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Jinvani
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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव
शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)
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२. विज्ञान विधि – किस प्रकार किया उन्होंने यह आविष्कार ? कहाँ से सीखा इसका उपाय ? कहीं बाहर से नहीं, अपने अंदर से । उपाय ढूंढने का जो वैज्ञानिक ढंग है, उसके द्वारा । उपाय ढूंढने का वैज्ञानिक व स्वाभाविक ढंग यद्यपि सबके अनुभव में प्रतिदिन आ रहा है, पर विश्लेषण न करने के कारण सैद्धांतिक रूप से उसकी धारणा किसी को नहीं है । देखिये उस कबूतर को जिसकी अभिलाषा है कि आपके कमरे में किसी न किसी प्रकार से प्रवेश कर पाये, अपना घोंसला बनाने के लिये । कमरे में प्रवेश करने का उपाय किससे पूछे ? स्वयं अपने अन्दर से ही उपाय निकालता है, अत: प्रयत्न करता है । कभी उस द्वार पर जाता है और बंद पाकर वापस लौट आता है । कुछ देर पश्चात् उस खिड़की के निकट जाता है, वहाँ सरिये लगे पाता है । सरियों के बीच में गर्दन घुसाकर प्रयत्न करता है घुसने का परन्तु सरियों में अंतराल कम होने के कारण शरीर निकल नहीं पाता, उनके बीच से । फिर लौट आता है, दूसरी दिशा में जाता है, वहाँ भी वैसा ही प्रयत्न । फिर तीसरी में और फिर चौथी दिशा में, कहीं से मार्ग न मिला । सामने वाले मुँडेर पर बैठ कर सोच रहा है वह, अब भी उसी का उपाय । निराश नहीं हुआ है वह । हैं ! यह क्या है, ऊपर छत के निकट ? चलकर देखूं तो सही ? एक रोशनदान । झुककर देखता है अन्दर की और कुछ भय के कारण तो नहीं हैं वहाँ ? नहीं, नहीं कुछ नहीं है । रोशनदान में घुस जाता है, कमरे की कार्नस पर बैठकर प्रतीक्षा करता है, कुछ देर कमरे के स्वामी के आने की । स्वामी आता है, तो देखता है गौर से उसकी मुखाकृति को । क्रूर तो नहीं है ? नहीं, भला आदमी है और फिर जाता है और आता है, बे रोकटोक, मानो उसके लिये ही बनाया था यह द्वार । इसी प्रकार एक चींटी भी पहुँच जाती है अपने खाद्य पदार्थ पर, और थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर मार्ग निकाल ही लेती है । विश्लेषण कीजिये इन छोटे से जंतुओं की इस प्रक्रिया का । धैर्य और साहस के साथ बार-बार प्रयत्न करना । असफल रहने पर भी एकदम निराश न रह जाना । एक द्वार न दिखे तो दूसरी दिशा में जाकर ढूँढ़ना या दूसरे द्वार पर प्रयत्न करना और अन्त में सफल हो जाना । यह है, क्रम किसी अभीष्ट विषय के उपाय ढू़ँढ़ने का । इसे वैज्ञानिक जन कहते है, “Trial & error theory”, ‘सफल न होने पर प्रयत्न की दिशा घुमा देने का सिद्धांत’ । आप स्वयं भी तो इस सिद्धांत का प्रयोग कर रहे हैं, अपने जीवन में । कोई रोग हो जाने पर, आते तो वैद्यराज के पास, औषधि लेते हो । तीन चार दिन खाकर देखने के पश्चात् कोई लाभ होता प्रतीत नहीं होता तो वैद्यजी से कहते हो, औषधि बदल देने के लिये । उसमें भी यदि काम न चले तो पुन: वही क्रम । और अन्त में तीन बार औषधि बदली जाने पर, मिल ही जाती है, कोई अनुकूल औषधि । इस प्रक्रिया का विश्लेषण करने पर भी उपरोक्त ही फल निकलेगा । बस यही है वह सिद्धांत, जो यहाँ शांति-प्राप्ति के उपाय के सम्बंध में भी लागू करना है । किसी अनुभूत व दृष्ट विषय का विश्लेषण करके एक सिद्धांत बनाना तथा उसी जाति के किसी अनुभूत व अदृष्ट विषय पर लागू करके अभीष्ट की सिद्धि कर लेना ही तो वैज्ञानिक मार्ग है, कोई नवीन खोज करने का । शांति की नवीन खोज करनी है तो उपरोक्त सिद्धांत को लागू कीजिए । एक प्रयत्न कीजिये, यदि सफलता न हो तो उस प्रयत्न की दिशा घुमाकर देखिये, फिर भी सफलता न मिले तो पुन: कोई और प्रयोग कीजिये, और प्रयोगों को बराबर बदलते जाइये, जब तक कि सफल न हो जायें ।
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१. अंतर की माँग – धर्म सम्बंधी वास्तविकता को जानने के लिये वक्ता व श्रोता की आवश्यकताओं को तथा शिक्षण पद्धति-क्रम को जानने के पश्चात और धर्म सम्बंधी बात को जानने के लिये उत्साह प्रकट हो जाने के पश्चात्; अब यह बात जानना आवश्यक है कि धर्म कर्म की जीवन में आवश्यकता ही क्या है ? जीवन के लिये यह कुछ उपयोगी तो भासता नहीं । यदि बिना किसी धार्मिक प्रवृत्ति के ही जीवन बिताया जाये तो क्या हर्ज है ? फिलास्फर बनने के लिेये कहा गया है न मुझे । प्रश्न बहुत सुंदर है और करना भी चाहिए था । अंदर में उत्पन्न हुये प्रश्न को कहते हुये शर्माना नहीं चाहिए, नहीं तो यह विषय स्पष्ट नहीं होने पायेगा । प्रश्न बेधड़क कर दिया करो, डरना नहीं । वास्तव में ही धर्म की कोई आवश्यकता न होती यदि मेरे अंदर की सभी अभिलाषाओं की पूर्ति साधारणत: हो जाती । कोई भी पुरूषार्थ किसी प्रयोजनवश करने में आता है । किसी अभिलाषा-विशेष की पूर्ति के लिये ही कोई कार्य किया जाता है । ऐसा कोई कार्य नहीं, जो बिना किसी अभिलाषा के किया जा रहा हो । अत: उपरोक्त बात का उत्तर पाने के लिये मुझे विश्लेषण करना होगा अपनी अभिलाषाओं का ऐसा करने से स्पष्ट कुछ ध्वनि अंतरंग से आती प्रतीत होंगी । इस रूप में कि ‘‘मुझे सुख चाहिए, मुझे निराकुलता चाहिये ।’’ यह ध्वनि छोटे बड़े सर्व ही प्रणियों की चिरपरिचित है, क्योंकि कोई भी ऐसा नहीं है जो इस ध्वनि को बराबर उठते न सुन रहा हो और यह ध्वनि कृत्रिम भी नहीं है । किसी अन्य से प्रेरित होकर यह सीख उत्पन्न हुई हो ऐसा भी नहीं है, स्वाभाविक है । कृत्रिम बात का आधार वैज्ञानिक नहीं लिया करते परन्तु इस स्वाभाविक ध्वनि का कारण तो अवश्य जानना पड़ेगा । अपने अंदर की इस ध्वनि से प्रेरित होकर, इस अभिलाषा की पूर्ति के लिये, मैं कोई प्रयत्न न कर रहा हूँ ऐसा भी नहीं है । मैं बराबर कुछ न कुछ उद्यम कर रहा हूँ । जहाँ भी जाता हूँ कभी खाली नहीं बैठता और कब से करता आ रहा हूँ यह भी नहीं जानता । परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि सब करते हुये भी बड़े से बड़ा धनवान या राजा आदि बन जाने पर भी यह ध्वनि आज तक शांत नहीं हो पाई । यदि शांत हो गई होती या उसके लिये किया जाने वाला पुरूषार्थ जितनी देर तक चलता रहता है उतने अंतराल मात्र के लिये भी कदाचित् शांत होती हुई प्रतीत होती तो अवश्य ही धर्म आदि की कोई आवश्यकता नहीं होती । उसी पुरूषार्थ के प्रति और अधिक उद्यम करता और कदाचित् सफलता प्राप्त कर लेता । वह शांति की अभिलाषा ही मुझे बाध्य कर रही है कोई नया आविष्कार करने के लिये, जिसके द्वारा में उसकी पूर्ति कर पाऊँ । आवश्यकता अविष्कार की जननी होती है । इसी कारण धर्म का आविष्कार ज्ञानीजनों-ने अपने जीवन में किया और उसी का उपदेश सर्व जगत को भी दिया तथा दे रहे हैं, किसी स्वार्थ के कारण नहीं, बल्कि प्रेम व करूणा के कारण कि किसी प्रकार आप भी सफल हो सकें अभिलाषा को शांत करने में ।
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२ - धर्म का प्रयोजन १. अन्तर की माँग; २. विज्ञान विधि; ३. सत्य पुरुषार्थ; ४. इच्छा गर्त; ५. संसार वृक्ष |
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८. पक्षपात निरसन – परन्तु पक्षपात को छोड़कर सुनना । नहीं तो पक्ष्ापात का ही स्वाद आता रहेगा । इस बात का स्वाद न चख सकेगा । देख एक दृष्टांत देता हूँ । एक चींटी थी नमक की खान में रहती थी । कोई उसकी एक सहैली उससे मिलने गई । बोली ‘‘बहन तू कैसे रहती है यहाँ? इस नमक के खारे स्वाद में । चल मेरे स्थान पर चल, वहाँ बहुत अच्छा स्वाद मिलेगा तुझे, तू बड़ी प्रसन्न होगी वहाँ जाकर ।’’ कहने सुनने से चली आई वह, उसके साथ उसके स्थान पर, हलवाई की दुकान में, परन्तु मिठाई पर घूमते हुये भी उसकी विशेष प्रसन्नता न हुई । उसकी सहैली ताड़ गई उसके हृदय की बात और पूछ बैठी उससे ‘क्यों बहिन आया कुछ स्वाद?’’ ‘‘नहीं कुछ विशेष स्वाद नहीं, वैसा ही सा लगता है मुझे तो, जैसा वहाँ नमक पर घूमते हुये लगता था ।’’ सोच में पड़ गई उसकी सहैली । यह कैसे सम्भव है । मीठे में नमक का ही स्वाद कैसे आ सकता है? कुछ गड़बड़ अवश्य है। झुककर देखा उसके मुख की और । ‘‘परन्तु बहन ! यह तेरे मुख में क्या है?’’ ‘’कुछ नहीं, चलते समय सोचा कि वहाँ यह पकवान मिले कि न मिले, थोड़ा साथ ले चल और मुँह में भर लाई थोड़ी सी नमक की डली । वही है यह ।’’ ‘‘अरे ! तो यहाँ का स्वाद कैसे आवे तुझे? मुँह में रखी है नमक की डली, मीठे का स्वाद कैसे आयेगा? निकाल इसे ।’’ डरती हुई ने कुछ-कुछ झिझक व आशंका के साथ निकाला उसे । एक और रख दिया इसलिये कि थोड़ी देर पश्चात् पुन: उठा लेना होगा इसे, अब तो सहैली कहती है, खेर निकाल दो इसके कहने से और उसके निकलते ही पहुंच गई दूसरे लोक में वह । ‘‘उठाले बहिन ! अब इस अपनी इस डली को’’ सहैली बोली । लज्जित हो गई वह यह सुनकर, क्योंकि अब उसे कोई आकर्षण नहीं था, उस नमक की डली में । बस तुम भी जब तक पक्षपात की यह डली मुख में रखे बैठे हो, नहीं चख सकोगे इस आध्यात्मिक स्वाद को । आता रहेगा केवल द्वेष का कड़वा स्वाद । एक बार मुँह में से निकालकर चखो इसे । भले फिर उठा लेना इसी अपने पहले खाजे को । परन्तु इतना विश्वास दिलाता हूँ कि एक बार के ही इस नई बात के आस्वाद से, तुम भूल जाओगे उसके स्वाद को, लज्जित हो जाओगे उस भूल पर । उसी समय पता चलेगा कि यह डली स्वादिष्ट थी कि कड़वी । दूसरा स्वाद चखे बिना कैसे जान पाओगे इसके स्वाद को ? अत: कोई भी नई बात जानने के लिये प्रारंभ में ही पक्षपात का विष अवश्य उगलने योग्य है । किसी बात को सुनकर या किसी भी शास्त्र में पढ़कर, वक्ता या लेखक के अभिप्राय को ही समझने का प्रयत्न करना । जबरदस्ती उसके अर्थ को घुमाने का प्रयत्न न करना । वक्ता या लेखक के अभिप्राय का गला घोंटकर अपनी मान्यता व पक्ष के अनुकूल बनाने का प्रयत्न न करना । तत्व को अनेकों दृष्टियों से समझाया जायेगा । सब दृष्टियों को पृथक-पृथक जानकर ज्ञान में उनका सम्मिश्रण कर लेना । किसी दृष्टि का भी निषेध करने का प्रयत्न न करना अथवा किसी एक ही दृष्टि का आवश्यकता से अधिक पोषण करने के लिये शब्दों में खेंचतान न करना । ऐसा करने से अन्य दृष्टियों का निषेध ही हो जायेगा तथा अन्य भी अनेकों बातें हैं जो पक्षपात के अधीन पड़ी हैं । उन मत को उगल डालना । समन्वयात्मक दृष्टि बनाना, साम्यता धारण करना । इसी में निहित है तुम्हारा हित और तभी समझा या समझाया जा सकता है तत्व । उपरोक्त इन सर्व पाँचों कारणों का अभाव हो जाये तो ऐसा नहीं हो सकता कि तुम धर्म के उस प्रयोजन को व उसकी महिमा को ठीक-ठीक जान न पाओ और जानकर उससे इस जीवन में कुछ नवीन परिवर्तन लाकर किंचित इसके मिष्ठ फल की प्राप्ति न कर लो और अपनी प्रथम की ही निष्प्रयोजन धार्मिक क्रियाओं के रहस्य को समझकर उन्हें सार्थक न बनालो ।
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७. वैज्ञानिक बन – जैसाकि आगे स्पष्ट हो जायेगा, धर्म का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं वैज्ञानिक है । अंतर केवल इतना है कि लोक में प्रचलित विज्ञान भौतिक विज्ञान है और यह है आध्यात्मिक विज्ञान । धर्म की खोज तुझे एक वैज्ञानिक बनकर करनी होगी, साम्प्रदायिक बनकर नहीं । स्वानुभव के आधार पर करनी होगी, गुरूओं के आश्रय पर नहीं । अपने ही अंदर से तत्संबंधी ‘क्या’ और ‘क्यों’ उत्पन्न करके तथा अपने ही अंदर से उसका उत्तर लेकर करनी होगी, किसी से पूछकर नहीं । गुरू जो संकेत दे रहे हैं, उनको जीवन पर लागू करके करनी होगी, केवल शब्दों में नहीं । तुझे एक फिलास्फर बनकर चलना होगा, कूपमंडूक बनकर नहीं । स्वतंत्र वातावरण में जाकर विचारना होगा, साम्प्रदायिक बंधनों में नहीं । देख एक वैज्ञानिक का ढंग, और सीख कुछ उससे । अपने पूर्व के अनेकों वैज्ञानिकों व फिलास्फरों द्वारा स्वीकार किये गये सर्व ही सिद्धांतों को स्वीकार करके, उसका प्रयोग करता है। वह अपनी प्रयोगशाला में, और एक आविष्कार निकाल देता है । कुछ अपने अनुभव भी सिद्धांत के रूप में लिख जाता है, पीछे आने वाले वैज्ञानकों के लिये और वे पीछे वाले भी इसी प्रकार करते हैं । सिद्धांत में बराबर वृद्धि होती चली जा रही है, परन्तु कोई भी अपने से पूर्व सिद्धांत को झूठा मानकर ‘उसको मैं नहीं पढूंगा’ ऐसा अभिप्राय नहीं बनाता । सब ही पीछे-पीछे वाले अपने से पूर्व-पूर्व वालों के सिद्धांतों का आश्रय लेकर चलते हैं । उन पूर्व में किये गये अनुसंधानों को पुन: नहीं दोहराते । इसी प्रकार तुझे भी अपने पूर्व में हुये प्रत्येक ज्ञानों के, चाहे वह किसी नाम व सम्प्रदाय का क्यों न हो । अनुभव और सिद्धांतों से कुछ न कुछ सीखना चाहिये, कुछ न कुछ शिक्षा लेनी चाहिये । बाहर से ही, केवल इस आधार पर कि ‘तेरे गुरू ने तुझे अमुक बात, अमुक ही शब्दों में नहीं बताई है’ उनके सिद्धांतों को झूठा मानकर, उनसे