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?केशलोंच पर अनुभव पूर्ण प्रकाश - अमृत माँ जिनवाणी से - २६२


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,

            आज के प्रसंग में केशलोंच के संबंध में पूज्यश्री द्वारा की गई विवेचना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।

           सामान्यतः हम लोगों को मुनिराज के केशलोंच की क्रिया देखकर ही कष्ट होने लगता है और जिज्ञासा होती है कि मुनिराज इन कष्टकारक क्रियाओं को प्रसन्नता के साथ कैसे संपादित कर लेते हैं? इस प्रसंग को जैनों को जानना ही चाहिए जैनेतर जनों तक भी यह बातें पहुँचाना चाहिए।

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २६२   ?


     "केशलोंच पर अनुभव पूर्ण प्रकाश"


                एक बार मैंने आचार्य महराज से पूंछा था- "महराज ! आप लोग केशों को उखाड़ते जाते हैं, मुख की मुद्रा में विकृति नहीं आती, मुख पर शांति का भाव पूर्णतया विराजमान रहता है, क्या आपको कष्ट नहीं होता ?"

              महराज ने कहा था- "हमें केश-लोंच करने में कष्ट मालूम नहीं पड़ता। जब शरीर में मोह नहीं रहता है, तब शरीर-पीढ़ा होने पर भावों में संक्लेश नहीं होता है।"

             एक बात और है, निरंतर वैराग्य भावना के कारण शरीर के प्रति मोह भाव दूर हो जाता है, अतः आत्मा से शरीर को भिन्न देखने वाले इन तपस्वीयों को केशलोंच आत्मविकास का कारण होता है।

         अन्य सम्प्रदाय वालों के अतःकरण पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है, जिनधर्म की प्रभावना होती है। अहिंसा और अपरिग्रह भाव के रक्षणार्थ यह कार्य किया जाता है।

                यथार्थ में सुख-दुख संवेदन मनोवृत्ति पर अधिक आश्रित रहता है। जब मन उच्च आदर्श की ओर लगा रहता है तब जघन्य संकटों का भान भी नहीं होता है। 

              इसे देखकर यह भी समझ में आता है कि मुनिराज जिस प्रकार शरीर से दिगम्बर होते हैं उसी उनका मन भी वासनाओं के अम्बर से उन्मुक्त होता है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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