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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. तुझे प्रभु वीर कहते हैं तर्ज: ये मेरा प्रेमपत्र... तुझे प्रभु वीर कहते हैं, और अतिवीर कहते हैं। अनेकों नाम तेरे पर, अधिक महावीर कहते हैं ॥ अनंतो गुणों का तू धारी, तेरा यशगान हम गायें, हे युग के नाथ निर्माता, तुझे नत शीश नवायें, दया होवे प्रभू ऐसी, कि हम सब भव से पार हों, भव से पार हों, भव से पार हों ॥ तुझे प्रभु वीर …॥ युगों से जीव यह मेरा, देह का योग है पाता, मोह के जाल में फ़ंसकर, आत्म निज और नहीं जाता, पिला अध्यात्म रस स्वामी, ज्ञान की क्षुधा धार हो, क्षुधा धार हो, क्षुधा धार हो ॥ तुझे प्रभु वीर …॥ सत्य श्रद्धान हो मेरे, कि सम्यक ज्ञान हो मेरे, यही विनती मेरे स्वामी, रहूं चरणों में नित तेरे, कभी फ़िर मोक्ष मिल जाए, कि वृद्धि सुख अपार हो, सुख अपार हो, सुख अपार हो ॥ तुझे प्रभु वीर …॥
  2. तेरी शीतल-शीतल मूरत तर्ज: तेरी प्यारी प्यारी सूरत को... तेरी शीतल-शीतल मूरत लख कहीं भी नजर ना जमें, प्रभू शीतल सूरत को निहारें पल पल तब छबि दूजी नजर ना जमें! प्रभू शीतल ॥ भव दु:ख दाह सही है घोर कर्म बली पर चला न जोर तुम मुख चन्द्र निहार मिली अब परम शान्ति सुख शीतल ढोर निज पर का ज्ञान जगे घट में भव बंधन भीड़ थमें ॥ प्रभू.. सकल ज्ञेय के ज्ञायक हो, एक तुम्ही जग नायक हो वीतराग सर्वज्ञ प्रभू तुम, निज स्वरूप शिवदायक हो `सौभाग्य' सफल हो नर जीवन, गति पंचम धाम धमे ॥ प्रभू ..
  3. चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के चन्द्रानन जिन चन्द्रनाथ के, चरन चतुर-चित ध्यावतु हैं कर्म-चक्र-चकचूर चिदातम, चिनमूरत पद पावतु हैं ॥ हाहा-हूहू-नारद-तुंबर, जासु अमल जस गावतु हैं पद्मा सची शिवा श्यामादिक, करधर बीन बजावतु हैं ॥ बिन इच्छा उपदेश माहिं हित, अहित जगत दरसावतु हैं जा पदतट सुर नर मुनि घट चिर, विकट विमोह नशावतु हैं॥ जाकी चन्द्र बरन तनदुतिसों, कोटिक सूर छिपावतु हैं आतमजोत उदोतमाहिं सब, ज्ञेय अनंत दिपावतु हैं ॥ नित्य-उदय अकलंक अछीन सु, मुनि-उडु-चित्त रमावतु हैं जाकी ज्ञानचन्द्रिका लोका-लोक माहिं न समावतु हैं ॥ साम्यसिंधु-वर्द्धन जगनंदन, को शिर हरिगन नावतु हैं संशय विभ्रम मोह `दौल' के, हर जो जगभरमावतु हैं ॥
  4. पद्मसद्म पद्मापद पद्मा पद्मसद्म पद्मापद पद्मा, मुक्तिसद्म दरशावन है । कलि-मल-गंजन मन अलि रंजन, मुनिजन शरन सुपावन है ।। जाकी जन्मपुरी कुशंबिका, सुर नर-नाग रमावन है, जास जन्मदिनपूरब षटनव, मास रतन बरसावन है ॥ जा तपथान पपोसागिरि सो, आत्म-ज्ञान थिर थावन है, केवलजोत उदोत भई सो, मिथ्यातिमिर-नशावन है ॥ जाको शासन पंचाननसो, कुमति मतंग नशावन है, राग बिना सेवक जन तारक,पै तसु रुषतुष भाव न है ॥ जाकी महिमा के वरननसों, सुरगुरु बुद्धि थकावन है, 'दौल' अल्पमति को कहबो जिमि, शशक गिरिंद धकावन है ॥
  5. जगदानंदन जिन अभिनंदन जगदानंदन जिन अभिनंदन, पदअरविंद नमूं मैं तेरे ।। अरुणवरन अघताप हरन वर, वितरन कुशल सु शरन बडेरे । पद्मासदन मदन-मद-भंजन, रंजन मुनिजन मन अलिकेरे ।। ये गुन सुन मैं शरनै आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे । ता मदभानन स्वपर पिछानन, तुम विन आन न कारन हेरे।। तुम पदशरण गही जिनतैं ते, जामन-जरा-मरन-निरवेरे । तुमतैं विमुख भये शठ तिनको, चहुँगति विपत महाविधि पेरे ॥ तुमरे अमित सुगुन ज्ञानादिक, सतत मुदित गनराज उगेरे, लहत न मित मैं पतित कहों किम, किन शशकन गिरिराज उखेरे ॥ तुम बिन राग दोष दर्पन ज्यों, निज निज भाव फलैं तिनकेरे । तुम हो सहज जगत उपकारी, शिवपथ-सारथ वाह भलेरे ॥ तुम दयाल बेहाल बहुत हम, काल-कराल व्याल-चिर-घेरे, भाल नाय गुणमाल जपों तुम, हे दयाल, दुखटाल सबेरे ॥ तुम बहु पतित सुपावन कीने, क्यों न हरो भव संकट मेरे, भ्रम-उपाधि हर शम समाधिकर,, `दौल' भये तुमरे अब चेरे ॥
  6. रंग मा रंग मा रंग मा रंग मा रंग मा रे प्रभु थारा ही रंग मा रंग गयो रे । आया मंगल दिन मंगल अवसर, भक्ति मा थारी हूं नाच रह्यो रे॥ प्रभु थारा.. गावो रे गाना आतम राम का, आतम देव बुलाय रह्यो रे॥ प्रभु थारा.. आतम देव को अंतर में देखा, सुख सरोवर उछल रह्यो रे॥ प्रभु थारा.. भाव भरी हम भावना ये भायें, आप समान बनाय लियो रे॥ प्रभु थारा.. समयसार में कुन्दकुन्द देव, भगवान कही न बुलाय रह्यो रे॥ प्रभु थारा.. आज हमारो उपयोग पलट्यो, चैतन्य चैतन्य भासि रह्यो रे॥ प्रभु थारा..
  7. मनहर तेरी मूरतिया मनहर तेरी मूरतियां, मस्त हुआ मन मेरा। तेरा दर्श पाया, पाया, तेरा दर्श पाया॥ प्यारा प्यारा सिंहासन अति भा रहा, भा रहा। उस पर रूप अनूप तिहारा, छा रहा, छा रहा। पद्मासन अति सोहे रे, नयना उमगे हैं मेरे। चित्त ललचाया, पाया। तेरा दर्श पाया.. तव भक्ति से भव के दुख मिट जाते हैं, जाते हैं। पापी तक भी भव सागर तिर जाते हैं, तिर जाते हैं। शिव पद वह ही पाये रे, शरणा आगत में तेरी। जो जीव आया, पाया। तेरा दर्श पाया.. सांच कहूं कोइ निधि मुझको मिल गयी,मिल गयी। जिसको पाकर मन की कलियां खिल गयी,खिल गयी। आशा पूरी होगी रे, आश लगा के वृद्धि, तेरे द्वार आया, पाया। तेरा दर्श पाया..
  8. आया, आया, आया तेरे दरबार में तर्ज : आजा मेरी बरबाद मुहोब्बत – अनमोल गाडी आया, आया, आया तेरे दरबार में त्रिशला के दुलारे अब तो लगा मझदार से यह नाव किनारे ॥ अथा संसार सागर में फ़ंसी है नाव यह मेरी फ़ंसी है नाव यह मेरी ताकत नहीं है और जो पतवार संभारे ॥ अब तो... सदा तूफ़ान कर्मों का नचाता नाच है भारी नचाता नाच है भारी सहे दुख लाख चौरासी नहीं वो जाते उचारे ॥ अब तो... पतित पावन तरण तारण, तुम्हीं हो दीन दुख भन्जन तुम्हीं हो दीन दुख भन्जन बिगडी हजारों की बनी है तेरे सहारे ॥ अब तो... तेरे दरबार में आकर न खाली एक भी लौटा न खाली एक भी लौटा मनोरथ पूर दें ’सौभाग्य’ देता ढोक तुम्हारे ॥ अब तो...
