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ABC of Apbhramsa

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देखिये भारत की तस्वीर प्रश्न 24-26

प्रश्न 24                  राजा भरत ने मंत्री से राजा बाहुबलि का सिद्ध नहीं होना जानकर क्या किया ? उत्तर 24               राजा भरत ने राजा बाहुबलि को समझाने के लिए उनके पास दूत भेजा। प्रश्न 25                  दूत ने बाहुबलि के पास जाकर क्या कहा ? उत्तर 25               दूत ने कहा, हे राजन! आपको राजा भरत से जाकर मिलना चाहिए और जिस प्रकार दूसरे                               अट्ठानवे भाई उनकी सेवा कर जीते हैं, उसी प्रकार तुम भी अभिमान छोड़कर राजा भरत  की सेवा               

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आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश

आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश भारतदेश के भाषात्मक विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।     1. प्रथम स्तर: कथ्य प्राकृत, छान्द्स एवं संस्कृत (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक) वैदिक साहित्य से पूर्व प्राकृत  प्रादेशिक भाषाओं के रूप में बोलचाल की भाषा (कथ्य भाषा) के रूप से प्रचलित थी। प्राकृत के इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई औरा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस’ कहा गया, जो उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। आगे चलकर पाणिनी ने अपने समय तक चली आई

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अपभ्रंश भाषा में रचित प्रथम महाकाव्य: पउमचरिउ (राम चरित्र)

अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण

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आचार्य योगिन्दु कृत परमात्मप्रकाश

प्रिय पाठकगण, आज से हम एक ऐसे ग्रंथराज को अपने ब्लाँग का विषय बना रहे हैं जो अपने आप में अद्वितीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ आपको आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा बहुत ही रोचक एवं सहजरूप से करायेगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। इस ग्रंथ में कुल तीनसौ पैतालीस दोहे हैं। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद हम प्रतिदिन एक दोहे को अपने ब्लाँग का विषय बनायेंगे। आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ का आनन्द लेने के साथ साथ अपभ्रंश भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर सकें, ऐसा मेरा प्रयास यहाँ रहेगा। ग्रंथ की विषयवस्तु प्रारंभ करने से पूर्व आज हम

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स्व - बोध ही सच्चा ज्ञान है

आचार्य योगीन्दु ने पूर्व में कहा कि ज्ञान के बिना शान्ति नहीं हैं। आगे इसका विस्तार करते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध ही सच्चा ज्ञान है। वैसे यदि हम इसको अनुभव करें तो हम पायेंगे कि वास्तव में जिसको अपना ही बोध नहीं है उसको पर का बोध होना कैसे सम्भव है ? दूसरे शब्दों में जिसको अपने ही सुख-दुःख का एहसास नहीं हो वह दूसरों के सुख में कैसे सहयोगी हो सकता है। जब हम अपनी ही  पीडा का अनुभव कर उसको दूर करने का प्रयत्न करेंगे तभी हम हम दूसरों की पीड़ा का अनुभव कर उसको दूर करने में सहयोग देंगे।

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(विभीषण के सन्दर्भ में) : व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए गुणानुरागी होना आवश्यक

व्यक्ति और समाज का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, तथा व्यक्तियों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है। इस तरह व्यक्ति समाज की एक इकाई है। इस प्रत्येक इकाई का अपना निजी महत्व है। मनुष्य के अकेले जन्म लेने और अकेले मरण को प्राप्त होने से व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्ता का आकलन किया जा सकता है। संसार में भाँति भाँति के मनुष्य हैं, उन सबकी भिन्न- भिन्न विशेषताएँ हैं। अपने आसपास के वातावरण, संगति तथा अपनी बदलती शारीरिक अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निर

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राम और सीता के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्वरूप

मनुष्य का सारा जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का ही खेल है और यही कारण है कि सभी धर्म ग्रंथों में भी प्र्रवृत्ति और निवृत्ति का ही कथन है। राम और सीता के जीवन में निवृत्ति का स्वरूप कैसा था इसको समझने से पहले संक्षेप में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अर्थ समझना आवश्यक है। प्रवृत्ति - ज्ञाता के पाने या छोड़ने की इच्छा सहित चेष्टा का नाम प्रवृत्ति है।  छोडने की इच्छा से प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का अंश देखा जाता है। निवृत्ति - बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषा को प्राप्त चित्त का त्याग करना निवृत्ति है। अर्थ

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भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य

भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से परिष्कृत होती हुई सतत विकास की और प्रवाहमान है। विगत समय से लेकर वर्तमान पर्यन्त यदि हम भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करें तो हम देखते हैं कि पूर्वकाल में जहाँ तक इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण व वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं। इससे जान पड़ता है कि इतिहासातीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयीं हैं तथा भारतीय संस्कृति का निर्माण श्रमण और वैदिक परम्परा के मेल से ही

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(रावण के सन्दर्भ में) शीलाचार का महत्व

अब तक हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश एवं वानरवंश के पात्रों के माध्यम से रामकथा के संदेश को समझने की कोशिश की। अब राक्षसवंश के प्रमुख पात्र रावण के माध्यम से शीलाचार के महत्व को भी समझने का प्रयास करते हैं। जिस प्रकार रामकाव्य के नायक श्री राम का चरित्र मात्र सीता के परिप्रेक्ष में उनके राजगद्दी पर बैठने से पूर्व तथा राजगद्दी पर बैठने के बाद भिन्नता लिए हुए है वैसे ही रावण का चरित्र भी सीता हरण से पूर्व तथा सीता हरण के बाद का भिन्नता लिए हुए हैं। शीलपूर्वक आचरण को भलीभाँति सरलतापूर्वक समझने हेतु रा

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समर्पण कब, कहाँ और कैसे ? सीखे श्री हनुमानजी के जीवन से

मैं’ अहंकार की प्रबलता का द्योतक है, अहंकार जीवन के पतन का कारण है, समर्पण अहंकार के पतन का कारण है तथा अहंकार व समर्पण रहित जीवन निर्विकल्प शान्ति का कारण है। भरत चक्रवर्ती अहंकार के कारण चक्रवर्ती होकर भी अपने ही भाई बाहुबलि से पराजित हुए तथा उस भाई के आगे ही समर्पित होकर निर्विकल्प शान्ति प्राप्त की। बाहुबलि ने भरत के आगे समर्पण नहीं कर अपने ही भाई से युद्ध किया उसके बाद संसार सुखों को तुच्छ समझकर उनके प्रति समर्पित हो प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्विकल्प शान्ति की प्राप्ति की। हनुमान ने अपने आपको

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(रावणपुत्र इन्द्रजीत के सन्दर्भ में) अज्ञानी व्यक्ति की संगति हानिप्रद है चाहे वह पुत्र ही हो

हम सब भली भाँति समझते है कि मनुष्य जीवन में संगति और आस-पास के वातावरण का बहुत महत्व है। यह भी सच है कि मनुष्य की संगति और उसके वातावरण का सम्बन्ध उसके जन्म लेने से है, जिस पर कि उसका प्रत्यक्ष रूप से कोई अधिकार नहीं। जहाँ मनुष्य जन्म लेगा प्रारम्भ में वही स्थान उसका वातावरण होगा और वहाँ पर निवास करने वालों के साथ उसकी संगति होगी। यही कारण है कि बच्चे पर अधिकांश प्रभाव उसके माता-पिता, भाई- बहिन और यदि संयुक्त परिवार हो तो दादा-दादी और चाचा- चाची का होता है। कईं बार तो बच्चा जिसके सम्पर्क में ज्य

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संसार की सभी वस्तु नाशवान है फिर उनसे प्रीति किस लिए

पुनः आचार्य योगीन्दु दृढ़तापूर्वक मोक्षमार्ग में प्रीति करने के लिए समझाते हैं कि यहाँ संसार में कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है, प्रत्येक वस्तु नश्वर है, फिर उनसे प्रीति किस लिए ? क्योंकि प्रिय वस्तु का वियोग दुःखदायी है और वियोग अवश्यंभावी है। जाते हुए जीव के साथ जब शरीर ही नहीं जाता तो फिर संसार की कौन सी वस्तु उसके साथ जायेगी। अतःः सांसारिक वस्तुओं से प्रीति के स्थान पर मोक्ष में प्रीति ही हितकारी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा 129.   जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ।       

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पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड थ्वससवू जीपे 0

पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड जैन रामकथा का प्रथम विद्याधरकाण्ड आगे की सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस विद्याधरकाण्ड का सही रूप से आकलन किया जाने पर ही अन्य रामकथाओं के सन्दर्भ में जैन रामकथा के वैषिष्ट्य को समझा जा सकता है। यह विद्याधरकाण्ड भारतदेष के षक्तिषाली विद्याधरो के कथन के माध्यम से भारतदेष की सभ्यता एवं संस्कृति का एक सुन्दर चित्रण है। इसमें भारतदेष में विभिन्न वंषों की उत्पत्ति एवं उन वंषों में रहे सम्बन्धों को बताया गया है। आगे की सम्पूर्ण रामकथा का सम्बन्ध भी इन्हीं वंषों से है। ये व

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परम आत्मा का आत्मा से सम्बन्ध

