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Sneh Jain

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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. Sneh Jain
    प्रश्न 24                  राजा भरत ने मंत्री से राजा बाहुबलि का सिद्ध नहीं होना जानकर क्या किया ?
    उत्तर 24               राजा भरत ने राजा बाहुबलि को समझाने के लिए उनके पास दूत भेजा।
    प्रश्न 25                  दूत ने बाहुबलि के पास जाकर क्या कहा ?
    उत्तर 25               दूत ने कहा, हे राजन! आपको राजा भरत से जाकर मिलना चाहिए और जिस प्रकार दूसरे   
                               अट्ठानवे भाई उनकी सेवा कर जीते हैं, उसी प्रकार तुम भी अभिमान छोड़कर राजा भरत  की सेवा   
                               अंगीकार करो।
    प्रश्न 26                  राजा बाहुबलि ने दूत की बात का क्या जवाब दिया ?
    उत्तर 26               बाहुबलि ने कहा, एक बाप की आज्ञा और एक उनकी धरती, इसके अतिरिक्त दूसरी बात
                                 स्वीकार नहीं की जा सकती है। प्रवास करते समय पिताजी ने मुझे जो कुछ भी विभाजन
                                 करके दिया है, मैं उसी धरती का स्वामी हूँ। न मैं लेता हूँ, और न देता हूँ और न उसके  पास जाता हूँ।   
                                क्या मैं उसकी कृपा से राज्य करता हूँ ? उससे मिलने से मेरा क्या  प्रयोजन सिद्ध होगा ?
    क्या आज भी हमारे परिवारों में बाहुबलि जैसे स्वाभिमानी पुरुष या महिलाएँ हैं तो वे अवश्य देखें राजा बाहुबलि में अपनी तस्वीर।

  2. Sneh Jain
    अपभ्रंश के प्रबन्ध ग्रन्थों में सर्वप्रथम ‘पउमचरिउ’ का नाम आता हैं। पउमचरिउ रामकथा पर आधारित श्रेष्ठ महाकाव्य है। यह महाकाव्य 90 संधियों में पूर्ण होता है। पउमचरिउ की 83 संधियाँ स्वयं स्वयंभू द्वारा तथा शेष 7 संधियाँ स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखी गयी है। स्वयंभू कवि के पउमचरिउ का आधार आचार्य रविषेण का पद््मपुराण रहा है। उन्होंने लिखा है ‘रविसेणायरिय-पसाएं बुद्धिएॅ अवगाहिय कइराएं’ अर्थात् रविषेण के प्रसाद से कविराज स्वयंभू ने इसका अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है। यहाँ स्वयंभू आचार्य रविषेण के पद्मपुराण के आधार को लेकर भी इसका अवनी बुद्धि से अवगाहन करने की बात करते हैं तो इसका आशय एकदम स्पष्ट होता है कि स्वयंभू रविषेणाचार्य की तरह पउमचरिउ को धर्म ग्रंथ न बनाकर एक विशुद्ध साहित्यिक कोटि का काव्य बनाना चाहते थे। तदर्थ उन्होंने पद्मपुराण के आधार को यथावत ग्रहण कर भी अपनी अनुभूति को अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। इसके लिए उन्होंने  पद्मपुराण के कितने ही प्रसंगों को अपने काव्य में नहीं लिया तथा कितने ही प्रसंगों को नया आयाम दिया तथा उन प्रसंगों को भी अपनी शैली में अपने तरीके से अभिव्यक्त किया। पउमचरिउ में स्वयं द्वारा रचित 83 संधियों में उन्होंने पद्मपुराण के सीता के दीक्षा ग्रहण करने तक के कथानक को ही अपने काव्य में ग्रहण किया है।
    सीता के दीक्षा के साथ अपने काव्य को विराम देने में ही स्वयंभू का सन्तुलित व्यक्तित्व  उभरकर आया है। राम का क्षमा भाव धारण करना तथा सीता का राग भाव से निवृत्त होना ही स्वयंभू को पर्याप्त लगा था। शायद वे पूर्वभव व भविष्यत से अधिक वर्तमान भव के पक्षकार थे। उन्होंने वर्तमान जगत में सीता को राम से पहले वैराग्य भाव धारण करते देखा तो अपने सन्तुलित व्यक्तित्व के कारण सीता के सम्मान में अपने काव्य को वहीं विराम दे दिया। वैसे देखा जाय तो आगे का कथानक भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।  काव्य की आगे की संधियों में राम अपनी मानवीय कमजोरियों को जीतकर शक्तिवान बने हैं तथा इन्द्र पद प्राप्त कर कमजोर बनी सीता को भी शक्ति प्रदान की है। इस आगे के कथानक को स्वयंभू पुत्र त्रिभुवन ने 7 संधियों में लिखकर पूरा किया।   
    पउमचरिउ में पाँच काण्ड़ हैं - 1.विद्याद्यर काण्ड 2. अयोध्या काण्ड  3. सुन्दर काण्ड 4. युद्ध काण्ड 5. उत्तर काण्ड । विद्याधर काण्ड़ में विभिन्न वंशों का उद्भव तथा इन सभी वंशों में परस्पर रहे सम्बन्धों का कथन हुआ है।  अयोध्या काण्ड़ में राम के जन्मस्थान अयोघ्या से लेकर वनवास के समय उनके किष्किन्धानगर पहँुचने तक का उल्लेख हुआ है। राम का विवाह एवं वनवास, राम-लक्ष्मण के पराक्रम, राम-लक्ष्मण के द्वारा दुःखियों की रक्षा से सम्बन्धित अवान्तर कथाएँ एवं सीता हरण इस काण्ड के मुख्य विषय रहे हैं।
    सुन्दर काण्ड़ हनुमान की विजयों का काण्ड़ है। इसमें हनुमान सीता का वृत्तान्त राम तक ले जाने में सफल हुए हैं। युद्धकाण्ड सीता की प्राप्ति को लेकर राम-रावण के बीच हुए युद्ध से सम्बन्धित है। युद्धकाण्ड़ का पूरा वातावरण वीरता का दृश्य उपस्थित करता है। अन्तिम उत्तरकाण्ड़ सम्पूर्ण पउमचरिउ का उपसंहार है। इसमें रावण की मृत्यु, राम का अयोध्यागमन, राम का राज्याभिषेक, सीता का निर्वासन, सीता की अग्निपरीक्षा, सीता की जिनदीक्षा का उल्लेख हुआ है। पउमचरिउ की अंतिम 7 संधियाँ जो स्वयंभूपुत्र त्रिभुवन द्वारा रचित है उसमें शान्ति, वैराग्य एवं निर्वेद का कथन हुआ है।
    उपरोक्त पाँचों काण्ड़ों में प्रथम विद्याधरकाण्ड सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस काण्ड की विषयवस्तु को संक्षिप्त में समझे बिना जैनराम कथा के स्वरूप को सही रूप में नहीं समझा जा सकता है। अतः आगे विद्याधरकाण्ड के विषय में संक्षिप्त में बताया जायेगा। इसके बाद जैन रामकथा के मुख्य-मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डालकर अपभ्रंश के अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों की महत्वपूर्ण विषयवस्तु को भी बताने का प्रयास रहेगा। 
  3. Sneh Jain
    आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी: अपभ्रंश
    भारतदेश के भाषात्मक विकास को तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।
     
      1. प्रथम स्तर: कथ्य प्राकृत, छान्द्स एवं संस्कृत (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक)
    वैदिक साहित्य से पूर्व प्राकृत  प्रादेशिक भाषाओं के रूप में बोलचाल की भाषा (कथ्य भाषा) के रूप से प्रचलित थी। प्राकृत के इन प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई औरा वैदिक साहित्य की भाषा को ‘छान्दस’ कहा गया, जो उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई। आगे चलकर पाणिनी ने अपने समय तक चली आई छान्द्स की परम्परा को व्याकरण द्वारा नियन्त्रित एवं स्थिरता प्रदान कर लौकिक संस्कृत नाम दिया। इस तरह वैदिक भाषा (छान्द्स) और लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव वैदिक काल की प्राकृत से ही हुआ है, यही भारतीय भाषा के विकास का प्रथम स्तर है।
    2. द्वितीय स्तरः  प्राकृत साहित्य  (ईसापूर्व 600 से ईसवी 200 तक) 
    पाणिनी द्वारा छान्द्स (वैदिक) भाषा के आधार से जिस लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव हुआ, उसमें पाणिनी के बाद कोई परिवर्तन नहीं हुआ, जबकि वैदिक युग की कथ्य रूप से प्रचलित प्रादेशिक प्राकृत भाषाओं में परवर्ती काल में अनेक परिवर्तन हुए। भारतीय भाषा के इस द्वितीय स्तर को तीन युगों में विभक्त किया गया है।
    प्रथमयुगः- (ई.पूर्व 600से र्इ्र. 200 तक) इसमें शिलालेखी प्राकृत,  धम्मपद की प्राकृत, आर्ष-पालि, प्राचीन जैन सूत्रों की प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, बोद्ध जातकों की भाषाएँ आती हैं।
    मध्य युगीनः-(200 ई. से 600 ई. तक) इसमें भाष और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्य और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैन काव्य साहित्य की प्राकृत, प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृतें एवं वृहत्कथा की पैशाची प्राकृत है।
    तृतीय युगीनः-(600 से 1200 ई. तक) भिन्न भिन्न प्रदेशों की परवर्तीकाल की अपभ्रंश भाषाएँ।
     
    3.तृतीय स्तरः अपभ्रंश साहित्य  (1200 ईस्वी से आगे तक)
    पुनः अपभ्रंश भाषा के जन साधारण में अप्रचलित होने से ईस्वी की पंचम शताब्दी के पूर्व से लेकर दशम शताब्दी पर्यन्त भारत के भिन्न भिन्न प्रदेशों में कथ्यभाषाओं के रूप में प्रचलित जिस-जिस अपभ्रंश भाषा से भिन्न भिन्न प्रदेश की जो-जो आधुनिक आर्य कथ्य भाषा उत्पन्न हुई है उसका विवरण इस प्रकार है -
    मराठी-अपभ्रंश से     -  मराठी और कोंकणी भाषा। मागधी अपभ्रंश की पूर्व शाखा से - बंगला,उडिया और आसामी भाषा। मागधी-अपभ्रंश की बिहारी शाखा से - मैथिली,मगही,और भोजपुरिया। अर्ध मागधी-अपभ्रंश से - पूर्वीय हिन्दी भाषाएँ अर्थात अवधी,बघेली,छत्तीसगढी़। सौरसेनी अपभ्रंश से -   बुन्देली,कन्नोजी,ब्रजभाषा,बाँगरू,हिन्दी । नागर अपभ्रंश से -    राजस्थानी,मालवा,मेवाड़ी,जयपुरी,मारवाड़ी तथा गुजराती। पाली से -              सिंहली और मालदीवन । टाक्की अथवा ढाक्की से-  लहन्डी या पश्चिमीय पंजाबी । ब्राचड अपभ्रंश से-         सिन्धी भाषा । पैशाची अपभ्रंश से -        काश्मीरी भाषा । इस प्रकार हम देखते है कि अपभ्रंश मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की अन्तिम अवस्था तथा प्राचीन और नवीन भारतीय आर्यभाषाओं के बीच का सेतुबन्ध है। इसका आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के साथ एक जननी का घनिष्ट सम्बन्ध है। मराठी, गुजराती,राजस्थानी, उड़िया, बंगाली,असमिया आदि सभी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के विकास में अपभ्रंश की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिन्दी भाषा तो इसकी साक्षात उत्तराधिकारिणी है।ईस्वी सन् की छठी शती से लेकर बारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश भारतीय विचार, भावना, साहित्य, धर्म, दर्शन तथा समाज की धड़कनों को जानने -बूझने की सशक्ततम माध्यम थी।
    योगिन्दु एवं स्वयंभू जैसे महाकवियों के हाथों अपभ्रंश साहित्य का बीजारोपण हुआ, पुष्पदन्त, धनपाल, रामसिंह, देवसेन, हरिभद्र, कनकामर, हेमचन्द्र, नयनन्दि, सोमप्रभ, जिनप्रभ, विनयचन्द्र, राजशेखर, अब्दुल रहमान, सरह और काण्ह जैसी प्रतिभाओं ने इसे प्रतिष्ठित किया, और अन्तिम दिनों में भी इस साहित्य को यशःकीर्ति और रइधू जैसे महाकवियों का संबल प्राप्त हुआ।
    इस भाषा में महाकाव्य, पुराणकाव्य, चरिउकाव्य, कथाकाव्य, धार्मिक तथा लौकिक खंडकाव्य, रहस्य-भक्ति-नीति तथा उपदेशमूलक मुक्तक काव्य आदि सभी रूपों में रचनाएँ हुईं। अपनी भावधारा और शैलीगत विशिष्टता के आधार पर अब वह किसी भी भाषा के समक्ष तुल्यात्मक मूल्याकंन के लिए शान से खड़ी हो सकती है। इसी से छठी से बारहवीं शताब्दी का समय अपभ्रंश का स्वर्णयुग कहा जाता है।
     
  4. Sneh Jain
    1. शब्द 
    पुल्लिंग संज्ञा शब्द
    (क) अकारान्त -
    अक्ख प्राण
    अक्खय अखंड अक्षत अग्घ अर्घ
    अणंग कामदेव अणुबन्ध सम्बन्ध
    अपय मुक्त आत्मा अमर देव
    अमरिस क्रोध अवमाण अपमान
    अवराह अपराध अहिसेअ अभिषेक
    आएस आदेश आयार आचार
    आयास तकलीफ आलाव संभाषण
    आवण दुकान उद्देस उपदेश
    कंत पति कंचण स्वर्ण 
    कडप्प समूह कण्ण कान
    कणय बाण कफाड गुफा
    कर सूंड कर हाथ
    मेट्ठ महावत वज्ज हीरा
    विसाअ शोक सवण कान
    सुहि मित्र सेहर फूलों का गजरा
    काम सुन्दर कुंत भाला
    खंध कंधा जलण आग
    जस कीर्ति जोह सुभट
    णाअ नीति णिलअ आवास
    णेह प्रेम तास भय
    तुरंग घोडा दल टुकड़ा
    दाण दान पंथ रास्ता
    पंचेस काम पओग आचार-विचार
    पडह ढोल पणय प्रेम
    परिहव पराभव पसर प्रभात
    फेण झाग बुहयण विद्वान
    मऊह शिखा करह ऊँट
    कुक्कुर कुत्ता गंथ  पुस्तक
    जणेर बाप पुत्त पुत्र
    पोत्त पोता घर मकान
    माउल मामा पिआमह दादा
    ससुर ससुर दिअर देवर
    णर मनुष्य परमेसर परमेश्वर
    रहुणन्दन राम वय व्रत
    आगम शास्त्र सप्प साँप
    भव संसार कूव कुआ
    मेह मेघ रयण रत्न
    सायर समुद्र राय नरेश
    नरिंद राजा बालअ बालक
    दुज्जस अपयश हणुवन्त हनुमान
    गव्व गर्व हुअवह अग्नि
    मारूअ पवन पड वस्त्र
    कयंत मृत्यु दिवायर सूर्य
    रक्खस राक्षस सीह सिंह
    दुक्ख दुःख बप्प पिता
    गाम गाँव सलिल पानी
    मग्ग मार्ग कुंभ कलश
         
    (ख) इकारांत / ईकारान्त
    सामि
    मालिक
    रहुवइ
    रघुपति
    कइ कवि करि
    हाथी
    मुणि
    मुनि
    जोगि योगी पइ
    पति ससि चन्द्रमा हत्थि हाथी
    पाणि प्राणी भाइ भाई
    केसरि सिंह गिरि पर्वत
    रिसि मुनि जइ यति
    तपस्सि तपस्वी नरवइ राजा
    सेणावइ सेनापति अरि शत्रु
    मंति मंत्री विहि विधि
    अहिवइ अधिपति सुहि मित्र
    अलि भ्रमर असि खड्ग
    कइ वानर गामणी गाँव का मुखिया
         
    (ग) उकारान्त / ऊकारान्त
    जंतु
    प्राणी 
    बिन्दु
    बिन्दू
    मच्चु
    मृत्यु सत्तु शत्रु रिउ दुश्मन
    सूणु पुत्र गुरु गुरु
    धणु धनु तरु पेड़
    करेणु हाथी तेउ तेज
    पहु प्रभु पिउ पिता
    फरसु कुल्हाड़ा रहु रघु
    विज्जु बिजली साहु साधु
    वाउ वायु जामाउ दामाद
    जंबु जामुन मेरु पर्वत विशेष
    सयंभू स्वयंभू खलपू खलियान को साफ करने वाला
    इंदु चंद्रमा
     
    उपरोक्त संज्ञा शब्दों में अकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप 'देव', इकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप ‘हरि', ईकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप ‘गामणी' उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के रूप ‘साहु' तथा ऊकारान्त पुल्लिंग संज्ञा शब्दों के रूप ‘सयंभू' के समान चलेंगे।
     
    नपुंसकलिंग संज्ञा शब्द
    (क) अकारान्त
    अंतेउर
    रनिवास अत्थाण सभाभवन अमिय
    अमृत अरविंद कमल अलिअ
    झूठ असुह अशुभ आरोय
    निरोगता उज्जाण उद्यान उप्पल
    कमल कंचण स्वर्ण कज्ज
    प्रयोजन कज्जल काजल घुषिण
    चंदन चच्चर चौराहा चलण
    प्रथा चिंध ध्वजा दल
    पत्ता दाण दान दुरिय
    पाप धम्म धर्म पजक्ख
    प्रत्यक्ष पहरण अस्त्र पाव
    पाप पुण्ण पुण्य पुलिन
    किनारा मउड मुकुट लंघण
    अतिक्रमण विमाण विमान सासण
    शासन पत्त कागज सोक्ख
    सुख रज्ज राज्य पोट्टल
    गठरी णह आकाश सील
    सदाचार णयरजण नागरिक खीर
    दूध छिक्क छींक लक्कुड
    लकड़ी उदग जल गाण
    गीत भय भय वेरग्ग
    वैराग्य सच्च सत्य रत्त
    रक्त मरण मरण खेत्त
    खेत धन्न  धान धण
    धन मज्ज मद्य वसण
    व्यसन जुअ जुआ असण
    भोजन तिण घास वण
    जंगल वत्थ वस्त्र कट्ठ
    काठ भोयण भोजन घय
    घी सिर मस्तक सुत्त
    धागा सुह सुख रिण
    कर्ज बीअ बीज जीवण
    जीवन रूव रूप कम्म
    कर्म जोव्वण यौवन णाण
    ज्ञान मण मन लक्खण
    वस्तु स्वरूप लग्गण आधार  
    (ख) इकारान्त -
    दहि
    दही अच्छि आँख रवि
    सूर्य अट्ठि हड्डी वारि
    जल      
    (ग) उकारान्त -
    महु
    मधु अंसु आँसू वत्थु
    पदार्थ आउ आयु जाणु
    घुटना      
    उपरोक्त संज्ञा शब्दों में अकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों के रूप 'कमल', इकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों के रूप ‘वारि' तथा उकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों के रूप ‘महु के अनुसार चलेंगे।
     
    स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द
    (क) आकारान्त -
    अंबा
    माँ अट्ठाहिया अष्टान्हिका परिक्खा
    परीक्षा सीया सीता सुया
    पुत्री माला समूह ससा
    बहिन माया माता वाया
    वाणी आणा आज्ञा कमला
    लक्ष्मी करुणा दया गंगा
    गंगा जरा बुढ़ापा तणया
    पुत्री णम्मया नर्मदा कहा
    कथा जउणा यमुना जाआ
    पत्नी सद्धा श्रद्धा मेहा
    बुद्धि संझा सायंकाल भुक्खा
    भूख कन्ना कन्या गुह
    गुफा झुंपड़ा झोंपड़ी कलसिया
    छोटा घड़ा णिद्दा नींद पइट्ठा
    प्रतिष्ठा पसंसा प्रशंसा सिक्खा
    शिक्षा सोहा शोभा मइरा
    मदिरा सरिआ सरिता अहिलासा
    अभिलाषा गड्डा खड्डा धूआ
    बेटी नणन्दा नणद महिला
    स्त्री पण्णा प्रज्ञा तिसा
    प्यास तण्हा तृष्णा निसा
    रात्रि वत्ता बात जीहा
    जीभ पइज्जा संकल्प पडाया
    ध्वजा      
    (ख) इकारान्त / ईकारान्त -
    भत्ति
    भक्ति मणि रत्न तत्ति
    तृप्ति रत्ति रात धिइ
    धैर्य थुइ स्तुति अवहि
    समय-सीमा आँखि आँख उत्पत्ति
    जन्म पिहिमि धरती रिद्धि
    वैभव जुवइ युवती सत्ति
    बल अप्पलद्धि आत्मलाभ आगि
    आग मइ मति सामिणि
    स्वामिनी जणेरी माता डाइणी 
    चुडैल बहिणी बहिन पुत्ती
    पुत्री माउसी मौसी णारी
    नारी इत्थी स्त्री लच्छी
    लक्ष्मी महेली महिला समणी
    श्रमणी पिआमही दादी परमेसरी
    ऐश्वर्य, सम्पन्न स्त्री णागरी नगर में रहनेवाली स्त्री साडी
    साड़ी संति शान्ति अरइ
    पीड़ा कित्ति कीर्ति णिव्वुइ
    शान्ति मित्ति परिमाण णलिणि
    कमलिनी रइ प्रीति  
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
    (ग) उकारान्त / ऊकारान्त -
    धेणु
    गाय चंचु चोंच सस्सु
    सासू हणु ठोढ़ी तणु
    शरीर रज्जु रस्सी कण्डू
    खाज खज्जु खुजली सासू
    सासू बहु बहू चमू
    सैन्य कडच्छी कर्छी चमची जंबू
    जामुन का पेड़      
    उपरोक्त संज्ञा शब्दों में आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप ‘कहा', इकारान्त स्त्रीलिंग के रूप मइ', 'ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप के रूप ‘लच्छी’, उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप ‘धेणु' तथा ऊकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के रूप 'बहू' के समान चलेंगे।
     