लाभ लेने की बजाय उनसे द्वेष करना योग्य नहीं है । वैज्ञानिकों का यह कार्य नहीं है । जिस प्रकार प्रत्येक वैज्ञानिक जो जो सिद्धांत बनाता है, उसका आधार कोई कपोल कल्पना मात्र नहीं होता, बल्कि होता है उसका अपना अनुभव, जो वह अपनी प्रयेगशाला में प्रयोग-विशेषक के द्वारा प्राप्त करता है । पहले स्वयं प्रयोग करके उसका अनुभव करता है और फिर दूसरों के लिये लिख जाता है, अपने अनुभव को । कोई चाहे तो उससे लाभ उठा ले, न चाहे तो न उठाये । परन्तु वह सिद्धांत स्व्ायं एक सत्य ही रहता है, एक ध्रुव सत्य । इसी प्रकार अनेक ज्ञानियों ने अपने जीवन की प्रयोगशालाओं में प्रयोग किये, उस धर्म सम्बंधी अभिप्राय की पूर्ति के मार्ग में । कुछ उसे पूर्ण कर पाये और कुछ न कर पाये, बीच में ही मृत्यु की गोद में जाना पड़ा । परन्तु जो कुछ भी उन सबने अनुभव किया या जो-जो प्रक्रियायें उन्होंने उन-उन प्रयोगों में स्वयं अपनाईं, वे लिख गये हमारे हित के लिए कि हम भी इनमें से कुछ तथ्य समझकर अपने प्रयोग में कुछ सहायता ले सकें । सहायता लेना चाहें तो लें, और न लेना चाहे तो न लें परन्तु वे सिद्धांत सत्य हैं, परम सत्य । इस मार्ग में इतनी कमी दुर्भाग्यवश अवश्य रहती है, जो कि वैज्ञानिक मार्ग में देखने में नहीं आती और वह यह है कि यहाँ कुछ स्वार्थी अनुभवविहीन ज्ञानाभिमानी जन विकृत कर देते हैं । उन सिद्धांतों को, पीछे से कुछ अपनी धारणायें उसमें मिश्रण करके और वैज्ञानिक मार्ग में ऐसा होने नहीं पाता । पर फिर भी वे विकृतियां दूर की जा सकती हैं । कुछ अपनी बुद्धि से, अपने अनुभव के आधार पर । भो जिज्ञासु ! तनिक विचार तो सही कि कितना बड़ा सौभाग्य है तेरा कि उन उन ज्ञानियों ने जो बातें बड़े बलिदानों के पश्चात् बड़े परिश्रम से जानीं, बिना किसी मूल्य के दे गये तुझे । अर्थात् बड़े परिश्रम से बनाया हुआ अपना भोजन परोस गये तुझे । और आज भूखा होते हुये भी तथा उनके द्वारा परोसा यह भोजन सामने रखा होते हुये भी तू खा नहीं रहा है इसे, कुछ संशय के कारण या साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण, जिसका आधार है केवल पक्षपात । तुझसा मूर्ख कौन होगा ? तुझसा अभागा कौन होगा ? भो जिज्ञासु ! अब इस विष को उगल दे और सुन कुछ नई बात, जो आज तक सम्भवत: नहीं सुनी है और सुनी भी हो तो समझी नहीं है । सर्वदर्शनकारों के अनुभव का सार, और स्वयं मेरे अनुभव का सार, जिसमें न कहीं है किसी का खण्डन और न है निज की बात का पक्ष । वैसा वैसा स्वयं अपने जीवन में उतारकर उसकी परीक्षा कर । बताये अनुसार ही फल हो तो ग्रहण कर लें और वैसा फल न हो तो छोड़ दें । पर वाद-विवाद किसके लिये और क्यों? बाजार का सौदा है मर्जी में आये तो ले और न आये तो न ले, यह एक नि:स्वार्थ भावना है । तेरे कल्याण की भावना और कुछ नहीं । कुछ लेना देना नहीं तुझसे । तेरे अपने कल्याण की बात है । निज हित के लिये एक बार सुन तो सही, तुझे अच्छी लगे बिना न रहेगी । क्यों अच्छी न लगे तेरी अपनी बात है- घर बैठे बिना परिश्रम के मिल रही हैं तुझे, इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? निज हित के लिये अब पक्षपात की दाह में इसकी अवहैलना मत कर ।
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६. महाविघ्न पक्षपात – धर्म के प्रयोजन व महिमा को जानने या सीखने सम्बंधी बात चलती है, अर्थात़ धर्म सम्बंधी शिक्षण की बात है । वास्तव में यह जो चलता है, इसे प्रवचन न कहकर शिक्षणक्रम नाम देना अधिक उपयुक्त है । किसी भी बात को सीखने या पढ़ने में क्या-क्या बाधक कारण होते हैं उनकी बात है । पाँच कारण बताये गये थे । उनमें से चार की व्याख्या हो चुकी, जिस पर से यह निर्णय कराया गया कि यदि धर्म का स्वरूप जानना है और उससे कुछ काम लेना है तो १- उसके प्रति बहुमान व उत्साह उत्पन्न कर, २-निर्णय करके यथार्थ वक्ता से उसे सुन, ३- अक्रमरूप न सुनकर ‘क’ से ‘ह’ तक क्रम पूर्वक सुन, ४- धैर्य धारकर बिना चूक प्रतिदिन महीनों तक सुन । अब पाँचवें बाधक कारण की बात चलती है, वह है वक्ता व श्रोता का पक्षपात । वास्तव में यह पक्षपात बहुत घातक है । इस मार्ग में साधारणत: यह उत्पन्न हुये बिना नहीं रहता । कारण पहले बताया जा चुका है । पूरा वक्तव्य क्रमपूर्वक न सुनना ही उस पक्षपात का मुख्य कारण है । थोड़ा जानकर, ‘मैं बहुत कुछ जान गया हूँ’ ऐसा अभिमान अल्पज्ञ जीवों में स्वभावत: उत्पन्न हो जाता है । जो आगे जानने की उसे आज्ञा नहीं देता । वह ‘जो मैंने जाना सो ठीक है, तथा जो दूसरे ने जाना सो झूठ है ।’ और दूसरा भी ‘जो मैंने जाना सो ठीक तथा जो आपने जाना सो झूठ’ एक इसी अभिप्राय को धार परस्पर लड़ने लगते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं, वाद-विवाद करते हैं । उस वाद-विवाद को सुनकर कुछ उसकी रूचि के अनुकूल व्यक्ति उसके पक्ष का पोषण करने लगते हैं तथा दूसरे की रूचि के अनुकूल व्यक्ति दूसरे के पक्ष का । उसके अतिरिक्त कुछ साधारण व भोले व्यक्ति भी जो उसकी बात को सुनते हैं, उसके अनुयायी बन जाते हैं और जो दूसरे की बात को सुनते हैं, वे दूसरे के बिना इस बात को जाने कि इन दोनों में-से कौन क्या कह रहा है? और इस प्रकार निर्माण हो जाता है, सम्प्रदायों का, जो वक्ता की मृत्यु के पश्चात् भी परस्पर लड़ने में ही अपना गौरव समझते रहते हैं और हित का मार्ग न स्वयं खोज सकते हैं और न दूसरों को दर्शा सकते हैं । मजे की बात यह है कि यह सब लड़ाई होती है धर्म के नाम पर । यह दुष्ट पक्षपात कई जाति का होता है । उनमें से मुख्य दो जाति हैं- एक अभिप्राय का पक्षपात तथा दूसरा शब्द का पक्षपात । अभिप्राय का पक्षपात तो स्वयं वक्ता तथा उसके श्रोता दोनों के लिये घातक है और शब्द का पक्षपात केवल श्रोताओं के लिए । क्योंकि इस पक्षपात में वक्ता का अपना अभिप्राय तो ठीक रहता है, पर बिना शब्दों में प्रगट हुए श्रोता बेचारा कैसे जान सकेगा उसके अभिप्राय को? अत: वह अभिप्राय में भी पक्षपात धारण करके, स्वयं वक्ता के अंदर में पड़े हुये अनुक्त अभिप्राय का भी विरोध करने लगता है । यदि विषय को पूर्ण सुन व समझ लिया जाये तो कोई भी विरोधी अभिप्राय शेष न रह जाने के कारण पक्षपात को अवकाश नहीं मिल सकता । इस पक्षपात का दूसरा कारण है श्रोता की अयोग्यता, उसकी स्मरण शक्ति की हीनता, जिसके कारण कि सारी बात सुन लेने पर भी बीच-बीच में कुछ-कुछ बात तो याद रह जाती है उसे और कुछ-कुछ भूल जाता है वह और इस प्रकार एक अखंडित धारावाही अभिप्राय खण्डित हो जाता है, उसके ज्ञान में । फल वही होता है जो कि अक्रम रूप से सुनने का है । पक्षपात का तीसरा कारण है व्यक्ति-विशेष के कुल में परम्परा से चली आई कोई मान्यता या अभिप्राय । इस कारण का तो कोई प्रतिकार ही नहीं है । भाग्य ही कदाचित् प्रतिकार बन जाये तथा अन्य भी अनेकों कारण हैं, जिनका विशेष विस्तार करना यहाँ ठीक सा नहीं लगता । हमें तो यह जानना है कि निज कल्याणार्थ धर्म का स्वरूप कैसे समझें? धर्म का स्वरूप जानने से पहले इस पक्षपात को तिलांजली देकर यह निश्चय करना चाहिये कि धर्म सम्प्रदाय की चार दीवारी से दूर किसी स्वतंत्र दृष्टि में उत्पन्न होता है, स्वतंत्र वातावरण में पलता है व स्वतंत्र वातावरण में ही फल देता है । यद्यपि सम्प्रदायों को आज धर्म के नाम से पुकारा जाता है परन्तु वास्तव में यह भ्रम है । पक्षपात का विषैला फल है । सम्प्रदाय कोई भी क्यों न हो धर्म नहीं हो सकता । सम्प्रदाय पक्षपात को कहते हैं और धर्म स्वतंत्र अभिप्राय को कहते हैं जिसे कोई भी मनुष्य, किसी भी सम्प्रदाय में उत्पन्न हुआ, छोटा या बड़ा, गरीब या अमीर, यहाँ तक कि तिर्यंच भी, सब धारण कर सकते हैं; जबकि सम्प्रदाय इसमें अपनी टांग अड़ाकर, किसी को धर्म पालन करने का अधिकार देता है और किसी को नहीं देता । आज के जैन-सम्प्रदाय का धर्म भी वास्तव में धर्म नहीं है, सम्प्रदाय है, एक पक्षपात है । इसके अधीन क्रियाओं में ही कूपमण्डूक बनकर बर्तने में कोई हित नजर नहीं आता । पहले कभी नहीं सुनी होगी ऐसी बात और इसलिये कुछ क्षोभ भी सम्भवत: आ गया हो । धारणा-पर ऐसी सीधी व कड़ी चोट कैसे सहन की जा सकती है? यह धर्म तो सर्वोच्च धर्म है न जगत का ? परन्तु क्षोभ की बात नहीं है भाई ! शान्त हो । तेरा यह क्षोभ ही तो वह पक्षपात है, साम्प्रदायिक पक्षपात जिसका निषेध कराया जा रहा है । इस क्षोभ से ही तो परीक्षा हो रही है तेरे अभिप्राय की । क्षोभ को दबा, आगे चलकर स्वयं समझ जायेगा कि कितना सार था तेरे इस क्षोभ में । अब जरा विचार कर कि क्या धर्म ही कहीं उंचा या नीचा होता है ? बड़ा और छोटा होता है ? अच्छा या बुरा होता है ? धर्म तो धर्म होता है उसका क्या उँचा-नीचापना ? उसका क्या जैन व अजैनपना ? क्या वैदिकपना व मुसलमानपना ? धर्म तो धर्म है, जिसने जीवन में उतारा उसे हितकारक ही है, जैसा कि आगे के प्रकरणों से स्पष्ट हो जायेगा । उस हित को जानने के लिये कुछ शान्तचित्त होकर सुन । पक्षपात को भूल जा थोड़ी देर के लिये । तेरे क्षोभ के निवारणार्थ यहाँ इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश डाल देना उचित समझता हूँ । किसी मार्ग विशेष पर श्रद्धा न करने का नाम सम्प्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय तो अन्तरंग के किसी विशेष अभिप्राय का नाम है, जिसके कारण कि दूसरों की धारणाओं के प्रति कुछ अदेखसकासा भाव प्रकट होने लगता है । इस अभिप्राय को परीक्षा करके पकड़ा जा सकता है, शब्दों में बताया नहीं जा सकता । कल्पना कीजिये कि आज मैं यहाँ इस गद्दी पर कोई ब्रह्माद्वैतवाद का शास्त्र ले बैठूं और उसके आधार पर आपको कुछ सुनाना चाहूँ, तो बताइये आपकी अन्तरवृत्ति क्या होगी ? क्या आप उसे भी इसी प्रकार शान्ति व रूचि पूर्वक सुनना चाहेंगे, जिस प्रकार कि इसे सुन रहे हैं? सम्भवत: नहीं । यदि मुझसे लड़ने न लगें तो, या तो यहाँ से उठकर चले जाओगे और या बैठकर चुपचाप चर्चा करने लगोगे या ऊँघने लगोगे और या अंदर ही अंदर कुछ कुढ़ने लगोगे, ‘‘सुनने आये थे जिनवाणी और सुनने बैठ गये अन्य मत की कथनी ।’’ बस इसी भाव का नाम है साम्प्रदायिकता । इस भाव का आधार है गुरू का पक्षपात अर्थात् जिनवाणि की बात ठीक है, क्योंकि मेरे गुरू ने कहीं है और यह बात झूठ है क्योंकि अन्य के गुरू ने कहीं है । यदि जिनवाणी की बात को भी युक्ति व तर्क द्वारा स्वीकार करने का अभ्यास किया होता, तो यहाँ भी उसी अभ्यास का प्रयोग करते । यदि कुछ बात ठीक बैठ जाती तो स्वीकार कर लेते, नहीं तो नहीं । इसमें क्षोभ की क्या बात थी? बाजार में जायें, अनेक दुकानदार आपको अपनी और बुलायें, आप सबकी ही तो सुन लेते हैं । किसी से क्षोभ करने का तो प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता । किसी से सौदा पटा तो ले लिया, नहीं पटा तो आगे चल दिये । इसी प्रकार यहाँ क्यों नहीं होता ? बस इस अदेखसके भाव को टालने की बात कहीं जा रही है । मार्ग के प्रति तेरी जो श्रद्धा है, उसका निषेध नहीं किया जा रहा है । युक्ति व तर्कपूर्वक समझने का प्रयास हो तो सब बातों में से तथ्य निकाला जा सकता है । भूल भी कदापि नहीं हो सकती । यदि श्रद्धान सच्चा है तो उसमें बाधा भी नहीं आ सकती, सुनने से डर क्यों लगता है? परन्तु ‘क्योंकि मेरे गुरू ने कहा है इसलिये सत्य है’ तेरे अपने कल्याणार्थ इस बुद्धि का निषेध किया जा रहा है । वैज्ञानिकों का यह मार्ग नहीं है । वे अपने गुरू की बात को भी बिना युक्ति के स्वीकार नहीं करते । यदि अनुसंधान या अनुभव में कोई अंतर पड़ता प्रतीत होता है तो युक्ति द्वारा ग्रहण की हुई को भी नहीं मानते हैं । बस तथ्य की यथार्थता को पकड़ना है । तो इसी प्रकार करना होगा । गुरू के पक्षपात से सत्य का निर्णय ही न हो सकेगा, अनुभव तो दूर की बात है । अपनी दही को मीठी बताने का नाम सच्ची श्रद्धा नहीं है । वास्तव में मीठी हो तथा उसके मिठास को चखा हो, तब उसे मीठी कहना सच्ची श्रद्धा है । देख एक दृष्टांत देता हूँ । एक जौहरी था उसकी आयु पूर्ण हो गई । पुत्र था, तो पर निखट्टू। पिताजी की मृत्यु के पश्चात् अलमारी खोली और कुछ जेवर निकालकर ले गया अपने चाचा के पास । ‘चचाजी, इन्हें बिकवा दीजिये ।’ चचा भी जौहरी था, सब कुछ समझ गया । कहने लगा बेटा ! आज न बेचो इन्हें, बाजार में ग्राहक नहीं हैं । बहुत कम दाम उठेंगे । जाओ जहाँ से लाये हो वहीं रख आओ इन्हें और मेरी दुकान पर आकर बैठा करो, घर का खर्चा दुकान से उठा लिया करो । वैसा ही किया और कुछ महीनों के पश्चात् पूरा जौहरी बन गया वह । अब चाचा ने कहा, ‘कि बेटा ! जाओ आज ले आओ वे जेवर । आज ग्राहक है बाजार में ।’ बेटा तुरन्त गया, अलमारी खोली और जेवर के डब्बे उठाने लगा । पर हैं ! यह क्या? एक डब्बा उठाया, रख दिया वापिस; दूसरा उठाया रख दिया वापिस; और इसी तरह तीसरा, चौथा आदि सब डब्बे ज्यों के त्यों अलमारी में रख दिये, अलमारी बन्द की और चला आया खाली हाथ दुकान पर, निराशा में गर्दन लटकाये, विकल्प सागर में डूबा, वह युवक । ‘‘जेवर नहीं लाये बेटा?’’ चाचा ने प्रश्न किया और एक धीमी सी, लज्जित सी आवाज निकली युवक के कण्ठ से ‘‘क्षमा करो चाचा, भूला था भ्रम था । वह सब तो कांच है, मैं हीरे समझ बैठा था उन्हें अज्ञानवश । आज आप से ज्ञान पाकर आँखें खुल गई हैं, मेरी |’’ बस इसी प्रकार तेरे भ्रम की, पक्षपात की सत्ता उसी समय तक है, जब तक कि धैर्यपूर्वक कुछ महीनों-तक बराबर उस विशाल तत्व को सुन व समझ नहीं लेता उस सम्पूर्ण को यथार्थ रीत्या समझ लेने के पश्चात् तू स्वयं लज्जित हो जायेगा, हंसेगा अपने ऊपर ।
