53. बंधहँ मोक्खहँ हेउ णिउ जो णवि जाणइ कोइ।
सो पर मोहे करइ जिय पुण्णु वि पाउ वि लोइ।।53।।
अर्थ - जो कोई भी अपने बंध और मोक्ष के कारण को नहीं जानता है, मोह में तल्लीन वह जीव लोक में पुण्य और पाप दोनों को ही करता है।
शब्दार्थ - बंधहँ - बंध, मोक्खहँ-मोक्ष के, हेउ-कारण को, णिउ-अपने, जो-जो, णवि-नहीं, जाणइ-जानता है, कोइ-कोई, सो-वह, पर-तल्लीन, मोहे-मोह में, करइ-करता है, जिय-जीव, पुण्णु -पुण्य, वि-और, पाउ -पाप, वि -ही, लोइ-लोक में।
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