राम
इससे पूर्व हमने दशरथ के चरित्र चित्रण के माध्यम से देखा कि अज्ञान अवस्था में रागभाव से की गयी मात्र एक गलती घर-परिवारजनों के लिए कितना संकट उत्पन्न कर देती है ? एक राग के कारण दशरथ अपनी पहली पत्नी कौशल्या के प्रति इतना संवेदनहीन हो गये कि वे यह भी विचार नहीं कर पाये कि कैकेयी की बात मानने से कौशल्या के मन पर क्या असर होगा। सारा परिवार किस प्रकार छिन्न भिन्न हो जायेगा। रागवश मनुष्य की मति संवेदनहीन हो जाती है। अब आगे हम राम के चरित्र के माध्यम से देखेंगे कि वह एक संकट आगे पुनः कितने नये संकटों को जन्म देता है
राम
राम पउमचरिउ काव्य के नायक हैं। स्वयंभू ने पउमचरिउ काव्य की रचना अपने जिस उद्देश्य एवं विचारधारा को लेकर की है, उस विचारधारा एवं उद्देश्य को हम पउमचरिउ के नायक राम के चरित्र में स्पष्टरूप से देख सकते हैं। उस ही के आधार पर हम यह भी निर्णय कर सकते है कि स्वयंभू का अपने सांस्कृतिक परिवेश के मूल्य बोध और उसकी संभावनाओं के प्रति कितना गहरा परिचय था। इन ही मुख्य बिन्दु को आधार बनाकर पउमचरिउ में प्रारंभ से अंत तक वर्णित राम के चरित्र का आकलन करने का प्रयास करते हैं।
राजा जनक के शबरों से घिर जाने पर दशरथ जनक की सहायता के लिये जाने हेतु तैयार हुए। तभी आदर्श पुत्र राम ने दशरथ को यह कहकर कि मेरे जीते जी आप क्यों जा रहे हैं ? मै शत्रु को मारूँगा और युद्ध के लिये कूच कर दिया। राम, लक्ष्मण को साथ लेकर शबरों व म्लेच्छों से घिरे राजा जनक के पास मिथिला नगरी जाते हैं तथा शत्रु सेना को पराजित कर जनक को म्लच्छों के मुक्त कर देते हैं। उसी समय राजा जनक राम के पराक्रम से प्रभावित होकर सीता का राम से विवाह करने का मन में विचार कर लेते हैं। समय आने पर राजा जनक सीता के लिए स्वयंवर रचाते हैं। राम और लक्ष्मण भी उस स्वयंवर में पहुचते हैं। विश्व के सभी नामी राजाओं के उस धनुष को उठाने में असफल होने के बाद राम ने वजा्रवर्त और समुद्रावर्त धनुषों को डोेरी पर चढ़ा लेते हैं। तब राम के पराक्रम से प्रभावित होकर जनक सीता का राम से विवाह कर देते हैं।
केकैयी के द्वारा अपने लिए दिये गये वरदान स्वरूप दशरथ से राम के स्थान पर अपने पुत्र भरत के लिए राज्य मांगा गया। तब दशरथ को अपने वचन का पालन करने में लक्ष्मण से भयभीत होते देखकर राम ने नम्रतापूर्वक कहा -‘‘पुत्र का पुत्रत्व उसी में है कि वह कुल को संकट में नहीं डालता तथा अपने पिता की आज्ञा धारण करता है।गुणहीन और हृदय में पीड़ा पहुँचाने वाले ‘पुत्र’ शब्द की पूर्ति करने वाले पुत्र से क्या? लक्ष्मण हनन नहीं करेगा। आप तप साधंे एवं सत्य को प्रकाशित करें। भरत धरती का भोग करे, मैं वनवास के लिए जाता हूँ’। इस प्रकार पिता को भयमुक्त कर भरत के सिर पर पट्ट बाँध कर अपने लिए स्वयं वनवास अंगीकार कर राम ने पिता के प्रति आदर्श पुत्र का कर्त्तव्य निभाया। लंकानगरी में नारद से माता कौशल्या कीे क्षीण दशा होना जानकर राम दुःखी हो गये और बोले, मैंने यदि आज या कल में माँ के दर्शन नहीं किये तो माँ के प्राणपखेरु उड़ जायेंगे, अपनी माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्यारी होती है, और शीघ्र ही अयोध्या के लिए कूच कर दिया।
