छय जाई || पुत्र मित्र धन धान्य शर्म अनुपम सो पावै | वृन्दावन निर्वाण लहे निहचै जो ध्यावै || इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  4. छन्द अभिनन्दन आनन्दकंद, सिद्धारथनन्दन | संवर पिता दिनन्द चन्द, जिहिं आवत वन्दन || नगर अयोध्या जनम इन्द, नागिंद जु ध्यावें | तिन्हें जजन के हेत थापि, हम मंगल गावें |1| ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र मम सभिहितो भव भव वषट् | छन्द गीता, हरिगीता तथा रुपमाला पदमद्रहगत गंगचंग, अंभग-धार सु धार है | कनकमणि नगजड़ित झारी, द्वार धार निकार है || कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं | पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं || ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| शीतल चन्दन कदलि नन्दन, जल सु संग घसाय के | होय सुगंध दशों दिशा में, भ्रमें मधुकर आय के ||क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| हीर हिम शशि फेन मुक्ता सरिस तंदुल सेत हैं | तास को ढिग पुञ्ज धारौं अक्षयपद के हेत हैं ||क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| समर सुभट निघटन कारन सुमन सु मन समान | सुरभि तें जा पे करें झंकार मधुकर आन हैं ||क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| सरस ताजे नव्य गव्य मनोज्ञ चितहर लेय जी | छुधाछेदन छिमा छितिपति के चरन चरचेय जी ||क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| अतत तम-मर्दन किरनवर, बोधभानु-विकाश है | तुम चरनढिग दीपक धरौं, मो कों स्वपर प्रकाश है |क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| भुर अगर कपूर चुर सुगंध, अगिनि जराय है | सब करमकाष्ठ सु काटने मिस, धूम धूम उड़ाय है |क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| आम निंबु सदा फलादिक, पक्व पावन आन जी | मोक्षफल के हेत पूजौं, जोरि के जुग पान जी ||क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही | नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही ||क0 ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली शुकल छट्ट वैशाख विषै तजि, आये श्री जिनदेव | सिद्धारथा माता के उर में, करे सची शुचि सेव || रतन वृष्टि आदिक वर मंगल, होत अनेक प्रकार | ऐसे गुननिधि को मैं पूजौं, ध्यावौं बारम्बार || ॐ ह्री वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |1| माघ शुकल तिथि द्वादशि के दिन, तीन लोक हितकार | अभिनन्दन आनन्दकंद तुम, लिनो जग अवतार || एक महूरत नरकमांहि हू, पायो सब जिय चैन | कनकवरन कपि-चिह्न-धरन पद जजौं तुम्हें दिन रैन || ॐ ह्रीं माघशुक्ला द्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |2| साढ़े छत्तिस लाख सुपूरब, राज भोग वर भोग | कछु कारन लखि माघ शुकल, द्वादशि को धार् यो जोग || षष्टम नियम समापत करि, लिय इंद्रदत्त घर छीर | जय धुनि पुष्प रतन गंधोदक, वृष्टि सुगंध समीर || ॐ ह्रीं माघशुक्ला द्वादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |3| पौष शुक्ल चौदशि को घाते, घाति करम दुखदाय | उपजायो वर बोध जास को, केवल नाम कहाय || समवसन लहि बोधि धरम कहि, भव्य जीव सुखकन्द | मो कों भवसागर तें तारो, जय जय जय अभिनन्द || ॐ ह्रीं पौषशुक्ला चतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |4| जोग निरोग अघातिघाति लहि, गिर समेद तें मोख | मास सकल सुखरास कहे, बैशाख शुकल छठ चोख || चतुरनिकाय आय तित कीनी, भगति भाव उमगाय | हम पूजत इत अरघ लेय जिमि, विघन सघन मिट जाय || ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहाः- तुंग सु तन धनु तीन सौ, औ पचास सुख धाम | कनक वरन अवलौकि के, पुनि पुनि करुं प्रणाम |1| सच्चिदानन्द सद्ज्ञान सद्दर्शनी, सत्स्वरुपा लई सत्सुधा सर्सनी | सर्वाआनन्दाकंदा महादेवा, जास