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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. एक तुम्हीं आधार हो जग में एक तुम्हीं आधार हो जग में, अय मेरे भगवान कि तुमसा और नहीं बलवान सँभल न पाया गोते खाया, तुम बिन हो हैरान कि तुमसा और नहीं बलवान ॥टेक॥ आया समय बड़ा सुखकारी, आतम-बोध कला विस्तारी मैं चेतन, तन वस्तुमन्यारी, स्वयं चराचर झलकी सारी निज अन्तर में ज्योति ज्ञान की अक्षयनिधि महान, कि तुमसा और नहीं बलवान ।१। दुनिया में इक शरण जिनंदा, पाप-पुण्य का बुरा ये फंदा मैं शिवभूप रूप सुखकंदा, ज्ञाता-दृष्टा तुम-सा बंदा मुझ कारज के कारण तुम हो, और नहीं मतिमान कि तुमसा और नहीं बलवान ।२। सहज स्वभाव भाव दरशाऊँ , पर परिणति से चित्त हटाऊँ पुनि-पुनि जग में जन्म नपाऊँ,सिद्धसमान स्वयं बनजाऊँ चिदानन्द चैतन्य प्रभु का है सौभाग्य प्रधान कि तुमसा और नहीं बलवान ।३।
  2. श्लोक द्वादाशंक वाणी नमो, षट कायक सुखकार । जा प्रसाद शिव मग दीपे, पंचम काल मजार ।। म्हारी माँ जिनवाणी थारी तो जय जयकार २ चरणा मा राखी लीजो, भव सागर तारी दीज्यो । कर दीज्यो इतणों उपकार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० कुंद कुंद सा थार बेटा, दुखड़ा सब जग का मेटा । राच्यो समय को सार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० शरणा जो तेरी आये, भवसागर से तिर जाये । तू ही हैं तारन हार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० गणधर किन्नर गुण गाते, मुनिवर भी ध्यान लगाते । गाते सब तेरा गुणगान, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ० जिसने भी तुझको ध्याया, आतम का सुख हैं पाया । आतम की महिमा अपार, थारी तो जय जयकार ।। हो म्हारी माँ ०
  3. दरबार तुम्हारा मनहर है दरबार तुम्हारा मनहर है, प्रभु दर्शन कर हर्षाये हैं दरबार तुम्हारे आये हैं, दरबार तुम्हारे आये हैं ।।टेक।। भक्ति करेंगे चित से तुम्हारी, तृप्त भी होगी चाह हमारी भाव रहें नित उत्तम ऐसे, घट के पट में लाये हैं ।१। जिसने चिंतन किया तुम्हारा, मिला उसे संतोष सहारा शरणे जो भी आये हैं, निजआतम को लख पाये हैं ।२। विनय यही है प्रभू हमारी, आतम की महके फुलवारी अनुगामी हो तुमपद पावन,`वृद्धि' चरण सिर नाये हैं ।३।
  4. चेतन तूँ तिहुँ काल अकेला, नदी नाव संजोग मिले ज्यों, त्यों कुटुम्ब का मेला ॥ यह संसार असार रूप सब, ज्यों पटपेखन खेला, सुख सम्पत्ति शरीर जल बुद बुद, विनशत नाहीं बेला ॥ मोही मगन आतम गुन भूलत, पूरी तोही गल जेला, मै मै करत चहुंगति डोलत, बोलत जैसे छैला ॥ कहत बनारसि मिथ्यामत तज, होय सुगुरु का चेला, तास वचन परतीत आन जिय,होई सहज सुर झेला ॥
  5. जिसने रागद्वेष कामादिक जीते सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्षमार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया॥ बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो॥ 1॥ विषयों की आशा नहिं, जिनके साम्य भाव धन रखते हैं। निज पर के हित साधन में जो, निशदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुख समूह को हरते हैं॥ 2॥ रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे। उन ही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे॥ नहीं सताऊँ किसी जीव को, झूठ कभी नहीं कहा करूँ । परधन वनिता पर न लुभाऊँ , संतोषामृत पिया करूँ॥ 3॥ अहंकार का भाव न रक्खूँ, नहीं किसी पर क्रोध करूँ । देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईष्र्या-भाव धरूँ॥ रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूँ। बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ ॥ 4॥ मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे। दीन-दुखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे॥ दुर्जन क्रूर - कुमार्गरतों पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रक्खूँ मैं उन पर, ऐसी परिणति हो जावे॥ 5॥ गुणीजनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे। बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे॥ होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे। गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे॥ 6॥ कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे। लाखों वर्षों तक जीऊँ या, मृत्यु आज ही आ जावे॥ अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे। तो भी न्याय-मार्ग से मेरा, कभी न पग डिगने पावे॥ 7॥ होकर सुख में मग्न न फूलै दुख में कभी न घबरावे। पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवी से नहिं भय खावे॥ रहे अडोल अकम्प निरन्तर, यह मन दृढ़तर बन जावे। इष्टवियोग अनिष्टयोग में, सहनशीलता दिखलावे॥ 8॥ सुखी रहें सब जीव जगत के, कोई कभी न घबरावे। बैर-पाप अभिमान छोड़ जग, नित्य नये मंगल गावे॥ घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत-दुष्कर हो जावे। ज्ञानचरित उन्नत कर अपना, मनुजजन्म फल सब पावे॥ 9॥ ईति-भीति व्यापे नहिं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करे, धर्म-निष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करे। रोग-मरी-दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करे। परम अहिंसा धर्म जगत में, फैल सर्वहित किया करे॥10॥ फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे। अप्रिय-कटुक-कठोर शब्द नहिं, कोई मुख से कहा करे॥ बनकर सब युगवीर हृदय से, देशोन्नति रत रहा करे। वस्तु स्वरूप विचार खुशी से,सब दुख संकट सहा करे॥11॥
  6. वन्दों अद्भुत चन्द्रवीर जिन तर्ज: देखो जी आदीश्‍वर... वन्दों अद्भुत चन्द्रवीर जिन, भविचकोर चित हारी चिदानन्द अंबुधि अब उछर्यो भव तप नाशन हारी ॥टेक॥ सिद्धारथ नृप कुल नभ मण्डल, खण्डन भ्रम-तम भारी परमानन्द जलधि विस्तारन, पाप ताप छय कारी ।१। उदित निरन्तर त्रिभुवन अन्तर, कीरत किरन पसारी दोष मलंक कलंक अखकि, मोह राहु निरवारी ।२। कर्मावरण पयोध अरोधित, बोधित शिव मगचारी गणधरादि मुनि उड्गन सेवत,नित पूनम तिथि धारी ।३। अखिल अलोकाकाश उलंघन, जासु ज्ञान उजयारी । `दौलत' तनसा कुमुदिनिमोदन, ज्यों चरम जगतारी ।४।