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५. श्रोता के दोष - ऊपर बताये गये दोष के अतिरिक्त श्रोता में और भी कई दोष हैं जिनके कारण प्रमाणिक व योग्य वक्ता मिलने पर भी वह उसके समझने में असमर्थ रहता है । उन दोषों में से मुख्य है- उसका अपना पक्षपात, जो किसी अप्रमाणिक अथवा अयोग्य वक्ता का विवेचन सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है अथवा प्रमाणिक और योग्य वक्ता के विवेचन को अधूरा सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है अथवा पहले से ही बिना किसी का सिखाया कोई अभिप्राय उसमें पड़ा है । यह पक्षपात वस्तु-स्वरूप जानने के मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है । क्योंकि इस पक्षपात के कारण अव्वल तो अपनी रूचि या अभिप्राय से अन्य कोई बात उसे रुचती ही नहीं और इसलिये ज्ञानी की बात सुनने का प्रयत्न ही नहीं करता वह आौर यदि किसी की प्रेरणा से सुनने भी चला जाये, तो समझने की दृष्टि की बजाय सुनता है वाद-विवाद की दृष्टि से, शास्त्रार्थ की दृष्टि से, दोष चुनने की दृष्टि से । अपनी रूचि के विपरीत कोई बात आई नहीं कि पड़ गया उस बेचारे के पीछे, हाथ धोकर तथा अपने अभिप्राय के पोषक कुछ प्रमाण उस ही के वक्तव्य में से छांटकर, पूर्वापर मेल बैठाने का स्वयं प्रयत्न न करता हुआ, बजाय स्वयं समझने के समझाने लगा वक्ता को । ‘‘वहाँ देखो तुमने या तुम्हारे गुरू ने ऐसी बात कहीं है या लिखी है और यहाँ उससे उल्टी बात कह रहे हो’’? और प्रचार करने लगता है लोक में इस अपने पक्ष का तथा विरोध का । फल निकलता है तीव्र द्वेष । श्रोता का दूसरा दोष है धैर्य-हीनता । चाहता है कि तुरन्त ही कोई सब कुछ बता दे । एक राजा को एक बार कुछ हठ उपजी । कुछ जौहरियों को दरबार में बुलाकर उनसे बोला कि मुझे रत्न की परीक्षा करना सिखा दीजिये, नहीं तो मृत्यु का दण्ड भोगिये । जौहरियों के पांव तले धरती खिसक गई । असमंजस में पड़े सोचते थे कि एक वृद्ध जौहरी आगे बढ़ा । बोला कि ‘‘मैं सिखाऊँगा पर एक शर्त पर । वचन दो तो कहूँ ।’’ राजा बोला, ‘‘स्वीकार है, जो भी शर्त होगी पूरी करूँगा ।’’ वृद्ध बोला, ‘‘गुरू-दक्षिणा पहले लूंगा ।’’ हाँ हाँ तैयार हूँ, मांगो क्या मांगते हो? जाओ कोषाध्यक्ष ! दे दो सेठ साहब को लाख करोड़ जो भी चाहिये ।’’ वृद्ध बोला ‘‘कि राजन् ! लाख करोड़ नहीं चाहिये बल्कि जिज्ञासा है, राजनीति सीखने की और वह भी अभी इसी समय । शर्त पूरी कर दी जाये और रत्न-परीक्षा की विद्या ले लीजिये ।’’ ‘‘परन्तु यह कैसे संभव है’’, राजा बोला, ‘‘राजनीति इतनी सी देर में थोड़े ही सिखाई जा सकती है? वर्षों हमारे मंत्री के पास रहना पड़ेगा ।’’ ‘‘बस तो रत्न परीक्षा भी इतनी जल्दी थोड़े ही बताई जा सकती है ? वर्षों रहना पड़ेगा दुकान पर’’ और राजा को अकल आ गई । इसी प्रकार धर्म सम्बंधी बात भी कोई थोड़ी देर में सुनना या सीखना चाहे तो यह बात असम्भव है । वर्षों रहना पड़ेगा ज्ञानी के संग में अथवा वर्षों सुनना पड़ेगा उसके विवेचन को । जब स्थूल, प्रत्यक्ष, इन्द्रिय-गोचर, लौकिक बातों में भी यह नियम लागू होता है तो सूक्ष्म, परोक्ष, इन्द्रिय-अगोचर, अलौकिक बात में क्यों लागू न होगा? इसका सीखना तो और भी कठिन है । अत: भो जिज्ञासु ! यदि धर्म का प्रयोजन व उसकी महिमा का ज्ञान करना है तो धैर्यपूर्वक वर्षों तक सुनना होगा, शांत भाव से सुनना होगा और पक्षपात व अपनी पूर्व की धारणा को दबाकर सुनना होगा ।
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४. विवेचन के दोष - तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता । अर्थात् यदि कोई अनुभवी ज्ञानी भी मिला और सरल भाषा में समझाना भी चाहा तो भी अभ्यास न होने के कारण या पढ़ाने का ठीक ठीक ढंग न आने के कारण या पर्याप्त समय न होने के कारण क्रम पूर्वक विवेचन कर न पाया, क्योंकि उस धर्म का स्वरूप बहुत विस्तृत है, जो थोड़े समय में या थोड़े दिनों में ठीक-ठीक हृदयंगत कराया जाना शक्य नहीं है । भले ही वह स्वयं उसे ठीक-समझता हो, पर समझने और समझाने में अंतर है । समझा एक समय में जा सकता है और समझाया जा सकता है क्रमपूर्वक काफी लम्बे समय में । समझाने के लिये ‘क’ से प्रारम्भ करके ‘ह’ तक क्रमपूर्वक धीरे-धीरे चलना होता है, समझने वाले की पकड़ के अनुसार । यदि जल्दी करेगा तो उसका प्रयास विफल हो जायेगा । क्योंकि अनभ्यस्त श्रोता बेचारा इतनी जल्दी पकड़ने में समर्थ न हो सकेगा । इसलिेये इतने झंझट से बचने के लिये, तथा श्रोता समझता है या नहीं इस बात की परवाह किये बिना अधिकतर वक्ता, अपनी रूचि के अनुसार पूरे विस्तार में से बीच-बीच के कुछ विषयों का विवेचन कर जाते हैं और श्रोताओं के मुख से निकली वाह-वाह से तृप्त होकर चले जाते हैं । श्रोता के कल्याण की भावना नहीं है उन्हें, है केवल इस ‘वाह-वाह’ की । क्योंकि इस प्रकार सब कुछ सुन लेने पर भी वह तो रह जाता है कोरा का कोरा । उस बेचारे का दोष भी क्या है ? कहीं-कहीं के टूटे हुए वाक्यों या प्रकरणों से अभिप्राय का ग्रहण हो भी कैसे सकता है ? और यदि बुद्धि तीव्र है श्रोता की तो इस अक्रमिक विवेचन को पकड़ तो लेगा पर वह खण्डित पकड़ उसके किसी काम न आ सकेगी । उल्टा उसमें कुछ पक्षपात उत्पन्न कर देगी, उन प्रकरणों का, जिन्हें कि वह पकड़ पाया है और वह द्वेषवश काट करने लगेगा उन प्रकरणों की, जिन्हें कि वह या तो सुनने नहीं पाया, और यदि सुना भी हो तो पूर्वोत्तर मेल न बैठने के कारण एक दूसरे के सहवर्तीपनको जान नहीं पाया । दोनों को पृथक-पृथक अवसरों पर लागू करने लगा और प्रत्येक अवसर पर दूसरे का मेल न बैठने के कारण काट करने लगा उसकी । इस प्रकार कल्याण की बजाय कर बैठा अकल्याण; हित की बजाय कर बैठा अहित, प्रेम की बजाय कर बैठा द्वेष । अथवा यदि सौभाग्यवश कोई अनुभवी वक्ता भी मिला और क्रमपूर्वक विवेचन भी करने लगा, तो श्रोता को बाधा हो गई । अधिक समय तक सुनने की क्षमता न होने के कारण या परिस्थितिवश प्रतिदिन न सुनने के कारण या अपने किसी पक्षपात के कारण किसी श्रोता ने सुन लिया उस संपूर्ण विवेचन का एक भाग और किसी ने सुन लिया उसका दूसरा भाग । फल क्या हुआ? वही जो कि अक्रमिक विवेचन में बताया गया । अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ वक्ता में अक्रमिकता थी और यहाँ है श्रोता में । वहाँ वक्ता दोष था और यहाँ है श्रोता का । परन्तु फल वही निकला पक्षपात, वाद-विवाद तथा अहित ।
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३. वक्ता की प्रमाणिकता - ‘धर्म का प्रयोजन व उसकी महिमा क्या है ?’ यह समस्या है, उसको सुलझाने के पाँच कारण बतलाये गये थे कल । पहिला कारण था इस विषय को फोकट का समझना तथा उसको रूचि पूर्वक न सुनना । उसका कथन हो चुका । अब दूसरे कारण का कथन चलता है । दूसरा कारण है वक्ता की अपनी अप्रमाणिकता । आज तक धर्म की बात कहने वाले अनेक मिले, पर उनमें से अधिकतर वास्तव में ऐसे थे, कि जिन बेचारों को स्वयं उसके सम्बंध में कुछ खबर न थी । और यदि कुछ जानकार भी मिले, तो उनमें से अधिकतर ऐसे थे जिन्होंने शब्दों में तो यथार्थ धर्म के सम्बंध में कुछ पढ़ा था, शब्दों में कुछ जाना भी था, पर स्वयं उसका स्वाद नहीं चखा था । अव्वल तो कदापि ऐसा मिला ही नहीं, जिसने कि उसकी महिमा को जाना हो, और यदि सौभाग्यवश मिला भी तो उसकी कथन पद्धति आगम के आधार पर रही । उन शब्दों के द्वारा व्याख्यान करने लगा, जिनके रहस्यार्थ को आप जानते न थे, सुनकर समझते तो क्या समझते ? ज्ञान की अनेक धारायें हैं । सर्व धाराओं का ज्ञान किसी एक साधारण व्यक्ति को होना असंभव है । आज लोक में कोई भी व्यक्ति अनाधिकृत विषय के सम्बंध में कुछ बताने को तैयार नहीं होता । यदि किसी सुनार से पूछें कि यह मेरी नब्ज तो देखिये, क्या रोग है और क्या औषध लूँ ? तो कहैगा कि वैद्य के पास जाइये, मैं वैद्य नहीं हूँ, इत्यादि । यदि किसी वैद्य के पास जाकर कहूँ कि देखिये तो यह जेवर खोटा है कि खरा ? खोटा है तो कितना खोटा है ? तो अवश्य ही यही कहैगा कि सुनार के पास जाओ, मैं सुनार नहीं हूँ, इत्यादि । परन्तु एक विषय इस लोक में ऐसा भी है, जो आज किसी के लिये भी अनधिकृत नहीं । सब ही मानों जानते हैं उसे । और वह है धर्म । घर में बैठा, राह चलता, मोटर में बैठा, दुकान पर काम करता, मंदिर में बैठा या चौपाल में झाडू लगाता कोई भी व्यक्त्िा आज भले कुछ और न जानता हो परन्तु धर्म के संबंध में अवश्य जानता है वह । किसी से पूछिये अथवा वैसे ही कदाचित् चर्चा चल जाये, तो कोई भी ऐसी नहीं है कि इस फोकट की वस्तु ‘धर्म’ के सम्बंध में कुछ अपनी कल्पना के आधार पर बताने का प्रयत्न न करे । भले स्वयं उसे यह भी पता न हो कि धर्म किस चिड़िया का नाम है । भले इन शब्दों से भी चिड़ हो उसे, पर आपको बताने के लिये वह कभी भी टांग अड़ाये बिना न रहेगा । स्वयं उसे अच्छा न समझता हो अथवा स्वयं उसे अपने जीवन में अपनाया न हो, पर आपको उपदेश देने से न चूकेगा कभी । सोचिये तो, कि क्या धर्म ऐसी ही फोकट की वस्तु है ? यदि ऐसा ही होता तो सबके सब धर्मी ही दिखाई देते । पाप, अत्याचार, अनर्थ आदि शब्द व्यर्थ हो जाते । परन्तु सौभाग्यवश ऐसा नहीं है । धर्म फोकट की वस्तु नहीं है । यह अत्यंत महिमावंत है । सब कोई इसको नहीं जानते । शास्त्रों के पाठी बड़े-बडे विद्वान भी सभी इसके रहस्य को नहीं पा सकते । कोई बिरला अनुभवी ही इसके पार को पाता है । बस वही हो सकता है प्रमाणिक वक्ता । इसके अतिरिक्त अन्य किसी के मुख से धर्म का स्वरूप सुनना ही इस प्राथमिक स्थिति में आपके लिये योग्य नहीं । क्योंकि अनेक अभिप्रायों को सुनने से, भ्रम में उलझकर झुंझलाये बिना न रह सकोगे । जितने मुख उतनी ही बातें, जितने उपदेश उतने ही आलाप, जितने व्यक्ति उतने ही अभिप्राय । सब अपने-अपने अभिप्राय का ही पोषण करते हुये वर्णन कर रहे हैं धर्म स्वरूप का । किसकी बात को सच्ची समझोगे ? क्योंकि सब बातें होंगी । एक दूसरे को झूठा ठहरातीं, परस्पर विरोधी । वक्ता की किञ्चित् प्रमाणिकता का निर्णय किये बिना जिस किसी से धर्म चर्चा करना या उपदेश सुनना योग्य नहीं । परन्तु इस अज्ञान दशा में वक्ता की प्रमाणिकता का निर्णय कैसे करें ? ठीक है तुम्हारा प्रश्न । है तो कुछ कठिन काम पर फिर भी संभव है । कुछ बुद्धि का प्रयोग अवश्य मांगता है और वह तुम्हारे पास है । धेले की वस्तु की परीक्षा करने के लिये तो आप में काफी चतुराई है । क्या जीवन की रक्षक अत्यंत मूल्यवान इस वस्तु की परीक्षा ना कर सकोगे ? अवश्य कर सकोगे । पहिचान भी कठिन नहीं । स्थूलत: देखने पर जिसके जीवन में उन बातों की झांकी दिखाई देती हो जो कि वह मुख से कह रहा हो, अर्थात् जिसका जीवन सरल, शांत व दयापूर्ण हो, जिसके शब्दों में माधुर्य हो, करूणा हो और सर्व सत्व का हित हो, सभ्यता हो, जिसके वचनों में पक्षपात की बू न आती हो जो हट्ठी न हो, सम्प्रदाय के आधार पर सत्यता को सिद्ध करने का प्रयत्न न करता हो । वाद-विवाद रूप चर्चा करने से डरता हो, आपके प्रश्नों को शांतिपूर्वक सुनने की जिसमें क्षमता हो तथा धैर्य से व कोमलता से उसे समझाने का प्रयत्न करता हो, आप की बात सुनकर जिसे क्षोभ न आता हो, जिसके मुख पर मुस्कान खेलती हो, विषय भोगों के प्रति जिसे अंदर से कुछ उदासी हो, प्राप्त विषयों के भोगने से भी जो घबराता हो तथा उनका त्याग करने से जिसे संतोष होता हो, अपनी प्रशंसा सुनकर कुछ प्रसन्नसा और अपनी निन्दा सुनकर कुछ रुष्टसा हुआ प्रतीत न होता हो तथा अन्य भी अनेक इसी प्रकार के चिन्ह हैं जिनके-द्वारा स्थूल-रूप से आप वक्ता की परीक्षा कर सकते हैं ।