पादाब्ज सेवैं सबै देवता |2| गर्भ औ जन्म निःकर्म कल्यान में, सत्व को शर्म पूरे सबै थान में | वंश इक्ष्वाकु में आप ऐसे भये, ज्यों निशा शर्द में इन्दु स्वेच्छै ठये |3| होत वैराग लौकांतुर बोधियो, फेरि शिविकासु चढ़ि गहन निज सोधियो | घाति चौघातिया ज्ञान केवल भयो, समवसरनादि धनदेव तब निरमयो |4| एक है इन्द्र नीली शिला रत्न की, गोल साढ़ेदशै जोजने रत्न की | चारदिश पैड़िका बीस हज्जार है, रत्न के चूर का कोट निरधार है |5| कोट चहुंओर चहुंद्वार तोरन खँचे, तास आगे चहूं मानथंभा रचे | मान मानी तजैं जास ढिग जाय के, नम्रता धार सेवें तुम्हें आय के |6| बिंब सिंहासनों पै जहां सोहहीं, इन्द्रनागेन्द्र केते मने मोहहीं | वापिका वारिसों जत्र सोहे भरी, जास में न्हात ही पाप जावै टरी |7| तास आगे भरी खातिका वारि सों, हंस सूआदि पंखी रमैं प्यार सों | पुष्प की वाटिका बाग वृक्षें जहां, फूल औ श्री फले सर्व ही हैं तहां |8| कोट सौवर्ण का तास आगे खड़ा, चार दर्वाज चौ ओर रत्नों जड़ा | चार उद्यान चारों दिशा में गना, है धुजापंक्ति और नाट्यशाला बना |9| तासु आगें त्रिती कोट रुपामयी, तूप नौ जास चारों दिशा में ठयी | धाम सिद्धान्त धारीनके हैं जहां, औ सभाभूमि है भव्य तिष्ठें तहां |10| तास आगे रची गन्धकूटी महा, तीन है कट्टिनी चारु शोभा लहा | एक पै तौ निधैं ही धरी ख्यात हैं, भव्य प्रानी तहां लो सबै जात हैं |11| दूसरी पीठ पै चक्रधारी गमै, तीसरे प्रातिहारज लशै भाग में | तास पै वेदिका चार थंभान की, है बनी सर्व कल्यान के खान की |12| तासु पै हैं सुसिंघासनं भासनं, जासु पै पद्म प्राफुल्ल है आसनं | तासु पै अन्तरीक्षं विराजै सही, तीन छत्रे फिरें शीस रत्ने यही |13| वृक्ष शोकापहारी अशोकं लसै, दुन्दुभी नाद औ पुष्प खंते खसै | देह की ज्योतिसों मण्डलाकार है, सात सौ भव्य ता में लखेंसार है |14| दिव्य वानी खिरे सर्व शंका हरे, श्री गनाधीश झेलें सु शक्ति धरे | धर्मचक्री तुही कर्मचक्री हने, सर्वशक्री नमें मोद धारे घने |15| भव्य को बोधि सम्मेदतें शिव गये, तत्र इन्द्रादि पूजै सु भक्तिमये | हे कृपासिंधु मो पै कृपा धारिये, घोर संसार सों शीघ्र मो तारिये |16| छन्दः- जय जय अभिनन्दा आनंदकंदा, भव समुन्द्र वर पोत इवा | भ्रम तम शतखंडा, भानुप्रचंडा, तारि तारि जग रैन दिवा |17| ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | श्रीअभिनन्दन पाप निकन्दन तिन पद जो भवि जजै सु धहर | ता के पुन्य भानु वर उग्गे दुरित तिमिर फाटै दुखकार || पुत्र मित्र धन धान्य कमल यह विकसै सुखद जगतहित प्यार | कछुक काल में सो शिव पावै, पढ़ै सुने जिन जजै निहार |18| इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  5. जय संभव जिनचन्द्र सदा हरिगनचकोरनुत | जयसेना जसु मातु जैति राजा जितारिसुत || तजि ग्रीवक लिय जन्म नगर श्रावस्ती आई | सो भव भंजन हेत भगत पर होहु सहाई |1| ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | अष्टक छन्द चौबोला तथा अनेक रागों में गाया जाता है | मुनि मन सम उज्ज्वल जल लेकर, कनक कटोरी में धार | जनम जरा मृतु नाश करन कों, तुम पदतर ढारों धारा || संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे | निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे || ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| तपत दाह को कन्दन चंदन मलयागिरि को घसि लायो | जगवंदन भौफंदन खंदन समरथ लखि शरनै आयो || संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे | निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे || ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| देवजीर सुखदास कमलवासित, सित सुन्दर अनियारे | पुंज धरौं जिन चरनन आगे, लहौं अखयपद कों प्यारे ||सं0 ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| कमल