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  • १.१.४ विवेचन के दोष

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    ४. विवेचन के दोष - तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता । अर्थात् यदि कोई अनुभवी ज्ञानी भी मिला और सरल भाषा में समझाना भी चाहा तो भी अभ्‍यास न होने के कारण या पढ़ाने का ठीक ठीक ढंग न आने के कारण या पर्याप्‍त समय न होने के कारण क्रम पूर्वक विवेचन कर न पाया, क्‍योंकि उस धर्म का स्‍वरूप बहुत विस्‍तृत है, जो थोड़े समय में या थोड़े दिनों में ठीक-ठीक हृदयंगत कराया जाना शक्‍य नहीं है । भले ही वह स्‍वयं उसे ठीक-समझता हो, पर समझने और समझाने में अंतर है । समझा एक समय में जा सकता है और समझाया जा सकता है क्रमपूर्वक काफी लम्‍बे समय में । समझाने के लिये ‘क’ से प्रारम्‍भ करके ‘ह’ तक क्रमपूर्वक धीरे-धीरे चलना होता है, समझने वाले की पकड़ के अनुसार । यदि जल्‍दी करेगा तो उसका प्रयास विफल हो जायेगा । क्‍योंकि अनभ्‍यस्‍त श्रोता बेचारा इतनी जल्‍दी पकड़ने में समर्थ न हो सकेगा । इसलिेये इतने झंझट से बचने के लिये, तथा श्रोता समझता है या नहीं इस बात की परवाह किये बिना अधिकतर वक्‍ता, अपनी रूचि के अनुसार पूरे विस्‍तार में से बीच-बीच के कुछ विषयों का विवेचन कर जाते हैं और श्रोताओं के मुख से निकली वाह-वाह से तृप्‍त होकर चले जाते हैं । श्रोता के कल्‍याण की भावना नहीं है उन्‍हें, है केवल इस ‘वाह-वाह’ की । क्‍योंकि इस प्रकार सब कुछ सुन लेने पर भी वह तो रह जाता है कोरा का कोरा । उस बेचारे का दोष भी क्‍या है ? कहीं-कहीं के टूटे हुए वाक्‍यों या प्रकरणों से अभिप्राय का ग्रहण हो भी कैसे सकता है ?

          और यदि बुद्धि तीव्र है श्रोता की तो इस अक्रमिक वि‍वेचन को पकड़ तो लेगा पर वह खण्डित पकड़ उसके किसी काम न आ सकेगी । उल्‍टा उसमें कुछ पक्षपात उत्‍पन्‍न कर देगी, उन प्रकरणों का, जिन्‍हें कि वह पकड़ पाया है और वह द्वेषवश काट करने लगेगा उन प्रकरणों की, जिन्‍हें कि वह या तो सुनने नहीं पाया, और यदि सुना भी हो तो पूर्वोत्‍तर मेल न बैठने के कारण एक दूसरे के सहवर्तीपनको जान नहीं पाया । दोनों को पृथक-पृथक अवसरों पर लागू करने लगा और प्रत्‍येक अवसर पर दूसरे का मेल न बैठने के कारण काट करने लगा उसकी । इस प्रकार कल्‍याण की बजाय कर बैठा अकल्‍याण; हित की बजाय कर बैठा अहित, प्रेम की बजाय कर बैठा द्वेष ।

          अथवा यदि सौभाग्‍यवश कोई अनुभवी वक्‍ता भी मिला और क्रमपूर्वक विवेचन भी करने लगा, तो श्रोता को बाधा हो गई । अधिक समय तक सुनने की क्षमता न होने के कारण या परिस्थितिवश प्रतिदिन न सुनने के कारण या अपने किसी पक्षपात के कारण किसी श्रोता ने सुन लिया उस संपूर्ण विवेचन का एक भाग और किसी ने सुन लिया उसका दूसरा भाग । फल क्‍या हुआ? वही जो कि अक्रमिक विवेचन में बताया गया । अन्‍तर केवल इतना ही है कि वहाँ वक्‍ता में अक्रमिकता थी और यहाँ है श्रोता में । वहाँ वक्‍ता दोष था और यहाँ है श्रोता का । परन्‍तु फल वही निकला पक्षपात, वाद-विवाद तथा अहित ।


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