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२. अध्ययन के विघ्न - न समझने के कारण कई हैं । वे सब कारण टल जायें तो क्यों न समझेगा ? पहला कारण है तेरा अपना प्रमाद, जिसके कारण कि तू स्वयं करता हुआ भी, अंदर में उसे कुछ फोकट की व बेकार की वस्तु समझे हुए है, जिसके कारण कि तू इसके समझने में उपयोग नहीं लगाता; केवल कानों में शब्द पड़ने मात्र को सुनना समझता है, वचनों के द्वारा बोलने मात्र को पढ़ना समझता है और आँख के द्वारा देखने मात्र को दर्शन समझता है । दूसरा कारण है वक्ता की अप्रमाणिकता । तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता । चौथा कारण है विवेचन क्रम का लम्बा विस्तार जो कि एक दो दिन में नहीं बल्कि महीनों तक बराबर कहते रहने पर ही पूरा होना संभव है । और पाँचवां कारण है श्रोता का पक्षपात । पहिला कारण तो तू स्वयं ही है । जिसके सम्बंध में कि ऊपर बता दिया गया है । यदि इस बात को फोकट की न समझकर वास्तव में कुछ हित की समझने लगे, कानों में शब्द पड़ने मात्र से संतुष्ट न होकर वक्ता के या उपदेष्टा के या शास्त्रों के उल्लेख के अभिप्राय को समझने का प्रयत्न करने लगे, तो धर्म की महिमा अवश्य समझ में आ जावे । शब्द सुने जा सकते हैं पर अभिप्राय नहीं । वह वास्तव में रहस्यात्मक होता है, परोक्ष होने के कारण और इसीलिये उन–उन वाचक शब्दों का ठीक वाच्य नहीं बन रहा है । क्योंकि किसी भी शब्द को सुनकर, उसका अभिप्राय आप तभी तो समझ सकते हैं, जबकि उस पदार्थ को, जिसकी ओर कि वह शब्द संकेत कर रहा है, आपने कभी छूकर देखा हो, सूँघ कर देखा हो, आँख से देखा हो अथवा चखकर देखा हो । आज मैं आपके सामने अमरीका में पैदा होने वाले किसी फल का नाम लेने लगूं तो आप क्या समझेंगे उसके सम्बंध में ? शब्द कानों में पड़ जायेगा और कुछ नहीं । इसी प्रकार धर्म का रहस्य बताने वाले शब्दों को सुनकर क्या समझेंगे आप ? जब तक कि पहले उन विषयों को, जिनके प्रति कि वे शब्द संकेत कर रहे हैं, कभी छूकर, सूँघकर, देखकर व चखकर न जाना हो आपने । इसीलिये उपदेश में कहै जाने वाले अथवा शास्त्र में लिखे शब्द ठीक-ठीक अपने अर्थ का प्रतिपादन करने को वास्तव में असमर्थ हैं । वे केवल संकेत कर सकते हैं किसी विशेष दिशा की ओर । यह बता सकते हैं कि अमुक स्थान पर पड़ा है आपका अभीष्ट । यह भी बता सकते हैं, कि वह आपके लिये उपयोगी है कि अनुपयोगी । परंतु वह पदार्थ आपको किसी भी प्रकार दिखा नहीं सकते । हाँ, यदि शब्द के उन संकेतों को धारण करके, आप स्वयं चलकर, उस दिशा में जायें, और उस स्थान पर पहुंचकर स्वयं उसे उपयोगी समझकर चखें, उसका स्वाद लें, किसी भी प्रकार से, तो उस शब्द के रहस्यार्थ को पकड़ अवश्य सकते हैं ।
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१. कार्य की प्रायोजकता - अहो ! शांति के आदर्श वीतरागी गुरूओं की महिमा, जिसके कारण आज इस निकृष्ट काल में भी, जबकि चहुं ओर हाय पैसा हाय धन के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता, कहीं-कहीं इस कचरे में दबी यह धर्म की इच्छा दिखाई दे ही जाती है । आप सब धर्म प्रेमी बंधुओं में उसका साक्षात्कार हो रहा है । यह सब गुरूओं का ही प्रभाव है। सौभाग्य है हम सभी का कि हमें वह आज प्राप्त हो रहा है । लोक पर दृष्टि डालकर जब यह अनुमान लगाने जाते हैं कि ऐसे व्यक्ति जिनको कि गुरूओं का यह प्रसाद प्राप्त हुआ है कितने हैं, तो अपने इस सौभग्य के प्रति कितना बहुमान उत्पन्न होता है अपने अंदर ? सर्वलोक ही तो इस धर्म की भावना से या इसके सम्बंध में सुनने मात्र की भावना से शून्य है । आज के लोक को तो यह ‘धर्म’ शब्द भी कुछ कड़ुआसा लगता है । ऐसी अवस्था में हमारे अंदर धर्म के प्रति उल्लास ? सौभाग्य है यह हमारा । परंतु कुछ निराशा सी होती है यह देखकर, कि धर्म के प्रति की भावना का यह भग्नावशेष क्या काम आ रहा है मेरे ? पड़ा है अंदर में यों ही बेकार सा । कुछ दिन के पश्चात् विलीन हो जायेगा धीरे-धीरे और मैं भी जा मिलूंगा उन्हीं की श्रेणी में जिनको कि इस नाम से चिड़ है । बेकार वस्तु का पड़ा रहना कुछ अच्छा भी तो नहीं लगता । फिर उसके पड़े रहने से लाभ भी क्या है ? समय बरबाद करने के सिवाय निकलता ही क्या है उसमें से ? उस भावना के दबाव के कारण कुछ न चाहते हुए भी रूचि न होते हुए भी जाना पड़ता है मंदिर में, या पढ़ता हूँ शास्त्र या कभी कभी चला जाता हूँ किसी ज्ञानी के उपदेश में । मैं स्वयं नहीं जानता कि क्यों ? क्या मिलता है वहाँ ? कभी–कभी उपवास भी करता हूँ देखादेखी, पर क्षुधा की पीड़ा में रखा ही क्या है ? चलो फिर भी यह सोचकर कि लाभ न सही हानि भी तो कुछ नहीं है, अपनी एक मान्यता ही पूरी हो जायेगी, चला जाता हूँ मंदिर में । बाप दादा से चली आ रही मान्यता की रक्षा करना भी तो मेरा कर्तव्य है ही । भले मूर्ति के दर्शन से कुछ मिल न सकता हो, वह मेरी रक्षा न कर सकती हो मुझपर प्रसन्न होकर परंतु कुछ न कुछ पुण्य तो होगा ही । भले समझ न पाऊँ, क्या लिखा है शास्त्र में पर इसे पढ़ने का कुछ न कुछ फल तो मिलेगा ही आगे जाकर, अगले भव में मुझे । इन पण्डित जी ने या इन क्षुल्लक महाराज ने या इन ब्रह्मचारी जी ने क्या कहा है, भले कुछ न जान पाऊँ, पर कान में कुछ पड़ा ही तो है ? कुछ तो लाभ हुआ ही होगा उसका और इस प्रकार की अनेक धारणाएं धर्म के सम्बंध में होती हैं । निष्प्रयोजन उपर्युक्त क्रियायें करके संतुष्ट हो जाने वाले भो चेतन ! क्या कभी विचार किया है इस बात पर कि तू क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, और इसका परिणाम क्या निकलेगा ? लोक में कोई भी कार्य बिना प्रयोजन तू करने को तैयार नहीं होता, यहाँ क्यों हो रहा है ? अनेक जाति के व्यापार हैं लोक में अनेक जाति के उद्योग धन्धे हैं लोक में, परंतु क्या तू सब की और ध्यान देता है कभी ? उसी के प्रति तो ध्यान देता है कि जिससे तेरा प्रयोजन है ? अन्य धन्धों में भले अधिक लाभ हो पर वह तेरे किस काम का ? किसी भी कार्य को निष्प्रयोजन करने में अपने पुरूषार्थ को खोना मूर्खता है । आश्चर्य है कि इतना होते हुए भी उस भावना के इस भग्नावशेष को कहा जा रहा है तेरा सौभाग्य । ठीक है प्रभु ! वह फिर भी तेरा सौभाग्य है । क्योंकि उन व्यक्तियों को तो, जिन्हें कि इसका नाम सुनना भी नहीं रुचता इसके प्रयोजन व इसकी महिमा का भान होना ही असम्भव है; इसको अपनाकर लाभ उठाने का तो प्रश्न ही क्या ? परंतु इस तुच्छ मात्र निष्प्रयोजन भाव के कारण तुझे वह अवसर मिलने का तो अवकाश है ही कि जिसे पाकर तू समझ सकेगा इसके प्रयोजन को व इसकी महिमा को । और यदि कदाचित समझ गया तो, कृतकृत्य हो जायेगा तू , स्वयं प्रभु बन जायेगा तू । क्या यह कोई छोटी बात है ? महान है यह । क्योंकि तुझे अवसर प्राप्त हो जाते हैं कभी-कभी ज्ञानी जनों के संपर्क में आने के जो बराबर प्रयत्न करते रहते हैं तुझे यह समझाने का कि धर्म का प्रयोजन क्या है और इसकी महिमा कैसी अद्भुत है । यह अवसर उनको तो प्राप्त ही नहीं होता, समझेंगे क्या बेचारे ? अनेक बार आज तक तुझे ऐसे अवसर प्राप्त हो चुके हैं, पूर्व भवों में, और प्राप्त हो रहे हैं आज । बस यही तो तेरा सौभाग्य है इससे अधिक कुछ नहीं । ‘‘अनेक बार सुना है मैंने धर्म का स्वरूप व उसका प्रयोजन व उसकी महिमा । परंतु सुनकर भी क्या समझ पाया हूँ कुछ ? अत: यह सौभाग्य भी हुआ न हुआ बराबर ही हुआ’’, ऐसा न विचार । क्योंकि अब तक भले न समझ पाया हो, अब की बार अवश्य समझ जायेगा, ऐसा निश्चय है । विश्वास कर, आज वही सौभाग्य जाग्रत हो गया है जो पहले सुप्त था ।
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१. कार्य की प्रयोजकता; २. अध्ययन के विघ्न; ३. वक्ता की प्रमाणिकता; ४. विवेचन के दोष; ५. श्रोता के दोष; ६. महाविघ्न पक्षपात; ७. वैज्ञानिक बन; ८. पक्षपात निरसन । चिदानन्दैक रूपाय शिवाय परमात्मने । परमलोकप्रकाशाय नित्यं शुद्धात्मने नम: ।। ‘‘नित्य शुद्ध उस परमात्म तत्व को नमस्कार हो, जो परम लोक का प्रकाशक है, कल्याण स्वरूप है और एक मात्र चिदानन्द ही जिसका लक्षण है ।’’ स्वदोष-शान्त्या विहिताऽऽत्मशान्ति:, शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यं:, शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य: ।। जिन्होंने अपने दोषों को अर्थात् अज्ञान तथा काम क्रोधादि को शांत करके अपनी आत्मा में शांति स्थापित की है, और जो शरणागतों के लिये शांति के विधाता हैं वे शांतिनाथ भगवान् मेरे लिये शरणभूत हों ।
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१ दर्शन खण्ड सर्व-समभावी-धर्म, स्वानुभूति-रस-मर्म निर्द्वंद्व-मनो-विश्रांति चंदासम शीतल शान्ति
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शान्ति पथ प्रदर्शन मंगलाचरण कार्तिक के पूर्ण चन्द्रमा वत तीन लोक में शान्ति की शीतल ज्योति फैलाने वाले हे शान्ति चन्द्र वीतराग प्रभु ! जिस प्रकार प्रारम्भ में ही जग के इस अधम कीट को, भाई बन्धुओं की राग रूप कर्दम से बाहर निकाल कर आपने इस पर अनुग्रह किया है, उसी प्रकार आगे भी सदा उसकी सम्भाल करना । संस्कारों को ललकार कर उनके साथ अद्वितीय युद्ध ठानने वाले महा पराक्रमी बाहुबली ! जिस प्रकार कर्दम से बाहर निकाले गए इस कीट के सर्व दोषों को क्षमा कर इसका बाह्य मल आपने पूर्व में ही धोया था, उसी प्रकार आगे भी इस निर्बल को बल प्रदान करना । ताकि पुन: मल की ओर इसका गमन न हो । महान उपसर्ग विजयी है नागपति ! जिस प्रकार व्रतों की यह निधि प्रदान कर, इस अधम का आपने उस समय उद्धार किया था, उसी प्रकार आगे भी इसे उस महान निधान से वन्चित न रखना । हे विश्व मातेश्वरी सरस्वती ! कुसंगति में पड़ा मैं आज तक तेरी अवहेलना करता हुआ, अनाथ बना दर दर की ठोकरें खाता रहा। माता की गोद के सुख से वंचित रहा । अब मेरे सर्व अपराधों को क्षमा कर । मुझे अपनी गोद में छिपा कर भव के भय से मुक्त करदे । हे वैराग्य आदर्शगुरूवर ! मुझको अपनी शरण में स्वीकार किया है, तो अब अत्यन्त शुभ चन्द्र ज्योति प्रदान करके मेरे अज्ञान अन्धकार का विनाश कीजिये ।
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शान्तिपथ-प्रदर्शन का प्रथम संस्करण पढ़ने के पश्चात् पाठकों के सैकड़ों प्रशंसा पत्र मेरे पास आये उनमें से इस ग्रन्थ के विषय में कुछ महत्वपूर्ण सम्मतियां ही यहाँ पर प्रकाशित कर रहा हूँ । रूपचन्द्र गार्गीय जैन १. निर्विकल्प ध्यानके अभ्यासी, आदर्शत्यागी ९२ वर्षीय १०५ क्षु० विमल सागरजी शोलापुर-६.११.६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन नाम का ग्रन्थ मैंने देखा, आधुनिक ढंग पर सरल भाषा में लिखा हुआ ग्रन्थ बहुत अच्छा है । सामान्य जनता में इसका प्रचार होना संभव है । श्रीमान् ब्र० जिनेन्द्र कुमार के शान्ति पथका पुरूषार्थ लेख बहुत अच्छा है । ब्रह्मचारीजी सम्यक् ज्ञानी हैं, अच्छे लेखक हैं, और अच्छे व्याख्यान-पटु भी हैं । उनको मेरा आशीर्वाद । .......२८.१.६३ के पत्र में लिखते हैं- ‘‘बाल ब्रह्मचारी रहकर क्षुल्लक दीक्षा ली इससे बड़ा सन्तोष है । ख्याति पूजा आदिके प्यासे नहीं हैं । मैंने बहुतसे क्षुल्लक व्रतीदेखे मगर ऐसे नहीं देखे ।’’ २. १०५ क्षु० पद्मसागरजी दक्षिण प्रान्त - ब्र० जिनेन्द्रजीने ग्रन्थ अच्छे ढंगसे लिखा है, उन्होंने अपने उद्गार बहुत अच्छी तरह प्रकट किये हैं । सचमुच यह ग्रन्थ विश्वव्यापी होना चाहिये । जैसा ग्रन्थका नाम है वैसा ही उसका भाव है । मुझे तो स्वाध्याय करनेसे अति आह्लाद प्रगट हुआ है । ३. १०५ क्षु० चिदानन्दजी-६.१.६३ आपने शान्तिपथ-प्रदर्शन का प्रकाशन कराकर समाज का बहुत ही उपकार किया है । वर्तमान में उसका ही स्वाध्याय कर रहा हूँ । श्री १०५ क्षु० जिनेन्द्र कुमारजीने यह ग्रन्थ बहुत अनुभव-पूर्ण आधुनिक सरल भाषा में लिखा है । गृहस्थ धर्मका पूर्णरीतिसे दिग्दर्शन कराया है और समझाया है कि अपना कल्याण किस प्रकार हो सकता है । इस ग्रन्थको अधिकसे अधिक संख्यामें छपाकर इसका घर-घर में प्रचार होना चाहिये । ४. ब्र० श्री छोटेलालजी वर्णी अधिष्ठाता श्री शान्तिनिकेतन बावनगजाजी बड़वानी-१८. ८. ६१ सौभाग्यसे शान्तिपथ-प्रदर्शन देखनेको मिला । पुस्तककी लेखनशैली व भाषा बिल्कुल समयोपयोगी है । वर्तमान पाठकों और अध्ययनार्थियोंको तत्वावधान करनेमें बड़ी ही सरल है । नि:सन्देह श्री ब्र० जिनेन्द्रजीने इसे लिखकर बड़ी भारी कमीको पूरा किया है । ५. श्री ब्र० बाबूलाल अधिष्ठाता दि० जैन उदासीन आश्रम इन्दौर- मुझे शान्तिपथ-प्रदर्शनग्रन्थके स्वाध्यायका अवसर मिला । इतना रोचक लगा कि कई बार पढ़ा । जो रसास्वाद आया उसका वर्णन लेखनीसे नहीं कर सकता । इन्दौरमें जिन उच्च शिक्षा-प्राप्त लोगोंने इसे पढ़ा अथवा ब्र० जीके प्रवचन सुने वे आश्चर्य चकित हो गये और अन्तरंग से उद्गार निकले कि ‘मानव के लिये शान्ति-प्रदायक धर्मके स्वरूप व कर्तव्यका ऐसा सुगम वर्णन हमने आज तक पढ़ा न सुना ।’ प्राचीन ऋषियों द्वारा लिखित सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें श्रुतज्ञानका महत्वपूर्ण अटूट भण्डार भरा है, परन्तु उसकी भाषा व प्रतिपादन शैली इतनी सुगम व आकर्षक नहीं है जो आज का जनसाधारण उससे लाभ उठा सके । बातकी पूर्ति सही अर्थमें इस ग्रन्थ द्वारा हुई है, जिसकी भाषा व शैली अत्यन्त सुगम व सरल है । एक बार पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़नेको जी नहीं चाहता था जिसके पढ़ने मात्र से शान्ति की प्राप्ति होती है, तो उसे जीवन में उतारने से क्यों न होगी ? मैं लेखक का परम उपकार मानता हुआ कामना करता हूँ कि मानस-मानस के हृदय-मन्दिरमें शान्ति हेतु शान्तिपथ-प्रदर्शन बसे । ६. श्री गोकुलचन्द्र गंगवाल उदासीन आश्रम बूँदी-१४. ७. ६१ जिस सरल शान्तिके उपायकी खोजमें था वास्तवमें वह विवरण शान्तिपथ-ग्रन्थमें पाया । ७. डॉ० कामता प्रसाद जैन प्रमुख संचालक विश्व जैन मिशन, अलीगंज- ‘शान्तिपथ प्रदर्शन’ बाल ब्र० (अब क्षु० निर्ग्रन्थ) श्री जिनेन्द्र कुमारजीके प्रवचनोंका संग्रह है । कोई भी वस्तु ज्ञानमें यद्यपि एक है, परन्तु उसका विवेचन करने की शैलियां अनेक हैं । जेनागमकी भाषा में इसे नय कहा जाता है । क्षु० जी की अपनी निराली शैली है, अपनी बात अपनी शैलीमें विश्लेषणात्मक ढंग से कहते हैं, रोचक भी बनाते हैं जिससे कि वह सर्व साधारण जनताके गले उतर जावे । अत: उनके प्रवचन का मूल्यांकन उनकी कथन शैली और विचाराधीन नयके अनुकूल ही ठीक-ठीक किया जा सकता है । दार्शनिक क्षेत्र में विषमता तब ही उत्पन्न होती है जब कि विचारक दूसरेके मत अथवा कृतिको अपने दृष्टिकोण से देखता है और विपक्षी के मत और दृष्टिकोण को नजर-अन्दाज कर देता है । जैन विद्वानोंमें भी कुछ इसी प्रकारका पक्ष-मोह जड़ पकड़ता जा रहा है । वे सोचें कि इससे अनेकान्त धर्मकी सिद्धि किस प्रकार होगी ? संसार में सब कुछ अशुद्ध ही अशुद्ध है, न जीव शुद्ध है न पुद्गल । इसका अर्थ यह कि सब कुछ पर्यायाधीन है । परन्तु इसके कारण ही शुद्धरूप अथवा वस्तुस्वरूप—द्रव्यका यथार्थज्ञान सम्भव है । जैसे अन्धकारके होने पर ही प्रकाश का परिज्ञान होता है, वैसे ही अशुद्धि है तभी शुद्धिका बोध होता है, अज्ञान है तभी ज्ञान दीखता है । क्षु० जी की शैली में यह विशेषता है कि वे बाहर से अन्दर की ओर चले हैं, क्योंकि सारा संसार बहिर्दृष्टा है और बहिर्जगत में उलझा हुआ है । क्षु० जी बाहरी स्थितियों के खरेखोटेका मूल्यांकन करते हुये अन्तर की ओर बढ़ते हैं । इसीलिये उन्होंने सैद्धांतिक परिभाषाओंको नये रंग ढंगमें ला रक्खा है, जो बिल्कुल स्वाभाविक है । उनके प्रवचनोंमें ज्ञानका चमत्कार उत्तरोत्तर बढ़ता चले, इसीमें हम सबका कल्याण है । ८. वर्तमान में आर्य-गुरूकुल भैंसवाल (रोहतक) के प्रिंसिपल, वेदों और उपनिषदोंके मर्मज्ञ, प्रकाण्ड विद्वान् पं० विद्यानिधि शास्त्री, व्याकरणाचार्य साहित्याचार्य, साधू आश्रम होशियारपुर-२४. ४. ६१ मैं ब्र० जिनेन्द्र जी यतिवरका प्रोक्त अति गम्भीर परन्तु सरल भाषामें वर्णित जैनागम प्रतिपादित शान्तिपथ-प्रदर्शनका अध्ययन मनन करके कृतार्थ हो रहा हूँ । ग्रन्थ क्या है सचमुच एक अमूल्य चिन्तामणि है जिसकी प्राप्ति होनेपर सब कामनाओंके अभावरूप शान्तिपथका दर्शन होता है । प्रत्येक प्रकरण को सुगमतासे समझाते हुए अत्यन्त नम्र तथा अहंकार रहित अपनेको तुच्छातितुच्छ मानकर अत्युज्जवल निर्मल आत्मतत्वका दर्शन कराया है । आस्त्रव बन्ध का प्रकरण तो इतना हृदय-ग्राही है जिसे मैं बार बार पढ़ता नहीं थकता । शुभ क्रियाओंसे भी हमारा जीवन अपराधमय है यह एक अद्भुत आत्मशोधनका मंत्र बताया है । ये शब्द स्मरण करने योग्य हैं – ‘शुभ क्रियाओंको करनेके लिए कहा जाय तो वे सुख देनेवाली हैं ऐसा मानकर उनको ही हितरूप समझने लगता है, अभिप्रायको बदलनेके लिए कहा जाय तो उन क्रियाओंको ही छोड़नेके लिए तैयार हो जाता है । दोनों प्रकार मुश्किल है, किस प्रकार समझायें । ऐसे कहें तो भी नीचेकी ओर जाता है और वैसे कहें तो भी नीचेकी ओर ही जाता है । नीचेकी ओर जाने को नहीं कहा जा रहा है भगवन् ! ऊपर उठनेको कहा जा रहा है । कमाल कर दिया है । मैं तो लट्टू हो रहा हूँ, जब उनका जीवन भी वैसा देखता हूँ । हे प्रभु ! कृपा करो, जिनेन्द्र जी शतवर्ष-जीवी हों । (९) श्री हीराचन्द्र वोहरा B. A. LL. B कलकत्ता-२८. ६. ६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन पुस्तक पढ़कर हृदय अत्यधिक प्रभावित हुआ । बहुत सुन्दर ढंगसे लिखी गयी है । ऐसा लगता है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक (पं० टोडरमलजी रचित) के बाद इस प्रकार की यह रचना अपने ढंगकी अद्वीतीय है । ऐसी सुन्दरतम पुस्तकका बड़ा व्यापक प्रभाव हो सकता है । प्रत्येक धर्म तथा सम्प्रदायके व्यक्तिके लिए पठनीयसामग्रीका संकलन श्री पूज्य ब्र० जी की अपूर्व देन है । वे चिरंजीवी हों । इस पुस्तककी सराहनाके पत्र मेरे पास अजमेरक कई मित्रोंसे आये हैं । (१०) डॉ० कस्तूरचन्द्र जैन एम. ए रिसर्च स्कॉलर जयपुर-४. ४. ६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन पुस्तक मिली, हार्दिक धन्यवाद । पुस्तक बहुत सुन्दर है एवं आध्यात्मिक रससे ओतप्रोत है । ब्र० जी ने अपने हृदयके उद्गारोंको पाठकोंके समक्ष उपस्थित किया है, जिनसे आत्मिक शान्तिका अनुभव होता है । सरल एवं सरस भाषासे पुस्तक की उपयोगितामें और भी वृद्धि हुई है । पानीपतकी मिशन शाखाने इसे प्रकाशित करके प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय कार्य किया है । (११) श्रीमान दानवीर जैन रत्न सेठ हीरालाल जैन इन्दौर – मैंने श्री शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थका आद्योपान्त अध्ययन किया है । यह ग्रन्थ वास्तवमें यथा-नाम तथा-गुण है । भाषा सरल मधुर एवं आकर्षक है । अशान्तसे अशान्त मानव भी कहींसे कोई भी प्रकरण पढ़ना प्रारम्भ करते ही शान्तिका अनुभव करने लगता है । गहनसे गहन बातको सरलतासे कहा गया है । वर्तमानके शिक्षित ग्रेजुएटोंको स्वाध्यायकी रूचि इससे होती है । जैनेतर समाजके लिए भी इसमें अध्ययन एवं मननके लिए उत्कृष्ट सामग्री है । यह ग्रन्थ साम्प्रदायिकतासे परे मात्र धर्मको ही सम्यक् रूपसे निरूपण करनेवाला है, जो कि आज के समयकी परमावश्यकता है । लेखककी विशाल दृष्टि, गहन अध्ययन एवं अनुभव का इसमें पूरा-पूरा आभास मिलता है । सांसारिक दु:खोंसे त्रस्त मानवको यह ग्रन्थ श्रेष्ठ पथप्रदर्शक एवं परम शान्तिका दाता है । वास्तवमें संतोंकी वाणी स्व-परोपकारी होती ही है जो कि मानवको शान्तिकी ओर आकृष्ट कर लेती है । इसीलिए शान्ति पानेके इच्छुक सज्जन इस ग्रन्थका मनन कर लाभ प्राप्त करते रहें, यही कामना है । (१२) श्रीमान टीकमचन्द जैन मालिक फर्म श्री घीसालाल जतनलाल बैंकर्स नसीरावाद-२१. २. ६३ भौतिक बाह्याडंबरोंकी चकाचौंध और इस युग-विशेषकी अर्थोपार्जनकी विभीषिकाने जब इस नश्वर संसारके मानव प्राणीकी स्व परकी आध्यात्मिक चिन्तन शक्तिपर वज्रपात कर चैतन्यस्वरूप ज्ञाता दृष्टा, चिदानन्द चिद्स्वरूप आनन्दघन आत्माको अज्ञान आवरणसे आच्छादित कर दिया, तब ऐसे दुर्दम समयमें शान्तिपथ के पथिक बननेमें निराशा झलकती थी । परन्तु आशाकी अलौकिक एवं विमल किरण उदित हुई कि हम सब मुमुक्षुओंको सौभाग्यसे यह ग्रन्थराज जीवनके उपहार स्वरूप उपलब्ध हुआ । यह कहनेमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि ‘शान्तिपथ-प्रदर्शन’ ग्रन्थराज संजीवनीने हम अल्पज्ञोंको पुनर्जीवित ही नहीं किया है वरन् अमृतपान कराया है । इसके लिए हम सब शान्ति के उपासक, वन्दनीय पूज्य श्री १०५ क्षु० जिनेन्द्र कुमार वर्णीजीके अत्यधिक आभारी हैं कि जिनकी कुशाग्र एवं विमल बुद्धि के फल-स्वरूप, तात्विक विवेचना इतनी वैज्ञानिक सरल भाषामें अनुपम उदाहरणोंके साथ हो सकी है कि पाठकोंके लिए हृदयस्पर्शी होकर नित्य स्वाध्यायकी वस्तु हो गई है । इसी कारण यह मूलमें भूलकी वास्तविकताको बतलानेवाला यथावत् ग्रन्थ किसी एक ही समुदाय विशेषका न रहकर जाति-पाँति और वर्ण-भेदकी संकीर्णता- को छोड़कर इस युग-विशेषका जन-मानस ग्रन्थ बन गया है जो इस जैन-समाजका गौरव है । अन्तमें यह अनुमोदन करता हुआ कि – ‘‘परम शान्ति दीजे हम सबको पढ़ें जिन्हें पुनि चार संघ को’’ १३. उगमरजा मोहनोत, मुंसिफ मैजिसट्रेट, प्रथम श्रेणी नसीराबाद (राज०) – शान्तिपथ-प्रदर्शन पढ़कर मेरी आत्माको अत्यन्त शान्ति प्राप्त हुई । इसमें कही हुई बातें आत्माकी गहराईसे निकली हुई अनुभवकी बातें हैं । जो भाव व्यक्त किया अव्यक्त रूपसे मेरे अन्तरंगमें जोश मार रहे थे, लेकिन शास्त्र-ज्ञानसे अपरिचित होनेके कारण जिन्हें प्रगट करनेका साहस नहीं होता था, उन्हें डंकेकी चोट इस पुस्तकमें देखकर आत्माको बहुत सन्तोष हुआ । इसके लिए मैं लेखकका बहुत आभार मानता हूँ । इसके पढ़नेके बाद समयसार, प्रवचनसार, नियमसार इत्यादि अमूल्य ग्रन्थरत्न आसानीसे समझमें आ जाते हैं । मुमुक्षु बन्धुओेंके के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपकारी सिद्ध होगा, इसमें मुझे सन्देह नहीं मालूम पड़ता । १४. पं० ज्ञानचन्द्र जैन ‘स्वतन्त्र’ सम्पादक और व्यवस्थापक ‘जैनिमत्र’ सूरज-३१.७.६१ ‘शान्तिपथ-प्रदर्शन’ ग्रन्थ ऐसे मर्मज्ञ विद्वान और अखण्ड ब्रह्मचारी महानुभाव द्वारा लिखा गया है जो सचमुचमें शान्ति-पथपर चल रहा है । फिर इस ग्रन्थ द्वारा मानव समाजको शान्तिका मार्ग न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता और न माना जा सकता है । ग्रन्थकी यही विशेषता महानता और लोकप्रियता है कि न कुछ चन्द महीनोंमें ही ग्रन्थ हाथोंहाथ उठ गया है । अब इसके दूसरे संस्करणकी प्रतीक्षा की जा रही है । मैं इस ग्रन्थका एकबार अक्षरश: स्वाध्याय कर चुका हूँ, फिर भी यही बलवती भावना हो रही है कि पुन: एकबार पढूं । जिस साहित्यके पढ़नेमें मन भीगा रहे और दोबारा पढ़नेकी इच्छा हो और नवीनता मिले वही सत्साहित्य है । इससे अच्छी परिभषा सत्साहित्यकी और कोई नहीं हो सकती । ग्रन्थके रचयिता महानु-भावको अत्यन्त शान्ति सुखकी प्राप्ति हो । १५. पं० उग्रसेन M. A. LL. B. रोहतक-३१.१२.६२ पूज्य बाल ब्र० १०५ क्षु० जिनेन्द्र कुमारजी द्वारा रचित शान्ति पथ-प्रदर्शन ग्रन्थको पढ़ा । उनका यह कार्य अत्यन्त प्रशंसनीय है । इस ग्रन्थमें जैन धर्मका दिग्दर्शन विद्वान् लेखक ने बड़ी ही सरल तथा आकर्षक भाषामें वैज्ञानिक ढंगसे कराया है । जैन धर्मका परिचय प्राप्त करनेके इच्छुक जैन तथा अजैन सभी बन्धु इसको पढ़कर लाभ उठायेंगे । ग्रन्थ बड़ा उपयोगी है, जैन नवयुवकोंमें इस ग्रन्थका प्रचार खूब होना चाहिए ताकि वे इसे पढ़कर अपने धर्मके सम्बन्धमें कुछ बोध प्राप्त कर सकें । परिषद् परीक्षा बोर्डकी उच्च कक्षाओंके धर्म शिक्षा कोर्समें यदि इसे रख लें तो अच्छा होगा । १६. जैन समाज के प्रसिद्ध कवि धन्यकुमार जैन ‘सुधेश’ – २७-३.६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थकी उपयोगिता एवं महत्तासे मैं प्रभावित हुआ हूँ । श्री जिनेन्द्रजी स्वयं शान्तिपक्षके सफल-पथिक हैं । अत: उनकी इस रचनामें सर्वत्र अनुभूतिके दर्शन होते हैं । उनके द्वारा प्रदर्शित शान्ति-पथपर चलकर संसार शान्ति प्राप्त कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं । उनका यह ग्रन्थ वास्तवमें शान्ति-पथके पथिकोंके लिए ज्योति-स्तम्भका कार्य करेगा । अत: श्री ब्र० जिनेन्द्रजीका यह प्रशस्त प्रयास प्रत्येक मानव द्वारा अभिनन्दनीय है । १७. श्री आदीश्वर प्रसाद जैन एम. ए., सेक्रेटरी जैन मित्र मण्डल, देहली- शान्ति पथ-प्रदर्शन ग्रन्थको सभी रूचि पूर्वक पढ़ रहे हैं । हमें यह बहुत ही उपयोगी व शिक्षाप्रद प्रतीत हुआ है । अन्य ग्रन्थोंके पढ़नेमें कभी इतनी रूचि और आनन्द नहीं आया । लेखन शैली बहुत ही आधुनिक है । १८. श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय डाल्मियानगर- ब्र० जिनेन्द्रजीने अध्यात्म सागरमें बहुत गहरी डुबकी लगाकर मूल्यवान् रत्न निकाले हैं । १९. श्री मनोहर लाल जैन M. A. श्री महावीरजी-१७-७-६१ ‘शान्तिपथ-प्रदर्शन’ जैसे वैज्ञानिक एवं आधुनिक शैलीवाले ग्रन्थके प्रकाशनकेलिए हार्दिक बधाई। प्राचीन शैलीवाले ग्रनथोंके पढ़नेमें अभिरूचि न रखनेवाले युवकोंके लिए इस प्रकारकी शैली जहाँ आकर्षणका कार्य करती है वहाँ धार्मिकताके अंकुर उत्पन्न करनेमें भी सहायक बनती है । २०. श्रीनिहाललचन्द पाण्डया, सेल्स टैक्स इन्सपेक्टर टौंक – शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ बहुत ही रहस्यमय प्रतीत हुआ । यहाँकी जैन समाज उसे बहुत ही रूचि पूर्वक पढ़ रही है । (२१) कु० विद्युल्लता शाह बी० ए० बी० टी० प्रमुख दि० जैन श्राविकाश्रम विद्यालय शोलापुर -१२. २. ६२ शान्तिपथ-प्रदर्शन पुस्तक बहुत पसन्द आयी । आश्रमकी बाइयां इसे बहुत रूचि पूर्वक पढ़ रही हैं । मैं इसका मराठीमें अनुवाद करना चाहती हूँ । इस विषयमें ब्र० जिनेन्द्रजी की अनुमति तथा आशीर्वाद भेजनेकी कृपा करें । (२२) श्री पूरनचन्द जैन, मु० गढ़ाकोटा (सागर) -२. ४. ६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ यथा- नाम तथा-गुणको चरितार्थ करता है । जिस मनोवैज्ञानिक ढंगसे सरल रोचक शैलीमें