केतकी बेल चमेली, चंपा जूही सुमन वरा | ता सों पूजत श्रीपति तुम पद, मदन बान विध्वंस करा ||सं0 ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| घेवर बावर मोदन मोदक, खाजा ताजा सरस बना | ता सों पद श्रीपति को पूजत, क्षुधा रोग ततकाल हना ||सं0 ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| घटपट परकाशक भ्रमतम नाशक, तुमढिग ऐसो दीप धरौं | केवल जोत उदोत होहु मोहि, यही सदा अरदास करौं ||सं0 ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अगर तगर कृष्नागर श्रीखंडादिक चूर हुतासन में | खेवत हौं तुम चरन जलज ढिग, कर्म छार जरिह्रै छन में ||सं0 ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला पिस्ता दाख रमैं | लै फल प्रासुक पूजौं तुम पद देहु अखयपद नाथ हमैं ||सं0 ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया | तुमको अरपौं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया || संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे | निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे || ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली माता गर्भ विषै जिन आय, फागुन सित आठैं सुखदाय | सेयो सुर-तिय छप्पन वृन्द, नाना विधि मैं जजौं जिनन्द || ॐ ह्रीं फाल्गुन शुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |1| कार्तिक सित पूनम तिथि जान, तीन ज्ञान जुत जनम प्रमाण | धरि गिरि राज जजे सुरराज, तिन्हें जजौं मैं निज हित काज || ॐ ह्रीं कार्तिक शुक्ला पूर्णिमायां जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |2| मंगसिर सित पून्यों तप धार, सकल संग तजि जिन अनगार | ध्यानादिक बल जीते कर्म, चचौं चरन देहु शिवशर्म || ॐ ह्रीं मार्गशीर्षपूर्णिमायां तपकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |3| कार्तिक कलि तिथि चौथ महान, घाति घात लिय केवल ज्ञान | समवशरनमहँ तिष्ठे देव, तुरिय चिह्न चचौं वसुभेव || ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाचतुर्थी ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |4| चैतशुक्ल तिथि षष्ठी चोख, गिरिसम्मेदतें लीनों मोख | चार शतक धनु अवगाहना, जजौं तास पद थुति कर घना || ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ला षष्ठीदिने मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला दोहाः- श्री संभव के गुन अगम, कहि न सकत सुरराज | मैं वश भक्ति सु धीठ ह्वै, विनवौं निजहित काज |1| जिनेश महेश गुणेश गरिष्ट, सुरासुर सेवित इष्ट वरिष्ट | धरे वृषचक्र करे अघ चूर, अतत्व छपातम मर्द्दन सूर |2| सुतत्त्व प्रकाशन शासन शुद्ध, विवेक विराग बढ़ावन बुद्ध | दया तरु तर्पन मेघ महान, कुनय गिरि गंजन वज्र समान |3| सुगर्भरु जन्म महोत्सव मांहि, जगज्जन आनन्दकन्द लहाहिं | सुपूरब साठहि लच्छ जु आय, कुमार चतुर्थम अंश रमाय |4| चवालिस लाख सुपूरब एव, निकंटक राज कियो जिनदेव | तजे कछु कारन पाय सु राज, धरे व्रत संजम आतम काज |5| सुरेन्द्र नरेन्द्र दियो पयदान, धरे वन में निज आतम ध्यान | किया चव घातिय कर्म विनाश, लयो तब केवलज्ञान प्रकाश |6| भई समवसृति ठाट अपार, खिरै धुनि झेलहिं श्री गणधार | भने षट्-द्रव्य तने विसतार, चहूँ अनुयोग अनेक प्रकार |7| कहें पुनि त्रेपन भाव विशेष, उभै विधि हैं उपशम्य जुभेष | सुसम्यकचारित्र भेद-स्वरुप, भये इमि छायक नौ सु अनूप |8| दृगौ बुधि सम्यक चारितदान, सुलाभ रु भोगुपभोगप्रमाण | सुवीरज संजुत ए नव जान, अठार छयोपशम इम प्रमान |9| मति श्रुत औधि उभै विधि जान, मनःपरजै चखु और प्रमान | अचक्खु तथा विधि दान रु लाभ, सुभोगुपभोग रु वीरजसाभ |10| व्रताव्रत संजम और सु धार, धरे गुन सम्यक चारित भार | भए वसु एक समापत येह, इक्कीस उदीक सुनो अब जेह |11| चहुँ गति चारि कषाय तिवेद, छह लेश्या