६. महाविघ्न पक्षपात – धर्म के प्रयोजन व महिमा को जानने या सीखने सम्बंधी बात चलती है, अर्थात़ धर्म सम्बंधी शिक्षण की बात है । वास्तव में यह जो चलता है, इसे प्रवचन न कहकर शिक्षणक्रम नाम देना अधिक उपयुक्त है । किसी भी बात को सीखने या पढ़ने में क्या-क्या बाधक कारण होते हैं उनकी बात है । पाँच कारण बताये गये थे । उनमें से चार की व्याख्या हो चुकी, जिस पर से यह निर्णय कराया गया कि यदि धर्म का स्वरूप जानना है और उससे कुछ काम लेना है तो १- उसके प्रति बहुमान व उत्साह उत्पन्न कर, २-निर्णय करके यथार्थ वक्ता से उसे सुन, ३- अक्रमरूप न सुनकर ‘क’ से ‘ह’ तक क्रम पूर्वक सुन, ४- धैर्य धारकर बिना चूक प्रतिदिन महीनों तक सुन ।
अब पाँचवें बाधक कारण की बात चलती है, वह है वक्ता व श्रोता का पक्षपात । वास्तव में यह पक्षपात बहुत घातक है । इस मार्ग में साधारणत: यह उत्पन्न हुये बिना नहीं रहता । कारण पहले बताया जा चुका है । पूरा वक्तव्य क्रमपूर्वक न सुनना ही उस पक्षपात का मुख्य कारण है । थोड़ा जानकर, ‘मैं बहुत कुछ जान गया हूँ’ ऐसा अभिमान अल्पज्ञ जीवों में स्वभावत: उत्पन्न हो जाता है । जो आगे जानने की उसे आज्ञा नहीं देता । वह ‘जो मैंने जाना सो ठीक है, तथा जो दूसरे ने जाना सो झूठ है ।’ और दूसरा भी ‘जो मैंने जाना सो ठीक तथा जो आपने जाना सो झूठ’ एक इसी अभिप्राय को धार परस्पर लड़ने लगते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं, वाद-विवाद करते हैं । उस वाद-विवाद को सुनकर कुछ उसकी रूचि के अनुकूल व्यक्ति उसके पक्ष का पोषण करने लगते हैं तथा दूसरे की रूचि के अनुकूल व्यक्ति दूसरे के पक्ष का । उसके अतिरिक्त कुछ साधारण व भोले व्यक्ति भी जो उसकी बात को सुनते हैं, उसके अनुयायी बन जाते हैं और जो दूसरे की बात को सुनते हैं, वे दूसरे के बिना इस बात को जाने कि इन दोनों में-से कौन क्या कह रहा है? और इस प्रकार निर्माण हो जाता है, सम्प्रदायों का, जो वक्ता की मृत्यु के पश्चात् भी परस्पर लड़ने में ही अपना गौरव समझते रहते हैं और हित का मार्ग न स्वयं खोज सकते हैं और न दूसरों को दर्शा सकते हैं । मजे की बात यह है कि यह सब लड़ाई होती है धर्म के नाम पर ।
यह दुष्ट पक्षपात कई जाति का होता है । उनमें से मुख्य दो जाति हैं- एक अभिप्राय का पक्षपात तथा दूसरा शब्द का पक्षपात । अभिप्राय का पक्षपात तो स्वयं वक्ता तथा उसके श्रोता दोनों के लिये घातक है और शब्द का पक्षपात केवल श्रोताओं के लिए । क्योंकि इस पक्षपात में वक्ता का अपना अभिप्राय तो ठीक रहता है, पर बिना शब्दों में प्रगट हुए श्रोता बेचारा कैसे जान सकेगा उसके अभिप्राय को? अत: वह अभिप्राय में भी पक्षपात धारण करके, स्वयं वक्ता के अंदर में पड़े हुये अनुक्त अभिप्राय का भी विरोध करने लगता है । यदि विषय को पूर्ण सुन व समझ लिया जाये तो कोई भी विरोधी अभिप्राय शेष न रह जाने के कारण पक्षपात को अवकाश नहीं मिल सकता । इस पक्षपात का दूसरा कारण है श्रोता की अयोग्यता, उसकी स्मरण शक्ति की हीनता, जिसके कारण कि सारी बात सुन लेने पर भी बीच-बीच में कुछ-कुछ बात तो याद रह जाती है उसे और कुछ-कुछ भूल जाता है वह और इस प्रकार एक अखंडित धारावाही अभिप्राय खण्डित हो जाता है, उसके ज्ञान में । फल वही होता है जो कि अक्रम रूप से सुनने का है । पक्षपात का तीसरा कारण है व्यक्ति-विशेष के कुल में परम्परा से चली आई कोई मान्यता या अभिप्राय । इस कारण का तो कोई प्रतिकार ही नहीं है । भाग्य ही कदाचित् प्रतिकार बन जाये तथा अन्य भी अनेकों कारण हैं, जिनका विशेष विस्तार करना यहाँ ठीक सा नहीं लगता ।