  7. माँ जिनवाणी ममता न्यारी, प्यारी प्यारी गोद हैं थारी। आँचल में मुझको तू रख ले, तू तीर्थंकर राज दुलारी ॥ वीर प्रभो पर्वत निर्झरनी, गौतम के मुख कंठ झरी हो । अनेकांत और स्यादवाद की, अमृत मय माता तुम्ही हो । भव्य जानो की कर्ण पिपिसा, तुमसे शमन हुई जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० सप्त्भंगमय लहरों से माँ, तू ही सप्त तत्व प्रगटाये । द्रव्य गुणों अरु पर्यायों का, ज्ञान आत्मा में करवाये । हेय ज्ञेय अरु उपादेय का, बहन हुआ तुमसे जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० तुमको जानू तुमको समझू, तुमसे आतम बोध में पाऊ । तेरे आँचल में छिप छिप कर, दुग्धपान अनुयोग का पाऊ । माँ बालक की रक्षा करना, मिथ्यातम को हर जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० धीर बनू में वीर बनू माँ, कर्मबली को दल दल जाऊ । ध्यान करू स्वाध्याय करू बस, तेरे गुण को निशदिन गाऊ । अष्ट करम की हान करे यह, अष्टम क्षिति को दे जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ० ऋषि यति मुनि सब ध्यान धरे माँ, शरण प्राप्त कर कर्म हरे । सदा मात की गोद रहू में, ऐसा सिर आशीष फले । नमन करे स्यादवाद मति नित, आत्म सुधारस दे जिनवाणी ॥ आँचल में मुझको तू रख ले ० माँ जिनवाणी ०
  8. ममता की पतवार ना तोडी आखिर को दम तोड दिया । इक अनजाने राही ने शिवपुर का मारग छोड दिया ॥टेक॥. नर्क में जिसने भावना भायी मानुष तन को पाने की, भेष दिगम्बर धारण करके मुक्ति पद को पाने की, लेकिन देखो आज ये हालत ममता के दीवाने की, चेतन होकर जड द्रव्यों से कैसे नाता जोड लिया॥ इक.. ममता के बन्धन मे बंध कर क्या युग युग तक सोना है, मोह अरी का सचमुच इस पर हो गया जादू टोना है, चेतन क्या नरतन को पाकर अब भी यों ही खोना है, मन का रथ क्यों शिवमारग से कुमारग पर मोड दिया ॥इक. मत खोना दुनिया में आकर ये बस्ती अनजानी है, जायेगा हर जाने वाला जग की रीति पुरानी है, जीवन बन जाता यहां पंकज सबकी एक कहानी है, चेतन निज स्वरुप देखा तो दुख का दामन तोड दिया ॥इक
  9. पंच परम परमेष्ठी देखे पंच परम परमेष्ठी देखे, हृदय हर्षित होता है, आनन्द उल्लसित होता है, होsss सम्यग्दर्शन होता है ॥ दर्श-ज्ञान-सुख-वीर्य स्वरूपी, गुण अनन्त के धारी हैं जग को मुक्तिमार्ग बताते , निज चैतन्य विहारी हैं मोक्षमार्ग के नेता देखे, विश्व तत्त्व के ज्ञाता देखे ॥हृदय।१। द्रव्य-भाव-नोकर्म रहित, जो, सिद्धालय के वासी हैं आतम को प्रतिबिम्बित करते, अजर अमर अविनाशी है शाश्वत सुख के भोगी देखे, योगरहित निजयोगी देखे ॥हृदय।२ साधु संघ के अनुशासक जो, धर्मतीर्थ के नायक हैं निज-पर के हितकारी गुरुवर, देव-धर्म परिचायक हैं गुण छत्तीस सुपालक देखे, मुक्तिमार्ग संचालक देखे ॥हृदय।३ जिनवाणी को हृदयंगम कर, शुद्धातम रस पीते हैं द्वादशांग के धारक मुनिवर, ज्ञानानन्द में जीते हैं द्रव्य-भाव श्रुत धारी देखे, बीस-पाँच गुणधारी देखे ॥हृदय।४। निजस्वभाव साधनरत साधु, परम दिगम्बर वनवासी सहज शुद्ध चैतन्यराजमय, निजपरिणति के अभिलाषी चलते-फिरते सिद्धप्रभु देखे, बीस-आठ गुणमय विभु देखे ॥हृदय हर्षित होता है .. ।५।
  10. सुरपति ले अपने शीश, जगत के ईश गये गिरिराजा, जा पाण्डुकशिला विराजा ॥ सुरपति...॥ शिल्पी कुबेर वहाँ आकर के, क्षीरोदधि मेरु लगा करके, रुचि पैढि ले आये, सागर का जल ताजा, फ़िर न्हवन कियो जिनराजा ॥ सुरपति...॥ नीलम पन्ना वैडुर्यमणि, कलशा लेकर के देवगणि, एक सहस आठ कलशा लेकर नभराजा, फ़िर न्हवन कियो जिनराजा ॥ सुरपति...॥ वसु योजन गहराई वाले, चउ योजन चौडाई वाले, इक योजन मुख के कलश ढरे जिनमाथा, नहिं जरा डिगे शिशुनाथा ॥ सुरपति...॥ सौधर्म इन्द्र अरु ईशान, प्रभु कलश करें धर युग पाना, अरु सनत्कुमार महेन्द्र दोउ जिनराजा, शिर चमर ढुरावें साजा ॥ सुरपति...॥ ऐरावत पुनि प्रभु लाकर के, माता की गोद बिठा करके, अति अचरज ताण्डव नृत्य कियो दिविराजा, स्तुति करके जिनराजा ॥ सुरपति...॥