    सर्वनाम शब्द -
    अम्ह (पु., नपु., स्त्री) = मैं
    तुम्ह (पु., नपु. स्त्री) = तुम
    त (पु.) = वह  
    त (नपु.) = वह
    ता (स्त्री.) = वह
    ज (पु, नपु.) = जो 
    एत (पु. नपु.) = यह
    जा (स्त्री) = जो
    एता (स्त्री) = यह
    क (पु. नपु.) = कौन
    इम (पु. नपु.) = यह
    का (स्त्री) = कौन
    इमा (स्त्री) = यह
    आय ( पु. नपु.) = यह
    कवण (पु. नपु.) = कौन, क्या, कौनसा
    आया (स्त्री) = यह
    कवणा ( स्त्री) = कौन, क्या, कौनसा
    काइं ( पु., नपु., स्त्री) = कौन, क्या, कौनसा  
    ( उपरोक्त संज्ञा व सर्वनाम शब्दों की रूपावली आगे दी जा रही है। )
     
    क्रियाएँ
    अकर्मक क्रियाएँ -
    हस
    हँसना सय सोना णच्च
    नाचना रूस रूसना लुक्क
    छिपना जग्ग जागना जीव
    जीना लज्ज शरमाना थंभ
    रुकना रुव रोना भिड
    भिड़ना डर डरना उच्छल
    उछलना थक्क थकना कंप
    काँपना अच्छ बैठना उज्जम
    प्रयास करना उल्लस खुश होना मर
    मरना पड गिरना उट्ठ
    उठना तडफड छटपटाना घुम
    घूमना खेल खेलना कुल्ल
    कूदना जुज्झ लड़ना मुच्छ
    मूर्छित होना गल गलना कलह
    कलह करना खय नष्ट होना जल
    जलना लुढ लुढकना हो
    होना हु होना उपज्ज
    उत्पन्न होना वल मुडना जर
    बूढ़ा होना गज्ज गर्जना उग
    उगना उड्ड उडना नस्स
    नष्ट होना णिज्झर झरना सोह
    शोभना सुक्क सूखना पसर
    फैलना डुल डुलना दुक्ख
    दुखना पला भागना बइस
    बैठना बुक्क भौंकना तुट्ट
    टूटना कंद रोना हरिस
    प्रसन्न होना वड्ढ बढ़ना विअस
    खिलना लोट्ट सोना, लोटना चुअ
    टपकना कुद्द कूदना जम्म
    जन्म लेना जगड झगड़ना जागर
    जागना विज्ज उपस्थित होना खिज्ज
    अफसोस करना चिट्ठ ठहरना, बैठना छुट्ट
    छूटना हव होना रम
    रमना चेट्ठ प्रयत्न करना गुंज
    गूंजना सिज्झ सिद्ध होना जल
    जलना उच्छह उत्साहित होना चुक्क
    भूल करना लोभ लालच करना कील
    क्रीड़ा करना कील कीलना(मंत्रादि से) घट
    कम होना, घटना चिराव देर करना तव
    तपना वस बसना फुर
    प्रकट होना छिज्ज छीजना खुम्भ
    भूख लगना खास खाँसना गडयड
    गिड़गिड़ाना बिह डरना उवसम
    शान्त होना ल्हस प्रकट होना लुंच
    बाल उखाड़ना वम वमन करना उस्सस
    साँस लेना लग्ग लगना उवविस
    बैठना ऊतर उतरना ठा
    ठहरना णहा नहाना अब्भिट्ट
    भिड़ना उत्तस भयभीत होना कव
    आवाज करना णिअत्त रुकना णिमिस
    पलक झपकना णिवड नीचे गिरना  
    सकर्मक क्रियाएँ -
    रक्ख
    रक्षा करना पाल पालना सुण
    सुनना चर चरना पणम
    प्रणाम करना जाण जानना खा
    खाना अच्च पूजा करना रोक्क
    रोकना उग्घाड खोलना उपकर
    उपकार करना उप्पाड उपाड़ना कट्ट
    काटना कलंक कलंकित करना कुट्ट
    कूटना कोक बुलाना खण
    खोदना छोड छोड़ना छोल्ल
    छीलना जिम जीमना ढक्क
    ढकना तोड तोड़ना गरह
    निन्दा करना गवेस खोज करना घाल
    डालना चक्ख चखना चप्प
    चबाना चिण चुनना चोप्पड
    स्निग्ध करना छंड छोड़ना छल
    ठगना छुअ स्पर्श करना देख
    देखना धो धोना पीस
    पीसना पुक्कर पुकारना तोड
    तोड़ना फाड फाडना कीण
    खरीदना लभ प्राप्त करना झाअ
    ध्यान करना खम क्षमा करना पिब
    पीना गण गिनना पेच्छ
    देखना धार धारण करना पेस
    भेजना बंध बांधना इच्छ
    चाहना  गच्छ जाना पढ
    पढ़ना भण कहना मुण
    जानना नम नमस्कार करना जेम
    जीमना खाद खाना लिह
    लिखना हण मारना पीड
    पीड़ा देना कर करना चव
    बोलना निसुण सुनना चुअ
    त्याग करना लड्ड लाड करना वण्ण
    वर्णन करना सेव सेवा करना डंक
    डसना बखाण व्याख्यान करना भुल
    भूलना सुमर स्मरण करना रंग
    रंगना ठेल्ल ठेलना ढोय
    ढोना चोर चुराना ओढ
    ओढ़ना ले लेना वह
    धारण करना विण्णव कहना मइल
    मैला करना दा देना सिंच
    सींचना थुण स्तुति करना चिंत
    चिंता करना मग्ग मांगना जण
    उत्पन्न करना हिंस हिंसा करना अस
    खाना मार मारना गा
    गाना वद्धाव बधाई देना अच्च
    पूजा करना वज्ज जाना या
    जाना आगच्छ आना धाव
    दौड़ना चुस्स चूसना लिह
    चाटना गाअ गाना खम
    क्षमा करना खिव फैकना रच
    बनाना खंड टुकड़ा करना गुंथ
    गूंथना आवड अच्छा लगना दह
    जलाना सीख सीखना वंद
    प्रणाम करना वंछ चाहना बुज्झ
    समझना खिंस निन्दा करना जिंघ
    सूँघना जिण जीतना जोअ
    प्रकाशित करना माण सम्मान करना पाव
    पाना रक्ख रखना णिरक्ख
    देखना भुंज खाना कीण
    खरीदना अक्ख कहना अवलोय
    देखना अवहर अपहरण करना कह
    कहना असहास संभाषण करना उच्छोल
    उन्मूलन करना उज्जोय प्रकाशित करना उद्धर
    ऊपर उठाना उवहस हँसी करना कयत्थ 
    पीडित करना णिब्भच्छ अपमान करना णिवेस
    स्थापना करना णिहाल देखना तड
    फैलाना थव स्थापित करना दल
    टुकड़े-टुकडे करना धाड बाहर निकालना भज्ज
    भागना मंड सजाना मंत
    परामर्श करना विहड खण्डित करना साह
    सिद्ध करना बोल्ल बोलना  

     




















































     
  5. Sneh Jain
    प्रिय पाठकगण, आज से हम एक ऐसे ग्रंथराज को अपने ब्लाँग का विषय बना रहे हैं जो अपने आप में अद्वितीय ग्रंथ है। यह ग्रंथ आपको आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा बहुत ही रोचक एवं सहजरूप से करायेगा, ऐसा मेरा पूरा विश्वास है। इस ग्रंथ में कुल तीनसौ पैतालीस दोहे हैं। प्रारंभिक मंगलाचरण के बाद हम प्रतिदिन एक दोहे को अपने ब्लाँग का विषय बनायेंगे। आप परमात्मप्रकाश ग्रंथ का आनन्द लेने के साथ साथ अपभ्रंश भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर सकें, ऐसा मेरा प्रयास यहाँ रहेगा। ग्रंथ की विषयवस्तु प्रारंभ करने से पूर्व आज हम आचार्य योगिन्दु एवं उनके द्वारा रचित परमात्मप्रकाश के विषय में कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं।
    आचार्य योगीन्दु
    योगीन्दु जैन परम्परा में दिगम्बर आम्नाय के मान्य आचार्य एवं अपभ्रंश भाषा में रचित साहित्य की मुक्तक विधा के आद्य रचनाकार हैं। जिस प्रकार प्राकृत भाषा के ज्ञात आध्यात्मिक रचनाकारों में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है उसी प्रकार अपभ्रंश वाङ्मय के अध्यात्म निरूपण में आचार्य योगीन्दु का स्थान शीर्ष पर है। आध्यात्मिक परम्परा जो आचार्य कुन्दकुन्द से चली आ रही थी उसकी बागडोर आचार्य योगिन्दु ने सम्हाली, जो नाथों और सिद्धों से गुजरती हुई मुनि रामसिंह, कबीर, बनारसीदास आदि आत्म साधकों तक पहुँची।
    योेगिन्दु का समय -
    शतसहस्त्र जीवों के अन्धकारपूर्ण जीवन को अपने अन्तस् के आलोक से आलोकित करनेवाले अध्यात्मवेत्ता योगीन्दु के जीवन के सन्दर्भ में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके ग्रन्थों में भी उनके नाम, जीवन, तथा स्थान के विषय में कोई निर्देश नहीं है। योगीन्दु द्वारा रचित परमात्म प्रकाश में मात्र उनका नाम जोइन्दु तथा उनके शिष्य का नाम भट्टप्रभाकर का उल्लेख भर मिलता है। श्री गांधी एवं डाॅ. ए.एन. उपाध्ये योगीन्दु को प्राकृत वैयाकरणकार चण्ड से भी अधिक पुराना सिद्ध करते है, क्योंकि चन्ड ने अपने प्राकृत वैयाकरण में प्राकृत लक्षण के सन्दर्भ में परमात्मप्रकाश का 85 वाँ दोहा उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है- काल लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोह गलेइ। तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ णियमें अप्पु मुणेइ।। आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने प्राकृत व्याकरण में योगीन्दु के परमात्मप्रकाश के कुछ दोहों का उल्लेख किया है। रामसिंह के पाहुडदोहा पर योगीन्दु के परमात्मप्रकाश का बहुत प्रभाव है। बौद्ध-सिद्ध सन्तों पर भी यागीन्दु की रचनाओं का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। उनका साहित्य योगीन्दु के विचारों का अनुकरण करता प्रतीत होता है। राहुल सांकृत्यायन ने इन सिद्धों का समय संवत् 817 तथा विनयतोष भट्टाचार्य ने 690 संवत्ं निश्चित किया है। अतः योगीन्दु का समय सिद्धों से पूर्व होने के कारण इनका काल छठी-सातवीं शताब्दी निधारित किया जा सकता है।
    रचनाएँ - यागीन्दु द्वारा रचित परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश), योगसार (अपभ्रंश), दोहापाहुड (अपभ्रंश), नौकार श्रावकाचार (अपभ्रंश), अध्यात्म संदोह (संस्कृत), सुभाषित तन्त्र (संस्कृत), तत्वार्थ टीका (संस्कृत), अमुताशीति (संस्कृत), निजात्माष्टक (प्राकृत) रचनाएँ मानी जाती हैं, किन्तु उन पर विद्वानों में मतभेद हैं। इनमें से परमात्मप्रकाश तथा योगसार इन दो रचनाओं को ही निर्विवाद रूप से योगीन्दु की रचना स्वीकार किया गया है।
    परमात्मप्रकाश-
    परमात्मप्रकाश रहस्यवादी धारा का महत्वपूर्ण आध्यात्मिक काव्य है। यह सम्पूर्ण काव्य प्रश्नोत्तर शैली की एक क्रमबद्ध रचना है। योगीन्दु के प्रबुद्ध शिष्य भट्टप्रभाकर गुरु से प्रश्न पूछते हैं और योगीन्दु उनके प्रश्नों का समाधान करते हैं। ब्रह्मदेव की टीका के अनुसार यह ग्रंथ मुख्य रूप से तीनो महाधिकारों में विभक्त है।1. त्रिविधात्मा अधिकार 2. मोक्ष अधिकार।  3. महाधिकार। त्रिविधात्मा अधिकार में 126, मोक्ष अधिकार में 107 तथा अन्तिम तीसरे महाधिकार में 112 दोहे है। त्रिविधात्माधिकार के दोहे का क्रम 1 से प्रारम्भ होकर 126 तक है। मोक्ष अधिकार में दोहों का क्रम पुनः 1 से प्रारम्भ होकर 107 तक है। तीसरे महाधिकार में दोहों का क्रम मोक्ष अधिकार के 107 दोहों के बाद 108 दोहे से प्रारम्भ होकर 229 दोहे तक है। इस प्रकार इस ग्रंथ में कुल 345 दोहे हैं। इन तीनों अधिकारों  की कथावस्तु संक्षेप में निम्न प्रकार है -
    त्रिविधात्माधिकार -
    परमात्म प्रकाश के प्रथम त्रिविधात्माधिकार का प्रारम्भ भट्ट प्रभाकर द्वारा पंचपरमेेष्ठि वंदन से होता है। वंदना के तुरन्त बाद ही भट्ट प्रभाकर ने आचार्य योगिन्द्रदेव से संसारी जीवों के चतुर्गति के दुःखों के निवारण हेतु आत्मा के श्रेष्ठ स्वरूप परम-आत्मा के विषय में बताने हेतु  प्रार्थना की है। भट्ट प्रभाकर की विनम्र प्रार्थना को सुनकर श्रीयोगीन्दाचार्य ने 11-15 (5) दोहों में सर्वप्रथम आत्मा के तीन प्रकार का उल्लेख कर उनको संक्षेप में परिभाषित किया है। उसके बाद भट्टप्रभाकर के प्रश्न के उत्तर में 16-49 (34) दोहों में आत्मा के उत्कृष्ट स्वरूप परम-आत्मा का विस्तारपूर्वक कथन किया है। 
    परम- आत्मा के विषय में जानने के बाद भट्टप्रभाकर योगीन्दु आचार्य से पुनः प्रश्न करते है कि  कुछ लोग जीव को सर्वव्यापक, कुछ अचेतन, कुछ देहके समान तथा कुछ शून्य कहते हैं, (आखिर जीव का सत्य स्वरूप क्या है ?) भट्टप्रभाकर के द्वारा पूछे गये प्रश्न के प्रत्युत्तर में आचार्य यागीन्दु ने आत्मा का विस्तृत रूप में विवेचन किया है। प्रारम्भ में  50-58 (9) दोहों में आत्मा के स्वरूप को संक्षेप में सरलता से समझाया है। पुनः आत्मा के स्वरूप को और स्पष्ट करने हेतु 59-103 दोहों में जीव व कर्म का सम्बन्ध तथा जीव व अजीव में भेद, आत्मा के मूर्ख एवं संयत स्वरूप का कथन कर योगीन्दुदेव ने भट्टप्रभाकर के आत्मा से सम्बन्धित प्रश्न का समाधान किया है।
    आत्मा के विषय में सुनने के बाद दोहा सं. 104 में  पुनः भट्टप्रभाकर आचार्य योगीन्दु से आत्मा को जाननेवाले परमज्ञान को कहने हेतु पुनः प्रार्थना करते हैं। तब योगीन्दुदेव 105-125 दोहों में परमज्ञान का स्वरूप, परमात्मा का ध्यान एवं उसका फल तथा निर्मल मन में ही परमात्मा का निवास होने का कथन करते हैं। त्रिविधात्मा अधिकार के अन्तिम 126वें दोहे में योगीन्दु  विषय-कषायों में जाते हुए मन को परमात्मा में रखने को ही मोक्ष (परमशान्ति) बताते हैं और यही त्रिविधात्माधिकार समाप्त हो जाता है। इस मोक्ष की बात सुनकर भट्टप्रभाकर पुनः आचार्य योगिन्दु से मोक्ष के विषय में कथन करने की प्रार्थना करते हैं और यही से दूसरे मोक्ष अधिकार का प्रारंभ होता है। 
    2. मोक्ष अधिकार
    योगीन्दु आचार्य के द्वारा तीन प्रकार की आत्मा तथा परमात्मा विषयक दिये गये उपदेश को सुनकर भट्टप्रभाकर ने पुनः प्रश्न किया कि हे गुरु! मुझे मोक्ष, मोक्ष का कारण और मोक्ष का फल बताइए जिससे मैं परमार्थ को जान सकूँ। तब योगिन्दु आचार्य ने मोक्ष, मोक्ष का कारण तथा मोक्ष का फल समझाया जो परमात्मप्रकाश का द्वितीय मोक्षाधिकार कहलाया। मोक्ष अधिकार मोक्ष की श्रेष्ठता एवं मोक्ष के स्वरूप के कथन से प्रारम्भ हुआ है। आगे मोक्ष के हेतु, दर्शन, ज्ञान और चारित्र को बहुत ही सरल रूप से समझाया गया है तथा समभाव प्राप्ति को ही मोक्ष का फल कहा है। समभाव का कथन पूरा हो चुकने के बाद ही
  6. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु ने पूर्व में कहा कि ज्ञान के बिना शान्ति नहीं हैं। आगे इसका विस्तार करते हुए आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि स्व-बोध ही सच्चा ज्ञान है। वैसे यदि हम इसको अनुभव करें तो हम पायेंगे कि वास्तव में जिसको अपना ही बोध नहीं है उसको पर का बोध होना कैसे सम्भव है ? दूसरे शब्दों में जिसको अपने ही सुख-दुःख का एहसास नहीं हो वह दूसरों के सुख में कैसे सहयोगी हो सकता है। जब हम अपनी ही  पीडा का अनुभव कर उसको दूर करने का प्रयत्न करेंगे तभी हम हम दूसरों की पीड़ा का अनुभव कर उसको दूर करने में सहयोग देंगे। धर्म के महत्वपूर्ण अंग जिस तपस्या को हम बहुत महत्व देते है वह तपस्या भी स्व बोध के अभाव में दुःखों का कारण बन जाती है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -  
    75.   जं णिय-बोहहँ बाहिरउ णाणु वि कज्जु ण तेण।
         दुक्खहँ कारणु जेण तउ जीवहँ होइ खणेण।।
    अर्थ - जो स्व-बोध से बाहर का ज्ञान हैै उस (बाहरी ज्ञान) से भी प्रयोजन नहीं है, क्योंकि (स्वबोध के अभाव से) (बाहरी) तप जीवों के लिए शीध्र दुःखों का कारण होता है।
    शब्दार्थ - जं - जो, णिय-बोहहँ-स्व-बोण का, बाहिरउ-बाहर का, णाणु -ज्ञान, वि -भी, कज्जु-प्रयोजन, ण-नहीं, तेण-उससे, दुक्खहँ -दुःखों का, कारणु-कारण, जेण -कयोंकि, तउ-तप, जीवहँ -जीवों के लिए, होइ -होता है, खणेण-शीघ्र।
  7. Sneh Jain
    किसी भी भाषा को सीखने व समझने के लिए उस भाषा के मूल तथ्यों की जानकारी होना आवश्यक है। अपभ्रंश भाषा को सीखने व समझने के लिए भी इस भाषा के मूल तथ्यों को समझना होगा जो निम्न रूप में हैं -
     
    1. ध्वनि - फेफड़ों से श्वासनली में होकर मुख तथा नासिका के मार्ग से बाहर निकलने वाली प्रश्वास वायु ही ध्वनियों को उत्पन्न करती है। प्रत्येक ध्वनि के लिए एक भिन्न वर्ण का प्रयोग होता है। प्रश्वास को मुख में जीभ द्वारा नहीं रोकने तथा रोकने के आधार पर ध्वनियाँ दो प्रकार की मानी गई हैं - (1) स्वर ध्वनि और (2) व्यंजन ध्वनि
    (1) स्वर ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में जीभ प्रश्वास को मुख में किसी भी तरह नहीं रोकती तथा प्रश्वास बिना किसी रुकावट के बाहर निकलता है, वे स्वर ध्वनियाँ कहलाती हैं। इनका उच्चारण बिना किसी वर्ण की सहायता के स्वतन्त्र रूप में किया जाता है। अपभ्रंश में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ स्वर होते हैं। हिन्दी के ऋ, ऐ, औ स्वर यहाँ नहीं होते।
    (2) व्यंजन ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में प्रश्वास मुख में जीभ द्वारा रोका जाता है और यह इधर उधर रगड़ खाता हुआ बाहर निकलता है, वे व्यंजन ध्वनियाँ कहलाती हैं -
    क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण....
    अपभ्रंश में असंयुक्त अवस्था में ङ और अ का प्रयोग नहीं पाया जाता है। ङ और अ के स्थान पर संयुक्त अवस्था में अनुस्वार का प्रयोग बहुलता से मिलता है।
     
    2. चिन्ह - अपभ्रंश में निम्न चिन्हों का प्रयोग होता है -
    (१) अनुस्वार - स्वर के ऊपर जो बिन्दी लगाई जाती है, उसे अनुस्वार कहते हैं। अनुस्वार का स्वरों के बिना प्रयोग नहीं होता अर्थात् स्वरों की सहायता से ही इनका उच्चारण हो सकता है। जैसे -
    क ख ग घ ह से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘’ङ" की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंक - पक, अंग - अङ्ग आदि ।
    च छ ज झ य से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ञ् ' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंच - पञ्च , संयम - सञ्यम आदि।
    ट ठ ड ढ से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ‘ण’ की तरह होता है। उदाहरणार्थ - टंटा–टण्टा, अंडा–अण्डा आदि।
    त थ द ध न र से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘न्' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - अंत-अन्त।
    प फ ब भ म व से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘म्' के समान होता है। उदाहरणार्थ - संमाण–सम्मान् आदि।
    (२) अनुनासिक - अनुस्वार का कोमल रूप अनुनासिक कहलाता है | उदाहरणार्थ - आँखें, अँगूठी, हँसना आदि।
    (३) अर्धचन्द्र - हिन्दी व अंग्रेजी की तरह अपभ्रंश में भी कुछ स्वरों पर ऐसा चिन्ह स्वरों को ह्रस्व दिखाने हेतु लगाया जाता है - रणे, ताणन्तरे, खग्गएँ, पअहिराएँ आदि।
     
