(भारत के सुप्रसिद्ध चिन्तक व हिन्दी साहित्यकार श्री जैनेन्द्र कुमार देहली)
सब प्राणियों में मनुष्य की यह विशेषता है कि वह जीना ही नहीं चाहता, जानना भी चाहता है । असल में रहने और जीनें में यही अन्तर है । रहते हम विवशता से हैं । विचार-विवेक के साथ रहने का आरम्भ होता है कि तभी जीवन का सच्चा अर्थ भी आरम्भ होता है । स्वतन्त्रताका प्रारम्भ भी यही है । अर्थात् विचार-विवेक स्वाधीन जीवन के अविभाज्य अंग हैं । विचार-हीनता से मनुष्य, मनुष्यता से पशुता में आ गिरता है ।
किन्तु विचार की मर्यादा है । वह द्वैत को जन्म देता है, उसे लांघ नहीं सकता । जीवन के सम्बन्ध में भी उठकर धारा के मध्यसे विचार इस या उस तट की और बढ़ने को बाध्य है । नदी में पानी हो तो दो तट हो ही जाते हैं, वैसे ही विचार में यदि सत्य हो तो तट दो बन ही जाने वाले हैं । जड़-चेतन, कर्म-धर्म, भौतिक-आध्यात्मिक, ये ही वे तट हैं ।
धर्म और कर्म के बीच सदा तनाव रहा है । धर्म यहाँ तक गया कि पाप को कर्म की संज्ञा दे दी और मुक्ति में उस कर्म को ही बाधा और बन्धन बताया । उसी तरह कर्मवादियों ने धर्म को वहम कहा और उन्नतिमें उसे ही बाधा ओर बन्धन के रूप में दिखलाया । अध्यात्मवाद और भौतिकवाद, इस तरह परस्पर विलग और विमुख बने रहे हैं । धर्म और अध्यात्म के वाद ने निवृत्ति पर और अकर्म पर बल दिया है, उसके विरोध में प्रवृत्ति और पदार्थ की उन्नति ने सदा कर्म के आरम्भ-समारम्भ पर जोर डाला है । इस विवाद में से अधिकांश विघटन और वितण्डा ही फलित हुए हैं, जिज्ञासुता नहीं बढ़ी है, न किसी आत्मोत्कर्ष की अनुभूति ही हो पाई है ।
आज की मन: स्थिति यह है कि प्रचलित और अनिवार्य इन दोनों तटों को परस्पर की विमुखता से अधिक सम्मुखता में देखा जाए और समन्वयपूर्वक जीवन को दोनों से मुक्त अथवा युक्त बनाने का यत्न किया जाए । जीवन अपनी स्थिति और गति के लिए दोनों तटों का निर्वाह करता और दोनों को ही स्पर्श करता हुआ प्रवाहित रहता है ।
मुझे प्रसन्नता है कि ब्रह्मचारी श्री जिनेन्द्र कुमार जी का यह ग्रन्थ ‘शान्तिपथ-प्रदर्शन’ जीवन को धर्म-तत्व के नाम पर किसी ऐकान्तिक व्याख्या की ओर नहीं खेंचता है, अपितु तत्वका जीवन के साथ मेल साधने में योग देता है । अपने अमुक मन्तव्य को, आवश्यकता से अधिक उस पर बल डालकर, मतवादी और साम्प्रदायिक भी बना दिया जा सकता है । उससे असहिष्णुता और जड़ता पैदा होती है एवं आत्म-चैतन्य पर क्षति आती है । प्रस्तुत ग्रन्थ में वह दोष नहीं है । आधार उसकी रचना में जैन शब्दावली का लिया गया है और तत्व निरूपण में भी जैनतत्ववाद की भूमिका है । किन्तु पारिभाषिक भाषा का जीवनानुभव से मेल बैठाकर रचनाकार ने ग्रन्थ को पन्थगत से अधिक जीवनगत बना दिया है । इन गुणों से यह ग्रन्थ यदि जैनों के लिए विशेष, तो सामान्यतया हरेक के लिए उपादेय बन गया है ।
