ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै ॥
संशय विभ्रम मोह-विवर्जित, स्वपर स्वरूप लखावै
लख परमातम चेतनको पुनि, कर्मकलंक मिटावै ।१।
भवतनभोगविरक्त होय तन, नग्न सुभेष बनावै
मोहविकार निवार निजातम-अनुभव में चित लावै ।२।
त्रस-थावर-वध त्याग सदा, परमाद दशा छिटकावै
रागादिकवश झूठ न भाखै, तृणहु न अदत गहावै ।३।
बाहिर नारि त्यागि अंतर, चिद्ब्रह्म सुलीन रहावै
परमाकिंचन धर्मसार सो, द्विविध प्रसंग बहावै ।४।
पंच समिति त्रय गुप्ति पाल, व्यवहार-चरनमग धावै
निश्चय सकल कषाय रहित ह्वै, शुद्धातम थिर थावै ।५।
कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्याल माल सम भावै
आरत रौद्र कुध्यान विडारे, धर्मशुकलको ध्यावै ।६।
जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै
`दौल' तासपद होय दास सो, अविचलऋद्धि लहावै ।७।