राम का अपनीे पत्नी सीता के प्रति दृढ़ प्रेम था। सीता के प्रति इस दृढ़ प्रेम के कारण ही राम ने वनवास हेतु सीता का भी साथ चलने का मन देखकर उनको अपने साथ ले लिया तथा रावण से सीता को प्राप्त करने में सफल हो सके। सीता का हरण होने पर सीता के वियोग में दुःखी राम को मुनिराज ने बहुत समझाया। तब सीता के प्रेम में दृढ़ राम ने निरन्तर अश्रुधारा छोड़ते हुए कहा, ग्राम, श्रेष्ठनगर, महागज, आज्ञाकारी भृत्य आदि सब प्राप्त किये जा सकते हैं किन्तु ऐसा स्त्रीरत्न प्राप्त नहीं किया जा सकता। जाम्बवन्त ने राम के शोक को कम करने हेतु उनको 13 रूपवान कन्याएँ देने की बात कही। तब राम ने प्रत्युत्तर में कहा, ‘यदि रम्भा या तिलोत्तमा भी हों तो भीे सीता की तुलना में मेरे लिये कुछ भी नहीं है। रावण के दूत से सीता के बदले में राज्य और रत्नकोष लेने की बात सुनकर राम ने कहा कि निधियाँ एवं राज्य आदि सब कुछ वही ले ले हमें तो केवल सीतादेवी चाहिए।
लवण व अंकुष के अयोध्यानगरी में प्रवेष करने पर राम के प्रमुख जनों ने सीता को अयोध्या लाने का प्रस्ताव रखा। उस प्रस्ताव को सुनकर राम ने कहा कि मैं सीतादेवी के सतीत्व को जानता हूँ किन्तु यह नहीं जानता कि नागरिकजनों ने मेरे घर पर यह कलंक क्यों लगाया। तब विभीषण के द्वारा त्रिजटा व हनुमान के द्वारा बुलाई गई लंकासुन्दरी से सीता के सतीत्व को जानकर राम प्रजा से निर्भीक हुए और सीता को लाने की स्वीकृति दी।
राम का अपने भाइयों भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न पर अत्यन्त प्रेम था। वनवास हेतु निकले राम ने गम्भीर नदी को पार कर समूची सेना को भरत के अच्छे अनुचर बनने के लिए कहकर अयोध्या वापस लौटा दिया। वनवास के समय जब राम ने यह जाना कि अनन्तवीर्य ने भरत को युद्ध में मारने की प्रतिज्ञा की है, तब राम ने अनन्तवीर्य से युद्ध कर उसको पराजित किया। अनन्तवीर्य के तपश्चर्याग्रहण करने पर राम ने उसके पुत्र सहस्रार को भरत का सेवक बना दिया। इस तरह वनवास में रहते हुए भी राम ने भाई भरत का पूरा ध्यान रखा। वनवास के बाद लंकानगरी से अयोध्या में पहँुचते ही राम ने राज्य की इच्छा नहीं कर भरत को ही पूर्ववत राज्य करते रहने के लिए कहा।
वनवास हेतु साथ चलने को तैयार लक्ष्मण को राम ने अपने साथ ले लिया। लक्ष्मण के सिंहनाद को सुनते ही राम अपशकुन होने पर भी उन सबकी उपेक्षा कर लक्ष्मण के पास युद्ध क्षेत्र में पहुँच गये। हनुमान ने राम से रावण को मारने की अनुमति मांगी किन्तु राम रावण को मारने का श्रेय अपने प्रिय भाई लक्ष्मण को ही दिलवाना चाहते थे। अतः अन्त में राम ने लक्ष्मण को ही रावण के साथ युद्ध काने का अवसर दिया।
लक्ष्मण के शक्तिबाण लगने पर राम ने प्रतिज्ञा की कि कल कुमार के अन्त होने तक एक पल के लिए भी यदि दशानन जीवित रह गया तो मैं अपने आपको जलती ज्वाला में होम दूंगा। तब मुख्य-मुख्य लोगों को विषल्या का स्नान जल लाने भेजा। राम के राजगद्दी पर बैठकर शत्रुघ्न द्वारा राजा राम से मधुराज की मथुरा नगरी मांगी गयी। तब उसके लिए मथुरा पर राज्य करना कठिन जानकर भी उसकी सहायता कर मधु को जीतकर मथुरा नगरी प्राप्त करने की अनुमति दे दी ।