    3. वचन - संज्ञा सर्वनाम तथा विशेषण के जिस रूप से यह पता चले कि वह एक को बता रहा है या अनेक को, उसे वचन कहते हैं। अपभ्रंश में दो ही वचन होते हैं - एकवचन और बहुवचन।
    (१) एकवचन - संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक का बोध हो, उसे एकवचन कहते हैं। जैसे - देवो, माउलो, णरो आदि।
    (२) बहुवचन - संज्ञा सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक से अधिक का बोध हो, उसे बहुवचन कहते हैं। जैसे - देवा, माउला, णरा आदि। कई बार सम्मानार्थ व अभिमानार्थ भी एक के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है।
     
    4. शब्द - प्रयोग की दृष्टि से शब्द पाँच प्रकार के हैं -
    (क) संज्ञा (ख) सर्वनाम (ग) विशेषण (घ) क्रिया (ङ) अव्यय
    (क) संज्ञा - किसी व्यक्ति, जाति, स्थान, वस्तु, विचार भाव आदि के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे - रहुणन्दण, कमल, सीया, धेणु, वारि आदि।
    संज्ञा शब्द लिंगभेद के आधार पर तीन प्रकार के तथा शब्द संरचना के आधार पर चार प्रकार के होते हैं।
    लिंग भेद - (1) पुल्लिंग (2) स्त्रीलिंग (3) नपुंसकलिंग
    शब्द संरचना - (1) अकारान्त (2) आकारान्त (3) इकारान्त/ ईकारान्त (4) उकारान्त/ ऊकारान्त।।
    सामान्यत: अकारान्त शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग होते हैं तथा आकारान्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। इकारान्त, उकारान्त शब्द पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग होते हैं; किन्तु अपभ्रंश में कई स्थानों पर एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त अलग–अलग शब्द अलग–अलग लिंग से युक्त भी देखे जाते हैं।
    जैसे - स्त्री शब्द हेतु अपभ्रंश में दार, भज्जा और कलत्त शब्द हैं। इनमें दार पुल्लिंग, भज्जा स्त्रीलिंग और कलत्त नपुंसकलिंग हैं। शरीर के लिए तणु स्त्रीलिंग, देह पुल्लिंग और सरीर नपुंसक लिंग अर्थ में प्रयुक्त होता है। जल के लिए प्रयुक्त सलिल शब्द पुल्लिंग तथा उदग शब्द नपुंसकलिंग है। इसीप्रकार अनेक अकारान्त संज्ञा शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग दोनों ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। अत: अपभ्रंश में लिंग का ज्ञान कोश के आधार से ही किया जाना चाहिए।
    ( ख ) सर्वनाम - संज्ञा की पुनरुक्ति के निवारण के लिए जिन शब्दों का प्रयोग होता है, वे सर्वनाम शब्द कहलाते हैं।
    सर्वनाम छ: प्रकार के हैं -
    1. पुरुषवाचक सर्वनाम - बोलनेवाले, सुननेवाले तथा अन्यपुरुष की संज्ञा के स्थान पर जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है, वे पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन भेद हैं -
    (1) उत्तमपुरुष - बोलनेवाला या लिखने वाला जिन सर्वनामों का अपने लिए प्रयोग करता है, वे उत्तमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - हउं-मैं, अम्हे/अम्हइं–हम सब
    (2) मध्यमपुरुष - बोलनेवाला या लिखनेवाला जिस व्यक्ति को बोलता है या लिखता है, वे मध्यमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - तुहुं—तुम/तुम्हे, तुम्हइं–तुम सब
    (3) अन्यपुरुष - बोलनेवाला तथा सुननेवाला जिस अन्य व्यक्ति के विषय में कुछ कहता है, वे सब अन्यपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।
    जैसे - सो—वह (पुल्लिंग), ते–वे सब (पुल्लिंग), सा-वह (स्त्रीलिंग), ता–वे सब (स्त्रीलिंग)।
    नोट - सभी संज्ञा शब्द भी अन्यपुरुष के अन्तर्गत ही आते हैं।
    2. निश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए निश्चित संकेत करे, वह निश्चयवाचक सर्वनाम है। जैसे - यह, ये, वह, वे आदि।
    3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी निश्चित वस्तु या व्यक्ति के लिए संकेत न करे, वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं। जैसे - कोई, कुछ आदि।
    4. सम्बन्धवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम अन्य उपवाक्य में प्रयुक्त होकर संज्ञा या सर्वनाम का सम्बन्ध प्रकट करे, वह सम्बन्धवाचक सर्वनाम है। जैसे - जो करेगा सो भरेगा, जिसे देखो वही खुश है। यह सम्बन्धवाचक सर्वनाम उसी संज्ञा की ओर संकेत करता है, जो उसके पहले आ चुकी है।
    5. प्रश्नवाचक सर्वनाम - किसी व्यक्ति या वस्तु के विषय में कुछ प्रश्न पूछने के लिए जिस सर्वनाम का प्रयोग होता है, वह प्रश्नवाचक सर्वनाम है। जैसे - कौन, क्या आदि।।
    6. निजवाचक सर्वनाम - जो उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष तथा अन्यपुरुष का अपने आप बोध करावे, वह निजवाचक सर्वनाम है। जैसे - आप स्वयं करके देखें। तुम स्वयं अपना काम सुधारो।
    (ग) विशेषण - जो शब्द संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता को प्रकट करते हैं, वे विशेषण कहलाते हैं। इनके विभक्ति, लिंग और वचन विशेष्य के अनुसार ही होते हैं।
    विशेषण के तीन भेद है -
    1. सार्वनामिक विशेषण 2. गुणवाचक विशेषण 3. संख्यावाचक विशेषण
    (घ) क्रिया - जिन शब्दों से किसी काम का होना या करना प्रकट हो, उसे क्रिया कहते है। जैसे जाता है, गया, जायेगा, पढाता है आदि।
    क्रिया दो प्रकार की होती है - अकर्मक, सकर्मक ।
    (1) अकर्मक क्रिया - अकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कोई कर्म नहीं होता और जिसका प्रभाव कर्ता पर ही पड़ता है। । (२) सकर्मक क्रिया - सकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कर्म होता है तथा जिसमें कर्ता की क्रिया का प्रभाव भी कर्म पर ही पड़ता है।
    क्रियाओं का प्रेरणार्थक रूप - कर्ता स्वयं जब किसी भी क्रिया (अकर्मक, सकर्मक) को करने हेतु किसी को प्रेरित करता है या अन्य किसी को क्रिया करने हेतु प्रेरित करवाता है, तब वहाँ प्रेरित करने तथा प्रेरित करवाने के अर्थ में प्रेरणार्थक क्रिया होती है। अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में ही प्रेरणार्थक प्रत्यय लगाकर उनको प्रेरणार्थ क्रिया बनाया जाता है। अकर्मक क्रिया जैसे ही प्रेरणार्थक क्रिया बनती है. उसमें कर्म का समावेश हो जाता है और वही सकर्मक क्रिया का रूप लेकर प्रेरणार्थक क्रिया बन जाती है।
    (ङ) अव्यय - ऐसे शब्द जिनके रूप में कोई विकार/परिवर्तन उत्पन्न न हो और जो सदा सभी विभक्ति, सभी वचन और सभी लिंगों में एक समान रहे तथा लिंग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में घटती-बढ़ती न हो, वे अव्यय शब्द कहलाते हैं। इनको अविकारी शब्द भी कहा जाता है। अपभ्रंश में सम्बन्धक भूत कृदन्त (पूर्वकालिक क्रिया) तथा हेत्वर्थक कृदन्त भी अव्यय का ही काम करते हैं।
    5. लिंग -  जिस चिन्ह से यह पता चले कि संज्ञा पुरुष जाति की है या स्त्री जाती की, उसे लिंग कहते हैं।
    अपभ्रंश भाषा में ३ लिंग होते हैं -
    1.पुल्लिंग 2. स्त्रीलिंग 3. नपुंसकलिंग
     
    6. काल - क्रिया के जिस रूप से क्रिया के होने के समय का पता चलता है, उसे काल कहते हैं।
    अपभ्रंश भाषा में ४ प्रकार के काल होते हैं -
    1.वर्तमानकाल 2.विधि एवं आज्ञा 3.भविष्यत्काल 4.भूतकाल - अपभ्रंश भाषा में भूतकाल को व्यक्त करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है।
     
    7. कारक - संज्ञा व सर्वनाम के जिस रूप से उसका क्रिया अथवा दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है, उसे कारक कहते हैं। संज्ञा व सर्वनाम के रूप रचना विधान से ही इनका क्रिया व दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है।
    अपभ्रंश भाषा में कारक ८ होते हैं -
    1.कर्ता 2.कर्म 3.करण 4.सम्प्रदान 5.अपादान 6.सम्बन्ध 7.अधिकरण ८.सम्बोधन
    रूप रचना विधान (संज्ञा)
    कारक
    एकवचन बहुवचन कर्ता
    राजा, राजा ने राजा, राजाओं ने कर्म
    राजा को राजाओं को करण
    राजा से, द्वारा राजाओं से सम्प्रदान
    राजा के लिए, को राजाओं के लिए, को अपादान
    राजा से राजाओं से सम्बन्ध
    राजा का, के, की राजाओं का, के, की अधिकरण
    राजा में/पर राजाओं में, पर सम्बोधन
    हे राजा ! हे राजाओं !  
    रूप रचना विधान (सर्वनाम)
    उत्तम पुरुष 'मैं' के सब कारकों में रूप
     कारक
    एकवचन बहुवचन कर्ता
    मैं, मैंने हम, हमने कर्म
    मुझको, मुझे हमको, हमें करण
    मुझसे, मेरे द्वारा हमसे, हमारे द्वारा सम्प्रदान
    मुझको, मुझे, मेरे लिए हमको, हमें, हमारे लिए अपादान
    मुझसे हमसे सम्बन्ध
    मेरा, मेरे, मेरी हमारा, हमारे, हमारी अधिकरण
    मुझमें, पर हममें, पर शब्द रूपावली से स्पष्ट है कि अपभ्रंश में चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति के लिए एक समान ही प्रत्यय हैं। सर्वनाम में सम्बोधन नहीं होता।
     
    8. वाच्य - वाक्य रचना का मुख्य आधार वाच्य होता है। क्रिया के जिस रूप से पता चले कि उसके वर्णन का मुख्य विषय कर्ता है, कर्म है या धातु का भाव है, उसे वाच्य कहते हैं। वाच्य तीन प्रकार के होते हैं -
    (1) कर्तृवाच्य (2) भाववाच्य (3) कर्मवाच्य 
    (1) कर्तृवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्ता' हो, वहाँ कर्तृवाच्य होता है। कर्तृवाच्य का प्रयोग अकर्मक व सकर्मक दोनों क्रियाओं के साथ होता है। अकर्मक क्रिया से कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता सदैव प्रथमा विभक्ति में होता है तथा कर्ता के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार क्रियाओं के लिंग, वचन व पुरुष होते हैं। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता में प्रथमा तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और क्रिया के पुरुष और वचन कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होते हैं। अकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग चारों कालों - वर्तमान, विधि-आज्ञा, भविष्यत्काल तथा भूतकाल में होता है; जबकि सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग प्रायः भूतकाल में नहीं होता, बाकी तीनों कालों में होता है।
    (2) भाववाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय न कर्ता हो और न कर्म; बल्कि क्रिया का अर्थ (भाव) ही विधान का विषय बने, वहाँ भाववाच्य होता है। इसमें क्रिया के लिंग, वचन, पुरुष न तो कर्ता के अनुसार होते हैं, और न कर्म के अनुसार होते हैं। इसमें क्रिया सदैव अन्य पुरुष एकवचन में तथा कृदन्त सदैव नपुंसक लिंग प्रथमा एकवचन में रहते हैं। भाववाच्य में सदैव अकर्मक क्रियाएँ ही प्रयुक्त होती हैं।
    (3) कर्मवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय ‘कर्म' हो, वहाँ कर्मवाच्य होता है। कर्मवाच्य में सकर्मक क्रियाएँ व प्रेरणार्थक क्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं। इसमें क्रिया के लिंग, वचन व पुरुष - कर्म के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार होते हैं। कर्मवाच्य क्रिया व कृदन्त दोनों से बनाये जाते हैं।
  8. Sneh Jain
    व्यक्ति और समाज का परष्पर अटूट सम्बन्ध है। समाज के बिना व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, तथा व्यक्तियों से मिलकर ही समाज का निर्माण होता है। इस तरह व्यक्ति समाज की एक इकाई है। इस प्रत्येक इकाई का अपना निजी महत्व है। मनुष्य के अकेले जन्म लेने और अकेले मरण को प्राप्त होने से व्यक्ति की व्यक्तिगत महत्ता का आकलन किया जा सकता है। संसार में भाँति भाँति के मनुष्य हैं, उन सबकी भिन्न- भिन्न विशेषताएँ हैं। अपने आसपास के वातावरण, संगति तथा अपनी बदलती शारीरिक अवस्था के प्रभाव से व्यक्ति का व्यक्तित्व भी निरन्तर परिवर्तनशील है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख शान्ति चाहता है, किन्तु उसका अज्ञान व अज्ञानजनित भय उसके विकास में अवरोध बन जाता है। इस अज्ञान व भय के कारण वह गलत कार्य का विरोध नहीं कर पाता। फलतः उसका जीवन सुख-शान्ति से परे दुःखमय हो जाता है।  प्रत्येक व्यक्ति अपने सद्ज्ञान से ही सुख-शान्ति प्राप्त कर सकता है और सद्ज्ञान से ही व्यक्ति की सद्गुणों पर शृद्धा होती है तथा सद्गुण से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास संभव है।
    यहाँ हम रामकथा के प्रतिनायक रावण के छोटे भाई विभीषण के जीवन चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि जब तक रावण गुणवान था तब तक विभीषण का रावण के प्रति पूर्ण सम्मानभाव ही नहीं बहुत प्रेम भाव था और उसके प्रति अत्यन्त गौरवान्वित था। यहाँ तक की रावण का जरा सा भी अहित हुआ जान विभीषण हर संभव उनकी रक्षा करने में तत्पर रहता था। उस ही विभीषण ने रावण के चरित्रहीन होने पर रावण को बहुत समझाया। बहुत समझाने पर भी नहीं समझने पर अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण चरित्रहीन रावण का साथ छोड़ गुणवान राम के पक्ष में हो गया। अपने सभी सम्बन्धियों का विरोध सहकर विपक्षी से मिलना आसान नहीं होता, किन्तु यह उसकी गुणानुराग रूप एक अद्भुत आत्मशक्ति ही थी जिससे साहस पाकर वह ऐसा कर पाने में सफल हो सका। इस ही साहस के कारण उसने अन्त समय संन्यास धारण कर अपना जीवन कृतार्थ किया। आगे विभीषण के जीवन की घटनाओं के माध्यम से उसकी गुणानुरागता को निम्न रूप में दिखाया जा रहा है, जो सभी के लिए उपादेय है।      
    विभीषण ने सागरबुद्धि भट्टारक से दशरथ के पुत्र राम व लक्ष्मण द्वारा राजा जनक की कन्या सीता के कारण रावण का युद्ध में मारा जाना सुना, तो वह क्रोधित हो उठा और यह कहते हुए कि जब तक रावण तक मृत्यु नहीं पहुँचती तब तक मैं जनक और दशरथ का सिर तोड़ देता हूँ, उनको मारने के लिए चल पड़ा। दशरथ व जनक को भी यह सूचना मिल चुकी थी, इससे उन्होंने अपनी लेपमयी मूर्तियाँ स्थापित करवा दी। विभीषण ने दशरथ व जनक द्वारा निर्मित लेपमयी मूर्तियों का सिर उड़ाकर अपना काम पूरा होना जान लिया।
    विभीषण अपने बडे़ भाई रावण का बहुत सम्मान करते थे और उनके प्रति गौरवान्वित थे। एक दिन माँ केकशी के द्वारा रावण सेे यह पूछा जाने पर कि तुम्हारे मौैसेरे भाई वैश्रवण ने अपने शत्रुओं से मिलकर अपनी लंकानगरी का अपहरण कर लिया है, हम पुनः कब इस लंकानगरी को प्राप्त कर सकेंगे? तभी रावण के प्रति आश्वस्त विभीषण ने कहा कि रावण के आगे वैश्रवण का क्या ? थोड़े ही दिनों में तुम यम,            स्कन्ध, कुबेर पुरन्दर, रवि, वरुण, पवन और चन्द्रमा आदि विद्याधरों को प्रतिदिन रावण के घर में सेवा करते हुए देखोगी।
    विभीषण ने रावण द्वारा लंका में हरणकर लायी सीता के मुख से राम व लक्ष्मण का जीवित होना जाना तो उसे सागरबुद्धि भट्टारक के कथनानुसार राम, लक्ष्मण के हाथों रावण की मृत्यु होने का समय आने पर विश्वास होने लगा। थोड़ी देर बाद ही उसने हनुमान से भी रावण द्वारा किये सीताहरण के विषय में जाना। तब विभीषण ने रावण को समझाने का भरपूर प्रयास किया। उसने कहा, उत्तम पुरुषों के लिए यह अच्छी बात नहीं, इससे तुम्हारा विनाश तो होगा ही और लोक द्वारा धिक्कारा जाकर लज्जित भी होओगे। रावण के नहीं मानने पर भी रावण की रक्षा के लिए चारों दिशाओं और नगर में आशाली विद्या घुमवाकर नगर को सुरक्षित करवा दिया। पुनः विभीषण ने रावण के चरित्र से डिगने पर उसकी तीव्र भत्र्सना की। उन्होंने कहा, कभी तुम तेजस्वी सूर्य थे परन्तु इस समय तुम एक टिमटिमाते जुगनू से अधिक महत्व नहीं रखते। जिसने पहाड़ के समान अपना चरित्र खण्डित कर लिया वह जीकर क्या करेगा।
    विभीषण के द्वारा बार-बार समझाया जाने पर भी रावण के नहीं समझने पर उसने हनुमान को कहा - आपके ही समान मैंने भी उसे सौ बार समझाया तो भी महा आसक्त वह नहीं समझता। मैं जो कुछ भी कहता हूँ उसे वह विपरीत लेता है। यदि अब वह अपने आपको इस कर्म से विरत नहीं करेगा तो युद्ध प्रारम्भ होते ही मैं राम का सहायक बन जाऊँगा। इस प्रकार गुणानुरागी  विभीषण ने पापकर्म में आसक्त अपने ही भाई रावण को छोड़ने का निर्णय लिया और कुछ समय बाद ही राम की सेना में जाकर मिल गया। गुणानुरागी विभीषण ने राम के पास आकर कहा- आदरणीय राम! आप सुभटों में सिंह हैं, आपने बड़े-बडे़ युद्धों का निर्वाह किया है। जिस प्रकार परलोक में अरहन्तनाथ मेरे स्वामी हैं उसी तरह इस लोक के मेरे स्वामी आप हैं।
    लंका में विभीषण के व्यवहार से आस्वस्त हुई सीता भी विभीषण के विषय में यही कहती है कि ‘दुर्जनों के बीच में यह सज्जन, नीम के बीच में यह चन्दन और संकट आ पड़ने पर साधर्मीजन वत्सल यह कौन है?
    रावण की मृत्यु होने पर भी करुण विलाप करते हुए विभीषण राम को यही कहता है कि रावण ने अपयश से दुनियाँ को भर दिया, इसने तप नहीं किया, मोक्ष नहीं साधा, भगवान की चर्चा नहीं की, मद का निवारण नहीं किया और तिनके के समान अपने को तुच्छ बना लिया।
    इतना ही नहीं विभीषण ने अयोध्या में भी सीता के सतीत्व की पुष्टि करने हेतु सीता के साथ लंका में रही त्रिजटा को बुलवाया। त्रिजटा ने वहाँ आकर सीता के सतीत्व की दृढ़ पुष्टि की। इसके बाद राम से स्वीकृति प्राप्त कर सुग्रीव आदि प्रमुखजनों के साथ विभीषण सीता को अयोध्या ले आये। इस प्रकार गुणानुरागी विभीषण ने सीता के प्रति भी अपना कत्र्तव्य पूरा किया।  अन्त में विभीषण ने अपनी गुणानुराग प्रवृत्ति के कारण ही राम के दीक्षा ग्रहण करने पर त्रिजटा के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली।
  9. Sneh Jain
    मनुष्य का सारा जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का ही खेल है और यही कारण है कि सभी धर्म ग्रंथों में भी प्र्रवृत्ति और निवृत्ति का ही कथन है। राम और सीता के जीवन में निवृत्ति का स्वरूप कैसा था इसको समझने से पहले संक्षेप में प्रवृत्ति और निवृत्ति का अर्थ समझना आवश्यक है।
    प्रवृत्ति - ज्ञाता के पाने या छोड़ने की इच्छा सहित चेष्टा का नाम प्रवृत्ति है।  छोडने की इच्छा से प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का अंश देखा जाता है।
    निवृत्ति - बहिरंग विषय कषाय आदि रूप अभिलाषा को प्राप्त चित्त का त्याग करना निवृत्ति है। अर्थात् अभिलाषाओं का त्याग ही निवृत्ति है।    
    स्वयंभू कवि ने अपने द्वारा रचित पउमचरिउ काव्य में राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन का ही उल्लेख किया है, स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने उस काव्य की आगे की 7 संधियाँ और लिखकर उस काव्य को राम के निवृत्तिपूर्ण जीवन के साथ समाप्त किया है। यदि हमें राम के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति को देखना है तो हमें सम्पूर्ण पउमचरिउ काव्य का अध्ययन करना होगा, जबकि सीता के प्रवृत्ति और निवृत्तिपरक जीवन को स्वयंभू द्वारा रचित काव्य में ही देखना सम्भव है। यहाँ दोनों का ही दोनों प्रकार का जीवन निम्न प्रकार से बताया जा रहा है -  
    राम का प्रवृत्तिपूर्ण जीवन - राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन का पीछे लिखे गये राम के इसवह में विस्तार के साथ विवेचन किया गया है।उसमें बताया गया है कि राम की प्रवृत्ति उनके एक आदर्शपुत्र, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, गुणिजनों के प्रति उनके प्रेम, द्रोह भाव से रहित होने, दुःखियों के प्रति करुणावान होने, जिनदेव व गुरु के प्रति श्रृद्धावान होने में देखी गयी है। पत्नी के प्रति भी उनका इतना प्रेम दिखाया गया है कि वे उनको वनवास में भी अपने साथ रखते हैं और उनको विभिन्न क्रीड़ाओं से आनन्दित रखते हैं। रावण के द्वारा हरण करने पर वे उसे प्राप्त कर ही दम लेते हैं। किन्तु अचानक परिस्थिति बदल जाने पर सीता पर लोक के द्वारा अपवाद लगाया जाने पर अपने राजपद की मर्यादा, लोकभय आदि कारणों से सीता के प्रति राम की प्रवृत्ति परिवर्तित हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप सीता को निर्वासन का दुःख  भोगना पडता है। निर्वासन की समाप्ति के बाद भी राम की अहंकारपूर्ण कलुषित प्रवृत्ति ही सीता को अग्निपरीक्षा हेतु विवश करती है। त्रिभुवन द्वारा रचित आगे के काव्य में राम का लक्ष्मण के प्रति अतिमोह का कथन और उसके बाद राम के निवृत्तिपूर्ण जीवन का निम्नरूप में कथन हुआ है।
    राम का निवृत्तिपूर्ण जीवन - देवों के उद्बोधन से राम का मोह ढीला पड गया और उनकी आँखे खुली। वेे विचार करने लगे कि संसार में अणरण्य, दशरथ, भरत, सीतादेवी, हनुमान आदि धन्य हैं जिन्होंने अपना परलोक साधा, मैं ही एक ऐसा हूँ जो यौवन बीतने और लक्ष्मण जैसे भाई के मरने पर भी आत्मा के घात पर तुला हुआ हूँ। सुन्दर स्त्रियाँ, चमरांे सहित छत्र, बन्धु-बान्धव ये सब उपलब्ध हो सकते हैं परन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। यह सोचते हुए राम को बोध प्राप्त हो गया। तब शोक का परिहार कर राम ने लक्ष्मण का सरयू नदी के किनारे दाह संस्कार कर दिया। उसके पश्चात् उन्होंने लवण के पुत्र के सिर पर राजपट्ट बाँधकर सुव्रत मुनि के पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
    राम ने दीक्षा ग्रहण कर बारह प्रकार का तप अंगीकार किया। छः उपवास करने के पश्चात् स्यंदनस्थली नगर के राजा प्रतिनन्दीश्वर ने राम को पारणा करवाया। पारणा कर राजा को अनेक व्रत प्रदान कर राम भ्रमण करते हुए कोटिशिला प्रदेश में पहुँचे और ध्यान में लीन हो गये। तभी सीतादेवी का आगामी भव का जीव स्वयंप्रभदेव राग के वशीभूत होकर मुनीन्द्र राम के पास उनको ध्यान से डिगाने हेतु आया। उसने नाना प्रकार से  ध्यान में लीन राम को रिझाने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु मुनिवर राम का मन नहीं डिगा। माघ माह के शुक्ल पक्ष में बारहवीं की रात के चैथे प्रहर में मुनीन्द्र राम ने चार घातिया कर्मों का नाश कर परम उज्ज्वल ज्ञान प्राप्त कर लिया। उसके बाद स्वयंप्रभ देव को संबोधन दिया-  तुम राग को छोड़ो, जिनभगवान ने जिस मोक्ष का प्रतिपादन किया है वह विरक्त को ही होता है। सरागी व्यक्ति का कर्मबन्ध और भी पक्का होता है। अन्त में मुनीन्द्र राम ने निर्वाण प्राप्त कर लिया।
    यह है राम का प्रवृत्ति व निवृत्तिपरक जीवन का दृश्य। उसमें स्वयंभू ने मात्र राम के प्रवृत्तिपूर्ण जीवन को ही दिखाया है, निवृत्तिपरक नहीं। निवृत्तिपरक जीवन का कथन स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने ही किया है। हो सकता है स्वयंभू को सीता का स्वयंप्रभ देव बताकर सीता को पुनः नीचे गिराना स्वयंभू को अच्छा नहीं लगा हो। खैर जो भी हो, निवृत्तिपरक और प्रवृत्तिपरक जीवन को राम के जीवन से समझना आसान है।
    सीता का प्रवृत्तिपूर्ण जीवन  - इससे पूर्व के  इसवह में हमने सीता को उनके वनवासकान हरणकाल में विभिन्न प्रवृत्तियों सहित देखा। वहाँ आप पुनः देखें। वनवासकाल से लेकर अग्निपरीक्षा तक का जीवन उनका प्रवृत्तिपरक जीवन है। अग्निपरीक्षा के बाद का जीवन उनका निवृत्तिपरक जीवन रहा है। यही से सीता का मन परिवर्तित हो चुका । राम से क्षमा मांगने पर सीता ने कहा,- हे राम! आप व्यर्थ में विषाद न करें। मैं विषय-भोगों से ऊब चुकी हूँ। तभी सीताने सिर के केश उखाड़कर राम के समक्ष डाल दिये और सर्वभूषण मुनि के पास दीक्षा धारण करली।