  11. तेरे पांच हुये कल्याण प्रभु इक बार मेरा कल्याण कर दे। अंतर्यामी अंतर्ज्ञानी प्रभु दूर मेरा अज्ञान कर दे॥ गर्भ समय में रत्न जो बरसे, उनमें से एक रतन नहीं चाहूं, जन्म समय क्षीरोदधि से इन्द्रों ने किया वो न्हवन नहीं चाहूं मैं क्या चाहूं सुनले २ जो चित्त को निर्मल शांत करे वहीं गंधोदक मुझे दान कर दे धार दिगम्बर वेश किया तप तप कर विषय विकार को त्यागा सार नहीं संसार में कोई इसीलिये संसार को त्यागा ॥ मैं क्या चाहूं सुनले २ अपने लिये बरसों ध्यान किया मेरी ओर भी थोडा ध्यान कर दे केवलज्ञान की मिल गई ज्योति लोकालोक दिखाने वाली, समवशरण में खिर गई वाणी सबकी समझ में आने वाली ॥ मैं क्या चाहूं सुनले २ हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभु मेझे तेरा दर्श आसान कर दे ॥ तीर्थंकर बनकर तू प्रगटा स्वाभाविक थी मुक्ति तेरी, मुक्ति मुझको दे तब देना भव भव की भक्ति तेरी ॥ मैं क्या चाहूं सुनले २ निशदिन तेरे गुणगान करूं बस इतना ही भगवान कर दे ॥ यहां कौन है ऐसा तेरे सिवा औरों को जो अपने समान कर दे॥
  12. जिनवर जिनवाणी नो भण्डार, वंदन करिए बारम्बार ।। श्री अरिहंत वाणी नो सार, गौतम स्वामी गुंथे छे माल । कुंद कुंद स्वामी रचनार, वंदन करिए०० चौदह पूरब नो छे सार, ॐ कार धुनी नो छे भण्डार । जिनवाणी जिन तारण हार, वंदन करिए०० गुंथा पाहुऊ समय सार, मूलाचार छे मुनियों नो सार । रत्न करंड रत्नों नो भण्डार, वंदन करिए ०० मिथ्यात्म अने राग ने द्वेष, कषाय ने तू करिए न लेश । विषय विष नो छे भण्डार, वंदन करिए०० वीर वाणी नो एकज सार, स्व नि स्व पर ने पर जान । आतम अनन्त ज्ञान भण्डार, वंदन करिए०० लाखों जीवों नी तारण हार, मयंक विनये बारम्बार । अनेकांत स्यादवाद प्रकाश, वंदन करिए००
  13. श्री जिनवर पद ध्यावें जे नर श्री जिनवर पद ध्यावें जे नर, श्री जिनवर पद ध्यावें हैं ॥ तिनकी कर्म कालिमा विनशे, परम ब्रह्म हो जावें हैं उपल-अग्नि संयोग पाय जिमि, कंचन विमल कहावें हैं ।१। चन्द्रोज्ज्वल जस तिनको जग में, पण्डित जन नित गावें हैं जैसे कमल सुगन्ध दशों दिश, पवन सहज फैलावें हैं ।२। तिनहि मिलन को मुक्ति सुन्दरी, चित अभिलाषा लावें हैं कृषिमें तृण जिमि सहज उपजियो, स्वर्गादिकसुख पावेंहैं ।३। जनम-जरा-मृत दावानल ये, भाव सलिल तैं बुझावें हैं । भागचंद कहाँ तांई वरने, तिनहि इन्द्र शिर नावें हैं ।४।
  14. महावीरा झूले पलना, जरा हौले झोटा दीजो॥ कौन के घर तेरो जनम भयो है, कौन ने जायो ललना ॥जरा सिद्धारथ घर जन्म लियो है, त्रिशला ने जायो ललना ॥ जरा.. काहे को तेरो बन्यों पालनो, काहे के लागे फ़ुंदना ॥ जरा.. अगर चंदन को बण्यों पालनो, रेशम के लागे फ़ुंदना ॥ जरा.. पैरों में घुंघरू हाथ में झुंझना, आंगन में चाले ललना ॥जरा... अंदर से बाहर ले जावे, बाहर से अंदर ले जावे, नजर ना लागे ललना ॥ जरा...