और अज्ञान विभेद | असंजम भाव लखो इस माहिं, असिद्धित और अतत्त कहाहिं |12| भये इकबीस सुनो अब और, सुभेदत्रियं पारिनामिक ठौर | सुजीवित भव्यत और अभव्व, तरेपन एम भने जिन सव्व |13| तिन्हो मँह केतक त्यागन जोग, कितेक गहे तें मिटे भव रोग | कह्यो इन आदि लह्यो फिर मोख, अनन्त गुनातम मंडित चोख |14| जजौं तुम पाय जपौं गुनसार, प्रभु हमको भवसागर तार | गही शरनागत दीनदयाल, विलम्ब करो मति हे गुनमाल |15| घताः- जै जै भव भंजन जन मन रंजन, दया धुरंधर कुमतिहरा | वृन्दावन वंदत मन आनन्दित, दीजै आतम ज्ञान वरा || ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |16| जो बांचे यह पाठ सरस संभव तनो | सो पावे धनधान्य सरस सम्पति घनो || सकल पाप छय जाय सुजस जग में बढ़े | पूजत सुर पद होय अनुक्रम शिव चढ़े |17| इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  6. त्याग वैजयन्त सार सार-धर्म के अधार, जन्मधार धीर नम्र सुष्टु कौशलापुरी | अष्ट दुष्ट नष्टकार मातु वैजयाकुमार, आयु लक्षपूर्व दक्ष है बहत्तरैपुरी || ते जिनेश श्री महेश शत्रु के निकन्दनेश, अत्र हेरिये सुदृष्टि भक्त पै कृपा पुरी | आय तिष्ठ इष्टदेव मैं करौं पदाब्जसेव, परम शर्मदाय पाय आय शर्न आपुरी || ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्रावतरावतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | अष्टक गंगाह्रदपानी निर्मल आनी, सौरभ सानी सीतानी | तसु धारत धारा तृषा निवारा, शांतागारा सुखदानी || श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं | मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं || ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| शुचि चंदन बावन ताप मिटावन, सौरभ पावन घसि ल्यायो | तुम भवतपभंजन हो शिवरंजन, पूजन रंजन मैं आयो || श्री0 ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| सितखंड विवर्जित निशिपति तर्जित, पुंज विधर्जित तंदुल को | भवभाव निखर्जित शिवपदसर्जित, आनंदभर्जित दंदल को || श्री0 ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| मनमथ-मद-मंथन धीरज-ग्रंथन, ग्रंथ-निग्रंथन ग्रंथपति | तुअ पाद कुसेसे आधि कुशेसे, धारि अशेसे अर्चयती || श्री0 ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| आकुल कुलवारन थिरताकारन, क्षुधाविदारन चरु लायो | षट् रस कर भीने अन्न नवीने, पूजन कीने सुख पायो || श्री0 ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5| दीपक-मनि-माला जोत उजाला, भरि कनथाला हाथ लिया | तुम भ्रमतम हारी शिवसुख कारी, केवलधारी पूज किया | श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं | मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं || ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अगरादिक चूरन परिमल पूरन, खेवत क्रूरन कर्म जरें | दशहूं दिश धावत हर्ष बढ़ावत, अलि गुण गावत नृत्य करें || श्री0 ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| बादाम नंरगी श्रीफल पुंगी आदि अभंगी सों अरचौं | सब विघनविनाशे सुख प्रकाशै, आतम भासै भौ विरचौं ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जलफल सब सज्जे, बाजत बज्जै, गुनगनरज्जे मनमज्जे | तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै, ते भवभज्जै निजकज्जै ||श्री0 ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंच कल्याणक अर्घ्यावली जेठ असेत अमावशि सोहे, गर्भदिना नँद सो मन मोहे | इंद फनिंद जजे मनलाई, हम पद पूजत अर्घा चढ़ाई || ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णा-अमावस्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |1| माघ सुदी दशमी दिन जाये, त्रिभुवन में अति हरष बढ़ाये | इन्द फनिंद जजें तित आई, हम इत सेवत हैं हुलशाई || ॐ ह्रीं माघशुक्ला