७. वैज्ञानिक बन – जैसाकि आगे स्पष्ट हो जायेगा, धर्म का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं वैज्ञानिक है । अंतर केवल इतना है कि लोक में प्रचलित विज्ञान भौतिक विज्ञान है और यह है आध्यात्मिक विज्ञान । धर्म की खोज तुझे एक वैज्ञानिक बनकर करनी होगी, साम्प्रदायिक बनकर नहीं । स्वानुभव के आधार पर करनी होगी, गुरूओं के आश्रय पर नहीं । अपने ही अंदर से तत्संबंधी ‘क्या’ और ‘क्यों’ उत्पन्न करके तथा अपने ही अंदर से उसका उत्तर लेकर करनी होगी, किसी से पूछकर नहीं । गुरू जो संकेत दे रहे हैं, उनको जीवन पर लागू करके करनी होगी, केवल शब्दों में नहीं । तुझे एक फिलास्फर बनकर चलना होगा, कूपमंडूक बनकर नहीं । स्वतंत्र वातावरण में जाकर विचारना होगा, साम्प्रदायिक बंधनों में नहीं ।
देख एक वैज्ञानिक का ढंग, और सीख कुछ उससे । अपने पूर्व के अनेकों वैज्ञानिकों व फिलास्फरों द्वारा स्वीकार किये गये सर्व ही सिद्धांतों को स्वीकार करके, उसका प्रयोग करता है। वह अपनी प्रयोगशाला में, और एक आविष्कार निकाल देता है । कुछ अपने अनुभव भी सिद्धांत के रूप में लिख जाता है, पीछे आने वाले वैज्ञानकों के लिये और वे पीछे वाले भी इसी प्रकार करते हैं । सिद्धांत में बराबर वृद्धि होती चली जा रही है, परन्तु कोई भी अपने से पूर्व सिद्धांत को झूठा मानकर ‘उसको मैं नहीं पढूंगा’ ऐसा अभिप्राय नहीं बनाता । सब ही पीछे-पीछे वाले अपने से पूर्व-पूर्व वालों के सिद्धांतों का आश्रय लेकर चलते हैं । उन पूर्व में किये गये अनुसंधानों को पुन: नहीं दोहराते । इसी प्रकार तुझे भी अपने पूर्व में हुये प्रत्येक ज्ञानों के, चाहे वह किसी नाम व सम्प्रदाय का क्यों न हो । अनुभव और सिद्धांतों से कुछ न कुछ सीखना चाहिये, कुछ न कुछ शिक्षा लेनी चाहिये । बाहर से ही, केवल इस आधार पर कि ‘तेरे गुरू ने तुझे अमुक बात, अमुक ही शब्दों में नहीं बताई है’ उनके सिद्धांतों को झूठा मानकर, उनसे लाभ लेने की बजाय उनसे द्वेष करना योग्य नहीं है । वैज्ञानिकों का यह कार्य नहीं है ।
जिस प्रकार प्रत्येक वैज्ञानिक जो जो सिद्धांत बनाता है, उसका आधार कोई कपोल कल्पना मात्र नहीं होता, बल्कि होता है उसका अपना अनुभव, जो वह अपनी प्रयेगशाला में प्रयोग-विशेषक के द्वारा प्राप्त करता है । पहले स्वयं प्रयोग करके उसका अनुभव करता है और फिर दूसरों के लिये लिख जाता है, अपने अनुभव को । कोई चाहे तो उससे लाभ उठा ले, न चाहे तो न उठाये । परन्तु वह सिद्धांत स्व्ायं एक सत्य ही रहता है, एक ध्रुव सत्य ।
इसी प्रकार अनेक ज्ञानियों ने अपने जीवन की प्रयोगशालाओं में प्रयोग किये, उस धर्म सम्बंधी अभिप्राय की पूर्ति के मार्ग में । कुछ उसे पूर्ण कर पाये और कुछ न कर पाये, बीच में ही मृत्यु की गोद में जाना पड़ा । परन्तु जो कुछ भी उन सबने अनुभव किया या जो-जो प्रक्रियायें उन्होंने उन-उन प्रयोगों में स्वयं अपनाईं, वे लिख गये हमारे हित के लिए कि हम भी इनमें से कुछ तथ्य समझकर अपने प्रयोग में कुछ सहायता ले सकें । सहायता लेना चाहें तो लें, और न लेना चाहे तो न लें परन्तु वे सिद्धांत सत्य हैं, परम सत्य ।
इस मार्ग में इतनी कमी दुर्भाग्यवश अवश्य रहती है, जो कि वैज्ञानिक मार्ग में देखने में नहीं आती और वह यह है कि यहाँ कुछ स्वार्थी अनुभवविहीन ज्ञानाभिमानी जन विकृत कर देते हैं । उन सिद्धांतों को, पीछे से कुछ अपनी धारणायें उसमें मिश्रण करके और वैज्ञानिक मार्ग में ऐसा होने नहीं पाता । पर फिर भी वे विकृतियां दूर की जा सकती हैं । कुछ अपनी बुद्धि से, अपने अनुभव के आधार पर ।
भो जिज्ञासु ! तनिक विचार तो सही कि कितना बड़ा सौभाग्य है तेरा कि उन उन ज्ञानियों ने जो बातें बड़े बलिदानों के पश्चात् बड़े परिश्रम से जानीं, बिना किसी मूल्य के दे गये तुझे । अर्थात् बड़े परिश्रम से बनाया हुआ अपना भोजन परोस गये तुझे । और आज भूखा होते हुये भी तथा उनके द्वारा परोसा यह भोजन सामने रखा होते हुये भी तू खा नहीं रहा है इसे, कुछ संशय के कारण या साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण, जिसका आधार है केवल पक्षपात । तुझसा मूर्ख कौन होगा ? तुझसा अभागा कौन होगा ? भो जिज्ञासु ! अब इस विष को उगल दे और सुन कुछ नई बात, जो आज तक सम्भवत: नहीं सुनी है और सुनी भी हो तो समझी नहीं है । सर्वदर्शनकारों के अनुभव का सार, और स्वयं मेरे अनुभव का सार, जिसमें न कहीं है किसी का खण्डन और न है निज की बात का पक्ष । वैसा वैसा स्वयं अपने जीवन में उतारकर उसकी परीक्षा कर । बताये अनुसार ही फल हो तो ग्रहण कर लें और वैसा फल न हो तो छोड़ दें । पर वाद-विवाद किसके लिये और क्यों? बाजार का सौदा है मर्जी में आये तो ले और न आये तो न ले, यह एक नि:स्वार्थ भावना है । तेरे कल्याण की भावना और कुछ नहीं । कुछ लेना देना नहीं तुझसे । तेरे अपने कल्याण की बात है । निज हित के लिये एक बार सुन तो सही, तुझे अच्छी लगे बिना न रहेगी । क्यों अच्छी न लगे तेरी अपनी बात है- घर बैठे बिना परिश्रम के मिल रही हैं तुझे, इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? निज हित के लिये अब पक्षपात की दाह में इसकी अवहैलना मत कर ।