  15. जय जिनवाणी माता, रख लाज हमारी, जय जिनवाणी २ आज सभा में मैया तोहे पुकारू २ आज सभा में तोहे पुकारू, जग की भाग्य विधाता ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। आन के मेरे कंठ विराजो मैया २ आन के मेरे कंठ विराजो, स्वर सरगम की गाथा ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। शाष्त्र ग्रंथो का बोध नहीं हैं मैया २ शाष्त्र ग्रंथो का बोध नहीं हैं, हमको कुछ नहीं आता ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। योगेन्द्र सागर तुम्हे पुकारे मैया २ योगेन्द्र सागर तुम्हे पुकारे, तुमको शीश नवाता ।। रख लाज हमारी, जय जिनवाणी ०० ।। जय जिनवाणी माता, रख लाज हमारी । जय जिनवाणी माता ।।
  16. रोम रो्म पुलकित हो जाय रोम रो्म पुलकित हो जाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ज्ञानानन्द कलियाँ खिल जायँ,जब जिनवर के दर्शन पाय ॥ जिन-मन्दिर में श्री जिनराज, तन-मन्दिर में चेतनराज तन-चेतन को भिन्न पिछान, जीवन सफल हुआ है आज ॥ वीतराग सर्वज्ञ-देव प्रभु, आये हम तेरे दरबार तेरे दर्शन से निज दर्शन, पाकर होवें भव से पार मोह-महातम तुरत विलाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।१। दर्शन-ज्ञान अनन्त प्रभु का, बल अनन्त आनन्द अपार गुण अनन्त से शोभित हैं प्रभु,महिमा जग में अपरम्पार ॥ शुद्धातम की महिमा आय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।२। लोकालोक झलकते जिसमें, ऐसा प्रभु का केवलज्ञान लीन रहें निज शुद्धातम में, प्रतिक्षण हो आनन्द महान ॥ ज्ञायक पर दृष्टि जम जाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।३। प्रभु की अन्तर्मुख-मुद्रा लखि, परिणति में प्रकटे समभाव क्षण-भर में हों प्राप्त विलय को,पर-आश्रित सम्पूर्ण विभाव॥ रत्नत्रय-निधियाँ प्रकटाय, जब जिनवर के दर्शन पाय ।४।
  17. श्री अरहंत छबि लखि हिरदै तर्ज: देखो जी आदीश्‍वर... श्री अरहंत छबि लखि हिरदै, आनन्द अनुपम छाया है ॥टेक॥ वीतराग मुद्रा हितकारी, आसन पद्म लगाया है दृष्टि नासिका अग्रधार मनु, ध्यान महान बढ़ाया है ।१। रूप सुधाकर अंजलि भरभर, पीवत अति सुख पाया है तारन-तरन जगत हितकारी,विरद सचीपति गाया है ।२। तुम मुख-चन्द्र नयन के मारग, हिरदै माहिं समाया है भ्रमतम दु:ख आताप नस्यो सब, सुखसागर बढ़ि आया है ।३ प्रकटी उर सन्तोष चन्द्रिका, निज स्वरूप दर्शाया है धन्य-धन्य तुम छवि `जिनेश्वर', देखत ही सुख पाया है ।४।
  18. गावो री बधाईयां, बजाओ मिल सुख शहनाइयां, जन्में हैं श्री जिनराइयां॥ धन्य मरुदेवी ने जायो है ललना, विश्व झुलाये जिसे आज नैन पलना, जग हर पाइयां कि सूरज चांद जलाइयां ॥ जन्में हैं...॥ छप्पन कुमारियों ने की मात सेवा, रची थी अयोध्या नगरी स्वर्ग सम देवा, धनद उमगाइयां, रत्न है अपार बरसाइयां ॥ जन्में हैं...॥ आज अयोध्या साये, बना शुभ नगर है, चहका है चप्पा चप्पा, छटा मनहर है, तोरणहार सजाइयां, बंदनवार बधाइयां ॥ जन्में हैं...॥ धन्य है वो नर जिन जन्मोत्सव मनाते, पुण्य उदय से ऐसा अवसर पाते, प्रभु गुण गाइयां, शील निजभाग वराइयां ॥ जन्में हैं...॥
  19. भावना दिन रात मेरी, सब सुखी संसार हो । सत्य संयम शील का, व्यवहार हर घर बार हो।। धर्म का परचार हो, अरु देश का उद्धार हो । और ये उजड़ा हुआ, भारत चमन गुलजार हो ।। ज्ञान के अभ्यास से, जीवों का पूर्ण विकास हो । धर्मं के परचार से, हिंसा का जग से ह्रास हो ।। शांति अरु आनंद का, हर एक घर में वास हो । वीर वाणी पर सभी, संसार का विश्वास हो ।। रॊग अरु भय शोक होवें, दूर सब परमात्मा । कर सके कल्याण ज्योति, सब जगत की आत्मा ।।
