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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. प्रतिक्रमण कर्म काल अनंत भ्रम्यो जग मैं सहियें दुःख भारी | जन्म मरण नित किये पाप को हैव अधिकारी || कोटि भवान्तर माहिं मिलन दुर्लभ सामायिक | धन्य आज मैं भयो योग मिल्यो सुखदायक ||१|| हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जू मैं अब | ते सब मन-वच-काय-योग की गुप्ति बिना लभ || आप समीप हुजुर माहिं मैं खड़ो खड़ो सब | दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दुःख देहि जब ||२|| क्रोध मान मद लोभ मोह मायावाशि प्रानी | दुःख सहित जे किये दया तिनकी नहीं आनी || बिना प्रयोजन एकेंद्रिय वि ति चउ पंचेन्द्रिय | आप प्रसादही मिटें दोष जो लग्यो मोहि जिय ||३|| आपस में इक ठौर थापकरि जे दुःख दीने | पेलि दिये पग तले दाबि करि प्रान हरीने || आप जगत के जीव जिते तिन सब के नायक | अरज करू मै सुनो दोष मेटों दुखदायक ||४|| अंजन आदिक चोर महा घनघोर पापमय | तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय || मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि | यह पदिकोनो कियो आदि षट्कर्म माहिं विधि ||५|| प्रत्याख्यान कर्म (इसके आदि एवं अंत मैं आलोचना पाठ बोलकर फिर तीसरे सामायिक कर्म का पाठ करना चाहिए ) जो प्रमादवाशि होय विराधे जीव घनेरे | तिनको जो अपराध भयो मेरे अध ढेरे || सो सब झूठो हाउ जगतपति के परसादै | जा प्रसादतै मिलै सर्व सुख दुःख न लाधै ||६|| मैं पापी निर्लज्ज दया करि हीन महाशठ | किये पाप अध ढेर पाप मति होय चित्त दुठ || निंदुं हूँ मैं बार बार निज जिय को गरहूँ | सब विधि धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूँ ||७|| दुर्लभ हैं नर जन्म तथा श्रावक कुल भारी | सत संगति संजोग धर्म जिन श्रद्धा धारी || जिन वचनामृत धार समावतै जिनवानी | तोहू जीव संधारे धिक धिक धिक हम जानी ||८|| इन्द्रिय लंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब | अज्ञानी जिमि करै तिसि विविध हिंसक व्है अब || गमना गमन करन्तो जीव विराधे भोले | ते सब दोष किये निंदु अब मन वाच तोले ||९|| आलोचन विधि थकी दोष लगे जू घनेरे | ते सब दोष विनाश होऊ तुम तैं जिन मेरे || बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता | ईर्षादिक तें भये निंदि ये जे भयभीता ||१०|| सामायिक भाव कर्म सब जीवन में मेरे समता भाव जग्यो हैं | सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो हैं || आर्त्त रौद्र द्वय ध्यान छॉ‍‌‌िड़ करिहूँ सामायिक | संजम मो कब शुद्ध होय भाव बधायक ||११|| पृथ्वी जल अरु अग्नि वायु चउ काय वनस्पति | पंचहि थावर माहिं तथा त्रस जीव बसे जित || बेइन्द्रिय तिय चउ पंचेन्द्रिय मांहि जीव सब | तिनतें क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करो अब ||१२|| इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु तृण | महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहिं समगण || जामन मरण समान जानि हम समता कीनी | सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी ||१३|| मेरो हैं इक आतम तामें ममत जु कीनो | और सबै सम भिन्न जानि ममता रस भीनो || मात पिता सुत बन्धु मित्र तिय आदि सबै यह | मोतैं न्यारे जानि जथारथ रूप करयो गह ||१४|| मैं अनादि जग जाल माहिं फंसि रूप न जाण्यो | एकेंद्रिय दे आदि जंतु को प्राण हराण्यो || ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह अरजी | भव-भव को अपराध छिमा किज्यो कर मरजी ||१५|| स्तवन कर्म नमो ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्म को | संभव भव दुःख हरण करण अभिनंद शर्म को || सुमति सुमति दातार तार भव सिन्धु पार कर | पद्म प्रभ पद्माभ भानि भवभीति प्रीतिधर ||१६|| श्री सुपार्श्व कृत पाश नाश भव जास शुद्ध कर | श्री चन्द्रप्रभ चन्द्र कांति सम देह कान्तिधर || पुष्पदन्त दमि दोष कोष भवि पोष रोषहर | शीतल शीतल करण हरण भवताप दोष कर ||१७|| श्रेय रूप जिन श्रेय ध्येय नित सेय भव्य जन | वासुपूज्य शत पूज्य वासवादिक भव भय हन || विमल विमलमति दें अंतगत हैं अनंत जिन | धर्म शर्म शिवकरण शांतिजिन शांति विधायिन ||१८|| कुन्थु कुन्थुमुख जीवपाल अरनाथ जाल हर | मल्लि मल्ल सम मोह मल्ल मारन प्रचार धर || मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुर संधहि नमिजिन | नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ माहिं ज्ञानधन ||१९|| पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपल सम मोक्ष रमापति | वर्द्धमान जिन नमूं नमूं भवदुःख कर्मकृत || या विधि मैं जिन संध रूप चौवीस संख्यधर | स्तवूं नमूं हूँ बार-बार बन्दुं शिव सुखकर ||२०|| वंदना कर्म बन्दुं मैं जिनवीर धीर महावीर सु सनमति | वर्द्धमान अतिवीर बंदि हूँ मन वच तन कृत || त्रिशाला तनुज महेश धीश विद्यापति बन्दुं | बंदों नित प्रति कनक रूप तनु पापनिकंदु ||२१|| सिद्धारथ नृपनन्द द्वंद्व, दुःख दोष मिटावन | दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन || कुण्डलपुर करि जन्म जगत जिय आनंद कारन | वर्ष बहत्तर आयु पाय सब ही दुःख टारन ||२२|| सप्त हस्त तनु तुंगभंगकृत जन्म मरण भय | बाल ब्रह्मा मय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय || दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीव घन | आप बसे शिवमाहिं ताहिं बन्दों मन वच तन ||२३|| जाके वंदनथ की दोषदुःख दूरहि जावै | जाके वंदनथ की मुक्ति सम्मुख आवै || जाके वंदनथ की वंध होवे सुरगन के | ऐसे वीर जिनेश बंदि हूँ क्रम युग तिनके ||२४|| सामायिक षट कर्म माहिं वंदन यह पंचम | वंदो वीर जिनेन्द्र इंद्र शत वंध वंध मम || जनम मरण भय हरो करो अब शांति शांतिमय | मैं अध कोष सुपोष दोष को दोष विनाशय ||२५|| कायोत्सर्ग कर्म कायोत्सर्ग विधान करूँ अंतिम सुखदाई | कायत्यजनमय होय काय सबको दुखदाई || पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तर में | जिनग्रह वंदन करूँ हरूं भवपाप तिमिर मैं ||२६|| शिरोनति मैं करूँ नमूं मस्तक कर धरिकै | आवर्तादिक क्रिया करूँ मन वच मद हरिकै || तीन लोक जिन भवनमाहिं जिन हैं जूअकत्रिम | कृतिम हैं द्वय अर्द्धद्वीप माहीं बन्दों जिम ||२७|| आठ कोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याणुं | च्यारी शतक पर असी एक जिनमंदिरजाणुं || व्यंतर ज्योतिष माहिं संख्य रहिते जिन मंदिर | ते सब वंदन करूं हरहु मम पाप संघकर ||२८|| सामायिक सम नाहिं और कोउ वैर मिटायक | सामायिक सम नाहिं और कोउ मैत्री दायक || श्रावक अणुव्रत आदि अन्त सप्तम गुणथानक | यह आवशयक किये होय निश्चय दुःखहानक ||२९|| ये भवि आतम-काज-मरण उद्धम के धारी | ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी || राग रोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब | बुध महाचन्द्र विलाय जाय तातैं किज्यो अब ||३०||
  2. येनात्माऽबुध्यतात्मैव परत्वेनैव चापरम्। अक्षयानन्तबोधाय तस्मै सिद्धात्मने नम:॥ १॥ जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती विभूतयस्तीर्थकृतोप्यनीहितु:। शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे जिनाय तस्मै सकलात्मने नम:॥ २॥ श्रुतेन लिङ्गेन यथात्मशक्ति समाहितान्त:करणेन सम्यक् । समीक्ष्य कैवल्यसुखस्पृहाणां विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये॥ ३॥ बहिरन्त: परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु। उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत्॥ ४॥ बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तर:। चित्तदोषात्मविभ्रान्ति:, परमात्माऽतिनिर्मल:॥ ५॥ निर्मल: केवल: शुद्धो विविक्त: प्रभुरव्यय:। परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिन:॥ ६॥ बहिरात्मेन्द्रियद्वारै - रात्मज्ञानपराङ्मुख:। स्फुरित: स्वात्मनो देहमात्मत्वेनाध्यवस्यति॥ ७॥ नरदेहस्थमात्मान - मविद्वान् मन्यते नरम्। तिर्यञ्चं तिर्यगङ्गस्थं सुराङ्गस्थं सुरं तथा॥ ८॥ नारकं नारकाङ्गस्थं न स्वयं तत्त्वतस्तथा। अनन्तानन्तधीशक्ति: स्वसंवद्योऽचलस्थिति:॥ ९॥ स्वदेहसदृशं दृष्ट्वा परदेहमचेतनम्। परात्माधिष्ठितं मूढ: परत्वेनाध्यवस्यति॥ १०॥ स्वपराध्यवसायेन देहेष्वविदितात्मनाम्। वर्तते विभ्रम: पुंसां पुत्रभार्यादिगोचर:॥११॥ अविद्यासंज्ञितस्तस्मात् संस्कारो जायते दृढ:। येन लोकोऽङ्गमेव स्वं पुनरप्यभिमन्यते॥ १२॥ देहे स्वबुद्धिरात्मानं युनक्त्येतेन निश्चयात्। स्वात्मन्येवात्मधीस्तस्माद्वियोजयति देहिनम्॥ १३॥ देहेष्वात्मधिया जाता: पुत्रभार्यादिकल्पना:। सम्पत्तिमात्मनस्ताभि र्मन्यते हा हतं जगत्॥ १४॥ मूलं संसारदु:खस्य देह एवात्मधीस्तत:। त्यक्त्त्वैनां प्रविशेदन्त - र्बहिरव्यापृतेन्द्रिय:॥ १५॥ मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारै: पतितो विषयेष्वहम् । तान् प्रपद्याऽहमिति मां पुरा वेद न तत्त्वत:॥ १६॥ एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषत:। एष योग: समासेन प्रदीप: परमात्मन:॥ १७॥ यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा। जानन्न दृश्यते रूपं तत: केन ब्रवीम्यहम्॥ १८॥ यत्परै: प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पक:॥ १९॥ यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नैव मुञ्चति। जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम्॥ २०॥ उत्पन्नपुरुषभ्रान्ते: स्थाणौ यद्वद्विचेष्टितम्। तद्वन्मे चेष्टितं पूर्वं देहादिष्वात्मविभ्रमात्॥ २१॥ यथासौ चेष्टते स्थाणौ निवृत्ते पुरुषाग्रहे। तथा चेष्टोऽस्मि देहादौ विनिवृत्तात्मविभ्रम:॥ २२॥ येनात्मनाऽनुभूयेऽह - मात्मनैवात्मनाऽऽत्मनि। सोऽहं न तन्न सा नासौ नैको न द्वौ न वा बहु:॥२३॥ यदभावे सुषुप्तोऽहं यद्भावे व्युत्थित: पुन:। अतीन्द्रियमनिर्देश्यं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४॥ क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्त्वतो मां प्रपश्यत:। बोधात्मानं तत: कश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रिय:॥२५॥ मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रिय:। मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रिय:॥ २६॥ त्यक्त्वैवं बहिरात्मान - मन्तरात्मव्यवस्थित:। भावयेत् परमात्मानं सर्वसङ्कल्पवर्जितम्॥ २७॥ सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन:। तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम्॥ २८॥ मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम्। यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मन:॥ २९॥ सर्वेन्द्रियाणि संयम्य स्तिमितेनान्तरात्मना। यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्त्वं परमात्मन:॥ ३०॥ य: परात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्तत:। अहमेव मयोपास्यो नान्य:कश्चिदिति स्थिति:॥ ३१॥ प्रच्याव्य विषयेभ्योऽहं मां मयैव मयि स्थितम्। बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि परमानन्दनिर्वृतम्॥ ३२॥ यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्। लभते स न निर्वाणं तप्त्वाऽपि परमं तप:॥ ३३॥ आत्मदेहान्तरज्ञान - जनिताह्लादनिर्वृत:। तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोऽपि न खिद्यते॥ ३४॥ रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम्। स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत् तत्त्वं नेतरो जन:॥ ३५॥ अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रान्तिरात्मन:। धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्तत:॥ ३६॥ अविद्याभ्याससंस्कारै - रवशं क्षिप्यते मन:। तदेवज्ञानसंस्कारै: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते॥ ३७॥ अपमानादयस्तस्य विक्षेपो यस्य चेतस:। नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतस:॥ ३८॥ यदा मोहात्प्रजायेते रागद्वेषौ तपस्विन:। तदैव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यत: क्षणात्॥ ३९॥ यत्र काये मुने: प्रेम तत: प्रच्याव्य देहिनम्। बुद्ध्या तदुत्तमे काये योजयेत्प्रेम नश्यति॥ ४०॥ आत्म - विभ्रमजं दु:खमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति। नाऽयतास्तत्र निर्वान्ति कृत्वाऽपि परमं तप:॥ ४१॥ शुभं शरीरं दिव्यांश्च विषयानभिवाञ्छति। उत्पन्नाऽऽत्ममतिर्देहे तत्त्वज्ञानी ततश्च्युतिम्॥ ४२॥ परत्राहम्मति: स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम्। स्वस्मिन्नहम्मतिश्च्युत्वा परस्मान्मुच्यते बुध:॥ ४३॥ दृश्यमानमिदं मूढिलिङ्गमवबुध्यते। इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम्॥ ४४॥ जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि। पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्तिं भूयोऽपि गच्छति॥ ४५॥ अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं तत:। क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यत:॥ त्यागादाने बहिर्मूढ: करोत्यध्यात्ममात्मवित्। नान्तर्बहिरुपादानं न त्यागो निष्ठितात्मन:॥ ४७॥ युञ्जीत मनसाऽऽत्मानं वाक्कायाभ्यां वियोजयेत्। मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम्॥ ४८॥ जगद्देहात्मदृष्टीनां विश्वास्यं रम्यमेव च। स्वात्मन्येवात्मदृष्टीनां क्व विश्वास: क्व वा रति:॥४९॥ आत्मज्ञानात्परं कार्यं न बुद्धौ धारयेच्चिरम्। कुर्यादर्थवशात्किञ्चिद्वाक्कायाभ्यामतत्पर:॥ ५०॥ यत्पश्यामीन्द्रियैस्तन्मे नास्ति यन्नियतेन्द्रिय:। अन्त: पश्यामि सानन्दं तदस्तु ज्योतिरुत्तमम्॥ ५१॥ सुखमारब्धयोगस्य बहिर्दु:खमथात्मनि। बहिरेवाऽसुखं सौख्यमध्यात्मं भावितात्मन:॥ ५२॥ तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत्। येनाऽविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत्॥ ५३॥ शरीरे वाचि चात्मानं सन्धत्ते वाक्शरीरयो:। भ्रान्तोऽभ्रान्त: पुनस्तत्त्वं पृथगेषां निबुध्यते॥ ५४॥ न तदस्तीन्द्रियार्थेषु यत्क्षेमङ्करमात्मन:। तथापि रमते बालस्तत्रैवाज्ञानभावनात्॥ ५५॥ चिरं सुषुप्तास्तमसि मूढात्मान: कुयोनिषु। अनात्मीयात्मभूतेषु ममाहमिति जाग्रति॥ ५६॥ पश्येन्निरन्तरं देहमात्मनोऽनात्मचेतसा। अपरात्मधियाऽन्येषामात्मतत्त्वे व्यवस्थित:॥ ५७॥ अज्ञापितं न जानन्ति यथा मां ज्ञापितं तथा। मूढात्मानस्ततस्तेषां वृथा मे ज्ञापनश्रम:॥ ५८॥ यद्बोधयितुमिच्छामि तन्नाहं यदहं पुन:। ग्राह्यं तदपि नान्यस्य तत्किमन्यस्य बोधये॥ ५९॥ बहिस्तुष्यति मूढात्मा पिहितज्योतिरन्तरे। तुष्यत्यन्त: प्रबुद्धात्मा बहिव्र्यावृत्तकौतुक:॥ ६०॥ न जानन्ति शरीराणि सुखदु:खान्यबुद्धय:। निग्रहानुग्रहधियं तथाप्यत्रैव कुर्वते ॥ ६१॥ स्वबुद्ध्या यावद् गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृति:॥ ६२॥ घने वे यथाऽऽत्मानं न घनं मन्यते तथा। घने स्वदेहेऽप्यात्मानं न घनं मन्यते बुध:॥ ६३॥ जीर्णे वे यथात्मानं न जीर्णं मन्यते तथा। जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं न जीर्णं मन्यते बुध:॥ ६४॥ नष्टे वे यथाऽऽत्मानं न नष्टं मन्यते तथा। नष्टे स्वदेहेऽप्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुध:॥ ६५॥ रक्ते वे यथाऽऽत्मानं न रक्तं मन्यते तथा। रक्ते स्वदेहेऽप्यात्मानं न रक्तं मन्यते बुध:॥ ६६॥ यस्य सस्पन्दमाभाति नि:स्पन्देन समं जगत्। अप्रज्ञमक्रियाभोगं स शमं याति नेतर: ॥ ६७॥ शरीरकञ्चुकेनात्मा संवृतज्ञानविग्रह:। नात्मानं बुध्यते तस्माद् भ्रमत्यतिचिरं भवे॥ ६८॥ प्रविशद्गलतां व्यूहे देहेऽणूनां समाकृतौ। स्थितिभ्रान्त्या प्रपद्यन्ते तमात्मानमबुद्धय:॥ ६९॥ गौर: स्थूल: कृशो वाऽहमित्यङ्गेनाविशेषयन्। आत्मानं धारयेन्नित्यं केवलज्ञप्तिविग्रहम् ॥ ७०॥ मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचला धृति:। तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृति:॥७१॥ जनेभ्यो वाक् तत: स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमा:। भवन्ति तस्मात्संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत्॥ ७२॥ ग्रामोऽरण्यमिति द्वेधा निवासोऽनात्मदर्शिनाम्। दृष्टात्मनां निवासस्तु विविक्तात्मैव निश्चल:॥७३॥ देहान्तरगतेर्बीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना। बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४॥ नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मान्नान्योऽस्ति परमार्थत:॥७५॥ दृढात्मबुद्धिर्देहादावुत्पश्यन्नाशमात्मन: । मित्रादिभिर्वियोगं च बिभेति मरणाद् भृशम् ॥७६॥ आत्मन्येवात्मधीरन्यां शरीरगतिमात्मन:। मन्यते निर्भयं त्यक्त्वा वं वान्तरग्रहम्॥ ७७॥ व्यवहारे सुषुप्तो य: स जागत्र्यात्मगोचरे। जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे॥ ७८॥ आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिकं बहि:। तयोरन्तरविज्ञानादभ्यासादच्युतो भवेत्॥ ७९॥ पूर्वं दृष्टात्मतत्त्वस्य विभात्युन्मत्तवज्जगत्। स्वभ्यस्तात्मधिय: पश्चात् काष्ठपाषाणरूपवत्॥८०॥ शृण्वन्नप्यन्यत: कामं वदन्नपि कलेवरात्। नात्मानं भावयेद्भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक्॥ ८१॥ तथैव भावयेद्देहाद् व्यावृत्यात्मानमात्मनि। यथा न पुनरात्मानं देहे स्वप्नेऽपि योजयेत्॥ ८२॥ अपुण्यमव्रतै: पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोव्र्यय:। अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत्॥ ८३॥ अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित:। त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन:॥ ८४॥ यदन्तर्जल्पसंपृक्तमुत्प्रेक्षाजालमात्मन: । मूलं दु:खस्य तन्नाशे शिष्टमिष्टं परं पदम्॥ ८५॥ अव्रती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायण:। परात्मज्ञानसम्पन्न: स्वयमेव परो भवेत्॥ ८६॥ लिङ्गं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भव:। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये लिङ्गकृताऽऽग्रहा:॥ ८७॥ जातिर्देहाश्रिता दृष्टा देह एवात्मनो भव:। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहा:॥ ८८॥ जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रह:। तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मन:॥ ८९॥ यत्त्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदवाप्तये। प्रीतिं तत्रैव कुर्वन्ति द्वेषमन्यत्र मोहिन:॥ ९०॥ अनन्तरज्ञ: सन्धत्ते दृष्टिं पङ्गोर्यथान्धके। संयोगात् दृष्टिमङ्गेऽपि सन्धत्ते तद्वदात्मन:॥ ९१॥ दृष्टभेदो यथा दृष्टिं पङ्गोरन्धे न योजयेत्। तथा न योजयेद् देहे दृष्टात्मा दृष्टिमात्मन:॥ ९२॥ सुप्तोन्मत्ताद्यवस्थैव विभ्रमोऽनात्मदर्शिनाम्। विभ्रमोऽक्षीणदोषस्य सर्वावस्थाऽऽत्मदर्शिन:॥ ९३॥ विदिताऽशेषशोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते। देहात्मदृष्टिज्र्ञातात्मा सुप्तोन्मत्तोऽपि मुच्यते॥ ९४॥ यत्रैवाहितधी: पुंस: श्रद्धा तत्रैव जायते। यत्रैव जायते श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते॥ ९५॥ यत्रानाहितधी: पुंस: श्रद्धा तस्मान्निवर्तते। यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लय:॥ ९६॥ भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृश:। वर्तिर्दीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी॥ ९७॥ उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा। मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरु :॥९८॥ इतीदं भावयेन्नित्यमवाचांगोचरं पदम्। स्वत एव तदाप्नोति यतो नावर्तते पुन:॥ ९९॥ अयत्नसाध्यं निर्वाणं चित्तत्त्वं भूतजं यदि। अन्यथा योगतस्तस्मान्न दु:खं योगिनां क्वचित्॥१००॥ स्वप्ने दृष्टे विनष्टेऽपि न नाशोऽस्ति यथात्मन:। तथा जागरदृष्टेऽपि विपर्यासाविशेषत:॥ १०१॥ अदु:खभावितं ज्ञानं क्षीयते दु:खसन्निधौ। तस्माद्यथाबलं दु:खैरात्मानं भावयेन्मुनि:॥ १०२॥ प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तितात्। वायो: शरीरयन्त्राणि वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु॥ १०३॥ तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्तेऽसुखं जड:। त्यक्त्वाऽऽरोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्॥१०४॥ मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहं धियञ्च, संसारदु:खजननीं जननाद्विमुक्त:। ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठस्तन्- मार्गमेतदधिगम्य समाधितन्त्रम्॥१०५॥