  9. शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करू प्रणाम । उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ।। सर्व साधू और सरस्वती, जिनमन्दिर सुखकार । महावीर भगवान् को मन मंदिर में धार।। जय महावीर दयालु स्वामी, वीर प्रभु तुम जग में नामी। वर्धमान हैं नाम तुम्हारा, लगे ह्रदय को प्यारा प्यारा ।। शांत छवि मन मोहिनी मूरत, शांत हंसिली सोहिनी सूरत। तुमने वेश दिगंबर धारा, करम शत्रु भी तुमसे हारा ।। क्रोध मान वा लोभ भगाया माया ने तुमसे डर खाया । तू सर्वज्ञ सर्व का ज्ञाता, तुझको दुनिया से क्या नाता ।। तुझमे नहीं राग वा द्वेष, वीतराग तू हित उपदेश । तेरा नाम जगत में सच्चा, जिसको जाने बच्चा बच्चा ।। भुत प्रेत तुमसे भय खावे, व्यंतर राक्षस सब भाग जावे। महा व्याधि मारी न सतावे, अतिविकराल काल डर खावे।। काला नाग होय फन धारी, या हो शेर भयंकर भारी । ना ही कोई बचाने वाला, स्वामी तुम ही करो प्रतिपाला ।। अग्नि दावानल सुलग रही हो, तेज हवा से भड़क रही हो। नाम तुम्हारा सब दुख खोवे, आग एकदम ठंडी होवे ।। हिंसामय था भारत सारा, तब तुमने लीना अवतारा । जन्म लिया कुंडलपुर नगरी, हुई सुखी तब जनता सगरी ।। सिद्धार्थ जी पिता तुम्हारे, त्रिशाला की आँखों के तारे । छोड़ के सब झंझट संसारी, स्वामी हुए बाल ब्रम्हाचारी ।। पंचम काल महा दुखदायी, चांदनपुर महिमा दिखलाई । टीले में अतिशय दिखलाया, एक गाय का दुध झराया ।। सोच हुआ मन में ग्वाले के, पंहुचा एक फावड़ा लेके । सारा टीला खोद गिराया, तब तुमने दर्शन दिखलाया ।। जोधराज को दुख ने घेरा, उसने नाम जपा जब तेरा । ठंडा हुआ तोप का गोला, तब सब ने जयकारा बोला ।। मंत्री ने मंदिर बनवाया, राजा ने भी दरब लगाया । बड़ी धर्मशाला बनवाई, तुमको लाने की ठहराई ।। तुमने तोड़ी बीसों गाडी, पहिया खिसका नहीं अगाडी । ग्वाले ने जब हाथ लगाया, फिर तो रथ चलता ही पाया ।। पहले दिन बैसाख वदी के, रथ जाता है तीर नदी के । मीना गुजर सब ही आते, नाच कूद सब चित उमगाते ।। स्वामी तुमने प्रेम निभाया, ग्वाले का तुम मान बढाया । हाथ लगे ग्वाले का तब ही, स्वामी रथ चलता हैं तब ही ।। मेरी हैं टूटी सी नैया, तुम बिन स्वामी कोई ना खिवैया । मुझ पर स्वामी ज़रा कृपा कर, मैं हु प्रभु तुम्हारा चाकर ।। तुमसे मैं प्रभु कुछ नहीं चाहू, जनम जनम तव दर्शन चाहू । चालिसे को चन्द्र बनावे, वीर प्रभु को शीश नमावे ।। नित ही चालीस बार, पाठ करे चालीस । खेय धुप अपार, वर्धमान जिन सामने ।। होय कुबेर समान, जन्म दरिद्र होय जो । जिसके नहीं संतान, नाम वंश जग में चले ।।
  10. (दोहा) बड़ागाँव अतिशय बड़ा, बनते बिगड़े काज । तीन लोक तीरथ नमहुँ, पार्श्व प्रभु महाराज ।।१।। आदि-चन्द्र-विमलेश-नमि, पारस-वीरा ध्याय । स्याद्वाद जिन-धर्म नमि, सुमति गुरु शिरनाय ।।२।। (मुक्त छन्द) भारत वसुधा पर वसु गुण सह, गुणिजन शाश्वत राज रहे । सबकल्याणक तीर्थ-मूर्ति सह, पंचपरम पद साज रहे ।।१।। खाण्डव वन की उत्तर भूमी, हस्तिनापुर लग भाती है । धरा-धन्य रत्नों से भूषित, देहली पास सुहाती है ।।२।। अर्धचक्रि रावण पंडित ने, आकर ध्यान लगाया था । अगणित विद्याओं का स्वामी, विद्याधर कहलाया था ।।३।। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का, समवशरण मन भाया था । अगणित तीर्थंकर उपदेशी, भव्यों बोध कराया था ।।४।। चन्द्रप्रभु अरु विमलनाथ का, यश-गौरव भी छाया था । पारसनाथ वीर प्रभुजी का, समोशरण लहराया था ।।५।। बड़ागाँव की पावन-भूमी, यह इतिहास पुराना है । भव्यजनों ने करी साधना, मुक्ती का पैमाना है ।।६।। काल परिणमन के चक्कर में, परिवर्तन बहुबार हुए । राजा नेक शूर-कवि-पण्डित, साधक भी क्रम वार हुए ।।७।। जैन धर्म की ध्वजा धरा पर, आदिकाल से फहरायी । स्याद्वाद की सप्त-तरंगें, जन-मानस में लहरायी ।।८।। बड़ागाँव जैनों का गढ़ था, देवों गढ़ा कहाता था । पाँचों पाण्डव का भी गहरा, इस भूमी से नाता था ।।९।। पारस-टीला एक यहाँ पर, जन-आदर्श कहाता था । भक्त मुरादें पूरी होतीं, देवों सम यश पाता था ।।१०।। टीले की ख्याती वायु सम, दिग्-दिगन्त में लहरार्इ । अगणित चमत्कार अतिशय-युत, सुरगण ने महिमा गार्इ ।।११।। शीशराम की सुन्दर धेनु, नित टीले पर आती थी । मौका पाकर दूध झराकर, भक्ति-भाव प्रगटाती थी ।।१२।। ऐलक जी जब लखा नजारा, कैसी अद्भुत माया है । बिना निकाले दूध झर रहा, क्या देवों की छाया है ।।१३।। टीले पर जब ध्यान लगाया, देवों ने आ बतलाया । पारस-प्रभु की अतिशय प्रतिमा, चमत्कार सुर दिखलाया ।।१४।। भक्तगणों की भीड़ भावना, धैर्य बाँध भी फूट पड़ा । लगे खोदने टीले को सब, नागों का दल टूट पड़ा ।।१५।। भयाकुलित लख भक्त-गणों को, नभ से मधुर-ध्वनी आयी । घबराओ मत पारस प्रतिमा, शनै: शनै: खोदो भार्इ ।।१६।। ऐलक जी ने मंत्र शक्ति से, सारे विषधर विदा किये । णमोकार का जाप करा कर, पार्श्व-प्रभू के दर्श लिये ।।१७।। अतिशय दिव्य सुशोभित प्रतिमा, लखते खुशियाँ लहरार्इ । नाच उठे नर-नारि खुशी से, जय-जय ध्वनि भू नभ छार्इ ।।१८।। मेला सा लग गया धरा, पारस प्रभु जय-जयकारे । मानव पशुगण की क्या गणना, भक्ती में सुरपति हारे ।।१९।। जब-जब संकट में भक्तों ने, पारस प्रभु पुकारे हैं । जग-जीवन में साथ न कोर्इ, प्रभुवर बने सहारे हैं ।।२०।। बंजारों के बाजारों में, बड़ेगाँव की कीरत थी । लक्ष्मण सेठ बड़े व्यापारी, सेठ रत्न की सीरत थी ।।२१।। अंग्रेजों ने अपराधी कह, झूठा दाग लगाया था । तोपों से उड़वाने का फिर, निर्दय हुकुम सुनाया था ।।२२।। दुखी हृदय लक्ष्मण ने आकर, पारस-प्रभु से अर्ज करी । अगर सत्य हूँ हे निर्णायक, करवा दो प्रभु मुझे बरी ।।२३।। कैसा अतिशय हुआ वहाँ पर, शीतल हुआ तोप गोला । गद-गद्-हृदय हुआ भक्तों का, उतर गया मिथ्या-चोला ।।२४।। भक्त-देव आकर के प्रतिदिन, नूतन नृत्य दिखाते हैं । आपत्ति लख भक्तगणों पर, उनको धैर्य बंधाते हैं ।।२५।। भूत-प्रेत जिन्दों की बाधा, जप करते कट जाती है । कैसी भी हो कठिन समस्या, अर्चे हल हो जाती है ।।२६।। नेत्रहीन कतिपय भक्तों ने, नेत्र-भक्ति कर पाये हैं । कुष्ठ-रोग से मुक्त अनेकों, कंचन-काया भाये हैं ।।२७।। दुख-दारिद्र ध्यान से मिटता, शत्रु मित्र बन जाते हैं । मिथ्या तिमिर भक्ति दीपक लख, स्वाभाविक छंट जाते हैं ।।२८।। पारस कुइया का निर्मल जल, मन की तपन मिटाता है । चर्मरोग की उत्तम औषधि रोगी पी सुख पाता है ।।२९।। तीन शतक पहले से महिमा, अधुना बनी यथावत् है । श्रद्धा-भक्ती भक्त शक्ति से, फल नित वरे तथावत् है ।।३०।। स्वप्न सलोना दे श्रावक को, आदीश्वर प्रतिमा पायी । वसुधा-गर्भ मिले चन्दाप्रभु, विमल सन्मती गहरायी ।।३१।। आदिनाथ का सुमिरन करके, आधि-व्याधि मिट जाती है । चन्दाप्रभु अर्चे छवि निर्मल, चन्दा सम मन भाती है ।।३२।। विमलनाथ पूजन से विमला, स्वाभाविक मिल जाती है । पारस प्रभु पारस सम महिमा, वर्द्धमान सुख थाती है ।।३३।। दिव्य मनोहर उच्च जिनालय समवशरण सह शोभित हैं । पंच जिनालय परमेश्वर के, भव्यों के मन मोहित हैं ।।३४।। बनी धर्मशाला अति सुन्दर, मानस्तम्भ सुहाता है । आश्रम गुरुकुल विद्यालय यश, गौरव क्षेत्र बढ़ाता है ।।३५।। यह स्याद्वाद का मुख्यालय, यह धर्म-ध्वजा फहराता है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण सह, मुक्ती-पथ दरशाता है ।।३६।। तीन लोक तीरथ की रचना, ज्ञान ध्यान अनुभूति करो । गुरुकुल साँवलिया बाबाजी, जो माँगो दें अर्ज करो ।।३७।। अगहन शुक्ला पंचमि गुरुदिन, विद्याभूषण शरण लही । स्याद्वाद गुरुकुल स्थापन, पच्चीसों चौबीस भर्इ ।।३८।। शिक्षा मंदिर औषधि शाला, बने साधना केन्द्र यहीं । दुख दारिद्र मिटे भक्तों का, अनशरणों की शरण सही ।।३९।। स्वारथ जग नित-प्रति धोखे खा, सन्मति शरणा आये हैं । चूक माफ मनवांछित फल दो, स्याद्वाद गुण गाये हैं ।।४०।। (दोहा) हे पारस जग जीव हों, सुख सम्पति भरपूर । साम्यभाव ‘सन्मति’ रहे, भव दुख हो चकचूर ।।