ग्रन्थकारने विषयोंको रखा है वह अतीव आकर्षक व प्रभावोत्पादक है । कोई भी प्रवचन शुरू करनेपर छोड़नेको जी नहीं चाहता । पूरे ग्रन्थमें किसी भी आचार्यके मूल शब्दोंको न रखकर किसी विषयका अपनी शैलीसे विवेचन करना अतीव परिश्रम व अनुभव का कार्य है व मौलिक सूझ-बूझ है । भोजन-शुद्धिकी सार्थकता का प्रतिपादन रूढ़िके ढंगपर न करके वैज्ञानिक ढंगसे किया है जो प्रभावशाली है । श्री वीरप्रभुसे हार्दिक अभिलाषा है कि इस ग्रन्थका प्रचार हो और लेखकको इस शैलीके नये-नये ग्रन्थ रचनेका उत्साह द्विगुणित हो । (२३) दि० जैन स्वाध्याय मण्डल दमोह- सौभाग्यसे शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थका स्वाध्याय कर शान्ति-प्रेमियोंने जो शान्तिका अनुभव किया है वह अवर्णनीय है, अतएव आप जयवन्त व प्रकाशवन्त रहें । गुलाबचन्द, गुलजारीलाल, भँवरलाल आदि- (२४) श्री प्रकाश ‘हितैषी’ शास्त्री सम्पादक सन्मति सन्देश- मैंने शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ आद्योपान्त पढ़ा । इसमें आत्म-कल्याणमें प्रवृति करानेके लिए अनुभवपूर्ण एवं शास्त्र-सम्मत विचारधारा देखनेको मिली । श्री पूज्य क्षु० जिनेन्द्रजी वर्णीने बड़े सरल एवं वैज्ञानिक ढंगसे आर्ष सिद्धान्तोंको अनुभवपूर्ण भाषामें प्रतिपादन कर समाज का महान् उपकार किया है । २५. स्वामी गीतानन्द जी, गीता भवन पानीपत- मैं श्री ब्र० जिनेन्द्रजी रचित शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थका अध्ययन करके यह प्रमाणित करता हूँ कि वास्वतमें यह ग्रन्थ अपने नामके अनुसार ही पाठकोंको शान्तिपथ-प्रदर्शन करने में यथायोग्य सम्पूर्णतया समर्थ है । यद्यपि इस ग्रन्थका अध्ययन मैंने अभी संक्षेपमें ही किया है किन्तु अल्पकालके थोड़ेसे अध्ययन मात्रसे ही मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि लेखकने किसी मत-मतान्तर का पक्ष न लेते हुये वैज्ञानिक ढंग से सरल हिन्दी भाषा में जो अपने अनुभवपूर्ण भाव प्रकट किये है वे नि:संदेह प्रशंसनीय हैं । अत: मैं शान्तिकी इच्छुक श्रद्धालु जनताको प्रेरणा करता हूँ कि एक बार इस ग्रन्थका अध्ययन अवश्यमेव करें । २६. श्री जय भगवान् जैन ऐडवोकेट- शान्तिपथ-प्रदर्शनमें संकलित प्रवचनोंके प्रवक्ताका जहाँ यह अभिप्राय व्यक्त है कि वे लोक कल्याणार्थ सभीको शान्तिपथ-प्रदर्शन करा सकें उनका यह भी अभिप्राय रहा है कि तदर्थ प्रयुक्त होने वाली भाषा ऐसी सरल व सुबोध हो कि वह शिक्षित तथा अशिक्षित सभीके समझमें आ सके । कोई जमाना था कि तत्वज्ञों की अनुभूत व अनुसन्धानित तथ्योंको समझनेके लिए उनके द्वारा आविष्कृत गूढ़ विशिष्ट परिभाषाओंको जान लेना आवश्यक हेाता था, जिसका परिणाम यह हुआ कि तात्विक विद्यायें कुछ इने-गिने विद्वानोंकी ही सम्पत्ति बन-कर रह गईं और जन-साधारण उनके रसास्वादनसे वंचित रह गया, जो कभी भी तत्वज्ञोंकोअभिप्रेत न था । भाषा अन्तत: भाव-अभिव्यंजनका एक माध्यम मात्र है, इसीसे उसका महत्व व उपयोगिता बनी है, जैसा कि समयसार गाथा में भगवन् कुन्दकुन्द ने कहा है- ‘न शक्योअनार्ध्योअनारर्य्य भाषां बिना तू ग्राहयितुम्’ । अनार्य जन आर्यभाषाको नहीं समझते अत: प्रवक्ताका कर्तव्य है कि जिस देश और युगकी जनताको सन्देश देना अभीष्ट हो उन्हींकी भाषा और मुहावरोंको अपनावे । इन प्रवचनोंके प्रवक्ताने इस दिशामें जो कदम उठाया है वह अत्यन्त सराहनीय और अभिनन्दनीय है । इस ग्रन्थके प्रकाशनके आरम्भसे ही जो लोकप्रियता मिली है उसके लिए नि:संदेह इसके प्रवक्ता महान् श्रेयके पात्र हैं ।
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स्वदोष-शान्त्या विहिताऽऽत्मशान्ति:, शान्तेर्विधाताशरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै, शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य: ।। जिन्होंने अपने दोषोंकी अर्थात् अज्ञान तथा रागद्वेषकाम क्रोधादि विकारोंकी शान्ति करके (पूर्ण निवृत्ति करके) आत्मामें शान्ति स्थापित की है (पूर्ण सुख स्वरूप स्वाभाविक स्थिति प्राप्त की है) और जो शरणागतोंके लिए शान्तिके विधाता हैं, वे शान्ति-जिन मेरे शरणभूत हों । सर्व साधारण मनुष्य-समाजके हितार्थ शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थका प्रकाशन करते हुए मुझे बड़ा हर्ष व उल्लास हो रहा है, क्योंकि यह मेरी उन भावनाओंका फल है जो मेरे हृदयमें उस समय उठी थीं, जब कि मैंने यह सुना कि ब्र० जिनेन्द्र कुमारजीके अपूर्व प्रवचनोंके द्वारा मुजफ्फरनगरकी मुमुक्षु समाजमें अध्यात्म पिपासा जागृत हुई है और उसके प्रति एक अद्वीतीय बहुमान भी । तब मैंने सोचा कि ये प्रवचन तो बहुत थोड़े व्यक्तियों- को सुननेको मिल सकेंगे और हमारे देशका एक बहुत बड़ा भाग इनके सुननेसे वन्चित रह जायेगा । मैंने उनसे प्रार्थना की कि वह प्रवचन लिपिबद्ध कर दें । मेरी तथा मुजफ्फरनगर समाजकी प्रार्थनापर उन्होंने वे सब प्रवचन संकलित कर दिये । फलस्वरूप इस बड़े ग्रंथ शान्तिपथ-प्रदर्शनकी रचना हो गई, जिसमें जैन दर्शनका सार अत्यन्त सरल व वैज्ञानिक भाषामें जगत के सामने प्रगट हुआ । यह ग्रन्थ धार्मिक साम्प्रदायिकता के विषसे निर्लिप्त है जिसके कारण सभी विचारों, सभी जातियों व सभी देशों के लोग इससे लाभ उठा सकते हैं । अन्य स्थानों पर भी यही प्रवचन चले जिनसे वहाँ की समाज बड़ी प्रभावित हुई और उदार हृदय से इसके प्रकाशनार्थ योगदान दिया । मैं इस सहयोगके लिए उन सब का हृदय से आभारी हूँ । ब्र.जिनेन्द्र कुमार जी ने विश्व जैन मिशन के धर्म-प्रचार कार्य की प्रगति, तथा असाम्प्रदायिक मानव प्रेम को देखकर इस ग्रन्थ के प्रकाशन का श्रेय इस संस्था को देने का विचार प्रकट किया, और विश्व जैन मिशन के प्रधान संचालक डॉ.कामता प्रसाद जी की स्वीकृति से पानीपत केंद्र द्वारा इसके प्रकाशन की आयोजना की गई । ब्र० जिनेन्द्र कुमारजी, जैन वैदिक बौद्ध व अन्य जैनेतर साहित्य के सुप्रसिद्ध पारंगत विद्वान् पानीपत निवासी श्रीजय भगवान् जी जैन एडवोकेट के सुपुत्र हैं । यही सम्पत्ति पैतृक धनके रूपमें हमारे युवक विद्वान् को भी मिली । अध्यात्म क्षेत्रमें आपका प्रवेश बिना किसी बाहरको प्रेरणाके स्वभाव से ही हो गया । बालपने से ही अपने हृदय में शान्ति प्राप्ति की एक टीस छिपाये वे कुछ विरक्त से रहते थे । फलस्वरूप वैवाहिक बन्धनों से मुक्त रहे । अलैक्ट्रिक व रेडियो विज्ञान का गहन अध्ययन करने के पश्चात् आपने अपनी प्रतिभा-बुद्धिका प्रयोग, व्यापार क्षेत्रमेंइण्डियन ट्रेडर्स फर्मकी स्थापना करके दस साल तक किया और खूब प्रगतिकी । परन्तु धन व व्यापार के प्रति इनको कभी आकर्षण न हुआ । अपने दोनों छोटे भाइयोंको समर्थ बना देने मात्रके लिए आप अपना एक कर्तव्य पूरा कर रहे थे । इसीलिए कलकत्तामें ठेकेदारीका काम सम्भालनेमें ज्यों ही वे समर्थ हो गये, आप व्यापार छोड़कर वापस पानीपत आ गये और सच्चे हृदयसे शान्तिकी खोजमें व्यस्त हो गये । शीघ्र ही आप इस रहस्यका कुछ-कुछ स्पर्श करने लगे । यह साधना इन्होंने केवल आठ वर्षमें कर ली । सन् १९५० में इन्होंने स्वतन्त्र स्वाध्याय प्रारम्भ किया, सन् १९५४ व ५५ में सोनगढ़ रहकर इन्होंने उस स्वाध्यायके सारको खूब मांजा । अध्यात्म ज्ञानके साथ–साथ अन्तर-अनुभव व वैराग्य भी बराबर बढ़ता गया, यहाँ तक कि सन् १९५७ में आप व्रत धारण करके गृह-त्यागी हो गये । सन् १९५८ में आप ईसरी गये और पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी के सम्पर्कमें रहकर अपने सैद्धान्तिक ज्ञान को बढ़ाया और विशेष अनुभव प्राप्त किया । आपका हृदय अन्तर शान्ति व प्रेमसे ओतप्रोत साम्य व माधुर्य का आवास है । सन् १९५९ में प्रथम बार मुजफ्फरनगर की मुमुक्षु समाज के समक्ष इनको अपने अनुभवका परिचय देनेका अवसर प्राप्त हुआ । तबसे इनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि अनेक स्थानोंसे निमन्त्रण आने लगे और उनको पूरा करना इनके लिये असम्भव हो गया । ज्ञान व अन्तर-शान्तिके अतिरिक्त शारीरिक स्वास्थ्य अत्यन्त प्रतिकूल होते हुए भी इनकी बाह्य चारित्र सम्बन्धी साधना अति प्रबल है, जिसकी साक्षी कि इनका समय-समय पर किया हुआ परिग्रह-परिमाण व जिह्वा इन्द्रिय सम्बन्धी नियन्त्रण देता रहा है । पौष व माघकी सर्दियोंमें भी आप दो घोतियों व एक पतली सी सूती चादर में सन्तुष्ट रहे हैं । अब तो आपने वैराग्य बढ़ जानेके कारण विकल्पोंसे तथा परिग्रह से मुक्ति पानेके लिए भादों शु० तीज सं० २०१९ (सन् १९६२) को ईसरीमें क्षुल्लक दीक्षा भी ले ली है । आप इस वैज्ञानिक युगमें रूढ़ि व साम्प्रदायिक बन्धनोंसे परे एक शान्ति-प्रिय पथिकहैं । आपकी भाषा बिल्कुल बालकों सरोखी सरल मधुर है । आठ वर्षोंके उनके गहन स्वाध्यायके फलस्वरूप ‘जैनेन्द्र कोष’ जैसी महान कृतिका निर्माण हुआ है जो जैन वांग्मय में अपनी तरहकी अपूर्व कृति है । इसकी आठ मोटी-मोटी जिल्दें हैं । इसके अतिरिक्त भी इनके हृदयसे अनेकों ग्रन्थ स्वत: निकलते चले आ रहे हैं, जो उचित व्यवस्था होनेपर प्रकाशमें आयेंगे । यद्यपि इस ग्रन्थ में संकलित विषयों को परम्परागत शान्ति-पथ अर्थात् मोक्ष मार्गके उद्योतक व साधक भगवन् कुन्दकुन्द, श्री उमास्वामी, श्री पूज्यपाद स्वामी, श्री शुभचन्द्र आदि महान् आचार्यों द्वारा रचित आगमसे प्रेरणा लेकर लिखा गया है तो भी श्री ब्र० जिनेन्द्र कुमारजीने अपने अध्यात्म बल व सम्यक् आचार-विचारकी दृढ़ता से प्राप्त अनुभवके आधार पर ही आधुनिकतम वैज्ञानिक ढंगसे अत्यन्त सरल भाषामें इसका सम्पादन किया है । प्रस्तुत ग्रन्थ केवल सिद्धान्तपर आधारित शास्त्र नहीं है, किन्तु सिद्धान्तपर आधारित शान्ति-पथ-प्रदर्शक है । पथपर चलकर ही ध्येय की पूर्ति होती है । जब पथपर चलता है तब अन्तरंग में ध्येयका साक्षात् रहना आवश्यक है और जब अन्तरंगमें ध्येयका साक्षात् है तो पथपर चलना सहल हो जाता है। इन दिनों अध्यात्म व आचार विषयक साहित्यका बहुत बड़ा निर्माण हुआ है तथा शिक्षण-संस्थायें व आध्यात्मिक सन्त भी इस दिशामें बहुत योग दे रहे हैं, परन्तु विषयकी जटिलताव अलौकिकता और तत्सम्बन्धी जैन परिभाषाओंके लोक-व्यवहरित न रहनेके कारण भौतिक आवेशोंसे रंग । हुआ आज का युवक अध्यात्म परम्परा से च्युत होता चला जा रहा है । इन कठिनाइयों को दूर करने में यह ग्रन्थ अवश्वमेव महत्वशाली सिद्ध होगा तथा विश्व को सुख व शान्ति का मार्ग दिखाने में सहायक होगा । यद्यपि अध्यात्म–विद्यास्वानुभूति से ही प्राप्त होती है तो भी अनुभव-प्राप्त पुरूषों के मार्ग-प्रदर्शन से यह साध्य अधिक सहल हो जाता है । पिछले जमाने में अध्यात्म्-विद्या, परीक्षोत्तीर्ण अधिकारियों को छोड़कर, सर्व साधारण से गोपनीय रहती चली आयी हैं परन्तु कागज का निर्माण हुआ है और प्रकाशन-कला का विकास बढ़ा है, इस विद्याका साहित्य दिनोंदिन लोक-सम्पर्क में बढ़ता जा रहा है, और इस विज्ञान की चर्चा वार्ता बहुत होने लगी है । यह ज्ञान-प्रधान युग है परन्तु आचरण में दिन-दिन शिथिलता आती जा रही है। इसी बातको ध्यानमें रखते हुए इस ग्रन्थमें ज्ञानके अनुकूल आचरण धारण करने की ओर अधिक ध्यान आकर्षित किया गया है । आप्तमीमांसा में कहा है – ‘‘अज्ञानान्मोहतो बन्धो नाज्ञानाद्वीतमोहत: । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्यात् मोहान्मोहितोअन्यथा ।।९८।।’’ मोहीका अज्ञान बन्धका कारण है, परन्तु निर्मोहीका अज्ञान (अल्प ज्ञान) बन्धका कारण नहीं है । अल्प ज्ञान होते हुए भी मुक्ति हो जाती है परन्तु मोहीको मुक्ति प्राप्त नहीं होती । ‘‘जम्मणमरणजलौघं दुहयरकिलेससोगवीचीयं । इय संसार-समुद्दं तरंति चदुरंगणावाए ।’’ अर्थ- यह संसार समुद्र जन्म-मरणरूप जलप्रवाह वाला, दु:ख क्लेश और शोक रूप तरंगोंवाला है । इसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यक् तप रूप चतुरंग नावसे मुमुक्षुजन पार करते हैं । ‘‘छीजे सदा तनको जतन यह, एक संयम पालिये । बहु रूल्यो नरक निगोद माहीं, विषय कषायनि टालिये । शुभ करम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है ।। ‘द्यानत’ धरमकी नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ।। फाल्गुन शु० ८ वी० नि० सं. २४८९ -रूपचन्द्र गार्गीय जैन, पानीपत