राम का हनुमान, सुग्रीव, जाम्बवन्त, नल, नील, अंगद आदि सहयोगी मित्रों के साथ अच्छा मैत्री सम्बन्ध था। किष्किन्धानरेश सुग्रीव, मायावी सुग्रीव से पराजित होकर सहायता के लिए राम की शरण में आये। तब राम ने सुग्रीव से कहा, मित्र! तुम तो मेरे पास आ गये पर मैं किसके पास जाऊँ ? जैसे तुम वैसे मैं भी स्त्री वियोग से दुःखी जंगल-जंगल में भटक रहा हूँ। इस पर सुग्रीव ने सातवें दिन सीतादेवी का वृत्तान्त लाने की प्रतिज्ञा की। तब राम ने भी मित्रता का हवाला देते हुए कहा-हे मित्र! मैंने भी यदि सात दिन में तुम्हारी स्त्री तारा को लाकर नहीं दिया तो सातवें दिन संन्यास ले लूंगा। तदनन्तर राम ने कपटी सुग्रीव को मार कर तारा सहित सुग्रीव को पुनः अपने नगर में प्रतिष्ठित करवाकर मित्रता का निर्वाह किया।
सुग्रीव राजभोगों में आसक्त होकर राम के साथ किये गये संकल्प व उनके उपकार को भूल गया। तब राम ने लक्ष्मण को उसके संकल्प को याद दिलाने हेतु भेजा। यह सुनकर सुग्रीव लक्ष्मण से क्षमायाचना कर सीता की खोज करने निकल पड़ा। इस तरह राम ने सुग्रीव को भी मित्रता निभाना सिखाया। राम का अपने सहयोगि मित्रों पर अत्यन्त विश्वास था। वे उनसे परामर्श लेकर ही आगे बढ़ते थे। इन्होंने मित्र जाम्बवन्त से अपनी सेना के लोगों की बुद्धिमत्ता के विषय में जानकर ही अंगद को सन्धि का प्रस्ताव लेकर रावण के पास भेजा। लंका की ओर प्रस्थान करने पर मार्ग में राम ने सुग्रीव के परामर्श से ही नल व नील को सेतु व समुद्र से युद्ध करने का आदेश दिया।
राम ने प्रथम बार हनुमान से मिलने पर तथा दूसरी बार सीता का वृत्तान्त लाकर देने पर दोनों ही अवसरों पर हनुमान को अपने आधे आसन पर बिठाकर मित्रवत प्रेम किया। राजगद्दी पर बैठकर राम ने लक्ष्मण के लिए तीन खण्ड धरती, चन्द्रोदर के लिए पाताललंका, सुग्रीव के लिए किष्किन्धानगर, महेन्द्र के लिए माहेन्द्रपुरी, हनुमान के लिए आदित्यनगर और अन्य दूसरों के लिए अन्य राज्य प्रदान कर सबके प्रति अपनी अच्छी मित्रता का निर्वाह किया।
राम का गुणीजनों के प्रति अत्यन्त प्रेम था। राम ने जिन भक्त वज्रकर्ण राजा की उसके दृढ़ व्रत पालन में आये विघ्न से रक्षा की। रावण के पापाचरण से दुःखी होकर विभीषण राम की सेना में आकर मिल गया। तब राम ने उससे कहा, मैं तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होने दूंगा, तुम समस्त लंका का भोग करोगे। रावण की मृत्यु के पश्चात् राम ने अपने दिये गये वचनानुसार विभीषण से यह कहकर, तुम्हारे घर में राज्यश्री तुम्हारी अपनी हो, जब तक आकाश में देवता, धरती पर सुमेरुपर्वत, समुद्र में पानी और इस धरती पर मेरी कीर्ति कायम रहती है तब तक तुम राज करो,अपने हाथों से विभीषण के राजपट्ट बाँंध दिया। राम ब्राह्मण, बालक, गाय, पशुु, तपस्वी और स्त्री इन छः को मान क्रिया छोड़कर बचानेे के पक्षधर थे।
राम अपने शत्रु के प्रति भी द्वेषभाव से रहित थे। रावण की मृत्यु होने पर दुःखी विभीषण को राम ने धीरज बँधाते हुए कहा -रावण ने निरन्तर दान दिया है, याचकजनों की आशाा पूरी की है, निशाचर कुल का उद्धार किया है, सहस्रकिरण, नलकूबर और वरुण का प्रतिकार किया है, जिसकी संसार में प्रसिद्धि है, उसके लिए क्यों रोते हो? यह सुनकर विभीषण ने रावण की निन्दा की तो राम ने यह निन्दा का अवसर नहीं है, यह कहकर निन्दा करने से रोक दिया। उसके बाद राम ने रावण के परिजनों को लकड़िया निकालने का आदेश दिया और रावण की अर्थी उठवाकर सरोवर में स्नान कर रावण को पानी दिया।