     
    इस प्रकार राम और सीता दोनों के परष्पर आक्रोश तथा साथ ही परष्पर क्षमा भाव के साथ दोनों के प्रवृत्ति व निवृत्ति परक जीवन के माध्यम से निवृत्ति व प्रवृत्तिपरकता को आसानी से ह्नदयंगम किया जा सकता है।
  10. Sneh Jain
    भारतीय संस्कृति एवं रामकाव्य
    भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से परिष्कृत होती हुई सतत विकास की और प्रवाहमान है। विगत समय से लेकर वर्तमान पर्यन्त यदि हम भारतीय संस्कृति का अनुशीलन करें तो हम देखते हैं कि पूर्वकाल में जहाँ तक इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण व वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं। इससे जान पड़ता है कि इतिहासातीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयीं हैं तथा भारतीय संस्कृति का निर्माण श्रमण और वैदिक परम्परा के मेल से ही हुआ है। इसमें श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धारा ने तथा वैदिक परम्परा का प्रतिनिधित्व हिन्दू धारा ने किया है। इन दोनों परम्पराओं में जहाँ लोकजीवन व सामाजिक व्यवस्था की समान समस्याएँ रहीं हैं वहीं दोनों परम्पराओं का अलग-अलग निजि वैशिष्ट्य भी रहा है। इनमें जो समानता है वह भारतीय एकत्व धारा का बोधक है और जो वैषम्य है वह दोनों धाराओं के अपने-अपने वैशिष्ट्य का द्योतक होते हुए भी भारतीय संस्कृति की समृद्धि का बोध कराता है।
     
    इन दोनों परम्पराओं में अनेकता, विविधता तथा विचित्रता के बीच भी समन्वय की जो शान्त भावना काम करती रही ह,ै यही भारतीय संस्कृति की मानवजाति के लिए सबसे बड़ी देन है। अपने - अपने वैशिष्ट्य को सुरक्षित रखते हुए भी एक समन्वय के सूत्र में ग्रथित होने के कारण दोनों परम्पराओं में एक जीती-जागती समग्रता की भावना अद्यतन अक्षुण्ण बनी रही है। राजनीतिक एवं सामाजिक विपर्ययों एवं क्रान्तिकारी बाह्य परिवर्तनों के बीच भी समग्रता की इस भावना ने ही दोनों परम्पराओं से निर्मित इस भारतीय संस्कृति को विस्मृति के घनान्धकार में विलीन नहीं होने दिया जबकि भारतीय सभ्यता की समकालीन अन्य प्राचीन सभ्यताएँ नष्ट होकर इतिहास मात्र में अपने अस्तित्व होने भर की सूचना दे रहीं हैं। इस समन्वय के सूत्रधार हैं वैदिक व श्रमण परम्परा के ऋषि-मुनि। वैदिक व श्रमण परम्परा के प्रतिनिधि तपस्वी ऋषि-मुनियों के प्रयास से ही भारतीय संस्कृति में सदैव अद्वैत की ध्वनि गूंज रही है। इन तपस्वी ऋषि-मुनियों ने इस महान वस्तु को पहले से ही पहचान रखा था। उनकी हमेशा से ही यह दिव्य देशना रही है कि संसार में न कोई ऊँच है, न कोई नीच, सभी में दिव्यता है। हमें एक दूसरे के दोषों को नहीं देखते हुए उनमें छिपे हुए गुण ही देखने चाहिए। यह भारतीय ऋषि-मुनियों की देशना का ही परिणाम है कि भारत भूमि में  भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का समन्वय हुआ है। भारत के बाहर से आनेवाले द्रविड, आर्य, मंगौल, युनानी, युची, शक, आभीर, हूण और तुर्क, इनका कोई अलग अस्तित्व नहीं है, ये आर्य सभ्यता का ही एक हिस्सा बन चुके हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति इस देश में आकर बसनेवाली अनेक जातियों का ही सम्मिश्रण है।
    रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो महाकाव्य हैं। महाकाव्यों की रचना तभी संभव होती है जब संस्कृतियों की विशाल धाराएँ किसी संगम पर जाकर मिलनेवाली होती हैं। भारत में संस्कृति समन्वय की जो प्रक्रिया चल रही थी, ये दोनों काव्य भारतीय संस्कृति समन्वय की ही अभिव्यक्ति है। भारत में जो संस्कृति समन्वय हुआ रामकथा उसका उज्जवल प्रतीक है। रामकथा के इस समन्वयात्मक उपादेयता के कारण ही भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामकथाएँ लिखी गयी हैं। इनमें प्रत्येक रामकथा अपने-अपने क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय बनी। इस लोकप्रियता से भारतीय संस्कृति की एकरूपता अत्यन्त प्रबुद्ध हुई।
    प्रारंभ में संस्कृत, प्राकृत, पालि और अपभ्रंश भाषा में रामकथा पर काव्य लिखे गये। उसके बाद जब आधुनिक भाषाओं का काल आया तब इनमें भी रामकथा पर एक से एक उत्तम काव्य लिखे गये। आधुनिक भाषाओं में लिखे गये रामकाव्यों में से कुछ रामकाव्य है, कंबर कृत तमिल रामायण (12वींसदी), रंगनाथ कृत तेलुगु द्विपद रामायण (14वीं सदी) राम कृत रामचरितम् (मलयालम, 14वीं सदी), नरहरि कृत तोरवे रामायण (कन्नड, 16वीं सदी), दिवाकर प्रकाशभट्ट कृत रामावतार चरित्र (काश्मीरी, 18वीं सदी), माधव केदली कृत रामायण (असमिया, 14वीं सदी), कृतिवास कृत कृतिवास रामायण(बंगला, 15वीं सदी), गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस (हिन्दी, 16वीं सदी), उल्कलवाल्मीकि बलरामदास कृत बलरामदास रामायण (उडिया, 16वीं सदी), एकनाथ कृत भावार्थ रामायण (मराठी, 16वीं सदी), गिरधरदास कृत रामायण (गुजराती, 19वीं सदी), मुन्शी जगन्नाथ खुश्तर कृत रामायण खुश्तर (उर्दू, 19वीं सदी), मुल्ला मसीहा कृत रामायवामसीही (फारसी, 17वी सदी)
    उपरोक्त सभी रामकथाओं की रचना मुख्यतः तीन कथाओं को लेकर पूर्ण हुई है। पहली कथा अयोध्या के राजप्रसाद की है, दूसरी रावण की और तीसरी किष्किंधा के वानरों की। इन तीनों कथाओं के नायक हैं, क्रमशः राम, रावण और हनुमान, जो तत्कालीन प्रायः सम्पूर्ण भारत क्षेत्र के धर्म, दर्शन एवं संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तीनों के समन्वय का साकार रूप हमें रामकथा काव्य में दिखायी देता है। इस ही कारण एक ही कथा-सूत्र में अयोध्या, किष्किंधा और लंका इन तीनों के बँध जाने से सम्पूर्ण देश एक दिखता है। रामकथा के इस समन्वयात्मक उपादेयता के कारण ही भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में रामकथाएँ लिखी गयी हैं। इनमें प्रत्येक रामकथा अपने-अपने क्षेत्र में अत्यन्त लोकप्रिय बनी। इस लोकप्रियता से भारतीय संस्कृति की एकरूपता अत्यन्त प्रबुद्ध हुई।
    इससे यह बात सरलता से सिद्ध हो जाती है कि रामकथा ने इस देश की कितनी सेवा की है और कैसे इस कथा को लेकर सारा देश लगभग एक आदर्श (सांस्कृतिक-समन्वय) की ओर उन्मुख रहा है। इसके साथ यदि तिब्बत, सिंहल, खोतान, हिन्दचीन, श्याम, ब्रह्मदेश और हिन्देशिया में रचित रामकाव्यों की सारिणी मिला दें तो वास्तव में यह मानना पडे़गा कि रामकथा न केवल भारतीय अपितु एशियाई संस्कृति का भी एक महत्वपूर्ण तत्व है और राम एक महान संस्कृति प्रवर्तक हैं।
    अपभ्रंश साहित्य के प्रथम साहित्यकार स्वयंभू हैं तथा स्वयंभू द्वारा रचित ‘‘पउमचरिउ’’ अपभ्रंश साहित्य का प्रथम महाकाव्य है, जिसकी चर्चा आगे की जायेगी। 
  11. Sneh Jain
    अब तक हमने रामकथा के इक्ष्वाकुवंश एवं वानरवंश के पात्रों के माध्यम से रामकथा के संदेश को समझने की कोशिश की। अब राक्षसवंश के प्रमुख पात्र रावण के माध्यम से शीलाचार के महत्व को भी समझने का प्रयास करते हैं। जिस प्रकार रामकाव्य के नायक श्री राम का चरित्र मात्र सीता के परिप्रेक्ष में उनके राजगद्दी पर बैठने से पूर्व तथा राजगद्दी पर बैठने के बाद भिन्नता लिए हुए है वैसे ही रावण का चरित्र भी सीता हरण से पूर्व तथा सीता हरण के बाद का भिन्नता लिए हुए हैं। शीलपूर्वक आचरण को भलीभाँति सरलतापूर्वक समझने हेतु रावण के समस्त जीवन को दो भागों में विभक्त करते हैं। 1. सीताहरण से पूर्व 2. सीताहरण के बाद। इसके माध्यम से हम यह आकलन कर पायेंगे कि शीलाचरण का पालन करते हुए जो रावण एक पराक्रमी सम्राट, करुणावान, धर्मानुरागी, संयमी लोकप्रिय तथा अपनी गलती पर पश्चाताप करनेवाला था वही रावण परस्त्री में आसक्त होकर अपने शीलाचार का उल्लंघन कर विपरीतबुद्धि से दयनीय अवस्था एवं लोकभय से आक्रान्त होकर लोक में निन्दा को प्राप्त हुआ। आशा है यह लेख सभी को अपने व्यक्तित्व के परिष्कार में मार्गदर्शन देगा।
    1. सीताहरण से पूर्व रावण 
    जन्म से ही विशाल वक्षस्थल वाला वह रावण ऐसा लगता था जैसे स्वर्ग से कोई देव उतरकर आया हो। कभी गजों के दाँतों को उखाड़ता हुआ, कभी साँंप के मुखों को करतल से छूता हुआ वह बालक बाल्यकाल में अनेक क्रीड़ाएँ किया करता था। बाल्यावस्था में ही रावण ने खेलते हुए भंडार में प्रवेश कर राक्षसवंश के स्थापक तोयदवाहन के हार को लेकर अपने गले में पहन लिया। उसमें उसके दस मुख दिखाई दिये। तभी लोगों ने उसका नाम दसानन रखा। इस कारण यह दसानन के नाम से जाना जाने लगा। रावण ने एक हजार विद्याएँ सिद्ध की हुई जिससे रावण को विद्याधर भी कहा गया। रावण ने स्वयंप्रभ नामक नगर एवं सहस्रकूट चैत्यगृह बनाया तथा चन्द्रहास खड्ग सिद्ध की। रावण ने करुणापूर्वक 6000 गन्धर्व कुमारियों को सुरसुन्दर से मुक्त करवाया तथा यम द्वारा सुभटों को बन्दी बनाकर नरक के समान यातना दिये जाने पर रावण ने उनको मुक्त करवाया। विद्याधर वैश्रवण का मद दूर कर उसे मारकर उसके पुष्पक विमान को प्राप्त किया। भद्र्रहस्ति को सिद्ध कर उसका नाम त्रिजगभूषण रखा। अपने आपको देव कहे जानेवाले विद्याधरवंशी सहस्रार के पुत्र इन्द्र को जो अपने आपको पृथ्वी का इन्द्र कहता था, पराक्रमी रावण ने युद्ध में विरथ कर पकड़ लिया।
    धर्मानुरागी रावण प्रतिदिन पूजा अर्चना तथा भक्ति किया करता था। विद्याधर इन्द्र से युद्ध करने हेतु प्रस्थान करते समय मार्ग में नर्मदा नदी के पास बालू की सुन्दर वेदी बनाकर, जिनवर की प्रतिमा स्थापित कर रावण ने उनका घी, दूध व दही से अभिषेक किया। मुनियों के प्रति उसके मन में सम्मान का भाव था। रावण ने राजा सहस्रकिरण को युद्ध में पराजित कर पकड़ लिया था। जंघाचरण मुनि द्वारा उसको मुक्त करने के लिए कहा जाने पर उसने ससम्मान उनको मुक्त कर दिया। बालि के समक्ष अपनी निन्दा करने के पश्चात् रावण ने जिनालय में जाकर पूजा एवं भावों से परिपूर्ण संगीतमय भक्ति की, जिसको सुनकर धरणेन्द्र ने उसको अमोघविजय विद्या प्रदान की। 
    दुर्लंघ्यनगर के राजा नलकूबर ने रावण का युद्ध करने आया जानकर अपने नगर को आशाली विद्या से सुरक्षित करवा दिया। रावण के उस नगर में प्रवेश करने पर रावण के यश को सुनकर नलकूबर की पत्नी उपरम्भा उस पर आसक्त हुई। उसने अपनी सखी के साथ रावण के पास उपरम्भा को चाहने एवं बदले में आशालीविद्या, सुदर्शन चक्र व इन्द्रायुध को लेने का प्रस्ताव भेजा। सखी के प्रस्ताव को सुनकर रावण ने आश्चर्यपूर्वक कहा- अहो दुर्महिला का साहस, जो महिला कर सकती है वह मनुष्य नहीं कर सकता।  तभी विभीषण ने उसको समझाया कि अभी यहाँ भेद का दूसरा अवसर नहीं है। किसी प्रकार विद्या मिल जाये फिर उपरम्भा को मत छूना। तब रावण ने दूती से आशाली विद्या माँंग ली। युद्ध में विभीषण के द्वारा नलकूबर के पकडे़ जाने पर संयमी दशानन ने उपरम्भा को नहीं चाहा तथा नलकूबर से अपनी आज्ञा मनवाकर उपरम्भा के साथ उसको राज्य भोगने दिया।
    विद्याधरवंशी इन्द्र के गुप्तचर ने रावण के गुणों का कथन इस प्रकार किया है -  रावण युद्ध में अचिन्त्य है। वह मंत्र और प्रभुशक्ति से युक्त चारों विद्याओं में कुशल है। 6 प्रकार के बल व 7 प्रकार के व्यसनों से मुक्त है। प्रचुरबुद्धि, शक्ति, सामथ्र्य और समय से गम्भीर है।  6 प्रकार के महाशत्रुओं का विनाश करनेवाला, 18 प्रकार के तीर्थों का पालन करनेवाला है। उसके शासनकाल में सभी स्वामी से सम्मानित हैं। उनमें कोई क्रुद्ध, भीरु व अपमानित नहीं है। नीति के बिना वह एक भी कदम नहीं चलता। दिन और रात को 16 भागों में विभक्त कर अपनी क्रियाएँ करता है।
    अपने एकाधिकार के आकांक्षी रावण ने बालि को अपना अहंकार दूर कर अधीनता स्वीकार कर राज्य का भोग करने हेतु कहा किन्तु बाली का अपने प्रति उपेक्षा भाव जानकर उससे युद्ध किया, जिसमें रावण पराजित हुआ।तदनन्तर बालि ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। एक दिन आकाश मार्ग से जाते हुए रावण का पुष्पक विमान मुनि बाली की तप शक्ति से रुक गया। तब क्राेिधत हुए रावण अपनी विद्याओं के चिन्तन से कैलाश पर्वत को उखाड़ लिया। पहाड़ के हिलते ही चारों समुद्रों में भयंकर उथलपुथल मची। तभी धरणेन्द्र अवधिज्ञान से यह सब होना जानकर वहाँ आया। वहाँ आकर उसने जैसे ही बालिमुनि को प्रणाम किया वैसे ही कैलाशापर्वत नीचा हुआ। रावण के पर्वत के नीचे दबने से उसके मँुह से रक्त की धारा बह निकली। रावण के क्रन्दन करने पर समस्त अन्तःपुर सहित मन्दोदरी ने आकर धरणेन्द्र से अपने पति के प्राणों की भीख माँंगी। मन्दोदरी के करुण वचन सुनकर धरणेन्द्र ने धरती को ऊपर उठा दिया जिससे रावण बच गया। तब रावण ने तपश्चरण में लीन बालि के पास जाकर क्षमा याचना की।
    मुनि अनन्तवीर ने रावण को मोहान्धकार से छूटने हेतु कोई एक व्रत ग्रहण करने के लिए कहा तो रावण ने व्रत ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ बताया। तब मुनि के बहुत कहने पर रावण ने बहुत सोचने के बाद एक व्रत ग्रहण किया कि ‘जो सुन्दरी मुझे नहीं चाहेगी उस परस्त्री को बलपूर्वक ग्रहण नहीं करूँगा।’  उसके बाद रावण अपने भानजे शम्बुकुमार का वध होना सुन अपने बहनोई खरदूषण का युद्ध में साथ देने गया। जैसे ही रावण दण्डकारण्य में पहुँचा, वहाँ उसे सीता दिखाई दी। उसके सौन्दर्य पर आसक्त हो रावण ने यह मान लिया कि जब तक मैं इसे नहीं पा लेता तब तक मेरे इस शरीर को सुख कहाँ। काम के तीरों से आहत वह काम की दसों अवस्थाओं को प्राप्त हुआ। तदनन्तर रावण ने अवलोकिनी विद्या से सीता का अपहरण करने का उपाय पूछा। विद्या ने उसे सीता की प्राप्ति होना बहुत कठिन बताया तथा उसके दुष्परिणामों से भी अवगत कराया। किन्तु रावण के दृढ़ संकल्प को देखकर अवलोकिनी विद्या ने उसे सीता को हरण करने का उपाय बताया। उस उपाय से रावण ने सीता का हरण कर लंका की ओर प्रस्थान किया।
    2. सीताहरण के बाद रावण -
    रावण लंका की ओर जाते हुए मार्ग में सीता के सामने एक दयनीय रूप में गिड़गिड़ाया - हे पगली, तुम मुझे क्यों नहीं चाहती, क्या मैं असुन्दर हूँ और उसका आलिंगन करना चाहा, किन्तु सीता के कठोर वचनों से दुःखी होकर रावण ने सोचा, यदि मैं इसे मार डालता हूँ तो मैं इसे देख नहीं सकूँंगा, अवश्य ही किसी दिन यह मुझे चाहेगी। रावण ने सीताहरण से पूर्व अपने पराक्रम से इन्द्र जैसे पराक्रमी राजा को भी अपने वश में किया था, तथा वानरवंशी राजाओं
  12. Sneh Jain
    मैं’ अहंकार की प्रबलता का द्योतक है, अहंकार जीवन के पतन का कारण है, समर्पण अहंकार के पतन का कारण है तथा अहंकार व समर्पण रहित जीवन निर्विकल्प शान्ति का कारण है। भरत चक्रवर्ती अहंकार के कारण चक्रवर्ती होकर भी अपने ही भाई बाहुबलि से पराजित हुए तथा उस भाई के आगे ही समर्पित होकर निर्विकल्प शान्ति प्राप्त की। बाहुबलि ने भरत के आगे समर्पण नहीं कर अपने ही भाई से युद्ध किया उसके बाद संसार सुखों को तुच्छ समझकर उनके प्रति समर्पित हो प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्विकल्प शान्ति की प्राप्ति की। हनुमान ने अपने आपको राम के आगे समर्पित कर सुख की प्राप्ति की और अन्त में वैराग्य धारण कर निर्वाण प्राप्त किया। इन सब जीवन चरित्रों में  हम अहंकार और समर्पण भाव को ही मुख्यरूप से देखते हैं।  अतः अहंकार और समर्पण को अच्छी तरह समझना आवश्यक है।
    ‘मैं’ अपनों में सबसे श्रेष्ठ हूँ, ‘मैंने’ ही यह किया है, ‘मैं’ नहीं होता तो ऐसा नहीं हो सकता था, अमुक व्यक्ति मेरे अधीनस्थ रहे, आदि आदि अहंकार के द्योतक हैं उसी प्रकार स्वयं में सामथ्र्य की कमी होने के कारण तथा अनुचित कार्य के लिए किया गया समर्पण भी दासता /गुलामी का द्योतक है। समर्पण सद्भाव से  सही जगह पर किया गया ही कार्यकारी होता है। ऐसा समर्पण करनेवाला ही आगे वैराग्य के मार्ग पर अग्रसर हो मोक्षगामी होता है। हनुमान का समर्पण सेसा ही निस्वार्थ भाव से सही जगह किया गया उच्चकोटि का समर्पण है जिसे हम उनके जीवन के कथन में देखने का प्रयास करते हैं।    
    हनुमान पवनंजय एवं अंजना के पुत्र थे। गर्भवती अंजना को उसकी सास केतूमति ने कलंक लगाकर घर से निकाल दिया। तब अंजना ने वन की पर्यकगुफा में इनको जन्म दिया। तभी आकाश मार्ग से जाते हुए हनुरूह द्वीप के राजा प्रतिसूर्य ने वहाँ आकर अंजना का समस्त वृत्तान्त जाना और अपने को अंजना का मामा होना बताकर अंजना व उसके पुत्र को विमान में अपने नगर ले जाने लगे। तभी मार्ग में वह बालक विमान से नीचे शिलातल पर गिर पड़ा, जिससे वह शिला चूर-चूर हो गई किन्तु वह बालक उस पर सुख से पड़ा रहा। प्रतिसूर्य राजा ने वहाँ से उसे लेकर और अपने नगर ले जाकर उसका जन्म-महोत्सव मनाया। तब वह बालक सुन्दर होने के कारण सुन्दर, उसके द्वारा शिलातल को चूर्ण किया जाने के कारण श्रीशैल तथा हनुरूहद्वीप में उसका लालन पालन होने के कारण हनुवन्त नाम से जाना गया।
    रावण और वरुणविद्याधर के मध्य हुए युद्ध में हनुमान रावण के पक्ष में रहकर विद्याधरों से लड़ा तथा रावण को वरुण से मुक्त करवाकर वरुण को पकड़ लिया। तब हनुमान के पराक्रम से प्रसन्न होकर सुग्रीव ने अपनी कन्या पद्मरागा, खर ने अपनी कन्या अनंगकुसुम तथा नल व नील ने अपनी कन्या श्रीमालिनी हनुमान को दी।