  3. गौतम स्वामी वन्दों नामी मरण समाधि भला है। मैं कब पाऊँ निशदिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है॥ देव-धर्म-गुरु प्रीति महादृढ़ सप्त व्यसन नहिं जाने। त्यागे बाइस अभक्ष्य संयमी बारह व्रत नित ठाने॥१॥ चक्की उखरी चूलि बुहारी पानी त्रस न विराधे। बनिज करै परद्रव्य हरे नहिं छहों करम इमि साधे॥ पूजा शा गुरुन की सेवा संयम तप चहु दानी। पर-उपकारी अल्प-अहारी सामायिक-विधि ज्ञानी॥२॥ जाप जपै तिहूँ योग धरै दृढ़ तन की ममता टारै। अन्त समय वैराग्य सम्हारै ध्यान समाधि विचारै॥ आग लगै अरु नाव डुबै जब धर्म विघन है आवे। चार प्रकार अहार त्याग के मंत्र सु मन में ध्यावै॥३॥ रोग असाध्य जरा बहु देखै कारण और निहारे। बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवन को डारै॥ जो न बनै तो घर में रहकरि सब सों होय निराला। मात-पिता सुत-तिय को सोंपे निजपरिग्रह अहि काला ४ कुछ चैत्यालय कुछ श्रावकजन कुछ दुखिया धन देई। क्षमा क्षमा सबही सों कहिके मन की शल्य हनेई॥ शत्रुन सों मिल निज कर जोरै मैं बहु कीन बुराई। तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सब बगसो भाई॥५॥ धन धरती जो मुख सों मांगै सबको दे सन्तोषै। छहों काय के प्राणी ऊपर करुणा भाव विशेषै॥ ऊँच नीच घर बैठ जगह इक कुछ भोजन कुछ पय ले। दूधाधारी क्रम क्रम तजिके छाछ अहार पहेले॥६॥ छाछ त्यागि के पानी राखे पानी तजि संथारा। भूमि माँहिं फिर आसन माँडै साधर्मी ढिंग प्यारा॥ जब तुम जानो यह न जपै है तब जिनवाणी पढिय़े। यों कहि मौन लेय संन्यासी पंच परमपद गहिये॥७॥ चौ आराधन मन में ध्यावै बारह भावन भावै। दश लक्षणमय धर्म विचारै रत्नत्रय मन ल्यावै॥ पैंतीस सोलह षट् पन चार अरु दुई इक वरन विचारै। काया तेरी दुख की ढेरी ज्ञानमयी तू सारै॥८॥ अजर अमर निज गुण सों पूरै परमानन्द सुभावै। आनन्द कन्द चिदानन्द साहब तीन जगतपति ध्यावै॥ क्षुधा तृषादिक होय परीषह सहै भाव सम राखै। अतीचार पाँचों सब त्यागै ज्ञान सुधारस चाखै॥९॥ हाड़ मांस सब सूखि जाय जब धरम लीन तन त्यागै। अद्भुत पुण्य उपाय सुरग में सेज उठै ज्यों जागै॥ तहँ ते आवे शिवपद पावै विलसै सुक्ख अनन्तो। द्यानत यह गति होय हमारी जैनधरम जयवन्तो॥१0॥
  4. बन्दौं श्री अरिहंत परम गुरु, जो सबको सुखदाई। इस जग में दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई॥ अब मैं अरज करूँ प्रभु तुमसे, कर समाधि उर माँहीं। अन्त समय में यह वर मागूँ, सो दीजै जगराई॥१॥ भव-भव में तनधार नये मैं, भव-भव शुभ संग पायो। भव-भव में नृपरिद्धि लई मैं, मात-पिता सुत थायो॥ भव-भव में तन पुरुष तनों धर, नारी हूँ तन लीनों। भव-भव में मैं भयो नपुंसक,आतम गुण नहिं चीनों॥२॥ भव-भव में सुर पदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। भव-भव में गति नरकतनी धर, दुख पायो विधि योगे॥ भव-भव में तिर्यंच योनि धर, पायो दुख अति भारी। भव-भव में साधर्मीजन को, संग मिल्यो हितकारी॥३॥ भव-भव में जिन पूजन कीनी, दान सुपात्रहिं दीनो। भव-भव में मैं समवसरण में, देख्यो जिनगुण भीनो॥ एती वस्तु मिली भव-भव में, सम्यक् गुण नहिं पायो। ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातैं जग भरमायो॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरणहिं कीनो। एक बार हू सम्यक् युत मैं, निज आतम नहिं चीनो॥ जो निज पर को ज्ञान होय तो, मरण समय दुख काई। देह विनाशी मैं निजभासी, ज्योति स्वरूप सदाई॥५॥ विषय कषायनि के वश होकर, देह आपनो जान्यो। कर मिथ्या सरधान हिये विच, आतम नाहिं पिछान्यो॥ यो कलेश हिय धार मरणकर, चारों गति भरमायो। सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चरन ये, हिरदे में नहिं लायो॥६॥ अब या अरज करूँ प्रभु सुनिये, मरण समय यह मांगों। रोग जनित पीड़ा मत हूवो, अरु कषाय मत जागो॥ ये मुझ मरण समय दुखदाता, इन हर साता कीजै। जो समाधियुत मरण होय मुझ,अरु मिथ्यामद छीजै॥७॥ यह तन सात कुधातमई है, देखत ही घिन आवै। चर्मलपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्टा पावै॥ अतिदुर्गन्ध अपावन सों यह, मूरख प्रीति बढ़ावै। देह विनाशी, यह अविनाशी नित्य स्वरूप कहावै॥८॥ यह तन जीर्ण कुटीसम आतम! यातैं प्रीति न कीजै। नूतन महल मिलै जब भाई, तब यामें क्या छीजै॥ मृत्यु भये से हानि कौन है, याको भय मत लावो। समता से जो देह तजोगे, तो शुभतन तुम पावो॥९॥ मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माँहीं। जीरन तन से देत नयो यह, या सम साहू नाहीं॥ या सेती इस मृत्यु समय पर, उत्सव अति ही कीजै। क्लेश भाव को त्याग सयाने, समता भाव धरीजै॥१०॥ जो तुम पूरब पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग सम्पदा भाई॥ राग द्वेष को छोड़ सयाने, सात व्यसन दुखदाई। अन्त समय में समता धारो, परभव पंथ सहाई॥११॥ कर्म महादुठ बैरी मेरो, ता सेती दुख पावै। तन पिंजरे में बंद कियो मोहि, यासों कौन छुड़ावै॥ भूख तृषा दुख आदि अनेकन, इस ही तन में गाढ़े। मृत्युराज अब आय दयाकर, तन पिंजर सों काढ़े॥१२॥ नाना वाभूषण मैंने, इस तन को पहिराये। गन्ध-सुगन्धित अतर लगाये, षट्रस अशन कराये॥ रात दिना मैं दास होय कर, सेव करी तन केरी। सो तन मेरे काम न आयो, भूल रह्यो निधि मेरी॥१३॥ मृत्युराज को शरन पाय, तन नूतन ऐसो पाऊँ। जामें सम्यक्रतन तीन लहि, आठों कर्म खपाऊँ॥ देखो तन सम और कृतघ्नी, नाहिं सु या जगमाँहीं। मृत्यु समय में ये ही परिजन, सब ही हैं दुखदाई॥१४॥ यह सब मोह बढ़ावन हारे, जिय को दुर्गति दाता। इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता॥ मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, माँगो इच्छा जेती। समता धरकर मृत्यु करो तो, पावो सम्पत्ति तेती॥१५॥ चौ-आराधन सहित प्राण तज, तो ये पदवी पावो। हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो॥ मृत्यु कल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनों लोक मँझारे। ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे॥१६॥ इस तन में क्या राचै जियरा, दिन-दिन जीरन हो है। तेज कान्ति बल नित्य घटत है, या सम अथिर सु को है॥ पाँचों इन्द्री शिथिल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै। तापर भी ममता नहिं छोड़ै, समता उर नहिं लावे॥१७॥ मृत्युराज उपकारी जिय को, तनसों तोहि छुड़ावै। नातर या तन बन्दीगृह में, पर्यो पर्यो बिललावै॥ पुद्गल के परमाणु मिलकैं, पिण्डरूप तन भासी। या है मूरत मैं अमूरती, ज्ञान जोति गुण खासी॥१८॥ रोग शोक आदि जो वेदन, ते सब पुद्गल लारे। मैं तो चेतन व्याधि बिना नित, हैं सो भाव हमारे॥ या तन सों इस क्षेत्र सम्बन्धी, कारण आन बन्यो है। खानपान दे याको पोष्यो, अब समभाव ठन्यो है॥१९॥ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान बिन, यह तन अपनो जान्यो। इन्द्रीभोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछान्यो॥ तन विनाश तें नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई। कुटुम आदि को अपनो जान्यो, भूल अनादी छाई॥२0॥ अब निज भेद जथारथ समझ्यो, मैं हूँ ज्योतिस्वरूपी। उपजै विनसै सो यह पुद्गल, जान्यो याको रूपी॥ इष्टऽनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुद्गल लागे। मैं जब अपनो रूप विचारों, तब वे सब दुख भागे॥२१॥ बिन समता तनऽनंत धरे मैं, तिनमें ये दुख पायो। श घाततैंऽनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो॥ बार अनन्त ही अग्नि माँहिं जर, मूवो सुमति न लायो। सिंह व्याघ्र अहिऽनन्तबार मुझ, नाना दु:ख दिखायो॥२२॥ बिन समाधि ये दु:ख लहे मैं, अब उर समता आई। मृत्युराज को भय नहिं मानों, देवै तन सुखदाई॥ यातैं जब लग मृत्यु न आवै, तब लग जप-तप कीजै। जप-तप बिन इस जग के माँहीं, कोई भी ना सीजै॥२३॥ स्वर्ग सम्पदा तप सों पावै, तप सों कर्म नसावै। तप ही सों शिवकामिनि पति ह्वै, यासों तप चित लावै॥ अब मैं जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहिं सहाई। मात-पिता सुत बाँधव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई॥२४॥ मृत्यु समय में मोह करें, ये तातैं आरत हो है। आरत तैं गति नीची पावै, यों लख मोह तज्यो है॥ और परिग्रह जेते जग में तिनसों प्रीत न कीजै। परभव में ये संग न चालैं, नाहक आरत कीजै॥२५॥ जे-जे वस्तु लखत हैं ते पर, तिनसों नेह निवारो। परगति में ये साथ न चालैं, ऐसो भाव विचारो॥ परभव में जो संग चलै तुझ, तिन सों प्रीत सु कीजै। पञ्च पाप तज समता धारो, दान चार विध दीजै॥२६॥ दशलक्षण मय धर्म धरो उर, अनुकम्पा उर लावो। षोडशकारण को नित चिन्तो, द्वादश भावन भावो॥ चारों परवी प्रोषध कीजै, अशन रात को त्यागो। समता धर दुरभाव निवारो, संयम सों अनुरागो॥२७॥ अन्त समय में यह शुभ भावहिं, होवैं आनि सहाई। स्वर्ग मोक्षफल तोहि दिखावैं, ऋद्धि देहिं अधिकाई॥ खोटे भाव सकल जिय त्यागो, उर में समता लाके। जा सेती गति चार दूर कर, बसो मोक्षपुर जाके॥२८॥ मन थिरता करके तुम चिंतो, चौ-आराधन भाई। ये ही तोकों सुख की दाता, और हितू कोउ नाहीं॥ आगैं बहु मुनिराज भये हैं, तिन गहि थिरता भारी। बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी॥२९॥ तिनमें कछु इक नाम कहूँ मैं, सो सुन जिय चित लाकै। भाव सहित वन्दौं मैं तासों, दुर्गति होय न ताकै॥ अरु समता निज उर में आवै, भाव अधीरज जावै। यों निशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यानहिये विच लावै॥३0॥ धन्य-धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी। एक श्यालनी जुग बच्चाजुत पाँव भख्यो दुखकारी॥ यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी। तो तुमरे जिय कौन दु:ख है? मृत्यु महोत्सव भारी॥३१॥ धन्य-धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्री ने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतम सों हित लायो॥ ३२॥ देखो गजमुनि के शिर ऊपर, विप्र अगनि बहु बारी। शीश जले जिम लकड़ी तिनको,तो भी नाहिं चिगारी॥ ३३॥ सनतकुमार मुनी के तन में, कुष्ठ वेदना व्यापी। छिन्न-भिन्न तन तासों हूवो, तब चिंतो गुण आपी॥ ३४॥ ोणिक सुत गंगा में डूबो, तब जिननाम चितारो। धर सल्लेखना परिग्रह छाँड़ो, शुद्ध भाव उर धारो॥ ३५॥ समन्तभद्र मुनिवर के तन में, क्षुधा वेदना आई। ता दुख में मुनि नेक न डिगियो, चिंत्यो निजगुण भाई॥ ३६॥ ललित घटादिक तीस दोय मुनि, कौशाम्बी तट जानो। नद्दी में मुनि बहकर मूवे, सो दुख उन नहिं मानो॥ ३७॥ धर्मघोष मुनि चम्पानगरी, बाह्य ध्यान धर ठाड़ो। एक मास की कर मर्यादा, तृषा दु:ख सह गाढो॥ ३८॥ श्रीदत्त मुनि को पूर्व जन्म को, बैरी देव सु आके। विक्रिय कर दुख शीत तनो सो, सह्यो साधु मन लाके॥ ३९॥ वृषभसेन मुनि उष्णशिला पर, ध्यान धरो मन लाई। सूर्य घाम अरु उष्ण पवन की, वेदन सहि अधिकाई॥ ४०॥ अभयघोष मुनि काकन्दीपुर, महावेदना पाई। शत्रु चण्ड ने सब तन छेदो, दुख दीनो अधिकाई॥ ४१॥ विद्युच्चर ने बहु दुख पायो, तौ भी धीर न त्यागी। शुभ भावन सों प्राण तजे निज, धन्य और बड़भागी॥ ४२॥ पुत्र चिलाती नामा मुनि को, बैरी ने तन घातो। मोटे-मोटे कीट पड़े तन, तापर निज गुण रातो॥ ४३॥ दण्डक नामा मुनि की देही बाणन कर अरि भेदी। तापर नेक डिगे नहिं वे मुनि, कर्म महारिपु छेदी॥ ४४॥ अभिनन्दन मुनि आदि पाँचसौ, घानी पेलि जु मारे। तो भी श्रीमुनि समताधारी, पूरब कर्म विचारे॥ ४५॥ चाणक मुनि गोगृह के माँहीं, मूँद अगिनि परजालो। श्रीगुरु उर समभाव धारकै, अपनो रूप सम्हालो॥ ४६॥ सात शतक मुनिवर दुख पायो, हस्तिनापुर में जानो। बलि ब्राह्मणकृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहिं मानो॥ ४७॥ लोहमयी आभूषण गढ़ के, ताते कर पहराये। पाँचों पाण्डव मुनि के तन में, तौ भी नाहिं चिगाये॥ ४८॥ और अनेक भये इस जग में, समता रस के स्वादी। वे ही हमको हों सुखदाता, हर हैं टेक प्रमादी॥ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरन-तप, ये आराधन चारों। ये ही मोंको सुख की दाता, इन्हें सदा उर धारों॥४९॥ यों समाधि उर माँहीं लावो, अपनो हित जो चाहो। तज ममता अरु आठों मद को, जोति स्वरूपी ध्यावो॥ जो कोई नित करत पयानो, ग्रामान्तर के काजै। सो भी शकुन विचारै नीके, शुभ के कारण साजै॥५0॥ मात-पितादिक सर्व कुटुम मिल, नीके शकुन बनावै। हलदी धनिया पुंगी अक्षत, दूब दही फल लावै॥ एक ग्राम जाने के कारण, करैं शुभाशुभ सारे। जब परगति को करत पयानो, तब नहिं सोचो प्यारे॥५१ सर्वकुटुम जब रोवन लागै, तोहि रुलावैं सारे। ये अपशकुन करैं सुन तोकौं, तू यों क्यों न विचारे॥ अब परगति को चालत बिरियाँ, धर्म ध्यान उर आनो। चारों आराधन आराधो मोह तनो दुख हानो॥ ५२॥ ह्वै नि:शल्य तजो सब दुविधा, आतमराम सुध्यावो। जब परगति को करहु पयानो, परमतत्त्व उर लावो॥ मोह जाल को काट पियारे, अपनो रूप विचारो। मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, यों उर निश्चय धारो॥५३॥ दोहा मृत्यु महोत्सव पाठ को, पढ़ो सुनो बुधिमान। सरधा धर नित सुख लहो, सूरचन्द्र शिवथान॥५४॥ पञ्च उभय नव एक नभ, संवत् सो सुखदाय। आश्विन श्यामा सप्तमी,कह्यो पाठ मन लाय॥ ५५॥
  5. स्वात्माभिमुख-संवित्ति, लक्षणं श्रुत-चक्षुषा। पश्यन्पश्यामि देव त्वां केवलज्ञान-चक्षुषा॥ शास्त्राभ्यासो, जिनपति-नुति: सङ्गति सर्वदार्यै:। सद्वृत्तानां,गुणगण-कथा,दोषवादे च मौनम्॥ १॥ सर्वस्यापि प्रिय-हित-वचो भावना चात्मतत्त्वे। संपद्यन्तां, मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्ग:॥ २॥ जैनमार्ग-रुचिरन्यमार्ग निर्वेगता, जिनगुण-स्तुतौ मति:। निष्कलंक विमलोक्ति भावना: संभवन्तु मम जन्मजन्मनि॥ ३॥ गुरुमूले यति-निचिते, - चैत्यसिद्धान्त वार्धिसद्घोषे। मम भवतु जन्मजन्मनि,सन्यसनसमन्वितं मरणम्॥ ४॥ जन्म जन्म कृतं पापं, जन्मकोटि समार्जितम्। जन्म मृत्यु जरा मूलं, हन्यते जिनवन्दनात्॥ ५॥ आबाल्याज्जिनदेवदेव! भवत:, श्रीपादयो: सेवया, सेवासक्त-विनेयकल्प-लतया,कालोऽद्यया-वद्गत:। त्वां तस्या: फलमर्थये तदधुना, प्राणप्रयाणक्षणे, त्वन्नाम-प्रतिबद्ध-वर्णपठने,कण्ठोऽस्त्व-कुण्ठो मम॥ ६॥ तवपादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम्। तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद् यावन्निर्वाण-संप्राप्ति:॥ ७॥ एकापि समर्थेयं, जिनभक्ति र्दुर्गतिं निवारयितुम्। पुण्यानि च पूरयितुं, दातुं मुक्तिश्रियं कृतिन:॥ ८॥ पञ्च अरिंजयणामे पञ्च य मदि-सायरे जिणे वंदे। पञ्च जसोयरणामे, पञ्च य सीमंदरे वंदे॥ ९॥ रयणत्तयं च वन्दे, चउवीस जिणे च सव्वदा वन्दे। पञ्चगुरूणां वन्दे, चारणचरणं सदा वन्दे॥ १०॥ अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म, - वाचकं परमेष्ठिन:। सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वत: प्रणिदध्महे॥ ११॥ कर्माष्टक-विनिर्मुक्तं, मोक्षलक्ष्मी-निकेतनम्। सम्यक्त्वादि गुणोपेतं, सिद्धचक्रं नमाम्यहम्॥ १२॥ आकृष्टिं सुरसम्पदां विदधते, मुक्तिश्रियो वश्यता-, मुच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम्। स्तम्भं दुर्गमनं प्रति-प्रयततो, मोहस्य सम्मोहनम्, पायात्पञ्च-नमस्क्रियाक्षरमयी,साराधना देवता॥ १३॥ अनन्तानन्त संसार, - संततिच्छेद-कारणम्। जिनराज-पदाम्भोज, स्मरणं शरणं मम॥ १४॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। तस्मात् कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर!॥ १५॥ नहित्राता नहित्राता नहित्राता जगत्त्रये। वीतरागात्परो देवो, न भूतो न भविष्यति॥ १६॥ जिनेभक्ति-र्जिनेभक्ति-, र्जिनेभक्ति-र्दिने दिने। सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे भवे॥ १७॥ याचेऽहं याचेऽहं, जिन! तव चरणारविन्दयोर्भक्तिम्। याचेऽहं याचेऽहं, पुनरपि तामेव तामेव॥ १८॥ विघ्नौघा: प्रलयं यान्ति, शाकिनी-भूत पन्नगा:। विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥१९॥ इच्छामि भंते! समाहिभत्ति काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं, रयणत्तय-सरूवपरमप्पज्झाणलक्खणं समाहि-भत्तीये णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाओ, सुगइ-गमणं समाहि-मरणं जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं।
  6. जिनके शुचि गुण परिचय पाकर वैसा बनने उद्यत हूँ। विधि मल धो-धो, निजपन साधा वन्दू सिद्धों को नत हूँ। निजी योग्यता बाह्य योग से कनक कनकपाषाण यथा शुचि गुणनाशक दोष नशन से आत्मसिद्धि वरदान तथा॥१॥ गुणाभाव यदि अभाव निज का सिद्धि रही, तप व्यर्थ रहे। सुचिरबद्ध यह विधि फल-भोक्ता कर्म नष्ट कर अर्थ गहे। ज्ञाता - द्रष्टा स्वतन बराबर फैलन - सिकुडऩशाली है धु्रवोत्पादव्यय गुणीजीव है यदि न, सिद्धि सो जाली है॥ २॥ बाहर-भीतर यथाजात हो रत्नत्रय का खड्ग लिए। घाति कर्म पर महाघात कर प्रकटे रवि से अंग लिए। छत्र चँवर भासुर भामण्डल समवसरण पा आप्त हुए अनन्त दर्शन बोध वीर्य सुख समकित गुण चिर साथ हुए॥ ३॥ देखें जानें युगपत् सब कुछ सुचिर काल तक ध्वान्त हरें परमत-खण्डन जिनमत मण्डन करते जन-जन शान्त करें। निज से निज में निज को निज ही बने स्वयंभू वरत रहे ज्योति पुंज की ज्ञानोदय यह जय जय जय जय करत रहे॥४॥ जड़ें उखाड़ीं अघातियों की सुदूर फैली चेतन में। हुए सुशोभित सूक्ष्मादिक गुण अनन्त क्षायिक वे क्षण में। और और विधि विभाव हटते-हटते अपने गुण उभरे ऊध्र्व स्वभावी अन्त समय में लोक शिखर पर जा ठहरे॥५॥ नूतन तन का कारण छूटा, मिला हुआ कुछ कम उससे सुन्दर प्रतिछवि लिए सिद्ध हैं अमूर्त दिखते ना दृग से। भूख-प्यास से रोग-शोक से राग-रोष से मरणों से। दूर दु:ख से शिव सुख कितना कौन कहे जड़ वचनों से॥६॥ घट-बढ़ ना हो विषय-रहित है प्रतिपक्षी से रहित रहा। निरुपम शाश्वत सदा सदोदित सिद्धों का सुख अमित रहा। निज कारण से प्राप्त अबाधित स्वयं सातिशय धार रहा। परनिरपेक्षित परमोत्तम है अन्त - हीन वह सार रहा॥७॥ श्रम निद्रा जब अशुचि मिटी है शयन सुमन आदिक से क्या? क्षुधा मिटी है तृषा मिटी है सरस अशन आदिक से क्या? रोग शोक की पीर मिटी है औषध भी अब व्यर्थ रहा? तिमिर मिटा सब हुआ प्रकाशित दीपक से क्या अर्थ रहा?॥८॥ संयम-यम-नियमों से नय से आत्म बोध से दर्शन से महायशस्वी महादेव हैं बने कठिन तपघर्षण से। हुये हो रहे होंगे वन्दित सुधी जनों से सिद्ध महा। उन सम बनने तीनों सन्ध्या उन्हें नमूं कर-बद्ध यहाँ॥९॥ दोहा सिद्ध गुणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु! तव संसर्ग॥ १०॥ समदर्शन से साम्य बोध से समचारित से युक्त हुए इष्ट धर्म से पुष्ट हुए जो अष्ट कर्म से मुक्त हुए। सम्यक्त्वादिक अष्ट गुणों से मुख्य रूप से विलस रहे ऊध्र्वस्वभावी बने तुरत जा लोक शिखर पर निवस रहे॥११॥ विगत अनागत आगत के यूँ कुछ तो तप से सिद्ध हुए कुछ संयम से कुछ तो नय से कुछ चारित से सिद्ध हुए। भाव भक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को पूजूँ वन्दू अर्चन करलूँ नमन करूँ सब सिद्धन को॥१२॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ !॥