राम दुःखियों के प्रति करुणावान थे। वनवासपर्यन्त कूबरनगर के राजा बालिखिल्य को मुक्त करवा कर कल्याणमाला को निर्भय किया। जिनदेव, जिनवाणी, गुरु व संन्यास के प्रति इनकी अत्यन्त श्र्रद्धा थी। वनवास हेतु प्रस्थान करने पर राम ने सर्वप्रथम सिद्धकूट जिनालय पहुँचकर जिनदेव की भावपूर्वक वन्दना की। अवसर मिलते ही वे जिनदेव की वन्दना करते देखे गये हैं। वनवासपर्यन्त राम ने वंशस्थल नगर में विराजमान कुलभूषण व देशभूषण मुनि की असुरों द्वारा किये गये उपसर्ग से रक्षा की। उनसे धर्म व अधर्म का फल जानकर उनके द्वारा दिये गये व्रतों को स्वीकार किया। दण्डकारण्य में गुप्त व सुगुप्त मुनि को आहारचर्या हेतु निकला देख राम ने विनयपूर्वक उनका पड़गाहन किया। पादप्रक्षालन व पूजा वन्दना कर उनको आहार दिया। उनके आहारदान के फलस्वरूप पुण्य से दुन्दुभि, गंधपवन, रत्नावली, साधुकार एवं कुसुमांजलि ये पाँच आश्चर्य प्रकट हुए। सीता को रावण से बचाने के प्रयास में निर्दलित हुए जटायु को राम ने पंच णमोकार मंत्र का उच्चारण कर आठ मूलगुण दिये और सम्बोधन दिया। राम के द्वारा युद्ध में पराजित होने के बाद अनन्तवीर्य को तपश्चरण ग्रहण करने हेतु उद्यत देख राम के मन में उनके प्रति पूज्य भाव उत्पन्न हुआ। मन्दोदरी द्वारा परिग्रह का त्याग कर ‘पाणिपात्र’ आहार ग्रहण किया जाने की बात सुनकर राम रोमांचित हो उठे और उनकी प्रशंसा की।
रावण से सीता को प्राप्त कर भरत के दीक्षा ग्रहण करने के बाद् राज पद पर आसीन होते ही राम ने आदर्श राजा के अनुरूप प्रमुख-प्रमुख लोगों को अपने-अपने राज्य का राजा बनाकर उनको राजा के कर्त्तव्यों से अवगत करवाया। उन्होंने कहा कि जो भी राजा हुआ है या होगा उससे मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि उसको दुनियाँ में किसी के प्रति कठोर नहीं होना चाहिए। न्याय से दसवाँ अंष लेकर प्रजा का पालन करना चाहिए। देवताओं, श्रमणों व ब्राह्मणों को कभी पीड़ा नहीं पहुँचायी जानी चाहिए। वही राजा अविचल रूप से राज्य करता है जो धरती का भली प्रकार पालन करता है तथा प्रजा से प्रेम करता है। इसके विपरीत जो राजा देवभाग का अपहरण करता है, दोहली भूमिदान का अन्त करता है वह विनाश को प्राप्त होता है।
राजपद पर आसीन होने के कुछ समय बाद ही प्रजा ने राजा राम को सीता का आश्रय लेकर खोटी स्त्रियों का खुले आम दूसरे पुरुषों के साथ रमण करना बताया। प्रजा ने यह भी कहा कि आप स्वयं भी रावण के साथ रही सीता के अपराध पर विचार करें। यह सुनकर राम भयभीत हुए और विचार करने लगे-‘‘जनता यदि किसी कारण निरंकुश हो उठे तो वह हाथियों के समूह की तरह आचरण करती है। जो उसे भोजन और जल देता है वह उसी को जान से मार डालती है’’। इस तरह भय से ग्रस्त होने पर उन्हें लगा कि सीता चली जाय परन्तु प्रजा का विरोध करना ठीक नहीं। मेरा मन कहता है कि वह महासती है फिर भी रावण के घर में सीता के रहने के प्रवाद को कौन मिटा सकता है।