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ओ३म् एक सम्मति (डॉ० दयानन्द भार्गव एम० ए० संस्कृत विभागाध्यक्ष रामजस कॉलेज दिल्ली) मिट्टी की बहुत महिमा है | प्रत्यक्षतः मिट्टी से ही हमारा जन्म होता है, मिट्टीमें हमारी स्थिति है तथा मिट्टीमें ही हम अन्तत: विलीन हो जाते हैं । ऐसा आभासहोता है मानों मिट्टी ही हम सबकी परम प्रतिष्ठा है । परन्तु परमार्थत: मिट्टी स्वाश्रित नहीं, जलाश्रित है । न जल ही स्वाश्रित है, जल अग्निपर, अग्नि वायुपर तथा वायु आकाशपर प्रतिष्ठित हैं । तो क्या आकाश ही परम प्रतिष्ठा है ? क्या सब प्राणी अन्तत: आकाशमें विलय हो जाते हैं ? आभासत: ऐसा ही प्रतीत होता है, परन्तु परमार्थत: आकाश स्वप्रतिष्ठ नहीं है, वह भी ज्ञानालोकपर प्रतिष्ठित है । इस ज्ञानोलोकसे ही लोकालोक आलोकित हैं । इस ज्ञानालोकको ही हम सब ‘मै’ की संज्ञा देते हैं । यह ‘मैं’ अथवा आत्मतत्व स्वयं प्रकाश है, स्वप्रतिष्ठ है । मेरे मानसमें अहर्निश प्रवर्तमान संकल्प-विकल्प सब इसी आत्म–प्रकाश के रूपान्तर हैं । संसार के समस्त जड़-चेतन पदार्थान्तर सब इसी आत्माके निमित्त ही तो मुझे प्रिय हैं । कितना शान्त एवं सौम्य है मेरा यह चिद्रूप ? तनिक अपने मानस में झाँककर देखूँ । अहो ! कैसा अनोखा संसार बस रहा है मेरे अन्तरमें ? मेरे मानस के माँसल कूल (सुदृढ़ किनारे) को विचारों की लहर पर लहर चाटे जा रही है । यह राग, यह द्वेष, यह क्रोध, यह करूणा, यह शत्रुता, यह मैत्री, यह उत्साह । अद्भुत भावों के सतरंगी इन्द्रधनुष मेरे मानसाम्बर में निकले रहते हैं । विचार-वीचि पर विचार-वीचि चली आ रही हैं । क्या एक क्षणके लिए इनकी गतिको अवरूद्ध नहीं किया जा सकता ? क्या मैं इन विचा-वीचियों का प्रवर्तक ही हूँ, नियन्ता नहीं हूँ ? अहो ! मानवकी असहायता !! इष्टानिष्ट, हिताहित एवं प्रियाप्रिय, जैसे-कैसे भी विचार उसे जिस ओर भी धकेलते हैं वह बेबस उसी ओर चाहे-अनचाहे चल देता है । विचार-वीचि आती है और लौट जाती है, परन्तु वह खाली आती है और न खाली लौटती है । वह अपने साथ कुछ नवीन रजकण लेकर आती है और कुछ पुराने रजकण बहा ले जाती है । व्यष्टि रूप में रजकण बदलते रहते हैं, परन्तु समष्टि रूपमें रजकणों की वह परत सदा बनी रहती है । क्या इन रजकणों की मोटी तह के नीचे दबा हुआ आपके मानस का कोमल धरातल कभी इनके भार से छटपटाया है ? ये रजकण नवीन विचार-वीचियोंके लिए चुम्बकका काम करते हैं । इन रजकणोंको चिर-पिपासाको मानो विचार-वीचियां ही शान्त कर सकती हैं । तथा वे विचार-वीचियां इनके निमन्त्रणपर आपके सब निमन्त्रणोंको विफल बनाकर उछलती-कूदती नित्य नूतन रजकणों सहित आपके मानसमें उतर जाती हैं । जिन रजकणोंको ये वीचियां मानसके धरातलपर छोड़ जाती हैं वे रजकण पुन: नूतन वीचियोंको बुला लेते हैं । और यह क्रम सदा चलता रहता है । मेरे अन्तर्मनका यह इतिहास कितना रोचक है ? परन्तु इस इतिहासके उर में छिपी हुई एक कसक है, एक टीस है । विचार-वीचियों के निरन्तर नर्तन ने मेरे मन में एक दु:खद ममता, एक रागात्मक भावना उत्पन्न कर दी है । वह ममता धन, पुत्र, कीर्ति और न जाने अन्य किन-किन पदार्थों में व्याप्त हो गई है । सांस उखड़ा हुआ है, होश गुम है, किन्तु फिर भी यह ममता-माया मुझे बेबस दौड़ा रही है । लक्ष्य अज्ञात है, केवल गतानुगतिक-न्याय से दौड़ रहा हूँ । इस दौड़ में जो रूके वह पागल है, जो आपसे रूकने को कहे वह मूर्ख है, जो दौड़ से पृथक् होकर एक किनारे पर खड़ा होकर शान्त-भाव से दौड़ को केवल देख रहा है वह निठल्ला है । इनकी ओर ध्यान दिए बिना केवल दौड़ते रहो । स्वेद आये तो पौंछ लो, अश्रु आयें तो रोक लो, ठोकर लगे, रक्त बहे तो पट्टीं बांध लो, परन्तु बिना यह पूछे कि जाना कहाँ है बस केवल दोड़ते रहो । इस दौड़को देखकर हंसना भी आता है और रोना भी । यों तो इस दौड़ में बहुत रस है, आकर्षण है । किन्तु क्या आपके जीवनमें ऐसे क्षण भी आये हैं जब यह आभास हुआ हो कि यह दौड़ निरर्थक है, निरी मूर्खता है, कोरी मृगतृष्णा है । इस दौड़में ठोकर खानेपर या किसी अन्य दौड़ने वालेसे टकरा जानेपर क्या झनझनाकर आपके मनने कभी यह भी कहा है कि इस दौड़से दूर हट जाय तो अच्छा है ? किन्तु इस दौड़से दूर हटना क्या सरल है ? कुछ समयकेलिए बाह्य दौड़-धूपसे बलात् निग्रहकर भी लिया जाये तो भी आन्तरिक द्वंद्व तो रूकता नहीं । यह भी स्पष्ट ही है कि वास्तविक समस्या तो यह आन्तरिक द्वंद्व ही है, बाह्य दौड़ धूप तो उस आन्तरिक द्वंद्वकी प्रतीक मात्र है । इस आन्तरिक द्वंद्वको नियन्त्रित करना संसार का कठिनतम तथा कठोरतम साधन-साध्यकार्य है । इन कठोर साधनोंकी सिद्धिके लिए ऐसा सुदृढ़ साधक अपेक्षित है, जो राग-द्वेष के ज्वारभाटों में शिला के समान अडिग रहे, तनिक भी विचलित न हो । और इस सबके विनिमय में उसे क्या प्राप्त होता है ? कुछ नहीं और सब कुछ । इस दौड़-धूप का अवसान हो जाता है, रज क्षीण हो जाता है, तथा उस एकात्मरस चिदानन्द आनन्दघनेकरस शुद्ध बुद्ध निजस्वरूप की उपलब्धि हो जाती है जिसे प्राप्त करके प्राणों कृतकृत्य हो जाता है । उस अवाङ्मनसगोचर प्रपञ्चोशम अद्वैत दशा का, शेष भी अशेषत: वर्णन करने में अशक्त है, अस्मदादि अकिंचन् प्राकृत जनों की तो कथा ही क्या है ? कदाचित् यह दौड़ एकान्तत: समाप्त न भी हो, तो भी साधककी दौड़में नियमितता तो आ ही जाती है । वह दौड़ते हुए भी विवेक नहीं खो बैठता । दौड़ते हुए भी वह यथासम्भव न किसीको ठोकर मारता है, एवं फलस्वरूप न किसीकी ठोकर खाता है । वह दौड़ते हुए भी नहीं दौड़ता । उसकी दौड़का भी अन्त निकटवर्ती ही समझना चाहिए । वाष्कलि मुनि ने बाध्वसे आत्माका स्वरूप पूछा । बाध्वने कहा, ‘‘ब्रह्मका स्वरूप सुनो’’। यह कहकर बाध्व मौन हो गये । वाष्कलिने कहा, ‘‘भगवन् ! आप मौन क्यों हैं ? आत्माका स्वरूप बताइये न ?’’ बाध्व फिर भी मौन रहे । वाष्कलिने कहा, ‘‘भगवन् ! आप ब्रह्मका स्वरूप क्यों नहीं बतलाते ?’’ बाध्व बोले, ‘‘मैं तो ब्रह्मका स्वरूप बतला रहा हूँ, किन्तु तू नहीं समझता । यह आत्मा उपशान्त है ।’’ ऐसी शब्दातीत उपशान्त आत्माका वर्णन इस शान्तिपथ-प्रदर्शन में है । पन्द्रह वर्ष पूर्व स्टेशनोंपर पीनेके पानी पर ‘हिन्दु-पानी’ और ‘मुस्लिम-पानी’ लिखा रहा करता था । अब केवल ‘पीने का पानी’ लिखा रहता है । सौभाग्य से अब हम यह समझने लगे हैं कि पानी हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता, वह ‘पीने के लिए’ होता है । क्या कभी मानव जाति यह भी समझेगी कि धर्म हिन्दू या मुस्लिम, जैन या बौद्ध अथवा इसाई और यहूदी नहीं होता, वह तो वस्तुके स्वभाव का नाम है ? यदि कभी ऐसे सहज मानव धर्मकी नींव पड़ेगी, तो प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न उस नींवमें सुदृढ़ पाषाणका स्थान ग्रहण करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है । मुझे पुस्तक के प्रणेता के मुखारविन्द से इन प्रवचनों के अमृतपान का सौभाग्य मिला है । लेखक के क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करने के अवसर पर एक पत्र में, इन प्रवचनों की जो प्रतिक्रिया मुझपर हुई वह मैंने श्लोकबद्ध करके लेखक की सेवा में प्रेषित की थी । उसी पत्र के अन्तिम अंशके कतिपय श्लोक उद्धृत करते हुए मैं अपनी लेखनी को विश्रमा देता हूँ । पं० रूपचन्द्रजी गार्गीयके आग्रहपर मूल संस्कृतका पन्च चामर-छन्दमें हिन्दी पद्यानुवाद भी दे रहा हूँ । श्लोक संख्यामें आठ हैं तथा प्रत्येक श्लोकके अन्तिम चरणमें सोऽहम् महावाक्य आता है, अत: चाहें तो इसे सोऽहमष्टक भी कह सकते हैं :- (सोऽह्म्-अष्टक) अपापविद्धो य इति प्रसिद्ध:, स्वयं स्वकीयैर्नियमैर्निबद्ध: । सिद्ध: प्रबुद्ध: सततं विशुद्ध:, सोअहं न पापे करवाणि बुद्धिम् ।।१।। ज्ञानानि सर्वानि यदाश्रितानि, ज्ञाने च यस्या सफलानि खानि । सर्वाणि शास्त्राणि च यत्पराणि, सोअहं न पापे करवाणि वाणीम् ।।२।। अध्यात्मशास्त्राणि चिदात्मकं यं, सुखात्मरूपं परमात्मसंज्ञम् | देहादिभित्रं शिवमाहुरेनं, सोअहं न पापे करवाणि देह्म् ।।३।। जन्मादिहेतु: जगत: परन्तु, संसारपाथोनिधिपारसेतु: । विमोक्षदेवालयतुङ्गकेतु:, सोअहं परंब्रह्म निरञ्जनोऽस्मि ।।४।। ‘कविमंनीषी परिभू: सवयम्भू’-‘रणोरणीयान् मह्तो महीयान् ।’ भान्तं यमेवानुविभाति सर्व, स ज्योतिषां ज्योतिरहं विधूम: ।।५।। यथा स्वपुत्रं परिचुम्ब्य माता, न वेत्ति किञ्चिद्धि सुखातिरिक्तम् । नान्तर्विपश्यत्र बहिनं चोभौ, सोऽहं तथानन्दसमुद्रलीन: ।।६।। आनन्द चैतन्यविलासरूपं, क्रियाकलापादिकसाक्षिणं यन् । जानामि नित्यं ह्रदये विभान्तं, सोऽहं स्वयं ज्ञानघनप्रकाश: ।।७।। येन स्वयं सा निरमायि माया, तथा च लीलामनुसृत्य बद्ध: । वेदोऽपि जानाति न यस्य भेदं, मायापति: सोऽहमचिन्त्यरूप: ।।८।। (पन्च चामर छन्द) अपापबिद्ध जो प्रसिद्ध, शुद्ध बुद्ध सिद्ध है, स्वयं स्वकीय-पाससे निबद्ध भी स्वतन्त्र है । प्रसिद्ध शास्त्रमें सुखात्म-रूप ज्ञानकी प्रभा, विदेह-रूप कौन है ? अहो, यही स्वयम् ‘अह्म्’ ।। अशेष-वेद-शास्त्र नित्य कीर्ति को बखानते, न इन्द्रियादि-गम्य जो समस्त-ज्ञान-मूल है । गिरा-शरीर-बुद्धिकी मलीनता-विहीन है, समस्त-शास्त्र-सार-भूत है यही स्वयम् ‘अह्म्’ ।। प्रपन्च-हेतु भी यही, प्रपन्च-सेतु भी यही, विमोक्ष-देव-मन्दिरोच्य-भव्यकेतु भी यही । यही महानसे महान, सूक्ष्मसे अतिसूक्ष्म है, कवीन्द्र, प्राज्ञ, सर्वभू, विधूम-ज्योति है यही ।। यथा स्वकीय-पुत्रका विशाला भाल चूमती, न जन्मदा स्व-देहको, न अन्य वस्तु जानती । तथा प्रमोदके पयोधिको तरंगमें रंगा- हुआ ‘अहं’ न बाह्यको, न अन्तको विलोकता ।। निजात्म-जन्म-हेतु, यह समस्त लोककी प्रभा, धन-प्रकाश-रूप, चित्स्वरूप, रूपके बिना । क्रिया-कलाप-साक्षिभूत, चिद्वीलास-रूपिणी, प्रमोदकी परा स्थली, अहो यही स्वयम् ‘अह्म्’ ।। न वेद भी अभेद्य भेद जानता परेशका, कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी कहीं कभी कहीं- बना स्वयं विशाल एक जाल खेल खेलता, परन्तु जो कि वस्तुत: विमुक्त है, स्वतन्त्र है ।। इति शम् डॉ० दयानन्द भार्गव एम०ए०
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ओ३म् प्राक्कथन प्रस्तुत ग्रन्थ अध्यात्म-विज्ञानसे ओतप्रोत है । अध्यात्म-विज्ञान अत्यन्त परिष्कृत और कोमल रुचि-वाले व्यक्तियों के लिए है । इस विज्ञानके छात्रका मन इतना कोमल होता है कि स्व अथवा परके तनिकसे भी दु:खको देखकर उसे निवारण करने के लिए छटपटाने लगता है । उसे केवल शान्ति की आकांक्षा होती है । लौकिक सुख-भोग वस्तुत: स्थूल रूचिवाले व्यक्तियों को लुभा सकते हैं, कोमल रूचि वालों को नहीं । लौकिक सुख-भोगों के साथ अनिवार्यरूप से लगा रहनेवाला तृष्णा-जनक दु:ख जब किसी ऐसे सूक्ष्म रूचिवाले व्यक्ति को संसार से उदासीन बना देता है, तब ही वह व्यक्ति अध्यात्म–विज्ञान के रहस्य को समझ पाता है, और यह विज्ञान उसी व्यक्ति के लिए कार्यकारी भी हो सकता है । शेष व्यक्तियों में तो इसका पठन-पाठन, मात्र भोग है, योग नहीं- ‘भुक्त्ये न तु मुक्त्ये’ । किन्तु ऐसे व्यक्ति मनमें कोमल होनेपर भी अत्यन्त दृढ़ संकल्प-शक्ति के होते हैं । जिन विपत्तियों के ध्यान मात्रसे हम लौकिक व्यक्तियों का मन काँपने लगता है, उन्हीं विपत्तियों का सामाना वह एक शीतल मधुर मुस्कान के साथ किया करते हैं । उनका नारा होता है करेंगे या मरेंगे, ‘कार्य वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’ । यह मार्ग कोमल-हृदय, परंतु वीर-पुरुषों का है । अध्यात्म-विज्ञान जीवन-विज्ञान है । इसमें जीवन की कला निहित है । जीवन का सौम्य विकास इसका प्रयोजन है । जिस प्रकार लौकिक जीवन अर्थात् रहन-सहनका स्तर ऊँचा उठानेके लिए अर्थशास्त्र, भौतिक शास्त्र अथवा रसायन शास्त्र पढ़ा जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवनको ऊँचा उठाने के लिए अध्यात्म-विज्ञान पढ़ा जाना चाहिए । इस विज्ञान की प्रयोगशाला जीवन है । मन, शरीर और वाणी इस विज्ञान की प्रयोगशाला के यन्त्र हैं । यह विज्ञान जीवन को मृत्यु से अमरत्व, अन्धकार से ज्योति और असत् से सत् की ओर ले जाता है । भारत के बालक-बालकको इस विज्ञान के मूल सिद्धान्त पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त होते हैं । वे सिद्धान्त हैं-दया, दान और दमन । भौतिक विज्ञान ने हमें जो कुछ दिया उसका विरोध या अनुमोदन करना यहाँ अभिप्रेत नहीं है, परन्तु यह आवश्यक है कि हम उसकी सीमायें समझें । जीवनके उपकरणोंका अर्थात् धन, ऐश्वर्य और शरीर का जीवन से तादात्म्य सम्बन्ध मानना समस्त अनर्थका मूल है । इनमें साधन-साध्य सम्बन्ध हैं, तादात्म्य सम्बन्ध नहीं । विज्ञान ने हमें नये-नये मनोरंजन और यातायात के साधन दिये, तदर्थ विज्ञान का स्वागत है, किन्तु विज्ञान की चकाचौंध में पड़कर अपने को भूल जाने का कोई अधिकार हमें नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक बीसवीं शती के एक साधक वैज्ञानिक हैं । भारत में अध्यात्म-विज्ञान जानने-वाले पहले बहुत से साधक हुए, परन्तु उनकी परिभाषावली और लेखनशैली हम बीसवीं शतीके लोगों के लिए न उतनी सुगम है और न उतनी आकर्षक । वर्तमान समयमें अध्यात्म-विज्ञान के प्रति अरूचिका यह भी एक कारण है । प्रस्तुत ग्रन्थ निश्चय ही इस अभावकी पूर्ति करेगा । रामजस कॉलेज २५-११-६० -डॉ० दयानन्द भार्गव, एम० ए०