  20. करलो जिनवर का गुणगान करलो जिनवर का गुणगान, आई मंगल घड़ी आई मंगल घड़ी, देखो मंगल घड़ी करलो ।१। वीतराग का दर्शन पूजन भव-भव को सुखकारी जिन प्रतिमा की प्यारी छविलख मैं जाऊँ बलिहारी ।२। तीर्थंकर सर्वज्ञ हितंकर महा मोक्ष के दाता जो भी शरण आपकी आता, तुम सम ही बन जाता ।३। प्रभु दर्शन से आर्त रौद्र परिणाम नाश हो जाते धर्म ध्यान में मन लगता है, शुक्ल ध्यान भी पाते ।४। सम्यक्दर्शन हो जाता है मिथ्यातम मिट जाता रत्नत्रय की दिव्य शक्ति से कर्म नाश हो जाता ।५। निज स्वरूप का दर्शन होता, निज की महिमा आती निज स्वभाव साधन के द्वारा स्वगति तुरत मिल जाती |६।
  21. कल्पद्रुम यह समवसरण है, भव्य जीव का शरणागार, जिनमुख घन से सदा बरसती, चिदानंद मय अमृत धार ॥ जहां धर्म वर्षा होती वह, समसरण अनुपन छविमान, कल्पवृक्ष सम भव्यजनों को, देता गुण अनंत की खान। सुरपति की आज्ञा से धनपति, रचना करते हैं सुखकार, निज की कृति ही भासित होती, अति आश्चर्यमयी मनहार ॥ निजज्ञायक स्वभाव में जमकर,प्रभु ने जब ध्याया शुक्लध्यान मोहभाव क्षयकर प्रगटाया, यथाख्यात चारित्र महान, तब अंतर्मुहूर्त में प्रगटा, केवलज्ञान महासुखकार,, दर्पण में प्रतिबिम्ब तुल्य जो, लोकालोक प्रकाशन हार ॥ गुण अनंतमय कला प्रकाशित, चेतन चंद्र अपूर्व महान, राग आग की दाह रहित, शीतल झरना झरता अभिराग, जिन वैभव में तन्मय होकर, भोगें प्रभु आनंद अपार, ज्ञेय झलते सभी ज्ञान में, किन्तु न ज्ञेयों का आधार ॥ दर्शन ज्ञान वीर्य सुख से है, सदा सुशोभित चेतन राज, चौंतिस अतिशय आठ प्रातिहार्यों से शोभित है जिनराज, अंतर्बाह्य प्रभुत्व निरखकर, लहें अनंत आनंद अपार, प्रभु के चरण कमल में वंदन, कर पाते सुख शांति अपार ॥
  22. अशरीरी-सिद्ध भगवान अशरीरी-सिद्ध भगवान, आदर्श तुम्हीं मेरे अविरुद्ध शुद्ध चिद्‍घन, उत्कर्ष तुम्हीं मेरे ॥टेक॥ सम्यक्त्व सुदर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहन सूक्ष्मत्व वीर्य गुणखान, निर्बाधित सुखवेदन हे गुण-अनन्त के धाम, वन्दन अगणित मेरे ।१। रागादि रहित निर्मल, जन्मादि रहित अविकल कुल गोत्र रहित निष्कुल, मायादि रहित निश्छल रहते निज में निश्चल, निष्कर्म साध्य मेरे ।२। रागादि रहित उपयोग, ज्ञायक प्रतिभासी हो स्वाश्रित शाश्वत-सुख भोग, शुद्धात्म-विलासी हो हे स्वयं सिद्ध भगवान, तुम साध्य बनो मेरे ।३। भविजन तुम-सम निज-रूप, ध्याकर तुम-सम होते चैतन्य पिण्ड शिव-भूप, होकर सब दुख खोते ॥ चैतन्यराज सुखखान, दुख दूर करो मेरे ।४।
  23. कविश्री भूधरदास ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज | आप तिरें पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषिराज | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||१|| मोह-महारिपु जानिके, छांड्यो सब घर-बार | होय दिगम्बर वन बसे, आतम-शुद्ध विचार | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||२|| रोग-उरग-बिल वपु गिण्यो, भोग-भुजंग समान | कदली-तरु संसार है, त्यागो सब यह जान | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||३|| रत्नत्रय-निधि उर