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जिनवैन सुनत, मोरी


admin

जिनवैन सुनत, मोरी

जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी ।। टेक ।।

कर्मस्वभाव भाव चेतनको, भिन्न पिछानन सुमति जगी ।।

 

निज अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुष तुष मैल-पगी ।

स्यादवाद-धुनि-निर्मल-जलतैं, विमल भई समभाव लगी ।१।

 

संशयमोहभरमता विघटी, प्रगटी आतमसोंज सगी ।

`दौल' अपूरब मंगल पायो, शिवसुख लेन होंस उमगी ।२।



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