भरत
भरत
पूर्व में राम के कथानक के माध्यम से स्वयंभू यही संदेष देना चाहते है कि प्रत्येक गृहस्थ व्यक्ति को अपने जीवन में सर्वप्रथम अपनी प्राथमिकताएँ निर्धारित करना चाहिए। प्राथमिकता पूरी होने के बाद आगे बढना चाहिए। इससे जीवन बहुत कम संघर्ष के आगे बढता है। राम की सबसे पहली प्राथमिकता उसकी माँ कौषल्या तथा पत्नी सीता होती है। आज भी यदि प्रत्येक व्यक्ति इस प्राथमिकता पर विचार कर इसको क्रियान्वित करने का प्रयास करे, तो एक षान्त और सुखी भारत का सपना साकार हो सकता है।
इसी प्रकार हम स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ के अन्य पात्रों के माध्यम से भी मानव मन के विभिन्न आयामों से परिचित होने का प्रयास करेगें। इस ही क्रम में आज राम के भाई भरत के कथानक पर विचार करते हैं।
भरत दशरथ एवं कैकेयी के पुत्र तथा पउमचरिउ के नायक राम के छोेटे भाई हैं। पउमचरिउ के दूसरे विद्याधरकाण्ड की 24वीं संधि के 5वें कडवक में बाल्यवस्था में प्रव्रज्या लेने को तत्पर भरत को दशरथ द्वारा यह कहकर फटकारा गया है कि ‘ तो किं पहिलउ पट्टु पडिच्छिउ’ अर्थात् तोे पहले तुमने राज्य की इच्छा क्यों कि ? इससे प्रतीत होता है कि भरत ने कभी केकैयी व दशरथ के समक्ष राजपट्ट प्राप्त करने की क्षणिक इच्छा प्रकट की होगी या फिर दशरथ ने अपने बचाव के लिए यह युक्ति अपने मन से कही होगी। मात्र इसके अतिरिक्त भरत का चरित्र काव्य में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक आसन्न भव्य अर्थात् निकट मुक्तिगामी के रूप में ही उभरकर आया है। आसन्न भव्यता का ही परिणाम है कि अपने पारिवारिक मामलों में ये सत्यवादी एवं निर्भीक रहे हैं।
नन्दावर्त के राजा अनन्तवीर्य ने भरत के साथ हुए युद्ध में पराजित होने के बाद प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। तभी आसन्न भव्य भरत अनन्तवीर्य के द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण किया जानकर उनके पास आये। वहाँ आकर उन्होंने अपनी निन्दा तथा अनन्तवीर्य मुनिवर की वन्दना करते हुए कहा कि हे देव, आपकी प्रतिज्ञा पूरी हुई जो आपने मुझे भी अपने चरणों में गिरा लिया।
राम के लिए वनवास एवं स्वयं के लिए राज्य की बात सुनकर निर्भिक एवं कटु सत्यवादी भरत ने पिता को धिक्कारा। उन्होंने कहा, महामदान्ध आप भी कुछ नहीं समझते। क्या राम को छोड़कर मुझे राजपट्ट बाँधा जायेगा? सज्जन पुरुष भी चंचल चित्त होते हैं। वे मन में युक्त और अयुक्त का विचार नहीं करते। कामान्ध के लिए किसका सत्य। आप घर पर ही रहें। शत्रुघ्न, राम, मैं और लक्ष्मण वन के लिए जाते हैं। आप भी झूठे मत बनो और धरती का उपभोग करो। पुनः दशरथ द्वारा भरत को परम गृहस्थधर्म का पालन किया जाने के लिए कहने पर भरत ने प्रत्युत्तर में कहा कि यदि गृहवास में सुख है तो आप उसे तृण के समान समझकर किस कारण संन्यास ग्रहण कर रहे हो।
राम ने भरत को पिता के वचन का पालन करने के लिय कहकर भरत के सिर पर राजपट्ट बांध दिया। तब पिता के समक्ष कटुवचन कहने वाले भरत भाई राम के प्रति सम्मान भाव होने के कारण कुछ नहीं बोल पाये। पुनः राम का वनवास के लिए गमन कर जाना सुनकर भरत मूच्र्छित हो गये। होश आने पर राम को खोजने निकल पडे़। लतागृह में सीता और लक्ष्मण सहित राम को देखकर वह उनके चरणों पर गिर पडे़। उनको प्रवास पर जाने से रोककर राज्य करने हेतु निवेदन करने लगे। इस पर राम ने भरत का आलिंगन कर उनके विनय की सराहना की। तब भरत बिना कुछ बोले वहाँ से चल दिये और मुनिवर से यह व्रत ले लिया कि राम को देखते ही मैं राज्य से निवृत्ति ले लूँगा।
भरत भामण्डल से वनवास पर्यन्त लक्ष्मण का शक्ति से आहत होना जानकर मूच्र्छित होकर धरती पर गिर पडे़। होश में आते ही वे लक्ष्मण के स्वस्थ होने की औषधि कीे प्राप्ति के विषय में जानकर शीघ्र अपनी माँ कैकेयी को लेकर मामा द्रोणघन के पास पहुँचे। वहाँ जाकर विशल्या के स्नान जल के स्थान पर स्वयं विशल्या को ही भिजवा दिया जिससे लक्ष्मण जीवित हो उठे। अन्त में भरत ने त्रिजगभूषण महागज के जन्मान्तरों को मुनिराज से सुनकर हजारों सामन्तों के साथ संन्यास ग्रहण कर लिया।
आगे लक्ष्मण से सम्बन्धित कथानक पर प्रकाश डाला जायेगा।
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