  7. नम: श्रीवद्र्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने। सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते॥ 1॥ देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्मनिबर्र्हणम्। संसारदु:खत: सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे॥ 2॥ सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु:। यदीयप्रत्यनीकानि, भवन्ति भवपद्धति:॥ 3॥ श्रद्धानं परमार्थाना-माप्तागम-तपोभृताम् । त्रिमूढापोढ- मष्टाङ्गं, सम्यग्दर्शन-मस्मयम्॥ 4॥ आप्तेनोच्छिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत्॥ 5॥ क्षुत्पिपासा-जरातङ्क -जन्मान्तक-भयस्मया:। न रागद्वेषमोहाश्च, यस्याप्त: स प्रकीत्र्यते॥ 6॥ परमेष्ठी परंज्योतिर्र्विरागो विमल: कृती। सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्त:, सार्व: शास्तोपलाल्यते॥ 7॥ अनात्मार्थं विना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम्। ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरज: किमपेक्षते॥ 8॥ आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्य- मदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनम्॥ 9॥ विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रह:। ज्ञानध्यानतपोरक्त स् तपस्वी स प्रशस्यते॥ 10॥ इदमेवेदृशमेव, तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा। इत्यकम्पायसाम्भोवत्, सन्मार्गेऽसंशयारु चि:॥ 11॥ कर्मपरवशे सान्ते, दु:खैरन्तरितोदये। पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता॥ 12॥ स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता॥ 13॥ कापथे पथि दु:खानां, कापथस्थेऽप्यसम्मति:। असम्पृक्ति-रनुत्कीर्ति-रमूढा दृष्टिरुच्यते॥ 14॥ स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम्। वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगूहनम्॥ 15॥ दर्शनाच्चरणाद्वापि,चलतां धर्मवत्सलै:। प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै:, स्थितीकरणमुच्यते॥ 16॥ स्वयूथ्यान्प्रति सद्भाव-सनाथापेतकैतवा। प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं, वात्सल्यमभिलप्यते॥ 17॥ अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम्। जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्यात्प्रभावना॥ 18॥ तावदञ्जनचौरोऽङ्गे, ततोऽनन्तमति: स्मृता। उद्दायनस्तृतीयेऽपि, तुरीये रेवती मता॥ 19॥ ततो जिनेन्द्रभक्तोऽन्यो, वारिषेणस्तत: पर:। विष्णुश्च वज्रनामा च, शेषयोर्लक्ष्यतां गतौ॥ 20॥ नाङ्गहीनमलं छेत्तुं, दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो, निहन्ति विषवेदनाम्॥ 21॥ आपगा-सागर-स्नानमुच्चय: सिकताश्मनाम्। गिरिपातोऽग्निपातश्च, लोकमूढं निगद्यते ॥ 22॥ वरोपलिप्सयाशावान्, रागद्वेषमलीमसा:। देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते ॥ 23॥ सग्रन्थारम्भहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम्। पाषण्डिनां पुरस्कारो, ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम्॥ 24॥ ज्ञानं पूजां कुलं जातिं, बलमृद्धिं तपो वपु:। अष्टावाश्रित्य मानित्वं, स्मयमाहुर्गतस्मया:॥ 25॥ स्मयेन योऽन्यानत्येति, धर्मस्थान् गर्विताशय:। सोऽत्येति धर्ममात्मीयं,न धर्मो धार्मिकैर्विना॥ 26॥ यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्। अथपापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्॥ 27॥ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्। देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ॥ 28॥ श्वापि देवोऽपि देव: श्वा, जायते धर्मकिल्विषात्। काऽपि नाम भवेदन्या, सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम्॥ 29॥ भयाशास्नेहलोभाच्च, कुदेवागमलिङ्गिनाम्। प्रणामं विनयं चैव, न कुय्र्यु: शुद्धदृष्टय:॥ 30॥ दर्शनं ज्ञानचारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते॥ 31॥ विद्यावृत्तस्य सम्भूतिस्थितिवृद्धिफलोदया:। न सन्त्यसति सम्यक्त्वे, बीजाभावे तरोरिव॥ 32॥ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुने:॥ 33॥ न सम्यक्त्वसमं किञिचता्-त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्॥ 34॥ सम्यग्दर्शनशुद्धा, नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि। दुष्कुल-विकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिका:॥ 35॥ ओजस्तेजो-विद्यावीर्ययशोवृद्धि -विजयविभवसनाथा:। माहाकुला महार्था, मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता:॥ 36॥ अष्टगुणपुषिटतुष्टा, दृषिटविशिष्टा: प्रकृष्टशोभाजुष्टा:। अमराप्सरसां परिषदि, चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ता: स्वर्गे॥ 37॥ नवनिधिसप्तद्वय रत्नाधीशा: सर्वभूमिपतयश्चक्रम्। वर्तयितुं प्रभवन्ति, स्पष्टदृश: क्षत्रमौलिशेखरचरणा:॥ 38॥ अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादाम्भोजा:। दृष्ट्या सुनिशिचतार्था, वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्या:॥ 39॥ शिव-मजर-मरुज-मक्षय-मव्याबाधं विशोकभयशङ्कम्। काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणा:॥ 40॥ देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं, राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोऽर्चनीयम्। धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं, लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्य:॥ 41॥ अन्यूनमनतिरिक्तं , याथातथ्यं विना च विपरीतात्। नि:संदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिन: ॥ 42॥ प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्। बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोध: समीचीन:॥ 43॥ लोकालोकविभक्ते र्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च। आदर्शमिव तथामति रवैति करणानुयोगं च ॥ 44॥ गृहमेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्। चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ 45॥ जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च। द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥ 46॥ मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान:। रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधु: ॥ 47॥ रागद्वेषनिवृत्तेर्हिंसादिनिवत्र्तना कृता भवति। अनपेक्षितार्थवृत्ति:, क: पुरुष: सेवते नृपतीन्॥ 48॥ हिंसानृतचौर्येभ्यो, मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च। पापप्रणालिकाभ्यो, विरति: संज्ञस्य चारित्रम्॥ 49॥ सकलं विकलं चरणं, तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम्। अनगाराणां विकलं, सागाराणां ससङ्गानाम् ॥ 50॥ गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणु-गुण-शिक्षाव्रतात्मकं चरणम्। पञ्चत्रिचतुर्भेदं त्रयं यथासंख्य-माख्यातम् ॥ 51॥ प्राणातिपातवितथव्याहारस्तेयकाममूच्र्छाभ्य: । स्थूलेभ्य: पापेभ्यो, व्युपरमणमणुव्रतं भवति॥ 52॥ सङ्कल्पात्कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान्। न हिनस्ति यत्तदाहु:, स्थूलवधाद्विरमणं निपुणा:॥ 53॥ छेदनबन्धनपीडऩमतिभारारोपणं व्यतीचारा:। आहारवारणापि च, स्थूलवधाद्व्युपरते: पञ्च॥ 54॥ स्थूलमलीकं न वदति, न परान् वादयति सत्यमपि विपदे। यत्तद्वदन्ति सन्त:, स्थूलमृषावादवैरमणम्॥ 55॥ परिवादरहोभ्याख्या, पैशुन्यं कूटलेखकरणं च। न्यासापहारितापि च, व्यतिक्रमा: पञ्च सत्यस्य ॥ 56॥ निहितं वा पतितं वा, सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टं। न हरति यन्न च दत्ते, तदकृशचौय्र्यादुपारमणम् ॥ 57॥ चौरप्रयोगचौरार्था- दानविलोपसदृशसनिमश्रा:। हीनाधिकविनिमानं, पञ्चास्तेये व्यतीपाता: ॥ 58॥ न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीतेर्यत्। सा परदारनिवृत्ति:, स्वदारसन्तोषनामापि॥ 59॥ अन्यविवाहाकरणानङ्गक्रीड़ा-विटत्व-विपुलतृष:। इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचारा:॥ 60॥ धनधान्यादिग्रन्थं, परिमाय ततोऽधिकेषु नि:स्पृहता। परिमितपरिग्रह: स्यादिच्छापरिमाणनामापि॥ 61॥ अतिवाहनातिसंग्रह-विस्मयलोभातिभारवहनानि। परिमितपरिग्रहस्य च, विक्षेपा: पञ्च लक्ष्यन्ते॥ 62॥ पञ्चाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमणा: फलन्ति सुरलोकम्। यत्रावधिरष्टगुणा, दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते ॥ 63॥ मातङ्गो धनदेवश्च, वारिषेणस्तत: पर:। नीली जयश्च सम्प्राप्ता:, पूजातिशयमुत्तमम् ॥ 64॥ धनश्रीसत्यघोषौ च, तापसारक्षकावपि। उपाख्येयास्तथा श्मश्रु-, नवनीतो यथाक्रमम्॥ 65॥ मद्यमांसमधुत्यागै:, सहाणुव्रतपञ्चकम्। अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा:॥ 66॥ दिग्व्रतमनर्थदण्ड, व्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम्। अनुबृंहणाद्गुणाना-, माख्यान्ति गुणव्रतान्यार्या:॥ 67॥ दिग्वलयं परिगणितं, कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। इति सङ्कल्पो दिग्व्रत-,मामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै॥ 68॥ मकराकरसरिदटवी, गिरिजनपदयोजनानि मर्यादा:। प्राहुर्दिशां दशानां, प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि॥ 69॥ अवधेर्बहिरणुपाप-, प्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयताम्। पञ्चमहाव्रतपरिणति-,मणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ 70॥ प्रत्याख्यानतनुत्वात्, मन्दतराश्चरणमोहपरिणामा:। सत्त्वेन दुरवधारा, महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते॥ 71॥ पञ्चानां पापानां, हिंसादीनां मनोवच:कायै:। कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम् ॥ 72॥ ऊध्र्वाधस्तात्तिर्यग्व्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धि-रवधीनाम्। विस्मरणं दिग्िवरतेरत्याशा: पञ्च मन्यन्ते॥ 73॥ अभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थिकेभ्य: सपापयोगेभ्य:। विरमणमनर्थदण्ड-, व्रतं विदुव्र्रतधराग्रण्य:॥ 74॥ पापोपदेश-हिंसादानापध्यानदु:श्रुती: पञ्च। प्राहु: प्रमादचर्या-, मनर्थदण्डानदण्डधरा:॥ 75॥ तिर्यक्क्लेशवणिज्या-, हिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम् । प्रसव: कथाप्रसङ्ग: , स्मत्र्तव्य: पाप उपदेश:॥ 76॥ परशुकृपाणखनित्र-, ज्वलनायुधशृङ्गिशृंखलादीनाम्। वधहेतूनां दानं, हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधा:॥ 77॥ वधबन्धच्छेदादे,द्र्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादे:। आध्यानमपध्यानं, शासति जिनशासने विशदा:॥ 78॥ आरम्भसङ्गसाहस-, मिथ्यात्वद्वेषराग-मदमदनै:। चेत: कलुषयतां श्रुति-, रवधीनां दु:श्रुतिर्भवति॥ 79॥ क्षितिसलिलदहनपवना-,रम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च, प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते॥ 80॥ कन्दर्पं कौत्कुच्यं, मौखर्यमतिप्रसाधनं पञ्च। असमीक्ष्य-चाधिकरणं, व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरते:॥ 81॥ अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम्। अर्थवतामप्यवधौ, रागरतीनां तनूकृतये॥ 82॥ भुक्त्वा परिहातव्यो,भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य:। उपभोगोऽशनवसनप्रभृति: पाञ्चेन्द्रियो विषय:॥ 83॥ त्रसहतिपरिहरणार्थं, क्षौदंर पिशितं प्रमादपरिहृतये। मद्यं च वर्जनीयं, जिनचरणौ शरणमुपयातै:॥ 84॥ अल्पफलबहुविघातान्, मूलक-माद्र्र्राणि शृङ्गवेराणि। नवनीतनिम्बकुसुमं, कैतक-मित्येव-मवहेयम्॥ 85॥ यदनिष्टं तद् व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्। अभिसन्धिकृता विरतिर्विषयाद्योग्याद्व्रतं भवति॥ 86॥ नियमो यमश्च विहितौ, द्वेधा भोगोपभोगसंहारात्। नियम: परिमितकालो, यावज्जीवं यमो ध्रियते॥ 87॥ भोजन-वाहन-शयन-स्नान-पवित्राङ्गरागकुसुमेषु । ताम्बूल-वसन-भूषण-मन्मथ-सङ्गीतगीतेषु॥ 88॥ अद्य दिवा रजनी वा, पक्षो मासस्तथर्तुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्या, प्रत्याख्यानं भवेनिनयम:॥ 89॥ विषयविषतोऽनुपेक्षा, नुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषाऽनुभवो। भोगोपभोगपरिमा, व्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते ॥ 90॥ देशावकाशिकं वा, सामयिकं प्रोषधोपवासो वा। वैयावृत्त्यं शिक्षा, व्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥91॥ देशावकाशिकं स्यात् कालपरिच्छेदनेन देशस्य। प्रत्यहमणुव्रतानां, प्रतिसंहारो विशालस्य॥ 92॥ गृहहारिग्रामाणां, क्षेत्रनदीदावयोजनानां च। देशावकाशिकस्य, स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धा:॥ 93॥ संवत्सरमृतुरयनं, मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च। देशावकाशिकस्य, प्राहु: कालावधिं प्राज्ञा:॥ 94॥ सीमान्तानां परत:, स्थूलेतरपञ्चपापसन्त्यागात्। देशावकाशिकेन च, महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते॥ 95॥ प्रेषणशब्दानयनं, रूपाभिव्यक्तिपुद्गलक्षेपौ। देशावकाशिकस्य, व्यपदिश्यन्तेऽत्यया: पञ्च॥ 96॥ आसमयमुक्ति-मुक्तं, पञ्चाघाना-मशेषभावेन। सर्वत्र च सामयिका:, सामयिकं नाम शंसन्ति॥ 97॥ मूर्धरुहमुष्टिवासो, बन्धं पय्र्यङ्कबन्धनं चापि। स्थानमुपवेशनं वा, समयं जानन्ति समयज्ञा:॥ 98॥ एकान्ते सामयिकं, निव्र्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च। चैत्यालयेषु वापि च, परिचेतव्यं प्रसन्नधिया॥ 99॥ व्यापार-वैमनस्याद्वि, निवृत्त्यामन्तरात्म -विनिवृत्त्या। सामयिकं बध्नीया-, दुपवासे चैकभुक्ते वा ॥ 100॥ सामयिकं प्रतिदिवसं, यथावदप्यनलसेन चेतव्यम्। व्रतपञ्चक-परिपूरण,- कारणमवधानयुक्तेन॥ 101॥ सामयिके सारम्भा:, परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि। चेलोपसृष्टमुनिरिव, गृही तदा याति यतिभावम्॥ 102॥ शीतोष्णदंशमशकपरीषहमुपसर्गमपि च मौनधरा:। सामयिकं प्रतिपन्ना, अधिकुर्वीरन्नचलयोगा:॥ 103॥ अशरण-मशुभ-मनित्यं,दु:ख-मनात्मानमावसामि भवम्। मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके॥ 104॥ वाक्कायमानसानां, दु:प्रणिधानान्यनादरास्मरणे। सामयिकस्यातिगमा, व्यज्यन्ते पञ्च भावेन ॥ 105॥ पर्वण्यष्टम्यां च, ज्ञातव्य: प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहाय्र्याणां, प्रत्याख्यानं सदेच्छाभि: ॥ 106॥ पञ्चानां पापाना-, मलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम्। स्नानाञ्जननस्याना-मुपवासे परिहृतिं कुय्र्यात् ॥ 107॥ धर्मामृतं सतृष्ण:, श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान्। ज्ञानध्यानपरो वा, भवतूपवसन्नतन्द्रालु: ॥ 108॥ चतुराहारविसर्जन-, मुपवास: प्रोषध: सकृद्भुक्ति:। स प्रोषधोपवासो, यदुपोष्यारम्भमाचरति॥ 109॥ ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्प्रोषधोपवास-, व्यतिलङ्घनपञ्चकं तदिदम् ॥ 110॥ दानं वैयावृत्यं, धर्माय तपोधनाय गुणनिधये। अनपेक्षितोपचारो-, पक्रियमगृहाय विभवेन॥ 111॥ व्यापत्तिव्यपनोद:, पदयो: संवाहनं च गुणरागात्। वैयावृत्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम् ॥ 112॥ नवपुण्यै: प्रतिपत्ति: सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन। अपसूनारम्भाणा,-मार्याणामिष्यते दानम् ॥ 113॥ गृहकर्मणापि निचितं, कर्म विमाषिर्ट खलु गृहविमुक्तानाम्। अतिथीनां प्रतिपूजा, रुधिरमलं धावते वारि॥ 114॥ उच्चैर्गोत्रं प्रणते,र्भोगो दानादुपासनात्पूजा। भक्ते: सुन्दररूपं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु॥ 115॥ क्षितिगतमिव वटबीजं, पात्रगतं दानमल्पमपि काले। फलतिच्छायाविभवं, बहुफलमिष्टं शरीरभृताम्॥ 116॥ आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन। वैयावृत्यं ब्रुवते, चतुरात्मत्वेन चतुरस्रा: ॥ 117॥ श्रीषेणवृषभसेने, कौण्डेश: सूकरश्च दृष्टान्ता:। वैयावृत्यस्यैते, चतुर्विकल्पस्य मन्तव्या: ॥ 118॥ देवाधिदेवचरणे, परिचरणं सर्वदु:खनिर्हरणम्। कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुयादादृतो नित्यम् ॥ 119॥ अर्हच्चरणसपर्या, महानुभावं महात्मनामवदत्। भेक: प्रमोदमत्त:, कुसुमेनैकेन राजगृहे॥ 120॥ हरितपिधाननिधाने, ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि। वैयावृत्यस्यैते, व्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते॥ 121॥ उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु: सल्लेखनामार्या: ॥ 122॥ अन्त:क्रियाधिकरणं, तप:फलं सकलदर्शिन: स्तुवते। तस्माद्यावद्विभवं, समाधिमरणे प्रयतितव्यम्॥ 123॥ स्नेहं वैरं सङ्गं, परिग्रहं चापहाय शुद्धमना:। स्वजनं परिजनमपि च, क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनै:॥ 124॥ आलोच्य सर्वमेन:, कृतकारित-मनुमतं च निव्र्याजम्। आरोपयेन्महाव्रत, -मामरणस्थायि नि:शेषम्॥ 125॥ शोकं भयमवसादं, क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा। सत्त्वोत्साहमुदीर्य च, मन: प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै:॥ 126॥ आहारं परिहाप्य, क्रमश: स्निग्धं विवद्र्धयेत्पानम्। स्निग्धं च हापयित्वा, खरपानं पूरयेत्क्रमश:॥ 127॥ खरपानहापनामपि, कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या। पञ्चनमस्कारमनास्तनुं, त्यजेत्सर्वयत्नेन॥ 128॥ जीवितमरणाशंसे , भयमित्रस्मृति-निदाननामान:। सल्लेखनातिचारा:, पञ्च जिनेन्द्रै: समादिष्टा:॥ 129॥ नि:श्रेयस-मभ्युदयं, निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्। नि:पिबति पीतधर्मा, सर्वैर्दु:खै-रनालीढ:॥ 130॥ जन्म-जरा-मय-मरणै:,शोकै-र्दु:खै-र्भयैश्च परिमुक्तम्। निर्वाणं शुद्धसुखं नि:श्रेयस-मिष्यते नित्यम्॥ 131॥ विद्यादर्शनशक्ति -, स्वास्थ्यप्रह्लादतृप्तिशुद्धियुज:। निरतिशया निरवधयो, नि:श्रेयसमावसन्ति सुखम्॥ 132॥ काले कल्पशतेऽपि च, गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात्,त्रिलोकसंभ्रान्तिकरणपटु:॥ 133॥ नि:श्रेयस-मधिपन्नास्,त्रैलोक्यशिखा-मणिश्रियं दधते। निष्किट्टिकालिकाच्छवि,-चामीकरभासुरात्मान:॥ 134॥ पूजार्थाज्ञैश्वर्यै, र्बल-परिजनकामभोगभूयिष्ठै:। अतिशयित-भुवन-मद्भुत,-मभ्युदयं फलति सद्धर्म:॥ 135॥ श्रावकपदानि देवै-,रेकादश देशितानि येषु खलु। स्वगुणा: पूर्वगुणै: सह, संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा:॥ 136॥ सम्यग्दर्शनशुद्ध:, संसारशरीरभोगनिर्विण्ण:। पञ्चगुरुचरणशरणो, दार्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य:॥ 137॥ निरतिक्रमण-मणुव्रत-, पञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि। धारयते नि:शल्यो, योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिक:॥ 138॥ चतुरावत्र्तत्रितयश्,चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात:। सामयिको द्विनिषद्यसित्र-, योगशुद्धसित्रसन्ध्यमभिवन्दी॥ 139॥ पर्वदिनेषु चतुष्र्वपि, मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य। प्रोषधनियमविधायी, प्रणधिपर: प्रोषधानशन:॥ 140॥ मूलफलशाकशाखा,करीरकन्दप्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं, सचित्तविरतो दयामूर्ति:॥ 141॥ अन्नं पानं खाद्यं, लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम्। स च रात्रिभुक्तिविरत:, सत्त्वेष्वनुकम्पमानमना:॥ 142॥ मलबीजं मलयोनिं, गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सम्। पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्वि-, रमति यो ब्रह्मचारी स:॥ 143॥ सेवाकृषिवाणिज्य-, प्रमुखादारम्भतो व्युपारमति। प्राणातिपातहेतो, र्योऽसावारम्भविनिवृत्त:॥ 144॥ बाह्येषु दशसु वस्तुषु, ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरत:। स्वस्थ: सन्तोषपर: परिचितपरिग्रहाद्विरत:॥ 145॥ अनुमतिरारम्भे वा, परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधी,-रनुमतिविरत: स मन्तव्य:॥ 146॥ गृहतो मुनिवनमित्वा, गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याशनस्तपस्यना्, नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर:॥ 147॥ पाप-मरातिर्धर्मो, बन्धुर्जीवस्य चेति निशिचन्वन्। समयं यदि जानीते, श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति॥ 148॥ येन स्वयं वीतकलङ्कविद्या, दृषिटक्रियारत्नकरण्डभावम्। नीतस्तमायाति पतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिसित्रषु विष्टपेषु॥ 149॥ सुखयतु सुखभूमि:, कामिनं कामिनीव, सुतमिव जननी मां, शुद्धशीला भुनक्तु। कुलमिव गुणभूषा, कन्यका संपुनीता- जिजनपतिपदपद्म, प्रेक्षिणी दृषिटलक्ष्मी:॥ 150॥
