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  • प्रकाशकीय वक्‍तव्‍य

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    admin

    स्‍वदोष-शान्‍त्‍या विहिताऽऽत्‍मशान्ति:, शान्‍तेर्विधाताशरणं गतानाम् ।

    भूयाद्भव-क्‍लेश-भयोपशान्‍त्‍यै,  शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्‍य: ।।

          जिन्होंने अपने दोषोंकी अर्थात् अज्ञान तथा रागद्वेषकाम क्रोधादि विकारोंकी शान्ति करके (पूर्ण निवृत्ति करके) आत्‍मामें शान्ति स्‍थापित की है (पूर्ण सुख स्‍वरूप स्‍वाभाविक स्थिति प्राप्‍त की है) और जो शरणागतोंके लिए शान्तिके विधाता हैं, वे शान्ति-जिन मेरे शरणभूत हों ।

          सर्व साधारण मनुष्‍य-समाजके हितार्थ शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्‍थका प्रकाशन करते हुए मुझे बड़ा हर्ष व उल्‍लास हो रहा है, क्‍योंकि यह मेरी उन भावनाओंका फल है जो मेरे हृदयमें उस समय उठी थीं, जब कि मैंने यह सुना कि ब्र० जिनेन्‍द्र कुमारजीके अपूर्व प्रवचनोंके द्वारा मुजफ्फरनगरकी मुमुक्षु समाजमें अध्‍यात्‍म पिपासा जागृत हुई है और उसके प्रति एक अद्वीतीय बहुमान भी । तब मैंने सोचा कि ये प्रवचन तो बहुत थोड़े व्‍यक्तियों- को सुननेको मिल सकेंगे और हमारे देशका एक बहुत बड़ा भाग इनके सुननेसे वन्चित रह जायेगा । मैंने उनसे प्रार्थना की कि वह प्रवचन लिपिबद्ध कर दें । मेरी तथा मुजफ्फरनगर समाजकी प्रार्थनापर उन्‍होंने वे सब प्रवचन संकलित कर दिये । फलस्‍वरूप इस बड़े ग्रंथ शान्तिपथ-प्रदर्शनकी रचना हो गई, जिसमें जैन दर्शनका सार अत्‍यन्‍त सरल व वैज्ञानिक भाषामें जगत के सामने प्रगट हुआ । यह ग्रन्‍थ धार्मिक साम्‍प्रदायिकता के विषसे निर्लिप्‍त है जिसके कारण सभी विचारों, सभी जातियों व सभी देशों के लोग इससे लाभ उठा सकते हैं । अन्‍य स्‍थानों पर भी यही प्रवचन चले जिनसे वहाँ की समाज बड़ी प्रभावित हुई और उदार हृदय से इसके प्रकाशनार्थ योगदान दिया । मैं इस सहयोगके लिए उन सब का हृदय से आभारी हूँ ।

    ब्र.जिनेन्द्र कुमार जी ने विश्व जैन मिशन के धर्म-प्रचार कार्य की प्रगति, तथा असाम्प्रदायिक मानव प्रेम को देखकर इस ग्रन्थ के प्रकाशन का श्रेय इस संस्था को देने का विचार प्रकट किया, और विश्व जैन मिशन के प्रधान संचालक डॉ.कामता प्रसाद जी की स्वीकृति से पानीपत केंद्र द्वारा इसके प्रकाशन की आयोजना की गई ।