  11. श्री जिनवाणी शीश धार कर, सिद्ध परभू का करके ध्यान । लिखू नेमि चालीसा सुखकार, नेमी प्रभु की शरण में आन।। समुन्द्र विजय यादव कुलराई, सौरिपुर रजधानी कहाई । शिवादेवी उनकी महारानी, षष्ठी कार्तिक शुक्ल बखानी ।। सुख से शयन करें शैया पर, सपने देखे सौलह सुन्दर । तज विमान जयंत अवतारे, हुए मनोरथ पूरण सारे ।। प्रतिदिन महल में रतन बरसते, यदुवंशी निज मन में हरषते । दिन षष्ठी सावन शुक्ल का, हुआ अभ्युदय पुत्र रतन का ।। तिन लोक में आनद छाया, प्रभु को मेरु पर पधराश । न्वहन हेतु जल ले क्षीरसागर, मणियो के थे कलश मनोहर ।। कर अभिषेक किया परनाम, अरिष्ट नेमि दिया शुभ नाम । शोभित तुमसे सत्य मराल, जीता तुमने काल कराल ।। सहस अष्ट लक्षण सुलालाम, नील कमल सम वर्ण अभिराम । वज्र शारीर दस धनुष उतंग, लज्ज्ति तुम छवि देव अनंग ।। चाचा ताऊ रहते साथ, नेमि कृष्ण चचेरे भ्रात । धरा जब यौवन जिनराई, राजुल के संघ हुई सगाई ।। जूनागढ़ को चली बरात, छप्पन कोटि यादव साथ । सुना पशुओ का क्रंदन, तोडा मोर मुकुट और कंगन ।। बाड़ा खोल दिया पशुओं का, धारा वेष दिगंबर मुनि का । कितना अद्भुत संयम मन में, ज्ञानी जन अनुभव करें मन में ।। नौ नौ आंसू राजुल रोवे, बारम्बार मूर्छित होवे। फेंक दिया दुल्हन श्रृंगार, रो रो कर यों करे पुकार ।। नौ भव की तोड़ी क्यों प्रीत, कैसी हैं ये धर्मं की रीत । नेमि दे उपदेश त्याग का, उमड़ा सागर वैराग्य का ।। राजुल ने भी ले ली दीक्षा, हुई संयम उत्तीर्ण परीक्षा । दो दिन रह कर के निराहार, तीसरे दिन करे स्वामी विहार ।। वरदत्त महीपति दे आहार, पंचाश्चार्य हुए सुखकार । रहे मौन छप्पन दिन तक, तपते रहे कठिनतम तप व्रत ।। प्रतिपदा अश्विन उजियारी, हुए केवली प्रभु अविकारी । समोशरण की रचना करते, सुरगण ज्ञान की पूजा करते ।। भवि जीवों के पुण्य प्रभाव से, दिव्या ध्वनि खिरती सदभाव से । जो भी होता हे आत्माज्ञ, वो ही होता हे सर्वज्ञ ।। ज्ञानी निज आतम को निहारे, अज्ञानी पर्याय संवारे । हैं अदभुत वैरागी दृष्टि, स्वाश्रित हो तजते सब सृष्टि ।। जैन धर्मं तो धर्म सभी का, हैं निज धर्म ये प्राणीमात्र का । जो भी पहचाने जिनदेव, वो ही जाने आतम देव ।। रागादि के उन्मूलन को, पूजे सब जिनदेव चरण को । देश विदेश में हुआ विहार, गाये अंत में गढ़ गिरनार ।। सब कर्मो का करके नाश, प्रभु ने पाया पद अविनाश । जो भी प्रभु की शरण में आते, उनको मंवांचित मिल जाते ।। ज्ञानार्जन करके शाष्त्रो से, लोकार्पण करती श्रद्धा से । अर्चना बस यही वर चाहें, निज आतम दर्शन हो जावे ।।
  12. सतत पूज्यनीय भगवन, नमिनाथ जिन महिभावान । भक्त करें जो मन में ध्याय, पा जाते मुक्ति वरदान ।। जय श्री नमिनाथ जिन स्वामी, वसु गुण मण्डित प्रभु प्रणमामि । मिथिला नगरी प्रान्त बिहार, श्री विजय राज्य करें हितकार ।। विप्रा देवी महारानी थी, रूप गुणों की वो खानी थी । कृष्णाश्विन द्वितीय सुखदाता, षोडश स्वपन देखती माता।। अपराजित विमान को तजकर, जननी उदर बसे प्रभु आकर । कृष्ण असाढ़ दशमी सुखकार, भूतल पर हुआ प्रभु अवतार ।। आयु सहस दस वर्ष प्रभु की, धनु पंद्रह अव्गना उनकी । तरुण हुए जब राजकुमार, हुआ विवाह तब आनंदकार ।। एक दिन भ्रमण करे उपवन में, वर्षा ऋतू में हर्षित मन में । नमस्कार करके दो देव, कारण कहने लगे स्वयमेव ।। ज्ञात हुआ की क्षेत्र विदेह में, भावी तीर्थंकर तुम जग में । देवों से सुन कर ये बात, राजमहल लोटें नमिनाथ ।। सोच हुआ भव भव भ्रमण का, चिंतन करते रहे मोचन का । परम दिगंबर व्रत करू अर्जन, रत्नात्रय्धन करू उपार्जन ।। सुप्रभ सूत को राज सौपकर, गाये चित्रवन में जिनवर । दशमी असाढ़ मास की कारी, साहस नृपति संग दीक्षा धारी ।। दो दिन तक उपवास धारकर, आतम लीन हुए श्री प्रभुवर । तीसरे दिन जब किया विहार, भूप वीरपुर दे आहार।। नौ वर्ष तक तप किया वन में, एक दिन मौली श्री तरु तल में । अनुभूति हुई दिव्याभास, शुक्ल एकादशी मंगसिर मास ।। नमिनाथ हुए ज्ञान के सागर, ज्ञानोत्सव करते सुर आकर । समोशरण था सभा विभूषित, मानस्तम्भ थे चार सुशोभित ।। हुआ मौन भंग दिव्य ध्वनि से, सब दुःख दूर हुए अवनि से । आत्म पदार्थ की सत्ता सिद्ध, करना तन में अहम् प्रसिद्द ।। बाह्येंद्रियो में करण के द्वारा, अनुभव से करता स्वीकारा। पर परिणिति से ही यह जीव, चतुर्गति में भ्रमे सदीव ।। रहे नरक सागर पर्यन्त, सहे भूख प्यास तिर्यंच । हुआ मनुज तो भी संक्लेश, देवों में भी इर्ष्या द्वेष ।। नहीं सुखो का कही ठिकाना, सच्चा सुख तो मोक्ष में माना । मोक्ष गति का द्वार हैं एक, नरभव से ही पाए नेक ।। सुन कर मगन हुए सब सुरगण, व्रत धारण करते श्रावक जन । हुआ विहार जहां भी प्रभु का, हुआ वहीँ कल्याण सभी का ।। करते विहार जिनेश, एक मास रही आयु शेष । शिखर सम्मेद के ऊपर जाकर, प्रतिमा योग धरा हर्षाकर ।। शुक्ल ध्यान की अग्नि प्रजारी, हने अघाति कर्म दुखकारी । अजर अमर शाश्वत पद पाया, सुर नर सबका मन हर्षाया ।। शुभ निर्वाण महोत्सव करते, कूट मित्रधर पूजन करते । प्रभु हैं नील कमल से अलंकृत, हम हो उत्तम फल से उपकृत ।। नमिनाथ स्वामी जगवन्दन, अरुणा करती प्रभु अभिनन्दन ।।
  13. अरिहंत सिद्ध आचार्य को करुं प्रणाम । उपाध्याय सर्वसाधू करते स्वपर कल्याण ।। जिनधर्म, जिनागम, जिनमंदिर पवित्र धाम । वीतराग की प्रतिमा को कोटि कोटि प्रणाम ।। जय मुनिसुव्रत दया के सागर । नाम प्रभु का लोक उजागर ।। सुमित्रा राजा के तुम नन्दा । मां शामा की आंखो के चन्दा ।। श्यामवर्ण मूरत प्रभू की प्यारी । गुणगान करें निशदिन नर नारी ।। मुनिसुव्रत जिन हो अन्तरयामी । श्रद्धा भाव सहित तुम्हें प्रणामी ।। भक्ति आपकी जो निशदिन करता । पाप ताप भय संकट हरता ।। प्रभू; संकटमोचन नाम तुम्हारा । दीन दुखी जीवों का सहारा ।। कोई दरिद्री या तन का रोगी । प्रभू दर्शन से होते हैं निरोगी ।। मिथ्या तिमिर भयो अति भारी । भव भव की बाधा हरो हमारी ।। यह संसार महा दुख दाई । सुख नहीं यहां दुख की खाई ।। मोह जाल में फंसा है बंदा । काटो प्रभु भव भव का फंदा ।। रोग शोक भय व्याधि मिटावो । भव सागर से पार लगावो ।। घिरा कर्म से चौरासी भटका । मोह माया बन्धन में अटका ।। संयोग वियोग भव भव का नाता । राग द्वेष जग में भटकाता ।। हित मित प्रित प्रभू की वाणी । स्वपर कल्याण करें मुनि ध्यानी ।। भव सागर बीच नाव हमारी । प्रभु पार करो यह विरद तिहारी ।। मन विवेक मेरा अब जागा । प्रभु दर्शन से कर्ममल भागा ।। नाम आपका जपे जो भाई । लोका लोक सुख सम्पदा पाई ।। कृपा दृष्टी जब आपकी होवे । धन आरोग्य सुख समृधि पावे ।। प्रभु चरणन में जो जो आवे । श्रद्धा भक्ति फल वांच्छित पावे ।। प्रभु आपका चमत्कार है न्यारा । संकट मोचन प्रभु नाम तुम्हारा ।। सर्वज्ञ अनंत चतुष्टय के धारी । मन वच तन वंदना हमारी ।। सम्मेद शिखर से मोक्ष सिधारे । उद्धार करो मैं शरण तिहांरे ।। महाराष्ट्र का पैठण तीर्थ । सुप्रसिद्ध यह अतिशय क्षेत्र ।। मनोज्ञ मन्दिर बना है भारी । वीतराग की प्रतिमा सुखकारी ।। चतुर्थ कालीन मूर्ति है निराली । मुनिसुव्रत प्रभू की छवि है प्यारी ।। मानस्तंभ उत्तग की शोभा न्यारी । देखत गलत मान कषाय भारी ।। मुनिसुव्रत शनिग्रह अधिष्ठाता । दुख संकट हरे देवे सुख साता ।। शनि अमावस की महिमा भारी । दूर दूर से आते नर नारी ।। मुनिसुव्रत दर्शन महा हितकारी । मन वच तन वंदना हमारी ।। दोहाः सम्यक् श्रद्धा से चालीसा, चालीस दिन पढिये नर नार । मुक्ति पथ के राही बन, भक्ति से होवे भव पार ।।
  14. मोहमल्ल मद मर्दन करते, मन्मथ दुर्ध्दर का मद हरते । धैर्य खडग से कर्म निवारे, बाल्यती को नमन हमारे ।। बिहार प्रान्त की मिथिला नगरी, राज्य करे कुम्भ काश्यप गोत्री । प्रभावती महारानी उनकी, वर्षा होती थी रत्नो की ।। अपराजित विमान को तज कर, जननी उदार बसे प्रभु आकर । मंगसिर शुक्ल एकादशी शुभ दिन, जन्मे तीन ज्ञान युक्त श्री जिन ।। पूनम चन्द्र समान हो शोभित, इंद्र न्वहन करते हो मोहित । तांडव नृत्य करे खुश हो कर, निरखे प्रभु को विस्मित हो कर ।। बढे प्यार से मल्लि कुमार, तन की शोभा हुई अपार । पचपन सहस आयु प्रभुवर की, पच्चीस धनु अवगाहन वपु की ।। देख पुत्र की योग्य अवस्था, पिता ब्याह की करें व्यवस्था । मिथिलापूरी को खूब सजाया, कन्या पक्ष सुनकर हर्षाया ।। निज मन में करते प्रभु मंथन, हैं विवाह एक मीठा बंधन । विषय भोग रूपी ये कर्दम, आत्म ज्ञान के करदे दुर्गम ।। नहीं आसक्त हुए विषयन में, हुए विरक्त गये प्रभु वन में । मंगसिर शुक्ल एकादशी पावन, स्वामी दीक्षा करते धारण ।। दो दिन तक धरा उपवास, वन में ही फिर किया निवास । तीसरे दिन प्रभु करे निवास, नन्दिषेण नृप दे आहार ।। पात्रदान से हर्षित हो कर, अचरज पाँच करे सुर आकर । मल्लिनाथ जो लौटे वन में, लीन हुए आतम चिंतन में ।। आत्मशुद्धि का प्रबल प्रमाण, अल्प समय में उपजा ज्ञान । केवलज्ञानी हुए छः दिन में, घंटे बजने लगे स्वर्ग में ।। समोशरण की रचना साजे, अन्तरिक्ष में प्रभु विराजे । विशाक्ष आदि अट्ठाईस गणधर, चालीस सहस थे ज्ञानी मुनिवर।। पथिको को सत्पथ दिखलाया, शिवपुर का सनमार्ग दिखाया । औषधि शाष्त्र अभय आहार, दान बताये चार प्रकार ।। पाँच समिति लब्धि पांच, पांचो पैताले हैं साँच । षट लेश्या जीव षटकाय, षट द्रव्य कहते समझाय ।। सात तत्त्व का वर्णन करते, सात नरक सुन भविमन डरते । सातों ने को मन में धारे, उत्तम जन संदेह निवारे ।। दीर्घ काल तक दिया उपदेश, वाणी में कटुता नहीं लेश । आयु रहने पर एक मास, शिखर सम्मेद पे करते वास ।। योग निरोध का करते पालन, प्रतिमा योग करें प्रभु धारण । कर्म नाश्ता कीने जिनराई, तत्क्षण मुक्ति रमा परणाई ।। फाल्गुन शुक्ल पंचमी न्यारी, सिद्ध हुए जिनवर अविकारी । मोक्ष कल्याणक सुर नर करते, संवल कूट की पूजा करते ।। चिन्ह कलश था मल्लिनाथ का, जीन महापावन था उनका । नरपुंगव थे वे जिनश्रेष्ठ, स्त्री कहे जो सत्य न लेश ।। कोटि उपाय करो तुम सोच, स्त्रीभव से हो नहीं मोक्ष । महाबली थे वे शूरवीर, आत्म शत्रु जीते धार धीर ।। अनुकम्पा से प्रभु मल्लि की, अल्पायु हो भव वल्लि की । अरज त्याही हैं बस अरुणा की, दृष्टि रहे सब पर करुणा की।।
  15. श्री अरहनाथ जिनेन्द्र गुणाकर, ज्ञान दरस सुख बल रत्नाकर । कल्पवृक्ष सम सुख के सागर, पार हुए निज आतम ध्याकर ।। अरहनाथ वसु अरि के नाशक, हुए हस्तिनापुर के शाषक । माँ मित्रसेना पिता सुदर्शन, चक्रवर्ती बन दिया दिग्दर्शन ।। सहस चौरासी आयु प्रभु की, अवगाहना थी तीस धनुष की । वर्ण सुवर्ण समान था पीत, रोग शोक थे तुमसे भीत ।। ब्याह हुआ जब प्रीत कुमार का, स्वपन हुआ साकार पिता का । राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का, हुआ अभ्युदय चक्र रतन का ।। एक दिन देखा शरद ऋतू में, मेघ विलीन हुए क्षण भर में । उदित हुआ वैराग्य ह्रदय में, लौकंतिक सुर आये पल में ।। अरविन्द पुत्र को देकर राज, गए सहेतुक वन जिनराज । मंगसिर की दशमी उजियारी, परम दिगंबर दीक्षा धारी ।। पंचमुश्ठी उखाड़े केश, तन से ममत्व रहा नहीं दलेश । नगर चक्रपुर गए पारण हित, पड्गाहे भूपति अपराजित ।। परसुख शुद्दाहार कराये, पंचाशचर्य देव कराये । कठिन तपस्या करते वन में, लीन रहे आतम चिंतन में ।। कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल, प्रभु विराजे आम्र वृक्ष तल । अंतर ज्ञान ज्योति प्रगटाई, हुए केवली श्री जिनराई ।। देव करे उत्सव अति भव्य, समोशरण की रचना दिव्य । सौलह वर्ष का मौन भंग कर, सप्तभंग जिनवाणी सुखकर ।। चौदह गुणस्थान बत्ताए, मोह काय योग दर्शाये । सत्तावन आश्रय बतलाये, इतने ही संवर गिनवाये ।। संवर हेतु समता लाओ, अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ । हुए प्रबुद्ध सभी नर नारी, दीक्षा व्रत धारे बहु भारी ।। कुम्भार्प आदि गणधर तीस, अर्ध लक्ष थे सकल मुनीश । सत्यधर्म का हुआ प्रचार, दूर दूर तक हुआ विहार ।। एक माह पहले निर्वेद, सहस मुनि संग गए सम्मेद । चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन, मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन ।। नाटक कूट को पूजे देव, कामदेव चक्री जिनदेव । जिनवर का लक्षण था मीन, धारो जैन धरम समीचीन ।। प्राणी मात्र का जैन धरम हैं, जैन धर्म हो परम धर्म हैं । पंचेंद्रियों को जीते जो नर, जितेन्द्रिय वे बनाते जिनवर ।। त्याग धर्म की महिमा गाई, त्याग से ही सब सुखी हो भाई । त्याग कर सके केवल मानव, हैं अक्षम सब देव और दानव ।। हो स्वाधीन तजो तुम भाई, बंधन में पीड़ा मन लाई । हस्तिनापुर में दूसरी नशिया, कर्म जहाँ पर नसे घतिया ।। जिनके चरणों में धरें, शीश सभी नरनाथ । हम सब पूजे उन्हें, कृपा करे अरहनाथ ।।