  8. शुभ-केलि के आनन्द के धन के मनोहर धाम हो, नरनाथ से सुरनाथ से पूजित चरण, गतकाम हो। सर्वज्ञ हो, सर्वोच्च हो, सबसे सदा संसार में, प्रज्ञा कला के सिन्धु हो, आदर्श हो आचार में॥ १॥ संसार-दु:ख के वैद्य हो, त्रैलोक्य के आधार हो, जय श्रीश! रत्नाकर प्रभो! अनुपम कृपा-अवतार हो। गतराग है, विज्ञप्ति मेरी मुग्ध की सुन लीजिये, क्योंकि प्रभो! तुम विज्ञ हो मुझको अभय वर दीजिए॥२॥ माता पिता के सामने बोली सुनाकर तोतली, करता नहीं क्या अज्ञ बालक बाल्य-वश लीलावली। अपने हृदय के हाल कों त्यों ही यथोचित रीति से मैं कह रहा हूँ, आपके आगे विनय से प्रीति से॥ ३॥ मैंने नहीं जग में कभी कुछ दान दीनों को दिया, मैं सच्चरित भी हूँ, नहीं मैंने नहीं तप भी किया। शुभ भावनाएँ भी हुईं, अब तक न इस संसार में, मैं घूमता हूँ, व्यर्थ ही भ्रम से भवोदधि-धार में॥ ४॥ क्रोधाग्नि से मैं रात दिन हा! जल रहा हूँ हे प्रभो! मैं लोभ नामक सांप से काटा गया हूँ, हे विभो! अभिमान के खल ग्राह से अज्ञानवश मैं ग्रस्त हूँ, किस भांति हों स्मृत आप, मायाजाल से मैं व्यस्त हूँ॥५॥ लोकेश! पर-हित भी किया मैंने न दोनों लोक में, सुख-लेश भी फिर क्यों मुझे हो, झींकता हूँ शोक में , जग में हमारे से नरों का जन्म ही बस व्यर्थ है, मानों जिनेश्वर! वह भवों की पूर्णता के अर्थ है॥ ६॥ प्रभु! आपने निज मुख सुधा का दान यद्यपि दे दिया, यह ठीक है, पर चित्त ने उसका न कुछ भी फल लिया आनन्द-रस में डूबकर सद्वृत्त वह होता नहीं, है वज्र सा मेरा हृदय, कारण बड़ा बस है यही॥ ७॥ रत्नत्रयी दुष्प्राप्य है प्रभु से उसे मैंने लिया, बहुकाल तक बहु बार जब जग का भ्रमण मैंने किया। हा खो गया वह भी विवश मैं नींद आलस के रहा, बतलाइये उसके लिए रोऊँ प्रभो! किसके यहाँ॥ ८॥ संसार ठगने के लिए वैराग्य को धारण किया, जग को रिझाने के लिए उपदेश धर्मों का दिया। झगड़ा मचाने के लिए मम जीभ पर विद्या बसी, निर्लज्ज हो कितनी उड़ाऊँ हे प्रभो! अपनी हँसी॥ ९॥ परदोष को कहकर सदा मेरा वदन दूषित हुआ, लख कर पराई नारियों को हा नयन दूषित हुआ, मन भी मलिन है सोचकर पर की बुराई हे प्रभो किस भाँति होगी लोक में मेरी भलाई हे प्रभो॥ १०॥ मैंने बड़ाई निज विवशता हो अवस्था के वशी, भक्षक रतीश्वर से हुई उत्पन्न जो दुख-राक्षसी। हा! आपके सम्मुख उसे अति लाज से प्रकटित किया, सर्वज्ञ! हो सब जानते स्वयमेव संसृति की क्रिया ॥ ११॥ अन्यान्य मन्त्रों से परम परमेष्ठि-मंत्र हटा दिया, सच्छास्त्र-वाक्यों को कुशास्त्रों से दबा मैंने दिया। विधि-उदय को करने वृथा, मैंने कुदेवाश्रय लिया, हे नाथ, यों भ्रमवश अहित मैंने नहीं क्या क्या किया॥ १२ हा, तज दिया मैंने प्रभो! प्रत्यक्ष पाकर आपको, अज्ञान वश मैंने किया फिर देखिये किस पाप को। वामाक्षियों के राग में रत हो सदा मरता रहा, उनके विलासों के हृदय में ध्यान को धरता रहा॥ १३॥ लखकर चपल-दृग-युवतियों के मुख मनोहर रसमई, जो मन-पटल पर राग भावों की मलिनता बस गई। वह शास्त्र-निधि के शुद्ध जल से भी न क्यों धोई गई ? बतलाइये यह आप ही मम बुद्धि तो खोई गई॥ १४॥ मुझमें न अपने अंग में सौन्दर्य का आभास है, मुझमें न गुण गण है विमल, न कला-कलाप-विलास है। प्रभुता न मुझमें स्वप्न को भी चमकती है, देखिये, तो भी भरा हूँ गर्व से मैं मूढ़ हो किसके लिए ॥ १५॥ हा नित्य घटती आयु है पर पाप-मति घटती नहीं, आई बुढ़ोती पर विषय से कामना हटती नहीं। मैं यत्न करता हूँ, दवा मैं, धर्म मैं करता नहीं, दुर्मोह-महिमा से ग्रसित हूँ नाथ! बच सकता नहीं॥ १६॥ अघ-पुण्य को भव-आत्म को मैंने कभी माना नहीं, हो आप आगे हैं खड़े दिननाथ से यद्यपि यहीं। तो भी खलों के वाक्य को मैंने सुना कानों वृथा, धिक्कार मुझको है, गया मम जन्म ही मानो वृथा॥ १७॥ सत्पात्र-पूजन देव-पूजन कुछ नहीं मैंने किया, मुनिधर्म श्रावक धर्म का भी नहिं सविधि पालन किया। नर-जन्म पाकर भी वृथा ही मैं उसे खोता रहा, मानो अकेला घोर वन में व्यर्थ ही रोता रहा॥ १८॥ प्रत्यक्ष सुखकर जिन-धरम में प्रीति मेरी थी नहीं, जिननाथ! मेरी देखिये है मूढ़ता भारी यही। हा! कामधुक कल्पद्रुमादिक के यहाँ रहते हुए, हमने गँवाया जन्म को धिक्कार दुख सहते हुए॥ १९॥ मैंने न रोका रोग-दुख संभोग-सुख देखा किया। मन में न माना मृत्यु-भय-धन-लाभ ही लेखा किया। हा! मैं अधम युवती-जनों का ध्यान नित करता रहा, पर नरक-कारागार से मन में न मैं डरता रहा॥ २०॥ सद्वृत्ति से मन में न मैंने साधुता हा साधिता, उपकार करके कीर्ति भी मैंने नहीं कुछ अर्जिता। शुभतीर्थ के उद्धार आदिक कार्य कर पाये नहीं, नर-जन्म पारस-तुल्य निज मैंने गँवाया व्यर्थ ही॥ २१॥ शास्त्रोक्त विधि वैराग्य भी करना मुझे आता नहीं, खल-वाक्य भी गत क्रोध हो सहना मुझे आता नहीं। अध्यात्म-विद्या है न मुझमें है न कोई सत्कला, फिर देव ! कैसे यह भवोदधि पार होवेगा भला॥ २२॥ सत्कर्म पहले जन्म में मैंने किया कोई नहीं, आशा नहीं जन्मान्य में उसको करूँगा मैं कहीं। इस भांति का यदि हूँ जिनेश्वर! क्यों न मुझको कष्ट हों। संसार में फिर जन्म तीनों क्यों न मेरे नष्ट हों॥ २३॥ हे पूज्य! अपने चरित को बहुभांति गाऊं क्या वृथा, कुछ भी नहीं तुमसे छिपी है पापमय मेरी कथा। क्योंकि त्रिजग के रू प हो तुम, ईश हो सर्वज्ञ हो, पथ के प्रदर्शक हो,तुम्हीं मम चित्त के मर्मज्ञ हो॥ २४॥ दीनोद्धारक धीर आप सा अन्य नहीं है, कृपा-पात्र भी नाथ ! न मुझसा अवर कहीं है। तो भी माँगू नहीं धान्य धन कभी भूल कर, अर्हन् ! केवल बोधिरत्न होवे मंगलकर॥२५॥ श्री रत्नाकर गुणगान यह दुरित दु:ख सबके हरे। बस एक यही है प्रार्थना मंगलमय जग को करे॥
  9. प्रणिपत्य वद्र्धमानं प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकां वक्ष्ये। नागनरामरवन्द्यं देवं देवाधिपं वीरम् ॥ १॥ क: खलु नालंक्रियते दृष्टादृष्टार्थ-साधनपटीयान्। कण्ठस्थितया विमल-प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकया॥ २॥ भगवन् कि मुपादेयं गुरुवचनं हेयमपि च किमकार्यम्। को गुरुरधिगततत्त्व: सत्त्वहिताभ्युद्यत: सततम्॥ ३॥ त्वरितं किं कत्र्तव्यं विदुषा संसार-सन्ततिच्छेद:। किं मोक्षतरोर्बीजं सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम् ॥ ४॥ किं पथ्यदनं धर्म: क: शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम्। क: पण्डितो विवेकी किं विषमवधीरिता गुरव:॥ ५॥ किं संसारे सारं बहुशोऽपि विचिन्त्यमानमिदमेव। मनुजेषु दृष्टतत्त्वं स्वपरहितायोद्यतं जन्म॥ ६॥ मदिरेव मोहजनक: क: स्नेह: के च दस्यवो विषया:। का भव वल्ली तृष्णा को वैरी नन्वनुद्योग:॥ ७॥ कस्माद्भयमिह मरणादन्धादपि को विशिष्यते रागी। क: शूरो यो ललनालोचनवाणै र्न च व्यथित: ॥ ८॥ पातुं कर्णाञ्जलिभि: किममृतमिव बुध्यते सदुपदेश:। किं गुरुताया मूलं यदेतदप्रार्थनं नाम ॥ ९॥ किं गहनं स्त्रीचरितं कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन। किं दारिद्र्यमसंतोष एवं किं लाघवं याञ्चा ॥ १०॥ किं जीवितमनवद्यं किं जाड्यं पाटवेऽप्यनभ्यास:। को जागर्ति विवेकी का निद्रा मूढता जन्तो:॥ ११॥ नलिनीदलगतजललव-तरलं किं यौवनं धनमथायु:। के शशधरकरनिकरा-नुकारिण: सज्जना एव॥१२॥ को नरक: परवशता किं सौख्यं सर्वसंगविरतिर्या। किं सत्यं भूतहितं किं प्रेय: प्राणिनामसव:॥१३॥ किं दानमनाकाङ्क्षं किं मित्रं यन्निवर्तयति पापात्। कोऽलंकार: शीलं, किं वाचां मण्डनं ! सत्यम्॥१४॥ किमनर्थफलं मानसमसंगतं का सुखावहा मैत्री। सर्वव्यसनविनाशे को दक्ष: सर्वथा त्याग:॥ १५॥ कोऽन्धो योऽकार्यरत: को बधिरो य: शृणोति न हितानि। को मूको य: काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति॥ १६॥ किं मरणं मूर्खत्वं किं चानघ्र्यं यदवसरे दत्तम्। आमरणात्किं शल्यं प्रच्छन्नं यत्कृतमकार्यम्॥ १७॥ कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधे दाने। अवधीरणा क्व कार्या खल परयोषित्परधनेषु॥ १८॥ काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न च प्रमदा। का प्रेयसी विधेया करुणादाक्षिण्यमपि मैत्री॥ १९॥ कण्ठगतैरप्यसुभि: कस्यात्मा नो समप्र्यते जातु। मूर्खस्य विषादस्य च गर्वस्य तथा कृतघ्नस्य॥ २०॥ क: पूज्य: सद्वृत्त: कमधनमाचक्षते चलितवृत्तम्। केन जितं जगमेतत् सत्यतितिक्षावता पुंसा॥ २१॥ कस्मै नम: सुरैरपि सुतरां क्रियते दयाप्रधानाय। कस्मादुद्विजितव्यं संसारारण्यत: सुधिया॥ २२॥ कस्य वशे प्राणिगण: सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य। क्व स्थातव्यं न्याय्ये पथि दृष्टादृष्टलाभाय॥ २३॥ विद्युविलसितचपलं किं दुर्जनं संगतं युवतयश्च। कुलशैलनिष्प्रकम्पा: के कलिकालेऽपि सत्पुरुष:॥ २४॥ किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम्। तनुतरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम्॥ २५॥ चिन्तामणिरिव दुर्लभ-मिह ननु कथयामि चतुर्भद्रम्। किं तद्वदन्ति भूयो विधूत तमसो विशेषेण॥ २६॥ दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्। त्यागसहितं च वित्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम् ॥ २७॥ इति कण्ठगता विमला प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका येषाम्। ते मुक्ताभरणा अपि विभान्ति विद्वत्समाजेषु॥ २८॥ विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका। रचितोऽमोघवर्षेण सुधियां सदलंकृति:॥ २९॥
  10. श्रीमदमरेन्द्र-मुकुट-प्रघटित-मणि-किरणवारि-धाराभि:। प्रक्षालितपद-युगलान्, प्रणमामि जिनेश्वरान् भक्त्या॥ १॥ अष्टगुणै:समुपेतान्, प्रणष्ट-दुष्टाष्टकर्म-रिपुसमितीन्। सिद्धान् सततमनन्तान्, नमस्करोमीष्ट तुष्टि संसिद्धयै॥ २॥ साचारश्रुतजलधीन्-,प्रतीर्यशुद्धोरुचरण-निरतानाम्। आचार्याणां पदयुग-, कमलानि दधे शिरसि मेऽहम्॥ ३॥ मिथ्या - वादि - मद्रोग्र-ध्वान्त-प्रध्वंसि-वचन-संदर्भान्। उपदेशकान् प्रपद्ये, मम दुरितारि-प्रणाशाय॥ ४॥ सम्यग्दर्शन - दीप - प्रकाशका - मेय-बोध-सम्भूता:। भूरि-चरित्र-पताकास्, ते साधु-गणास्तु मां पान्तु॥ ५॥ जिन-सिद्ध-सूरि-देशक-,साधु-वरानमल गुण गणोपेतान्। पञ्चनमस्कारपदैस् त्रिसन्ध्य-मभिनौमि मोक्षलाभाय॥ ६॥ एष पञ्चनमस्कार:, सर्व-पापप्रणाशन:। मङ्गलानां च सर्वेषां, प्रथमं मंगलं भवेत् ॥७॥ अर्हत्सिद्धाचार्यो-पाध्याया: सर्वसाधव:। कुर्वन्तु मङ्गला: सर्वे, निर्वाण-परमश्रियम् ॥ ८॥ सर्वान् जिनेन्द्र चन्द्रान्, सिद्धानाचार्य पाठकान् साधून्। रत्नत्रयं च वन्दे रत्नत्रय-सिद्धये भक्त्या ॥ ९॥ पान्तु श्रीपाद-पद्मानि पञ्चानां परमेष्ठिनाम्। लालितानि सुराधीश, चूडामणि मरीचिभि:॥ १०॥ प्रातिहार्यैर्जिनान् सिद्धान्, गुणै: सूरीन् स्वमातृभि:। पाठकान् विनयै: साधून्, योगाङ्गै-रष्टभि: स्तुवे॥ ११॥ अंचलिका इच्छामि भंते! पंचमहागुरु-भत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं , अट्ठ-महा-पाडिहेर-संजुत्ताणं अरहंताणं, अट्ठ-गुण-संपण्णाणं, उड्ढलोय मत्थयम्मि पइट्ठियाणं सिद्धाणं, अट्ठ-पवयण-माउया संजुत्ताणं आयरियाणं आयारादि सुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, ति-रयण-गुण पालणरदाणं सव्वसाहूणं, णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो,सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं, जिण-गुणसंपत्ति होउ मज्झं।
  11. मणुयणाइंद - सुर-धरिय-छत्तत्तया, पंचकल्लाण - सोक्खावली-पत्तया। दंसणं णाण झाणं अणंतं बलं, ते जिणा दिंतु अम्हं वरं मंगलं॥ जेहिं झाणग्गि-बाणेहिं अइ-दड्ढयं, जम्म-जर-मरण-णयरत्तयं दड्ढयं, जेहिं पत्तं सिवं सासयं ठाणयं, ते महं दिंतु सिद्धा वरं णाणयं॥ पंचहाचार - पंचग्गि - संसाहया, बारसंगाइ - सुअ - जलहि-अवगाहया। मोक्ख-लच्छी महंती महंते सया, सूरिणो दिंतु मोक्खंगया संगया॥ घोर - संसार - भीमाडवी - काणणे, तिक्ख-वियरालणह-पाव-पंचाणणे। ण-मग्गाण जीवाण पहदेसिया, वंदिमो ते उवज्झाय अम्हे सया॥ उग्ग-तव-चरण-करणेहिं झीणं गया, धम्म-वर-झाण-सुक्केक्क-झाणं गया। णिब्भरं तव सिरीए समालिंगया, साहवो ते महं मोक्ख-पह-मग्गया॥ एण थोत्तेण जो पंचगुरु वंदए, गुरुय-संसार-घण-वेल्लि सो छिंदए। लहइ सो सिद्धि-सोक्खाइं बहुमाणणं, कुणइ कम्मिंधणं पुंज-पज्जालणं॥ अरुहा सिद्धा-इरिया उवज्झाया साहु-पंचपरमेी। एयाण-णमोयारा भवे भवे मम सुहं दिंतु॥ अञ्चलिका इच्छामि भंते! पंचमहागुरुभत्तिं काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं, अ-महा-पाडिहेर-संजुत्ताणं अरिहंताणं, अ-गुण-संपण्णाणं उड्ढ-लोय-मत्थयम्मि पइियाणं सिद्धाणं, अ-पवयण-माउ-संजुत्ताणं आयरियाणं, आयारादि-सुद-णाणोवदेसयाणं, उवज्झायाणं, ति-रयण-गुण-पालणरयाणं सव्वसाहूणं, णिच्चकालं, अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं, जिण-गुण-संपत्ति होदु मज्झं।
  12. सुरपति शिर पर किरीट धारा, जिसमें मणियाँ कई हजारा। मणि की द्युति-जल से धुलते हैं, प्रभु पद नमता सुख फलते हैं१ सम्यक्त्वादिक वसु-गुण धारे,वसु-विध विधि रिपुनाशन हारे अनेक-सिद्धों को नमता हूँ, इष्ट-सिद्धि पाता समता हूँ॥ २॥ श्रुतसागर को पार किया है, शुचि संयम का सार लिया है। सूरीश्वर के पद-कमलों को, शिर पर रख लूं दुख-दलनों को॥ ३ उन्मार्गी के मद-तम हरते, जिनके मुख से प्रवचन झरते। उपाध्याय ये सुमरण करलूँ, पाप नष्ट हो सु-मरण करलूँ॥ ४॥ समदर्शन के दीपक द्वारा, सदा प्रकाशित बोध सुधारा। साधु चरित के ध्वजा कहाते,दे-दे मुझको छाया तातैं॥ ५॥ विमल गुणालय-सिद्ध जिनों को,उपदेशक मुनि-गणी गणों को। नमस्कार पद पंच इन्हीं से, त्रिधा नमूँ शिव मिले इसी से॥ ६॥ नमस्कार वर मन्त्र यही है, पाप नसाता देर नहीं है। मंगल-मंगल बात सुनी है,आदिम मंगल-मात्र यही है॥ ७॥ सिद्ध शुद्ध हैं जय अरहन्ता, गणी पाठका जय ऋषि संता। करें धरा पर मंगल साता, हमें बना दें शिव सुख धाता॥ ८॥ सिद्धों को जिनवर चन्द्रों को, गण नायक पाठक वृन्दों को। रत्नत्रय को साधु जनों को, वन्दूं पाने उन्हीं गुणों को॥ ९॥ सुरपति चूड़ामणि-किरणों से, लालित सेवित शतों दलों से। पाँचों परमेष्ठी के प्यारे, पादपद्म ये हमें सहारे॥१०॥ महाप्रातिहार्यों से जिनकी, शुद्ध गुणों से सुसिद्ध गण की। अष्टमातृकाओं से गणि की, शिष्यों से उपदेशक गण की। वसु विध योगांगों से मुनि की, करूँसदा थुति शुचि से मन की दोहा पंचमहागुरु भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु तव संसर्ग॥ १२॥ (ज्ञानोदय छन्द) लोक शिखर पर सिद्ध विराजे अगणित गुणगण मण्डित हैं। प्रातिहार्य आठों से मण्डित जिनवर पण्डित-पण्डित हैं। पंचाचारों रत्नत्रय से शोभित हो आचार्य महा। शिव पथ चलते और चलाते औरों को भी आर्य यहाँ॥१३॥ उपाध्याय उपदेश सदा दे चरित बोध का शिव पथ का रत्नत्रय पालन में रत हो साधु सहारा जिनमत का। भाव भक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर-कर निज मन को वंदूं पूजूं अर्चन कर लूँ नमन करूँ मैं गुरुगण को॥१४॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ !॥१५॥