हमें तो यह जानना है कि निज कल्याणार्थ धर्म का स्वरूप कैसे समझें? धर्म का स्वरूप जानने से पहले इस पक्षपात को तिलांजली देकर यह निश्चय करना चाहिये कि धर्म सम्प्रदाय की चार दीवारी से दूर किसी स्वतंत्र दृष्टि में उत्पन्न होता है, स्वतंत्र वातावरण में पलता है व स्वतंत्र वातावरण में ही फल देता है । यद्यपि सम्प्रदायों को आज धर्म के नाम से पुकारा जाता है परन्तु वास्तव में यह भ्रम है । पक्षपात का विषैला फल है । सम्प्रदाय कोई भी क्यों न हो धर्म नहीं हो सकता । सम्प्रदाय पक्षपात को कहते हैं और धर्म स्वतंत्र अभिप्राय को कहते हैं जिसे कोई भी मनुष्य, किसी भी सम्प्रदाय में उत्पन्न हुआ, छोटा या बड़ा, गरीब या अमीर, यहाँ तक कि तिर्यंच भी, सब धारण कर सकते हैं; जबकि सम्प्रदाय इसमें अपनी टांग अड़ाकर, किसी को धर्म पालन करने का अधिकार देता है और किसी को नहीं देता । आज के जैन-सम्प्रदाय का धर्म भी वास्तव में धर्म नहीं है, सम्प्रदाय है, एक पक्षपात है । इसके अधीन क्रियाओं में ही कूपमण्डूक बनकर बर्तने में कोई हित नजर नहीं आता ।
पहले कभी नहीं सुनी होगी ऐसी बात और इसलिये कुछ क्षोभ भी सम्भवत: आ गया हो । धारणा-पर ऐसी सीधी व कड़ी चोट कैसे सहन की जा सकती है? यह धर्म तो सर्वोच्च धर्म है न जगत का ? परन्तु क्षोभ की बात नहीं है भाई ! शान्त हो । तेरा यह क्षोभ ही तो वह पक्षपात है, साम्प्रदायिक पक्षपात जिसका निषेध कराया जा रहा है । इस क्षोभ से ही तो परीक्षा हो रही है तेरे अभिप्राय की । क्षोभ को दबा, आगे चलकर स्वयं समझ जायेगा कि कितना सार था तेरे इस क्षोभ में । अब जरा विचार कर कि क्या धर्म ही कहीं उंचा या नीचा होता है ? बड़ा और छोटा होता है ? अच्छा या बुरा होता है ? धर्म तो धर्म होता है उसका क्या उँचा-नीचापना ? उसका क्या जैन व अजैनपना ? क्या वैदिकपना व मुसलमानपना ? धर्म तो धर्म है, जिसने जीवन में उतारा उसे हितकारक ही है, जैसा कि आगे के प्रकरणों से स्पष्ट हो जायेगा । उस हित को जानने के लिये कुछ शान्तचित्त होकर सुन । पक्षपात को भूल जा थोड़ी देर के लिये ।
तेरे क्षोभ के निवारणार्थ यहाँ इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश डाल देना उचित समझता हूँ । किसी मार्ग विशेष पर श्रद्धा न करने का नाम सम्प्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय तो अन्तरंग के किसी विशेष अभिप्राय का नाम है, जिसके कारण कि दूसरों की धारणाओं के प्रति कुछ अदेखसकासा भाव प्रकट होने लगता है । इस अभिप्राय को परीक्षा करके पकड़ा जा सकता है, शब्दों में बताया नहीं जा सकता । कल्पना कीजिये कि आज मैं यहाँ इस गद्दी पर कोई ब्रह्माद्वैतवाद का शास्त्र ले बैठूं और उसके आधार पर आपको कुछ सुनाना चाहूँ, तो बताइये आपकी अन्तरवृत्ति क्या होगी ? क्या आप उसे भी इसी प्रकार शान्ति व रूचि पूर्वक सुनना चाहेंगे, जिस प्रकार कि इसे सुन रहे हैं? सम्भवत: नहीं । यदि मुझसे लड़ने न लगें तो, या तो यहाँ से उठकर चले जाओगे और या बैठकर चुपचाप चर्चा करने लगोगे या ऊँघने लगोगे और या अंदर ही अंदर कुछ कुढ़ने लगोगे, ‘‘सुनने आये थे जिनवाणी और सुनने बैठ गये अन्य मत की कथनी ।’’ बस इसी भाव का नाम है साम्प्रदायिकता ।
इस भाव का आधार है गुरू का पक्षपात अर्थात् जिनवाणि की बात ठीक है, क्योंकि मेरे गुरू ने कहीं है और यह बात झूठ है क्योंकि अन्य के गुरू ने कहीं है । यदि जिनवाणी की बात को भी युक्ति व तर्क द्वारा स्वीकार करने का अभ्यास किया होता, तो यहाँ भी उसी अभ्यास का प्रयोग करते । यदि कुछ बात ठीक बैठ जाती तो स्वीकार कर लेते, नहीं तो नहीं । इसमें क्षोभ की क्या बात थी? बाजार में जायें, अनेक दुकानदार आपको अपनी और बुलायें, आप सबकी ही तो सुन लेते हैं । किसी से क्षोभ करने का तो प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता । किसी से सौदा पटा तो ले लिया, नहीं पटा तो आगे चल दिये । इसी प्रकार यहाँ क्यों नहीं होता ?