  16. दया सिन्धु कुन्थु जिनराज, भव सिंधु तिरने को जहाज। कामदेव चाकरी महाराज, दया करो हम पर भी आज।। जय श्री कुन्थु नाथ गुणखान, परम यशस्वी महिमावान । हस्तिनापुर नगरी के भूपति, शूरसेन कुरुवंशी अधिपति ।। महारानी थी श्रीमती उनकी, वर्षा होती थी रतनन की । प्रतिपदा वैशाख उजियारी, जन्मे तीर्थंकर बलधारी ।। गहन भक्ति अपने उर धारे, हस्तिनापुर आये सुर सारे । इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, गए सुमेरु हर्षित हो कर ।। न्हवन करे निर्मल जल लेकर, ताण्डव नृत्य करे भक्ति भर । कुंथुनाथ नाम शुभ देकर, इन्द्र करें स्तवन मनोहर ।। दिव्या वस्त्राभूषण पहनाये, वापिस हस्तिनापुर को आए । क्रम क्रम से बढे बालेन्दु सम, यौवन शोभा धारें हितकर ।। धनु पैतालीस उननत प्रभु तन, उत्तम शोभा धारें अनुपम । आयु पिचानवे वर्ष हजार, लक्षण अज धारे हितकार ।। राज्याभिषेक हुआ विधिपूर्वक, शासन करे सुनीति पूर्वक । चक्ररतन शुभ प्राप्त हुआ जब, चक्रवर्ती प्रभु कहलाये तब ।। एक दिन प्रभु गए उपवन में, शांत मुनि एक देखे मग में । इंगित किया तभी अंगुली से, देखो मुनि को कहा मंत्री से ।। मंत्री ने पूछा जब कारण, किया मोक्षहित मुनिपद धारण । कारण करे और स्पष्ट, मुनि पद से ही कर्म हो नष्ट ।। मंत्री का तो हुआ बहाना, किया वस्तुतः निज कल्याणा । चित्त विरक्त हुए विषयों से, तत्व चिंतन करते भावों से ।। निज सूत को सौपा सब राज, गए सहेतुक वन जिनराज । पंचमुष्टि केशलोंच कर, धार लिया पद नगन दिगंबर ।। तीन दिन बाद गए गजपुर को, धर्ममित्र पड्गाए प्रभु को । मौन रहे सौलह वर्षो तक, सहे शीत वर्षा और आतप ।। स्थिर हुए तिलक तरु जल में, मगन हुए निज ध्यान अटल में । आतम में बढ़ गई विशुद्धि, केवल ज्ञान की हो गयी सिद्धि ।। सूर्यप्रभा सम सोहे आप्त, दिग्मंडल शोभा हुई व्याप्त । समोशरण रचना सुखकार, ज्ञान तृप्ति बैठे नर नार ।। विषय भोग महा विषमय हैं, मन को कर देते तन्मय हैं । विष से मरते एक जनम में, भोग विषाक्त मरे भव भव में ।। क्षण भंगुर मानव का जीवन, विद्युतवत विनसे अगले क्षण । सांध्य लालिमा के सद्रश्य ही, यौवन हो जाता हैं अद्रश्य ही ।। जब तक आतम बुद्धि नहीं हो, तब तक दरश विशुद्धि नहीं हो । पहले विजित करो पंचेन्द्रिय, आतमबल से बनो जितेन्द्रिय ।। भव्य भारती प्रभु की सुनकर, श्रावक जन आनन्दित होकर । श्रद्धा से व्रत धारण करते, शुभ भावों का अर्जन करते ।। शुभायु एक मास की रही जब, शैल सम्मेद पे वास किया तब । धारा प्रतिमा योग वहां पर, कटा कर्म बंध सब प्रभुवर ।। मोक्षकल्याणक करते सुरगण, कूट ज्ञानधार करते पूजन । चक्री कामदेव तीर्थंकर, कुंथुनाथ थे परम हितकर ।। चालीसा जो पढ़े भाव से, स्वयं सिद्ध हो निज स्वाभाव से । धर्म चक्र के लिए प्रभु ने, चक्र सुदर्शन तज डाला ।। इसी भावना ने अरुणा को, किया ज्ञान में मतवाला ।।
  17. शांतिनाथ महाराज का, चालीसा सुखकार । मोक्ष प्राप्ति के ही लिए, कहूँ सुनो चितधार ।। चालीसा चालीस दिन तक, कह चालीस बार। बढे जगत सम्पन्न, सुमत अनुपम शुद्द विचार ।। शांतिनाथ तुम शांतिनायक, पंचम चक्री जग सुखदायक । तुम्ही हो सौलवे तीर्थंकर, पूजे देव भूप सुर गणधर।। पंचाचार गुणों के धारी, कर्म रहित आठो गुणकारी । तुमने मोक्ष का मार्ग दिखाया, निज गुण ज्ञान भानु प्रगटाया ।। स्यादवाद विज्ञान उचारा, आप तिरेन औरन को तारा । ऐसे जिन को नमस्कार कर, चढू सुमत शांति नौका पर ।। सुक्ष्म सी कुछ गाथा गाता, हस्तिनापुर जग विख्याता । विश्वसेन पितु, ऐरा माता, सुर तिहूँ काल रत्न वर्षाता ।। साढ़े दस करोड़ नित गिरने, ऐरा माँ के आँगन भरते । पंद्रह माह तक हुई लुटाई, ले जा भर भर लोग लुगाई ।। भादो बदी सप्तमी गर्भाते, उत्तम सौलह सपने आते । सुर चारो कायो के आये, नाटक गायन नृत्य दिखाये ।। सेवा में जो रही देवियाँ, रखती माँ को खुश दिन रतिया । जन्म सेठ बदी चौदस के दिन, घंटे अनहद बजे गगन घन ।। तीनो ज्ञान लोक सुखदाता, मंगल सकल गुण लाता । इन्द्र देव सुर सेवा करते, विद्या कला ज्ञान गुण बढ़ते ।। अंग अंग सुन्दर मनमोहन, रत्न जडित तन वस्त्राभूषण । बल विक्रम यश वैभव काजा, जीते छहो खंडो के राजा ।। न्याय वान दानी उपकारी, परजा हर्षित निर्भय सारी । दीन अनाथ दुखी नहीं कोई, होती उत्तम वस्तु सोई ।। ऊँचे आप आठ सो गज थे, वदन स्वर्ण अरु चिन्ह हिरन थे । शक्ति ऐसी थी जिस्मानी, वरी हजार छयानवे रानी ।। लाख चौरासी हाथी रथ थे, घोड़े कोड़ अठारह शुभ थे । सहस भूप के राजन, अरबों सेवा में सेवक जन ।। तीन करोड़ थी सुन्दर गईया, इच्छा पूरण करे नव निधिया । चौदह रत्न व चक्र सुदर्शन, उत्तम भोग वस्तुए अनगिन ।। थी अड़तालीस कोड़ ध्वजाये, कुंडल चन्द्र सूर्य सम छाये । अमृत गर्भ नाम का भोजन, लाजवाब ऊँचा सिंहासन ।। लाखों मंदिर भवन सुसज्जित, नार सहित तुम जिनमे शोभित । जितना सुख था शांतिनाथ को, अनुभव होता ज्ञानवान को ।। चले जीव जो त्याग धर्म पर, मिलें ठाठ उनको ये सुन्दर । पच्चीस सहस वर्ष सुख पाकर, उमड़ा त्याग हितंकर तुमपर ।। जग तुमने क्षणभंगुर जाना, वैभव सब सुपने सम माना । ज्ञानोदय जो हुआ तुम्हारा, पाए शिवपुर भी संसारा ।। कामी मनुज काम को त्यागे, पापी पाप कर्म से भागे । सूत नारायण तख्त बिठाया, तिलक चढ़ा अभिषेक कराया । । नाथ आपको बिठा पालकी, देव चले ले राह गगन की । इत उत इन्द्र चंवर ढुरावें, मंगल गातें वन पहुचावें ।। भेष दिगंबर आप कीना, केशलोंच पंच मुष्टि कीना । पूर्ण हुआ उपवास छठा जब, शुद्धाहार चले लेने तब ।। कर तीनो वैराग्य चिन्तवन, चारों ज्ञान किये संपादन । चार हाथ पग लखते चलते, षट कायिक की रक्षा करते ।। मनहर मीठे वचन उचरते, प्राणिमात्र का दुखड़ा हरते । नाशवान काय यह प्यारी, इसमें ही यह रिश्तेदारी ।। इससे मात पिता सूत नारी, इसके कारण फिरें दुखहारी । गर यह तन ही प्यार लगता, तरह तरह का रहेगा मिलता ।। तज नेहा काया माया का, हो भरतार मोक्षद्वार का । विषय भोग सब दुःख का कारण, त्याग धर्म ही शिव के साधन ।। निधि लक्ष्मी जो कोई त्यागे, उसके पीछे पीछे भागे । प्रेम रूप जो इसे बुलावे, उसके पास कभी नहीं आवे ।। करने को जग का निस्तारा, छहों खंड का राज्य विसारा । देवी देव सुरासुर आयें, उत्तम तप त्याग मनाएं ।। पूजन नृत्य करे नतमस्तक, गई महिमा प्रेम पूर्वक । करते तुम आहार जहा पर, देव रतन बर्षाते उस घर ।। जिस घर दान पात्र को मिलता, घर वह नित्य फूलता फलता । आठों गुण सिद्धो केध्या कर, दशो धर्म चित्त काय तपाकर ।। केवल ज्ञान आपने पाया, लाखों प्राणी पार लगाया । समवशरण में ध्वनि खिराई, प्राणी मात्र समझ में आई ।। समवशरण प्रभु का जहाँ जाता, कोस चौरासी तक सुख पाता । फुल फलादिक मेवा आती, हरी भरी खेती लहराती ।। सेवा सेवा में थे छत्तीस गणधर, महिमा मुझसे क्या हो वर्णन । नकुल सर्प अरु हरी से प्राणी, प्रेम सहित मिल पीते पानी ।। आप चतुर्मुख विराजमान थे, मोक्षमार्ग को दिव्यवान थे । करते आप विहार गगन में, अन्तरिक्ष थे समवशरण में ।। तीनो जग आनंदित कीने, हित उपदेश हजारों दीने । पाने लाख वर्ष हित कीना, उम्र रही जब एक महीना ।। श्री सम्मेद शिखर पर आए, अजर अमर पद तुमने पाये । निष्प्रह कर उद्धार जगत के, गए मोक्ष तुम लाख वर्ष के ।। आंक सके क्या छवि ज्ञान की, जोत सूर्य सम अटल आपकी । बहे सिंधु राम गुण की धारा, रहे सुमत चित्त नाम तुम्हारा ।। सोरठा नित चालीसहिं बार, पाठ करें चालीस दिन । खेये सुगंध सुसार, शांतिनाथ के सामने ।। होवे चित्त प्रसन्न, भय शंका चिंता मिटें । पाप होय सब हन्न, बल विद्या वैभव बढे ।।