  13. (ज्ञानोदय छन्द) अतुल रहा है अचल रहा है विपुल रहा है विमल रहा। निरा निरामय निरुपम शिवसुख मिला वीर को सबल रहा। नर - नागेन्द्रों खगपतियों से अमरेन्द्रों से वन्दित हैं। भूतेन्द्रों से यक्षेन्द्रों से, कुबेर से अभिनन्दित हैं॥ १॥ औरों का वह भाग्य कहाँ है पाँच-पाँच कल्याण गहे। भविक जनों को तुष्टि दिलाते वर्धमान वरदान रहे। तीन लोक के आप परम गुरु पाप मात्र से दूर रहे। स्तवन करूँ तव भाव-भक्ति से पुण्य भाव का पूर रहे॥ २॥ दीर्घ दिव्य सुख-भोग भोगते पुष्पोत्तर के स्वामी हो। आयु पूर्णकर अच्युत से च्युत हो शिवसुख परिणामी हो। आषाढ़ी के शुक्लपक्ष की छटी छठी तिथि में उतरे। हस्तोत्तर के मध्य शशी है नभ में तारकगण बिखरे॥ ३॥ विदेहनामा कुण्डपुरी है प्रतिभा - रत इस भारत में। प्रियंकारिणी देवी त्रिशला सेवारत सिद्धारथ में। शुभफल देने वाले सोलह स्वप्नों को तो दिया दिखा। वैभवशाली यहाँ गर्भ में बालक आया दिया दिखा॥ ४॥ चैत्र मास है शुक्लपक्ष है तेरस का शुभ दिवस रहा महावीर का धीर वीर का जनम हुआ यश बरस रहा। तभी उत्तरा फाल्गुनि पर था शशाक का भी संग रहा। शेष सौम्य ग्रह निज उत्तम पद गहे लग्न भी चंग रहा॥ ५॥ अगला दिन वह चतुर्दशी का हस्ताश्रित है सोम रहा। उषाकाल से प्रथम याम में शान्त-शान्त भू-व्योम रहा। पाण्डुक की शुचि मणी शिला पर बिठा वीर को इन्द्रों ने। न्हवन कराया रत्नघटों से देखा उस को देवों ने॥ ६॥ तीन दशक तक कुमार रहकर अनन्त गुण से खिले हुये। भोगों उपभोगों को भोगा देवों से जो मिले हुये। तभी यकायक उदासीन से अनासक्त हो विषयों से। और वीर ये सम्बोधित हो ब्रह्मलोक के ऋषियों से॥ ७॥ झालर झूमर मणियां लटकी झरझुर-झरझुर रूपवती। चन्द्रप्रभा यह दिव्य पालिका रची हुई बहुकूटवती। वीर हुये आरुढ़ इसी पर कुण्डपुरी से निकल गये। वीतराग को राग देखता जन-जन परिजन विकल हुये॥ ८॥ मगशिर का यह मास रहा है और कृष्ण का पक्ष रहा। यथा जन्म में हस्तोत्तर के मध्य शशी अध्यक्ष रहा। दशमी का मध्याह्न काल है बेले का संकल्प किया। वीर आप जिन बने दिगम्बर मन को चिर अविकल्प किया॥ ग्राम नगर में प्रतिपट्टण में पुर - गोपुर में गोकुल में। अनियत विहार करते प्रतिदिन निर्जन जन-जन संकुल में। द्वादश वर्षों द्वादश विध तप उग्र-उग्रतर तपते हैं। अमर समर सब जिन्हें पूजते कष्टों में ना कँपते हैं॥ १०॥ ऋजुकूला सरिता के तट पर बसा जृंभिका गाँव रहा। शिला बिछी है सहज सदी से शाल वृक्ष की छाँव जहाँ। खड़े हुये मध्याह्न काल में दो दिन के उपवास लिए। आत्मध्यान में लीन हुये हैं तन का ना अहसास किये॥ ११॥ तिथि दशमी वैशाख मास है शुक्लपक्ष का स्वागत है। हस्तोत्तर के मध्य शशी है शान्त कान्ति से भास्वत है। क्षपक श्रेणी पर वीर चढ़ गये निर्भय हो भव-भीत हुये। घाति-घात कर दिव्य बोध को पाये, मृदु नवनीत हुये॥ १२॥ नयन मनोहर हर दिल हरते हर्षित हो प्रति अंग यहाँ। महावीर वैभारगिरि पर लाये चउविध संघ महा। श्रमण-श्रमणियाँ तथा श्राविका-श्रावकगण सागारों में। गौतम गणधर प्रमुख रहे हैं ऋषि यति मुनि अनगारों में॥ १३॥ दुम-दुम-दुम-दुम दुंदुभि बजना दिव्यध्वनी का वह खिरना। सुरभित सुमनावलि का गिरना चउसठ चामर का ढुरना। तीन छत्र का सिर पर फिरना औ भामण्डल का घिरना। स्फटिक मणी का सिंहासन सो अशोक तरु का भी तनना। समवसरण में प्रातिहार्य का हुआ वीर को यूँ मिलना॥ १४॥ सागारों को ग्यारह प्रतिमाओं का है उपदेश दिया। अनगारों को क्षमादि दशविध धर्मों का निर्देश दिया। इस विध धर्मामृत की वर्षा करते विहार करते हैं। तीस वर्ष तक वीर निरन्तर जग का सुधार करते हैं॥ १५॥ कई सरोवर परिसर जिनमें भांति-भांति के कमल खिले। तरह-तरह के लघु गुरु तरुवर फूले महके सफल फले। अमर रमे रमणीय मनोरम पावानगरी उपवन में। बाह्य खड़े जिन तनूत्सर्ग में भीतर में तो चेतन में॥ १६॥ कार्तिक का यह मास रहा है तथा कृष्ण का पक्ष रहा। कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि है स्वाती का तो ऋक्ष रहा। शेष रहे थे चउकर्मों को वद्र्धमान ने नष्ट किया। अजर अमर बन अक्षयसुख से आतम को परिपुष्ट किया॥ १७॥ प्राप्त किया निर्वाण दशा को वीर चले शिव-धाम गये। ज्ञात किया बस इन्द्र उतरते धरती पर जिन नाम लिये। धरती दुर्लभ देवदारु है स्वर्ग सुलभ लहु-चन्दन है। कालागुरु गोशीर्ष साथ है लाये सुरभित नन्दन है॥ १८॥ धूप फलों से जिनवर तन का गणधर का अर्चन करके। अनलेन्द्रों के मुकुट अनल से जला वीर तन पल भर में। वैमानिक सुर तो स्वर्गों में ज्योतिष नभ में यानों में। व्यंतर बिखरे निज निज वन में शेष गये बस भवनों में॥ १९॥ इस विध दोनों संध्याओं में तन से मन से भाषा से। वद्र्धमान का स्तोत्र पाठ जो करते हैं बिन आशा से। देव लोक में मनुज लोक में अनन्य दुर्लभ सुख पाते। और अन्त में शिवपद पाते किन्तु लौटकर ना आते॥ २०॥ गणधर देवों श्रुतपारों के तीर्थकरों के अन्त जहाँ। वहीं बनी निर्वाणभूमियाँ भारत सो यशवन्त रहा। शुद्ध वचन से मन से तन से नमन उन्हें शत बार करूँ। स्तवन उन्हीं का करुँ आज मैं बार-बार जयकार करूँ ॥ २१॥ प्रथम तीर्थकर महामना वे पूर्ण-शील से युक्त हुये। शैल-शिखर कैलाश जहाँ पर कर्म-काय से मुक्त हुये। चम्पापुर में वासुपूज्य ये परम पूज्य पद पाये हैं। राग-रहित हो बन्ध-रहित हो अपनी धी में आये हैं ॥ २२॥ जिसको पाने स्वर्गों में भी देवलोक भी तरस रहे। साधु गवेषक बने उसी के इसीलिए कट दिवस रहे। ऊर्जयन्त गिरनारगिरि पर निज में निज को साध लिया। अरिष्ट नेमी कर्म नष्टकर सिद्धि सुधा का स्वाद लिया॥ २३॥ पावापुर के बाहर आते विशाल उन्नत थान रहा। जिसको घेरे कमल-सरोवर नन्दन-सा छविमान रहा। यहीं पाप धो धवलिम होकर वर्धमान निर्वाण गहे। पूजूँ वन्दूँ अर्चन करलूँ ज्ञानोदय गुणखान रहे॥ २४॥ मोह मल्ल को जीत लिया जो बीस तीर्थकर शेष रहे। ज्ञान-भानु से किया प्रकाशित त्रिभुवन को अनिमेष रहे। तीर्थराज सम्मेदाचल पर योगों का प्रतिकार किया। असीम सुख में डूब गये फिर भवसागर का पार लिया॥ २५॥ विहार रोके चउदह दिन तक वृषभदेव फिर मुक्त हुये। वर्धमान को लगे दिवस दो अयोग बनकर गुप्त हुये। शेष तीर्थकर तनूत्सर्ग में एक मास तक शान्त रहे। सयोगपन तज अयोगगुण पा लोकशिखर का प्रान्त गहे॥ २६॥ वचनमयी थुदि कुसुमों से जो मालाओं का बना-बना। मानस-कर से दिशा दिशा में बिखरायें हम सुहावना। इन तीर्थों की परिक्रमा भी सादर सविनय सदा करें। यही प्रार्थना किन्तु करें हम सिद्धि मिले आपदा टरे॥ २७॥ पक्षपात तज कर्मपक्ष पर पाण्डव तीनों टूट पड़े। शत्रुंजयगिरि पर शत्रुंजय बने बन्ध से छूट पड़े। तुंगीगिरि पर अंग-रहित हो राम सदा अभिराम बने। नदी तीर पर स्वर्णभद्र मुनि बने सिद्ध विधिकाम हने॥ २८॥ सिद्धकूट वैभार तुंग पर श्रमणाचल विपुलाचल में। पावन कुण्डलगिरि पर मुक्तागिरि पर श्री विंध्याचल में। तप के साधन द्रोणागिरि पर पौदनपुर के अंचल में। सिंह दहाड़े सह्याचल में दुर्गम बलाहकाचल में॥ २९॥ गजदल टहले गजपंथा में हिम गिरता हिमगिरिवर में। दंडात्मक पृथुसार यष्टि में पूज्य प्रतिष्ठक भूधर में। साधु-साधना करते बनते निर्मल पंचमगति पाते। स्थान हुये ये प्रसिद्ध-जग में करलूँ इनकी थुदि तातैं॥ ३०॥ पुण्य पुरुष ये जहाँ विचरते पुजती धरती माटी है। आटे में गुड़ मिलता जैसे और मधुरता आती है॥ ३१॥ गणधर देवों अरहन्तों की मौनमना मुनिराजों की। कहीं गईं निर्वाणभूमियाँ मुझसे कुछ गिरिराजों की। विजितमना जिन शान्तमना मुनि जो हैं भय से दूर सदा। यही प्रार्थना मेरी उनसे सद्गति दें सुख पूर सुधा॥ ३२॥ वृषभ वृषभ का चिन्ह अजित का गज संभव का घोट रहा। अभिनन्दन का वानर माना और सुमति का कोक रहा। छटे सातवें अष्टम जिन का सरोज स्वस्तिक चन्दा है। नवम दशम ग्यारहवें जिन का मकर कल्पतरु गेंडा है॥ ३३॥ वासुपूज्य का भैंसा सूकर विमलनाथ का औ सेही। अनन्त का है वज्र धर्म का शान्तिनाथ का मृगदेही। कुन्थु अरह का अज मीना है कलश मल्लि का कूर्म रहा। मुनिसुव्रत का नमी नेमि का नील कमल है शंख रहा। पाश्र्वनाथ का नाग रहा है वर्धमान का सिंह रहा॥ ३४॥ उग्रवंश के पाश्र्वनाथ हैं नाथवंश के वीर रहे। मुनिसुव्रत और नेमिनाथ हैं यदुवंशी हैं धीर रहे। कुरुवंशी हैं शान्तिनाथ हैं कुन्थुनाथ अरनाथ रहे। रहे शेष इक्ष्वाकुवंश के इन पद में मम माथ रहे॥ ३५॥ (दोहा) निर्वाणों की भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ! ले प्रभु ! तव संसर्ग॥ ३६॥ काल बीतता चतुर्थ में जब पक्ष नवासी शेष रहे। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के सौ सौ श्वाँसें शेष रहे॥ भोर स्वाति की पावा में है वर्धमान शिव-धाम गये देव चतुर्विध साथ स्वजन ले लो आते जिन नाम लिये॥ ३७॥ दिव्यगन्ध ले, दिव्य दीप ले, दिव्य-दिव्य ले सुमनलता। दिव्य चूर्ण ले, दिव्य न्हवन ले, दिव्य-दिव्य ले वसन तथा। अर्चन, पूजन, वन्दन करते, करते नियमित नमन सभी। निर्वाणक कल्याण मनाकर करते निज घर गमन तभी॥ ३८॥ सिद्धभूमियों को नित मैं भी यही भाव निर्मल करके अर्चन पूजन वन्दन करता प्रणाम करता झुक करके। कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥३९॥
  14. विबुधपति-खगपति-नरपति-धनदोरग-भूतयक्षपतिमहितम्। अतुलसुख-विमलनिरुपम-शिवमचलमनामयं हि संप्राप्तम्॥१॥ कल्याणै: - संस्तोष्ये पञ्चभिरनघं त्रिलोक परमगुरुम्। भव्यजनतुष्टि-जननैर्दुरवापै: सन्मतिं भक्त्या॥ २॥ आषाढसुसितषष्ठ्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते शशिनि। आयात: स्वर्गसुखं भुक्त्वा पुष्पोत्तराधीश:॥ ३॥ सिद्धार्थनृपतितनयो भारतवास्ये विदेहकुण्डपुरे। देव्यां प्रियकारिण्यां सुस्वप्नान् संप्रदश्र्य विभु:॥ ४॥ चैत्रसितपक्षफाल्गुनि-शशाङ्कयोगे दिने त्रयोदश्याम्। जज्ञे स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषु सौम्येषु शुभलग्ने॥ ५॥ हस्ताश्रिते शशाङ्के चैत्र ज्योत्स्ने चतुर्दशी दिवसे। पूर्वाण्हे रत्नघटैर्विबुधेन्द्राश्चक्रुरभिषेकम्॥ ६॥ भुक्त्वा कुमारकाले त्रिंशद्वर्षाण्यनन्त गुणराशि:। अमरोपनीतभोगान् सहसाभिनिबोधितोऽन्येद्यु:॥ ७॥ नानाविधरूपचितां विचित्रकूटोच्छ्रितां मणिविभूषाम्। चन्द्रप्रभाख्यशिविकामारुह्य पुराद्विनि:क्रान्त:॥ ८॥ मार्गशिरकृष्णदशमी-हस्तोत्तर मध्यमाश्रिते सोमे। षष्ठेन त्वपराण्हे भक्तेन जिन: प्रवव्राज॥ ९॥ ग्रामपुरखेट कर्वट-मटंब घोषाकरान्प्रविजहार। उग्रैस्तपो-विधानैर्-द्वादश-वर्षाण्यमर पूज्य:॥ १०॥ ऋजु-कूलायास्तीरे शालद्रुम संश्रिते शिलापट्टे। अपराण्हे षष्ठेनास्थितस्य खलु जृंभिकाग्रामे॥ ११॥ वैशाखसित-दशम्यां हस्तोत्तर-मध्यमाश्रिते चन्द्रे। क्षपक-श्रेण्यारूढ-स्योत्पन्नं केवलज्ञानम् ॥१२॥ अथ भगवान् संप्रापद्-दिव्यं वैभारपर्वतं रम्यम् । चातुर्वण्र्य सुसङ्घस्तत्राभूद् गौतम-प्रभृति:॥ १३॥ छत्राशोकौ घोषं सिंहासन दुंदुभी कुसुमवृष्टिम्। वरचामर भामण्डल-दिव्यान्यन्यानि चावापत्॥ १४॥ दशविधमनगाराणा-मेकादशधोत्तरं तथा धर्मम्। देशयमानो व्यवहरंस्-त्रिंशद्वर्षाण्यथ जिनेन्द्र:॥ १५॥ पद्मवनदीर्घिकाकुल-विविध द्रुमखण्ड मण्डिते रम्ये। पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थित: स मुनि:॥ १६॥ कार्तिककृष्ण - स्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्यकर्मरज:। अवशेषं संप्रापद्व्यजरामरमक्षयं सौख्यम्॥ १७॥ परिनिर्वृतं जिनेन्द्रं ज्ञात्वा विबुधाह्यथाशु चागम्य। देवतरुरक्तचन्दन - कालागुरु - सुरभिगोशीर्षै:॥ १८॥ अग्नीन्द्राज्जिनदेहं मुकुटानलसुरभि-धूपवरमाल्यै:। अभ्यच्र्य गणधरानपि गतादिवं खं च वनभवने॥ १९॥ इत्येवं भगवति वर्धमान चन्द्रे, य: स्तोत्रं पठति सुसन्ध्ययो-द्र्वयोर्हि। सोऽनन्तं परम-सुखं नृदेव-लोके, भुक्त्वान्ते शिव-पदमक्षयं प्रयाति॥ २०॥ यत्रार्हतां गणभृतां श्रुत-पारगाणां, निर्वाण-भूमि-रिह भारतवर्ष-जानाम्। तामद्य शुद्ध-मनसा क्रियया वचोभि: संस्तोतु-मुद्यतमति: परिणौमि भक्त्या॥ २१॥ कैलाशशैल-शिखरे परि-निर्वृतोऽसौ, शैले-शिभाव-मुपपद्य वृषो महात्मा। चम्पापुरे च वसुपूज्य-सुत: सुधीमान्, सिद्धिं परामुपगतो गतरागबन्ध:॥ २२॥ यत्प्राथ्र्यते शिवमयं विबुधेश्वराद्यै:, पाखण्डिभिश्च परमार्थ-गवेष-शीलै:। नष्टाष्ट कर्म समये तदरिष्टनेमि:, संप्राप्तवान् क्षितिधरे वृहदूर्जयन्ते॥ २३॥ पावापुरस्य बहिरुन्नत भूमि-देशे, पद्मोत्पला-कुलवतां सरसां हि मध्ये। श्रीवद्र्धमान जिनदेव इति प्रतीतो, निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा॥ २४॥ शेषास्तु ते जिनवरा जित-मोह-मल्ला, ज्ञानार्क भूरि किरणै-रवभास्य लोकान्। स्थानं परं निरव-धारित सौख्यनिष्ठं, सम्मेदपर्वततले समवापुरीशा:॥ २५॥ आद्यश्चतु - र्दश-दिनै-र्विनिवृत्तयोग:, षष्ठेन निष्ठित-कृतिर्जिन वद्र्धमान:। शेषाविधूत घनकर्म निबद्धपाशा:, मासेन ते यतिवरास्त्वभवन्वियोगा:॥ २६॥ माल्यानि वाक्स्तुतिमयै: कुसुमै: सुदृब्धा- न्यादाय मानस-करै-रभित: किरन्त:। पर्येम आदृति-युता भगवन् निषद्या:, संप्रार्थिता वयमिमे परमां गतिं ता:॥ २७॥ शत्रुञ्जये नगवरे दमितारि-पक्षा:, पण्डो: सुता: परम-निर्वृति-मभ्युपेता:। तुंग्यां तु सङ्गरहितो बलभद्रनामा, नद्यास्तटे जितरिपुश्च सुवर्णभद्र:॥ २८॥ द्रोणीमति प्रबल-कुण्डल मेंढ्रके च, वैभार-पर्वत-तले वर-सिद्धकूटे। ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि-बलाहके च, विन्ध्ये च पोदनपुरे वृष-दीपके च॥ २९॥ सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे, दण्डात्मके गजपथे पृथु-सार-यष्टौ। ये साधवो हतमला: सुगतिं प्रयाता:, स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन्॥ ३०॥ इक्षोर्विकार रसपृक्त गुणेन लोके, पिष्टोऽधिकां मधुरता-मुपयाति यद्वत्। तद्वच्च पुण्यपुरुषै रुषितानि नित्यं, स्थानानि तानि जगतामिह पावनानि॥ ३१॥ इत्यर्हतां शमवतां च महामुनीनां, प्रोक्ता मयात्र परिनिर्वृति-भूमिदेशा:। ते मे जिना जितभया मुनयश्च शान्ता:, दिश्यासुराशु सुगतिं निरवद्यसौख्याम्॥ ३२॥ क्षेपक श्लोकानि कैलाशाद्रौ मुनीन्द्र: पुरुरपदुरितो मुक्तिमाप प्रणूत:। चंपायां वासुपूज्यस्-त्रिदशपतिनुतो नेमिरप्यूर्जयंते॥१॥ पावायां वर्धमानस् त्रिभुवन-गुरवो विंशतिस्तीर्थनाथा:। सम्मेदाग्रे-प्रजग्मुर्ददतु विनमतां निवृतिं नो जिनेन्द्रा:॥२॥ गौर्गजोश्च: कपि: कोक: सरोज: स्वस्तिक: शशी। मकर: श्रीयुतो वृक्षो गण्डो महिष-सूकरौ॥३॥ सेधा-वज्र-मृगच्छागा: पाठीन: कलशस्तथा। कच्छपश्चोत्पलं शङ्खो नाग-राजश्च केसरी॥४॥ शान्ति-कुन्थवर-कौरव्या यादवौ नेमि-सुव्रतौ। उग्रनाथौ पाश्र्ववीरौ शेषा इक्ष्वाकुवंशजा:॥५॥ अंचलिका इच्छामि भंते! परिणिव्वाणभत्ति काउसग्गो कओ तस्सालो चेउं, इमम्मि, अवसप्पिणीए चउत्थ समयस्स पच्छिमे भाए, आउट्ठमासहीणे वासचउक्कम्मि सेसकालम्मि, पावाए णयरीए कत्तिय मासस्स किण्ह चउदसिए रत्तीए सादीए, णक्खत्ते, पच्चूसे, भयवदो महदि महावीरो वड्ढमाणो सिद्धिं गदो, तिसुवि लोएसु, भवणवासिय-वाणविंतर जोयिसिय कप्पवा-सियत्ति चउव्विहा देवा सपरिवारा दिव्वेण ण्हाणेण, दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण अक्खेण, दिव्वेण पुफ्फेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण दीवेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण वासेण, णिच्चकालं अच्चंति, पुजंति, वंदंति, णमंसंति परिणिव्वाण महाकल्लाण पुज्जं करंति। अहमवि इह संतो तत्थ संताइं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं, जिणगुणसम्पत्ति होउ-मज्झं।
  15. त्रिदशपतिमुकुट तट गतमणि, गणकर निकर सलिलधाराधौत। क्रमकमलयुगलजिनपति रुचिर, प्रतिबिम्बविलय विरहितनिलयान्॥ १॥ निलयानहमिह महसां सहसा, प्रणिपतन पूर्वमवनौम्यवनौ। त्रय्यां त्रय्या शुद्ध्या निसर्ग, शुद्धान्विशुद्धये घनरजसाम्॥ २॥ भावनसुर-भवनेषु, द्वासप्तति-शत-सहस्र-संख्याभ्यधिका:। कोट्य: सप्त प्रोक्ता, भवनानां भूरि-तेजसां भुवनानाम्॥ ३॥ त्रिभुवन-भूत-विभूनां, संख्यातीतान्यसंख्य-गुण-युक्तानि। त्रिभुवनजननयनमन:,प्रियाणिभवनानि भौमविबुधनुतानि॥ ४॥ यावन्ति सन्ति कान्त-ज्योति-र्लोकाधिदेवताभिनुतानि। कल्पेऽनेक-विकल्पे, कल्पातीतेऽहमिन्द्र-कल्पानल्पे॥ ५॥ विंशतिरथ त्रिसहिता, सहस्र-गुणिता च सप्तनवति: प्रोक्ता। चतुरधिकाशीतिरत:, पञ्चकशून्येन विनिहतान्यनघानि॥ ६॥ अष्टापञ्चाशदतश्-चतु:शतानीह मानुषे च क्षेत्रे। लोकालोकविभागप्रलोकनाऽऽलोक-संयुजां जयभाजाम्॥ ७॥ नव-नव-चतु:शतानि च, सप्त च नवति: सहस्र-गुणिता: षट् च। पञ्चाशत्पञ्च-वियत्, प्रहता: पुनरत्र कोटयोऽष्टौ प्रोक्ता:॥ ८॥ एतावन्त्येव सता-मकृत्रि-माण्यथ जिनेशिनां भवनानि। भुवनत्रितये त्रिभुवन-सुर-समिति-समच्र्यमान-सप्रतिमानि॥ ९॥ वक्षार-रुचक-कुण्डल-रौप्य - नगोत्तर - कुलेषु कारनगेषु। कुरुषु च जिनभवनानि, त्रिशतान्यधिकानि तानि षड्विंशत्या॥ १०॥ नन्दीश्वर-सद्द्वीपे, नन्दीश्वर-जलधि-परिवृते धृत-शोभे। चन्द्रकर-निकर-सन्निभ-रुन्द्र-यशो वितत-दिङ्-मही-मण्डलके॥ ११॥ तत्रत्याञ्जन-दधिमुख-रतिकर-पुरु-नग-वराख्य-पर्वत-मुख्या:। प्रतिदिश-मेषा-मुपरि,त्रयो-दशेन्द्रार्चितानि, जिनभवनानि॥ १२॥ आषाढ़-कार्तिकाख्ये,फाल्गुनमासे च शुक्लपक्षेऽष्टम्या:। आरभ्याष्ट-दिनेषु च, सौधर्म-प्रमुख-विबुधपतयो भक्त्या॥ १३॥ तेषु महामह-मुचितं प्रचुराक्षत-गन्ध-पुष्प-धूपै-र्दिव्यै:। सर्वज्ञ-प्रतिमाना- मप्रतिमानां प्रकुर्वते सर्व-हितम्॥ १४॥ भेदेन वर्णना का, सौधर्म: स्नपन-कर्तृता मापन्न:। परिचारक-भावमिता:,शेषेन्द्रा-रुन्द्र-चन्द्रनिर्मल-यशस:॥ मङ्गल-पात्राणि पुनस्तद्-देव्यो बिभ्रतिस्म शुभ्र-गुणाढ्या:। अप्सरसो नर्तक्य:, शेष-सुरास्तत्र लोकनाव्यग्रधिय:॥ १६॥ वाचस्पति-वाचामपि, गोचरतां संव्यतीत्य यत्-क्रममाणम्। विबुधपतिविहितविभवं, मानुषमात्रस्य कस्य शक्ति: स्तोतुम्॥ १७ निष्ठापित-जिनपूजाश्-चूर्ण-स्नपनेन दृष्टविकृतविशेषा:। सुरपतयो नन्दीश्वरजिनभवनानि प्रदक्षिणीकृत्य पुन:॥ १८॥ पञ्चसु मंदरगिरिषु, श्रीभद्रशालनन्दन-सौमनसम्। पाण्डुकवनमिति तेषु, प्रत्येकं जिनगृहाणि चत्वार्येव॥ १९॥ तान्यथ परीत्य तानि च, नमसित्वा कृतसुपूजनास्तत्रापि। स्वास्पदमीयु: सर्वे, स्वास्पदमूल्यं स्वचेष्टया संगृह्य॥ २०॥ सहतोरणसद्वेदी - परीतवनयाग - वृक्ष - मानस्तम्भ:। ध्वजपंक्तिदशकगोपुर,चतुष्टयत्रितयशालमण्डपवर्यै:॥ २१॥ अभिषेकप्रेक्षणिका, क्रीडनसंगीतनाटका-लोकगृहै:। शिल्पिविकल्पित-कल्पनसंकल्पातीत-कल्पनै: समुपेतै:॥ २२॥ वापी सत्पुष्करिणी, सुदीर्घिकाद्यम्बुसंसृतै: समुपेतै:। विकसितजलरुहकुसुमै-र्नभस्यमानै: शशिग्रहक्र्षै: शरदि॥ २३॥ भृंगाराब्दक-कलशा, द्युपकरणैरष्टशतक-परिसंख्यानै:। प्रत्येकं चित्रगुणै:, कृतझणझणनिनद-वितत-घण्टाजालै:॥ २४॥ प्रविभाजंते नित्यं, हिरण्मयानीवरेशिनां भवनानि। गंधकुटीगतमृगपति,विष्टर-रुचिराणि-विविध-विभव-युतानि॥ २५॥ येषु-जिनानां प्रतिमा:, पञ्चशत-शरासनोच्छ्रिता: सत्प्रतिमा:। मणिकनक-रजतविकृता,दिनकरकोटि-प्रभाधिक-प्रभदेहा:॥ २६॥ तानि सदा वंदेऽहं, भानुप्रतिमानि यानि कानि च तानि। यशसां महसां प्रतिदिशमतिशय-शोभाविभाञ्जि पापविभाञ्जि॥ २७॥ सप्तत्यधिक-शतप्रिय, धर्मक्षेत्रगत-तीर्थकर-वर-वृषभान्। भूतभविष्यत् संप्रतिकालभवान् भवविहानये विनतोऽस्मि॥ २८॥ अस्यामवसर्पिण्यां, वृषभजिन: प्रथमतीर्थकर्ता भर्ता। अष्टापदगिरिमस्तक, गतस्थितो मुक्तिमाप पापान्मुक्त:॥ २९॥ श्रीवासुपूज्यभगवान्, शिवासु पूजासु पूजितस्त्रिदशानाम्। चम्पायां दुरित-हर:, परमपदं प्रापदापदा-मन्तगत:॥ ३०॥ मुदितमतिबलमुरारि-प्रपूजितो जितकषायरिपुरथ जात:। वृहदूर्जयन्तशिखरे,शिखामणिस्त्रिभुवनस्यनेमिर्भगवान्॥ ३१॥ पावापुरवरसरसां, मध्यगत: सिद्धिवृद्धितपसां महसाम्। वीरो नीरदनादो, भूरि-गुणश्चारु शोभमास्पद-मगमत्॥ ३२॥ सम्मदकरिवन-परिवृत-सम्मेदगिरीन्द्रमस्तके विस्तीर्णे। शेषा ये तीर्थकरा:, कीर्तिभृत: प्रार्थितार्थसिद्धिमवापन्॥ ३३॥ शेषाणां केवलिना- मशेषमतवेदिगणभृतां साधूनां। गिरितलविवरदरीसरिदुरुवनतरुविटपिजलधिदहनशिखासु॥ ३४॥ मोक्षगतिहेतु-भूत-स्थानानि सुरेन्द्ररुन्द्र-भक्तिनुतानि। मंगलभूतान्येता-न्यंगीकृत-धर्मकर्मणामस्माकम्॥ ३५॥ जिनपतयस्तत्-प्रतिमा-स्तदालयास्तन्निषद्यका स्थानानि। ते ताश्च ते च तानि च, भवन्तु भवघात-हेतवो भव्यानाम्॥ ३६॥ सन्ध्यासु तिसृषु नित्यं, पठेद्यदि स्तोत्र-मेतदुत्तम-यशसाम्। सर्वज्ञानां सार्वं, लघु लभते श्रुतधरेडितं पद-ममितम्॥ ३७॥ नित्यं नि:स्वेदत्वं, निर्मलता क्षीर-गौर-रुधिरत्वं च। स्वाद्याकृति-संहनने, सौरूप्यं सौरभं च सौलक्ष्यम्॥ ३८॥ अप्रतिम-वीर्यता च, प्रिय-हित वादित्व-मन्यदमित-गुणस्य। प्रथिता दश-विख्याता, स्वतिशय-धर्मा स्वयं-भुवो देहस्य॥ गव्यूति-शत-चतुष्टय-सुभिक्षता-गगन-गमन-मप्राणिवध:। भुक्त्युपसर्गाभाव-श्चतुरास्यत्वं च सर्व-विद्येश्वरता॥ ४०॥ अच्छायत्व-मपक्ष्म-स्पन्दश्च सम-प्रसिद्ध-नख-केशत्वम्। स्वतिशय-गुणा भगवतो,घाति-क्षयजा भवन्ति तेऽपि दशैव॥ ४१॥ सार्वार्ध-मागधीया, भाषा मैत्री च सर्व-जनता-विषया। सर्वर्तुफलस्तबकप्रवाल-कुसुमोपशोभित-तरु-परिणामा:॥ आदर्शतल-प्रतिमा, रत्नमयी जायते मही च मनोज्ञा। विहरण-मन्वेत्यनिल:, परमानन्दश्च भवति सर्वजनस्य॥ ४३॥ मरुतोऽपि सुरभि-गन्ध-व्यामिश्रा योजनान्तरं भूभागम्। व्युपशमितधूलिकण्टक-तृण-कीटक-शर्करोपलं प्रकुर्वन्ति॥ तदनु स्तनितकुमारा, विद्युन्माला-विलास-हास-विभूषा:। प्रकिरन्ति सुरभि-गन्धिं, गन्धोदक-वृष्टि-माज्ञया त्रिदशपते:॥ ४५॥ वरपद्मरागकेसरमतुल-सुख-स्पर्श-हेम-मय-दल-निचयम्। पादन्यासे पद्मं सप्त, पुर: पृष्ठतश्च सप्त भवन्ति॥ ४६॥ फलभार-नम्र-शालि-ब्रीह्यादि-समस्त-सस्य-धृत-रोमाञ्चा। परिहृषितेव च भूमि- स्त्रिभुवननाथस्य वैभवं पश्यन्ती॥ ४७॥ शरदुदयविमल-सलिलं, सर इव गगनं विराजते विगतमलम्। जहति च दिशस्तिमिरिकां, विगतरज: प्रभृति जिह्मताभावं सद्य:॥ एतेतेति त्वरितं ज्योति- व्र्यन्तर-दिवौकसा-ममृतभुज:। कुलिशभृदाज्ञापनया, कुर्वन्त्यन्ये समन्ततो व्याह्वानम्॥ ४९॥ स्फुरदरसहस्ररुचिरं, विमल-महारत्न-किरणनिकर-परीतम्। प्रहसितकिरण-सहस्रद्युति-मण्डलमग्रगामिधर्मसुचक्रम्॥ ५०॥ इत्यष्ट-मंगलं च, स्वादर्श-प्रभृति-भक्ति-राग-परीतै:। उपकल्प्यन्ते त्रिदशै-रेतेऽपि-निरुपमातिशया:॥ ५१॥ वैडूर्यरुचिर-विटप-प्रवाल-मृदु-पल्लवोपशोभित-शाख:। श्रीमानशोक-वृक्षो वर-मरकतपत्रगहनबहलच्छाय:॥ ५२॥ मन्दारकुन्दकुवलय-नीलोत्पल-कमल-मालती-बकुलाद्यै:। समद-भ्रमर-परीतैव्र्यामिश्रा पतति कुसुमवृष्टिर्नभस:॥ ५३॥ कटक-कटि-सूत्र-कुण्डल-केयूर-प्रभृति-भूषितांगौ स्वंगौ। यक्षौ कमलदलाक्षौ, परिनिक्षिपत: सलीलचामरयुगलम्॥ ५४॥ आकस्मिकमिव युगपद्-दिवसकरसहस्रमपगत-व्यवधानम्। भामण्डलमविभावित-रात्रिञ्दिवभेदमतितरामाभाति॥ ५५॥ प्रबल-पवनाभिघात- प्रक्षुभित-समुद्र-घोष-मन्द्र-ध्वानम्। दन्ध्वन्यते सुवीणावंशादि-सुवाद्यदुन्दुभिस्तालसमम्॥ ५६॥ त्रिभुवनपतिता-लाञ्छन-मिन्दुत्रयतुल्यमतुल-मुक्ताजालम्। छत्रत्रयं च सुबृहद्-वैडूर्य-विक्लृप्त-दण्डमधिकमनोज्ञम्॥ ५७॥ ध्वनिरपि योजनमेकं, प्रजायते श्रोतृ-हृदयहारि-गम्भीर:। ससलिलजलधरपटलध्वनितमिव प्रविततान्तराशावलयम्॥ ५८॥ स्फुरितांशुरत्न-दीधिति- परिविच्छुरिताऽमरेन्द्र-चापच्छायम्। ध्रियते मृगेन्द्रवर्यै:-स्फटिक-शिलाघटितसिंहविष्टरमतुलम्॥ यस्येह चतुस्ंित्रशत्- प्रवर-गुणा प्रातिहार्य-लक्ष्यम्यश्चाष्टौ। तस्मै नमो भगवते, त्रिभुवन-परमेश्वरार्हते गुण-महते॥ ६०॥ क्षेपक-श्लोका: गत्वा क्षितेर्वियति पंचसहस्रदण्डान्, सोपान-विंशति-सहस्र-विराजमाना। रेजे सभा धनद यक्षकृता यदीया, तस्मै नमस्त्रिभुवनप्रभवे जिनाय॥१॥ सालोऽथ वेदिरथ वेदिरथोऽपि सालो, वेदिंश्च साल इह वेदिरथोऽपि साल:। वेदिश्च भाति सदसि क्रमतो यदीये, तस्मै नमस्त्रिभुवनप्रभवे जिनाय॥२॥ प्रासाद-चैत्य-निलया: परिखात-बल्ली, प्रोद्यान - केतुसुरवृक्ष - गृहाङ्गणाश्च। पीठत्रयं सदसि यस्य सदा विभाति, तस्मै नमस्त्रिभुवन-प्रभवे जिनाय॥३॥ माला-मृगेन्द्र - कमलाम्बर-वैनतेय, मातङ्ग-गोपतिरथाङ्ग-मयूर हंसा:। यस्य ध्वजा विजयिनो भुवने विभान्ति, तस्मै नमस्त्रिभुवनप्रभवे जिनाय॥४॥ निर्ग्रन्थ-कल्प-वनिता-व्रतिका भ-भौम, नागस्त्रियो भवन-भौम-भ-कल्पदेवा:। कोष्ठस्थिता नृ-पशवोऽपि नमन्ति यस्य, तस्मै नमस्त्रि-भुवन-प्रभवे जिनाय॥५॥ भाषा-प्रभा-वलयविष्टर-पुष्पवृष्टि:, पिण्डिद्रुमस्त्रि-दशदुन्दुभि-चामराणि। छत्रत्रयेण सहितानि लसन्ति यस्य, तस्मै नमस्त्रि-भुवनप्रभवे जिनाय॥६॥ भृङ्गार-ताल-कलश-ध्वजसुप्रतीक, श्वेतातपत्र-वरदर्पण-चामराणि। प्रत्येक-मष्टशतकानि विभान्ति यस्य, तस्मै नमस्त्रि-भुवन-प्रभवे जिनाय॥७॥ स्तंभप्रतोलि -निधिमार्गतडाग-वापी, क्रीडादिधूप-घट-तोरण-नाट्य-शाला:। स्तूपाश्च चैत्य-तरवो विलसन्ति यस्य, तस्मै नमस्त्रि भुवनप्रभवे जिनाय॥८॥ सेनापति-स्थपति-हम्र्यपति-द्विपाश्च, स्त्रीचक्रचर्म-मणिकाकिणिका-पुरोघा:। छत्रासि-दण्डपतय: प्रणमन्ति यस्य, तस्मै नमस्त्रिभुवनप्रभवे जिनाय॥९॥ पद्म:कालो महाकाल: सर्वरत्नश्च पाण्डुक- नैसर्पो माणव: शङ्ख: पिङ्गलो निधयो नव। एतेषां पतय: प्रणमन्ति यस्य, तस्मै नमस्त्रिभुवनप्रभवे जिनाय॥१०॥ खवियघणघाइकम्मा चउतीसातिसयविसेसपंचकल्लाणा। अट्ट-वर-पाडिहेरा अरिहंता मङ्गला मज्झं॥११॥ अंचलिका इच्छामि भंते! णंदीसरभत्ति काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, णंदीसर-दीवम्मि, चउदिस विदिसासु अंजण-दधिमुह-रदिकर-पुरुण-गवरेसु जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तिसुवि लोएसु भवणवासिय-वाणविंतर-जोइसियं-कप्पवासियत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेहिं गंधेहि, दिव्वेहि पुप्फेहि, दिव्वेहि धुव्वेहि, दिव्वेहि चुण्णेहि, दिव्वेहि वासेहि, दिव्वेहि ण्हाणेहि आसाढ-कत्तियफागुण-मासाणं अट्ठमिमाइं काऊण जाव पुण्णिमंति णिच्चकालं अच्चंति, पुज्जंति, वंदंति, णमंसंति, णंदीसर महाकल्लाणपुज्जं करंति अहमवि इह संतो तत्थसंताइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
  16. (ज्ञानोदय छन्द) जय जय जय जयवन्त जिनालय नाश रहित हैं शाश्वत हैं। जिनमें जिनमहिमा से मण्डित, जैन बिम्ब हैं भास्वत हैं। सुरपति के मुकुटों की मणियाँ झिल-मिल झिल-मिल करती हैं। जिनबिम्बों के चरण-कमल को धोती हैं, मन हरती हैं॥ १॥ सदा सदा से सहज रूप से शुचितम प्राकृत छवि वाले। रहें जिनालय धरती पर ये श्रमणों की संस्कृति धारे। तीनों संध्याओं में इनको तन से मन से वचनों से। नमन करुँधोऊँ अघ-रज को छूटूँ भव वन भ्रमणों से॥ २॥ भवनवासियों के भवनों में तथा जिनालय बने हुये। तेज कान्ति से दमक रहे हैं और तेज सब हने हुये। जिनकी संख्या जिन आगम में, सात कोटि की मानी है। साठ-लाख दस लाख और दो लाख बताते ज्ञानी हैं॥ ३॥ अगणित द्वीपों में अगणित हैं अगणित गुण गण मण्डित हैं। व्यन्तर देवों से नियमित जो पूजित संस्तुत वन्दित हैं। त्रिभुवन के सब भविकजनों के नयन मनोहर सुन प्यारे। तीन लोक के नाथ जिनेश्वर मन्दिर हैं शिवपुर द्वारे॥ ४॥ सूर्य चन्द्र ग्रह नक्षत्रादिक तारक दल गगनांगन में। कौन गिने वह अनगिन हैं, ये अनगिन जिनगृह हैं जिनमें। जिनके वन्दन प्रतिदिन करते शिव सुख के वे अभिलाषी। दिव्य देह ले देव-देवियाँ ज्योतिर्मण्डल अधिवासी॥ ५॥ नभ-नभ स्वर रस केशव सेना मद हो सोलह कल्पों में। आगे पीछे तीन बीच दो शुभतर कल्पातीतों में। इस विध शाश्वत ऊध्र्वलोक में सुखकर ये जिनधाम रहे। अहो भाग्य हो नित्य निरन्तर होठों पर जिन नाम रहे॥ ६॥ अलोक का फैलाव कहाँ तक लोक कहाँ तक फैला है ? जाने जो जिन हैं जय-भाजन मिटा उन्हीं का फेरा है। कही उन्हीं ने मनुज लोक के चैत्यालय की गिनती है। चार शतक अट्ठावन ऊपर जिनमें मन रम विनती है॥ ७॥ आतम मद सेना स्वर केशव अंग रंग फिर याम कहे। ऊध्र्वमध्य औ अधोलोक में यूँ सब मिल जिन-धाम रहे॥ ८॥ किसी ईश से निर्मित ना हैं शाश्वत हैं स्वयमेव सदा। दिव्य भव्य जिन मन्दिर देखो छोड़ो मन अहमेव मुधा। जिनमें आर्हत प्रतिभा-मण्डित प्रतिमा न्यारी प्यारी हैं। सुरासुरों से सुरपतियों से पूजी जाती सारी हैं॥९॥ रुचक कुण्डलों कुलाचलों पर क्रमश: चउ चउतीस रहें। वक्षारों गिरि विजयाद्र्धों पर शत शत सत्तर ईश कहें। गिरि इषुकारों उत्तरगिरियों कुरुओं में चउ चउ दश हैं। तीन शतक छह बीस जिनालय गाते इनके हम यश हैं॥ १०॥ द्वीप रहा जो अष्टम जिसने नन्दीश्वर वर नाम धरा। नन्दीश्वर सागर से पूरण आप घिरा अभिराम खरा। शशि-सम शीतल जिसके अतिशय यश से बस दश दिशा खिली। भूमंडल ही हुआ प्रभावित इस ऋषि को भी दिशा मिली॥११॥ इसी द्वीप में चउ दिशियों में चउ गुरु अंजन गिरिवर हैं। इक-इक अंजनगिरि संबंधित चउ चउ दधिमुख गिरिवर हैं। फिर प्रति दधिमुख कोनों में दो-दो रतिकर गिरि चर्चित हैं। पावन बावन गिरि पर बावन जिनगृह हैं सुर अर्चित हैं॥ १२॥ एक वर्ष में तीन बार शुभ अष्टाह्निक उत्सव आते। एक प्रथम आषाढ़ मास में कार्तिक फाल्गुन फिर आते। इन मासों के शुक्ल पक्ष में अष्ट दिवस अष्टम तिथि से। प्रमुख बना सौधर्म इन्द्र को भूपर उतरे सुर गति से॥ १३॥ पूज्य द्वीप नन्दीश्वर जाकर प्रथम जिनालय वन्दन ले। प्रचुर पुष्प मणिदीप धूप ले दिव्याक्षत ले चन्दन ले। अनुपम अद्भुत जिन प्रतिमा की जग कल्याणी गुरुपूजा। भक्ति भाव से करते हे मन! पूजा में खोजा तू जा॥ १४॥ बिम्बों के अभिषेक कार्यरत हुआ इन्द्र सौधर्म महा। दृश्य बना उसका क्या वर्णन भाव भक्ति सो धर्म रहा। सहयोगी बन उसी कार्य में शेष इन्द्र जयगान करें। पूर्ण चन्द्र-सम निर्मल यश ले प्रसाद गुण का पान करें॥ १५॥ इन्द्रों की इन्द्राणी मंगल कलशादिक लेकर सर पै। समुचित शोभा और बढ़ाती गुणवन्ती इस अवसर पै। छां-छुम छां-छुम नाच नाचतीं सुर-नटियां हैं सस्मित हो। सुनो ! शेष अनिमेष सुरासुर दृश्य देखते विस्मित हो॥ १६॥ वैभवशाली सुरपतियों के भावों का परिणाम रहा। पूजन का यह सुखद महोत्सव दृश्य बना अभिराम रहा। इसके वर्णन करने में जब, सुनो ! बृहस्पति विफल रहा। मानव में फिर शक्ति कहाँ वह? वर्णन करने मचल रहा॥ १७॥ जिन पूजन अभिषेक पूर्णकर अक्षत केशर चन्दन से। बाहर आये देव दिख रहे रंगे - रंगे से तन-मन से। तथा दे रहे प्रदक्षिणा हैं नन्दीश्वर जिनभवनों की। पूज्य पर्व को पूर्ण मनाते स्तुति करते जिन-श्रमणों की॥ १८॥ सुनो ! वहाँ से मनुज-लोक में सब मिलकर सुर आते हैं। जहाँ पाँच शुभ मन्दरगिरि हैं शाश्वत चिर से भाते हैं। भद्रशाल नन्दन सुमनस औ पाण्डुक वन ये चार जहाँ। प्रतिमन्दर पर रहे तथा प्रतिवन में जिनगृह चार महा॥१९॥ मन्दर पर भी प्रदक्षिणा दे करें जिनालय वन्दन हैं। जिन पूजन अभिषेक तथा कर करें शुभाशय नन्दन हैं। सुखद पुण्य का वेतन लेकर जो इस उत्सव का फल है। जाते निज-निज स्वर्गों को सुर यहाँ धर्म ही सम्बल है॥२०॥ तरह - तरह के तोरण - द्वारे, दिव्य वेदिका और रहें। मानस्तम्भों यागवृक्ष औ उपवन चारों ओर रहें। तीन - तीन प्राकार बने हैं विशाल मंडप ताने हैं। ध्वजा पंक्ति का दशक लसे चउ-गोपुर गाते गाने हैं॥२१॥ देख सकें अभिषेक बैठकर धाम बने नाटक गृह हैं। जहाँ सदन संगीत साध के क्रीड़ागृह कौतुकगृह हैं। सहज बनीं इन कृतियों को लख शिल्पी होते अविकल्पी। समझदार भी नहीं समझते सूझ-बूझ सब हो चुप्पी॥२२॥ थाली-सी है गोल वापिका पुष्कर हैं चउ-कोन रहे। भरे लबालब जल से इतने कितने गहरे कौन कहे? पूर्ण खिले हैं महक रहे हैं जिनमें बहुविध कमल लसे। शरद काल में जिस विध नभ में शशि ग्रह तारक विपुल लसें॥ झारी लोटे घट कलशादिक उपकरणों की कमी नहीं। प्रति जिनगृह में शत-वसु शत-वसु शाश्वत मिटते कभी नहीं। वर्णाकृति भी निरी-निरी है जिनकी छवि प्रतिछवि भाती। जहाँ घंटियाँ झन-झन-झन-झन बजती रहती ध्वनि आती॥ स्वर्णमयी ये जिन मन्दिर यूँ युगों-युगों से शोभित हैं। गन्धकुटी में सिंहासन भी सुन्दर - सुन्दर द्योतित हैं। नाना दुर्लभ वैभव से ये परिपूरित हैं रचित हुये। सुनो ! यहीं त्रिभुवन के वैभव जिनपद में आ प्रणत हुये॥ २५॥ इन जिनभवनों में जिनप्रतिमा ये हैं पद्मासन वाली। धनुष पंचशत प्रमाणवाली प्रति-प्रतिमा शुभ छवि वाली। कोटि कोटि दिनकर आभा तक मन्द-मन्द पड़ जाती हैं। कनक रजत मणि निर्मित सारी झग-झग-झग-झग भाती हैं॥२६ दिशा-दिशा में अतिशय शोभा महातेज यश धार रहें। पाप मात्र के भंजक हैं ये भवसागर के पार रहें। और पाप फिर भानुतुल्य इन जिनभवनों को नमन करुँ। स्वरूप इनका कहा न जाता मात्र मौन हो नमन करुँ ॥ २७॥ धर्मक्षेत्र ये एक शतक औ सत्तर हैं षट् कर्म जहाँ। धर्मचक्रधर तीर्थकरों से दर्शित है जिनधर्म यहाँ। हुये, हो रहे, होंगे उन सब तीर्थकरों को नमन करूँ। भाव यही है ज्ञानोदय में रमण करूँ भव-भ्रमण हरूँ ॥ २८॥ इस अवसर्पिणि में इस भूपर वृषभनाथ अवतार लिया। भर्ता बन युग का पालनकर धर्म-तीर्थ का भार लिया। अन्त-अन्त में अष्टापद पर तप का उपसंहार किया। पापमुक्त हो मुक्ति सम्पदा प्राप्त किया उपहार जिया॥ २९॥ बारहवें जिन वासुपूज्य हैं परम पुण्य के पुंज हुये। पांचों कल्याणों में जिनको सुरपति पूजक पूज गये। चम्पापुर में पूर्ण रूप से कर्मों पर बहु मार किये। परमोत्तम पद प्राप्त किये औ विपदाओं के पार गये॥ ३०॥ प्रमुदित मति के राम-श्याम से नेमिनाथ जिन पूजित हैं। कषाय-रिपु को जीत लिये हैं प्रशमभाव से पूरित हैं। ऊर्जयन्त गिरनार शिखर पर जाकर योगातीत हुये। त्रिभुवन के फिर चूड़ामणि हो मुक्तिवधू के प्रीत हुये॥ ३१॥ वीर दिगम्बर श्रमण गुणों को पाल बने पूरण ज्ञानी। मेघनाद-सम दिव्य नाद से जगा दिया जग सद्ध्यानी। पावापुर वर सरोवरों के मध्य तपों में लीन हुये। विधि गुण विगलित कर अगणित गुण शिवपद पा स्वाधीन हुये जिसके चारों ओर वनों में मद वाले गज बहु रहते। सम्मेदाचल पूज्य वही है पूजो इसको गुरु कहते। शेष रहें जिन बीस तीर्थकर इसी अचल पर अचल हुये। अतिशय यश को शाश्वत सुख को पाने में वे सफल हुये॥३३॥ मूक तथा उपसर्ग अन्तकृत अनेक विध केवलज्ञानी। हुये विगत में यति मुनि गणधर कु-सुमत ज्ञानी विज्ञानी। गिरि वन तरुओं गुफा कंदरों सरिता सागर तीरों में। तप साधन कर मोक्ष पधारे अनल शिखा मरु टीलों में ॥३४॥ मोक्ष साध्य के हेतुभूत ये स्थान रहें पावन सारे। सुरपतियों से पूजित हैं सो इनकी रज शिर पर धारें। तपोभूमि ये पुण्य क्षेत्र ये तीर्थ क्षेत्र ये अघहारी। धर्मकार्य में लगे हुये हम सबके हों मंगलकारी॥३५॥ दोष रहित हैं विजितमना हैं जग में जितने जिनवर हैं। जितनी जिनवर की प्रतिमायें तथा जिनालय मनहर हैं। समाधि साधित भूमि जहाँ मुनि-साधक के हो चरण पडें। हेतु बने ये भविकजनों के भवलय में हम चरण पडें॥३६॥ उत्तम यशधर जिनपतियों का स्तोत्र पढ़े निजभावों में। तन से मन से और वचन से तीनों संध्या कालों में। श्रुतसागर के पार गये उन मुनियों से जो संस्तुत हैं। यथाशीघ्र वह अमित पूर्ण पद पाता सम्मुख प्रस्तुत हैं॥३७॥ जन्मातिशय मलमूत्रों का कभी न होना रुधिर क्षीर-सम श्वेत रहे। सर्वांगों में सामुद्रिकता सदा सदा ना स्वेद रहे। रूप सलोना सुरभित होना तन-मन में शुभ लक्षणता। हित मित मिश्री मिश्रितवाणी सुन लो ! और विलक्षणता॥३८॥ अतुल-वीर्य का सम्बल होना प्राप्त आद्य संहनन पना। ज्ञात तुम्हें हो ख्याल रहे हैं स्वतिशय दश ये गुणनपना। जन्म-काल से मरण-काल तक ये दश अतिशय सुनते हैं। तीर्थकरों के तन में मिलते अमितगुणों को गुनते हैं॥ ३९॥ केवलज्ञानातिशय कोश चार शत सुभिक्षता हो अधर गगन में गमन सही। चउ विध कवलाहार नहीं हो किसी जीव का हनन नहीं। केवलता या श्रुतकारकता उपसर्गों का नाम नहीं। चतुर्मुखी का होना तन की छाया का भी काम नहीं॥ ४०॥ बिना बढ़े वह सुचारुता से नख केशों का रह जाना दोनों नयनों के पलकों का स्पन्दन ही चिर मिट जाना। घातिकर्म के क्षय के कारण अर्हन्तों में होते हैं। ये दश अतिशय इन्हें देख बुध पल भर सुध-बुध खोते हैं॥ ४१॥ देवकृतातिशय अर्धमागधी भाषा सुख की सहज समझ में आती है। समवसरण में सब जीवों में मैत्री घुल-मिल जाती है। एक साथ सब ऋतुयें फलती क्रम के सब पथ रुक जाते। लघुतर गुरुतर बहुतर तरुवर फूल फलों से झुक जाते॥ ४२॥ दर्पण-सम शुचि रत्नमयी हो झग-झग करती धरती है। सुरपति नरपति यतिपतियों के जन-जन के मन हरती है। जिनवर का जब विहार होता पवन सदा अनुकूल बहे। जन-जन परमानन्द गन्ध में डूबे दुख सुख भूल रहे॥ ४३॥ संकटदा विषकंटक कीटो कंकर तिनकों शूलों से। रहित बनाता पथ को गुरुतर उपलों से अतिधूलों से। योजन तक भूतल को समतल करता बहता वह साता। मन्द-मन्द मकरन्द गन्ध से पवन मही को महकाता॥ ४४॥ तुरत इन्द्र की आज्ञा से बस नभ मण्डल में छा जाते। सघन मेघ के कुमार गर्जन करते बिजली चमकाते। रिम-झिम रिम-झिम गन्धोदक की वर्षा होती हर्षाती। जिस सौरभ से सबकी नासा सुर-सुर करती दर्शाती॥ ४५॥ आगे पीछे सात-सात इक पदतल में तीर्थंकर के। पंक्तिबद्ध यों अष्टदिशाओं और उन्हीं के अन्तर में। पद्म बिछाते सुर माणिक-सम केशर से जो भरे हुये। अतुल परस है सुखकर जिनका स्वर्ण दलों से खिले हुये॥ ४६॥ पकी फसल ले शाली आदिक धरती पर सर धरती है। सुन लो फलत: रोम-रोम से रोमाञ्चित सी धरती है। ऐसी लगती त्रिभुवनपति के वैभव को ही निरख रही। और स्वयं को भाग्यशालिनी कहती-कहती हरख रही॥ ४७॥ शरदकाल में विमल सलिल से सरवर जिस विध लसता है। बादल-दल से रहित हुआ नभमण्डल उस विध हँसता है। दशों दिशायें धूम्र-धूलियाँ शामभाव को तजती हैं। सहज रूप से निरावरणता उज्ज्वलता को भजती है॥ ४८॥ इन्द्राज्ञा में चलने वाले देव चतुर्विध वे सारे। भविक जनों को सदा बुलाते समवसरण में उजियारे। उच्चस्वरों में दे दे करके आमन्त्रण की ध्वनि ओ जी! देवों के भी देव यहाँ हैं शीघ्र पधारो आओ जी!॥४९॥ जिसने धारे हजार आरे स्फुरणशील मन हरता है। उज्ज्वल मौलिक मणि-किरणों से झर-झुर झर-झुर करता है। जिसके आगे तेज भानु भी अपनी आभा खोता है। आगे आगे सबसे आगे धर्मचक्रवह होता है॥ ५०॥ वैभवशाली होकर भी ये इन्द्र लोग सब सीधे हैं। धर्म राग से रंगे हुये हैं भाव भक्ति में भीगे हैं। इन्हीं जनों से इस विध अनुपम अतिशय चौदह किये गये। वसुविध मंगल पात्रादिक भी समवसरण में लिये गये॥ ५१॥ अष्टप्रातिहार्य नील-नील वैडूर्य दीप्ति से जिसकी शाखायें भाती। लाल-लाल मद प्रवाल आभा जिनमें शोभा औ लाती। मरकत मणि के पत्र बने हैं जिसकी छाया शाम घनी। अशोक तरु यह अहो शोभता यहाँ शोक की शाम नहीं॥५२॥ पुष्प वृष्टि हो नभ से जिसमें पुष्प अलौकिक विपुल मिले। नील-कमल हैं लाल-धवल हैं कुन्द बहुल हैं बकुल खुले। गन्धदार मन्दार मालती पारिजात मकरन्द झरे। जिन पर अलिगण गुन-गुन गाते निशिगन्धा अरविन्द खिले॥ जिनकी कटि में कनक करधनी कलाइयों में कनक कड़े। हीरक के केयूर हार हैं पुष्प कण्ठ में दमक पड़े। सालंकृत दो यक्ष खड़े जिन - कर्णों में कुण्डल डोले। चमर ढुराते हौले-हौले प्रभु की जो जय-जय बोले॥ ५४॥ यहाँ यकायक घटित हुआ जो कोई सकता बता नहीं। दिवस रात का भला भेद वह कहाँ गया कुछ पता नहीं। दूर हुये व्यवधान हजारों रवियों के वह आप कहीं। भामण्डल की यह सब महिमा आँखों को कुछ ताप नहीं॥ ५५॥ प्रबल पवन का घात हुआ जो विचलित होकर तुरत मथा। हर-हर-हर-हर सागर करता हर मन हरता मुदित यथा। वीणा मुरली दुम-दुम दुंदभि ताल-ताल करताल तथा। कोटि कोटियों वाद्य बज रहे समवसरण में सार कथा॥ ५६॥ महादीर्घ वैडूर्य रत्न का बना दण्ड है जिस पर हैं। तीन चन्द्र-सम तीन छत्र ये गुरु-लघु-लघुतम ऊपर हैं। तीन भुवन के स्वामीपन की स्थिति जिससे अति प्रकट रही। सुन्दरतम हैं मुक्ताफल की लडिय़ाँ जिस पर लटक रहीं॥ ५७॥ जिनवर की गम्भीर भारती श्रोताओं के दिल हरती। योजन तक जो सुनी जा रही अनुगुंजित हो नभ धरती। जैसे जल से भरे मेघदल नभ-मण्डल में डोल रहे। ध्वनि में डूबे दिगन्तरों में घुमड़-घुमड़ कर बोल रहे॥ ५८॥ रंग-बिरंगी मणि-किरणों से इन्द्र धनुष की सुषमा ले। शोभित होता अनुपम जिस पर ईश विराजे गरिमा ले। सिंहों में वर बहु सिंहों ने निजी पीठ पर लिया जिसे। स्फटिक शिला का बना हुआ है सिंहासन है जिया! लसे॥ ५९॥ अतिशय गुण चउतीस रहें ये जिस जीवन में प्राप्त हुये। प्रातिहार्य का वसुविध वैभव जिन्हें प्राप्त हैं आप्त हुये। त्रिभुवन के वे परमेश्वर हैं महागुणी भगवन्त रहे। नमूँ उन्हें अरहन्त सन्त हैं सदा-सदा जयवन्त रहें॥ ६०॥ (दोहा) नन्दीश्वर वर भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु ! तव संसर्ग॥ ६१॥ नन्दीश्वर के चउ दिशियों में चउ गुरु अंजन गिरिवर हैं। इक-इक अंजनगिरि सम्बन्धित चउ-चउ दधिमुख गिरिवर हैं। फिर प्रति दधिमुख कोनों में दो-दो रतिकर गिरि चर्चित हैं। पावन बावनगिरि पर बावन जिनगृह हैं सुर अर्चित हैं॥ ६२॥ देव चतुर्विध कुटुम्ब ले सब इसी द्वीप में हैं आते। कार्तिक फागुन आषाढ़ों के अन्तिम वसु-दिन जब आते। शाश्वत जिनगृह जिनबिम्बों से मोहित होते बस तातैं। तीनों अष्टाह्निकपर्वों में यहीं, आठदिन बस जाते॥ ६३॥ दिव्य गन्ध ले, दिव्य दीप ले, दिव्य-दिव्य ले सुमन लता। दिव्य चूर्ण ले, दिव्य न्हवन ले, दिव्य-दिव्य ले वसन तथा। अर्चन, पूजन, वन्दन करते, नियमित करते नमन सभी। नन्दीश्वर का पर्व मनाकर करते निजघर गमन सभी॥ ६४॥ मैं भी उन सब जिनालयों को भरतखण्ड में रहकर भी। अर्चन पूजन वन्दन करता प्रणाम करता झुककर ही। कष्ट दूर हो कर्मचूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो। वीर मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ !॥ ६५॥