     
    सुग्रीव ने हनुमान को राम के पक्ष में करने के लिए हनुमान के पास दूत भेजा और अपना स्मरण करना बताया।दूत के मुख से हनुमान ने चन्द्रनखा का खोटा आचरण सुना तो वे लज्जित होकर मुख नीचा करके रह गये। पुनः जब लक्ष्मण द्वारा कोटिशिला को चलायमान किया जाना तथा राम द्वारा माया सुग्रीव का वध होना जाना तो गुणानुरागी हनुमान प्रसन्न हो उठे। दूत से सुग्रीव द्वारा स्मरण किया जानकर हनुमान ने ससैन्य सुग्रीव से मिलने के लिए उस ही समय प्रस्थान कर दिया। हनुमान किष्किन्धापुर में आकर राम से मिले तब राम ने कहा, पवनपुत्र के मिलने पर हमें त्रिलोक ही मिल गया। यह सुनकर सहज स्वभावी हनुमान ने कहा, आपके अनेकों सुभट प्रधानों में मेरी क्या गिनती? तब भी आदेश दीजिए युद्ध में किसके अहंकार को नष्ट कर लोक में आपके यश का डंका बजाऊँ। तभी जाम्बवन्त ने हनुमान को सीता की खोज कर राम का मनोरथ पूरा करने के लिए कहा।हनुमान राम का सन्देश व अँगूठी लेकर सीता की खोज के लिए चल पडे़। इस प्रकार हनुमान जो पहले रावण के सद्गुणों के प्रति समर्पित था वहीं हनुमान अब रावण को चरित्रहीन होना जान राम के प्रति समर्पित हो गया। 
    उसके बाद सीता की खोज में निकले हनुमान ने अवलोकिनी विद्या से अपनी माँ अंजना को  प्रसवकाल में राजा महेन्द्र द्वारा भीषण वन में छुड़वाया जाना सुना। यह सुनकर हनुमान क्रुद्ध होकर महेन्द्रराज से युद्ध में भिड़ गये। युद्ध में महेन्द्रराज का मानमर्दन करने के पश्चात् विनयवान हनुमान ने अपने को उनका नाती बताकर उनसे क्षमायाचना कर ली। हनुमान ने वन में अंगारक द्वारा लगाई गई आग को अपनी विद्या से शान्त कर कन्याओं व मुनियों की रक्षा की।
    उसके बाद हनुमान ने लंकानगरी में प्रवेश करके लंका की रक्षा में नियुक्त आशााली विद्या को परास्त किया। वज्रायुध को युद्ध में मार गिराया तभी वज्रायुध की पत्नी लंकासुन्दरी ने आकर हनुमान को युद्ध करने के लिए ललकारा। लंकासुन्दरी ने हनुमान पर तीरों के साथ अनेक आयुध छोडे़। वे सभी तीर हनुमान के ऊपर असफल हो गये जिससे पराक्रमी हनुमान युद्ध में अजेय हो गया। युद्ध में हनुमान के अजेय होने पर लंकासुन्दरी हनुमान पर आसक्त हो गई। उसने हनुमान से पाणिग्रहण करने के भाव से एक तीर पर अपना नाम अंकित कर उसके पास भेजा। लंकासुन्दरी के अक्षरों को देखकर सहृदयी हनुमान का हृदय  व्याकुल हो उठा तथा प्रत्युत्तर में स्नेह प्रकट करने हेतु तीर पर अपना नाम लिखकर लंकासुन्दरी के पास भेजा। बाण देखकर परस्पर आसक्त हो दोनों ने वहीं विवाह कर लिया।
    लंका में प्रवेश कर हनुमान ने लंका के उद्यान के अनेक वृक्षों को तहस-नहस कर चारों दिशाओं के चारों उद्यानपालों को मार गिराया। लंका में सीता के मन में हनुमान के प्रति सन्देह होने पर हनुमान ने रामके वनवास से लेकर लंकासुन्दरी को अपने वश में करने तक की समस्त घटना सीता को बताई और अपने आपको राम के दूत के रूप में सीता को पूरी तरह आश्वस्त किया तथा अचिरा के द्वारा विभीषण के घर से तथा इरा के द्वारा लंकासुन्दरी के घर से भोजन मँगवाकर 21 दिन से भूखी सीता को भोजन करवाया। तब हनुमान ने विभीषण को रावण द्वारा सीता का हरण किया जाने की सूचना दी। यह जानकर विभीषण ने रावण के कामासक्ति से विरत नहीं होने पर स्वयं का राम के पक्ष में मिलने हेतु कहा। रावण द्वारा निष्काषित विभीषण राम से आकर मिले तब हनुमान ने विभीषण को सज्जन, विनीत, सत्यवादी व जिनधर्मवत्सल बताकर उनके प्रति राम को आश्वस्त किया। उसके बाद हनुमान ने रावण को परस्त्री भोग के दुःखद परिणाम बताकर तथा जैनधर्म की मूल 12 अनुप्रेक्षाओं एवं 10 धर्म का हृदयस्पर्शी कथन कर राम के लिए सीता को सौंपने हेतु समझाने का अन्तिम प्रयास किया। हनुमान का यह मर्मज्ञ कथन रावण के मन में गड़ गया। तब वह  परद्रव्य व परस्त्री में किसी भी तरह का सुख नहीं होना विचारकर सीता को राम के लिए सौंप देने का विचार करने लगा। 
    राम व रावण की सेनाओं के मध्य चल रहे भीषण युद्ध में राम की सेना को नष्ट होती देख हनुमान ने सुग्रीव को राम व लक्ष्मण के पास भिजवाया तथा स्वयं शत्रुसेना से युद्ध में भिड़ गये। हनुमान ने युद्ध में वज्रोदर व मालि को मार गिराया। युद्ध में रावण की शक्ति द्वारा लक्ष्मण के आहत होने पर हनुमान ने सूर्योदय से पूर्व औषधि के रूप में विशल्या का गंधजल लाकर लक्ष्मण को जीवन दान दिया।
    राम ने रावण से युद्ध कर सीता को पुनः लोक अपवाद के कारण अपने राज्य से निष्काषित कर दिया। तब  हनुमान ने सीता के साथ लंका में रही लंकासुंदरी को सीता के सतीत्व की पुष्टि करने हेतु बुलवाया। लंकासुंदरी ने वहाँ आकर सीत
  13. Sneh Jain
    हम सब भली भाँति समझते है कि मनुष्य जीवन में संगति और आस-पास के वातावरण का बहुत महत्व है। यह भी सच है कि मनुष्य की संगति और उसके वातावरण का सम्बन्ध उसके जन्म लेने से है, जिस पर कि उसका प्रत्यक्ष रूप से कोई अधिकार नहीं। जहाँ मनुष्य जन्म लेगा प्रारम्भ में वही स्थान उसका वातावरण होगा और वहाँ पर निवास करने वालों के साथ उसकी संगति होगी। यही कारण है कि बच्चे पर अधिकांश प्रभाव उसके माता-पिता, भाई- बहिन और यदि संयुक्त परिवार हो तो दादा-दादी और चाचा- चाची का होता है। कईं बार तो बच्चा जिसके सम्पर्क में ज्यादा आता है वह बिल्कुल उसकी अनुकृति ही प्रतीत होता है। क्रिया-कलाप व भावनाओं के स्तर पर वह उनसे बहुत मेल खाता है। आगे चलकर जैसे ही उसका मानसिक विकास होने लगता है, उसका ज्ञान विकसित होने से अपनी निजी क्षमता पल्लवित होने लगती है वैसे वैसे ही वह वह अपने वातावरण से पृथक रूप लने लगता है। यही कारण है कि प्रारम्भिक स्तर पर समान होते हुए भी सभी बचपन के सम्बन्ध आगे चलकर भिन्न-भिन्न रूपों में निजि वैशिष्टता को प्राप्त करते हैं।
    यहाँ हम देखते है कि एक और राक्षसवंशी लंका सम्राट रावण का भाई विभीषण और दूसरी और रावण का पुत्र इन्द्रजीत। एक ही वातावरण में साथ साथ रहने पर भी अपने निजि ज्ञान के वैशिष्टय के कारण दोनों की मानसिकता में बहुत भेद है। यही कारण है कि विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने का आग्रह करता है जबकि इन्द्रजीत रावण सीता राम को लौटा दे इसके पक्ष में नहीं है। यह सही है कि व्यक्ति किसी दूसरे के सहयोग से ही आगे बढता है। जिस समय विभीषण रावण को राम के लिए सीता को सौपने हेतु अपनी विभिन्न युक्तियों से समझा रहा था उस समय यदि बीच में इन्द्रजीत का प्रवेश नहीं हुआ होता तो शायद रावण सीता को राम के लिए सौपने का निर्णय ले लेता और युद्ध नहीं होने से वह मृत्यु को भी प्राप्त नहीं होता और लोक में अपयश का पात्र भी नहीं बनता। मात्र इन्द्रजीत के प्रोत्साहन से रावण ने सीता का राम के लिए नहीं सौपकर युद्ध किया, युद्ध में मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा लोक में अपयश पाया। अब हम पउमचरिउ ग्रंथ के आधार पर हम यह देखते है कि रावण को राम के लिए सीता को नहीं लौटाने देने में इन्द्रजीत की क्या भूमिका थी ?
     रावण पुत्र इन्द्रजीत बहुत ही पराक्रमी था। सीता हरण से पूर्व राक्षसवंश व विद्याधरवंश के मध्य हुए युद्ध में विद्याधरवंशी जयन्त ने राक्षसवंशी श्रीमालि को मार गिराया, तब अकेले इन्द्रजीत ने भीषण युद्ध कर जयवन्त पर विजय प्राप्त कर ली। सीता हरण के बाद विभीषण ने रावण को उसके वैभव व मान सम्मान को यथावत बना रहने देने तथा परस्त्री रमण के कुफल से बचाने हेतु सीता को राम के लिए सौंप देने का उचित अवसर बताया। तभी इन्द्रजीत ने विभीषण के कथन को अनुचित ठहराकर और अपने द्वारा पूर्व में किये गये साहसी कार्यों का स्मरण दिलाकर अपने आपको हनुमान से युद्ध करने में समर्थ बताया और हनुमान से युद्ध कर उसे नागपाश से बाँध लिया। इस प्रकार उसने रावण को अपने पक्ष में कर लिया।
    पुनः हंसद्वीप में राम की सेना को आया जानकर विभीषण रावण को आगामी आपदाओं से अवगत करवाकर उसे समझाने का पूरा प्रयास कर रहा था। तभी इन्द्रजीत अपने मन में भड़क उठा और कहा- तुम्हारा कहा हुआ रावण के लिए किसी भी तरह प्रिय नहीं हो सकता। यदि सीता उसे सांैप दी गई तो मैं अपना इन्द्रजीत नाम छोड़ दूंगा। इस तरह उसने विभीषण द्वारा रावण को समझाने के प्रयास को विफल कर दिया। आगे जब राम, सुग्रीव, हनुमान आदि ने अंगद के साथ रावण के पास संधि करने का संदेश भिजवाया तो उस संदेश को सुनकर इन्द्रजीत ने कहा, यदि राम सीता में आसक्ति छोड़ दे तो ही संधि हो सकती है अन्यथा नहीं। इस प्रकार इन्द्रजीत रावण को राम के लिए सीता को नहीं सांैपने देने में रावण का पक्षधर रह रावण के लिए अहितकारी सिद्ध हुआ। अन्त में इन्द्रजीत ने रावण की मृत्यु होने पर संसार की अनित्यता को जानकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
    अतः संगति सदा विेवेकी की ही हितकारी है और अविवेकी की अनर्थकारी। आशा है इस इस से विवेकपूर्ण व्यक्तियों की संगति के महत्व को समझ सकेंगे।

  14. Sneh Jain
    पुनः आचार्य योगीन्दु दृढ़तापूर्वक मोक्षमार्ग में प्रीति करने के लिए समझाते हैं कि यहाँ संसार में कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं है, प्रत्येक वस्तु नश्वर है, फिर उनसे प्रीति किस लिए ? क्योंकि प्रिय वस्तु का वियोग दुःखदायी है और वियोग अवश्यंभावी है। जाते हुए जीव के साथ जब शरीर ही नहीं जाता तो फिर संसार की कौन सी वस्तु उसके साथ जायेगी। अतःः सांसारिक वस्तुओं से प्रीति के स्थान पर मोक्ष में प्रीति ही हितकारी है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा
    129.   जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ।
           जीविं जंतिं कुडि ण गय इहु पडिछन्दा जोइ।।
    अर्थ -हे योगी! यहाँ प्रत्येक (वस्तु) कृत्रिम (नाशवान) है, कोई भी (वस्तु) अकृत्रिम (अविनाशी) नहीं है। जाते हुए जीव के साथ शरीर (कभी भी) नहीं गया, इस समानता (उदाहरण) को तू समझ।
    शब्दार्थ - जोइय- हे योगी, सयलु-प्रत्येक, वि-ही, कारिमउ-कृत्रिम, णिक्कारिमउ-अकृत्रिम, ण -नहीं, कोइ-कोई भी, जीविं-जीव के साथ, जंतिं -जाते हुए, कुडि-शरीर, ण-नहीं, गय-गया, इहु- इस, पडिछन्दा-समानता को, जोइ-समझ।

     

     
  15. Sneh Jain
    पउमचरिउ का प्रथम विद्याधरकाण्ड
    जैन रामकथा का प्रथम विद्याधरकाण्ड आगे की सम्पूर्ण रामकथा का बीज है। इस विद्याधरकाण्ड का सही रूप से आकलन किया जाने पर ही अन्य रामकथाओं के सन्दर्भ में जैन रामकथा के वैषिष्ट्य को समझा जा सकता है। यह विद्याधरकाण्ड भारतदेष के षक्तिषाली विद्याधरो के कथन के माध्यम से भारतदेष की सभ्यता एवं संस्कृति का एक सुन्दर चित्रण है। इसमें भारतदेष में विभिन्न वंषों की उत्पत्ति एवं उन वंषों में रहे सम्बन्धों को बताया गया है। आगे की सम्पूर्ण रामकथा का सम्बन्ध भी इन्हीं वंषों से है। ये वंष हैं- इक्ष्वाकुवंष, विद्याधरवंष, राक्षसवंष, वानरवंष।
    इस अनन्त, निरपेक्ष, निराकार और शून्यरूप सम्पूर्ण अलोकाकाश के मध्य चौदह राजू प्रमाण त्रिलोक है। त्रिलोक में एक राजू प्रमाण तिर्यक्लोक है और तिर्यकलोक में एक लाख योजन विस्तार वाला जम्बूद्वीप है। उस जम्बूद्वीप के भीतर सुमेरुपर्वत है तथा सुमेरुपर्वत के दक्षिणभाग में भरतक्षेत्र स्थित है। इस भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी काल के बीतनेपर प्रतिश्रुत, सन्मतिवान्, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, चक्षुष्मान, यशस्वी, विमलवाहन, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित व अन्तिम 14वें कुलकर नाभिराज हुए।नाभिराज की पत्नी मरुदेवी से ऋषभजिन हुए।
    ऋषभदेव का अमरकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए बीसलाखपूर्व समय बीत गया। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से जीवन जीने के लिये खान-पान व पहिनने की समस्या होने पर ऋषभदेव ने लोगों को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और विविध प्रकार की दूसरी-दूसरी विद्याओं की शिक्षा दी। नन्दा, सुनन्दा इन दो देवियों से विवाह किया, जिनसे उनके भरत और बाहुबलि के समान प्रधान सौ पुत्र हुए। ऋषभदेव ने मनुष्यों को इक्षु रस संग्रह करने का उपदेश दिया था। तदर्थ हस्तिनापुर के राजा विमोह (श्रेयांस) ने ऋषभजिन को इक्षुरस का आहार दिया तभी से ऋषभदेव का वंश इक्ष्वाकुवंश के नाम से जाना जाने लगा।
    समय के अन्तराल से जब ऋषभदेव सन्यास ग्रहण कर स्थित थे तभी नमि (ऋषभदेव के साले कच्छ के पुत्र) व विनमि (ऋषभदेव के साले महाकच्छ के पुत्र) वहाँ आये और ऋषभदेव से बोले- आपने दूसरों को तो देश विभक्त करके दे दिया पर हमारे प्रति अनुदार क्यों हैं ? तभी धरणेन्द्र अवधिज्ञान से यह सब जानकर वहाँ आया और उन दोनों को दो विद्याएँ देकर कहा- तुम दोनो विजयार्ध पर्वत की उत्तर-दक्षिण श्रेणियों के प्रमुख राजा बन जाओ। तभी एक उत्तरश्रेणी व दूसरा दक्षिणश्रेणी में स्थित हो गया। इन नमि विनमि के वंश में उत्पन्न होने वाले राजा ही अपने आपको विद्याधर कहने लगे तथा इनका वंश भी विद्याधरवंश के नाम से जाना जाने लगा।
    आगे इक्ष्वाकु वंश में ऋषभदेव का निर्वाण होने तथा उनके पुत्र बाहुबलि को केवलज्ञान व भरत को वैराग्य होने पर अयोध्या में राजाओं की वंश परम्परा उच्छिन्न हो गयी। तत्पष्चात् इक्ष्वाकु वंश मे धरणीधर राजा हुए। धरणीधर के दो पुत्र थे 1. जितशत्रु 2. त्रिरथंजय। जितशत्रु से अजितजिन उत्पन्न हुए तथा त्रिरथंजय से जयसागर। जयसागर के सगर पुत्र हुआ। नमि विनमि से उद्भूत विद्याधरवंश में भी आगे सुलोचन, पूर्णघन (पूर्वमेघ) आदि राजा हुए। इस तरह प्रारम्भ में भारत में दो ही वंश थे-1. इक्ष्वाकुवंश 2. विद्याधरवंश।
     