          ब्र० जिनेन्‍द्र कुमारजी, जैन वैदिक बौद्ध व अन्‍य जैनेतर साहित्‍य के सुप्रसिद्ध पारंगत विद्वान् पानीपत निवासी श्रीजय भगवान् जी जैन एडवोकेट के सुपुत्र हैं । यही सम्‍पत्ति पैतृक धनके रूपमें हमारे युवक विद्वान् को भी मिली । अध्‍यात्‍म क्षेत्रमें आपका प्रवेश बिना किसी बाहरको प्रेरणाके स्‍वभाव से ही हो गया । बालपने से ही अपने हृदय में शान्ति प्राप्ति की एक टीस छिपाये वे कुछ विरक्‍त से रहते थे । फलस्‍वरूप वैवाहिक बन्‍धनों से मुक्‍त रहे । अलैक्ट्रिक व रेडियो विज्ञान का गहन अध्‍ययन करने के पश्‍चात् आपने अपनी प्रतिभा-बुद्धिका प्रयोग, व्‍यापार क्षेत्रमेंइण्डियन ट्रेडर्स फर्मकी स्‍थापना करके दस साल तक किया और खूब प्रगतिकी । परन्‍तु धन व व्‍यापार के प्रति इनको कभी आकर्षण न हुआ । अपने दोनों छोटे भाइयोंको समर्थ बना देने मात्रके लिए आप अपना एक कर्तव्‍य पूरा कर रहे थे । इसीलिए कलकत्‍तामें ठेकेदारीका काम सम्‍भालनेमें ज्‍यों ही वे समर्थ हो गये, आप व्‍यापार छोड़कर वापस पानीपत आ गये और सच्‍चे हृदयसे शान्तिकी  खोजमें व्‍यस्‍त हो गये । शीघ्र ही आप इस रहस्‍यका कुछ-कुछ स्‍पर्श करने लगे । यह साधना इन्‍होंने केवल आठ वर्षमें कर ली । सन् १९५० में इन्‍होंने स्‍वतन्‍त्र स्‍वाध्‍याय प्रारम्‍भ किया, सन् १९५४ व ५५ में सोनगढ़ रहकर इन्‍होंने उस स्‍वाध्‍यायके सारको खूब मांजा । अध्‍यात्‍म ज्ञानके साथ–साथ अन्‍तर-अनुभव व वैराग्‍य भी बराबर बढ़ता गया, यहाँ तक कि सन् १९५७ में आप व्रत धारण करके गृह-त्‍यागी हो गये । सन् १९५८ में आप ईसरी गये और पूज्‍य गणेश प्रसाद जी वर्णी के सम्‍पर्कमें रहकर अपने सैद्धान्तिक ज्ञान को बढ़ाया और विशेष अनुभव प्राप्‍त किया ।

          आपका हृदय अन्‍तर शान्ति व प्रेमसे ओतप्रोत साम्‍य व माधुर्य का आवास है । सन् १९५९ में प्रथम बार मुजफ्फरनगर की मुमुक्षु समाज के समक्ष इनको अपने अनुभवका परिचय देनेका अवसर प्राप्‍त हुआ । तबसे इनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि अनेक स्‍थानोंसे निमन्‍त्रण आने लगे और उनको पूरा करना इनके लिये असम्‍भव हो गया । ज्ञान व अन्‍तर-शान्तिके अतिरिक्‍त शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य अत्‍यन्‍त प्रतिकूल होते हुए भी इनकी बाह्य चारित्र सम्‍बन्‍धी साधना अति प्रबल है, जिसकी साक्षी कि इनका समय-समय पर किया हुआ परिग्रह-परिमाण व जिह्वा इन्द्रिय सम्‍बन्‍धी नियन्‍त्रण देता रहा है । पौष व माघकी सर्दियोंमें भी आप दो घोतियों व एक पतली सी सूती चादर में सन्‍तुष्‍ट रहे हैं । अब तो आपने वैराग्‍य बढ़ जानेके कारण विकल्‍पोंसे तथा परिग्रह से मुक्ति पानेके लिए भादों शु० तीज सं० २०१९ (सन् १९६२) को ईसरीमें क्षुल्‍लक दीक्षा भी ले ली है ।

          आप इस वैज्ञानिक युगमें रूढ़ि व साम्‍प्रदायिक बन्‍धनोंसे परे एक शान्ति-प्रिय पथिकहैं । आपकी भाषा बिल्‍कुल बालकों सरोखी सरल मधुर है । आठ वर्षोंके उनके गहन स्‍वाध्‍यायके फलस्‍वरूप ‘जैनेन्‍द्र कोष’ जैसी महान कृतिका निर्माण हुआ है जो जैन वांग्‍मय में अपनी तरहकी अपूर्व कृति है । इसकी आठ मोटी-मोटी जिल्‍दें हैं । इसके अतिरिक्‍त भी इनके हृदयसे अनेकों ग्रन्‍थ स्‍वत: निकलते चले आ रहे हैं, जो उचित व्‍यवस्‍था होनेपर प्रकाशमें आयेंगे ।