  18. उत्तम क्षमा अदि दस धर्म,प्रगटे मूर्तिमान श्रीधर्म । जग से हरण करे सन अधर्म, शाश्वत सुख दे प्रभु धर्म ।। नगर रतनपुर के शासक थे, भूपति भानु प्रजा पालक थे। महादेवी सुव्रता अभिन्न, पुत्रा आभाव से रहती खिन्न ।। प्राचेतस मुनि अवधिलीन, मत पिता को धीरज दीन । पुत्र तुम्हारे हो क्षेमंकर, जग में कहलाये तीर्थंकर ।। धीरज हुआ दम्पति मन में, साधू वचन हो सत्य जगत में । मोह सुरम्य विमान को तजकर, जननी उदर बसे प्रभु आकर ।। तत्क्षण सब देवों के परिकर, गर्भाकल्याणक करें खुश होकर । तेरस माघ मास उजियारी, जन्मे तीन ज्ञान के धारी ।। तीन भुवन द्युति छाई न्यारी, सब ही जीवों को सुखकारी । माता को निंद्रा में सुलाकर, लिया शची ने गोद में आकर ।। मेरु पर अभिषेक कराया, धर्मनाथ शुभ नाम धराया । देख शिशु सौंदर्य अपार, किये इन्द्र ने नयन हजार ।। बीता बचपन यौवन आया, अदभुत आकर्षक तन पाया । पिता ने तब युवराज बनाया, राज काज उनको समझाया ।। चित्र श्रृंगारवती का लेकर, दूत सभा में बैठा आकर । स्वयंवर हेतु निमंत्रण देकर, गया नाथ की स्वीकृति लेकर ।। मित्र प्रभाकर को संग लेकर, कुण्डिनपुर को गए धर्मं वर । श्रृंगार वती ने वरा प्रभु को, पुष्पक यान पे आये घर को ।। मात पिता करें हार्दिक प्यार, प्रजाजनों ने किया सत्कार । सर्वप्रिय था उनका शासन, निति सहित करते प्रजापालन ।। उल्कापात देखकर एकदिन, भोग विमुख हो गए श्री जिन । सूत सुधर्म को सौप राज, शिविका में प्रभु गए विराज ।। चलते संग सहस नृपराज, गए शालवन में जिनराज । शुक्ल त्रयोदशी माघ महीना, संध्या समय मुनि पदवी गहिना ।। दो दिन रहे ध्यान में लीना, दिव्या दीप्ती धरे वस्त्र विहिना । तीसरे दिन हेतु आहार, पाटलीपुत्र का हुआ विहार ।। अन्तराय बत्तीस निखार, धन्यसेन नृप दे आहार । मौन अवस्था रहती प्रभु की, कठिन तपस्या एक वर्ष की ।। पूर्णमासी पौष मास की, अनुभूति हुई दिव्यभास की । चतुर्निकाय के सुरगण आये, उत्सव ज्ञान कल्याण मनाये ।। समोशरण निर्माण कराये, अंतरिक्ष में प्रभु पधराये । निराक्षरी कल्याणी वाणी, कर्णपुटो से पीते प्राणी ।। जीव जगत में जानो अनन्त, पुद्गल तो हैं अनन्तानन्त । धर्म अधर्म और नभ एक, काल समेत द्रव्य षट देख ।। रागमुक्त हो जाने रूप, शिवसुख उसको मिले अनूप । सुन कर बहुत हुए व्रतधारी, बहुतों ने जिन दीक्षा धारी ।। आर्यखंड से हुआ विहार, भूमंडल में धर्मं प्रचार । गढ़ सम्मेद गए आखिर में, लीन हुए निज अन्तरंग में ।। शुक्ल ध्यान का हुआ प्रताप, हुए अघाती धात निष्पाप । नष्ट किये जग के संताप, मुक्ति महल पहुचे आप ।। सौरठा ज्येष्ठ चतुर्थी शुक्ल पक्षवर, पूजा करे सुर, कूट सुदत्तवर । लक्षण वज्रदंड शुभ जान, हुआ धर्म से धर्म का मान ।। जो प्रतिदिन प्रभु के गुण गाते, अरुणा वे भी शिवपद पाते ।।
  19. अनन्त चतुष्टय धरी अनंत, अनंत गुणों की खान अनन्त। सर्वशुद्ध ज्ञायक हैं अनन्त, हरण करे मम दोष अनन्त ।। नगर अयोध्या महा सुखकार, राज्य करे सिंहसेन अपार । सर्वयशा महादेवी उनकी, जननी कहलाई जिनवर की ।। द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी, जन्मे तीर्थंकर हितकारी । इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर, न्वहन करे मेरु पर जाकर ।। नाम अनंतनाथ शुभ दीना, उत्सव करते नित्य नवीना । सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का, पार नहीं गुण के सागर का ।। वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का, ज्ञान धरें मुनि श्रुत अवधि का । आयु तीस लाख वर्ष उपाई, धनुष अर्धशत तन ऊचाई ।। बचपन गया जवानी आई, राज्य मिला उनको सुखदाई । हुआ विवाह उनका मंगलमय, जीवन था जिनवर का सुखमय ।। पंद्रह लाख बरस बीतें जब, उल्कापात से हुए विरत तब । जग में सुख पाया किसने कब, मन से त्याग राग भाव सब ।। बारह भावना मन में भाये, ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये । अनन्तविजय सूत तिलक कराकर, देवोमई शिविका पधारा कर ।। गए सहेतुक वन जिनराज, दीक्षित हुए सहस नृप साथ। द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मास, तिन दिन धरा उपवास ।। गए अयोध्या प्रथम योग कर, धन्य विशाख आहार कराकर । मौन सहित रहते थे वन में, एक दिन तिष्ठे पीपल तल में ।। अटल रहे निज योग ध्यान में, झलके लोकालोक ज्ञान में । कृष्ण अमावस चैत्र मास की, रचना हुई शुभ समवशरण की ।। जिनवर की वाणी जब खिरती, अमृत सम कानो को लगती । चतुर्गति दुःख चित्रण करते, भविजन सुन पापो से डरते ।। जो चाहो तुम मुक्ति पाना, निज आतम की शरण में जाना । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित हैं, कहे व्यहवार में रतनत्रय हैं । निश्च्य से शुद्धातम ध्याकर, शिवपद मिलता सुख रत्नाकर । श्रद्धा कर भव्य जनों ने, यथाशक्ति व्रत धारे सबने ।। हुआ विहार देश और प्रान्त, सत्पथ दर्शाए जिननाथ । अंत समय गए सम्मेदाचल, एक मास तक रहे सुनिश्चल ।। कृष्ण चैत्र अमावस पावन, मोक्षमहल पहुचे मनभावन । उत्सव करते सुरगण आकर, कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर ।। शुभ लक्षण प्रभुवर का सेही, शोभित होता प्रभु पद में ही । अरुणा अरज करे बस ये ही, पार करो भव सागर से ही ।। हे प्रभु लोकालोक अनन्त, झलके सब तुम ज्ञान अनन्त । हुआ अनन्त भवो का अंत, अदभुत तुम महिमा हैं अनन्त ।।
  20. सिद्ध अनंतानंत नमन कर, सरस्वती को मन में ध्याय । विमल प्रभु की विमल भक्ति कर, चरण कमल को शीश नवाय ।। जय श्री विमलनाथ विमलेश, आठो कर्म किये निःशेष । कृत वर्मा के राज दुलारे, रानी जयश्यामा के प्यारे ।। मंगलिक शुभ सपने सारे, जगजननी ने देखे न्यारे । शुक्ल चतुर्थी माघ मास की, जन्म जयंती विमलनाथ की ।। जन्मोत्सव देवों ने मनाया, विमलप्रभु शुभ नाम धराया । मेरु पर अभिषेक कराया, गंधोदक श्रद्धा से लगाया ।। वस्त्राभूषण दिव्य पहनाकर, मात पिता को सौपा आकर । साठ लाख वर्षायु प्रभु की, अवगाहना थी साठ धनुष की ।। कंचन जैसी छवि प्रभु तन की, महिमा कैसे गाऊ में उनकी । बचपन बिता, यौवन आया, पिता ने राजतिलक करवाया ।। चयन करो सुन्दर वधुओ का, आयोजन किया शुभ विवाह का । एक दिन देखि ओस घास पर, हिमकण देखे नयन प्रितीभर ।। हुआ संसर्ग सूर्य रश्मि से, लुप्त हुए सब मोती जैसे । हो विश्वास प्रभु को कैसे, खड़े रहे वे चित्रलिखित से ।। क्षणभंगुर हैं ये संसार, एक धर्म ही हैं बस सार । वैराग्य ह्रदय में समाया, छोड़े क्रोध मान और माया ।। घर पहुचे अनमने से होकर, राजपाठ निज सूत को देकर । देवभई शिविका पर चढ़कर, गए सहेतुक वन में जिनवर ।। माघ मास चतुर्थी कारी, नमः सिद्ध कह दीक्षा धारी । रचना समोशरण हितकार, दिव्य देशना हुई हितकार ।। उपशम करके मिथ्यात्व का, अनुभव करलो निज आतम का । मिथ्यातम का होय निवारण, मिटे संसार भ्रमण का कारण ।। बिन सम्यक्त्व के जप तप पूजन, निष्फल हैं सारे फल अर्चन । विषफल हैं विषयभोग सब, इनको त्यागो हेय जान अब ।। द्रव्य भाव नो कमोदी से, भिन्न है आतम देव सभी से । निश्च्य करके निज आतम का, ध्यान करो तुम परमातम का ।। ऐसी प्यारी हित की वाणी, सुनकर सुखी हुए सब प्राणी । दूर दूर तक हुआ विहार, किया सभी ने आत्मोद्धार ।। मंदर आदि पचपन गणधर, अडसठ सहस दिगंबर मुनिवर । उम्र रही जब तीस दिनों की, जा पहुचे सम्मेदशिखर जी ।। हुआ बाह्य वैभव परिहार, शेप कर्म बंधन निखार । आवागमन का कर संहार, प्रभु ने पाया मोक्षागार ।। षष्ठी कृष्ण मास आषाढ़, देव करें जिन भक्ति प्रगाढ़ । सुवीर कूट पूजे मन लाय, निर्वाणोत्सव करें हर्षाय ।। जो भावी विमल प्रभु को ध्यावे, वे सब मनवांछित फल पावे । अरुणा करती विमल स्तवन, ढीले हो जावे भव बंधन ।।
