२. अध्ययन के विघ्न - न समझने के कारण कई हैं । वे सब कारण टल जायें तो क्यों न समझेगा ? पहला कारण है तेरा अपना प्रमाद, जिसके कारण कि तू स्वयं करता हुआ भी, अंदर में उसे कुछ फोकट की व बेकार की वस्तु समझे हुए है, जिसके कारण कि तू इसके समझने में उपयोग नहीं लगाता; केवल कानों में शब्द पड़ने मात्र को सुनना समझता है, वचनों के द्वारा बोलने मात्र को पढ़ना समझता है और आँख के द्वारा देखने मात्र को दर्शन समझता है । दूसरा कारण है वक्ता की अप्रमाणिकता । तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता । चौथा कारण है विवेचन क्रम का लम्बा विस्तार जो कि एक दो दिन में नहीं बल्कि महीनों तक बराबर कहते रहने पर ही पूरा होना संभव है । और पाँचवां कारण है श्रोता का पक्षपात ।
पहिला कारण तो तू स्वयं ही है । जिसके सम्बंध में कि ऊपर बता दिया गया है । यदि इस बात को फोकट की न समझकर वास्तव में कुछ हित की समझने लगे, कानों में शब्द पड़ने मात्र से संतुष्ट न होकर वक्ता के या उपदेष्टा के या शास्त्रों के उल्लेख के अभिप्राय को समझने का प्रयत्न करने लगे, तो धर्म की महिमा अवश्य समझ में आ जावे । शब्द सुने जा सकते हैं पर अभिप्राय नहीं । वह वास्तव में रहस्यात्मक होता है, परोक्ष होने के कारण और इसीलिये उन–उन वाचक शब्दों का ठीक वाच्य नहीं बन रहा है । क्योंकि किसी भी शब्द को सुनकर, उसका अभिप्राय आप तभी तो समझ सकते हैं, जबकि उस पदार्थ को, जिसकी ओर कि वह शब्द संकेत कर रहा है, आपने कभी छूकर देखा हो, सूँघ कर देखा हो, आँख से देखा हो अथवा चखकर देखा हो । आज मैं आपके सामने अमरीका में पैदा होने वाले किसी फल का नाम लेने लगूं तो आप क्या समझेंगे उसके सम्बंध में ? शब्द कानों में पड़ जायेगा और कुछ नहीं । इसी प्रकार धर्म का रहस्य बताने वाले शब्दों को सुनकर क्या समझेंगे आप ? जब तक कि पहले उन विषयों को, जिनके प्रति कि वे शब्द संकेत कर रहे हैं, कभी छूकर, सूँघकर, देखकर व चखकर न जाना हो आपने । इसीलिये उपदेश में कहै जाने वाले अथवा शास्त्र में लिखे शब्द ठीक-ठीक अपने अर्थ का प्रतिपादन करने को वास्तव में असमर्थ हैं । वे केवल संकेत कर सकते हैं किसी विशेष दिशा की ओर । यह बता सकते हैं कि अमुक स्थान पर पड़ा है आपका अभीष्ट । यह भी बता सकते हैं, कि वह आपके लिये उपयोगी है कि अनुपयोगी । परंतु वह पदार्थ आपको किसी भी प्रकार दिखा नहीं सकते । हाँ, यदि शब्द के उन संकेतों को धारण करके, आप स्वयं चलकर, उस दिशा में जायें, और उस स्थान पर पहुंचकर स्वयं उसे उपयोगी समझकर चखें, उसका स्वाद लें, किसी भी प्रकार से, तो उस शब्द के रहस्यार्थ को पकड़ अवश्य सकते हैं ।