          यद्यपि इस ग्रन्‍थ में सं‍कलित विषयों को परम्‍परागत शान्ति-पथ अर्थात् मोक्ष मार्गके उद्योतक व साधक भगवन् कुन्‍दकुन्‍द, श्री उमास्‍वामी, श्री पूज्‍यपाद स्‍वामी, श्री शुभचन्‍द्र आदि महान् आचार्यों द्वारा रचित आगमसे प्रेरणा लेकर लिखा गया है तो भी श्री ब्र० जिनेन्‍द्र कुमारजीने अपने अध्‍यात्‍म बल व सम्‍यक् आचार-विचारकी दृढ़ता से प्राप्‍त अनुभवके आधार पर ही आधुनिकतम वैज्ञानिक ढंगसे अत्‍यन्‍त सरल भाषामें इसका सम्‍पादन किया है । प्रस्‍तुत ग्रन्‍थ केवल सिद्धान्‍तपर आधारित शास्‍त्र नहीं है, किन्‍तु सिद्धान्‍तपर आधारित शान्ति-पथ-प्रदर्शक है । पथपर चलकर ही ध्‍येय की पूर्ति होती है । जब पथपर चलता है तब अन्‍तरंग में ध्‍येयका साक्षात् रहना आवश्‍यक है और जब अन्‍तरंगमें ध्‍येयका साक्षात् है तो पथपर चलना सहल हो जाता है। इन दिनों अध्‍यात्‍म व आचार विषयक साहित्‍यका बहुत बड़ा निर्माण हुआ है तथा शिक्षण-संस्‍थायें व आध्‍यात्मिक सन्‍त भी इस दिशामें बहुत योग दे रहे हैं, परन्‍तु विषयकी जटिलताव अलौकिकता और तत्‍सम्‍बन्‍धी जैन परिभाषाओंके लोक-व्‍यवहरित न रहनेके कारण भौतिक आवेशोंसे रंग । हुआ आज का युवक अध्‍यात्‍म परम्‍परा से च्‍युत होता चला जा रहा है । इन कठिनाइयों को दूर करने में यह ग्रन्‍थ अवश्‍वमेव महत्‍वशाली सिद्ध होगा तथा विश्‍व को सुख व शान्ति का मार्ग दिखाने में सहायक होगा । यद्यपि अध्‍यात्‍म–विद्यास्‍वानुभूति से ही प्राप्‍त होती है तो भी अनुभव-प्राप्‍त पुरूषों के मार्ग-प्रदर्शन से यह साध्‍य अधिक सहल हो जाता है ।

          पिछले जमाने में अध्‍यात्‍म्‍-विद्या, परीक्षोत्‍तीर्ण अधिकारियों को छोड़कर, सर्व साधारण से गोपनीय रहती चली आयी हैं परन्‍तु कागज का निर्माण हुआ है और प्रकाशन-कला का विकास बढ़ा है, इस विद्याका साहित्‍य दिनोंदिन लोक-सम्‍पर्क में बढ़ता जा रहा है, और इस विज्ञान की चर्चा वार्ता बहुत होने लगी है । यह ज्ञान-प्रधान युग है परन्‍तु आचरण में दिन-दिन शिथिलता आती जा रही है। इसी  बातको ध्‍यानमें रखते हुए इस ग्रन्‍थमें ज्ञानके अनुकूल आचरण धारण करने की ओर अधिक ध्‍यान आकर्षित किया गया है । आप्‍तमीमांसा में कहा है –

    ‘‘अज्ञानान्‍मोहतो      बन्‍धो नाज्ञानाद्वीतमोहत: ।

    ज्ञानस्‍तोकाच्‍च मोक्ष:  स्‍यात् मोहान्‍मोहितोअन्‍यथा ।।९८।।’’

          मोहीका अज्ञान बन्‍धका कारण है, परन्‍तु निर्मोहीका अज्ञान (अल्‍प ज्ञान) बन्‍धका कारण नहीं है । अल्‍प ज्ञान होते हुए भी मुक्ति हो जाती है परन्‍तु मोहीको मुक्ति प्राप्‍त नहीं होती ।

     

    ‘‘जम्‍मणमरणजलौघं दुहयरकिलेससोगवीचीयं ।

    इय संसार-समुद्दं तरंति चदुरंगणावाए ।’’

          अर्थ- यह संसार समुद्र जन्‍म-मरणरूप जलप्रवाह वाला, दु:ख क्‍लेश और शोक रूप तरंगोंवाला है । इसे सम्‍यग्‍दर्शन, सम्‍यग्‍ज्ञान, सम्‍यग्‍चारित्र और सम्‍यक् तप रूप चतुरंग नावसे मुमुक्षुजन पार करते हैं ।

     

    ‘‘छीजे सदा तनको जतन यह, एक संयम पालिये ।

    बहु रूल्‍यो नरक निगोद माहीं, विषय कषायनि टालिये ।

    शुभ करम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है ।।

    ‘द्यानत’ धरमकी नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ।।

     

    फाल्‍गुन शु० ८ वी० नि० सं. २४८९                    -रूपचन्‍द्र गार्गीय जैन, पानीपत


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