बन्धुओं ! एक बार पुनः मैं तीनों प्रकार की आत्मा के स्वरूप को संक्षिप्त में आपके समक्ष रख देना चाहती हूँ जिससे हम परमात्मप्रकाश के आगे के विषय को अच्छी तरह से समझ सकें। आत्मा का मूर्छित स्वरूप वह है जिसमें देह को ही आत्मा जाना जाता है। आत्मा का जागृत स्वरूप वह है जिसमें देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने के पश्चात् परम एकाग्र ध्यान में स्थित होकर परम आत्मा का अनुभव किया जाता है। आत्मा का श्रेष्ठ (परमात्म) स्वरूप वह है, जो कर्म बंधनों व पर द्रव्यों से रहित है, रंग, गंध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मर

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4. दशरथ -

4. दशरथ - जैन दर्शन के अनुसार कारण और कार्य का अपूर्व सम्बन्ध है। हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम्। अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? इस ही आधार पर हम यहाँ भी देखेंगे कि किसी भी घटना का घटित होता कार्य और कारण के सम्बन्ध पर ही आश्रित है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होने से रामकथा के सभी पात्रों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार संभव हो सकेगा तथा रामकथा को भी भलीर्भांति समझ सकेंगे। आगे हम पउमचरिउ के अनुसार रामकथा के सभी प्रमुख प

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विशल्या: संयम व तप का फल

यहाँ विशल्या के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के जीवन से संयम व तप के फल के महत्व को बताया गया है। यहाँ विशल्या के दोनों भवों के आधार पर हम यह देखेंगे कि संयम व तप का फल किस प्रकार मिलता है तथा संयम रहित जीवन क्या फल देता है ?  विशल्या अपने पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगर के चक्रवर्ती राजा आनन्द की अनंगसरा नामक कन्या थी। अति सुन्दर होने के कारण वह पुर्णवसु विद्याधर के द्वारा हरण कर ले जाई गयी और मार्ग में वह पर्णलध्वी विद्या के सहारे हिंसक जानवरों से युक्त भयानक श्वापद नामक अटवी में उतर गयी। वहाँ उसने संयमप

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प्रयोजन अर्थात् उद्देश्य सहित कार्य ही सार्थक है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी प्रयोजन या उद्देश्य को लेकर कार्य करते हैं तो वे अपना प्रयोजन पूरा होने पर संतुष्ट हो पाते हैं जब कि प्रयोजन रहित कार्य मात्र समय गुजारना होता है। जैसे शास्त्र का अध्ययन बोध प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाये तो बोध प्राप्ति होने से उससे जो सन्तुष्टि मिलती है वही जीवन का सच्चा आनन्द है। किन्तु यदि मात्र समय गुजारने के लिए बिना बोध प्राप्ति के उद्देश्य से मात्र शास्त्रों का वाचन एक मूर्खता ही है, क्योंकि उससे सन्तुष्टि नहीं मिलती हे। देखिये इससे सम्बन्धि

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रामकथा के पात्रों का चरित्र चित्रण

अब हम रामकथा को रामकथा के पात्रों के चरित्र चित्रण के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। पात्रों के चरित्र-चित्रण से राम काव्य की कथावस्तु तो स्पष्ट होगी ही, साथ ही मानव मन के विभिन्न आयाम भी प्रकट होंगे। इस संसार में रंक से लेकर राजा तक कोई भी मनुष्य पूर्णरूप से सुखी एवं षान्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के विकास मार्ग को उसकी किसी न किसी मुख्य मानवीय कमजोरी ने अवरुद्ध कर रखा है। अज्ञानवष व्यक्ति अपनी कमजोरियों का अन्वेषण नहीं कर पाने के कारण उचित समय पर उनका परिमार्जन नहीं कर पाता,, जिससे वह अपने

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रत्नत्रय का महत्व

जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति में व्यक्ति के विकास के सोपान तीन रत्न, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही है। सर्वप्रथम अपनी दृष्टि निर्मल होने पर ही प्रत्येक वस्तु का सही रूप में बोध हो पाता है और जब बोध सही होता है तब वह बोध ही चारित्र में उतर पाता है। सही चारित्र ही व्यक्ति का सर्वोत्तम विकास है। इसलिए चारित्र तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। दृष्टि के निर्मल होने के बाद चारित्र का पालन कठिन नहीं है किन्तु दृष्टि का निर्मल होना बहुत कठिन है। इसील

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(सीता): नारी के दुःखों का कारण राग, क्रोध एवं मान