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(भारत के सुप्रसिद्ध चिन्तक व हिन्दी साहित्यकार श्री जैनेन्द्र कुमार देहली) सब प्राणियों में मनुष्य की यह विशेषता है कि वह जीना ही नहीं चाहता, जानना भी चाहता है । असल में रहने और जीनें में यही अन्तर है । रहते हम विवशता से हैं । विचार-विवेक के साथ रहने का आरम्भ होता है कि तभी जीवन का सच्चा अर्थ भी आरम्भ होता है । स्वतन्त्रताका प्रारम्भ भी यही है । अर्थात् विचार-विवेक स्वाधीन जीवन के अविभाज्य अंग हैं । विचार-हीनता से मनुष्य, मनुष्यता से पशुता में आ गिरता है । किन्तु विचार की मर्यादा है । वह द्वैत को जन्म देता है, उसे लांघ नहीं सकता । जीवन के सम्बन्ध में भी उठकर धारा के मध्यसे विचार इस या उस तट की और बढ़ने को बाध्य है । नदी में पानी हो तो दो तट हो ही जाते हैं, वैसे ही विचार में यदि सत्य हो तो तट दो बन ही जाने वाले हैं । जड़-चेतन, कर्म-धर्म, भौतिक-आध्यात्मिक, ये ही वे तट हैं । धर्म और कर्म के बीच सदा तनाव रहा है । धर्म यहाँ तक गया कि पाप को कर्म की संज्ञा दे दी और मुक्ति में उस कर्म को ही बाधा और बन्धन बताया । उसी तरह कर्मवादियों ने धर्म को वहम कहा और उन्नतिमें उसे ही बाधा ओर बन्धन के रूप में दिखलाया । अध्यात्मवाद और भौतिकवाद, इस तरह परस्पर विलग और विमुख बने रहे हैं । धर्म और अध्यात्म के वाद ने निवृत्ति पर और अकर्म पर बल दिया है, उसके विरोध में प्रवृत्ति और पदार्थ की उन्नति ने सदा कर्म के आरम्भ-समारम्भ पर जोर डाला है । इस विवाद में से अधिकांश विघटन और वितण्डा ही फलित हुए हैं, जिज्ञासुता नहीं बढ़ी है, न किसी आत्मोत्कर्ष की अनुभूति ही हो पाई है । आज की मन: स्थिति यह है कि प्रचलित और अनिवार्य इन दोनों तटों को परस्पर की विमुखता से अधिक सम्मुखता में देखा जाए और समन्वयपूर्वक जीवन को दोनों से मुक्त अथवा युक्त बनाने का यत्न किया जाए । जीवन अपनी स्थिति और गति के लिए दोनों तटों का निर्वाह करता और दोनों को ही स्पर्श करता हुआ प्रवाहित रहता है । मुझे प्रसन्नता है कि ब्रह्मचारी श्री जिनेन्द्र कुमार जी का यह ग्रन्थ ‘शान्तिपथ-प्रदर्शन’ जीवन को धर्म-तत्व के नाम पर किसी ऐकान्तिक व्याख्या की ओर नहीं खेंचता है, अपितु तत्वका जीवन के साथ मेल साधने में योग देता है । अपने अमुक मन्तव्य को, आवश्यकता से अधिक उस पर बल डालकर, मतवादी और साम्प्रदायिक भी बना दिया जा सकता है । उससे असहिष्णुता और जड़ता पैदा होती है एवं आत्म-चैतन्य पर क्षति आती है । प्रस्तुत ग्रन्थ में वह दोष नहीं है । आधार उसकी रचना में जैन शब्दावली का लिया गया है और तत्व निरूपण में भी जैनतत्ववाद की भूमिका है । किन्तु पारिभाषिक भाषा का जीवनानुभव से मेल बैठाकर रचनाकार ने ग्रन्थ को पन्थगत से अधिक जीवनगत बना दिया है । इन गुणों से यह ग्रन्थ यदि जैनों के लिए विशेष, तो सामान्यतया हरेक के लिए उपादेय बन गया है । मानों ग्रन्थकार ने अपनी ओर से ही साम्प्रदायिक अभिनिवेशों का ध्यान रखा है और उन्हें उद्दीपन देने से बचाया है । शब्द की इयत्ता से अधिक सूचकता की ओर उनका संकेत रहा है । इस प्रकार अन्यान्य मतवादों के साथ जैन मत के संगम को यह ग्रन्थ सुगम कर देता है । आत्मा और पुद्गल जैन, विचार में ये दो ही प्रधान तत्व हैं । आत्मा शुद्ध परमात्मा है, और कर्म शुद्ध पुद्गल है । इस तरह पर-तत्व जैन विचार क्रम से नितान्त उत्तीर्ण और मुक्त है । किन्तु ब्रह्मवादी के परब्रह्म और ‘एकं ब्रह्म दितीयो नास्ति’ को भी ग्रन्थकार ने परमानन्द के भाव के साथ अपना लिया है और अपनी भाषा में समा लिया है । सर्व धर्म-समभाव की यही भूमिका है । आज के दिन अहिंसा का प्रश्न भी तरह-तरह से लोगों को विकल कर रहा मालूम होता है । राष्ट्र–संघर्ष-की अवस्था में आसानी से हिंसा-अहिंसा के प्रश्नको उलझा और सुलझा लिया जा सकता है । इस जगह पर धर्म-विचारकी दृष्टिसे बड़ी सावधानताकी आवश्यकता है । स्पष्ट है कि हिंसासे परिपूर्ण मुक्ति संदेहावस्थामें अकल्पनीय है । इसीसे अहिंसा परम धर्म मानना होता है और हिंसाकी अपरिहार्यताको लेकर उस सम्बन्धमें भ्रम उत्पन्न नहीं किया जा सकता । प्रस्तुत ग्रन्थमें उस सावधानताके लक्षण दिखाई देते हैं । सत्यका तत्व उससे भी जटिल है और नाना प्रश्नों को जन्म देता है । उस सम्बन्ध में ग्रन्थकारका यह वचन मार्मिक है कि ‘‘स्वपरहित का अभिप्राय रखकर की जाने वाली क्रिया सत्य है ।’’ दूसरे शब्दों में सत्य क्रियमाण है, स्थिर ज्ञानस्थ वह नहीं है । यह भी उसमें गर्भित है कि वह क्रियात्मकसे अधिक अभिप्रयात्मक या भावात्मक है । अत: मूलत: वह सत्य स्वपरहित-मूलक हो जाता है । इस पद्धति से सत्यको अमुक मत तभा मंतव्यसे हटाकर स्वरपरहितके अभिप्रायसे जोड़ देना मैं परम हितकारी मानता हूँ । धर्मको यदि तत्ववादकी चट्टानसे टकराकर टूटना नहीं है, बल्कि जीवनको प्रशस्त और उज्जवल बनानेमें लगता है तो उसके अभिप्राय और क्रियाके शोधनका दायित्व वक्ता और व्याख्याता पर आता है और जिनेन्द्रजी इस सम्बन्धमें पर्याप्त प्रबुद्ध रहे हैं । कुल मिलाकर इस ग्रन्थ और इसके ग्रन्थकारका मैं अभिनंदन करता हूँ । जैनों में साम्प्रदायिक मतवाद एवं तत्ववादका साहित्य तो मिलता रहा है, उस सबका जीवन क्रमके साथ मेल बैठाकर प्रकटाने वाला साहित्य अधिक देखनेमें नहीं आता । इस ग्रन्थकी गणना उसमेंकी जा सकती है और मुझ जैसेएक जैनके लिये यह परम हर्षका विषय है । २५-१-६३ -जैनेन्द्र कुमार
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रचयिता का चमत्कार जैनेन्द्र प्रमाण कोष की रचना “जैनेन्द्र सिद्धांत कोश” के रचयिता तथा संपादक श्री जिनेन्द्र वर्णी का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० श्री जयभगवान् जी जैन एडवोकेट के घर हुआ | केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया | सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रूचि नहीं थी | अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता–श्री का प्रवचन सुनने से आपका हृदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड़ गया | पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान तथा शांति-परिणामी स्व० पं० रूपचन्द्र जी गार्गीय की प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारम्भ की और सन् १९५८ तक सकल जैन-वांग्मय पढ़ डाला | जो कुछ पढ़ते थे उसके सकल आवश्यक सन्दर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जाते थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गये | स्वाध्याय के फलस्वरूप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा | अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया | घर छोड़कर मंदिर जी के कमरे में अकेले रहने लगे | १३-१४ घंटे प्रतिदिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई | सन्दर्भों का संग्रह अब की बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्टरों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षकों में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे | सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पास लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया | परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थ के रूप में लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया, और १९६० में ‘जिनेन्द्र प्रमाण कोष’ के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शांति-पथ प्रदर्शन के प्रथम तथा द्वितीय संस्करणों में अंकित हुआ दिखाई देता है | स्व. पं. रूपचंदजी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में ‘जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मंत्री श्री लक्ष्मीचंद जी को दिखाई | उससे प्रभावित होकर उन्होंने तुरंत उसे प्रकाशन के लिए माँगा | परन्तु क्योंकि यह कृति वर्णी जी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमियां थीं, इसलिए उन्होंने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया, और पंडित जी के आग्रह से वे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रूपांतरण करने लगे | परन्तु अपनी ध्यान समाधि की शांत साधना में विघ्न समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम को बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया | पण्डित जी की प्रेरणायें बराबर चलती रहीं और सन् १९६४ में आपको पुन: यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा । पहले वाले रूपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नहीं थे, इसलिए इसका त्याग करके दूसरी बार पुन: उसका रूपान्तरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्दों तथा विषयों को वृद्धि के साथ-साथ सम्पादन-विधि में भी परिवर्तन किया । जैनेन्द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रूपान्तरण ही आज ‘जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष’ के नाम से प्रसिद्ध है । इसलिये ‘जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष’ के नामसे प्रकाशित जो अत्यन्त परिष्कृत कृति आज हमारे हाथों में विद्यमान है, वह इसका प्रथम रूप नहीं है । इससे पहले भी यह किसी न किसी रूपमें पाँच बार लिखी जा चुकी है । इसका यह अंतिम रूप छटी बार लिखा गया है । इसका प्रथम रूप ४-५ रजिस्ट्रों में जो सन्दर्भ संग्रह किया गया था, वह था । द्वितीय रूप सन्दर्भ संग्रहके खुले परचोंका विशाल ढेर था । तृतीय रूप ‘जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ नाम वाले वे आठ मोटे-मोटे खण्ड थे जो कि इन परचों को व्यवस्थित करने के लिए लिखे गये थे । इसका चौथा रूप वह रूपान्तरण था जिसका काम बीच में ही स्थगित कर दिया गया था । इसका पाँचवा रूप वे कई हजार स्लिपें थीं जो कि जैनेन्द्र प्रमाण कोष तथा इस रूपान्तरण के आधारपर वर्णी जी ने ६-७ महीने लगाकर तैयार की थीं तथा जिनके आधार पर कि अन्तिम रूपान्तरण की लिपि तैयार करनी इष्ट थी । इसका छठा रूप यह है जो कि ‘जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष’ के नाम से आज हमारे सामने विद्यमान है । यह एक आश्चर्य है कि इतनी रूग्ण काया को लेकर भी वर्णी जी ने कोष के संकलन सम्पादन तथा लेखन का यह सारा कार्य अकेले सम्पन्न किया है । सन् १९६४ में अन्तिम लिपि लिखते समय अवश्य आपको अपनी शिष्या ब्र० कुमारी कौशल का कुछ सह्योग प्राप्त हुआ था, अन्यथा सन् १९४९ से सन् १९६४ तक १७ वर्षके लम्बे कालमें आपको तृण मात्र भी सहायता इस सन्दर्भ में कहीं से प्राप्त नहीं हुई । यहाँ तक कि कागज जुटाना उसे काटना तथा जिल्द बनाना आदि का काम भी आपने अपने हाथ से ही किया । यह केवल उनके हृदय में स्थित सरस्वती माता की भक्ति का प्रताप है कि एक असम्भव कार्य भी सहज सम्भव हो गया और एक ऐसे व्यक्तिके हाथसे सम्भव हो गया जिसकी क्षीण काया को देखकर कोई यह विश्वास नहीं कर सकता कि इसके द्वारा कभी ऐसा अनहोना कार्य सम्पन्न हुआ होगा । भक्ति में महान शक्ति है, उसके द्वारा पहाड़ भी तोड़े जा सकते हैं । यही कारण है कि वर्णी जी अपने इतने महान कार्यका कर्तृत्व सदा माता सरस्वती के चरणों में समिर्पित करते आए हैं, और कोष को सदा उसी की कृति कहते आये हैं । यह है भक्ति तथा कृतज्ञता का आदर्श । यह कोष साधारण शब्द-कोष जैसा कुछ न होकर अपनी जातिका स्वयं है । शब्दार्थ के अतिरिक्त शीर्षकों उपशीर्षकों तथा अवान्तर शीर्षकों में विभक्त उसकी वे समस्त सूचनायें इसमें निबद्ध हैं, जिनकी कि किसी भी प्रवक्ता लेखक अथवा संधाता को आवश्यकता पड़ती है । शब्द का अर्थ, उसके भेद प्रभेद, कार्य कारण भाव, हेयोपादेयता, निश्चय व्यवहार तथा उसकी मुख्यता गौणता, शंका समाधान, समन्वय आदि कोई ऐसा विकल्प नहीं जो कि इसमें सहज उपलब्ध न हो सके । विशेषता यह कि इसमें रचयिताने अपनी ओर से एक शब्द भी न लिखकर प्रत्येक विकल्प के अन्तर्गत अनेक शास्त्रोंसे संकलित आचार्योंके मूल वाक्य निबद्ध किए हैं । इसलिए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिसके हाथ में यह महान् कृति है उसके हाथ में सकल जैन-वांग्मय है । -सुरेशकुमार जैन गार्गीय
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विषयों को जो चखकर जाने, रसना इन्द्रिय वो पहचाने । पाँच विषय हैं उसके होते, नाम बताओ अब क्यों सोते॥ उत्तर एक ही बार लिखें आप सभी के उत्तर कल दिखेंगे
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दिव्यध्वनि के हैं जो कारण, पाप ताप का करते वारण । कितने गणधर सभी बताएं, समवसरण में शोभा पाएँ ॥ आज रत्रि 10 बजे तक दे सकते हैं उत्तर आपके उत्तर रात्रि 10 बजे तक किसी को भी नहीं दिखेंगे
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ज्ञान ही भव का कूल कहाता, राग सहित जग में भटकाता । हम हैं कितने ज्ञान के धारी, सोच बताओ सब नर-नारी ॥ आज रत्रि 10 बजे तक दे सकते हैं उत्तर आपके उत्तर रात्रि 10 बजे तक किसी को भी नहीं दिखेंगे