    विधाधर वंश से अन्य वंशो की उत्पत्ति -
    कुछ समय पश्चात् विद्याधरवंशी राजा सुलोचन की कन्या तिलककेशा को विद्याधरवंशी राजा पूर्वमेध ने मांगा किन्तु सुलोचन के पुत्र सहस्रनयन ने अपनी बहिन तिलककेशा को  अपने ही वंश के पूर्वमेध को न देकर इक्ष्वाकुवंशी सगर को दी। तब पूर्वमेघ ने क्रोधित होकर सुलोचन को मार डाला। तभी अपने पिता सुलोचन का बदला लेने के लिये सहस्रनयन ने पूर्वमेघ को मार दिया किन्तु पूर्वमेघ का पुत्र तोयदवाहन डरकर भाग निकला। तभी उसे भीम व सुभीम मिले। भीम और सुभीम ने तोयदवाहन को कहा कि इस वैताढय में बलशाली विद्याधर तुम्हारे शत्रु हैं तुम उनके साथ विश्वस्त होकर कैसे रहोगे? और कामुकविमान, हार, राक्षसविद्या व रहने के लिये समुद्र से घिरी हुई लंकानगरी उन्हें दे दी। तोयदवाहन ने लंकापुरी में प्रवेश किया और अविचलरूप से राज्य में इस प्रकार प्रतिष्ठित हो गया जैसे राक्षसवंश का पहला अंकुर फूटा हो। इस तोयदवाहन राजा के वंश में आगे उत्पन्न हुए सभी राक्षसवंशी कहलाने लगे। राक्षसवंश में 64 सिंहासन बीतने के पश्चात् कीर्तिधवल राजा हुए। इस प्रकार विद्याधरों के परस्पर संघर्ष से राक्षसवंश की उत्पत्ति हुई।
    विद्याधर वंश में आगे अतीन्द्र व पुष्पोत्तर राजा हुए। अतीन्द्र राजा के श्रीकण्ठ पुत्र व मनोहरदेवी पुत्री थी तथा पुष्पोत्तर राजा के पद्मोत्तर पुत्र तथा पद्मनाभा (कमलावती) पुत्री थी। राजा पुष्पोत्तर ने अपने पुत्र पद्मोत्तर के लिये राजा अतीन्द्र की पुत्री मनोहरदेवी की याचना की किन्तु श्रीकण्ठ ने अपनी बहिन पद्मोत्तर के लिये नही देकर लंका के राक्षसवंशीय राजा कीर्तिधवल को दी, जिससे पुष्पोत्तर बहुत कुपित हुआ। बाद में स्वयं श्रीकण्ठ पुष्पोत्तर राजा की पुत्री पद्मनाभा को लेकर अपने बहनोर्इ्र राक्षसवंशी कीर्तिधवल की शरण में गया। पुष्पोत्तर राजा भी श्रीकण्ठ का पीछा कर वहाँ पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर कीर्तिधवल के दूत ने उनको समझा बुझाकर दोनों का विवाह करवा दिया।
    बहुत दिनो के बाद श्रीकण्ठ को अपने पिता के पास जाने को व्याकुल देखकर कीर्तिधवल ने कहा- विजयार्ध पर्वत पर तुम्हारे बहुत से वैरी हैं और यहाँ तुम मेरे प्राणप्रिय मेरे अपने हो। मेरे पास अनेक बड़े बड़े द्वीप हैं इनमें से जो भी तुम्हंे अच्छा लगे वह ले लो और यही रहो। तब श्रीकण्ठ ने वानरद्वीप ले लिया। आगे इस श्रीकण्ठ के वंश मे ही अमरप्रभ राजा हुए। अमरप्रभ ने लंकानरेश राक्षसवंशी राजा की कन्या से विवाह किया। विवाह के अवसर पर किसी ने वानर के चित्र बना दिए जिससे वधू मूर्च्छित हो गयी। तभी अमरप्रभ राजा ने क्रुद्ध होकर चित्रकार को मारने के लिये कहा। तब लोगांे के यह समझाने पर कि इन्हीं वानरों के प्रसाद से यह राज्यश्री तुम्हारी आज्ञाकारी स्त्री के समान है, अमरप्रभ ने अपने पवित्र कुल के चिह्न के रूप में वानरों कोे पताकाओं ध्वजाओं व छत्रों पर चित्रित करवाया। तभी से इस वंश में उत्पन्न हुए सभी राजा वानरवंशी के नाम से विख्यात हुए।
    आगे चलकर ये इक्ष्वाकुवंश में भरत व बाहुबलि, विद्याधरवंश में इन्द्र, राक्षसवंश में रावण तथा वानरवंश में बाली प्रमुख राता हुए।
    वंश-विभाजन के बाद स्वयंभू ने पउमचरिउ में एक ही वंश के लोगों के बीच रहे परष्पर संबन्धों तथा विभिन्न वंशों के बीच रहे परस्पर सम्बन्धों को कुछ घटनाचक्रांे के माध्यम से चित्रित किया है, जो इस प्रकार है -
    इक्ष्वाकु वंश:-
    इक्ष्वाकु कुल के नायक ऋषभजिन को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उनके पुत्र भरत को ऋद्धि प्राप्त हुई। सबको अपने अधीन कर लेने के बाद भरत की अधीनता मात्र स्वाभिमानी बाहुबलि ने स्वीकार नही की। तब भरत ने अपनी आज्ञा मनवाने अपने दूत बाहुबलि के पास भेजे। दूत द्वारा बाहुबलि को भरत की सेवा अंगीकार करने के लिये कहने पर बाहुबलि ने गरजकर कहा -‘एक बाप की आज्ञा और एक उनकी धरती, दूसरी आज्ञा स्वीकार नहीं की जा सकती। प्रवास करते समय परम जिनेश्वर ने जो कुछ भी विभाजन करके दिया है वही हमारा सुख निधान शासन है-ना ही मैं लेता हूँ ना ही देता हूँ’। इससे भरत व बाहुबलि में युद्ध हुआ। युद्ध में बाहुबलि विजयी हुए।
    विद्याधर, राक्षस एवं वानर वंश
    इक्ष्वाकुवंशी राजा ऋषभदेव से ही आश्रय एवं विद्या ग्रहण कर अपने आपको विद्याधर कहलाने वाले ये विद्याधर प्रारम्भ में राक्षस एवं वानर वंश से अधिक शक्तिशाली थे। इसी कारण ये चाहते थे कि ये कमजोर राक्षस और वानर उनकेे अधीनस्थ रहकर उनके इच्छानुसार जीवें। अपनी शक्ति से ही इन्होंनें राक्षसवंषियों व वानरवंषियों के नगर लंका व किष्किन्धापुरी पर भी अपना आधिपत्य कर लिया। शुरु में तो विद्याधरों की शासन प्रवृति से राक्षस व वानरवंषी डर-डर कर जीयेेे तथा वानरों व राक्षसों ने मिलकर ही इन विद्याधरों से युद्ध किया। आगे जैसे ही राक्षसवंष में पराक्रमी राजा रावण  हुआ उसने विद्याधरों से अपनी लंका पुनः ले ली तथा वानरों को भी उनकी किष्किन्धपुरी वापस दिलवा दी। इस तरह अब तक राक्षस व वानरवंश में मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से वानरवंश सदैव राक्षसवंश का सहयोगी था। किंतु जैसे ही आगे वानरवंश में बालि जैसा पराक्रमी शासक हुआ उसने अब तक की जो राक्षसों के अधीन रहने की परम्परा थी वह तोड़ दी और अपना अलग अस्तित्व कायम किया।
    शक्ति की हीनता व अधिकता के आधार पर उपरोक्त तीनों वंशो के परष्पर संबन्धों को पउमचरिउ में निम्न रूप में बताया गया है-
    1. विद्याधर विद्यामन्दिर की कन्या श्रीमाला ने जब विद्यमान सभी विद्याधरों को छोडकर वानरवंशी किष्किन्ध को माला पहना दी तो विद्याधर विजयसिंह भड़क उठा और कहा - श्रेष्ठ विद्याधरों के मध्य वानरों को प्रवेश क्यों दिया गया? वर को मारकर वानरवंश की जड़ उखाड दो। यह सुनकर वानर अन्धक ने भी ललकारा - तुम विद्याधर और हम वानर यह कौनसा छल है ?
    2. विद्याधर इन्द्र व राक्षस मालि के बीच हुए युद्ध में मालि को पराजित होते हुए देख इन्द्र अपने आपको देव सम्बोधित करते हुए मालि से कहता है - अरे मानव क्या देव के समान दानव (राक्षस) हो सकते हैं ? तब मालि ने कहा-तुम कौन से देव हो, तुमने तो केवल इन्द्रजाल सीखा है।
    3. वानरवंशी बाली ने विशुद्धमति निर्ग्रन्थ मुनि को छोड़कर और किसी इन्द्र को नमस्कार न करने रूप   सम्यग्दर्शन व्रत ले लिया। एक दिन रावण के दूत ने बालि के संसर्ग में रावण का जयघोष किया लेकिन बाली ने अपने व्रत के कारण उसके साथ जयकार नही किया और अन्यमनस्क होकर रह गया। इससे दूत ने बाली को यह कहकर अपमानित किया ‘जो कोई भी हो, जो नमस्कार करेगा, श्री उसी की होगी। या तो तुम इस नगर से चले जाओ, नहीं तो कल रावण से युद्ध के लिये तैयार रहो’। तब दोनो के बीच हुए युद्ध में बाली की शानदार विजय हुई।
    इस प्रकार विद्याधरकाण्ड में कवि स्वयंभू ने इस तथ्य को उजागर किया है कि तीन वंश- विद्याधर, राक्षस एवं वानर परस्पर चाहे कितना ही लड़े हों और इनमें कितना ही वैमनस्य रहा हो किन्तु इक्ष्वाकुवंश का इनसे किसी भी बात को लेकर आमना सामना नहीं हुआ बल्कि इन तीनों का इस वंश से आदरसम्मान का भाव ही रहा है। जैसे - एकबार पूजा में हुए विघ्न को लेकर रावण व सहस्रकिरण के मध्य हुए युद्ध में रावण ने सहस्रकिरण को बन्दी बना लिया। तब जंघाचरणमुनि ने अपने पुत्र सहस्रकिरण को मुक्त करने के लिये रावण को कहा तो रावण ने यह कहते हुए शीघ्र ही मुक्त कर दिया कि मेरा इनके साथ किस बात का क्रोध ? केवल पूजा को लेकर हमारा युद्ध हुआ था, ये आज भी मेरे प्रभु हैं।वैसे ही इक्ष्वाकुवंशी भी चाहे परष्पर कितना भी लडंे़ हो किन्तु इन्होंने इन तीनों वंषों के बीच कभी हस्तक्षेप नही किया साथ ही अपने मूल सिद्धान्तों का पालन करते हुए तथा अपनी बौद्धिक स्वतन्त्रता को कायम रखते हुए उदारवादी दृष्टिकोण से सम्पूर्ण मानव समाज के साथ रहते आये हैं।
    आज हम इक्ष्वाकुवंषियों के लिए भारतदेष में अपना सम्मान पूर्ववत बनाये रखने हेतु इस विद्याधरकाण्ड का अध्ययन बहुत आवष्यक है। जो भी पउमचरिउ के विद्याधरकाण्ड का विस्तृत रूप से अध्ययन करना चाहे, उनके लिए इक्ष्वाकु, विद्याधर, राक्षस एवं वानरवंष के राजाओं की वंशावली दी जा रही है। इससे विद्यााधरकाण्ड को समझने में आसानी रहेगी।
    इक्ष्वाकुवंश:-  ऋषभजिन, भरत, बाहुबलि, धरणीधर, त्रिरथंजय, जितशत्रु , अजितनाथ
    जयसागर, सगर, भीम, भगीरथ, मुनि जंधाचरण,                       सहस्रकिरण, अणरण्य,अनन्तरथ, दशरथ, राम । 
    विद्याद्यरवंशः-   नमि, विनमि, पूर्णघन, मेघवाहन, सुलोचन, सहस्रनयन, विद्यामन्दिर, विजयसिंह,  शनिवेग, भिन्दपाल, विद्युद्वाहन, सहस्त्रार, इन्द्र,                 यम, धनद,चन्द्रोदर, वैश्रवण, खरदूषण, विराधित, ज्वलनसिंह, महेन्द्र, प्रह्लाद।
    राक्षसवंश:-    भीम, सुभीम, तोयदवाहन, महारक्ष, देवरक्ष, कीर्तिधवल, तडित्केश, सुकेश, श्रीमाली,  सुमाली, माल्यवन्त, रत्नाश्रव, दशानन, भानुकर्ण,                विभीषण,इन्द्रजीत, मेघवाहन, हस्त, प्रहस्त,अक्षयकुमार।
    वानरवंश:-     श्रीकंठ, वज्रकंठ, इन्द्रायुध, इन्द्रमूर्ति,मेरु, समन्दर, पवनगति, रविप्रभ,अमरप्रभ, कपिध्वज, नयनानन्द, खेचरानन्द, गिरिनन्दन,                        उदधिरथ, प्रतिचन्द्र,किष्किन्ध, अन्धक, पवनंजय, हनुमान, ऋक्षुरज, सूररज, नील, नल, बाली,सुग्रीव, जाम्बवन्त, शशिकरण, अंग,                   अंगद पवनंजय, हनुमान ।
    आगे रामकथा के पात्रों के जीवन के चित्रण के माध्यम से जैन रामकथा को समझने का प्रयास किया जायेगा।
     
  16. Sneh Jain
    बन्धुओं ! एक बार पुनः मैं तीनों प्रकार की आत्मा के स्वरूप को संक्षिप्त में आपके समक्ष रख देना चाहती हूँ जिससे हम परमात्मप्रकाश के आगे के विषय को अच्छी तरह से समझ सकें। आत्मा का मूर्छित स्वरूप वह है जिसमें देह को ही आत्मा जाना जाता है। आत्मा का जागृत स्वरूप वह है जिसमें देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने के पश्चात् परम एकाग्र ध्यान में स्थित होकर परम आत्मा का अनुभव किया जाता है। आत्मा का श्रेष्ठ (परमात्म) स्वरूप वह है, जो कर्म बंधनों व पर द्रव्यों से रहित है, रंग, गंध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण, क्रोध, मोह, मद, माया, मान, स्थान, ध्यान, ध्येय, यंत्र, मंत्र, मुद्रा, पुण्य, पाप, हर्ष, शोक आदि सभी दोषों से रहित होने के कारण निरंजन स्वरूप है। आत्मा का वह श्रेष्ठ स्वरूप, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ने तथा पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करने के कारण शान्त स्वरूप है, तथा केवलदर्शन, केवलज्ञान, केवल सुख स्वभाव, अनुपम शक्ति सहित है।
    परमात्म प्रकाश के आगे के दोहों में बताया गया है कि उपरोक्त परम आत्मा के स्परूप से आत्मा का क्या सम्बन्ध है ? इसमें बताया गया है कि जो तेरे शरीर में स्थित शुद्ध आत्मा है वही शुद्ध स्वरूप आत्मा तो सिद्धालय में स्थित है, उन दोनों के शुद्ध स्वरूप में कोई भेद नहीं है। भेद तो मात्र कर्मों से बंधी व कर्म बंधन से रहित शुद्ध आत्मा का है। शरीर की शुद्ध आत्मा ही अन्त में सिद्धालय में जाकर स्थित होती है।

     
    26  जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि ँ णिवसइ देउ ।
        तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ  ।।

     
    अर्थ - जैसी निर्मल, ज्ञानमय परम-आत्मा सिद्धशिला (मोक्ष) में रहती है, वैसी ही परम- आत्मा (विभिन्न) देहों में रहती है, तू (इसमें) भेद मत कर।
    शब्दार्थ - जेहउ-जैसी, णिम्मलु-निर्मल, णाणमउ-ज्ञानमय, सिद्धिंिहं-मोक्ष में, णिवसइ-रहती है, देउ- परम आत्मा, तेहउ-वैसी ही, णिवसइ- रहती है, बंभु- आत्मा, परु-परम, देहहं-देहों में, मं-मत, करि-कर, भेउ-भेद।
  17. Sneh Jain
    4. दशरथ -
    जैन दर्शन के अनुसार कारण और कार्य का अपूर्व सम्बन्ध है। हेतुना न बिना कार्यं भवतीति किमद्भुतम्। अर्थात् कारण के बिना कार्य नहीं होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? इस ही आधार पर हम यहाँ भी देखेंगे कि किसी भी घटना का घटित होता कार्य और कारण के सम्बन्ध पर ही आश्रित है, अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। इससे हमारा दृष्टिकोण स्पष्ट होने से रामकथा के सभी पात्रों के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार संभव हो सकेगा तथा रामकथा को भी भलीर्भांति समझ सकेंगे। आगे हम पउमचरिउ के अनुसार रामकथा के सभी प्रमुख पात्रों की सम्पूर्ण जीवन यात्रा को देखने का प्रयास करते हैं।     
    1. अनुरागी - नारद ने विभीषण द्वारा दशरथ व जनक को मारने के लिए बनाई गई योेजना दशरथ को बतायी। यह सुनकर दशरथ जनक के साथ अयोध्या से निकलकर कौतुक नगर पहुँचे। वहाँँ शुुभमति राजा की कन्या कैकेयी का स्वयंवर रचाया जा रहा था।दशरथ भी उस स्वयंवर में पहुँचे। कैकेयी द्वारा दशरथ के गले में वरमाला डाल दी गई। इससे हरिवाहन राजा ने क्रुद्ध होकर दशरथ से युद्ध किया।दशरथ ने कैकेयी को धुरी पर सारथी बनाकर युद्ध में हरिवाहन को जीत लिया और कैकेयी से विवाह कर लिया। कैकेयी का इस प्रकार युद्ध में साथ देने के कार्य से प्रसन्न होकर दशरथ ने अनुरागपूर्वक बिना विचार किये कैकेयी से कुछ भी मांगने को कहा। प्रत्युत्तर में कैकेयी ने कहा- हे देव, आपने दे दिया, जब मैं मांगू तब आप अपने सत्य का पालन करना।
    2. वैरागी चित्त - दशरथ कंचुकी के मुख से स्वयं अपनी वृद्धावस्था के विषय में सुनकर विचार करने लगे,सचमुच जीवन चंचल है, क्या किया जाये जिससे मोक्ष सिद्ध हो। किसी दिन कंचुकी के समान हमारी भी अवस्था होगी। सिंहासन और छत्र सब अस्थिर हैं। इन सबको राम के लिए समर्पित कर मैं तप करूंगा। इस प्रकार वे वैराग्य धारण कर स्थित हो गये।
    3. भय  - वैराग्य होने पर अगले दिन जैसे ही दशरथ ने राम को राज्य देने की घोषणा की वैसे ही कैकेयी ने दशरथ के पास जाकर अपनी धरोहर के रूप में रखा हुआ वर मांग लिया। दशरथ ने भी  राज्य में झूठा सिद्ध होने के बचने के भय से राम को बुलाया। उसके बाद दशरथ ने लक्ष्मण के उग्र स्वभाव से भयभीत हो राम से यह कहते हुए कि लक्ष्मण, भरत को राज्य दिया जानकर लाखों का काम तमाम कर देगा, इससे मैं, भरत, कैकेयी, शत्रुघ्न और सुप्रभा भी नहीं बच पायेंगे, भरत के लिए राज्य देने का आदेश  दिया। तब राम ने पिता को भय से मुक्त कर अपने लिए वनवास अंगीकार कर लिया। इस पर भरत ने पिता को धिक्कारा। भरत के कठोर वचन सुनकर अपयश से बचने के लिए दशरथ ने कहा- कैकेयी को जो सत्य वचन मैंने दिया है तुम मुझे उससे उऋण करो। भरत के लिए राज्य, राम के लिए प्रवास, मेरे लिए प्रव्रज्या अब यही ठीक है।
    राम के प्रस्थान करने पर दशरथ ने अपने आपको धिक्कारते हुए कहा, मैंने राम को वनवास क्यों दे दिया? मैंने महान कुलक्रम का उल्लंघन किया। पुनः यशलोभ व भय से ग्रसित दशरथ द्वन्द्व विचार करने लगे कि यदि मैं सत्य का पालन नहीं करता, तो मैं अपने नाम औेर गोत्र को कलंकित करता, अच्छा हुआ राम गये पर सत्य का नाश नहीं हुआ। यह विचार कर भरत को राजपट्ट बाँंधकर दशरथ प्रव्रज्या के लिए कूच कर गये।

    राजा दशरथ के कथानक के माध्यम से हम यहाँ देख सकते है कि दशरथ के राग और अपयश भय के कारण ही रामकथा का प्रादुर्भाव हुआ है। जैसे भाव, वैसी मति और वैसी ही गति । दशरथ की इन प्रवृत्तियों ने अपने सारे परिवार को संकट में डाल दिया। आज भी हम हमारे पास किसी भी रूप में घटी घटना को देखेंगे तो मूल में मानव की इन ही प्रवृत्तियों को पायेंगे।
    आगे हम रामकथा के नायक  राम का चरित्र चित्रण करेंगे। यदि इन चरित्रों को पढने से किसी के भी मन को ठेस पहुँचे तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। मेरा उद्देश्य अपनी प्रवृत्तियों के परिमार्जन से सब को सुख पहुँचाना है, दुःख नहीं
     