बस इस अदेखसके भाव को टालने की बात कहीं जा रही है । मार्ग के प्रति तेरी जो श्रद्धा है, उसका निषेध नहीं किया जा रहा है । युक्ति व तर्कपूर्वक समझने का प्रयास हो तो सब बातों में से तथ्य निकाला जा सकता है । भूल भी कदापि नहीं हो सकती । यदि श्रद्धान सच्चा है तो उसमें बाधा भी नहीं आ सकती, सुनने से डर क्यों लगता है? परन्तु ‘क्योंकि मेरे गुरू ने कहा है इसलिये सत्य है’ तेरे अपने कल्याणार्थ इस बुद्धि का निषेध किया जा रहा है । वैज्ञानिकों का यह मार्ग नहीं है । वे अपने गुरू की बात को भी बिना युक्ति के स्वीकार नहीं करते । यदि अनुसंधान या अनुभव में कोई अंतर पड़ता प्रतीत होता है तो युक्ति द्वारा ग्रहण की हुई को भी नहीं मानते हैं । बस तथ्य की यथार्थता को पकड़ना है । तो इसी प्रकार करना होगा । गुरू के पक्षपात से सत्य का निर्णय ही न हो सकेगा, अनुभव तो दूर की बात है । अपनी दही को मीठी बताने का नाम सच्ची श्रद्धा नहीं है । वास्तव में मीठी हो तथा उसके मिठास को चखा हो, तब उसे मीठी कहना सच्ची श्रद्धा है ।
देख एक दृष्टांत देता हूँ । एक जौहरी था उसकी आयु पूर्ण हो गई । पुत्र था, तो पर निखट्टू। पिताजी की मृत्यु के पश्चात् अलमारी खोली और कुछ जेवर निकालकर ले गया अपने चाचा के पास । ‘चचाजी, इन्हें बिकवा दीजिये ।’ चचा भी जौहरी था, सब कुछ समझ गया । कहने लगा बेटा ! आज न बेचो इन्हें, बाजार में ग्राहक नहीं हैं । बहुत कम दाम उठेंगे । जाओ जहाँ से लाये हो वहीं रख आओ इन्हें और मेरी दुकान पर आकर बैठा करो, घर का खर्चा दुकान से उठा लिया करो । वैसा ही किया और कुछ महीनों के पश्चात् पूरा जौहरी बन गया वह । अब चाचा ने कहा, ‘कि बेटा ! जाओ आज ले आओ वे जेवर । आज ग्राहक है बाजार में ।’ बेटा तुरन्त गया, अलमारी खोली और जेवर के डब्बे उठाने लगा । पर हैं ! यह क्या? एक डब्बा उठाया, रख दिया वापिस; दूसरा उठाया रख दिया वापिस; और इसी तरह तीसरा, चौथा आदि सब डब्बे ज्यों के त्यों अलमारी में रख दिये, अलमारी बन्द की और चला आया खाली हाथ दुकान पर, निराशा में गर्दन लटकाये, विकल्प सागर में डूबा, वह युवक । ‘‘जेवर नहीं लाये बेटा?’’ चाचा ने प्रश्न किया और एक धीमी सी, लज्जित सी आवाज निकली युवक के कण्ठ से ‘‘क्षमा करो चाचा, भूला था भ्रम था । वह सब तो कांच है, मैं हीरे समझ बैठा था उन्हें अज्ञानवश । आज आप से ज्ञान पाकर आँखें खुल गई हैं, मेरी |’’ बस इसी प्रकार तेरे भ्रम की, पक्षपात की सत्ता उसी समय तक है, जब तक कि धैर्यपूर्वक कुछ महीनों-तक बराबर उस विशाल तत्व को सुन व समझ नहीं लेता उस सम्पूर्ण को यथार्थ रीत्या समझ लेने के पश्चात् तू स्वयं लज्जित हो जायेगा, हंसेगा अपने ऊपर ।