  21. वासु पूज्य महाराज का, चालीसा सुखकार । विनय प्रेम से बाँचिये, करके ध्यान विचार ।। जय श्री वासुपूज्य सुखकारी, दीन दयाल बाल ब्रह्माचारी । अदभुत चम्पापुर रजधानी, धर्मी न्यायी ज्ञानी दानी ।। वासु पूज्य यहाँ के राजा, करने राज काज निष्काजा । आपस में सब प्रेम बढ़ाने, बारह शुद्ध भावना भाते ।। गऊ शेर आपस में मिलते, तीनो मौसम सुख में कटते । सब्जी फल घी दूध हो घर घर, आते जाते मुनि निरंतर ।। वस्तु समय पर होती सारी, जहा न हो चोरी बीमारी । जिन मंदिर पर ध्वजा फहराए, घंटे घरनावल झान्नाये ।। शोभित अतिशय माय प्रतिमायें, मन वैराग्य देख छा जावे । पूजन दर्शन नवहन करावे, करते आरती दीप जलाये ।। राग रागिनी गायन गायें, तरह तरह के साज बजायें। कोई अलौकिक नृत्य दिखावे, श्रावक भक्ति से भर जावें ।। होती निश दिन शाष्त्र सभाए, पद्मासन करते स्वाध्याये । विषय कषाय पाप नसाये, संयम नियम विविएक सुहाये।। रागद्वेष अभिमान नशाते, गृहस्थी त्यागी धर्म निभाते । मिटें परिग्रह सब तृष्नाये, अनेकांत दश धर्म रमायें ।। छठ अषाढ़ बड़ी उर आये, विजया रानी भाग्य जगायें । सुन रानी से सुलह सुपने, राजा मन में लगे हरषने ।। तीर्थंकर ले जन्म तुम्हारे, होंगे अब उद्धार हमारे । तीनो वक्त नित रत्न बरसते, विजया माँ के आँगन भरते ।। साढ़े दस करोड़ थी गिनती, परजा अपनी झोली भरती । फागुन चौदस बदि जन्माये, सुरपति अदभुत जिन गुण गाये ।। मति श्रुत अवधि ज्ञान भंडारी, चालीस गुण सब अतिशय धारी । नाटक तांडव नृत्य दिखाए, नव भाव प्रभु जी के दर्शाये ।। पाण्डु शिला पर नव्हन कराये, वस्त्रभुषन वदन सजाये । सब जग उत्सव हर्ष मनाये, नारी नर सुर झुला झुलाये ।। बीते सुख में दिन बचपन के, हुए अठारह लाख वर्ष के । आप बारहवे हो तीर्थंकर, भैसा चिन्ह आपका जिनवर ।। धनुष पचास वदन केसरिया, निस्पृह पर उपकार करइया । दर्शन पूजा जप तप करते, आत्म चिंतवन में नित रमते ।। गुरु मुनियों का आदर करते, पाप विषय भोगो से बचते । शादी अपनी नहीं कराई, हारे तात मात समझाई ।। मात पिता राज तज दिने, दीक्षा ले दुध्दर तप कीने । माघ सुदी दोयज दिन आया, केवल ज्ञान आपने पाया ।। समोशरण सुर रचे जहाँ पर, छासठ उसमे रहते गणधर । वासुपूज्य की खिरती वाणी, जिसको गणधर्वो ने जानी ।। मुख से उनके वो निकली थी, सब जीवों ने वो समझी थी । आपा आप आप प्रगटाया, निज गुण ज्ञान भान चमकाया ।। हर भूलो को राह दिखाई, रत्नत्रय की ज्योत जलाई । आतम गुण अनुभव करवाया, सुमत जैन मत जग फैलाया ।। सुदी भादवा चौदस आई, चंपा नगरी मुक्ति पाई । आयु बहत्तर लाख वर्ष की, बीती सारी हर्ष धर्म की ।। और चौरानवे थे श्री मुनिवर, पहुच गए वो भी सब शिवपुर । तभी वहा इन्द्र सुर आये, उत्सव मिल निर्वाण मनाये ।। देह उडी कपूर समाना, मधुर सुगंधी फैला नाना । फैलाई रत्नों की माला, चारो दिश चमके उजियाला ।। कहे सुमत क्या गुण जिनराई, तुम पर्वत हो मैं हु राई । जब ही भक्ति भाव हुआ हैं, चंपापुर का ध्यान किया हैं । लगी आश मैं भी कभी जाऊ, वासुपूज्य के दर्शन पाऊ ।। सोरठा खेये धुप सुगंध, वासुपूज्य प्रभु ध्यान के । कर्म भार सब तार, रूप स्वरुप निहार के ।। मति जो मन में होय, रहे वेसी हो गति आय के । करो सुमत रसपान, सरल निजातम पाय के ।।
  22. निज मन में करके स्थापित, पंच परम परमेष्ठी को । लिखूं श्रेयांसनाथ चालीसा, मन में बहुत ही हर्षित हो ।। जय श्रेयांसनाथ श्रुत ज्ञायक हो, जय उत्तम आश्रय दायक हो । माँ वेणु पिता विष्णु प्यारे, तुम सिंहपुर में अवतारे ।। जय ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी प्यारी, शुभ रत्न वृष्टि होती भारी। जय गर्भकल्यानोत्सव अपार, सब देव करें नाना प्रकार ।। जय जन्म जयंती प्रभु महान, फाल्गुन एकादशी कृष्ण जान । जय जिनवर का जन्माभिषेक, शत अष्ट कलश से करे नेक ।। शुभ नाम मिला श्रेयांसनाथ, जय सत्य परायण सद्यजात । निश्रेयस मार्ग के दर्शायक, जन्मे मति श्रुत अवधि धारक ।। आयु चौरासी लक्ष प्रमाण, तन तुंग धनुष अस्सी महान । प्रभु वर्ण सुवर्ण सम्मान पीत, गए पूरब इक्कीस लक्ष बीत ।। हुआ ब्याह महा मंगलकारी, सब सुख भोगे आनंदकारी । जब हुआ ऋतू का परिवर्तन, वैराग्य हुआ प्रभु को उत्पन्न ।। दिया राजपाट सूत श्रेयस्कर, तजा मोह त्रिभुवन भास्कर । सुर लाए विमलप्रभा शिविका, उद्यान मनोहर नगरी का ।। वह जा कर केश लोंच कीने, परिग्रह ब्रह्मन्तर तज दिने । गए शुद्ध शिला तल पर विराज, ऊपर रहा तुम्बुर वृक्ष साज ।। किया ध्यान वह स्थिर हॊकर, हुआ ज्ञान मनः पर्यय सत्वर । हुए धन्य सिद्धार्थ नगर भूप, दिया पात्र दान जिनने अनूप ।। महिमा अचिन्त्य हैं पात्र दान, सुर करते पंच अचरज महान । वन को तत्काल ही लौट गए, पुरे दो साल वे मौन रहे ।। आई जब अमावस माघ मास, हुआ केवल ज्ञान सुप्रकाश । रचना शुभ समवशरण सुजान, करते धनदेव तुरंत आन ।। प्रभु की दिव्य ध्वनि होती विकीर्ण, होता कर्मो का बांध क्षीर्ण । उत्सर्पिणी अवसर्पिणी विशाल, ऐसे दो भेद बताये काल ।। एक सौ अड़तालीस बीत जाये, जब हुन्द अवसर्पिणी कहाय । सुखमा सुखमा हैं प्रथम काल, जिसमे सब जीव रहे खुशहाल ।। दूजा दिखलाते सुखमा काल, तीजा सुखमा दुखमा सुकाल । चौथा सुखमा दुखमा सुजान, दुखमा हैं पंचम मान ।। दुखमा दुखमा छट्टम महान, छट्टम छट्टा एक ही समान । यह काल परिणति ऐसी ही, होती भरत ऐरावत में ही ।। रहे क्षेत्र विदेह में विध्यमान, बस काल चतुर्थ ही वर्तमान । सुन काल स्वरुप को जान लिया, भविजनो का कल्याण हुआ ।। हुआ दूर दूर प्रभु का विहार, वह दूर हुआ सब शिथिलाचार । फिर गए प्रभु गिरिवर सम्मेद, धरे सुयोग विभु बिना खेद ।। हुई पूर्णमासी श्रावण शुक्ला, प्रभु को शाश्वत निजरूप मिला । पूजे सुर संकुल कूट आन, निर्वाणोत्सव करते महान ।। प्रभुवर के चरणों का शरणा, जो भविजन लेते सुखदाय । उन पर होती प्रभु की करुणा, अरुणा मनवांछित फल पाय ।।