मानों ग्रन्थकार ने अपनी ओर से ही साम्प्रदायिक अभिनिवेशों का ध्यान रखा है और उन्हें उद्दीपन देने से बचाया है । शब्द की इयत्ता से अधिक सूचकता की ओर उनका संकेत रहा है । इस प्रकार अन्यान्य मतवादों के साथ जैन मत के संगम को यह ग्रन्थ सुगम कर देता है । आत्मा और पुद्गल जैन, विचार में ये दो ही प्रधान तत्व हैं । आत्मा शुद्ध परमात्मा है, और कर्म शुद्ध पुद्गल है । इस तरह पर-तत्व जैन विचार क्रम से नितान्त उत्तीर्ण और मुक्त है । किन्तु ब्रह्मवादी के परब्रह्म और ‘एकं ब्रह्म दितीयो नास्ति’ को भी ग्रन्थकार ने परमानन्द के भाव के साथ अपना लिया है और अपनी भाषा में समा लिया है । सर्व धर्म-समभाव की यही भूमिका है ।
आज के दिन अहिंसा का प्रश्न भी तरह-तरह से लोगों को विकल कर रहा मालूम होता है । राष्ट्र–संघर्ष-की अवस्था में आसानी से हिंसा-अहिंसा के प्रश्नको उलझा और सुलझा लिया जा सकता है । इस जगह पर धर्म-विचारकी दृष्टिसे बड़ी सावधानताकी आवश्यकता है । स्पष्ट है कि हिंसासे परिपूर्ण मुक्ति संदेहावस्थामें अकल्पनीय है । इसीसे अहिंसा परम धर्म मानना होता है और हिंसाकी अपरिहार्यताको लेकर उस सम्बन्धमें भ्रम उत्पन्न नहीं किया जा सकता । प्रस्तुत ग्रन्थमें उस सावधानताके लक्षण दिखाई देते हैं ।
सत्यका तत्व उससे भी जटिल है और नाना प्रश्नों को जन्म देता है । उस सम्बन्ध में ग्रन्थकारका यह वचन मार्मिक है कि ‘‘स्वपरहित का अभिप्राय रखकर की जाने वाली क्रिया सत्य है ।’’ दूसरे शब्दों में सत्य क्रियमाण है, स्थिर ज्ञानस्थ वह नहीं है । यह भी उसमें गर्भित है कि वह क्रियात्मकसे अधिक अभिप्रयात्मक या भावात्मक है । अत: मूलत: वह सत्य स्वपरहित-मूलक हो जाता है । इस पद्धति से सत्यको अमुक मत तभा मंतव्यसे हटाकर स्वरपरहितके अभिप्रायसे जोड़ देना मैं परम हितकारी मानता हूँ । धर्मको यदि तत्ववादकी चट्टानसे टकराकर टूटना नहीं है, बल्कि जीवनको प्रशस्त और उज्जवल बनानेमें लगता है तो उसके अभिप्राय और क्रियाके शोधनका दायित्व वक्ता और व्याख्याता पर आता है और जिनेन्द्रजी इस सम्बन्धमें पर्याप्त प्रबुद्ध रहे हैं ।
कुल मिलाकर इस ग्रन्थ और इसके ग्रन्थकारका मैं अभिनंदन करता हूँ । जैनों में साम्प्रदायिक मतवाद एवं तत्ववादका साहित्य तो मिलता रहा है, उस सबका जीवन क्रमके साथ मेल बैठाकर प्रकटाने वाला साहित्य अधिक देखनेमें नहीं आता । इस ग्रन्थकी गणना उसमेंकी जा सकती है और मुझ जैसेएक जैनके लिये यह परम हर्षका विषय है ।
२५-१-६३ -जैनेन्द्र कुमार