सीता पउमचरिउ काव्य के नायक राम की पत्नी के रूप में पउमचरिउकाव्य की प्रमुख नायिका हैं। यह नायिका भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। सीता के जीवन चरित्र के माध्यम से स्त्री के मन के विभिन्न आयाम प्रकट होंगे जिससे स्त्री की मूल प्रकृति को समझने में आसानी होगी। ब्लाग 5 में राम के जीवन चरित्र के माध्यम से हम पुरुष के मूल स्वभाव से परिचित हुए थे। देखा जाय तो अच्छा जीवन जीने के लिए सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष दोनों के मूल स्वभाव की जानकारी आवश्यक है। रामकाव्यकारों का रामकथा को लिखने का सर्वप्रमुख उद्

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आत्मा का लक्षण

आचार्य योगीन्दु सभी जीवों को सुख और शान्ति के मार्ग पर अग्रसर करना चाहते हैं, और यह सुख-शान्ति का मार्ग बिना आत्मा को पहचाने सम्भव नहीं है। अतः आत्मा पर श्रृद्धान कराने के लिए विभिन्न- विभिन्न युक्तियों से आत्मा के विषय में बताते हैं। इस 31वें दोहे में आत्मा का लक्षण बताया गया है -   31    अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु ।       अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ।।   अर्थ - आत्मा, मन रहित, इन्द्रिय रहित, मूर्ति (आकार) रहित, ज्ञानमय (और) चेतना मात्र है, (यह) इन्द्रियों का विषय

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सत्य, शिव एवं सुन्दर के समन्वयरूप परम आत्मा का कथन

आचार्य योगिन्दु आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति में समभाव की प्राप्ति का होना आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार समभाव की प्राप्ति ही परम आत्मा की उपलब्धि का सबसे बड़ा सत्य है। समभावरूप सत्य की उपलब्धि के पश्चात् जिस परम आनन्द की प्राप्ति होती है वही परम आत्मा का शिव और सुन्दर पक्ष है। समभाव की प्राप्ति के अभाव में परम आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। व्यवहारिक जगत में भी सुख और शान्ति मन में समभाव होने पर ही संभव है। राग और द्वेषरूप विषमता ही संसार के दुःखों का मूल है। आगे का दोहा इस ही कथन से सम

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स्व दर्शन क्या है ?

आचार्य योगिन्दु कहते हैं कि स्व दर्शन के बिना आत्मा का ध्यान संभव नहीं है, इसलिए सर्वप्रथम स्वदर्शन को जानना आवश्यक है। स्वदर्शन के विषय में वे कहते हैं कि जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण है, वह ही स्व दर्शन है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा - 34.   सयल-पयत्थहँ जं गहणु जीवहँ अग्गिमु होइ।       वत्थु-विसेस-विवज्जियउ तं णिय-दंसणु जोइ।। अर्थ - जीवों का पदार्थ के भेद रहित सब पदार्थों का जो मुख्य ग्रहण (अधिगम) है, उसको (तू)       निज (स्व) दर्शन जान।

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युवा अवस्था व्यक्ति की महत्वपूर्ण अवस्था है

आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति की जीवन यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उसकी युवावस्था है। बच्चे का जब बचपन होता है तब उसके माता-पिता की युवावस्था होती है। उस युवावस्था में माता-पिता का जीवन अनुशासन में होता है तो वे बच्चे की परवरिश बहुत अच्छी कर पाते हैं। जब बच्चा युवा अवस्था को प्राप्त होता है तो तो वही बच्चा युवा अवस्था प्राप्त कर वृद्धावस्था को प्राप्त हुए अपने माता-पिता की परवरिश अच्छी तरह से कर पाता है। इस प्रकार बच्चों और माता-पिता का सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय, सुख और शान्ति के साथ व्यतीत

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वानरवंशियों का रावण को छोड़कर राम को सहयोग क्यो ?

आगम में धर्म दो प्रकार का बताया गया है- 1 गृहस्थ धर्म  2. मुनि धर्म। गृहस्थ धर्म का उद्भव युवक -युवती का विवाह सूत्र में बंधकर पति-पत्नि का सम्बन्ध जुडने से प्रारम्भ होता है। इसीलिए विवाह को एक पवित्र व धार्मिक संस्कार की संज्ञा दी है। जबकि मुनि धर्म अंगीकार करने में युवती का कोई स्थान नहीं वहाँ मोक्षरूा लक्ष्मी की ही चाह रहती है। गृहस्थ धर्मं का भली भाँति निर्वाह पति-पत्नि दोनों के चारित्र पर निर्भर है। दोनों का चारित्र एक दूसरे की सुरक्षा, एक दूसरे को सद्मार्ग में चलने पर सहयोग करने पर ही फलता

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