  23. शीतल हैं शीतल वचन, चन्दन से अधिकाय । कल्प वृक्ष सम प्रभु चरण, हैं सबको सुखकाय ।। जय श्री शीतलनाथ गुणाकर, महिमा मंडित करुणासागर । भाद्दिलपुर के दृढरथ राय, भूप प्रजावत्सल कहलाये ।। रमणी रत्न सुनन्दा रानी, गर्भ आये श्री जिनवर ज्ञानी । द्वादशी माघ बदी को जन्मे, हर्ष लहर उठी त्रिभुवन में ।। उत्सव करते देव अनेक, मेरु पर करते अभिषेक । नाम दिया शिशु जिन को शीतल, भीष्म ज्वाल अध् होती शीतल ।। एक लक्ष पुर्वायु प्रभु की, नब्बे धनुष अवगाहना वपु की । वर्ण स्वर्ण सम उज्जवलपीत, दया धर्मं था उनका मीत ।। निरासक्त थे विषय भोगो में, रत रहते थे आत्म योग में । एक दिन गए भ्रमण को वन में, करे प्रकृति दर्शन उपवन में ।। लगे ओसकण मोती जैसे, लुप्त हुए सब सूर्योदय से । देख ह्रदय में हुआ वैराग्य, आत्म राग में छोड़ा राग।। तप करने का निश्चय करते, ब्रह्मर्षि अनुमोदन करते । विराजे शुक्र प्रभा शिविका में, गए सहेतुक वन में जिनवर ।। संध्या समय ली दीक्षा अश्रुण, चार ज्ञान धारी हुए तत्क्षण । दो दिन का व्रत करके इष्ट, प्रथामाहार हुआ नगर अरिष्ट ।। दिया आहार पुनर्वसु नृप ने, पंचाश्चार्य किये देवों ने । किया तीन वर्ष तप घोर, शीतलता फैली चहु और ।। कृष्ण चतुर्दशी पौषविख्यता, केवलज्ञानी हुए जगात्ग्यता । रचना हुई तब समोशरण की, दिव्यदेशना खिरी प्रभु की ।। आतम हित का मार्ग बताया, शंकित चित्त समाधान कराया । तीन प्रकार आत्मा जानो, बहिरातम अन्तरातम मानो ।। निश्चय करके निज आतम का, चिंतन कर लो परमातम का । मोह महामद से मोहित जो, परमातम को नहीं माने वो ।। वे ही भव भव में भटकाते, वे ही बहिरातम कहलाते । पर पदार्थ से ममता तज के, परमातम में श्रद्धा कर के ।। जो नित आतम ध्यान लगाते, वे अंतर आतम कहलाते । गुण अनंत के धारी हे जो, कर्मो के परिहारी है जो ।। लोक शिखर के वासी है वे, परमातम अविनाशी है वे । जिनवाणी पर श्रद्धा धर के, पार उतारते भविजन भव से ।। श्री जिन के इक्यासी गणधर, एक लक्ष थे पूज्य मुनिवर । अंत समय में गए सम्म्मेदाचल, योग धार कर हो गए निश्चल ।। अश्विन शुक्ल अष्टमी आई, मुक्तिमहल पहुचे जिनराई । लक्षण प्रभु का कल्पवृक्ष था, त्याग सकल सुख वरा मोक्ष था।। शीतल चरण शरण में आओ, कूट विद्युतवर शीश झुकाओ । शीतल जिन शीतल करें, सबके भव आतप । अरुणा के मन में बसे, हरे सकल संताप।।
  24. दुःख से तृप्त मरुस्थल भाव में, सघन वृक्ष सम छायाकार । पुष्पदन्त पद छत्र छाव में, हम आश्रय पावें सुखकार ।। जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में, काकंदी नामक नगरी में । राज्य करें सुग्रीव बलधारी, जयराम रानी थी प्यारी ।। नवमी फाल्गुन कृष्ण बखानी, षोडश स्वपन देखती रानी । सूत तीर्थंकर गर्भ में आये, गर्भ कल्याणक देव मनाये ।। प्रतिपदा मंगसिर उजियारी, जन्मे पुष्पदंत हितकारी । जन्मोत्सव की शोभा न्यारी, स्वर्गपुरी सम नगरी प्यारी ।। आयु थी दो लक्ष पूर्व की, ऊंचाई शत एक धनुष की । थामी जब राज्य बागडोर, क्षेत्र वृद्धि हुई चहुँ और ।। इच्छाए थी उनकी सिमित, मित्र प्रभु के हुए असीमित । एक दिन उल्कापात देख कर, दृष्टिपात किया जीवन पर ।। स्थिर कोई पदार्थ ना जग में, मिले ना सुख किंचित भवमग में । ब्रह्मलोक से सुरगन आये, जिनवर का वैराग्य बढ़ाये ।। सुमति पुत्र को देकर राज, शिविका में प्रभु गए विराज । पुष्पक वन में गए हितकार, दीक्षा ली संग भूप हजार ।। गए शैलपुर दो दिन बाद, हुआ आहार वह निराबाध । पात्रदान से हर्षित हो कर, पंचाश्चार्य करे सुर आकर।। प्रभुवर गए लौट उपवन को, तत्पर हुए कर्म छेदन को । लगी समाधि नाग वृक्ष ताल, केवल ज्ञान उपाया निर्मल ।। इन्द्राज्ञा से समोशरण की, धनपति ने आकर रचना की । दिव्या देशना होती प्रभु की, ज्ञान पिपासा मिति जगत की ।। अनुप्रेक्षा द्वादश समझाई, धर्म स्वरुप विचारों भाई । शुक्ल ध्यान की महिमा गाई, शुक्ल ध्यान से हो शिवराई ।। चारो भेद सहित धारो मन, मोक्षमहल को पहुचो तत्क्षण । मोक्ष मार्ग दिखाया परभू ने, हर्षित हुए सकल जन मन में ।। इंद्र करे प्रार्थना जोड़ कर, सुखद विहार हुआ श्री जिनवर । गए अंत में शिखर सम्मेद, ध्यान में लीन हुए निरखेद ।। शुक्ल ध्यान से किया कर्म क्षय, संध्या समय पाया पद अक्षय । अश्विन अष्टमी शुक्ल महान, मोक्ष कल्याणक करे सुख आन ।। सुप्रभ कूट की करते पूजा, सुविधि नाथ है नाम दूजा । मगरमच्छ हैं लक्षण प्रभु का, मंगलमय था जीवन उनका ।। शिखर सम्मेद में भारी अतिशय, प्रभु प्रतिमा हैं चमत्कारमय । कलियुग में भी आते देव, प्रतिदिन नृत्य करें स्वयमेव ।। घुंघरू की झंकार गूंजती, सबके मन को मॊहित करती । ध्वनि सुनी हमने कानो से, पूजा की बहु उपमानो से ।। हमको हैं ये दृढ श्रद्धान, भक्ति से पाए शिवथान । भक्ति में शक्ति हैं न्यारी, राह दिखाए करुनाधारी ।। पुष्पदंत गुणगान से, निश्चित हो कल्याण । अरुणा अनुक्रम से मिले, अंतिम पद निर्वाण ।।
  25. शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूँ प्रणाम। उपाध्याय आचार्य का, ले सुखकारी नाम।। सर्व साधु और सरस्वती, जिन मंदिर सुखकर। चन्द्रपुरी के चन्द्र को, मन मंदिर में धार।। ।। चौपाई ।। जय-जय स्वामी श्री जिन चन्दा, तुमको निरख भये आनन्दा। तुम ही प्रभु देवन के देवा, करूँ तुम्हारे पद की सेवा।। वेष दिगम्बर कहलाता है, सब जग के मन भाता है। नासा पर है द्रष्टि तुम्हारी, मोहनि मूरति कितनी प्यारी।। तीन लोक की बातें जानो, तीन काल क्षण में पहचानो। नाम तुम्हारा कितना प्यारा , भूत प्रेत सब करें निवारा।। तुम जग में सर्वज्ञ कहाओ, अष्टम तीर्थंकर कहलाओ।। महासेन जो पिता तुम्हारे, लक्ष्मणा के दिल के प्यारे।। तज वैजंत विमान सिधाये , लक्ष्मणा के उर में आये। पोष वदी एकादश नामी , जन्म लिया चन्दा प्रभु स्वामी।। मुनि समन्तभद्र थे स्वामी, उन्हें भस्म व्याधि बीमारी। वैष्णव धर्म जभी अपनाया, अपने को पण्डित कहाया।। कहा राव से बात बताऊँ , महादेव को भोग खिलाऊँ। प्रतिदिन उत्तम भोजन आवे , उनको मुनि छिपाकर खावे।। इसी तरह निज रोग भगाया , बन गई कंचन जैसी काया। इक लड़के ने पता चलाया , फौरन राजा को बतलाया।। तब राजा फरमाया मुनि जी को , नमस्कार करो शिवपिंडी को। राजा से तब मुनि जी बोले, नमस्कार पिंडी नहिं झेले।। राजा ने जंजीर मंगाई , उस शिवपिंडी में बंधवाई। मुनि ने स्वयंभू पाठ बनाया , पिंडी फटी अचम्भा छाया।। चन्द्रप्रभ की मूर्ति दिखाई , सब ने जय - जयकार मनाई। नगर फिरोजाबाद कहाये , पास नगर चन्दवार बताये।। चन्द्रसैन राजा कहलाया , उस पर दुश्मन चढ़कर आया। राव तुम्हारी स्तुति गई , सब फौजो को मार भगाई।। दुश्मन को मालूम हो जावे , नगर घेरने फिर आ जावे। प्रतिमा जमना में पधराई , नगर छोड़कर परजा धाई।। बहुत समय ही बीता है कि , एक यती को सपना दीखा। बड़े जतन से प्रतिमा पाई , मन्दिर में लाकर पधराई।। वैष्णवों ने चाल चलाई , प्रतिमा लक्ष्मण की बतलाई। अब तो जैनी जन घबरावें , चन्द्र प्रभु की मूर्ति बतावें।। चिन्ह चन्द्रमा का बतलाया , तब स्वामी तुमको था पाया। सोनागिरि में सौ मन्दिर हैं , इक बढ़कर इक सुन्दर हैं।। समवशरण था यहाँ पर आया , चन्द्र प्रभु उपदेश सुनाया। चन्द्र प्रभु का मंदिर भारी , जिसको पूजे सब नर - नारी।। सात हाथ की मूर्ति बताई , लाल रंग प्रतिमा बतलाई। मंदिर और बहुत बतलाये , शोभा वरणत पार न पाये।। पार करो मेरी यह नैया , तुम बिन कोई नहीं खिवैया। प्रभु मैं तुमसे कुछ नहीं चाहूँ , भव - भव में दर्शन पाऊँ।। मैं हूँ स्वामी दास तिहारा , करो नाथ अब तो निस्तारा। स्वामी आप दया दिखलाओ , चन्द्रदास को चन्द्र बनाओ।। ।।सोरठ।। नित चालीसहिं बार , पाठ करे चालीस दिन। खेय सुगन्ध अपार , सोनागिर में आय के।। होय कुबेर सामान , जन्म दरिद्री होय जो। जिसके नहिं संतान , नाम वंश जग में चले।। जाप - ॐ ह्रीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमः
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