ओ३म्
प्राक्कथन
प्रस्तुत ग्रन्थ अध्यात्म-विज्ञानसे ओतप्रोत है । अध्यात्म-विज्ञान अत्यन्त परिष्कृत और कोमल रुचि-वाले व्यक्तियों के लिए है । इस विज्ञानके छात्रका मन इतना कोमल होता है कि स्व अथवा परके तनिकसे भी दु:खको देखकर उसे निवारण करने के लिए छटपटाने लगता है । उसे केवल शान्ति की आकांक्षा होती है । लौकिक सुख-भोग वस्तुत: स्थूल रूचिवाले व्यक्तियों को लुभा सकते हैं, कोमल रूचि वालों को नहीं । लौकिक सुख-भोगों के साथ अनिवार्यरूप से लगा रहनेवाला तृष्णा-जनक दु:ख जब किसी ऐसे सूक्ष्म रूचिवाले व्यक्ति को संसार से उदासीन बना देता है, तब ही वह व्यक्ति अध्यात्म–विज्ञान के रहस्य को समझ पाता है, और यह विज्ञान उसी व्यक्ति के लिए कार्यकारी भी हो सकता है । शेष व्यक्तियों में तो इसका पठन-पाठन, मात्र भोग है, योग नहीं- ‘भुक्त्ये न तु मुक्त्ये’ ।
किन्तु ऐसे व्यक्ति मनमें कोमल होनेपर भी अत्यन्त दृढ़ संकल्प-शक्ति के होते हैं । जिन विपत्तियों के ध्यान मात्रसे हम लौकिक व्यक्तियों का मन काँपने लगता है, उन्हीं विपत्तियों का सामाना वह एक शीतल मधुर मुस्कान के साथ किया करते हैं । उनका नारा होता है करेंगे या मरेंगे, ‘कार्य वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्’ । यह मार्ग कोमल-हृदय, परंतु वीर-पुरुषों का है ।
अध्यात्म-विज्ञान जीवन-विज्ञान है । इसमें जीवन की कला निहित है । जीवन का सौम्य विकास इसका प्रयोजन है । जिस प्रकार लौकिक जीवन अर्थात् रहन-सहनका स्तर ऊँचा उठानेके लिए अर्थशास्त्र, भौतिक शास्त्र अथवा रसायन शास्त्र पढ़ा जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवनको ऊँचा उठाने के लिए अध्यात्म-विज्ञान पढ़ा जाना चाहिए । इस विज्ञान की प्रयोगशाला जीवन है । मन, शरीर और वाणी इस विज्ञान की प्रयोगशाला के यन्त्र हैं । यह विज्ञान जीवन को मृत्यु से अमरत्व, अन्धकार से ज्योति और असत् से सत् की ओर ले जाता है । भारत के बालक-बालकको इस विज्ञान के मूल सिद्धान्त पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त होते हैं । वे सिद्धान्त हैं-दया, दान और दमन ।
भौतिक विज्ञान ने हमें जो कुछ दिया उसका विरोध या अनुमोदन करना यहाँ अभिप्रेत नहीं है, परन्तु यह आवश्यक है कि हम उसकी सीमायें समझें । जीवनके उपकरणोंका अर्थात् धन, ऐश्वर्य और शरीर का जीवन से तादात्म्य सम्बन्ध मानना समस्त अनर्थका मूल है । इनमें साधन-साध्य सम्बन्ध हैं, तादात्म्य सम्बन्ध नहीं । विज्ञान ने हमें नये-नये मनोरंजन और यातायात के साधन दिये, तदर्थ विज्ञान का स्वागत है, किन्तु विज्ञान की चकाचौंध में पड़कर अपने को भूल जाने का कोई अधिकार हमें नहीं है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक बीसवीं शती के एक साधक वैज्ञानिक हैं । भारत में अध्यात्म-विज्ञान जानने-वाले पहले बहुत से साधक हुए, परन्तु उनकी परिभाषावली और लेखनशैली हम बीसवीं शतीके लोगों के लिए न उतनी सुगम है और न उतनी आकर्षक । वर्तमान समयमें अध्यात्म-विज्ञान के प्रति अरूचिका यह भी एक कारण है । प्रस्तुत ग्रन्थ निश्चय ही इस अभावकी पूर्ति करेगा ।
रामजस कॉलेज
२५-११-६० -डॉ० दयानन्द भार्गव, एम० ए०