दशमीदिने जन्मंगलप्राप्ताय श्रीअजित0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |2| माघ सुदी दशमी तप धारा, भव तन भोग अनित्य विचारा | इन्द फनिंद जजैं तित आई, हम इत सेवत हैं सिरनाई || ॐ ह्रीं माघशुक्ला दशमीदिने दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजित0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |3| पौषसुदी तिथि ग्यारस सुहायो, त्रिभुवनभानु सु केवल जायो | इन्द फनिंद जजैं आई, हम पद पूजत प्रीति लगाई || ॐ ह्रीं पौषशुक्लाएकादशीदिनेज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीअजित0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |4| पंचमि चैतसुदी निरवाना, निजगुनराज लियो भगवाना | इन्द फनिंद जजैं तित आई, हम पद पूजत हैं गुनगाई || ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ला पंचमीदिने निर्वाणमंगलप्राप्ताय श्रीअजित0 अर्घ्यं0 |5| जयमाला दोहाः- अष्ट दुष्टको नष्ट करि इष्टमिष्ट निज पाय | शिष्ट धर्म भाख्यो हमें पुष्ट करो जिनराय |1| जय अजित देव तुअ गुन अपार, पै कहूँ कछुक लघु बुद्धि धार | दश जनमत अतिशय बल अनन्त, शुभ लच्छन मधुबचन भनंत |2| संहनन प्रथम मलरहित देह, तन सौरभ शोणित स्वेत जेह | वपु स्वेदबिना महरुप धार, समचतुर धरें संठान चार |3| दश केवल, गमन अकाशदेव, सुरभिच्छ रहै योजन सतेव | उपसर्गरहित जिनतन सु होय, सब जीव रहित बाधा सुजोय |4| मुख चारि सरबविद्या अधीश, कवलाअहार सुवर्जित गरीश | छायाबिनु नख कच बढ़ै नाहिं, उन्मेश टमक नहिं भ्रकुटि माहिं |5| सुरकृत दशचार करों बखान, सब जीवमित्रता भाव जान | कंटक विन दर्पणवत सुभूम, सब धान वृच्छ फल रहै झूम |6| षटरितु के फूल फले निहार, दिशि निर्मल जिय आनन्द धार | जंह शीतल मंद सुगंध वाय, पद पंकज तल पंकज रचाय |7| मलरहित गगन सुर जय उचार, वरषा गन्धोदक होत सार | वर धर्मचक्र आगे चलाय, वसु मंगलजुत यह सुर रचाय |8| सिंहासन छत्र चमर सुहात, भामंडल छवि वरनी न जात | तरु उच्च अशोक रु सुमनवृष्टि, धुनि दिव्य और दुन्दुभि सुमिष्ट |9| हग ज्ञान शर्म वीरज अनन्त, गुण छियालीस इम तुम लहन्त | इन आदि अनन्ते सुगुनधार, वरनत गनपति नहिं लहत पार |10| तब समवशरणमँह इन्द्र आय, पद पूजन बसुविधि दरब लाय | अति भगति सहित नाटक रचाय, ताथेई थेई थेई धुनि रही छाय |11| पग नूपुर झननन झनननाय, तननननन तननन तान गाय | घननन नन नन घण्टा घनाय, छम छम छम छम घुंघरु बजाय |12| द्रम द्रम द्रम द्रम द्रम मुरज ध्वान, संसाग्रदि सरंगी सुर भरत तान | झट झट झट अटपट नटत नाट, इत्यादि रच्यो अद्भुत सुठाट |13| पुनि वन्दि इन्द्र सुनुति करन्त, तुम हो जगमें जयवन्त सन्त | फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग निरोध्यो परम इष्ट |14| सम्मेदथकी तिय मुकति थान, जय सिद्धशिरोमन गुननिधान | वृन्दावन वन्दत बारबार, भवसागरतें मोहि तार तार |15| जय अजित कृपाला गुणमणिमाला, संजमशाला बोधपति | वर सुजस उजाला हीरहिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती |16| ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा | जो जन अजित जिनेश जजें हैं, मनवचकाई | ताकों होय अनन्द ज्ञान सम्पति सुखदाई || पुत्र मित्र धनधान्य, सुजस त्रिभुवनमहँ छावे | सकल शत्रु छय जाय अनुक्रमसों शिव पावे |17| इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्) |