  17. जीवे प्रमाद - जनिता: प्रचुरा: प्रदोषा:, यस्मात्-प्रतिक्रमणत: प्रलयं प्रयान्ति। तस्मात्-तदर्थ-ममलं मुनि-बोधनार्थं, वक्ष्ये विचित्रभवकर्म-विशोधनार्थम्॥ १॥ पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया, मायाविना लोभिना, रागद्वेष-मलीमसेन मनसा, दुष्कर्म यन्निर्मितम्। त्रैलोक्याधिपते!जिनेन्द्र! भवत:, श्रीपाद-मूलेऽधुना, निन्दापूर्व-महं जहामि सततं, वर्वर्तिषु: सत्पथे॥ २॥ खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केणवि॥ ३॥ राग-बंध-पदोसं च, हरिसं दीण-भावयं। उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोस्सरे॥ ४॥ हा दुट्ठ-कयं हा दुट्ठ-चिंतियं भासियं च हा दुट्ठं। अंतो अंतो डज्झमि पच्छत्तावेण वेयंतो॥ ५॥ दव्वे खेत्ते काले, भावे य कदाऽवराह-सोहणयं। णिंदणगरहण-जुत्तो, मणवयकायेण पडिकमणं॥ ६॥ एइंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया पुढवि-काइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया-वणप्फदिकाइया तसकाइया एदेसिं उद्दावणं परिदावणं विराहणं उवघादो कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। वद-समिदिंदिय-रोधो-लोचा-वासयमचेलमण्हाणं। खिदिसयण-मदंतवणं, ठिदिभोयण-मेयभत्तं च॥ १॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। एत्थ पमाद-कदादो अइचारादो णियत्तोऽहं॥ २॥ छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं। पंचमहाव्रत-पंचसमिति-पंचेन्द्रियरोध-लोच षडावश्यक क्रियादयो, अष्टाविंशतिमूलगुणा: उत्तमक्षमामार्दवार्जव-शौच-सत्यसंयमतपस्त्यागा-किञ्चन्य-ब्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्म:, अष्टादश-शीलसहस्राणि, चतुरशीति-लक्ष-गुणा:, त्रयोदशविधं चारित्रं, द्वादश-विधं तपश्चेति। सकलं सम्पूर्णं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-साक्षिसम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं सुव्रतं, समारूढं ते मे भवतु॥ ३॥ अथ सर्वातिचार-विशुद्ध्यर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमण-क्रियायां कृतदोष-निराकरणार्थं पूर्वाचार्यानु-क्रमेण सकलकर्म-क्षयार्थं, भावपूजा-वन्दना-स्तव-समेतं आलोचना-श्रीसिद्धभक्ति-कायोत्सर्गं करोम्यहम्। (इति प्रतिज्ञाप्य) सामायिक दण्डक णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥ चत्तारि मंगलं - अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा - अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि - अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। अड्ढाइज्ज-दीव-दो समुद्देसु पण्णारस-कम्म-भूमिसु, जावअरहंताणं, भयवंताणं आदियराणं, तित्थयराणं, जिणाणं, जिणोत्तमाणं, केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अंतयडाणं पार-गयाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मणायगाणं, धम्म-वर-चाउरंग-चक्क-वट्टीणं, देवाहि-देवाणं, णाणाणं दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं। करेमि भंते! सामाइयं सव्वसावज्ज-जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा काएण, ण करेमि ण कारेमि, ण अण्णं करंतं पि समणुमणामि तस्स भंते ! अइचारं पडिक्कमामि, णिंदामि, गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंताणं भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें।) थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे। णरपवरलोयमहिए, विहुय-रयमले महप्पण्णे॥ १॥ लोयस्सुज्जोय-यरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे। अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो॥ २॥ उसह-मजियं च वंदे, संभव-मभिणंदणं च सुमइं च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे॥ ३॥ सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च। विमल-मणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि॥ ४॥ कुंथुं च जिणवरिंदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं। वंदामि रिट्ठ-णेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च॥ ५॥ एवं मए अभित्थुआ, विहुयरयमलापहीण-जरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु॥ ६॥ कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। आरोग्ग-णाण-लाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिं॥ ७॥ चंदेहिं णिम्मल-यरा, आइच्चेहिं अहिय-पयासंता। सायर-मिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ ८॥ श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमित-विद्विषे। यज्ज्ञानाऽन्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदाऽयते॥ १॥ तव-सिद्धे णय-सिद्धे, संजम-सिद्धे चरित्त-सिद्धे य। णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ २॥ इच्छामि भंते! सिद्धभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्म-चरित्त-जुत्ताणं, अट्ठ-विहकम्म-विप्प-मुक्काणं, अट्ठगुण-संपण्णाणं, उड्ढ-लोए-मत्थयम्मि पइट्ठियाणं, तव-सिद्धाणं, णयसिद्धाणं,संजमसिद्धाणं, चरित्तसिद्धाणं, अदीदाणागद-वट्टमाण-कालत्तय-सिद्धाणं, सव्व-सिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहि-मरणं, जिण-गुण-संपत्ति होउ मज्झं। आलोचना इच्छामि भंते! चरित्तायारो तेरसविहो, परिविहाविदो, पंचमहव्वदाणि, पंचसमिदीओ, तिगुत्तीओ चेदि। तत्थ पढमे महव्वदे पाणादिवादादो वेरमणं से पुढवि-काइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, आउकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, तेउकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वाउकाइया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वणप्फदिकाइया जीवा अणंताणंता हरिया, बीआ, अंकुरा, छिण्णा, भिण्णा, एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं उवघादो कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥ १॥ बेइंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा कुक्खि-किमि-संख-खुल्लय-वराडय-अक्ख-रिट्ठय-गंडवाल-संबुक्क-सिप्पि-पुलविकाइया एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २॥ तेइंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा कुंथुद्देहिय-विंच्छिय-गोभिंद-गोजुव-मक्कुण-पिपीलिया-इया, एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ३॥ चउरिंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा दंसमसय-मक्खि-पयंग-कीड-भमर-महुयर-गोमच्छियाइया, तेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ४ ॥ पंचिंदिया जीवा असंखेज्जासंखेज्जा अंडाइया, पोदाइया, जराइया, रसाइया, संसेदिमा, सम्मुच्छिमा, उब्भेदिमा, उववादिमा, अवि-चउरासीदि-जोणि-पमुहसदसहस्सेसु एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा, समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ५॥ प्रतिक्रमणपीठिकादण्डक इच्छामि भंते ! देवसियम्मि (राइयम्मि) आलोचेउं, पंचमहव्वदाणि, तत्थ पढमं महव्वदं पाणादिवादादो वेरमणं, विदियं महव्वदं मुसावादादो वेरमणं, तिदियं महव्वदं अदत्तादाणादो वेरमणं, चउत्थं महव्वदं मेहुणादो वेरमणं, पंचमं महव्वदं परिग्गहादो वेरमणं, छट्ठं अणुव्वदं राइभोयणादो वेरमणं, इरियासमिदीए भासासमिदीए एसणासमिदीए आदाण-णिक्खेवणसमिदीए, उच्चारपस्सवणखेल-सिंहाण-वियडि-पइट्ठावणियासमदीए मणगुत्तीए वचिगुत्तीए कायगुत्तीए, णाणेसु, दंसणेसु, चरित्तेसु, बावीसाए परीसहेसु, पणवीसाए भावणासु, पण-वीसाए किरियासु, अट्ठारस-सील-सहस्सेसु, चउरासीदि-गुणसय-सहस्सेसु,वारसण्हं संजमाणं, वारसण्हं तवाणं, वारसण्हं अंगाणं, चोदसण्हं पुव्वाणं, दसण्हं-मुंडाणं, दसण्हं-समण-धम्माणं, दसण्हं-धम्मज्झाणाणं, णवण्हं बंभचेरगुत्तीणं, णवण्हं णोकसायाणं, सोलसण्हं कसायाणं, अट्ठण्हं कम्माणं, अट्ठण्हं पवयणमाउयाणं , अट्ठण्हं सुद्धीणं, सत्तण्हं भयाणं, सत्तविहसंसाराणं, छण्हं जीव-णिकायाणं, छण्हं आवासयाणं, पंचण्हं इंदियाणं, पंचण्हं महव्वदाणं, पंचण्हं समिदीणं, पंचण्हं चरित्ताणं, चउण्हं सण्णाणं, चउण्हं पच्चयाणं, चउण्हं उवसग्गाणं, मूलगुणाणं, उत्तरगुणाणं, दिट्ठियाए, पुट्ठियाए, पदोसियाए, परदा-वणियाए, से कोहेण वा, माणेण वा, माएण वा, लोहेण वा, रागेण वा, दोसेण वा, मोहेण वा, हस्सेण वा, भएण वा, पदोसेण वा, पमादेण वा, पिम्मेण वा, पिवासेण वा, लज्जेण वा, गारवेण वा, एदेसिं अच्चासणदाए, तिण्हं दंडाणं, तिण्हं लेस्साणं, तिण्हं गारवाणं, दोण्हं अट्ठरुद्द-संकिलेस-परिणामाणं,मिच्छाणाण-मिच्छादंसण-मिच्छाचरित्ताणं, मिच्छत्त-पाउग्गं, असंजम-पाउग्गं, कसाय-पाउग्गं, जोगपाउग्गं, अप्पाउग्ग-सेवणदाए, पाउग्ग-गरहणदाए इत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइयो) अदिक्कमो, वदिक्कमो,अइचारो, अणाचारो, आभोगो, अणाभोगो, तस्स भंते ! पडिक्कमामि, मए पडिक्कंतं तस्स मे सम्मत्त-मरणं, पंडियमरणं, वीरियमरणं, दुक्खक्खओ,कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण संपत्ति होदु मज्झं। वद-समिदिंदिय-रोधो-लोचावासय-मचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंत-वणं, ठिदिभोयणमेयभत्तं च॥१॥ एदे खलु मूलगुणा, समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। एत्थपमाद-कदादो, अइचारादो णियत्तोऽहं॥ २॥ छेदोवट्ठाणं होउ मज्झं । (इति प्रतिक्रमणपीठिका दण्डक अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमण-क्रियायां कृतदोषनिराकरणार्थं पूर्वाचार्यानु-क्रमेण सकलकर्म-क्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीप्रतिक्रमणभक्ति-कायोत्सर्गं करोम्यहम्। णमो अरहंताणं (इत्यादिदण्डकं पठित्वा कायोत्सर्गं कुर्यात्। अनन्तरं) थोस्सामीत्यादि पठेत् निषिद्धिकादंडका:। ॥ नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें॥ णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ ३॥ ॥ तीन बार मंत्र को पढें॥ णमो जिणाणं णमो जिणाणं णमो जिणाणं, णमो णिसीहीए णमो णिसीहीए णमो णिसीहीए, णमोत्थु दे णमोत्थु दे णमोत्थु दे, अरहंत! सिद्ध! बुद्ध! णीरय! णिम्मल! सममण! सुभमण! सुसमत्थ! समजोग! समभाव! सल्लघट्टाणं! सल्लघत्ताणं! णिब्भय! णीराय! णिद्दोस! णिम्मोह! णिम्मम! णिस्संग! णिस्सल्ल! माण-माया-मोसमूरण! तवप्पहावण! गुणरयणसील-सायर! अणंत! अप्पमेय! महदिमहावीर-वड्ढमाणबुद्धिरिसिणो चेदि णमोत्थु दे णमोत्थु दे णमोत्थु दे। मम मंगलं अरहंता य, सिद्धा य, बुद्धा य, जिणा य, केवलिणो य ओहिणाणिणो य मणपज्जवणाणिणो य चउदसपुव्वगामिणो सुदसमिदि-समिद्धा य तवो य बारसविहो तवस्सी य गुणा य गुणवंतो य महरिसी तित्थं तित्थं-करा य पवयणं पवयणी य, णाणं णाणी य, दंसणं दंसणी य, संजमो संजदा य, विणओ विणदा य, बंभचेरवासो बंभचारी य गुत्तीओ चेव गुत्तिमंतो य मुत्तीओ चेव मुत्तिमंतो य, समिदीओ चेव समिदिमंतो य,सुसमय-परसमयविदू, खंति-खंतिवंतो य खवगाय, खीणमोहा य खीणवंतो य बोहियबुद्धा य बुद्धिमंतो य चेइयरुक्खा य चेइयाणि। उड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि, सिद्धणिसीहियाओ अट्ठावयपव्वए सम्मेदे उज्जंते चंपाए पावाए मज्झिमाए हत्थिवालियसहाए जाओ अण्णाओ काओवि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि इसिपब्भारतलगयाणं सिद्धाणं बुद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं णीरयाणं णिम्मलाणं गुरु आइरिय उवज्झायाणं पव्वतित्थेर-कुलयराणं चाउवण्णो य समणसंघो य दससु भरहेरावएसु पंचसु महाविदेहेसु, जे लोए संति साहवो संजदा तवसी एदे मम मंगलं पवित्तं, एदेहं मंगलं करेमि भावदो विसुद्धो सिरसा अहिवंदिऊण सिद्धे काऊण अंजलिं मत्थयम्मि तिविहं तिरयणसुद्धो। (इति निषिद्धिकादण्डक:) पडिक्कमामि भंते! देवसियस्स (राइयस्स) अइचारस्स, अणाचारस्स, मणदुच्चरियस्स, वचदुच्चरियस्स, कायदुच्चरियस्स, णाणाइचारस्स, दंसणाइचारस्स, तवाइचारस्स, वीरियाइचारस्स, चरित्ताइचारस्स, पंचण्हं महव्वयाणं, पंचण्हं समिदीणं, तिण्हं गुत्तीणं, छण्हं आवासयाणं, छण्हं जीवणिकायाणं, विराहणाए, पील कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २॥ पडिक्कमामि भंते! अइगमणे, णिग्गमणे, ठाणे, गमणे, चंकमणे, उव्वत्तणे, आउंचणे, आउट्ठणे पसारणे, आमासे, परिमासे, कुइदे, कक्कराइदे, चलिदे, णिसण्णे, सयणे, उव्वट्टणे, परियट्टणे, एइंदियाणं,वेइंदियाणं, तेइंदियाणं, चउरिंदियाणं, पंचिंदियाणं जीवाणं, संघट्टणाए, संघादणाए, उद्दावणाए, परिदावणाए, विराहणाए, एत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइओ) अदिक्कमो, वदिक्कमो, अइचारो, अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २॥ पडिक्कमामि भंते! इरियावहियाए, विराहणाए, उड्ढमुहं चरंतेण वा, अहोमुहं चरंतेण वा, तिरियमुहं चरंतेण वा, दिसि-मुहं चरंतेण वा, विदिसिमुहं चरंतेण वा, पाणचंकमणदाए, वीयचंकमणदाए, हरियचंकमणदाए,उत्तिंगपणयदय-मट्टियमक्कडय-तंतुसत्ताण चंकमणदाए पुढविकाइय-संघट्टणाए, आउकाइयसंघट्टणाए, तेउकाइय-संघट्टणाए, वाउकाइय-संघट्टणाए, वणप्फदिकाइय-संघट्टणाए, तसकाइय-संघट्टणाए, उद्दावणाए,परिदावणाए, विराहणाए, एत्थ मे जो कोई इरियावहियाए अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ३॥ पडिक्कमामि भंते! उच्चार-पस्सवण-खेल-सिंहाण-वियडिपइट्ठावणियाए पइट्ठावंतेण जो केई पाणा वा, भूदा वा, जीवा वा, सत्ता वा, संघट्ठिदा वा, संघादिदा वा, उद्दाविदा वा, परिदाविदा वा, एत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ४॥ पडिक्कमामि भंते! अणेसणाए, पाणभोयणाए, पणयभोयणाए,वीयभोयणाए, हरियभोयणाए, आहा-कम्मेण वा, पच्छाकम्मेण वा, पुराकम्मेण वा, उद्दिट्ठयडेण वा, णिद्दिट्ठयडेण वा, दयसंसिट्ठयडेण वा, रस-संसिट्ठयडेण वा, परिसादणियाए, पइट्ठावणियाए, उद्देसियाए, णिद्देसियाए, कीदयडे, मिस्से, जादे, ठविदे, रइदे, अणसिट्ठे, बलिपाहुडदे, पाहुडदे, घट्टिदे, मुच्छिदे, अइमत्तभोयणाए एत्थ मे जो कोई गोयरिस्स अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ५॥ पडिक्कमामि भंते! सुमिणिंदियाए विराहणाए, इत्थिविप्परियासियाए, दिट्ठिविप्परियासियाए, मणविप्प-रियासियाए, वचिविप्परियासियाए, कायविप्परियासियाए, भोयणविप्परियासियाए, उच्चावयाए, सुमिण-दंसण-विप्परियासियाए, पुव्वरए, पुव्वखेलिए, णाणाचिंतासु, विसोतियासु, एत्थ जो कोई देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ६॥ पडिक्कमामि भंते ! इत्थिकहाए, अत्थकहाए, भत्त-कहाए, रायकहाए, चोरकहाए, वेरकहाए, परपासंड कहाए, देसकहाए, भासकहाए, अकहाए, विकहाए, णिठुल्ल-कहाए, परपेसुण्णकहाए, कंदप्पियाए,कुक्कुच्चियाए, डंबरियाए, मोक्खरियाए, अप्पपसंसणदाए, परपरिवादण-दाए, परदुगुंछणदाए, परपीडाकराए, सावज्जाणुमोय-णियाए, एत्थ मे जो कोइ देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ७॥ पडिक्कमामि भंते ! अट्टज्झाणे, रुद्दज्झाणे, इहलोय-सण्णाए, परलोय-सण्णाए, आहारसण्णाए, भयसण्णाए, मेहुणसण्णाए, परिग्गहसण्णाए, कोहसल्लाए, माण-सल्लाए, मायासल्लाए, लोहसल्लाए,पेम्मसल्लाए, पिवाससल्लाए, णियाणसल्लाए, मिच्छादंसणसल्लाए, कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोहकसाए, किण्हलेस्सपरिणामे, णीललेस्सपरिणामे, काउलेस्स-परिणामे, आरंभपरिणामे,परिग्गहपरिणामे, पडिसयाहि-लासपरिणामे, मिच्छादंसणपरिणामे, अण्णाणपरिणामे, असंजम-परिणामे, पावजोग-परिणामे, कायसुहाहिलास-परिणामे, सद्देसु, रूवेसु, गंधेसु, रसेसु, फासेसु, काइयाहि-करणियाए, पादोसियाए, परदावणियाए, पाणाइवाइयासु, एत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ८॥ पडिक्कमामि भंते! एक्के भावे अणाचारे, दोसु रायदोसेसु, तीसु दंडेसु, तीसु गुत्तीसु, तीसु गारवेसु, चउसु कसाएसु, चउसु सण्णासु, पंचसु महव्वएसु, पंचसु समिदीसु, छसु जीवणिकाएसु, छसु आवासएसु,सत्तसु भएसु, अट्ठसु मएसु, णवसु बंभचेरगुत्तीसु, दसविहेसु समणधम्मेसु, एयारसविहेसु उवासयपडिमासु, बारहविहेसु भिक्खु-पडिमासु, तेरसविहेसु किरियाट्ठाणेसु, चउदसविहेसु, भूदगामेसु, पण्णरसविहेसु,पमायठाणेसु, सोलहविहेसु, पवयणेसु, सत्तरसविहेसु असंजमेसु, अट्ठारसविहेसु, असंपराएसु, उणवीसाए णाहज्झाणेसु, वीसाए असमाहि-ट्ठाणेसु, एक्कवीसाए सबलेसु, बावीसाए परीसहेसु, तेवीसाए,सुद्देयडज्झाणेसु, चउवीसाए अरहंतेसु, पणवीसाए भावणासु, पणवीसाए किरियाट्ठाणेसु, छव्वीसाए पुढवीसु, सत्तावीसाए अणगारगुणेसु, अट्ठावीसाए आयार-कप्पेसु, एउणतीसाए पावसुत्तपसंगेसु, तीसाए मोहणीयठाणेसु, एक्कत्तीसाए कम्मविवाएसु, बत्तीसाए जिणोवदेसेसु, तेत्तीसाए अच्चासाणदाए, संखेवेण जीवाण अच्चासण-दाए, अजीवाणं अच्चासाणदाए, णाणस्स अच्चासणदाए, दंसणस्स अच्चासादणाए,चरित्तस्स अच्चासाणदाए, तवस्स अच्चासणदाए, वीरियस्स अच्चासाणदाए, तं सव्वं पुव्वं दुच्चरियं गरहामि, आगामेसीएसु पच्चुप्पण्णं इक्कं तं पडिक्कमामि, अणागयं पच्चक्खामि, अगरहियं गरहामि, अणिंदियं णिंदामि, अणालोचियं आलोचेमि, आराहणं अब्भुट्ठेमि, विराहणं पडिक्कमामि, एत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ९॥ इच्छामि भंते ! इमं णिग्गंथं पवयणं अणुत्तरं केवलियं पडिपुण्णं णेगाइयं सामाइयं संसुद्धं सल्लघट्टाणं सल्लघत्ताणं सिद्धिमग्गं सेढिमग्गं खंतिमग्गं मुत्तिमग्गं पमुत्तिमग्गं मोक्खमग्गं पमोक्खमग्गं णिज्जाणमग्गं णिव्वाणमग्गं सव्वदुक्खपरिहाणिमग्गं सुचरियपरिणिव्वाणमग्गं अवितहं अविसंति पवयण उत्तमं तं सद्दहामि तं पत्तियामि तं रोचेमि तं फासेमि इदोत्तरं अण्णं णत्थि भूदं ण भवं ण भविस्सदि। णाणेण वा दंसणेण वा चरित्तेण वा सुत्तेण वा इदो जीवा सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति पडिवियाणंति। समणोमि संजदोमि उवरदोमि उवसंतोमि उवहिणियडिमाण-माया-मोस-मूरण-मिच्छा-णाण-मिच्छादंसण-मिच्छाचरित्तं च पडिविरदोमि। सम्म-णाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्तं च रोचेमि जं जिणवरेहिं पण्णत्तं। इत्थ मे जो कोइ देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ १०॥ पडिक्कमामि भंते! सव्वस्स, सव्वकालियाए, इरिया-समिदीए, भासा-समिदीए, एसणासमिदीए, आदाण-णिक्खेवण-समिदीए, उच्चार-पस्सवण-खेल-सिंहाणय-वियडि-पइट्ठावणिसमिदीए मणगुत्तीए, वचिगुत्तीए,काय-गुत्तीए, पाणादिवादादो वेरमणाए, मुसावादादो वेरमणाए, अदिण्णादाणादो वेरमणाए, मेहुणादो वेरमणाए, परिग्गहादो वेरमणाए, राइभोयणादो वेरमणाए, सव्व-विराहणाए, सव्वधम्मअइक्कमणदाए,सव्वमिच्छा-चरियाए, एत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥११॥ इच्छामि भंते ! वीरभक्तिकाउस्सग्गो जो मे देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो आभोगो अणाभोगो काइओ वाइओ माणसिओ दुच्चिंतिओ, दुब्भासिओ दुप्परिणामिओ, दुस्समणीओ णाणे दंसणे चरित्ते सुत्ते सामाइए पंचण्हं महव्वयाणं, पंचण्हं समिदीणं, तिण्हं गुत्तीणं, छण्हं जीव-णिकायाणं, छण्हं आवासयाणं, विराहणाए, अट्ठविहस्स कम्मस्स णिग्घादणाए, अण्णहा उस्सासिएण वा, णिस्सा-सिएण वा, उम्मिसिएण वा, णिम्मिस्सिएण वा, खासिएण वा छिंकिएण वा जंभाइएण वा सुहुमेहिं अंगचलाचलेहिं, दिट्ठिचलाचलेहिं, एदेहिं सव्वेहिं असमाहिं पत्तेहिं आयारेहिं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि, ताव कायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। वदसमिदिंदियरोधो, लोचा-वासयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंत-वणं, ठिदिभोयणमेयभत्तं च॥१॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। एत्थपमाद-कदादो अइचारादो णियत्तोऽहं॥ २॥ छेदोवट्ठवणं होदु मज्झं। णमो अरहंताणं (इत्यादिदण्डकं पठित्वा कायोत्सर्गं कुर्यात्। अनन्तरं) थोस्सामीत्यादि पठेत्। अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं दैवसिक प्रतिक्रमण-क्रियायां कृतदोषनिराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल -कर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं निष्ठितकरणवीर-भक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्। (इति प्रतिज्ञाप्य) (दिन सम्बन्धी प्रतिक्रमण हो तो छत्तीस बार णमोकार मंत्र का तथा रात्रि सम्बन्धी हो तो अठारह बार जाप करें।) य: सर्वाणि चराचराणि विधिवद्, द्रव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूत-भावि-भवत:, सर्वान् सदा सर्वदा। जानीते युगपत् प्रतिक्षण-मत:, सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते, वीराय तस्मै नम:॥ १॥ वीर: सर्व-सुराऽसुरेन्द्र-महितो, वीरं बुधा: संश्रिता, वीरेणाभिहत: स्व-कर्म-निचयो, वीराय भक्त्या नम:। वीरात् तीर्थ-मिदं-प्रवृत्त मतुलं, वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्रीद्युतिकान्तिकीर्तिधृतयो, हे वीर! भद्रं त्वयि ॥ २॥ ये वीरपादौ प्रणमन्ति नित्यं, ध्यानस्थिता: संयम-योग-युक्ता:। ते वीतशोका हि भवन्ति लोके, संसारदुर्गं विषमं तरन्ति॥ ३॥ व्रत-समुदय-मूल: संयम-स्कन्ध-बन्धो, यम नियमपयोभिर्वर्धित: शील-शाख:। समिति-कलिक-भारो गुप्ति-गुप्त-प्रवालो, गुण-कुसुमसुगन्धि: सत्-तपश्चित्र-पत्र:॥ ४॥ शिव-सुख-फलदायी यो दया-छाययौघ:, शुभजन-पथिकानां खेदनोदे समर्थ:। दुरित-रविज- तापं प्रापयन्नन्त-भावं, स भव-विभव-हान्यै नोऽस्तु चारित्र-वृक्ष:॥ ५॥ चारित्रं सर्व-जिनैश्, चरितं प्रोक्तं च सर्व-शिष्येभ्य:। प्रणमामि पञ्च-भेदं, पञ्चम-चारित्र-लाभाय ॥ ६॥ धर्म: सर्व-सुखाकरो हितकरो, धर्मं बुधाश्चिन्वते, धर्मेणैव समाप्यते शिव-सुखं, धर्माय तस्मै नम:। धर्मान्नास्त्यपर: सुहृद्भव-भृतां, धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं, हे धर्म, मां पालय॥ ७॥ धम्मो मंगल-मुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो॥ ८॥ (अंचलिका) इच्छामि भंते! पडिक्कमणाइचारमालोचेउं सम्म-णाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्त-तव-वीरियाचारेसु जम-णियम-संजम-सील-मूलुत्तर-गुणेसु, सव्व-मइचारं, सावज्ज-जोगं पडिविरदोमि, असंखेज्ज-लोय-अज्झवसाण-ठाणाणि, अप्पसत्थजोग-सण्णा-इंदिय-कसाय-गारव-किरियासु मणवयणकायकरणदुप्पणि-हाणाणि, परिचिंतियाणि, किण्हणील-काउ-लेस्साओ, विकहा-पालिकुंचिएण, उम्मग्गहस्सरदि-अरदि-सोय-भय-दुगुंछ-वेयण-विज्झंभजंभभाइआणि अट्टरुद्द-संकिलेस-परिणामाणि परिणामदाणि, अणिहुदकर-चरण-मण-वयण-काय-करणेण, अक्खित्त-बहुल-परायणेण, अपडिपुण्णेण वा, सरक्खरावय-परिसंघाय-पडिवत्तिएण,अच्छाकारिदं मिच्छामेलिदं, आमेलिदं, वा मेलिदं वा अण्णहादिण्णं अण्णहापडिच्छिदं, आवासएसु परिहीणदाए कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणु मण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। वदसमिदिंदियरोधो, लोचा-वासयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंत-वणं, ठिदिभोयणमेयभत्तं च॥१॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। एत्थपमाद-कदादो अइचारादो णियत्तोऽहं॥ २॥ छेदोवट्ठवणं होदु मज्झं। णमो अरहंताणं (इत्यादिदण्डकं पठित्वा कायोत्सर्गं कुर्यात्। अनन्तरं) थोस्सामीत्यादि पठेत्। अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोषनिराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीचतुर्विंशति-तीर्थंकर-भक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें।) चउवीसं तित्थयरे उसहाइ-वीर-पच्छिमे वंदे। सव्वेसिं गुण-गण-हरे सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ १॥ ये लोकेऽष्ट- सहस्र-, लक्षणधरा, ज्ञेयार्णवान्तर्गता, ये सम्यग्भवजाल-हेतुमथनाश्चन्द्रार्कतेजोऽधिका:॥ २॥ ये साध्विन्द्रसुराप्सरो-गण-शतै, र्गीत-प्रणुत्यार्चितास्, तान्देवान्वृषभादिवीर-चरमान्भक्त्या नमस्याम्यहम्॥ ३॥ नाभेयं देवपूज्यं, जिनवरमजितं, सर्वलोक- प्रदीपं, सर्वज्ञं सम्भवाख्यं, मुनि-गण- वृषभं, नन्दनं देव-देवं । कर्मारिघ्नं सुबुद्धिं, वरकमल-निभं, पद्मपुष्पाभिगन्धं, क्षान्तं दान्तं सुपाश्र्वं, सकलशशिनिभं, चंद्रनामानमीडे॥ ४॥ विख्यातं पुष्पदन्तं, भवभय-मथनं शीतलं, लोक-नाथं, श्रेयांसं शील-कोशं, प्रवर-नर-गुरुं, वासुपूज्यं सुपूज्यं। मुक्तं दान्तेन्द्रियाश्वं, विमलमृषिपतिं सिंहसैन्यं, मुनीन्द्रं, धर्मं सद्धर्मकेतुं, शमदमनिलयं, स्तौमि शान्तिं, शरण्यम् ॥5 ॥ कुन्थुं सिद्धालयस्थं, श्रमणपतिमरं, त्यक्तभोगेषु चक्रं, मल्लिं विख्यातगोत्रं, खचरगणनुतं, सुव्रतं सौख्यराशिं। देवेन्द्राच्र्यं नमीशं, हरिकुल-तिलकं, नेमिचन्द्रं भवान्तं, पाश्र्वं नागेन्द्रवन्द्यं, शरणमहमितो, वर्धमानं च भक्त्या॥ ६॥ आलोचनादण्डकम् इच्छामि भंते! चउवीसतित्थयरभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं पंचमहाकल्लाण-संपण्णाणं अट्ठमहा-पाडिहेर-सहियाणं चउतीसातिसय-विसेस-संजुत्ताणं बत्तीस-देविंदमणिमउडमत्थयमहियाणं बलदेव-वासुदेव-चक्कहररिसिमुणिजइअणगारोवगूढाणं थुइसय सहस्स-णिलयाणं उसहाइ-वीरपच्छिम-मंगल-महापुरिसाणं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुण संपत्ती होउ मज्झं। वदसमिदिंदियरोधो, लोचा-वासयमचेलमण्हाणं। खिदिसयणमदंत-वणं, ठिदिभोयणमेयभत्तं च॥१॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। एत्थपमाद-कदादो अइचारादो णियत्तोऽहं॥ २॥ छेदोवट्ठवणं होदु मज्झं। अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोषनिराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं,भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्री सिद्धभक्ति -प्रतिक्रमणभक्ति निष्ठितकरणवीरभक्ति-चतुर्विंशति तीर्थंकरभक्ती: कृत्वा तद्धीनाधिक दोषविशुद्ध्यर्थं आत्म-पवित्रीकरणार्थं समाधिभक्ति-कायोत्सर्गं करोम्यहम्। णमो अरहंताणं (इत्यादिदण्डकं पठित्वा कायोत्सर्गं कुर्यात्। अनन्तरं) थोस्सामीत्यादि पठेत्। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें।) अथेष्ट-प्रार्थना प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:। शास्त्राभ्यासो जिन-पति-नुति:, सङ्गति: सर्वदार्यै:, सद्वृत्तानां गुण- गण-कथा, दोष-वादे च मौनम्। सर्वस्यापि प्रिय-हित-वचो, भावना चात्म-तत्त्वे, सम्पद्यन्तां मम भव-भवे, यावदेतेऽपवर्ग:॥ १॥ तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम्। तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद् यावन् निर्वाण-सम्प्राप्ति:॥ २॥ अक्खर-पयत्थ-हीणं, मत्ताहीणं च जं मए भणियं। तं खमउ णाणदेव! य, मज्झवि दुक्खक्खयं दिंतु॥ ३॥ इच्छामि भंते! समाहिभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, रयणत्तय-सरूव-परमप्पज्झाण-लक्खण-समाहिभत्तीए णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं। (इति मुनि (आर्यिका) दैवसिक (रात्रिक) प्रतिक्रमणं समाप्तम्)
  18. मृत्यु - मार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे। समाधि-बोधि-पाथेयं यावन्मुक्ति-पुरी पुर:॥१॥ कृमि - जाल - शताकीर्णे, जर्जरे देह - पञ्जरे। भज्यमाने न भेतव्यं, यतस्त्वं ज्ञान-विग्रह:॥२॥ ज्ञानिन् भयं भवेत्कस्मात्प्राप्ते मृत्यु-महोत्सवे। स्वरूपस्थ: पुरं याति, देही देहान्तर-स्थितिम्॥ ३॥ सुदत्तं प्राप्यते यस्माद्, दृश्यते पूर्व-सत्तमै:। भुज्यते-स्वर्भवं सौख्यं मृत्युभीति: कुत: सताम्॥४॥ आगर्भाद्दु:ख - सन्तप्त: प्रक्षिप्तो देह-पिञ्जरे। नात्मा विमुच्यतेऽन्येन मृत्यु-भूमिपतिं विना॥ ५॥ सर्व - दु:खं - प्रदं पिण्डं दूरीकृत्यात्मदर्शिभि:। मृत्यु-मित्र-प्रसादेन प्राप्यन्ते सुख-सम्पद:॥ ६॥ मृत्यु-कल्पद्रुमे प्राप्ते येनात्मार्थो न साधित:। निमग्नो जन्म-जम्बाले स पश्चात् किं करिष्यति॥ ७॥ जीर्णं देहादिकं सर्वं नूतनं जायते यत:। स मृत्यु: किं न मोदाय सतां सतोत्थितिर्यथा॥ ८॥ सुखं दु:खं सदा वेत्ति देहस्थश्च स्वयं व्रजेत्। मृत्यु-भीतिस्तदा कस्य जायते परमार्थत:॥ ९॥ संसारासक्त-चित्तानां मृत्युर्भीत्यै भवेन्नृणाम्। मोदायते पुन: सोऽपि ज्ञान-वैराग्यवासिनाम्॥ १०॥ पुराधीशो यदा याति सुकृत्यस्य बुभुत्सया। तदासौ वार्यते केन प्रपञ्चै: पाञ्च-भौतिकै:॥ ११॥ मृत्यु-काले सतां दु:खं यद् भवेद् व्याधि-संभवम्। देह-मोह-विनाशाय मन्ये शिव-सुखाय च॥ १२॥ ज्ञानिनोऽमृत - सङ्गाय मृत्युस्तापकरोऽपि सन्। आमकुम्भस्य लोकेऽस्मिन् भवेत्पाकविधिर्यथा॥ १३॥ यत्फलं प्राप्यते सद्भिव्र्रतायास - विडम्बनात्। तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मृत्यु-काले समाधिना॥ १४॥ अनार्त: शान्तिमान् मत्र्यो न तिर्यग्नापि नारक:। धम्र्य-ध्यानी पुरो मत्र्योऽनशनी त्वमरेश्वर:॥ १५॥ तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च। पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्यु: समाधिना॥ १६॥ अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत्प्रीतिरिति हि जन-वाद:। चिरंतर-शरीर-नाशे नवतर-लाभे च किं भीरु:॥१७॥ स्वर्गादेत्य पवित्र-निर्मल - कुले संस्मर्यमाणा जनै- र्दत्वा भक्ति-विधायिनां बहुविधं वाञ्छानुरूपं धनम्! भुक्त्वा भोगमहर्निशं पर-कृतं स्थित्वा क्षणं मण्डले, पात्रावेश-विसर्जनामिव मृतिं सन्तो लभन्ते स्वत:॥ १८॥
  19. मैं नमन करता इष्ट जिन को, शुद्ध ज्ञान स्वरूप जो। कल्याण आलोचन कहूँ अब, स्व-परहित अनुरूप जो॥ १ ॥ हे जीव ! तू मिथ्यात्ववश ही, लोक में फिरता रहा। पर बोधिलाभ बिना अनन्तों, व्यर्थ भव धरता रहा॥ २॥ संसार में भ्रमते हुए, जिनधर्म यह न तुझे रुचा। जिसके बिना तू अनन्त दु:ख में, आज तक रह रह पचा॥ ३ ॥ संसार में रहकर अनन्तों, जन्म ले लेकर थका। पर धर्म बिन नहिं हाय उनका, अन्त अब तक कर सका॥ ४॥ छयासठ सहस अरु तीन सौ छत्तीस भव तक धर लिये। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण में अरु निगोद मध्य मरे जिये॥ ५॥ द्वि-इन्द्रिय में अस्सी तथा, भव साठ हैं ती-इंद्रिय में। चतुरिन्द्रिय में चालीस अरु, चौबीस हैं पंचेन्द्रिय में॥ ६॥ पृथ्वी प्रभृति एकेन्द्रिय में, जो हैं अपर्याप्तक अभी। छह सहस अरु बारह भवों को, एकइक धरते सभी॥ ७॥ अन्योन्य भक्षण वे करें, सह कर सदा दारुण व्यथा। पर्याप्ति बिन मतिशून्य, कैसे धर्म की चाहें कथा॥ ८॥ माता-पिता बन्धु स्वजन, जाता न कोई साथ है। संसार में भ्रमता हुआ, प्राणी सदैव अनाथ है॥ ९॥ आयु क्षय के बाद में, कोई न जीवन दे सके। देवेन्द्र या मनुजेन्द्र मणि, औषधि न कुछ भी कर सके॥ १० ॥ त्रि:शुद्धि योग प्रभाव से, जिनधर्म यह तुझको मिला। कर दे क्षमा सबको भुवन में, साम्यरस अमृत पिला॥ ११॥ हा! तीन-सौ-त्रेसठ मतों का कुमतिवश आश्रय लिया। सम्यक्त्व को घाता सदा, हो पाप मिथ्या,जो किया॥ १२ ॥ मद्य मांस तथा न मधु को, त्यागा न व्यसनों को त्रिधा। यह नियम भी नहीं कर सका, वे पाप सारे हों मुधा ॥ १३॥ अणुव्रत महाव्रत यह नियम, गुरु दत्त शील स्वभाव ये। जो जो विराधे हों सभी दुष्कृत मुधा मेरे लिए॥ १४॥ एक इन्द्रिय के लाख बावन अरु विकल छह लाख हैं। सुर नरक पशु सब लाख बारह मनुज चौदह लाख हैं॥ १५ ॥ मुझसे चुरासी लाख ये बार मरे मिटे सहस्रधा। खेद उनका हो रहा है पाप मेरे हों मुधा॥ १६॥ ये भूमि जल पावक तथा वायू हरित विकलत्रिकं। जो जो विराधे उन सभी का पाप मिथ्या हो स्वकं॥ १७॥ अतिचार सत्तर सब व्रतों के जो किए मैंने त्रिधा। समता क्षमा छूटी कभी, वे पाप सब होंवे मुधा॥ १८॥ फल पुष्प छल्ली बेल खाये अनछना जो जल पिया। व धोया तन संजोया पाप शून्य बने हिया॥ १९॥ जो शील तप संयम विनय उपवास या उत्तम क्षमा। धारण न इनको कर सका वे पाप सारे हों क्षमा॥ २०॥ फल कन्दमूल सचित्त खाये रात्रिभोजन या त्रिधा। अज्ञानवश जो जो किये वे पाप सारे हों मुधा॥ २१॥ नहिं देवपूजा दान ईर्यागमन को न किया त्रिधा। गमनागमन व अयत्न वश सब पाप वे होवें मुधा॥ २२॥ नहिं ब्रह्म पाला न कुसंग छोड़ा बन प्रमादी जन त्रिधा। अरु जीव अनन्त वध किये हा पाप सारे हों मुधा॥ २३॥ सत्तर तथा शत क्षेत्र के भूत-नागत वर्त से जितने त्रिधा। तीर्थंकरों का मार्ग छोड़ा वे पाप सारे हों मुधा॥ २४॥ अरिहंत सिद्ध गणी तथा पाठक यती सब ही त्रिधा। जो जो विराधे उन सभी का पाप सब होवे मुधा॥ २५॥ जिनधर्म प्रतिमा चैत्य वच अरु कृत्रिमा व अकृत्रिमा। जो जो विराधे उन सभी का पाप सब होवे मुधा॥ २६॥ दर्शन ज्ञान चारित्र है जो आठ आठ व पंचधा। जो जो विराधे उन सभी का पाप सब होवे मुधा॥ २७॥ मति श्रुत अवधि अरु मन:पर्यय और केवल ये त्रिधा। जो जो विराधे उन सभी का पाप सब होवे मुधा॥ २८॥ आचार आदिक अंग जिन-प्ररूपित पूर्व प्रकीर्णकं। जो जो विराधे उन सभी का पाप सब होवे मुधा॥ २९॥ पाँचों महाव्रत सहस अठदस शीलधारी मुनि तथा। जो जो विराधे उन सभी का पाप सब होवे वृथा॥ ३०॥ हैं उनके सम शुभ ऋद्धिधारी लोक में गणपति महा। जो जो विराधे उन सभी का पाप सब होवे अहा॥ ३१॥ निग्र्रन्थ आर्या श्राविका श्रावक चतुर्विध संघ भी। जो जो विराधे उन सभी का पाप मिथ्या हो अभी॥ ३२॥ सुर असुर नारक या तिर्यक् की योनि के प्राणी सभी। जो जो विराधे उन सभी का पाप मिथ्या हो अभी॥ ३३॥ क्रोधादि चार कषाय जो हैं, रागद्वेष स्वरूप हा। अज्ञानवश इनको भजा मैं, पाप सब मिथ्या हो महा॥ ३४ ॥ पर-वस्तु पर-रमणी प्रमादी बन किया जो पाप भी। करणीय नहिं जो वह किया, वे पाप मिथ्या हों सभी॥ ३५ ॥ मुझमें स्वभाव सुसिद्धता अरु सब विकल्प विमुक्तता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं है शरण निज शुद्धता॥ ३६ ॥ नीरस अरूप अगंध सुखमय, व अबाध ज्ञानमयी स्वत:। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ३७ ॥ निज भाव में रहता हुआ, जो ज्ञान सबको जानता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ३८ ॥ है एक और अनेक तो भी नहिं तजे निज रूपता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ३९ ॥ है नित्य देहप्रमाण किन्तु, स्वभाव लोक प्रमाणता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ४० ॥ कैवल्य से युगपत् सभी को, देखता अरु जानता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ४१ ॥ है सहज सिद्ध विभावशून्य, व कर्म से न्यारा स्वत:। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ४२ ॥ जो शून्य होकर शून्य नाहीं, कर्म - वर्जित ज्ञानता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ४३ ॥ है भिन्न सर्व विकल्प सुखमय, ज्ञान से नहीं भिन्नता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं,है शरण निज शुद्धता॥ ४४॥ है अछिन्न अवछिन्न नाहीं, अगुरुलघुत्व प्रमेयता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं, है शरण निज शुद्धता॥ ४५॥ शुभ या अशुभ से भिन्न होकर, निज स्वभाव सुलीनता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं,है शरण निज शुद्धता॥ ४६॥ ी पुरुष नहिं षंढ नाहीं अरु पाप पुण्य विभिन्नता। कुछ अन्य मुझको शरण नाहीं,है शरण निज शुद्धता॥ ४७॥ तेरा नहिं कोई न तू है, बन्धु बान्धव अन्य का। है शुद्ध एकाकी सदा तूं, आप रहता आपका ॥ ४८॥ जिनधर्म की सेवा तथा, शासन सुप्रेमी बन सदा । संन्यासपूर्वक मरण होवे, प्राप्त हो निज सम्पदा ॥ ४९॥ जिनदेव ही इक देव हैं, जिनदेव से ही प्रीत है। जो दयामय धर्म बस, उस धर्म से ही जीत है ॥ ५०॥ साधू महा साधू महा जो है दिगम्बर साधुजन। पाऊँ न जब तक मुक्ति तब तक भाव ये होवे सुमन॥ ५१॥ व्यर्थ मेरा काल बीता, दु:ख अनन्तों भोगकर। जिन कथित नहिं संन्यास पाया, यत्न से सुविचारकर॥५२॥ इस समय जो प्राप्त की आराधना जिनदेव की । होगी न मेरी कौन-सी शुभ सिद्धि अब स्वयमेव ही॥ ५३ ॥ सद्धर्म की महिमा बढ़ी है, लब्धि भी निर्मल अहो। जिससे मिला सम्प्रति मुझे, अनुपम महासुख यह अहो॥५४॥ विधि वन्दना प्रतिक्रमण की, आलोचना भी है यही। आराधना जो सविधि उसको प्राप्त होती सुख मही॥ ५५ ॥
  20. पारस प्रभु का दर्शन होगा पारस प्रभु का दर्शन होगा, चरणों में उनके तन मन होगा। ऐसा सुन्दर, उज्जवल, अपना जीवन होगा॥टेक॥ पारस प्रभु को भजूं, सांझ और सवेरे । मोह तृष्णा को तजूं, तब ही कुछ काज बने रे। दश विधि धर्म का पालन होगा, चरणों में उनके तन मन होगा। ऐसा सुन्दर.... फ़िर तो दुनिया के सब ही, झमेले छूट जायेंगे। कर्मों के बन्धन भी, अवश्य छूट जायेगे। केवल ज्ञान का दर्शन होगा, चरणों में उनके तन मन होगा। ऐसा सुन्दर....
  21. करुणा सागर भगवान तर्ज: होठों से छू लो... करुणा सागर भगवान, भव पार लगा देना । तूफ़ां है बहुत भारी, मेरी नाव बचा देना ॥ मोही बनकर मैंने अब तक जीवन खोया । अपने ही हाथों से काटों का बीज बोया ॥ अब शरण तेरी आया, दुख जाल हटा देना ।१। करुणा सागर.. मैंने चहुंगतियों में बहु कष्ट उठाया है । लख चौरासी फ़िरते सुख चैन न पाया है ॥ दुखिया हूं भटक रहा प्रभु लाज बचा देना ।२। करुणा सागर.. भगवन तेरी भक्ति से संकट टल जाते हैं । अज्ञान तिमिर मिटता सुख अमृत पाते हैं। चरणों में खडा प्रभुजी मुझे राह बता देना ।३। करुणा सागर..
  22. चाह मुझे है दर्शन की तर्ज : प्रभु दर्शन से जीवन की.... चाह मुझे है दर्शन की, प्रभु के चरण स्पर्शन की ।। वीतराग-छवि प्यारी है, जगजन को मनहारी है । मूरत मेरे भगवन की, वीर के चरण स्पर्शन की ।। कुछ भी नहीं श्रृंगार किये, हाथ नहीं हथियार लिये । फौज भगाई कर्मन की, प्रभु के चरण स्पर्शन की ।। समता पाठ पढ़ाती है, ध्यान की याद दिलाती है । नासादृष्टि लखो इनकी, प्रभु के चरण स्पर्शन की ।। हाथ पे हाथ धरे ऐसे, करना कुछ न रहा जैसे । देख दशा पद्मासन की, वीर के चरण स्पर्शन की ।। जो शिव-आनन्द चाहो तुम, इन-सा ध्यान लगाओ तुम । विपत हरे भव-भटकन की,प्रभु के चरण स्पर्शन की ||
  23. ओ जगत के शान्तिदाता तर्ज: ओ बसंती पवन पागल... ओ जगत के शान्तिदाता, शान्ति जिनेश्वर, जय हो तेरी॥टेक॥ मोह माया में फ़ंसा, तुझको भी पहिचाना नही। ज्ञान है ना ध्यान दिल में धर्म को जाना नहीं। दो सहारा, मुक्तिदाता, शान्ति जिनेश्वर, जय हो तेरी.....॥ बनके सेवक हम खडे हैं, आज तेरे द्वार पे। हो कृपा जिनवर तो बेडा, पार हो संसार से। तेरे गुण स्वामी मैं गाता, शान्ति जिनेश्वर, जय हो तेरी.....॥ किसको मैं अपना कहूं, कोई नजर आता नहीं। इस जहां में आप बिन कोई भी मन भाता नहीं। तुम ही हो त्रिभुवन विधाता, शान्ति जिनेश्वर, जय हो तेरी...॥
  24. देखो जी आदीश्वर स्वामी देखो जी आदीश्वर स्वामी कैसा ध्यान लगाया है । कर ऊपरि कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है ।। जगत-विभूति भूतिसम तजकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभित श्वासा, आशा वासा, नासादृष्टि सुहाया है ।। कंचन वरन चलै मन रंच न, सुरगिर ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि मोर मृगी हरि, जातिविरोध नसाया है।। शुध उपयोग हुताशन में जिन,वसुविधि समिध जलाया है| श्यामलि अलकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है ।। जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन, तृन-मनिको सम भाया है| सुर नर नाग नमहिं पद जाकै, `दौल' तास जस गाया है।।
  25. निरखत जिनचन्द्र-वदन निरखत जिनचन्द्र-वदन, स्वपदसुरुचि आई ।।टेक. ।। प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी । कला उदोत होत काम, जामिनी पलाई ।।१ ।। शाश्वत आनन्द स्वाद, पायो विनस्यो विषाद । आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई ।।२ ।। साधी निज साधकी, समाधि मोह व्याधिकी । उपाधिको विराधिकैं, आराधना सुहाई ।।३ ।। धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंतें जिनराज अबै । सुधरे सब काज `दौल', अचल ऋद्धि पाई ।।४ ।।
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