प्रजा की इस बात का लक्ष्मण ने भी कड़ा विरोध किया और सीता के प्रति द्वेष भाव रखनेवाले को मारने हेतु उद्यत हुए। तभी राम ने लक्ष्मण को पकड़ लिया और कहा, ‘राजा लोग प्रजा को न्याय से अंगीकार करते हैं। वह भला बुरा कहे तब भी वे उसका पालन करते हैं। अतः रघुकुल में कलंक मत लगने दो। त्रिभुवन में कहीं अपयश का डंका न पिट जाये अतः सीता को कहीं भी वन में छोड़ आओ। इस तरह झूठे अपयश से आक्रान्त होकर राम ने अपनी प्रिय पत्नी तक को निर्वासन दे दिया।
राम के प्रमुखजनों के अनुरोध पर सीता अयोध्या आयीं और जिस वन से उनको निर्वासन दिया गया था उस ही वन में जाकर ठहरीं। प्रातःकाल होने पर सीता उच्च आसन पर आसीन हो र्गइं। तब वहाँ आये राम ने अपने पुरुषत्व के गरुर के कारण अपनी पत्नी की कान्ति को सहन नहीं कर सके और पुरुषत्व के गरुर से भरकर उसका उपहास करते हुए कहा, स्त्री चाहे कितनी ही कुलीन और प्रशंसनीय हो वह बहुत निर्लज्ज होती है। अपने कुल में दाग लगाने से भी वह नहीं झिझकती। वह इससे भी नहीं डरती कि त्रिभुवन में उनके अपयश का डंका बज सकता है। धिक्कारने वाले पति को वह कैसे अपना मुख दिखाती है? यह सुनकर सीता ने राम की तीव्र भर्त्सना कर अपने सतीत्व की परीक्षा देने की घोषणा कर दी। तब पुरुषत्व के अहंकार से भरे राम ने भी सीता की अग्नि परीक्षा का समर्थन कर दिया।
अग्नि परीक्षा हेतु लकड़ियों पर बैठकर सीता ने अग्नि का आह्वान किया। तब सीता के सतीत्व के प्रभाव से अग्नि भी ठंडी होकर विशाल कमल व सुन्दर सिंहासन सहित सरोवर में बदल गई। उसी समय समस्त जन समूह सिंहासन पर आसीन सीता के पास पहुँचा। तब राम ने भी उन सबके समक्ष सीता से क्षमायाचना की। उन्होंने कहा- अकारण दुष्ट चुगलखोरों के कहने में आकर मैंने जो तुम्हारी अवमानना की और जिसके कारण तुम्हें इतना दुःख सहना पड़ा, हे परमेश्वरी, तुम इसके लिए मुझे एक बार क्षमा कर दो और मेरे साथ चलकर राज्य करो। किन्तु विषय सुखों से उब चुकी सीता ने जब अपने सिर के केश उखाड़कर राम के सम्मुख डाल दिये। यह देख राम मूर्छित होकर धरती पर गिर पडे।
मूर्छा चले जाने पर राम ने किसी से सीता का किसी मुनिराज के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करने के विषय में सुना तो गुस्से से भरकर वे मुनिराज के पास पहुँचे, किन्तु केवलज्ञान से युक्त मुनिराज को देखकर उनका गुस्सा दूर हो गया। मुनिराज के चरणों में प्रणाम कर उनके द्वारा कथित धर्म को सुना।
इस प्रकार कवि स्वयंभू द्वारा रचित पउमचरिउ में रामकथा यही तक लिखी गयी है। आगे का रामकाव्य उनके पुत्र त्रिभुवन द्वारा लिखा गया है।
यहाँ हम युग पुरुष राम के चरित्र के माध्यम से विचार करते हैं तो देखते हैं कि गुणों के पुंज राम कुछ मानवीय कमजोरियों के कारण कितने दुःखी दिखायी दिये हैं। सर्वप्रथम पिता दशरथ की गलत बात का सम्मान कर उन्होंने ना अपनी माँ कौशल्या के विषय में सोचा और ना ही अपनी पत्नी के विषय में सोचा की एक महिला का वनवास में रहना कितना कठिन है। पुनः प्रजा की गलत बात का सम्मान कर सीता को निर्वासन दे दिया। उससे भी आगे पुनः अपने पुरुषत्व के अहंकार से सीता को अग्निपरीक्षा हेतु विवश किया। अंत में भले ही उन्होंने अपनी गलतियों के प्रति क्षमा याचना की हो किन्तु इससे सीता को कितना दुःख उठाना पडा। स्वयंभू की सीता के प्रति यह संवेदनशीलता ही थी कि उन्होंने सीता के सम्मान में काव्य को यही विराम देना उचित समझा।
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