  7. अडिल्ल परमपूज्य वृषभेष स्वयंभू देवजू | पिता नाभि मरुदेवि करें सुर सेवजू || कनक वरण तन-तुंग धनुष पनशत तनो | कृपासिंधु इत आइ तिष्ठ मम दुख हनो |1| ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् | ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र तिष्ठ ठः ठः | ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् | हिमवनोद् भव वारि सु धारिके, जजत हौं गुनबोध उचारिके | परमभाव सुखोदधि दीजिये, जन्ममृत्यु जरा क्षय कीजिये || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1| मलय चन्दन दाहनिकन्दनं, घसि उभै कर में करि वन्दनं | जजत हौं प्रशमाश्रय दीजिये, तपत ताप तृषा छय कीजिये || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2| अमल तन्दुल खंडविवर्जितं, सित निशेष महिमामियतर्जितं | जजत हौं तसु पुंज धरायजी, अखय संपति द्यो जिनरायजी || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3| कमल चंपक केतकि लीजिये, मदनभंजन भेंट धरीजिये | परमशील महा सुखदाय हैं, समरसूल निमूल नशाय हैं || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4| सरस मोदनमोदक लीजिये, हरनभूख जिनेश जजीजिये | सकल आकुल अंतकहेतु हैं, अतुल शांत सुधारस देतु हैं || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय क्षुधादिरोगविनाशनाय नैवेद्यं नि0स्वाहा |5| निविड़ मोह महातम छाइयो, स्वपर भेद न मोहि लखाइयो | हरनकारण दीपक तासके, जजत हौं पद केवल भासके || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6| अगर चन्दन आदिक लेय के, परम पावन गंध सु खेय के | अगनिसंग जरें मिस धूम के, सकल कर्म उड़े यह घूम के || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7| सुरस पक्व मनोहर पावने, विविध ले फल पूज रचावने | त्रिजगनाथ कृपा अब कीजिये, हमहिं मोक्ष महाफल दीजिये || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8| जलफलादि समस्त मिलायके, जजत हौं पद मंगल गायके | भगत वत्सल दीन दयालजी, करहु मोहि सुखी लखि हालजी || ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9| पंचकल्याणक अर्घ्यावली असित दोज आषाढ़ सुहावनो, गरभ मंगल को दिन पावनो | हरि सची पितुमातहिं सेवही, जजत हैं हम श्री जिनदेव ही || ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णा द्वितीयादिने गर्भमगंलप्राप्ताय श्री वृषभदेवाय अर्घ्य नि0 |1| असित चैत सु नौमि सुहाइयो, जनम मंगल ता दिन पाइयो | हरि महागिरिपे जजियो तबै, हम जजें पद पंकज को अबै || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने जन्ममगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्य नि0 |2| असित नौमि सु चैत धरे सही, तप विशुद्ध सबै समता गही | निज सुधारस सों भर लाइके, हम जजें पद अर्घ चढ़ाइके || ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा नवमीदिने दीक्षामगंलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं नि0 |3| असित फागुन ग्यारसि सोहनों, परम केवलज्ञान जग्यो भनौं | हरि समूह जजें तहँ आइके, हम जजें इत मंगल गाइके || ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं नि0 |4| असित चौदसि माघ विराजई, परम मोक्ष सुमंगल साजई | हरि समूह जजें कैलाशजी, हम जजें अति धार हुलास जी || ॐ ह्रीं माघकृष्णा चतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीवृषभदेवाय अर्घ्यं नि0 |5| जयमाला जय जय जिनचन्दा आदि जिनन्दा, हनि भवफन्दा कन्दा जू | वासव शतवंदा धरि आनन्दा, ज्ञान अमंदा नन्दा जू |1| त्रिलोक हितंकर पूरन पर्म, प्रजापति विष्णु चिदातम धर्म | जतीसुर ब्रह्मविदाबंर बुद्ध, वृषंक अशंक क्रियाम्बुधि शुद्ध |2| जबै गर्भागम मंगल जान, तबै हरि हर्ष हिये अति आन | पिता जजनी पद सेव करेय, अनेक प्रकार उमंग भरेय |3| जन्मे जब ही तब ही हरि आय, गिरेन्द्रविषै किय न्हौन सुजाय | नियोग समस्त किये तित सार, सु लाय प्रभू पुनि राज अगार |4| पिता कर सौंपि कियो तित नाट, अमंद अनंद समेत विराट | सुथान पयान कियो फिर इंद, इहां सुर सेव करें जिनचन्द |5| कियौ चिरकाल सुखाश्रित राज, प्रजा सब आनँद को तित साज | सुलिप्त सुभोगिनि में लखि जोग, कियो हरि ने यह उत्तम योग |6| निलंजन नाच रच्यो तुम पास, नवों रस पूरित भाव विलास | बजै मिरदंग दृम दृम जोर, चले पग झारि झनांझन जोर |7| घना घन घंट करे धुनि मिष्ट, बजै मुहचंग सुरान्वित पुष्ट | खड़ी छिनपास छिनहि आकाश, लघु छिन दीरघ आदि विलास |8| ततच्छन ताहि विलै अविलोय, भये भवतैं भवभीत बहोय | सुभावत भावन बारह भाय, तहां दिव ब्रह्म रिषीश्वर आय |9| प्रबोध प्रभू सु गये निज धाम, तबे हरि आय रची शिवकाम | कियो कचलौंच प्रयाग अरण्य, चतुर्थम ज्ञान लह्यो जग धन्य |10| धर् यो तब योग छमास प्रमान, दियो श्रेयांस तिन्हें इखु दान | भयो जब केवलज्ञान जिनेंद्र, समोसृत ठाठ रच्यो सु धनेंद्र |11| तहां वृष तत्व प्रकाशि अशेष, कियो फिर निर्भय थान प्रवेश | अनन्त गुनातम श्री सुखराश, तुम्हें नित भव्य नमें शिव आश |12| यह अरज हमारी सुन त्रिपुरारी, जन्म जरा मृतु दूर करो | शिवसंपति दीजे ढील न कीजे, निज लख लीजे कृपा धरो |13| ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेवजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा || जो ऋषभेश्वर पूजे, मनवचतन भाव शुद्ध कर प्रानी | सो पावै निश्चै सों, भुक्ति औ मुक्ति सार सुख थानी |14| इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
  8. (छंद जोगीरासा) नाभिराय मरुदेवी के नंदन, हो अतिशय के धारी | कैलास-शैल से मोक्ष पधारे, जन-जन मंगलकारी || संवत् पाँच सौ बारह में हुर्इ, प्रतिष्ठा शिवपद-धारी | बारा-पाटी से आन विराजे, चाँदखेड़ी अविकारी || जाना था सांगोद गए नहीं, बैल जुड़े थे भारी | किशनदास लाए कोटा के, थे दीवान सरकारी || आह्वानन करता हूँ प्रभु का, जय-जय अतिशयधारी | अत्रो अत्रो तिष्ठो! तिष्ठो! सन्निधिकरण सुखकारी || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट् (आह्वाननम्)! ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)! ओं ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)! (शंभु छन्द) भव-भव में जल पीते-पीते, अब तक तृषा ना शांत हुर्इ | मुनि-मन-सम जल से पूजूँ प्रभु! मन में इच्छा आज हुर्इ || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१। तन-धन-जन की चाह-दाह, भव-भव में भ्रमण कराती है | चंदन से पूजन करके, मन शीतलता छा जाती है || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२। कर्मों ने निज-आतम को तो, भव-वन में भटकाया है | अक्षत से अक्षय-सुख पाने, पूजन आज रचाया है || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३। नाथ आपकी निश-दिन पूजा, मन को निर्मल करती है | श्रद्धा-सुमन चढ़ाने से, भव-काम-वासना टलती है || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४। छह मास किया उपवास प्रभु ने, आतम-बल प्रगटाने को | करता हूँ पकवान समर्पित, व्याधि-क्षुधा मिटाने को || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५। यह दीपशिखा जगमग करती, होता बाहर में उजियारा | अब अन्तर-लौ से ज्ञान जगे, मिट जाए मोह का अँधियारा || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६। अष्टकर्म के नाशन को मैं, खेता धूप-दशांग प्रभो | मन-वच-काय से तुम पद पूजूँ, गुण-समूह से युक्त विभो || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७। निज रत्नत्रय-निधि पाने को, मैं शरण तुम्हारी आया हूँ | मुक्ति मिले भव-भ्रमण टले, इस हेतु विविध-फल लाया हूँ || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८। बारह भावना भाता हूँ कि, मरण-समाधि मैं पाऊँ | अर्पित करके ‘रूप’ अर्घ, मम आत्मज्ञान को प्रगटाऊँ || हे चाँदखेड़ी के आदिनाथ प्रभु! तुम पद-पूजा करता हूँ | तुम सम शक्ति मुझको भी मिले, शीश चरण में धरता हूँ || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९। (पंच-कल्याणक अर्घ्यावली) (नरेंद्र छंद) आषाढ़-वदी-दोयज को माता-मरुदेवी-उदर में आए | रत्नों की वर्षा हुर्इ अनूपम, इन्द्रासन-कम्पाये || ओं ह्रीं आषाढ़कृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१। चैत-वदी-नवमी को प्रभु ने, जन्म लिया भवतारी | सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी दोनों, उत्सव करते अति भारी || ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-नवम्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।