५. श्रोता के दोष - ऊपर बताये गये दोष के अतिरिक्त श्रोता में और भी कई दोष हैं जिनके कारण प्रमाणिक व योग्य वक्ता मिलने पर भी वह उसके समझने में असमर्थ रहता है । उन दोषों में से मुख्य है- उसका अपना पक्षपात, जो किसी अप्रमाणिक अथवा अयोग्य वक्ता का विवेचन सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है अथवा प्रमाणिक और योग्य वक्ता के विवेचन को अधूरा सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है अथवा पहले से ही बिना किसी का सिखाया कोई अभिप्राय उसमें पड़ा है । यह पक्षपात वस्तु-स्वरूप जानने के मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है ।
क्योंकि इस पक्षपात के कारण अव्वल तो अपनी रूचि या अभिप्राय से अन्य कोई बात उसे रुचती ही नहीं और इसलिये ज्ञानी की बात सुनने का प्रयत्न ही नहीं करता वह आौर यदि किसी की प्रेरणा से सुनने भी चला जाये, तो समझने की दृष्टि की बजाय सुनता है वाद-विवाद की दृष्टि से, शास्त्रार्थ की दृष्टि से, दोष चुनने की दृष्टि से । अपनी रूचि के विपरीत कोई बात आई नहीं कि पड़ गया उस बेचारे के पीछे, हाथ धोकर तथा अपने अभिप्राय के पोषक कुछ प्रमाण उस ही के वक्तव्य में से छांटकर, पूर्वापर मेल बैठाने का स्वयं प्रयत्न न करता हुआ, बजाय स्वयं समझने के समझाने लगा वक्ता को । ‘‘वहाँ देखो तुमने या तुम्हारे गुरू ने ऐसी बात कहीं है या लिखी है और यहाँ उससे उल्टी बात कह रहे हो’’? और प्रचार करने लगता है लोक में इस अपने पक्ष का तथा विरोध का । फल निकलता है तीव्र द्वेष ।
श्रोता का दूसरा दोष है धैर्य-हीनता । चाहता है कि तुरन्त ही कोई सब कुछ बता दे । एक राजा को एक बार कुछ हठ उपजी । कुछ जौहरियों को दरबार में बुलाकर उनसे बोला कि मुझे रत्न की परीक्षा करना सिखा दीजिये, नहीं तो मृत्यु का दण्ड भोगिये । जौहरियों के पांव तले धरती खिसक गई । असमंजस में पड़े सोचते थे कि एक वृद्ध जौहरी आगे बढ़ा । बोला कि ‘‘मैं सिखाऊँगा पर एक शर्त पर । वचन दो तो कहूँ ।’’ राजा बोला, ‘‘स्वीकार है, जो भी शर्त होगी पूरी करूँगा ।’’ वृद्ध बोला, ‘‘गुरू-दक्षिणा पहले लूंगा ।’’ हाँ हाँ तैयार हूँ, मांगो क्या मांगते हो? जाओ कोषाध्यक्ष ! दे दो सेठ साहब को लाख करोड़ जो भी चाहिये ।’’ वृद्ध बोला ‘‘कि राजन् ! लाख करोड़ नहीं चाहिये बल्कि जिज्ञासा है, राजनीति सीखने की और वह भी अभी इसी समय । शर्त पूरी कर दी जाये और रत्न-परीक्षा की विद्या ले लीजिये ।’’ ‘‘परन्तु यह कैसे संभव है’’, राजा बोला, ‘‘राजनीति इतनी सी देर में थोड़े ही सिखाई जा सकती है? वर्षों हमारे मंत्री के पास रहना पड़ेगा ।’’ ‘‘बस तो रत्न परीक्षा भी इतनी जल्दी थोड़े ही बताई जा सकती है ? वर्षों रहना पड़ेगा दुकान पर’’ और राजा को अकल आ गई ।
इसी प्रकार धर्म सम्बंधी बात भी कोई थोड़ी देर में सुनना या सीखना चाहे तो यह बात असम्भव है । वर्षों रहना पड़ेगा ज्ञानी के संग में अथवा वर्षों सुनना पड़ेगा उसके विवेचन को । जब स्थूल, प्रत्यक्ष, इन्द्रिय-गोचर, लौकिक बातों में भी यह नियम लागू होता है तो सूक्ष्म, परोक्ष, इन्द्रिय-अगोचर, अलौकिक बात में क्यों लागू न होगा? इसका सीखना तो और भी कठिन है । अत: भो जिज्ञासु ! यदि धर्म का प्रयोजन व उसकी महिमा का ज्ञान करना है तो धैर्यपूर्वक वर्षों तक सुनना होगा, शांत भाव से सुनना होगा और पक्षपात व अपनी पूर्व की धारणा को दबाकर सुनना होगा ।