    जयजिनेन्द्र।
  18. Sneh Jain
    यहाँ विशल्या के पूर्वभव तथा वर्तमान भव के जीवन से संयम व तप के फल के महत्व को बताया गया है। यहाँ विशल्या के दोनों भवों के आधार पर हम यह देखेंगे कि संयम व तप का फल किस प्रकार मिलता है तथा संयम रहित जीवन क्या फल देता है ? 
    विशल्या अपने पूर्वभव में पुंडरीकिणी नगर के चक्रवर्ती राजा आनन्द की अनंगसरा नामक कन्या थी। अति सुन्दर होने के कारण वह पुर्णवसु विद्याधर के द्वारा हरण कर ले जाई गयी और मार्ग में वह पर्णलध्वी विद्या के सहारे हिंसक जानवरों से युक्त भयानक श्वापद नामक अटवी में उतर गयी। वहाँ उसने संयमपूर्वक अपना समय व्यतीत किया तथा चारों प्रकार का आहार त्याग कर संल्लेखना धारण कर ली। उसी समय एक विशाल अजगर ने अनंगसरा का आधा शरीर निगल लिया। तीर्थ वन्दना कर लौट रहे सौदास विद्याधर ने जब अजगर के मुख से आधा शरीर बाहर निकला हुआ देखा तो वहाँ आकर उसको बचाने के लिए उस अजगर के दो टुकड़े करने हेतु उद्यत हुआ।  तभी उस अनंगसरा ने तपस्वियों की रक्षा के लिए प्राणवध अनुचित बताकर उस अजगर को मारने से रोका और निराहार तपश्चरण कर अंहिसापूर्वक उसने अजगर को अपना शरीर अर्पित कर दिया।
    यह अनंगसरा ही अहिंसापूर्वक मरण के प्रभाव से कैकेयी के भाई द्रोण की पुत्री विशल्या हुई। सीता के स्वयंवर के अवसर पर ही द्रोण ने भी विशल्या को लक्ष्मण के लिए देने का संकल्प कर लिया था, किन्तु लक्ष्मण का राम के साथ वनवास में रहने के कारण उनका संकल्प पूरा नहीं हो सका। तब विशल्या ने अविवाहित रहकर ही संयम का पालन किया। यह उसके संयम का प्रभाव ही था  कि उसका न्हवनजल  लोगों की व्याधि का हरण करनेवाला था। विशल्या के सुगन्धित न्हवन जल से रावण की शक्ति से आहत हुए लक्ष्मण की पूरी देह को मल दिया गया तथा अन्य सभीे राजाओं को भी वह गंधजल बाँट दिया गया जिससे लक्ष्मण सहित राम की सेना फिर से नयी हो गई। इस अहिंसात्मक शक्ति के आगे रावण की अमोघ शक्ति भी नहीं ठहर सकी।
    यहाँ हम लक्ष्मण व विशल्या के जीवन की तुलना कर सकते हैं कि संयमहीनता के कारण लक्ष्मण का जीवन निरन्तर दुःखों से भरा हुआ है और अन्त में जैन रामकाव्यकारों ने उनका नरक में जाना भी बताया है जबकि विशल्या का संयमपूर्ण जीवन दूसरों की व्याधि को हरनेवाला है।
  19. Sneh Jain
    भाषा जीवन की व्याख्या है और जीवन का निर्माण समाज से होता है। वैयक्तिक व्यवहार को अभिव्यक्ति देने के साथ-साथ भाषा का प्रयोग सामाजिक सहयोग के लिए होता है। जिस तरह भाषा का उद्भव समाज से माना गया है, उसी प्रकार भाषा के विकास में ही मानव समाज का विकास देखा गया है। जिस देश की भाषा जितनी विकसित होगी, वह देश और उसका समाज भी उतना ही विकसित होगा; अत: यह कहा जा सकता है कि भाषा व्यक्ति, समाज व देश से पूर्ण रूप से जुड़ी हुई है। भारतदेश की भाषा के विकास को भी तीन स्तरों पर देखा जा सकता है।
    प्रथम स्तर (ईसा पूर्व 2000 से ईसा पूर्व 600 तक)
    प्रत्येक देश के प्रत्येक युग में साहित्य रूढ़ भाषा के समानान्तर कोई न कोई देशी या लोक भाषा अवश्य रही है। यह लोक भाषा ही उस साहित्यिक भाषा को नया जीवन प्रदान कर सदैव विकसित होती रही है। भारतदेश में वैदिक साहित्य से पूर्व जन साधारण में प्राकृत अपने अनेक प्रादेशिक भाषाओं के रूप में कथ्य रूप से प्रचलित थी। यह लोक भाषा के रूप में भारत देश की आद्य भाषा थी। प्राकृत के प्रादेशिक भाषाओं के विविध रूपों के आधार से वैदिक साहित्य की रचना हुई। वैदिक साहित्य की भाषा को ही छान्दस कहा गया। इस तरह कथ्य प्राकृत से उद्भूत यह छान्दस ही उस समय की साहित्यिक भाषा बन गई।
    पाणिनी ने अपने समय तक चली आई छान्दस की परम्परा को व्याकरण द्वारा नियन्त्रित एवं स्थिरता प्रदान कर लौकिक संस्कृत नाम दिया। इस तरह वैदिक भाषा (छान्स) और लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव वैदिक काल की प्राकृत से ही हुआ। यही भाषा का प्रथम स्तर है।
     
    द्वितीय स्तर (ईसापूर्व 600 से 1200 ईसवी तक)
    पाणिनी द्वारा छान्स (वैदिक) भाषा के आधार से जिस लौकिक संस्कृत भाषा का उद्भव हुआ, उसमें पाणिनी के बाद कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसके विपरीत वैदिक युग में जो प्रादेशिक प्राकृत भाषाएँ कथ्य रूप से प्रचलित थी, उनमें परवर्ती काल में अनेक परिवर्तन हुए। इनमें ऋ, ऋ आदि स्वरों का, शब्दों के अन्तिम व्यंजनों का, संयुक्त व्यंजनों का तथा विभक्ति और वचन समूह का लोप या रूपान्तर मुख्य है। भारतीय भाषा के इस द्वितीय स्तर को तीन युगों में विभक्त किया गया है - ।
    प्रथमयुग (ईसापूर्व ६०० से ईसवी २०० तक) - शिलालेखी प्राकृत, धम्मपद की प्राकृत, आर्ष–पालि, प्राचीन जैनसूत्रों की प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत, बौद्धजातकों की प्राकृत।
    ईसापूर्व छठी शताब्दी में भगवान महावीर और बुद्ध ने जनभाषा प्राकृत में दार्शनिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को प्रसारित कर सामान्य एवं विशिष्ट जनों के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जैनों के आगम एवं उनके व्याख्या साहित्य तथा बौद्धों के त्रिपिटक साहित्य से देश की संस्कृति ही नहीं; वरन विश्व की संस्कृति भी गौरवान्वित हुई है।
    इस युग में देश में प्राकृत भाषा के व्यापक उपयोग के कारण ही सम्राट अशोक ने (ईसापूर्व तीसरी शती) में प्राकृत भाषा में शिलालेखों को देश के विभिन्न भागों में उत्कीर्ण करवाया। ये प्राकृत के सबसे प्राचीन शिलालेख हैं। इन शिलालेखों के माध्यम से विभिन्न जीवन मूल्यों का अहिंसा के सन्दर्भ में प्रचार-प्रसार किया गया है। | सम्राट खारवेल का हाथी गुफा शिलालेख (ईसवी–१००) उड़ीसा के भुवनेश्वर तीर्थ के पास उदयगिरि पर्वत की एक गुफा में खुदा मिला है। इसमें प्रतापी राजा खारवेल के जीवन वृत्तान्तों एवं उसके द्वारा जैन सम्मेलन बुलाने आदि का वर्णन मिलता है। इस शिलालेख में देश का नाम 'भारतवर्ष' लिखा है।
    मध्ययुग (२०० ईसवी से ६०० ईसवी तक) - भाषा और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, गीतिकाव्य और महाकाव्यों की प्राकृत, परवर्ती जैनकाव्यसाहित्य की प्राकृत, प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित और अनुशासित प्राकृत व्याकरण ग्रंथ।
    इस काल में प्राकृत में विभिन्न विधाओं में साहित्य रचा गया। महाकाव्य, खण्डकाव्य, चरितकाव्य, चम्पूकाव्य, मुक्तककाव्य, सट्टक आदि सभी विधाओं के रूप में प्राकृत साहित्य उपलब्ध है। इनके अतिरिक्त प्राकृत में ज्योतिष, राजनीति, आयुर्वेद, रत्नपरीक्षा, वास्तुसार आदि विभिन्न विषयों का साहित्य भी पाया गया है। प्राकृत व्याकरण, छन्दकोश तथा अलंकार ग्रंथ - प्राकृत साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
    तृतीययुगीन (६०० ईसवी से १२०० ईसवी तक) - जब साहित्यिक विधाओं के लिए प्राकृत का उपयोग प्रारम्भ हुआ तो वैयाकरणों ने प्राकृत प्रयोग के नियम निश्चित कर दिये और इसके अनुरूप साहित्य रचा जाने लगा। तब प्राकृत तो साहित्यिक भाषा बन गई और प्रादेशिक भाषारूप बोलियाँ अपभ्रंश के रूप में विकसित हुई। परिवर्तन के साथ इस नई जनभाषा अपभ्रंश के उद्भव होने के विषय में हिन्दी भाषा एवं साहित्य के जानेमाने समीक्षक राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक हिन्दीकाव्यधारा में लिखते हैं - ‘और अपभ्रंश? यहाँ आकर भाषा में असाधारण परिवर्तन हो गया। उसका ढाँचा ही बिल्कुल बदल गया। उसने नये सुबन्तों, तिङन्तों की सृष्टि की और ऐसी सृष्टि की, जिससे वह हिन्दी से अभिन्न हो गई और प्राकृत से अत्यन्त भिन्न।  
    वैसे देखा जाए तो भाषा परिवर्तन के बीज उसके उत्पादन प्रक्रिया में ही रहते हैं। इसीलिए भाष्यकार पतंजलि ने कहा था ‘एकैकस्य शब्दस्य बहवो अपभ्रंशा' अर्थात एक-एक शब्द के बहुत से अपभ्रंश होते हैं। पतंजलि के समय का भाषात्मक परिवर्तन एक शब्द को अनेक शब्दों में ढाल रहा था। परिवर्तन की यह प्रक्रिया अपभ्रंश युग में कुछ अधिक सक्रिय हो उठी। भाषा सम्बन्धी परिवर्तन की इस प्रक्रिया के नमूने इस अपभ्रंश भाषा में सुरक्षित हैं और जिन्होंने इसे सुरक्षित रखा, उनमें अधिकांश जैन कवि हैं। इन्होंने संस्कृत के साथ प्राकृत, अपभ्रंश और परवर्ती प्रान्तीय भाषाओं के सृजन को न केवल प्रेरणा देकर महत्व प्रदान किया; प्रत्युत: उसे सुरक्षित भी रखा।
    तृतीय स्तर (1200 ईसवी से वर्तमान तक)
    इस अपभ्रंश साहित्य भाषा के जन साधारण में अप्रचलित होने से भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में कथ्यभाषाओं के रूप में प्रचलित जिस-जिस अपभ्रंश भाषा से भिन्न-भिन्न प्रदेश की जो–जो आधुनिक आर्य कथ्य भाषाएँ उत्पन्न हुई, वे इस प्रकार हैं -
    मराठी अपभ्रंश से - मराठी और कोंकणी भाषा।
    मागधी अपभ्रंश की पूर्व शाखा से - बंगला, उडिया और आसामी भाषा।
    मागधी अपभ्रंश की बिहारी शाखा से - मैथिली, मगही और भोजपुरिया।
    अर्धमागधी अपभ्रंश से - पूर्वी हिन्दी भाषाएँ। (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी)।
    शौरसेनी अपभ्रंश से - बुन्देली, कन्नौजी, ब्रज, बाँगरू, हिन्दी।
    नागर अपभ्रंश से - राजस्थानी, मालवा, मेवाड़ी, जयपुरी, मारवाड़ी, गुजराती।
    पाली से - सिंहली और मालदीवन।
    टाक्की अथवा ढाक्की से - लहन्दी या पश्चिमी पंजाबी।
    ब्राचड अपभ्रंश से - सिन्धी।
    पैशाची अपभ्रंश से - काश्मीरी भाषा ।
    अत: यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि अपभ्रंश की कोख से ही उपरोक्त आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। वृहत्तर भारतीय संस्कृति और उसके गतिशील मूल्यों को समग्रतर रूप में समझने हेतु उपरोक्त भाषाओं के साहित्य का अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक है।
    उपरोक्त भाषाओं के सदृश अपभ्रंश साहित्य का भी विपुल भंडार है। अपभ्रंश साहित्य में अधिकांश जैनों की तथा बौद्ध सिद्धों, शैवों व मुसलिमों की कुछ रचनाएँ मिलती हैं। ईसा की छठी शती से लेकर सोलहवीं शती तक जैन संतों और कवियों ने मुक्तककाव्य तथा प्रबन्धकाव्य रूप रचनाओं से अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध किया है। मुक्तक काव्य के अन्तर्गत रहस्य, भक्ति, नीति एवं उपदेशात्मक मुक्तक तथा प्रबन्धकाव्य के अन्तर्गत महाकाव्य, चरिउकाव्य एवं कथाकाव्य के रूप में अपभ्रंश साहित्य का समृद्ध भंडार है।  
    मुक्तक रचनाओं में आचार्य जोइन्दु कृत परमात्मप्रकाश व योगसार, मुनिरामसिंह कृत पाहुड़दोहा, सुप्रभाचार्य कृत वैराग्यसार, आचार्य देवसेन कृत सावयधम्म दोहा तथा हेम व्याकरण में संकलित अपभ्रंश के दोहे व अन्य मुक्तक रचनाएँ जीवन के आन्तरिक, आत्मिक व आध्यात्मिक पक्ष को सबल रूप से उजागर कर अपभ्रंश साहित्य की मुक्तक विधा का गौरव बढ़ाते हैं।
    प्रबन्धकाव्य के अन्तर्गत कवि स्वयंभू कृत पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ, कवि पुष्पदन्त कृत महापुराण, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, कवि वीर कृत जंबूसामिचरिउ, मुनि नयनन्दि कृत सुदंसणचरिउ, मुनि कनकामर कृत करकंडचरिउ, कवि हरिदेव कृत मयणपराजयचरिउ, कवि जीव कृत हरिसेणचरिउ, कवि धाहिल कृत पउमसिरिचरिउ, पद्मकीर्ति कृत पासणाहचरिउ, कवि सिंह कृत पजुण्णचरिउ, नरसेन कृत सिरिपालचरिउ, जयमिहल कृत वड्डमाणचरिउ, माणिक्यराज कृत अमरसेणचरिउ, कवि रइधू कृत बलहद्दचरिउ, मेहेसरचरिउ, पासणाहचरिउ, सम्मइजिणचरिउ, सांतिणाहचरिउ आदि कुल २८ कृतियाँ तथा और भी अन्य अपभ्रंश काव्य - अपभ्रंश प्रबन्धकाव्य धारा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
    बौद्ध सिद्धों में सरहपा व कण्हपा मुख्य हैं। इनके द्वारा रचित दोहाकोश तथा गीत अपभ्रंशसाहित्य की महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। शैवों की रचनाओं के अन्तर्गत अभिनवगुप्त के तन्त्रसार (१०१४) में प्राकृत अपभ्रंश के पद्य मिलते हैं। शितिकण्ठाचार्य की कृति 'महानयप्रकाश' (१५वीं शती) में अपभ्रंश के ९४ पद्य हैं। मुसलिम लेखक अब्दुलरहमान द्वारा रचित ‘संदेशरासक' एक महत्वपूर्ण प्रबन्धात्मक कृति है। इस संदेशरासक काव्य का प्रथम सम्पादन मुनि जिनविजय जी ने किया है। पुनः इस ग्रंथ का नये सिरे से सम्पादन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी व उनके शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया। अतः अपभ्रंश साहित्य काव्य रूपों की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न है। इन सभी काव्य रूपों का विकास हिन्दी में भी दिखाई पड़ता है।
    आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी इस अपभ्रंश भाषा को पढ़ने की प्रेरणा मुझे अपभ्रंश साहित्य अकादमी के संयोजक डॉ. कमलचन्द जी सोगाणी साहब से मिली। सन् १९९३ में मेरी अपभ्रंश साहित्य अकादमी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी में पत्राचार के माध्यम से अपभ्रंश सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम के अध्यापन हेतु नियुक्ति हुई। तब से १४ वर्ष तक अध्यापन करने के पश्चात् अपभ्रंश व्याकरण को जिस तरह से मैंने समझा, उसे पुस्तक रूप देने की चाहत पैदा हुई। तदुपरान्त मात्र ३ माह की अल्पावधि में मैंने इस कार्य को अपभ्रंश अनुवाद कला' पुस्तक के रूप में पूर्ण कर लिया।
    आभार -
    मात्र अपभ्रंश काव्यों को पढने व समझने की रुचि ने मुझे हेमचन्द्र व्याकरण पढने की ओर आकर्षित किया। तदर्थ मैंने डॉ. कमलचन्दजी सोगाणी, संयोजक अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अपभ्रशं रचना सौरभ एवं अपभ्रंश प्रौढ रचना सौरभ पुस्तक का सहारा लिया। मैंने जिस तरह इन पुस्तकों के आधार पर अपभ्रंश भाषा को सीखा उसी को मैंने अपनी इस पुस्तक अपभ्रंश अनुवाद कला में अभिव्यक्त किया है। मुझे आशा है कि अपभ्रंश भाषा को सीखनेवालों के लिये यह पुस्तक अवश्य मार्गदर्शन का काम करेगी।
    इस पुस्तक को लिखने की प्रेरणा मुझे मेरे स्वयं के अन्तर्मन से मिली। मुझे लगा कि अपभ्रंश भाषा के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करने के लिये अपभ्रंश भाषा, अपभ्रंश भाषा की किसी भी अप्रकाशित रचना अथवा किसी भी प्रकाशित रचना पर जितना और जैसा भी संभव हो लेखन कार्य करना चाहिये। तदर्थ सर्वप्रथम मैंने जीव कवि कृत ‘हरिसेणचरिउ' का अनुवाद व समीक्षात्मक अध्ययन किया और वह कृति श्री महावीरजी से पुरस्कृत हुई। उसके बाद यह अपभ्रंश अनुवाद कला' पुस्तक को आपके हाथों में सौंपकर हर्ष का अनुभव कर रही हूँ। आपको यह जानकर पुनः हर्ष होगा कि अपने अगले कार्य हेतु मैंने स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (रामकथा) को लिया है। पउमचरिउ पर काम करने पर जिस आनन्दानुभूति का मैं अनुभव कर रही हूँ, निश्चय ही इस कृति के पूर्ण होने पर पाठकों को भी इसका अपार लाभ मिल सकेगा।
    मैं भाई संजीवजी गोधा, प्रबन्ध सम्पादक वीतराग-विज्ञान (मासिक) एवं जैनपथ प्रदर्शक (पाक्षिक) के प्रति अपनी पूर्ण कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। ‘धर्म क्यों करें कैसे जानें ?' नामक पुस्तक में इनका पता देखकर इनसे पहली बार मैं अपने पति महोदय के साथ इनके घर पर ही मिली और इस पुस्तक के सम्पादन व प्रकाशन का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा। मुझे यह कहते हुये अत्यन्त हर्ष हो रहा है कि भाई संजीवजी ने हमारे स्वागत सत्कार व अपने मधुर व्यवहार के साथ पहली बार में ही पुस्तक के प्रकाशन करने की स्वीकृति प्रदान की। उन्होंने जिस प्रसन्नता व आवश्यक सुझावों के साथ इस कृति के सम्पादन व प्रकाशन करने का कार्य पूरा किया, तदर्थ मैं पुन: उनका आभार व्यक्त करती हूँ।
    अब मैं अपने परिवार के सभी सदस्यों डॉ. मणिकान्त ठोलिया, पुत्र-पुत्र वधू सचिन-प्रियंका, अनुज पुत्र सौरभ एवं पुत्री-दामाद अनिता–शिखरजी पांड्या को धन्यवाद देती हैं, जिन्होंने इस कार्य की अवधि में महत्वपूर्ण कार्यों में सहयोग प्रदान कर इस पुस्तक को शीघ्र पूर्ण करने में अपना योगदान दिया।  
    यह इस पुस्तक 'अपभ्रंश अनुवाद कला' का पहला संस्करण है। इसमें रही त्रुटियों को सूचित करने वाले विद्वानों के प्रति मैं बहुत आभारी रहूंगी।
    स्नेहलता जैन
  20. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी प्रयोजन या उद्देश्य को लेकर कार्य करते हैं तो वे अपना प्रयोजन पूरा होने पर संतुष्ट हो पाते हैं जब कि प्रयोजन रहित कार्य मात्र समय गुजारना होता है। जैसे शास्त्र का अध्ययन बोध प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाये तो बोध प्राप्ति होने से उससे जो सन्तुष्टि मिलती है वही जीवन का सच्चा आनन्द है। किन्तु यदि मात्र समय गुजारने के लिए बिना बोध प्राप्ति के उद्देश्य से मात्र शास्त्रों का वाचन एक मूर्खता ही है, क्योंकि उससे सन्तुष्टि नहीं मिलती हे। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    84. बोह-णिमित्ते ँ सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु।
        तेण वि बोहु ण जासु वरु सो किं मूढु ण तत्थु।।
    अर्थ - निश्चय ही बोध के प्रयोजन से यहाँ लोक में शास्त्र पढ़ा जाता है, (किन्तु) जिसके उस (शास्त्र पठन) से भी उत्तम बोध (उत्पन्न) नहीं हो (तो) क्या वह वास्तविक (वास्तव में) मूर्ख नहीं है ?
    शब्दार्थ - बोह-णिमित्ते ँ- बोध के प्रयोजन से, सत्थु-शास्त्र, किल-निश्चय ही, लोइ-लोक में, पढिज्जइ -पढा जाता है, इत्थु-यहाँ, तेण-उससे, वि-भी, बोहु-बोध, ण-नहीं, जासु-जिसके, वरु-उत्तम, सो-वह, किं -क्या, मूढु-मुर्ख, ण-नहीं, तत्थु-वास्तविक।
  21. Sneh Jain
    आचार्य योगीन्दु सभी जीवों को सुख और शान्ति के मार्ग पर अग्रसर करना चाहते हैं, और यह सुख-शान्ति का मार्ग बिना आत्मा को पहचाने सम्भव नहीं है। अतः आत्मा पर श्रृद्धान कराने के लिए विभिन्न- विभिन्न युक्तियों से आत्मा के विषय में बताते हैं। इस 31वें दोहे में आत्मा का लक्षण बताया गया है -

     
    31    अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु ।
          अप्पा इंदिय-विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ।।