२। नीलांजना-निधन को देख, वैराग्य-भावना भार्इ | दुर्द्धर-तप धारा जब प्रभु ने, चैत्र-वदी-नवमी आर्इ || ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-नवम्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३। फाल्गुन-कृष्ण-एकादशी को, जिनवर को केवलज्ञान हुआ | धर्म-देशना की वाणी से, भव्यों का कल्याण हुआ || ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्ण-एकादश्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।४। अष्टापद कैलाशगिरि से, प्रभु ने पाया था निर्वाण | घर-घर-मंगलाचार हुए थे, माघ-वदी-चौदस को महान || ओं ह्रीं माघकृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५। जयमाला (शंभु छन्द) माघ-सुदी-छठ उत्तम संवत्, सत्रह सौ छियालीस | पंच-कल्याणक में जगत्-कीर्तिजी, ने दी शुभ-आशीष || (दोहा) तहसील ‘खानपुर’ से लगा, ‘चाँदखेड़ी’ एक ग्राम | रूपेली-तट पर बना, आदि-जिनेश्वर-धाम || (शंभु छन्द) गुफा के मध्य विराजे स्वामी, प्रभु-महिमा अतिशयकारी | शिल्पकला मोहित करती, प्रभु-प्रतिमा है जन मनहारी || एक बार जो दर्शन पाता, बार-बार आने को कहता | शांति-सुधा पीने को मिलती, बैठ सामने सुमिरन करता || वीतराग-छवि है प्रभुवर की, शांतमूर्ति अभिराम | अर्चन-पूजन से होते हैं, सफल मनोरथ काम || नाथ आपके दर्शन से, अज्ञान-तिमिर हो दूर | क्रोध-मान-माया-लालच भी, क्षणभर में हों चूर || आत्मशांति की इस बेला में, रत्नत्रय धारण कर | छुटकारा हो भव-बंधन से, मन-वच-तन वश में कर || दशलक्षण-धर्मों को धारें, जन-जन में कोर्इ भेद नहीं | विश्वधर्म यह तो सबका, जैनों का ही अधिकार नहीं || मुनिनायक योगीश्वर हैं प्रभु, विमल-वर्ण रवि तमहारी | शरणागत जन जन्म-मरण से, मुक्त बनें निज-पदधारी || तुम्हीं आद्य-अक्षय-अनंत प्रभु, ब्रह्मा-विष्णु या शंकर | सहसनाम से जानें जन-जन, हे प्रभु तुमको आदीश्वर || चैत-बदी-नवमी को मेला, लगता यहाँ मंगलकारी | अभिनंदन के योग्य चरण, हम वंदन करते भवतारी || संवत् दो सहस पैंतीस की थी, चैत-बदी-अष्टम प्यारी | अज्ञानियों की थी विफल हुर्इ, विध्वंस-योजना अविचारी || बुझी ज्योति जलधारा फूटी, रहा उपद्रव भी जब तक | अतिशय कोर्इ समझ न पाया, संकट टला नहीं तब तक || धन्य-धन्य मुनि दर्शनसागर, धर्म-ध्वजा यहाँ फहरार्इ | आत्मधर्म का बोध दिया, सद्ज्ञान की ज्योति जगार्इ || आचार्य देशभूषण जी को, जब हुर्इ अतिशय-जानकारी | आए थे वे प्रभु-वंदन को, हुआ महोत्सव बहु भारी || संवत् दो हजार अड़तीस में, हुर्इ प्रतिष्ठा अतिप्यारी | बिना प्रभु के समवसरण भी, कहाँ लगें मंगलकारी || छम-छम छम-छम घुंघरू बाजें, अक्षय-तृतीया हितकारी | गंधोदक की वर्षा होती, प्रभु की महिमा न्यारी || लघु पंचकल्याणक-विधान, फिर हुआ क्षेत्र पर भारी | यह भी आदीश्वर की महिमा, सुन लो अचरजकारी || धन्य-धन्य आचार्य विमलसागर, समता का दिग्दर्शन | अमर हो गईं ये गाथाएँ, ‘कुसुम-रूप’ का तुम्हें नमन || जिन भक्तों को तेरे चरणों में, हो मिला हुआ आश्रय | उनका बाल न बाँका होगा, यह तो है अब निश्चय || भारत-भर में गूँज रही है, तव यश-अक्षय भेरी | देश-देश के यात्री करते, जय-जयकार प्रभु तेरी || ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। (अडिल्ल छन्द) आदीश्वर की जो भवि नित पूजा करें | धन-धान्य संतान अतुल-निधि विस्तरें || होयं अमंगल दूर शरीर नीरोग धरें | अनुक्रम से सुख पाय मुक्ति श्री को वरें || ।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपामि।।
×
×
  • Create New...