धरें, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल | मार्यो काम-खबीस को, स्वामी परम-दयाल | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||४|| पंच-महाव्रत आचरें, पाँचों-समिति समेत | तीन-गुप्ति पालें सदा, अजर-अमर पद हेत | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||५|| धर्म धरें दशलक्षणी, भावें भावना सार | सहें परीषह बीस-द्वे, चारित-रतन भंडार | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||६|| जेठ तपे रवि आकरो, सूखे सरवर-नीर | शैल-शिखर मुनि तप तपें, दाझे नगन-शरीर | पावस रैन डरावनी, बरसे जलधर-धार | तरुतल-निवसें साहसी, चाले झंझावार | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||७|| शीत पड़े कपि-मद गले, दाहे सब वनराय | ताल तंरगनि के तटे, ठाड़े ध्यान लगाय | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||८|| इह-विधि दुद्धर-तप तपें, तीनों-काल-मँझार | लागे सहज-सरूप में, तनसों ममत-निवार | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||९|| पूरव-भोग न चिन्तवे, आगम-वाँछा नाहिं | चहुँगति के दु:ख-सों डरें, सुरति लगी शिवमाँहिं | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||१०|| न रंगमहल में पोढ़ते, न कोमल-सेज बिछाय | ते पश्चिम-निशि भूमि में, सोवें संवरि काय | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||११|| गज चढ़ि चलते गरव सों, सेना-सजि चतुरंग | निरखि-निरखि पग ते धरें, पालें करुणा-अंग | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||१२|| वे गुरु चरण जहाँ धरें, जग में तीरथ जेह | सो रज मम मस्तक चढ़ो, ‘भूधर’ माँगे एह | ते गुरु मेरे मन बसो, जे भवजलधि जहाज ||१३||
  24. रोम रोम में नेमिकुंवर के, उपशम रस की धारा, राग द्वेष के बंधन तोडे, वेष दिगम्बर धारा ॥ ब्याह करन को आये, संग बराती लाये, पशुओं को बंधन में देखा, दया सिंधु लहराये, धिक धिक जग की स्वारथ वृत्ति, कहीं न सुक्ख लघारा ॥ राजुल अति अकुलाये, नौ भव की याद दिलाये, नेमि कहे जग में न किसी का, कोई कभी हो पाये। रागरूप अंगारों द्वारा, जलता है जग सारा ॥ नौ भव का सुमिरण कर नेमि, आतम तत्व विचारे, शाश्वत ध्रुव चैतन्य राज की, महिमा चित में धारे, लहराता वैराग्य सिंधु अब, भायें भावना बारा ॥ राजुल के प्रति राग तजा है, मुक्ति वधू को ब्याहें, नग्न दिगम्बर दीक्षा धर कर, आतम ध्यान लगायें, भव बंधन का नाश करेंगे, पावें सुख अपारा ॥
  25. शौरीपुर वाले शौरीपुर वाले शौरीपुर वाले शौरीपुर वाले, नेमिजी हमारे शौरीपुर वाले ॥ शिवादेवी घर जन्म लियो है, माता की कोख को धन्य कियो है अंतिम जन्म हुआ प्रभुजी का, जन्म मरण को नाश कियो है समुद्रविजय के आंखों के तारे... नेमिजी हमारे .. ।१। स्वर्ग पुरी से सुरपति आये, ऐरावत हाथी ले आये । पांडुक शिला पर प्रभु को बिठाये, क्षीरोदधि से न्हवन कराये॥ रतन बरसाये हां न्हवन कराये... नेमिजी हमारे .. ।२। देखो भैया इन्द्र भी आये, पंचकल्याणक का उत्सव कराये । प्रभु दर्शन कर अति हरषाये, मंगल तांडव नृत्य रचाये ॥ सभी हरषाये हां खुशियां मनाये...नेमिजी हमारे .. ।३। तन से भिन्न निजातम निरखे, निज अंतर का वैभव परखे । भेद ज्ञान की ज्योति जलावे, संयम की महिमा चित लावे ॥ गये गिरनारे गये गिरनारे... नेमिजी हमारे .. ।४।
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