Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • जैनेन्द्र प्रमाण कोष की रचना

       (0 reviews)

    admin

    रचयिता का चमत्कार

    जैनेन्द्र प्रमाण कोष

    की रचना

     

    “जैनेन्द्र सिद्धांत कोश” के रचयिता तथा संपादक श्री जिनेन्द्र वर्णी का जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० श्री जयभगवान् जी जैन एडवोकेट के घर हुआ | केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्‍त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया | सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रूचि नहीं थी | अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता–श्री का प्रवचन सुनने से आपका हृदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड़ गया | पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान तथा शांति-परिणामी स्व० पं० रूपचन्द्र जी गार्गीय की प्रेरणा से आपने शास्त्र-स्वाध्याय प्रारम्भ की और सन् १९५८ तक सकल जैन-वांग्मय पढ़ डाला | जो कुछ पढ़ते थे उसके सकल आवश्यक सन्दर्भ रजिस्‍ट्रों में लिखते जाते थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गये |

          स्वाध्याय के फलस्वरूप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा | अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपांत अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया | घर छोड़कर मंदिर जी के कमरे में अकेले रहने लगे | १३-१४ घंटे प्रतिदिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीने में पूरी हो गई | सन्दर्भों का संग्रह अब की बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्टरों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षकों में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे | सन् १९५९ में जब यह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पास लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया |

    परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थ के रूप में लिपिबद्ध करना प्रारंभ कर दिया, और १९६० में ‘जिनेन्द्र प्रमाण कोष’ के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शांति-पथ प्रदर्शन के प्रथम तथा द्वितीय संस्करणों में अंकित हुआ दिखाई देता है |

          स्व. पं. रूपचंदजी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में ‘जैनेन्द्र प्रमाण कोष’ की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मंत्री श्री लक्ष्मीचंद जी को दिखाई | उससे प्रभावित होकर उन्होंने तुरंत उसे प्रकाशन के लिए माँगा | परन्तु क्योंकि यह कृति वर्णी जी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमियां थीं, इसलिए उन्होंने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया, और पंडित जी के आग्रह से वे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रूपांतरण करने लगे | परन्तु अपनी ध्यान समाधि की शांत साधना में विघ्न समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम को बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया | पण्डित जी की प्रेरणायें बराबर चलती रहीं और सन् १९६४ में आपको पुन: यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा । पहले वाले रूपान्‍तरण से आप अब सन्‍तुष्‍ट नहीं थे, इसलिए इसका त्‍याग करके दूसरी बार पुन: उसका रूपान्‍तरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्‍दों तथा विषयों को वृद्धि के साथ-साथ सम्‍पादन-विधि में भी परिवर्तन किया । जैनेन्‍द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रूपान्‍तरण ही आज ‘जैनेन्‍द्र सिद्धान्‍त कोष’ के नाम से प्रसिद्ध है ।

          इ‍सलिये ‘जैनेन्‍द्र सिद्धान्‍त कोष’ के नामसे प्रकाशित जो अत्‍यन्‍त परिष्‍कृत कृति आज हमारे हाथों में विद्यमान है, वह इसका प्रथम रूप नहीं है । इससे पहले भी यह किसी न किसी रूपमें पाँच बार लिखी जा चुकी है । इसका यह अंतिम रूप छटी बार लिखा गया है । इसका प्रथम रूप ४-५ रजिस्‍ट्रों में जो सन्‍दर्भ संग्रह किया गया था, वह था । द्वितीय रूप सन्‍दर्भ संग्रहके खुले परचोंका विशाल ढेर था । तृतीय रूप ‘जैनेन्‍द्र प्रमाण कोष’ नाम वाले वे आठ मोटे-मोटे खण्‍ड थे जो कि इन परचों को व्‍यवस्थित करने के लिए लिखे गये थे । इसका चौथा रूप वह रूपान्‍तरण था जिसका काम बीच में ही स्‍थगित कर दिया गया था । इसका पाँचवा रूप वे कई हजार स्लिपें थीं जो कि जैनेन्‍द्र प्रमाण कोष तथा इस रूपान्‍तरण के आधारपर वर्णी जी ने ६-७ महीने लगाकर तैयार की थीं तथा जिनके आधार पर कि अन्तिम रूपान्‍तरण की लिपि तैयार करनी इष्‍ट थी । इसका छठा रूप यह है जो कि ‘जैनेन्‍द्र सिद्धान्‍त कोष’ के नाम से आज हमारे सामने विद्यमान है ।

          यह एक आश्‍चर्य है कि इतनी रूग्‍ण काया को लेकर भी वर्णी जी ने कोष के संकलन सम्‍पादन तथा लेखन का यह सारा कार्य अकेले सम्‍पन्‍न किया है । सन् १९६४ में अन्तिम लिपि लिखते समय अवश्‍य आपको अपनी शिष्‍या ब्र० कुमारी कौशल का कुछ सह्योग प्राप्‍त हुआ था, अन्‍यथा सन् १९४९ से सन् १९६४ तक १७ वर्षके लम्‍बे कालमें आपको तृण मात्र भी सहायता इस सन्‍दर्भ में कहीं से प्राप्‍त नहीं हुई । यहाँ तक कि कागज जुटाना उसे काटना तथा जिल्‍द बनाना आदि का काम भी आपने अपने हाथ से ही किया ।

          यह केवल उनके हृदय में स्थित सरस्‍वती माता की भक्ति का प्रताप है कि एक असम्‍भव कार्य भी सहज सम्‍भव हो गया और एक ऐसे व्‍यक्तिके हाथसे सम्‍भव हो गया जिसकी क्षीण काया को देखकर कोई यह विश्‍वास नहीं कर सकता कि इसके द्वारा कभी ऐसा अनहोना कार्य सम्‍पन्‍न हुआ होगा । भक्ति में महान शक्ति है, उसके द्वारा पहाड़ भी तोड़े जा सकते हैं । यही कारण है कि वर्णी जी अपने इतने महान कार्यका कर्तृत्‍व सदा माता सरस्‍वती के चरणों में समिर्पित करते आए हैं, और कोष को सदा उसी की कृति कहते आये हैं । यह है भक्ति तथा कृतज्ञता का आदर्श ।

          यह कोष साधारण शब्‍द-कोष जैसा कुछ न होकर अपनी जातिका स्‍वयं है । शब्‍दार्थ के अतिरिक्‍त शीर्षकों उपशीर्षकों तथा अवान्‍तर शीर्षकों में विभक्‍त उसकी वे समस्‍त सूचनायें इसमें निबद्ध हैं, जिनकी कि किसी भी प्रवक्‍ता लेखक अथवा संधाता को आवश्‍यकता पड़ती है । शब्‍द का अर्थ, उसके भेद प्रभेद, कार्य कारण भाव, हेयोपादेयता, निश्‍चय व्‍यवहार तथा उसकी मुख्‍यता गौणता, शंका समाधान, समन्‍वय आदि कोई ऐसा विकल्‍प नहीं जो कि इसमें सहज उपलब्‍ध न हो सके । विशेषता यह कि इसमें रचयिताने अपनी ओर से एक शब्‍द भी न लिखकर प्रत्‍येक विकल्‍प के अन्‍तर्गत अनेक शास्‍त्रोंसे संकलित आचार्योंके मूल वाक्‍य निबद्ध किए हैं । इसलिए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिसके हाथ में यह महान् कृति है उसके हाथ में सकल जैन-वांग्‍मय है ।

     -सुरेशकुमार जैन गार्गीय


    User Feedback

    Join the conversation

    You can post now and register later. If you have an account, sign in now to post with your account.

    Guest

×
×
  • Create New...