     
    अर्थ - आत्मा, मन रहित, इन्द्रिय रहित, मूर्ति (आकार) रहित, ज्ञानमय (और) चेतना मात्र है, (यह) इन्द्रियों का विषय नहीं है। (आत्मा का) यह लक्षण बताया गया है।
    शब्दार्थ - अमणु-मन रहित, अणिंदिउ-इंद्रिय रहित, णाणमउ-ज्ञान सहित, मुत्ति-विरहिउ-मूर्ति रहित, चिमित्तु-चेतना मात्र, अप्पा- आत्मा, इंदिय-विसउ- इन्द्रियों का विषय, णवि-नहीं, लक्खणु-लक्षण, एहु- यह, णिरुत्त-बताया गया है।
  22. Sneh Jain
    अब हम रामकथा को रामकथा के पात्रों के चरित्र चित्रण के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। पात्रों के चरित्र-चित्रण से राम काव्य की कथावस्तु तो स्पष्ट होगी ही, साथ ही मानव मन के विभिन्न आयाम भी प्रकट होंगे। इस संसार में रंक से लेकर राजा तक कोई भी मनुष्य पूर्णरूप से सुखी एवं षान्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य के विकास मार्ग को उसकी किसी न किसी मुख्य मानवीय कमजोरी ने अवरुद्ध कर रखा है। अज्ञानवष व्यक्ति अपनी कमजोरियों का अन्वेषण नहीं कर पाने के कारण उचित समय पर उनका परिमार्जन नहीं कर पाता,, जिससे वह अपने वर्तमान जीवन में संक्लेषपूर्वक मरण को प्राप्त कर आगे भी दुर्गति को प्राप्त होता है। स्वयंभू पर अपभ्रंष भाषा के प्रथम अध्यात्मग्रंथकार आचार्य योगिन्दु (छठी षती ई.)  का पूर्ण प्रभाव है। पउमचरिउ का सम्पूर्ण अध्ययन कर चुकने के बाद प्रतीत होता है कि योगिन्दु और स्वयंभू संवेदना के स्तर पर एक कोटि के हैं। दोनों का ही समभाव की भूमि पर खड़ा होने से समान रूप से सन्तुलित व्यक्तित्व है। अपने इस ही व्यक्तित्व के कारण स्वयंभू ने जिस तरह से रामकाव्य के चरित्रों की अवतारणा की है, वह आज के युग में बहुत उपयोगी है। विभिन्न पात्रों के चरित्र से व्यक्ति तादात्म्य स्थापित कर अपने मन की कमजोर प्रवृत्तियों का अन्वेषण करना प्रारम्भ करता है। इसके बाद पष्चाताप कर उनका परिमार्जन कर इस जन्म में षान्तिपूर्वक मरण को प्राप्त कर आगे भी सुगति को प्राप्त हाता है।  
     
     
    जैन दर्षन में मानव की आधारभूत कमजोरी ‘राग’ के रूप में देखी गयी है। आगे चलकर यह राग की जड़ ही अनेक बुराइयों की षाखा के रूप में पल्लवित होती देखी गयी है। वैसे भी सभी महापुरुषों ने अपने ध्यान की अनुभूति को राग नही करने में ही अभिव्यक्त किया है। पउमचरिउ में अन्त में ध्यान पूरा होने के बाद सर्वप्रथम राम इन्द्रपर्याय प्राप्त सीता के पूर्वभव जीव को राग छोड़ने का उपदेष देते देखे गये हैं। श्री कृष्ण भी गीता में ‘कर्म करो किन्तु फल की आषा मत करो’ कहकर इस राग को छोड़ने का ही संदेष देते हैं। अध्यात्म का कोई भी ग्रंथ राग के कथन से अछूता नहीं है। तो हम देखते हैं इक्ष्वाकुवंष व रामकथा के पात्रों के माध्यम से मानव मन के विभिन्न आयामों को एवं उनसे प्राप्त फलों को।

    1. ऋषभदेव
    ऋषभदेव से ही इक्ष्वाकुवंष तथा विद्याधरवंष की स्थापना हुई है। इनके समय में कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के कारण जीवन जीने की समस्या उत्पन्न हुई। ऋषभदेव ने ही असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और अन्य दूसरी विद्याओं की षिक्षा देकर प्रजा को जीवन जीने का उपाय बताया। नन्दा व सुनन्दा से ऋषभदेव का विवाह हुआ तथा इनके भरत व बाहुबलि के समान सौ पुत्र हुए। सभी पुत्रों को षासन करने हेतु अलग-अलग नगर प्रदान कर तथा भरत को राज्य लक्ष्मी देकर ऋषभदेव संन्यास ग्रहण कर तप में लीन हो गये। तप करते हुए इनको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। कैलाष पर्वत पर प्रतिष्ठित होकर निर्वाण को प्राप्त हुए। इनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान एवं निर्वाण से सम्बन्धित सभी कल्याणक महोत्सव देवों के द्वारा मनाये गये।

    2. भरत
    भरत इक्ष्वाकुवंषी ऋषभदेव के पुत्र हैं। ऋषभदेव के संन्यास ग्रहण करने पर ये राज्यलक्ष्मी के अधिकारी बने। अनेक राजाओं को अपने अधीनस्थ बनाकर भरत जैसे ही अयोध्या में प्रवेष करते हैं, उनका चक्ररत्न अयोध्या नगर में प्रवेष नहीं कर सका। भरत ने मन्त्रियों से इसका कारण अपने छोटे भाई पोदनपुर के राजा बाहुबलि का अधीन नहीं होना जाना। उन्होंने बाहुबली के पास अपनी आज्ञा मनवाने हेतु दूत भेजा। बाहुबलि ने भरत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब क्रोधित हुए भरत ने युद्ध के लिए कूच कर दिया। मंत्रियों के परामर्ष से हिंसक युद्ध को विराम दिया जाकर दोनों के मध्य दृष्टि, जल एवं मल्ल युद्ध प्रारम्भ हुआ। तीनों ही युद्ध में विजय के उत्कट आकांक्षी भरत बाहुबलि से पराजित हुए। विजयी बाहुबलि ने संन्यास ग्रहण कर लिया। लम्बे समय तक भी बाहुबलि को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होने पर भरत ने पिता ऋषभदेव से इसका कारण पूछा। तब ऋषभदेव ने बाहुबलि के मन में भरत की भूमि पर खडे़ होने का कषाय भाव होना बताया। यह जानकर भरत प्रेम व उपकार की भावना से भरकर षीघ्र बाहुबलि के पास गये। बाहुबलि के चरणों में गिरकर भरत ने कहा-  यह धरती आपकी ही है। इस प्रकार उनके कषाय भाव को षान्त करने में सहयोग प्रदान कर उनके केवलज्ञान प्राप्ति में सहायक बने। अन्त में भरत ने अयोध्या में अर्ककीर्ति को प्रतिष्ठित कर वैराग्य धारण कर लिया। इस प्रकार चक्रवर्ती भरत का जीवन राग व वैराग्य दोनों से युक्त देखा जाता है।
     
    3. बाहुबलि
    बाहुबलि इक्ष्वाकुवंषी ऋषभदेव के पुत्र एवं राजा भरत के छोटे भाई हैं। पिता ऋषभदेव द्वारा दिये गये पोदनपुर नगर को प्राप्त कर बाहुबलि पोदनपुर के राजा बने। इनका षान्त, स्वतन्त्रता प्रिय, पराक्रमी एवं निर्भीक व्यक्तित्व है।इनको स्वचेतना की किंचित भी परतन्त्रता मान्य नहीं है। दूत से भरत की अधीनता स्वीकार करने की बात सुन निर्भीक बाहुबली स्पष्ट रूप से कहते हैं - ‘‘प्रवास करते हुए परमजिनेष्वर ने जो कुछ भी विभाजन करके दिया है वही हमारा सुखनिधान षासन है। मैंने किसी के साथ कुछ भी बुरा नहीं किया। मैं अपनी ताकत से ही जीता हूँ भरत की ताकत से नहीं। एक चक्र से ही यह घमण्ड करता है कि मैंने समूची धरती अधीन करली है। मैं कल उसे ऐसा कर दूंगा जिससे उसका सारा दर्प चूर-चूर हो जायेगा’’। पराक्रमी बाहुबली भरत के साथ हुए दृष्टि, जल एवं मल्ल तीनों युद्धों में विजयी हुए।
    भरत के द्वारा चक्र छोड़ा जाने पर बाहुबलि सोचते हैं कि मैं उसको आज धरती पर गिरा दूँ।  पुनः षान्त प्रकृति बाहुबलि ने यह विचार किया कि राज्य के लिए अनुचित किया जाता है। भाई, बाप और पुत्र को मार दिया जाता है। तब अपने आपको धिक्कार कर एवं दीक्षा ग्रहण कर मोक्षमार्ग की साधना में लीन हो गये। थोडे़ ही दिनों में वे घातिया कर्म का नाष कर सिद्ध हो गये।
    सच्चे अर्थ में यदि संसार से अन्याय को हटाना हो तथा स्वयं के व्यक्तित्व को विकसित करना हो तो बाहुबलि का चरित्र अनुकरणीय है। पिता ऋषभदेव से भी पहले बाहुबलि मोक्ष गये।
    इस ही कडी में आगे राम के पिता दषरथ के चरित्र चित्रण से कथन पुनः प्रारम्भ किया जायेगा। रामकथा का आरम्भ यही से होगा। 
     
     

     

     

     

     
  23. Sneh Jain
    जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति में व्यक्ति के विकास के सोपान तीन रत्न, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही है। सर्वप्रथम अपनी दृष्टि निर्मल होने पर ही प्रत्येक वस्तु का सही रूप में बोध हो पाता है और जब बोध सही होता है तब वह बोध ही चारित्र में उतर पाता है। सही चारित्र ही व्यक्ति का सर्वोत्तम विकास है। इसलिए चारित्र तक पहुँचने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति की दृष्टि का निर्मल होना आवश्यक है। दृष्टि के निर्मल होने के बाद चारित्र का पालन कठिन नहीं है किन्तु दृष्टि का निर्मल होना बहुत कठिन है। इसीलिए जैन धर्म व दर्शन में सम्यग्दर्शन की चर्चा पग-पग पर मिलती है। आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों रत्नों का आराधक है वह सभी जीवों को समान मानता है वह अपने से दूसरे को भिन्न नहीं मानता है। देखें इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
    95.   जो भत्तउ रयण-त्तयहँ तसु मुणि लक्खणु एउ।
         अच्छउ कहिँ वि कुडिल्लियइ सो तसु करइ ण भेउ।।
    अर्थ - जो रत्नत्रय का आराधक है, उसकी यह विशेषता है कि (जीव) किसी भी शरीर मे रहे, वह उस (जीव) का (अन्य जीव से) भेद नहीं करता है।
    शब्दार्थ - जो- जो, भत्तउ-आराधक, रयण-त्तयहँ -रत्नत्रय का, तसु-उसकी, मुणि-जानो, लक्खणु-विशेषता, एउ-यह, अच्छउ-रहे, कहिँ-किसी, वि-भी, कुडिल्लियइ-शरीर में, सो-वह, तसु-उसका, करइ करता है,ण-नहीं, भेउ-भेद।
  24. Sneh Jain
    सीता पउमचरिउ काव्य के नायक राम की पत्नी के रूप में पउमचरिउकाव्य की प्रमुख नायिका हैं। यह नायिका भारतीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। सीता के जीवन चरित्र के माध्यम से स्त्री के मन के विभिन्न आयाम प्रकट होंगे जिससे स्त्री की मूल प्रकृति को समझने में आसानी होगी। ब्लाग 5 में राम के जीवन चरित्र के माध्यम से हम पुरुष के मूल स्वभाव से परिचित हुए थे। देखा जाय तो अच्छा जीवन जीने के लिए सर्वप्रथम स्त्री और पुरुष दोनों के मूल स्वभाव की जानकारी आवश्यक है। रामकाव्यकारों का रामकथा को लिखने का सर्वप्रमुख उद्देश्य भी यही प्रतीत होता है। जैन रामकथाकारों ने राग तथा क्रोध, मान आदि कषायों को मनुष्य के दुःखों का कारण माना है और इनके अभाव में ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता बतायी है। सीता पुरुष के स्वभाव से एकदम अनभिज्ञ थी, बस पति को परमेश्वर मानकर उनके पीछे-पीछे चलती रही, पति में अति राग के कारण उनमें पति की अनुचित बात का विरोध करने का विवके व सामथ्र्य ही उत्पन्न नहीं हुआ। फलस्वरूप राम का राजतिलक होने से पूर्व ही सीता का राम के साथ वनवास जीवन प्रारम्भ हो गया, वनवास काल में सीता का हरण हुआ, राम ने राजगद्दी पर बैठते ही प्रजा के भय से  सीता को गर्भकाल में ही निर्वासन दे दिया और अन्त में राम के कहने पर अग्निपरीक्षा भी स्वीकार कर ली।  अग्निपरीक्षा में सफल होने पर राम ने जब सीता से अपने अपराधों के लिए क्षमा याचना की तो सीता ने उनको क्षमा भी नहीं किया तथा संसार के दुःखों से भयभीत हो शाश्वत सुख हेतु दीक्षा ग्रहण कर ली।
     यहाँ हम सीता के जीवन-काल को तीन भागों 1. वनवासकाल  2. हरणकाल 3. निर्वासनकाल में घटी घटनाओं को देखेंगे जिससे हमें स्त्री के मूल स्वभाव पर प्रकाश पड सकेगा। 
    1. वनवासकाल
    वनवास काल में सीता ने मुनिवर के आगमन पर भक्तिपूर्वक स्तुति की तथा राम के सुघोष वीणा बजाने पर चैसठ भुजाओं का प्रदर्शन कर भक्तिभावपूर्वक नृत्य किया। राम के साथ मुनिराज की आहार चर्या पूरी की।  सीतादेवी ने दुःखी खगेश्वर जटायु कोे अपने वात्सल्य भाव से आशीर्वचन दिया।
    वंशस्थल को आहत कर लौटे हुए लक्ष्मण को देखकर सीता ने भय से काँपते हुए कहा- लता मंडप में बैठे हुए और वन में प्रवेश करने के बाद भी सुख नहीं है। लक्ष्मण जहाँ भी जाते हैं वहाँ कुछ न कुछ विनाश करते रहते हैं। रावण की बहन चन्द्रनखा ने राम और लक्ष्मण पर आसक्त होकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने के लिये रोना शुरू किया। तब सीता उसके माया भाव को नहीं समझती हुई सहजता से बोली, राम ! देखो यह कन्या क्यों रोती है ? समय से छिपा हुआ दःुख ही इसे उद्वेलित कर रहा है।

     

     
    2. हरण-काल 
    लंकानगरी में हनुमान से राम की वार्ता जानकर सीता पहले तो सहज भाव से प्रसन्न हुई किन्तु बाद में सतर्क होकर सोचने लगी - यह राम का ही दूत है या कोई दूसरा ही आया है, यहाँ तो बहुत से विद्याधर हैं, मैं तो सभी में सद्भाव देख लेती हूँ। जैसे पहले चन्द्रनखा विवाह का प्रस्ताव लेकर आयी और बाद में किलकारी मारकर हमारे ऊपर ही दौड़ी। तब विद्याधर ने सिंहनाद कर मेरा अपहरण करके मुझे राम से अलग कर दिया। लगता है यह भी किसी छल से मेरा मन थाहना चाहता है।
    लक्ष्मण के शक्ति से आहत होने तथा इससे राम के दुःखी होने का समाचार सुनकर सीता ने दहाड़ मारकर रोते हुए अपने कठोर भाग्य को कोसा - अपने भाई और स्वजनों से दूर, दुःखों की पात्र, सब प्रकार की शोभा से शून्य मुझ जैसी दुःखों की भाजन इस संसार में कोई भी स्त्री न हो।
    सीता को हरणकर ले जाते हुए रावण ने समुद्र के मध्य सीता से कहा- हे पगली! तुम मुझे क्यों नहीं चाहती? महादेवी के पट्ट की इच्छा क्यों नहीं करती? और उसका आलिंगन करना चाहा। तब सीता ने उसके इस आचरण की तीव्र भत्र्सना की। इस भत्र्सना रूपी अस्त्र ने ही रावण को स्वयं के द्वारा गृहीत व्रत का स्मरण दिलाया। उस व्रत को स्मरण कर रावण ने कहा- मुझे भी अपने व्रत का पालन करना चाहिए, बलपूर्वक दूसरे की स्त्री को ग्रहण नहीं करना चाहिए। तब सीता ने पति के समाचार नहीं मिलने तक नन्दन वन में ही रहने के लिये कहा तो रावण ने उसकी बात मान ली।
    पुनः रावण सीता के समक्ष याचक बनकर गिड़गिड़ाया- हे देवी! हे सुर सुन्दरी! मैं किससे हीन हूँ, क्या मैं कुरूप हूँ या अर्थ रहित हूँ ? बताओ, किस कारण से तुम मुझे नहीं चाहती ? तब सीता ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा, हे रावण! तुम हट जाओ। तुम मेरे पिता के समान हो। परस्त्री को ग्रहण करने में कौन सी शुद्धि होती है। तुम्हारे अपयश का डंका बजे और जब तक लंकानगरी नाश को प्राप्त नहीं हो उससे पहलेही हे नराधिप, तुम राघव चन्द्र के पैर पकड़ लो।
    रावण ने यह सोचकर कि शायद यह भय के वश मुझे चाहने लगे उसको भयभीत करने के लिये भयंकर उपसर्ग करने शुरु किये। उस भयानक उपसर्ग को देखने से उत्पन्न हुए रौेद्र भाव को दूर कर तथा अपने मन को धर्म ध्यान से आपूरित कर सीता ने प्रतिज्ञा ले ली कि जब तक मैं गम्भीर उपसर्ग से मुक्त नहीं होती तब तक मेरे चार प्रकार के आहार से निवृत्ति है। इस तरह धर्मपूर्वक सीता ने भयानक उपसर्ग को भी सहन कर लिया।
    पुनः रावण ने सीता को वश में करने के लिये अपनी ऋद्धि के प्रभाव से उसे पुष्पक विमान पर चढ़ाकर बाजार की शोभा दिखायी। चूड़ा, कण्ठा, करघनी आदि महादेवी का प्रसाधन स्वीकार करने के लिये कहा। तब सीता ने उन सभी ऋद्धियों का तिरस्कार कर कहा- तुम अपनी यह ऋद्धि मुझे क्यों दिखाते हो? यह सब अपने लोगों के मध्य दिखाओ। उस स्वर्ग से भी क्या, जहाँ चाऱित्र का खंडन है। मेरे लिये तो शील का मंडन ही पर्याप्त है। सीतादेवी की इस अलोभ प्रवृत्ति ने ही रावण को अपनी निन्दा करने को विवश कर दिया और उसने कहा - मैं किस कर्म के द्वारा क्षुब्ध हूँ जो सब जानता हुआ भी इतना मोहित हूँ। मुझे धिक्कार है कि मैंने इसकी अभिलाषा की। तभी स्वयं को धिक्कारते हुए वह सीता को छोड़कर वहाँ से चला गया।
    पुनः रावण अपने आपको चन्दन से अलंकृत कर, अमूल्य वस्त्र धारण कर तथा त्रिजगभूषण हाथी पर बैठकर सीता के पास पहुँचा। वहाँ अपने पराक्रम का बखान करता हुआ राम व उनके प्रमुखजनों को मारने की            धमकी देने लगा। उसने कहा- तुम जो अभी तक बची हुई हो वह मात्र मेरे संकल्प के कारण। तब रावण ने अपनी विद्या से राम आदि कोे मरते हुए  दिखाकर तथा नाना रूपों का प्रदर्शन कर सीता को भयभीत करना प्रारम्भ किया। तब शीलरूप चारित्र का निर्वाह करते हुए सीतादेवी ने कहा- हे दशमुख! राम के मरने के बाद मैं एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकती । जहाँ दीपक होगा वहीं उसकी शिखा होगी, जहाँ चाँद होगा वहीं चाँंदनी होगी और जहाँ राम हांेगे सीता भी वहीं होगी । यह कहते-कहते सीता मूच्र्छित हो गयी। सीता के इस दृढ़ शीलव्रत ने ही रावण को दूर हटने व अपनी निन्दा करने को विवश किया। उसने कहा- कल मैं युद्ध में राम व लक्ष्मण को बन्दी बनाऊंगा और उन्हें सीतादेवी को सौंप दूँगा।
    मन्दोदरी रावण की दूती बनकर सीता के पास गयी। वहाँ जाकर मन्दोदरी ने रावण के वैभव का तरह-तरह से बखान करने के बाद कहा -तुम लंकेश्वर दशानन की महादेवी बन जाओ। इस पर क्रुद्ध होकर सीता ने निष्ठुर वचन में  कहा -‘‘उत्तम स्त्रियों के लिये यह उपयुक्त नहीं है,
  25. Sneh Jain
    आचार्य योगिन्दु आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था की प्राप्ति में समभाव की प्राप्ति का होना आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार समभाव की प्राप्ति ही परम आत्मा की उपलब्धि का सबसे बड़ा सत्य है। समभावरूप सत्य की उपलब्धि के पश्चात् जिस परम आनन्द की प्राप्ति होती है वही परम आत्मा का शिव और सुन्दर पक्ष है। समभाव की प्राप्ति के अभाव में परम आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है। व्यवहारिक जगत में भी सुख और शान्ति मन में समभाव होने पर ही संभव है। राग और द्वेषरूप विषमता ही संसार के दुःखों का मूल है। आगे का दोहा इस ही कथन से सम्बन्धित है - 
    35    जो सम-भाव -परिट्ठियहं जोइहँ कोइ फुरेइ।
          परमाणंदु जणंतु  फुडु  सो परमप्पु हवेइ ।।
    अर्थ - समता भाव में सम्पूर्णरूप से स्थित योगियों के (हृदय में) परम- आनन्द को स्पष्टरूप से उत्पन्न करता हुआ जो कुछ प्रकट होता है, वह परम- आत्मा है।
    शब्दार्थ - जो-जो, सम-भाव -परिट्ठियहं-समभाव में पूर्णरूप से स्थित, जोइहँ-योगियों के, कोइ-कुछ, फुरेइ-प्रकट होता है, परमाणंदु-परम-आनन्द को, जणंतु-उत्पन्न करता हुआ, फुडु - स्पष्टरूप से, सो-वह,  परमप्पु-परम-आत्मा, हवेइ-है।
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